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आचारदिनकर (खण्ड-३) 4 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान परिमाण वाली तथा विषम अंगवाली प्रतिमा, अप्रतिष्ठित, दुष्ट और मलिन होती है। ऐसी प्रतिमाओं को बुद्धिमान् जन चैत्य में एवं घर में न रखें। धातु की या लेप्य से निर्मित प्रतिमा यदि खण्डित अंगवाली हो जाए, तो उस प्रतिमा को दूसरी बार पुनः खण्डित अंग ठीक कर बना सकते हैं, किन्तु काष्ट या पाषाण की प्रतिमा खण्डित हो जाए, तो उस मूर्ति के खण्डित अंगों को पुनः सुधारा नहीं जा सकता है। प्रतिष्ठित होने के बाद किसी भी मूर्ति का संस्कार नहीं किया जा सकता है। कदाचित् कारणवशात् संस्कार करने की आवश्यकता हो, तो उस मूर्ति की पुनः पूर्ववत् प्रतिष्ठा करानी चाहिए। कहा गया है - प्रतिष्ठित होने के बाद मूर्ति का संस्कार करना पड़े, तौलनी पड़े, परीक्षा करनी पड़े या चोर चोरी करके ले जाए या दुष्ट व्यक्ति से स्पर्शित हो जाए, इत्यादि कारणों में से कोई भी स्थिति निर्मित हो, तो मूर्ति की पुनः प्रतिष्ठा करनी चाहिए। इसके साथ ही शास्त्रों में यह भी कहा गया है - जो प्रतिमा एक सौ वर्ष पहले उत्तम पुरुषों द्वारा स्थापित की गई हो, ऐसी प्रतिमा विकलांग हो, तो भी पूज्य होती है। उस प्रतिमा का पूजाफल निष्फल नहीं होता है। मूर्ति का नख, अंगुली, भुजा, नासिका का अग्रभाग खंडित हो, तो वह अनुक्रम से शत्रु द्वारा देश का, धन का, बन्धु का एवं कुल का क्षय करने वाली होती है। यदि मूर्ति की पादपीठ, चिह्न और परिकर भग्न हों, तो वह अनुक्रम से स्वजन, वाहन एवं सेवक की निश्चित रूप से हानि करता है। गृहचैत्य में एक अंगुल से लेकर ग्यारह अंगुल परिमाण की प्रतिमा की पूजा करें तथा इससे अधिक, अर्थात् ग्यारह अंगुल से अधिक परिमाण वाली प्रतिमा की पूजा सर्वसाधारण हेतु निर्मित चैत्य में करें।
जो प्रतिमा पाषाण की, लेप की, लोहे की, काष्ट की, हाथीदाँत की तथा चित्रकारी की हो, परिकररहित हो तथा ग्यारह अंगुल से अधिक ऊँची हो, तो उस प्रतिमा को गृह-चैत्य में रखकर पूजा करना उचित नहीं है। रौद्ररूप वाली प्रतिमा - कर्त्ता का, अर्थात् स्थापना करने वाले का नाश करती है, हीन अंग वाली प्रतिमा - द्रव्य का नाश करने वाली होती है, कृश उदर वाली प्रतिमा - दुर्भिक्षकारक और वक्र नासिका वाली प्रतिमा - अत्यन्त दुःखदायी होती है। इसी
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