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आचारदिनकर (खण्ड-३) 227 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान माहितकार्यस्य पुष्टिर्भवतु तथा दासभृत्यसेवककिंकरद्विपदचतुष्पदबलवाहनानां पुष्टिर्भवतु भाण्डागारकोष्ठागाराणां पुष्टिरस्तु।। “नमः समस्तजगतां पुष्टिपालनहेतवे। विज्ञानज्ञानसामस्त्यदेशकायादिमाऽर्हते।।१।। येनादौ सकला सृष्टिर्विज्ञानज्ञानमापिता। स देवः श्रीयुगादीशः पुष्टिं तुष्टिं करोत्विह।।२।।" यत्र चेदानीमायतननिवासे तुष्टिपुष्टिऋद्धिवृद्धिमाङ्गल्योत्सवविद्यालक्ष्मीप्रमोदवांछितसिद्धयः सन्तु शान्तिरस्तु पुष्टिरस्तु ऋद्धिरस्तु वृद्धिरस्तु यच्छ्रेयस्तदस्तु “प्रवर्धतां श्रीः कुशलं सदास्तु प्रसन्नतामंचतु देववर्गः। आनन्दलक्ष्मीगुरुकीर्तिसौख्यसमाधियुक्तोऽस्तु समस्तसंघः ।।१।। सर्वमङ्गल. ।।२।।
इस दण्डक को तीन बार पढ़ें। पौष्टिक-कलश के पूर्ण हो जाने पर पौष्टिककर्म करवाने वाला कुश द्वारा उस जल से अपने गृह को अभिसिंचित करें। कलश अच्छी तरह से घर में ले जाकर हमेशा उस जल से छिड़काव करे। पाँचों पीठ का विसर्जन पूर्ववत् “यान्तुदेवगणा. एवं आज्ञाहीनं." श्लोक से करें। साधुओं को प्रचुरमात्रा में वस्त्र एवं अन्नपान का दान करें तथा सभी प्रकार की पूजा-सामग्री से गुरु की पूजा करें। सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थ के सभी संस्कारों में दीक्षा ग्रहण के पूर्व, किसी व्रत को ग्रहण करने के पूर्व, सभी प्रकार की प्रतिष्ठाओं में, राज्य एवं संघ में किसी पदारोपण के समय, सभी शुभ कार्यों में, सभी पवों में, महोत्सव के संपूर्ण होने पर, महाकार्य के संपूर्ण होने पर, इत्यादि स्थितियों में पौष्टिककर्म करें। इससे आधि, व्याधि, दुराशयी, दुष्टों, शत्रुओं एवं पापों का नाश होता है। पौष्टिककर्म का यह महत्त्व बताया गया है, कि इससे देवता प्रसन्न होते हैं। यश, बुद्धि एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है। आनन्द एवं प्रताप में वृद्धि होती है तथा प्रयत्नपूर्वक आरम्भ किए गए महाकार्यों में विशेष सफलता मिलती है। नक्षत्र, ग्रह, भूत, पिशाचादिजन्य दोषों एवं रोगों का नाश होता है और कार्य में कभी भी विघ्न नहीं आता है। विद्वानों ने पौष्टिककर्म का यही फल बताया है। यह पौष्टिककर्म की विधि है। विशुद्धात्मा एवं तत्त्वज्ञ विचक्षणजन सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थों के सभी संस्कारों में महाकार्य के
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