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आचारदिनकर (खण्ड-३) 153 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान देकर, चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् शान्तिदेवता, श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता एवं समस्त वैयावृत्यकर देवताओं के आराधनार्थ कायोत्सर्ग एवं स्तुति करें। फिर महाध्वज की छोटन-क्रिया करें।
पूर्व की भाँति नंद्यावर्त्त-मण्डल का विसर्जन करें, साधुओं को वस्त्र, अन्न एवं पेय पदार्थों का दान दें एवं शक्ति के अनुसार, याचकों को संतुष्ट करें। ध्वज का रूप इस प्रकार है -
ध्वजपट्ट श्वेत, लाल अथवा विचित्र वर्ण वाला एवं घण्टियों से युक्त होता है। ध्वजदण्ड - सोने का, बांस का या अन्य किसी वस्तु से निर्मित होता है। पताका की सूरिमंत्रपूर्वक वासक्षेप डालकर प्रतिष्ठा करें। चन्दन का लेप करें एवं पुष्प चढ़ाएं। बिम्ब के परिकर में जो शिखर होता है, वहाँ से मण्डप सहित प्रासाद के भीतर से लेकर बाहर जो ध्वजदण्ड स्थापित होता है, वहाँ तक लम्बा ध्वजदण्डाश्लेषी महाध्वज होता हैं।
इस महाध्वज को परमात्मा के बिम्ब के सम्मुख ले जाएं। वहाँ कुंकुम के रस से ध्वजा पर माया-बीज लिखें और फिर उसके अन्दर कुंकुम के छीटें दें। ध्वज के किनारे पर पंचरत्न बाँधे तथा सूरिमंत्रपूर्वक वासक्षेप डालें। फिर महाध्वज को आरोपित करें।
अब राजध्वज की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं -
राजध्वज-मत्स्य, सिंह, वानर, कलश, गज (हाथी) की अंबाडी, ताल, चामर, दर्पण, चक्र-मण्डल से अंकित बहुत प्रकार की होती है
और उसकी प्रतिष्ठा राजमहल पर होती है। वहाँ पौष्टिककर्म करें। बृहत्स्नात्रविधि से गृहबिम्ब की स्नात्रपूजा करें तथा जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के समान ही दसवलय से युक्त बृहत्नंद्यावर्त्त की स्थापना एवं पूजा करें। तत्पश्चात् संपूर्ण क्रिया होने पर, पूर्ववत् ध्वज की शुद्धि हो जाने पर तथा उसे पंचरत्न से युक्त करने के बाद भूमि पर सीधी खड़ी कर दें। उसके मूल में अनेक नैवेद्य, फल एवं मुद्रा रखें। तत्पश्चात् वासक्षेप लेकर आचार्य अपने पद के योग्य द्वादश-मुद्रा एवं वर्धमान-विद्या द्वारा ध्वजा को अभिमंत्रित करें। फिर
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