________________
आचारदिनकर (खण्ड-३) 141 प्रतिष्ठाविधि एवं शान्तिक-पौष्टिककर्म विधान सिरिसमणसंघहा वीरजिणंदहपयकमलि देवहिमुक्कसतोस। सा कुसुमांजलि अवहरड़ भवियह दुरिय असेस।
तत्पश्चात् धूप-उत्क्षेपण करें। इसके साथ ही इस प्रकार की भावना करें कि क्षीरोदधि से पूर्ण स्वर्ण-कलशों को चन्दनसहित हाथ में लेकर जय-जय शब्दारव करते हुए मेरुशिखर पर पार्श्वजिन के अभिषेक की भाँति अभिषेक की धाराएँ हृदय को सिंचित करके नीचे गिरती हुई ऐसी प्रतीत होती हैं, मानों ग्रीष्मऋतु की तपन को प्राप्त वृक्ष को वर्षाऋतु की पहली जलधारा स्नान करा रही हों। बाल्यावस्था में स्वामी को सुमेरुशिखर पर स्वर्ण-कलशों से भवनपति, ज्योतिष एवं वैमानिकदेव स्नान कराते हैं। वे धन्य हैं, जिन्होंने परमात्मा को देखा
सर्वप्रथम सामान्य स्नात्रपूजा करें। प्रत्येक स्नात्र के बीच पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं एवं धूप-उत्क्षेपण करें। 'नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' पूर्वक निम्न श्लोक बोलकर घृत से स्नान कराएं -
“घृत मायुर्वृद्धिकरं भवति परं जैनगात्रसंपर्कात्। तद्भगवतोऽभिषेके पातु घृतं घृतसमुद्रस्य।
पुनः पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं तथा धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोकपूर्वक दुग्धस्नान कराएं।
“दुग्धं दुग्धाम्भोधेरुपाहृतं यत्सुरासुरवरेन्द्रैः।। तबलपुष्टिनिमित्तं भवतु सतां भगवदभिषेके।।"
पुनः पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं तथा धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोकपूर्वक दही से स्नान
कराएं -
"दधि मंगलाय सततं जिनाभिषेकोपयोगतोऽभ्यधिकम् । भवतु भविनां शिवाध्वति दधि जलधेराहृतं त्रिदशैः।।"
तत्पश्चात् पानी की धारा दें, चन्दन का तिलक करें, पुष्प चढ़ाएं एवं धूप-उत्क्षेपण करें। तत्पश्चात् निम्न श्लोक बोलकर इक्षुरस से स्नान कराएं -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org