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आचारदिनकर (खण्ड-३)
146 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान
स्थापना एवं उसके पूजन की सम्पूर्ण क्रिया करें। तत्पश्चात् लग्न-वेला आने पर वासक्षेपपूर्वक जिनप्रतिष्ठा - मंत्र पढ़कर वास्तुदेवता का निम्न मंत्र पढ़ें
"ॐ ह्रीं श्रीं क्षां क्षीं क्षं ह्रां ह्रीं भगवति वास्तुदेवते ल ल ल ल लक्षि क्षि क्षि क्षि क्षि इह चैत्ये अवतर - अवतर तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ।" इस प्रकार वासक्षेपपूर्वक चैत्य की देहली, तोरण ( द्वारश्रिया ) एवं शिखर पर सात-सात बार वासक्षेप डालें । वेदी के निकट नैवेद्य एवं अंकुरित जवारों के सकोरे आदि पूर्ववत् रखें। फिर प्रतिष्ठा कराने वाला पुनः बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा के बिम्ब की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् चैत्य के ऊपर से वस्त्र उतारकर महोत्सव आदि सब क्रियाएँ पूर्ववत् ही करें। उसके बाद प्रतिष्ठादेवता का विसर्जन करें । शक्रस्तव का पाठ, कायोत्सर्ग एवं स्तुति आदि सब क्रियाएँ बिम्ब-प्रतिष्ठा की भाँति ही करें। फिर चैत्य के ऊपर प्रतिष्ठित ध्वजा चढ़ाएं। ध्वज - प्रतिष्ठा की विधि उसके अधिकार के अनुसार करें। नंद्यावर्त्त का विसर्जन पूर्व की भाँति ही करें। मण्डप की प्रतिष्ठा - विधि महाचैत्य की प्रतिष्ठा के समान ही है, किन्तु वहाँ एक बार ही परमात्मा की स्नात्रपूजा की जाती है। देवकुलिका की प्रतिष्ठा के समय वेदी बनाएं तथा वेदी - बलि की विधि करें। वहाँ बृहत् नंद्यावर्त्त पूजन न करके मात्र लघु नंद्यावर्त्तपूजा करें । उसकी विधि यह है
पूर्ववत् नंद्यावर्त्त का आलेखन करें। उसके दाएँ हाथ की तरफ धरणेन्द्र की, बाएँ हाथ की तरफ अम्बिकादेवी की, नीचे श्रुतदेवी की तथा ऊपर गौतम गणधर की स्थापना करें। प्रथम वलय में पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय की स्थापना करें । द्वितीय वलय में विद्यादेवियों की स्थापना करें। तृतीय वलय में शासन यक्षिणियों की स्थापना करें । चतुर्थ वलय में दिक्पालों की स्थापना करें। पंचम वलय में नवग्रहों एवं क्षेत्रपाल की स्थापना करें। फिर बाहर की तरफ चारों दिशाओं में चतुर्निकाय देवों की स्थापना करें। इनके आह्वान एवं पूजन की सम्पूर्ण विधि पूर्ववत् है । यह पंचवलययुक्त नंद्यावर्त्त की विधि है । अन्य सभी क्रियाएँ चैत्य - प्रतिष्ठा के समान करें ।
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