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आचारदिनकर (खण्ड-३) 185 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान सम्पन्न हो तो यात्रा, विवाह, मूर्ति-प्रवेश, गृहप्रवेश, नवीन वस्त्रधारण तथा देव प्रतिष्ठा आदि कल्याणप्रद रहती है।
प्रतिष्ठा लक्षण निरूपण करते हुए कहते है- कि सपत्नीक यजमान स्वर्ण तथा अन्य रत्नों से वासित एवं सुगंधित जल से सिरसा स्नान करके नाना प्रकार के तुरहि आदि वाद्य यंत्रों की मंगल ध्वनि के साथ पुण्यावाचनपूर्वक वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा पूर्व दिशा में इन्द्र एवं शिव के मंत्रों का तथा दक्षिण दिशा में अग्नि के लिए बताए गए वैदिक मंत्रों का जप करवाना चाहिए और उन्हें दक्षिणा देकर उनका सविधि सत्कार करना चाहिए।
जिस देवता की स्थापना की जाए उसी देवता के मंत्रों से द्विजगण अग्नि में हवन करे तथा इस निमित्त स्थाई रूप से इन्द्रध्वज
आदि को स्थापित करें। षट् ऐश्वर्य सम्पन्न विष्णु, सूर्य, भस्मधारण किए हुए शंकर, मातृकादेवियों, सब के कल्याण भावना वाले शाक्यपुत्र बुद्ध, दिगम्बर जिन का स्वरूप जानने वाले विप्रजनों को तथा जो लोग जिस देवता की उपासना करते हैं, वे अपनी सम्प्रदाय की विधि से उनके उस देवता की प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया सम्पादित करे।
प्रासाद पूर्ण निष्पन्न होने पर अर्हत्-प्रतिमा की स्थापना करें। विष्णु, विनायक, देवी एवं सूर्य की प्रतिष्ठा भी प्रासाद पूर्ण निष्पन्न होने पर ही करें। मूर्तिरूप शिव की प्रतिमा का द्वार से प्रवेश कराएं तथा अनाच्छन्न प्रासाद में लिंग का प्रवेश गगन मार्ग से प्रवेश कराएं। अर्हत्, विष्णु, गणेश, सूर्य, देवी एवं शिव की क्रमशः तीन, तीन, पाँच, तीन, एक आधी परिक्रमा करनी चाहिए। अर्हत् के पीछे शिव की दृष्टि कभी नहीं पड़नी चाहिए तथा विष्णु एवं सूर्य - इन दोनों के पार्श्व भाग में चण्डी की स्थापना नहीं करनी चाहिए, इसलिए नगर के बाहर देवी का नूतन प्रासाद बनाना चाहिए। अन्य देवताओं के मंदिर निर्माण में विकल्प रखा गया हैं अर्थात् उनके मंदिर नगर में या नगर के बाहर हो सकते हैं।
मंदिर के द्वार के सामने कुण्ड, कूप, वृक्ष, छत का कोण या स्तम्भ का होना निन्दित माना गया हैं, क्योंकि यह वेध अर्थात् बाधक है। रिक्त भूमि में दुगना और चैत्य में चारगुना भूमि भाग छोड़कर
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