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आचारदिनकर (खण्ड-३) 154 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान ध्वजप्रतिष्ठामंत्रपूर्वक ध्वज पर एक सौ आठ बार वासक्षेप डालें। ध्वजप्रतिष्ठा का मंत्र यह हैं -
“ॐ जये जये जयन्ते अपराजिते ही विजये अनिहते अमुक अमुक चिन्हांकितं ध्वजम् अवतर-अवतर शत्रुविनाशं जयं यशो देहि-देहि स्वाहा।।"
तत्पश्चात् निम्न मंत्रपूर्वक गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य द्वारा ध्वज की पूजा करें -
___"ॐ जये गन्धं गृहाण-गृहाण अक्षतान् पुष्पं धूपं दीपं नैवेद्यं गृहाण शान्तिं तुष्टिं जयं कुरु-कुरू स्वाहा।"
___ तत्पश्चात् तीन दिन तक ध्वज की रक्षा एवं महोत्सव करें। राजध्वज की प्रतिष्ठा कराने वाले गृहस्थ गुरु को स्वर्ण, आभरण एवं वस्त्रादि का दान दें। दीनजनों का दारिद्रय दूर करें एवं ब्राह्मणों का पोषण करें। तत्पश्चात् तीसरे दिन ध्वज को उतारें तथा जयदेवी का विसर्जन करें। साथ ही पूर्ववत् नंद्यावर्त्त का भी विसर्जन करें - यह राजध्वज की प्रतिष्ठा-विधि है। इस प्रकार प्रतिष्ठा अधिकार में ध्वज-प्रतिष्ठा की विधि पूर्ण होती है।
अब जिनबिम्ब के परिकर की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है - यदि परिकर जिनबिम्ब के साथ ही हो, तो जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के समय ही वासक्षेप डालने मात्र से ही परिकर की प्रतिष्ठा पूर्ण हो जाती है, किन्तु परिकर जिनबिम्ब से अलग हो, तो उसकी अलग से प्रतिष्ठा होती है। परिकर का आकार निम्न प्रकार का होता है - बिम्ब के नीचे गज, सिंह एवं कमल अंकित होता है। सिंहासन के पार्श्व में दो चामरधारी होते हैं। उसके बाहर अंजलिबद्ध दो पुरुष खड़े हुए होते हैं। मस्तक के ऊपर क्रमशः एक के ऊपर एक तीन छत्र होते हैं। उसके पार्श्व में सूंड के अग्रभाग में स्वर्ण-कलशों को धारण किए हुए- ऐसे दो श्वेत हाथी होते हैं तथा हाथी के ऊपर झर्झर वाद्य बजाने वाले दो पुरुष होते हैं। उसके ऊपर दो मालाकार होते हैं। शिखर पर दो शंख बजाने वाले होते हैं और उसके ऊपर कलश होता है। मतान्तर से सिंहासन के मध्यभाग में दो हिरण एवं तोरण से अंकित धर्मचक्र होता है तथा उसके दोनों तरफ
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