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आचारदिनकर (खण्ड-३)
187 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान चौंतीसवाँ उदय शान्तिक-कर्म
अब शान्तिक-कर्म की विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है -
गृहस्थ गुरु (विधिकारक) अच्छी तरह से स्नान करके और हाथ में कंकण एवं मुद्रिका को तथा सदश, दोषरहित, श्वेतवस्त्र को धारण करके यह विधि सम्पन्न करें। शान्तिक-कर्म करवाने वाला भी भाई एवं पुत्र सहित उसी प्रकार के वेष एवं आभूषण को धारण करें। फिर गीत, नृत्य, वाद्य आदि में निपुण मंगलगान गाने वाली स्त्रियों को आमंत्रित करें तथा अर्हत् परमात्मा की बृहत्स्नात्रविधि प्रारम्भ करें।
सर्वप्रथम स्नात्रपीठ पर शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा स्थापित करें। यदि शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा न मिले, तो अन्य भगवान् की प्रतिमा में भी शान्तिनाथ भगवान् की कल्पना करके उनकी स्थापना कर सकते हैं।
मंत्र - “ॐ नमोऽर्हद्भ्यस्तीर्थकरेभ्यः समास्त्वत्र तीर्थंकरनाम पंचदशकर्मभूमिभवः तीर्थकरो योऽत्राराध्यते सोऽत्र प्रतिमायां सन्निहितोऽस्तु।'
- इस मंत्र द्वारा जिनप्रतिमा में जिस तीर्थंकर की कल्पना करते हैं, वह उसी तीर्थंकर की पूजनीक प्रतिमा हो जाती है। इस प्रकार वासक्षेपपूर्वक अन्य जिनप्रतिमा में शान्तिनाथ भगवान् की स्थापना करें। फिर पूर्व में निर्दिष्ट अर्हत्कल्प-विधि से परमात्मा की सम्पूर्ण पूजा करें। तत्पश्चात् बृहत्स्नात्रविधि के अनुसार कुसुमांजलि अर्पण करें। फिर बिम्ब के आगे पवित्र सोने, चाँदी, ताँबे या कांसे के सात पीठों की स्थापना करें। वहाँ प्रथम पीठ पर क्रम से पंचपरमेष्ठी की स्थापना करें। द्वितीय पीठ पर अक्षत् या तिलक द्वारा दिक्पालों की स्थापना करें। उसी प्रकार तृतीय पीठ पर दिशाक्रम से चारों दिशाओं में तीन-तीन राशियों की स्थापना करें। चौथी पीठ पर चारों दिशाओं में सात-सात नक्षत्रों की स्थापना करें। पाँचवीं पीठ पर दिशाक्रम से क्षेत्रपाल को छोड़कर नवग्रहों की स्थापना करें। छठवीं पीठ पर चारों
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