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आचारदिनकर (खण्ड-३)
प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान २२. कन्या २३. तुला एवं २४. कन्या - ये अनुक्रम से चौबीस तीर्थंकरों की मुनिजनों द्वारा बताई गई जन्म-राशि है।
इन राशियों के अनुसार जिनकी नाम राशि जिस तीर्थंकर के समान हो, उसे उन्हीं तीर्थंकरों की प्रतिमा बनवानी चाहिए। चंद्रकांत और सूर्यकांत आदि सभी जाति के रत्नों की प्रतिमा सर्वगुण वाली समझनी चाहिए। स्वर्ण, चाँदी और तांबा - इन धातुओं की प्रतिमा श्रेष्ठ होती है, किन्तु कांसा, सीसा एवं कलाई (रांगा) - इन धातुओं की प्रतिमा कभी भी नहीं बनवानी चाहिए। कुछ आचार्य धातुओं में पीतल की प्रतिमाएँ भी बनवाने के लिए कहते हैं, किन्तु मिश्रधातु (कांसा आदि) की प्रतिमा बनवाने का निषेध है, अतः कितने ही आचार्य पीतल की प्रतिमा बनवाने का निषेध करते हैं। चैत्यालय में काष्ठ की प्रतिमा बनवानी हो, तो श्रीपर्णी, चंदन, बिल्व, कदंब, लालचंदन, पियाल, उदुम्बर और क्वचित् शीशम - इन वृक्षों की लकड़ी की प्रतिमा बनाना उत्तम है, शेष वृक्षों की लकड़ी की प्रतिमा बनवाना वर्जित है। अपवित्र स्थान में उत्पन्न, चीरा, मसा, अथवा गाँठ आदि दोष वाले पत्थर का अथवा काष्ठ का प्रतिमा बनवाने में उपयोग नहीं करें, परन्तु दोषरहित, मजबूत, सफेद, पीला, लाल, कृष्ण
और हरे वर्ण का पत्थर प्रतिमा बनवाने में लें। लेप्य से निर्मित बिम्बकार्य में शुद्ध भूमि पर पड़ा हुआ गोबर, शुद्ध भूमि से निकली हुई सुगंधित एवं नानाविध वर्णों वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। ऊपर बताए गए वृक्षों में भी, जो प्रतिमा बनवाने के योग्य शाखा हो, दोष से रहित हो और उत्तम भूमि में रही हुई हो, उसे ही लें, अन्यथा न लें।
इस प्रकार निर्मित बिम्ब की प्रतिष्ठा चैत्यगृह में गुण एवं शील-सम्पन्न गुरुओं से कराएं। आचार्यों, उपाध्यायों, प्रतिष्ठा-विधि के सम्यक् ज्ञाता हों - ऐसे मुनियों, जैन ब्राह्मणों एवं क्षुल्लकों द्वारा ही अर्हत्-प्रतिमा की प्रतिष्ठा-विधि करवानी चाहिए। दीक्षा और प्रतिष्ठा-विधि के लिए मूल, पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, हस्त, श्रवण, रेवती, रोहिणी और उत्तरात्रय नक्षत्र श्रेष्ठ कहे गए हैं। धनिष्ठा, पुष्य और मघा नक्षत्र भी प्रतिष्ठा के लिए सौम्य हैं।
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