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आचारदिनकर (खण्ड-३) 184 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान कार्तिकेय की प्रतिष्ठा करें। अनुराधा, तिग्मरूच, हस्त एवं मूल नक्षत्र में दुर्गादि की प्रतिष्ठा करें। गणपति (गणेश), राक्षस, यक्ष, भूत, कामदेव, राहू, सरस्वती आदि की प्रतिष्ठा रेवती नक्षत्र में करें। बुध की प्रतिष्ठा श्रवण नक्षत्र में तथा लोकपालों की प्रतिष्ठा धनिष्ठा (वासव) नक्षत्र में करें तथा शेष देवों की प्रतिष्ठा स्थिर अर्थात् उत्तरात्रय एवं रोहिणी नक्षत्रों में करें। व्यास, वाल्मिकी, अगस्त्य एवं बृहस्पति के अनुसार सप्तऋषि जिस नक्षत्र में गोचर हो, उस-उस समय उन-उन देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए तथा पुष्य नक्षत्र में चंद्र आदि ग्रहों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। सिंह लग्न में सूर्य की, मिथुन लग्न में महादेव की, कन्या लग्न में विष्णु की एवं कुंभ लग्न में ब्रह्मा की, द्विस्वभाव-लग्नों (३, ६, ६, १२) में देवियों की, चर-लग्नों में (१, ४, ७, १०) योगिनियों की एवं स्थिरलग्नों (२, ५, ८, ११) में सभी देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। रवि आदि वारों में की गई प्रतिष्ठा क्रमशः तेजस्विनी, मंगलकारी, अग्निदाह करने वाली, वांछित पूर्ण करने वाली, दृढ़ता देने वाली, शुक्रवार की आनंदप्रद एवं शनिवार की कल्पपर्यन्त निवास करने वाली होती है। केन्द्र एवं त्रिकोण में सद्ग्रह हो एवं तीसरे, छठवें एवं ग्यारहवें स्थान में चंद्र, अर्क (रवि), मंगल एवं शनि ग्रह हो, तो ऐसे लग्न में यदि प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाए, तो वह कर्ता को पुत्र, अर्थ, संपत्ति एवं आरोग्यता प्रदान करने वाली होती है। लग्न में सौम्य ग्रह हो तो मूर्ति उत्कृष्ट पराक्रम को बढाने वाली होती है। छठे भाव को छोड़कर शेष भावों में ग्रहों की इस प्रकार की स्थिति कर्ता के शत्रुओं का विशेष रूप से विनाश करती है।
प्राण प्रतिष्ठा के समय संवत्सर, तिथि, वार गुणयुक्त होने चाहिए तथा योग एवं करण भी प्रकरण के अनुसार प्रशस्त होना चाहिए। सर्वप्रथम नक्षत्रों का फल होता है। इसके पश्चात् मुहूर्त एवं जन्म नक्षत्र का फल और इसके बाद उपग्रह का फल सूर्य के संक्रमण काल में घटित होता हैं। यदि गोचर में चन्द्रबल और लग्नबल का चिन्तन सम्यक् प्रकार से किया जाए तथा अग्नि ग्रहण संस्कार सविधि
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