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आचारदिनकर (खण्ड-३) 173 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान उन-उन देवताओं के मंत्र शान्तिक-अधिकार में कहे गए हैं। तारों की भी प्रतिष्ठा निम्न मंत्रपूर्वक वासक्षेप डालकर करें तथा शेष प्रतिष्ठा-विधि ग्रहप्रतिष्टा के सदृश करें -
"ऊँ ह्रीं श्रीं अमुकः अमुकतारके इहावतर-इहावतर तिष्ठ-तिष्ठ आराधककृतां पूजां गृहाण-गृहाण स्थिरीभव स्वाहा।'
इस प्रकार प्रतिष्ठा-अधिकार में सूर्यादि नवग्रह की प्रतिष्ठा-विधि सम्पूर्ण होती है। अब चतुर्निकाय देवों की प्रतिष्ठा-विधि बताते हैं। वह इस प्रकार है -
दस प्रकार की भुवनपति-निकाय के बीस इन्द्रों, सोलह प्रकार की व्यंतर-निकाय के बत्तीस इन्द्रों, वैमानिकों के बारह कल्प के बारह इन्द्रों, नवग्रैवेयक के नौ एवं पंच अनुत्तर विमान का एक - इस प्रकार कुल दस अहमेन्द्रों की उनके वर्णानुसार काष्ठ, धातु या रत्नों से निर्मित मूर्तियों की प्रतिष्ठा-विधि इस प्रकार से करें -
__ चैत्य में या गृह में सर्वप्रथम बृहत्स्नात्रविधि द्वारा अर्हत् परमात्मा की स्नात्रपूजा करें। तत्पश्चात् मिश्रित पंचामृत द्वारा देवों की प्रतिमाओं को स्नान कराएं। फिर पच्चीस प्रकार के द्रव्यों से निर्मित वास द्वारा वासक्षेप करें, धूप उत्क्षेपण करें, यक्षकर्दम का लेप करें तथा पुष्प आदि से पूजा करें। प्रतिष्ठा का मंत्र निम्नांकित है -
“ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्यूँ कुरू-कुरू, तुरू-तुरू, कुलु-कुलु, चुरू-चुरू, चुलु-चुलु, चिरि-चिरि, चिलि-चिलि, किरि-किरि, किलि-किलि, हर-हर, सर-सर हूं सर्वदेवेभ्यो नमः अमुक निकायमध्यगत अमुकजातीय अमुकपद अमुकव्यापार अमुकदेव इह मूर्तिस्थापनायां अवतर-अवतर, तिष्ठ-तिष्ठ, चिर पूजकदत्तां पूजां गृहाण-गृहाण स्वाहा।
मंत्र में निकाय के स्थान पर भुवनपति, व्यंतर, वैमानिक शब्द
बोलें।
वैमानिकों में सौधर्म आदि, पद के स्थान पर इन्द्र, सामानिक, पारिषद्य, त्रायस्त्रिंश, अंगरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोगिक, किल्विषक, लौकान्तिक, तिर्यजृम्भक आदि बोलें, वृत्ति (व्यापार) के स्थान पर उनके गुणों का कीर्तन करें या उनके द्वारा
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