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आचारदिनकर (खण्ड-३) 199 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान
अत्र च गृहे सर्वसंपदागमेन सर्वसन्तानवृद्ध्या सर्वसमीहितसिद्ध्या सर्वोपद्रवनाशेन माङ्गल्योत्सवप्रमोदकौतुकविनोददानोद्भवेन शान्तिर्भवतु। भ्रातृपत्नीपितृपुत्रमित्रसम्बन्धिजननित्यप्रमोदेन शान्तिर्भवतु। आचार्योपाध्यायतपोधनतपोधनाश्रावकश्राविकारूपसंघस्य शान्तिर्भवतु। सेवकभृत्यदासद्विपदचतुष्पदपरिकरस्य शान्तिर्भवतु। अक्षीणकोष्ठागारबलवाहनानां नृपाणां शान्तिर्भवतु। श्रीजनपदस्य शान्तिर्भवतु श्रीजनपदमुख्यानां शान्तिर्भवतु श्रीसर्वाश्रमाणां शान्तिर्भवतु चातुर्वर्ण्यस्यशान्तिर्भवतु पौरलोकस्य शान्तिर्भवतु पुरमुख्यानां शान्तिर्भवतु राज्यसन्निवेशानां शान्तिर्भवतु गोष्टिकानां शान्तिर्भवतु धनधान्यवस्त्रहिरण्यानां शान्तिर्भवतु ग्राम्याणां शान्तिर्भवतु क्षेत्रिकाणां शान्तिर्भवतु क्षेत्राणां शान्तिर्भवतु। “सुवृष्टाः सन्तु जलदाः सुवाताः सन्तु वायवः। सुनिष्पन्नास्तु पृथिवी सुस्थितोऽस्तु जनोऽखिलः।। ॐ तुष्टिपुष्टिऋद्धिवृद्धिसर्वसमीहितसिद्धिर्भूयात्। शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूगतणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। सर्वेपि सन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।। जगत्यां सन्ति ये जीवाः स्वस्वकर्मानुसारिणः । ते सर्वे वांछितं स्वं स्वं प्राप्नुवन्तु सुखं शिवम् ।।"
जलधारा के अभिमंत्रणसहित इस शान्तिदण्डक को तीन बार पढ़ें। फिर उस शान्तिकलश के जल से शान्तिककर्म करवाने वाले को उसके परिवारसहित अभिसिंचित करें। तदनन्तर उसके सम्पूर्ण गृह एवं गाँव को भी अभिसिंचित करें। दिक्पाल आदि सर्व देवों का विसर्जन पूर्ववत् करें। - यह शान्तिककर्म की विधि है।
सूतक एवं मृत्यु को छोड़कर गृहस्थ के सभी संस्कारों में, सभी प्रतिष्ठाओं में छ:मास या वर्ष में, महाकार्य के प्रारम्भ में, उपद्रव दिखाई देने पर या उत्पन्न होने पर, रोग, दोष, महाभय या संकट के आने की स्थिति में, दूसरों के आधिपत्य में गई हुई भूमि आदि प्राप्त न होने की स्थिति में, महापाप होने की स्थिति में विद्वानों एवं गृहस्थों द्वारा निश्चित रूप से शान्तिकक्रिया करवाई जानी चाहिए। इससे दुष्ट आशयों का नाश होता है तथा रोग एवं दोषों का शमन होता है। दुष्ट आशय वाले देव, असुर, मनुष्य एवं स्त्रियाँ परांमुखी होते हैं।
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