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आचारदिनकर (खण्ड-३)
5 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक- पौष्टिककर्म विधान प्रकार ह्रस्व अंग वाली प्रतिमा द्रव्यादि का नाश करने वाली, नेत्ररहित हो, तो नेत्र का नाश करने वाली और संकुचित मुख वाली हो, तो भोगों का नाश करने वाली होती है। यदि प्रतिमा की कमर हीन हो, तो वह आचार्य का नाश करती है, हीन जंघा वाली प्रतिमा भाई, पुत्र एंव मित्र का विनाश करती है तथा हीन हाथ-पैर वाली प्रतिमा धन का नाश करती है। जो प्रतिमा चिरकाल तक अपूज्य रहे, वह पुनः प्रतिष्ठा के बिना पूजनीय नहीं होती है ।
ऊर्ध्वमुखी प्रतिमा धन का नाश करती है, अधोमुख वाली प्रतिमा चिन्ता उत्पन्न कराने वाली होती है। यदि दृष्टितिर्यक प्रतिमा हो, तो वह व्याधिकारक होती हैं और यदि प्रतिमा की दृष्टि ऊँची-नीची हो, तो वह विदेश गमन कराने वाली होती है । अन्याय से प्राप्त द्रव्य से बनाई गई प्रतिमा दुष्काल उत्पन्न करने वाली होती है तथा कम या अधिक अंगवाली हो, तो वह स्वपक्ष (प्रतिष्ठा करने वाले को) एवं परपक्ष (पूजा करने वाले को) कष्ट देने वाली होती है।
जिनप्रासाद के गर्भगृह की ऊँचाई के चतुर्थ भाग जितनी ऊँचाई की प्रतिमा स्थापित करना उत्तम लाभकारक है, किन्तु उसे चौथाई भाग से एक अंगुल कम या अधिक रखना चाहिए, अथवा चौथाई भाग की ऊँचाई में भी उसका दसवाँ भाग कम या अधिक करके उतने माप की मूर्ति शिल्पकार बनाए, किन्तु सोना-चाँदी आदि सभी धातुओं की तथा रत्न, स्फटिक और प्रवाल की मूर्ति चैत्य के मापानुसार या स्वयं की इच्छा के अनुसार भी बना सकते हैं।
प्रासाद के गर्भ की भित्ति की लम्बाई के पाँच भाग करें, उसके प्रथम भाग में यक्ष की प्रतिमा को, द्वितीय भाग में देवियों की प्रतिमा को, तृतीय भाग में जिन, स्कन्दक, कृष्ण या सूर्य की प्रतिमा को, चौथे भाग में ब्रह्मा की प्रतिमा को और पाँचवें भाग में शिवलिंग को स्थापित करें। यदि प्रतिमा की दृष्टि ऊँची हो, तो वह द्रव्य का नाश करती है, दृष्टितिर्यक प्रतिमा हो, तो वह भोग की हानि करती है, स्तब्धदृष्टि प्रतिमा हो, तो वह दुःखदायी होती है और यदि प्रतिमा की दृष्टि अधोमुखी हो, तो वह कुल का नाश करती है । गृहचैत्य में स्नातक
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