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आचारदिनकर (खण्ड-३) 8 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक पौष्टिककर्म विधान
उक्त सात दोषों का त्याग करके इन नक्षत्रों में प्रतिष्ठा-विधि करना प्रशंसनीय माना गया है। सिंहस्थ गुरु के वर्ष को छोड़कर तथा मंगलवार को छोड़कर शेष शुभ वर्ष, मास, नक्षत्र, वार (दिन) इन सभी की शुद्धि जिस प्रकार विवाह-कार्य में देखी जाती है, उसी प्रकार प्रतिष्ठा-कार्य में भी देखनी चाहिए। तीर्थंकर परमात्मा के जन्म-नक्षत्र में तथा मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र में प्रतिष्ठा न करें तथा दूसरे ग्रहों से ग्रसित ग्रह, उदित एवं अस्तगत ग्रह एवं क्रूर तथा अग्र आक्रान्त नक्षत्रों का त्याग करें। प्रतिष्ठा कराने वाले का और दीक्षार्थी का गोचर का गुरु शुद्ध हो तथा चन्द्रबल से युक्त हो, उस समय ही प्रतिष्ठा एवं दीक्षा-कार्य करें, प्रतिष्ठा एवं दीक्षा में जन्म का चन्द्र ग्राह्य होता है, अर्थात् जन्म के समय चन्द्र की जो स्थिति थी, उस स्थिति में चन्द्र हो, तो वह भी ग्रहण करने योग्य है।
लग्न की शुद्धि इस प्रकार है - प्रतिष्ठा के समय सूर्य, शनि एवं मंगल तीसरे और छठवें स्थान में, चन्द्रमा दूसरे या तीसरे स्थान में, बुध पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें या दसवें स्थान में हो, तो शुभ होते हैं। गुरु केन्द्र (१, ४, ७, १०) दूसरें, नवें और पाँचवें स्थान में, शुक्र १, ४, ५, ६, १० वें स्थान में और राहु-केतु सहित सर्वग्रह ग्यारहवें स्थान में हों, तो वह लग्न उत्तम माना जाता हैं। यह उत्तम लग्न की स्थिति है।
मध्यम लग्न की स्थिति इस प्रकार है - सूर्य दसवें स्थान में, चन्द्रमा केन्द्र में अर्थात् पहले, चौथे, सातवें या दसवें स्थान में, अथवा छठवें और नवें स्थान में हो, बुध छठवें, सातवें और नवें स्थान में हो, गुरु छठवें स्थान में हो, शुक्र दूसरे या तीसरे स्थान में हो, तो वह प्रतिष्ठा मध्यम फलदायी होती है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, पाँचवें स्थान में, गुरु तीसरे स्थान में, शुक्र छठवे, सातवें या बारहवें स्थान में हो
और शनि पाँचवें और दसवें स्थान में हो - इस प्रकार की ग्रह-स्थिति को विद्वानों ने प्रतिष्ठा में विमध्य कही है, शेष सभी स्थानों में ग्रहों की स्थिति वर्ण्य मानी गई है। प्रथम तथा सप्तम भवन में चंद्रयुक्त केतु हो, तो वह लग्न भी प्रतिष्ठा हेतु वर्जित माना गया हैं। तीसरे
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