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अप्रेल १९६२
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हिंसक समाज नवरचना का पोषक द्विमासिक
अनेकान्त
वीर वा मरेर कालय
स्वतन
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सम्पादक डा० ० उपा श्री कटारिया
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मंदिर) का मुखपत्र
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अनेकान्त के स्तम्भ
विषय-सूची श्री ऋषभ-स्तुति महावीर के महावाक्य -डा. जगदीशचन्द्र जैन
१. ऐतिहासिक महापुरुष भगवान महावीर का शासन
स्तम्भ में तीर्थंकर, प्राचार्य, त्यागी, भक्तजन, राजा, -श्री पं० चैतसुखदास न्यायतीर्थ ४
मंत्री, शूरवीर, धर्मवीर, कर्मवीर, दानवीर और
ग्रन्थकारों के परिचय रहेंगे। क्या व्याख्या प्रज्ञप्ति पट खण्डागम का टीका ग्रंथ या? →थी पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री ६२. अनुसन्धान । जैन संत रत्नकोति, जीवन एवं साहित्य
इतिहास और साहित्य सम्बन्धी गोध- खोज के लेख -डा० कस्तूरचन्द कागलीवाल ८ रहेंगे। राजा हरसुखराय -पं० परमानन्द जैन शास्त्री ११
गौरवगाथा महाकवि रइधू द्वारा उल्लिग्वित खेल्हा ब्रह्मचारी
जैन पूर्वजों के द्वारा की गई लोकसेवा और गौरव-प्रो० राजाराम जैन एम० ए० १६
गाथा के लेख रहेगे। रात्रि भोजन त्याग हा अणुव्रत
- -श्री रतनलाल कटारिया २१ ४. तीर्थ, मन्दिर और गुफा देवगढकी जैन प्रेतिमा+प्री० पादत्त बाजपेई २७ प्राचीन जैन तीर्थों, मंदिरों, गुफाओं और मूर्तियों आदि भगवान महावीर का वन-चरित्र
के परिचय दिये जायंगे। (महत्वपूर्ण पत्र बनारसीदास चतुर्वेदी २ ५. कथा-कहानी जैन साहित्य का अनुशीलन
सुरुचि और भावपूर्ण पौराणिक, ऐतिहासिक तथा -डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री एम० ए० ३१ मौलिक कहानियां रहेंगी। कुछ अप्रकाशित जैन कथा ग्रन्थ
६. नारी समुत्थान -श्री कुन्दनलाल जैन एम. ए. एल. टी. ३२
स्त्रियों को ऊंचा उठाने और कर्तव्यनिष्ठ बनाने वाले जयसेन प्रतिष्ठा पाठ की प्रतिष्ठा विधि का
लेख रहेंगे। अशुद्ध प्रचार -श्री पं० मिलापचन्द कटारिया ३४ दौलतराम कृत जीवंधर चरित्र : एक परिचय ७. सुभाषित मरिणयां
-श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ ४१ जीवन ज्योति जगाने वाली सूक्तियों का संकलन . अहिंसा के पुजारी एल्बर्ट म्वाइटजर
रहेगा। -पं० बनारसीदास चतुर्वेदी एम. पी. ४४ ।। अनेकान्त का प्रकाशन
व्यवस्थापक -श्री वंशीधर शास्त्री एम.ए. ४७
'अनेकान्त' वीर सेवा मंदिर २१, दरियागंज, देहली-६
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अनेकान्त
अनेकान्त के सहायक
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श्री मिश्रीलालजी जैन कलकत्ता -सुप्रसिद्ध उद्योगपति, ममाजमवी और उदारदाता
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श्री धर्मचन्दजी जैन -आप खान उद्योग के विशेषज्ञ हैं, अपने फर्म की उड़ीसा और विहार प्रान्तों की समस्त खानों के निर्देशक हैं। श्री मिश्रीलालजी के ज्येष्ठ सुपुत्र हैं। व्यवसाय की वृद्धि के लिये कई वार सफल विदेश-यात्रा कर चुके हैं।
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अनेकान्त
अनेकान्त के सहायक
श्री जुगमन्दिरदासजी जैन कलकत्ता- आप उच्चकोटि के मूक सेवक, कई संस्थाओं के प्रमुख कार्यकर्ता हैं। वर्तन - उद्योगपति हैं ।
डेट बाबूलालजी लिल्हा कलकत्ता- आप मुख्यादि प्राप्त वंशीधर जुगलकिशोर फर्म के मालिक और धर्मात्मा सज्जन हैं ।
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सेठ अमरचन्दजी पहाड़या कलकत्ता-धी दि० जेन सम्मेलन के अध्यक्ष और सुप्रसिद्ध व्यवसाई है।
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श्री ऋषभचन्दजी (B.R.C) जैन - आप अनुभवी विद्वान, प्रभावशाली वक्ता और सफल व्यवसाई हैं ।
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अनेकान्त
अनेकान्त के सहायक
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मेट गजराज जी मरावगी कलकना. अनेक संस्थाओं के ट्रस्टी, अध्यक्ष, मदस्य । लाइन के भव्यकलापूर्ण जिन-मन्दिर के निर्माता । पाकिस्तान
के "जुटकिंग"। मप्रसिद्ध-दानी
सेठ नथमलजी सेटी कलकत्ता--आप सुप्रतिष्टित जूट व्यवसाई हैं। प्रमुख संस्थाओं से मम्बन्धित होते
हुए भी आप मृक समाजसेवी हैं।
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श्री रतनलालजी झांझरी कलकत्ता-आप सच्चं सुधारक हैं, विजातीय विवाह और विदेश-यात्रा के समर्थन के कारण जाति वहिष्कृत तक हुए। चर्चा-सागर ग्रन्थ के वहिष्कारआन्दोलन में मफलता प्राप्त की। युवकों को जागृत किया।
मेट बैजनाथजी मरावगी कलकत्ता-आप जैन समाज के पुराने कार्यकर्ता हैं। सराक ( प्राचीन श्रावक) जाति के उद्धार के लिये स्व. जन-धर्मभूषण प्र. शीतल प्रसादी के साथ आपने बहुत काम किया था। अब भी समाज-सेषा के कार्यों में तन, मन, धन से सहयोग देते रहते हैं।
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भनेकान्त
अनेकान्त के सहायक
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सेठ मदनलालजी पांड्या कलकत्ता-आप श्री अहिंसा प्रचार मोसाईटी के अवै० मन्त्री और कुशल व्यवमाई हैं।
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श्री मालीरामजी सरावगी कलकत्ता-आप बंगाल-बिहार-उडीमा
दिगम्बर जैन तीर्थ-क्षेत्र कमेटी के अवै० मन्त्री हैं।
श्री बाबूलालजी जैन-कलकत्ता आप जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ
विद्वान हैं।
सेट कस्तूरचन्दजी विनायका कलकत्ता-आप प्रमुख गजी व्यवसाई
नथा फर्म कस्तूरचन्द आनन्दीलाल के मालिक हैं।
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अनेकान्त के पन्द्रहवें वर्ष की विषय-सूची
विषय और लेखक
पृष्ठ विषय और लेखक
पृष्ठ प्रज्ञात हिन्दी कवि टेकचन्द व उनकी रचनाएँ
चतुर्विशति तीर्थकर जयमाला (स्तुति) -श्री अगरचन्द नाहटा ६५
-श्री ब्रह्मजीवंधर १४७ अनेकान्त पर अभिमत
१४६ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ की प्रतिष्ठा विधि का अशुद्ध भनेकान्त प्रकाशन -श्री वंशीधर शास्त्री एम०ए० ४७ प्रचार -श्री पं०मिलापचन्द जी कटारिया ३४ महद् भक्ति (स्तवन)
१९ जैन अपभ्रंश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति काव्य ८० अहिंसा के पुजारी एल्वर्ट स्वाइटजर
पर प्रभाव-डा. प्रेमसागर जैन ५७,१२३ -पं० बनारसीदास चतुर्वेदी एम० पी० ४४
जैन परिवारों के वैष्णव बनने सम्बन्धी वृत्तांत प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की बिम्ब योजना
-श्री अगरचन्द नाहटा २८२ -डा. नेमिन्द्र जैन एम० ए०,पी-एच०डी०, १९६ जैन मित्र की भूल पादिकालीन चर्चरी रचनामों की परम्परा का
जैन संत रत्नकीर्ति एवं साहित्य उद्भव और विकास -डा. हरीश १४३,१८०
-डा० कस्तूरचन्द काशलीवाल एम०ए०पी०एच०डी० ८ ऐहोले का शिलालेख-श्री पं० के. भुजबली शास्त्री E७
जैन साहित्य का अनुशीलन कविवर बनारसीदास की सांस्कृतिक देन --डा. रवीन्द्रकुमार जैन १६३, ..
-डा० इन्द्रचन्द्र एम० ए० शा ३१ कार्तिकेय (कहानी)-श्री सत्याश्रय भारती १६७,२१६ ।
"जैन साहित्य में मथुरा -डा. ज्योतिप्रसाद जै ६५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा एक अध्ययन
ज्ञातवंश -श्री पं० बेचरदास जी दोशी २८६ -डा० ए० एन०, उपाध्ये एम० ए० डी० लिट्
झालरापाटन का एक प्राचीन वैभव ८.१ अनुवादक, कुन्दनलाल जैन एम० ए० एल०टी० २४४
-डा० कैलाशचन्द जैन एम० ए० पी० एच० डी० २.६ कवित्त
-श्री रूपचन्द ११८ ।।
तत्त्वोपदेश छहढाला-एक सगालोचन काष्ठासंघ स्थित माथुर संघ-गुर्वावली
-श्री पं० दीपचन्द पाण्डघा ६२ -प० परमानन्द जैन शास्त्री ७९ तिरूपट्टि कुनरम् (जिनकाञ्ची) काष्ठासंघ लाट बागड़ गण की गुर्वावली
-श्री टी० एन० रामचन्द्रन (अनु. डा. ए. के. -पं० परमानन्द जैन शास्त्री १३४
दीक्षित बडौत) १०१ कुछ अप्रकाशित कथा ग्रन्थ
तीन विलक्षण-जिनबिम्ब -श्री नीरज जैन १२१ -कुन्दनलाल जैन एम० ए० एल०टी० ३२ दण्डनायक गंगराज-श्री पं० के० भुजबली शास्त्री २२५ क्या व्याख्या प्रज्ञप्ति पट् खंडागम का टीका ग्रन्थ था ? दर्शन का अर्थ मिलना'-श्रीपं० रतनलाल कटारिया ५०
--श्री पं० कैलाशचन्द्र जैन ६ दिग्विजय (ऐतिहासिक उपन्यास) गुर्वावली नन्दितट गच्छ-पं० परमानन्द जैन शास्त्री २३५
-मानन्दप्रकाश जैन, जम्बूप्रसाद जैन २६७ अन्य एवं ग्रन्थकारों की भूमि राजस्थान
देवगढ़ की जैन प्रतिमाएँ -डा० कस्तूरचन्द काशलीवाल ७७ -प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, सागर विश्वविद्यालय २७ चचरी का प्राचीनतम उल्लेख
दौलतरामकृत जीवंधर चरित्र-एक परिचय -डा० दशरथ शर्मा एम० ए० डी० लिट् २९८
-श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ ४१
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अनेकांत
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- विषल और लेखक
पृष्ठ
विषय पर लेखक धर्म स्थानों में व्याप्त सोरठ की एक कहानी
राजनापुर खिनखिनी की धातु प्रतिमाएं-श्री बाल -महेन्द्र भनाबत एम०ए० २६४
चन्द जैन एम. ए. ८५ नगर खेद-कर्षट-मटम्ब और पत्तन प्रादि की परिभाषा ' राजस्थानी जैन लि-साहित्य -डा० दशरथ शर्मा ११६
-प्रो० नरेन्द्र भानावत १८६ नवागढ़ (एक महत्वपूर्ण मध्यकालीन जैनतीर्थ) रानी मृगावती (कहानी) श्री सत्याश्रय भारती
-श्री नीरज जैन ३३७
रसिक अनन्य माल में एक सरावगी जैनी का विवरण नया मंदिर धर्मपुरा के जैन मूर्ति लेख
-श्री अगरचन्द जी नाहटा २२६ -संक० परमानन्द जैन शास्त्री १००,२३७
राष्ट्रीय सुरक्षा में जैन समाज का योगदान २३४ पतियानदाई (एक भूला-बिसरा जैन मंदिर)
-श्री नीरज जैन १७७
राजा हरसुखराय-पं० परमानन्द जैन शास्त्री पद कवि जगतराम
रात्रि भोजन त्याग छट्ठा अणुव्रत
-श्री पं० रतनलाल कटारिया २१ पद जगजीवन
वर्धमान जिनस्तुति
४६ पवित्र पतितात्मा (कहानी)-श्री सत्याश्रय भारती ११५
शोधकण-(१ तीन विलक्षण जिन बिम्ब,२ पतियान प्राचीन पट अभिलेख-श्री गोपीलाल अमर एम०ए० २३१ बारडोली के जैन संत कुमुदचन्द
दाई ३ भगवान महावीर ज्ञात पुत्र थे -डा० कस्तूरचन्द काशलीवाल एम. ए. पी. एच. डी. २१०
या नाग पुत्र ?) -श्री बाबू छोटे लाल जैन २२४ भगवान् कश्यपः ऋषभदेव
श्री अजिन-स्तवन
२४३ -श्री बाब जयभगवान एडवोकेट पानीपत १७६ श्री क्षेत्र'बडवानी-प्रो० विद्याधर जोहरा पुरकर ८७ भगवान महावीर प्रौर उनका जीवन-दर्शन
श्री वीर जिन शासन स्तवन
१७५ -डा. ए. एन. उपाध्ये (अनु० कुन्दनलाल
सप्त क्षेत्र रास का वर्ण्य विषय-श्री अगरचन्द नाहटा १६० एम० ए० एल०टी०) १०४ भगवान महावीर का जीवन-चरित्र (महत्व पूर्ण पत्र)
समय और हम
-श्री जैनेन्द्र १५५ -पं० बनारसीदास चतुर्वेदी २८ साहित्य-समीक्षा -डा० प्रेमसागर जैन ७६, १४, १६२, मंगलोत्तम शरण पाठ-रतनलाल कटारिया १३६
२३६,२८८ मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य में प्रेम भाव-~-डॉ०
सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन-श्री कालिका प्रसाद प्रेमसागर जैन एम. ए., पी. एच. डी.
२५१
शुक्ल एम. ए. व्याकरणाचार्य १४६,२०६ मराठी जैन साहित्य -डा. विद्याधर जोहरापुरकर एम. ए. पी. एच. डी.
-२५३ सीरा पहाड़ के प्राचीन जैन गुफा मंदिर
२५३ महाकवि रहधू द्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी
-श्री नीरज जैन २२२ -प्रो. राजाराम जैन एम. ए. १६ हरिभद्र द्वारा उल्लिखित नगर-डा. नेमिचन्द्र जैन ५१
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वीर सेवा मंदिर पुस्तकालय
सनग्लन मोर पहर। २१, दरियागंज, देइली
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धिजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनय विलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष १५ । वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६ ) अप्रैल किरण, १ (चैत्र शुक्ला १३, वीर निर्वाण सं० २४८८, विक्रम सं० २०१६) सन् १९६२
श्री अषभस्तुतिः ततोतिता तु तेतीतस्तोतृतोतीतितोतृतः । ततोऽतातिततोतोते ततता ते ततोततः ॥
-स्वामी समन्तभद्राचार्य
अर्थ-हे भगवान् ! आपने, विज्ञान वृद्धि को प्राप्ति को रोकने वाले इन ज्ञानावरणादि कर्मों से अपनी विशेष रक्षा की है-ज्ञानावरणादि कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञानादि विशेष गुणों को प्राप्त किया है। तथा आप परिग्रहरहित-स्वतन्त्र हैं। इसीलिए पूज्य और सुरक्षित हैं। एवं आपने ज्ञानावरणादि कर्मों के विस्तृत-अनादिकालिक सम्बन्ध को नष्ट कर दिया है अतः आपकी विशालता प्रभुता स्पष्ट है । आप तीनों लोकों के स्वामी हैं।
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महावीर के महावाक्य
लेखक-डा. जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. पी-एच. डी.
संसार में समय-समय पर महान् पुरुषों का प्रादुर्भाव सामंत बने रहे और साधारण वर्ग गुलामी की चक्की में होता आया है। महापुरुषों ने जन कल्याण के लिए अपना पिसता रहा । और तारीफ़ की बात यह कि सामंतों ने सब कुछ न्योछावर कर दिया और भूली-भटकी जनता को अपने दुष्कर्मों से छुटकारा पाने के लिए ब्राह्मणों का प्राश्रय सुमार्ग पर लगाया। महावीर वर्धमान भी ऐसे ही महान ढूंढ़ा, और ब्राह्मणों ने भी यज्ञ, त्याग, जप, तप आदि कर्मव्यक्ति थे।
कांड के विधान द्वारा सामंतों को उनके पाप कर्म के बंधन उनका उपदेश था --
से मुक्त करने का फ़तवा दे दिया। १. मनुष्य को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है ऐसी विषम परिस्थतियो से पूर्ण समाज को गुलामी के इस लिये दूसरों को दुख पहुँचाने वाला कर्म नहीं करना पाप से छुड़ाना कितना दुष्कर होगा? ऐसे अव्यवस्थित चाहिए।
और अस्त व्यस्त समाज में ज्ञातृ पुत्र महावीर और गौतम २. दूसरों को दुख पहुंचाने वाले हिंसात्मक कर्म से दूर बुद्ध नामक दो महान शक्तियों का प्राविभाव हुआ; दोनों रहना चाहिये-इसे हिसा कहते है।
ने मनुष्य मात्र की रामानता पर जोर देते हुए अच्छे और ३. हिंसात्मक कर्मों का त्याग करने के लिए संयम बुरे कर्म के आधार पर ही ऊँच-नीच को स्वीकार किया। द्वारा अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखना मावश्यक है। यदि जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर महावीर वर्द्धमान का हम ऐसा नहीं करते तो हम दूसरों को उनके हक से वंचित जन्म विहार राज्य की उस वैशाली नगरी में हुआ था जहाँ रखते हैं।
लिच्छवि लोग गणतंत्र द्वारा अपना शासन चलाते थे। संक्षेप में भगवान् महावीर के यही मूल सिद्धांत हैं। भगवान महावीर के कर्म सिद्धांत की जड़ इन्हीं लिच्छवियों
महावीर के सिद्धांतों को ठीक तरह समझने के लिए की गणतंत्र की भावना से प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। हमें आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले के भारत की उनका प्रथम महा वाक्य हैओर जाना होगा। उन दिनों सामंतशाही का वोलवाला जमिणं जगई पुढो जगा, कम्महि लुप्पति पाणिणो, था क्षत्रिय शासक ब्राह्मण पुरोहितों के साथ गठबंधन करके सयमेव कडेहि गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्ज झुडपं ॥ राज्य का संचालन करते थे । इन दोनों वर्गों के हाथ में अच्छा या बुरा जैसा भी कन हो, उसका फल भोगे बिना सारी सत्ता थी जिससे समाज का नियंत्रण होता था। तरह छुटकारा नहीं। संसार में जितने भी प्राणी है सब अपने तरह के धार्मिक आडम्बरों में तत्कालीन समाज जकड़ा कार्मों के कारण दुखी हैं । हुना था। क्षत्रिय शासक और ब्राह्मण पुरोहितों का यह भगवान महावीर ने वार-बार इस बात को कहा है वर्ग अपनी खुशी और सुख-सुविधा के लिए जन-समाज का कि मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता भरपूर शोषण कर हीन कहे जाने वाले लोगों से हर प्रकार है; जो जैसा करता है, वैसा फल पाता है। मनुष्य चाहे का काम लेता और दास वृत्ति करने के लिए उन्हें बाध्य जो कर सकता है, चाहे जो बन सकता है और वह अपने करता । इसके फलस्वरूप धामिक, और सामाजिक और भाग्य का विधाता स्वयं है। इसीलिये महावीर के निर्ग्रन्थ जात-पात के आडंबरों में फंसकर जन-साधारण प्रपना मान प्रवचन में ईश्वर को जगत् का कर्ता स्वीकार नहीं किया ही खो बैठा और पशु से भी बदतर जीवन बिताने के लिए गया; तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च बाध्य हो गया। गोषण की यह व्यवस्था संकटों-हजारों अवस्था को ही ईश्वर बताया गया है। जैनधर्म की भारवर्ष तक लगातार चलती रही। नतीजा यह हुआ कि सामंत तीय दर्शन को यह बहुत बड़ी देन है।
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किरण १
महावीर के महावाक्य
ऐसी स्थिति में जो लोग जाति-पाँति के भेद के कारण और दूसरे का हक हड़प लेने की मनोवृत्ति को छोड़ दे। कर्म के बंधन में फंसकर अपने को इन्सान समझना ही इस प्रकार की सदिच्छा को महावीर ने अहिसा कहा है। छोड़ देते थे, उनके लिए महावीर का यह सिद्धांत कितना उनका महावाक्य हैप्रेरणादायक रहा होगा और उन्हें तत्कालीन सामंती समया सव्वभूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे। समाज के खिलाफ़ कितना विद्रोह करना पड़ा होगा। पाणाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्करं ।। मनुष्यमात्र में आत्मविश्वास की दृढ़ भावना पैदा कर देना सब जीवों के प्रति चाहे वह शत्रु हो या मित्र समभाव उसमें पुरुषार्थ की चिनगारी फंक देना--इससे बढ़कर भला रखना और जीव हिंसा का त्याग करना बहुत कठिन है। जनकल्याणकारी सिद्धांत और कौन-सा हो सकता है ?
सत्य होने पर भी, कठोर वचन बोलने को महावीर ___ इसी कर्म सिद्धांत को ध्यान में रखकर वेदों को मानने भगवान् ने हिंसा कहा हैवाले ब्राह्मणों को लक्ष्य करते हुए महावीर भगवान ने तहेव फरसा भासा गुरुभूप्रोवघाइणी । दूसरा महावाक्य कहा है।
सच्चा वि सा न वत्तव्वा जो पावस्स पागमो। उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसत्ता, दूसरों को दुख पहुँचाने वाली कठोर भाषा यदि सत्य उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि। भी हो तो उसे न बोले-इससे पाप का आश्रव होता है।
-सुबह और शाम स्नान करने से यदि मोक्ष मिलता इस उपदेश से बढ़कर जनहित की भावना और क्या हो तो पानी में रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं को मोक्ष हो सकती है ? बुद्ध के उपदेशों में इसे ही बहुजनहित मिल जाना चाहिए । इसीको स्पष्ट करते हुए कहा गया है- कहा है।
न वि मुडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। लेकिन अहिंसा को पालना, उसके सिद्धांत को अपने न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण ण तावसो॥ जीवन में उतारना आसान काम नहीं है। उसके लिए सिर मुडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, प्रोम् का आत्मदमन, इन्द्रियजय, कायक्लेश और कष्ट सहन जाप करने से ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से मुनि करने की आवश्यकता होती है। महावीर ने कहा है कि नहीं होता, और कुश के वस्त्र पहनने से तपस्वी नही मनुष्य की इच्छा आकाश के समान अनन्त है, ऐसी हालत होता।
में कैलाश पर्वत के समान सोने-चांदी के असंख्य पर्वत भी ता फिर किसरो होता है ?
उसकी इच्छा को तृप्त नहीं कर सकते । इसलिए भगवान् कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो ।
ने सच्चे त्यागी का लक्षण बताते हुए कहा हैवइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥
जे य कंसे पिये भोए, लद्धे वि पिट्टि कुव्वइ । -मनुस्य अपने कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति बुच्चइ ।। से वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है।
वत्थगंधमलंकारं, इत्थीयो सयणाणि य । महावीर भगवान ने यज्ञ, याग, जप, तप और दान
अच्छंदा जे न भुजंति, से चाद नि बुच्चइ ॥ धर्म प्रादि कर्मकाण्ड का विरोध करते हए कहा है कि इन जो सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी उनकी ओर सब बातों से कर्म का नाश नहीं हो सकता, कर्म फल तो से पीठ फेर लेता है, और मामने आए हा भोगों का त्याग भोगना ही पड़ेगा। इसलिए यदि हम समाज को प्रादर्श की कर देता है, वही त्यागी है। वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री ओर ले जाना चाहते हैं, उसमें शांति और व्यवस्था स्था- और शयन आदि वस्तुओं का जो लाचारी के कारण भोग पित करना चाहते हैं तो हर हालत मे बरे कर्मों और बरे नहीं कर सकता, उसे त्यागी नहीं कहते । विचारों का त्याग करना पड़ेगा। तथा मनुष्य अपने विचारों
और कर्मों में पूर्ण स्वतंत्रता तभी प्राप्त कर सकता है जब १. भगवान महावीर का कथन था कि यदि संसार में कि वह स्वप्न में भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर नजर डालने सुख और मुम्ब के साधन परिमित हों तो उपभोग की
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भगवान महावीर का शासन
लेखक - पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ
अभी तक आधुनिक मानव जगत् में भगवान महावीर की देशना का मूल्यांकन ठीक रूप से नहीं हो सका है इसका कारण है मौलिक जैन साहित्य के प्रचार की कमी। श्राज भी बहुत से लोग जैनधर्म की मौलिक शिक्षात्रों से परिचित नही हैं और इसका कारण है जैनों की अकर्मयता । मनुष्य के प्राचार और विचार को परिष्कृत एवं संतुलित रखने के लिए भगवती अहिंसा और निराग्रहवाद का जो उन्होंने लोकोतर विवेचन किया उससे तो अब लोग कुछ परिचित होने लगे हैं। पर उनका कर्म - सिद्धान्त भी एक अनोखा विवेचन है। इस विवेचन का सार है कि मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है । उसे स्वावलम्बी, कर्मठ
वस्तुनों का बँटवारा करने के लिए किसी न किसी को त्याग अवश्य करना पड़ेगा। इस प्रकारकी मूल भावना के सिद्धांत को ही अहिंसा कहा है।
अहिंसावृत्ति का पालन करने के लिए अपनी इन्द्रियों पर अंकुश रखते हुए भोग-उपभोग की सामग्री का त्याग करना अत्यंत कठिन है जो मानसिक संतुलन के बिना संभव नहीं ।
३. श्रमण भगवान् महावीर को हुए अढ़ाई हजार वर्ष गुजर चुके, फिर भी हम जहाँ के तहाँ हैं । हमारी आजकल की दुनियाँ में पहले की अपेक्षा कुछ अधिक मात्रा में ही आर्थिक शोषण, वर्गभेद, वर्गीकरण और ऊँच-नीच वी भावना विद्यमान है; आणविक शक्ति और सैन्यबल के द्वारा एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को पददलित कर उसे अपना गुलाम बनाकर रखना चाहता है—त्याग के बजाय संचय करने और दूसरे के हक को हड़प जाने की प्रवृत्ति विद्य मान है।
ऐसी स्थिति में यदि हमें विश्व में शांति और व्यवस्था स्थापित रखना है तो अहिंसा के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं और अहिसा का उपदेश महावीर के वाक्यों में मौजूद है । ( माल इण्डिया रेडियो बम्बई के सौजन्य से )
और कर्मवीर एवं निर्वन्ध बनने के लिए न केवल इस कर्मसिद्धान्त को समझ लेने की जरूरत है; अपितु उसे जीवन में उतारने की भी आवश्यकता है। कर्म सिद्धान्त मनुष्य को उसकी प्रत्येक स्थिति के लिए उत्तरदायी ठहराता है । वह कर्मकर्ता और फलभोक्ता में सामंजस्य स्थापित करता है । जब तक हम कर्म सिद्धान्त को न समझें तब तक धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं समझ सकते । अतीत से शिक्षा लेना और उसके आधार पर भविष्य का निर्माण करना यह कर्म सिद्धान्त के यथार्थ परिज्ञान से ही हो सकता है । जो अपने प्रति और दूसरों के प्रति उत्तरदायी होना चाहता है वह सबसे पहले अपने कर्तव्य को समझे । 'स्व' को समझे बिना कोई अपने कर्तव्य को नहीं समझ सकता । भगवान् महावीर ने श्रात्मा को ही परमात्मा बनने की दिशा बतलाई है । परमात्मा ही ईश्वर है । यहाँ ईश्वर नाम का कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । कोई भी पुरुषार्थी अपने मानव एवं लोकोत्तर कर्तव्यो के ग्राधार पर परमात्मत्व को प्राप्त कर सकता है ।
यहाँ पण्डे, पुजारी, पुरोहित एवं महन्त आदि धर्मगुरुत्रों द्वारा स्वर्ग या मुक्ति का प्रमाण-पत्र नहीं दिया जाता | स्वर्ग या मुक्ति अथवा किसी भी शुभ स्थिति को पाने के लिए मनुष्य को स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ेगा । यही महावीर-शासन का अन्तस्तल है । 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' अर्थात् काशी में मरने से मनुष्य को मुक्ति मिलती है । पिण्डदान से ही मनुष्य का उद्धार हो जाता है । पत्नी मृतपति के साथ चिता में जल जाये तो वह स्वर्ग चली जायगी — जैसे अनेकों तर्क- हीन मान्यताओं का महावीर के शासन में कोई स्थान नहीं है । इस प्रकार की परम्पराओं को भगवान ने लोक मूढ़ता बतलाया है। ऐसे अन्ध-विश्वास जीवन में धर्मतत्व को कभी नहीं उभरने देते । लोकमूढ़, देवमूढ़ और गुरुमूढ़ मनुष्य स्वयं पथभ्रष्ट हैं और दुनिया को भी पथभ्रष्ट करता है । कोई चीज केवल पुरानी होने से अच्छी नहीं होती और नई होने से बुरी नहीं होती।
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किरण १
भगवान महावीर का शासन
मिथ्यात्व भी अनादि है और सम्यक्त्व भी अनादि। इस पर उन्होंने प्रश्नोत्तर भी किये । यह बात बौद्ध धर्म के फिर भी एक हालाहल है और दूसरा अमृत । अमृत और विष शास्त्रों के अध्ययन से स्पष्ट ज्ञात होती है। को पहचानने के लिए विवेक की जरूरत है। इसलिए भग- इसमें कोई शक नहीं कि भगवान् महावीर का शासन वान ने भेदक बुद्धि पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने धर्म सभी दृष्टियों से अद्वितीय एवं लोक हितकारी था। यदि की जो व्याख्या की है वह त्रिकालाबाधित है। यह धर्म उसका मूल रूप आज तक मानव-मानस में प्रकाशित होता अहिंसा रूप है । वह धर्म जब मनुष्य के मन में उतर जाता रहता तो देश का प्राचीन इतिहास न रक्त रंजित होता है तब वह मारने वाले को भी नहीं मारता । प्राचार्य गुण- और न उसे घोर अत्याचारों का सामना ही करना पड़ता। भद्र कहते है :
भगवान् महावीर के शासन में साम्प्रदायिकता, हिंसा और धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावद्
जाति कुल आदि के अभिमान को भी कोई स्थान नहीं है। हंता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथत्ति तस्मिन् ।।
जैन वाङमय में इनकी स्थान-स्थान पर हेयता बतलाई गई दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानाम् ।
है। ये ही वे बुराइयाँ है जिनसे भूतकाल मे भारतीय राष्ट्र रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ॥
का पतन हुग्रा और दुःख की बात तो यह है कि आज -आत्मानुशासन २६
स्वराज्य मिल जाने के बाद भी ये बुराइयां हमारे देश में
नाम शेष नहीं हुई। वास्तव में भगवान महावीर का धर्म मन में नही रहने से पुत्र पिता को और पिता तीर्थ सर्वोदय तीर्थ है और इस तीर्थ के प्रचार होने की पुत्र को मार डालता है किन्तु यदि धर्म मन में हो तो वह आज सर्वाधिक आवश्यकता है; क्योकि इसी तीर्थ में माधुमारने वाले को भी नहीं मारता इस प्रकार के धर्म को यदि निक सभी समस्याओं का समाधान है। चाहे फिर वे राष्ट्रीय कोई महज क्रिया-काण्डों में खोजे तो उसे निराश ही हों या अन्तर्राष्ट्रीय अथवा सामाजिक । होना पड़ेगा।
प्रश्न यह है कि महावीर का शासन इतनी विशेषता अाज तक मतुण्य ने मनुष्य पर जितना अत्याचार एवं क्षमता-वाला होने पर भी केवल थोड़े से जैनों तक ही किया उतना किसी अन्य ने नहीं किया। स्त्री और शद्रों सीमित क्यों है ? वह अपनी ओर साधारण जन को क्यों पर किये गये उसके अत्याचारों की कहानी बड़ी ही आकृष्ट नही करता? उसकी उपयोगिता की सुरभि क्यों रोमाञ्चकारी एवं लम्बी है। ग्राहचर्य तो यह है कि उसने नहीं लोगों के लिए मोहक बनती और वह आज ह्रास की ये अत्याचार धर्म के नाम पर किये। भगवान् के युग में ओर क्यो जा रहा है ? निःसन्देह ये प्रश्न ऐसे हैं जो ये अत्याचार पराकाष्ठा को पहुँचे हए थे। उन्होंने इन जैनत्व के लिए खुली चुनौती है। क्या महावीर के अनुयायी अत्याचारों के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई और लोगों इस चुनौती का उत्तर देने को तैयार है ? इसका सही को 'स्त्रीशद्री नाधीयताम्' अर्थात स्त्री और शद्रों को पढ़ने उत्तर तो हम भगवान् महावीर के सिद्धान्तों को अपने का अधिकार नही है-की निरर्थकता बतलाई। उनकी जीवन में व्यक्तिगत उतार कर इनकी वास्तविकता को इस दिव्य देशना को काफी सफलता मिली तथा स्त्री एवं और लोक मानस को प्राकृष्ट करके ही दे सकते है। शूद्रों ने पाराम का श्वांस लिया। यह एक ऐसी क्राति थी आज से करीब अठारह सौ वर्ष पहले प्रख्यात ताकिक जिसे महावीर ही कर सकते थे । महावीर ने स्त्रियों और जैनाचार्य स्वामी समन्तभद्र के सामने भी यह प्रश्न था। शद्रों को मानवता की दृष्टि से देखा। स्त्रियों को इतनी उदा- उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध स्तोत्र युक्त्यनुशासन में इसका रता के साथ महावीर के अतिरिक्त शायद ही किसी ने देखा उत्तर भी दिया है। वे भगवान् महावीर को लक्ष्य करके हो। उन्होंने स्त्रियों को भी अपने संघ में आदरणीय स्थान कहते हैं :दिया। यह एक ऐसी घटना थी जिसकी चर्चा भगवान्
काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा बुद्ध और उनके अनुयायियों ने आश्चर्य के साथ सुनी और
श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनानयो वा ।
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क्या व्याख्या प्रज्ञप्ति षदखराक्षागम का टीका ग्रंथ था?
लेखक-श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में सिद्धान्त-प्रन्थ-पट् खण्डागम ४८ हजार श्लोक प्रमाण संस्कृतटीका रची । उसके पश्चात् और कषायप्राभूत तथा उनकी टीकामों के निर्माण का बप्पदेव गुरु हुए। उनके सम्बन्ध में श्रुतावतार में इस प्रामाणिक इतिवृत्त दिया गया है। तदनुसार ये दोनों ही प्रकार लिखा हैसिद्धान्त ग्रंथ कुण्डकुन्दपुर में श्री पद्मनन्दि मुनिको (कुन्द- अपनीय महाबन्धं षट् खण्डाच्छेष पञ्च खण्डे तु । कुन्दाचार्य को) ज्ञात हुए और उन्होंने षट्खण्डागम के व्याख्याप्रज्ञप्तिं च षष्ठं खण्डं ततः च संक्षिप्य ॥१७४॥ पाच तीन खण्डों पर परिकम नामक ग्रन्थ रचा। उसके षण्णां खण्डाना मिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य । पश्चात् कितना ही काल बीतने पर शामकुण्डाचार्य ने दोनों प्राभूतकस्य च षष्ठि सहस्रग्रंथ प्रमाण युताम् ॥१७५।। सिद्धान्त ग्रन्थों को जानकर महाबन्ध नामक छठे खन्ड को व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक् पुरातनव्याख्याम् । छोड़कर शेष षट्खण्डागम तथा कषायप्राभूत पर प्राकृत
अष्टसहस्रग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ।।१७।। संस्कृत और कर्णाटक भाषा में पद्धति रूप टीका रची। इन श्लोकों का अर्थ इस प्रकार किया जाता है
फिर तुम्बलूराचार्य ने छठे महाखण्ड को छोड़ कर बप्पदेव ने महाबन्ध को छोड़कर शेष पांच खण्डों पर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर कर्णाटक भाषा में चौरासी हजार व्याख्याप्रज्ञप्ति' नाम की टीका लिखी। तत्पश्चात् श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक व्याख्या रची और छठे उन्होंने छठे खण्ड की संक्षेप में व्याख्या लिखी। इस प्रकार खण्ड पर सात हजार श्लोक प्रमाण पञ्चिका रची। फिर छहों खण्डों के निष्पन्न हो जाने के पश्चात् उन्होंने कषायसमन्तभद्राचार्य ने षट् खण्डागम के पाद्य पांच खण्डों पर प्राभत की भी टीका रची। उन पांचों खण्डों और कषायत्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मी
प्राभूत की टीका का परिमाण साठ हजार और महाबन्ध प्रभुत्व • शक्तेरपवादहेतुः ॥
की टीका का पांच अधिक आठ हजार था और इस सब अर्थात् हे भगवन् तुम्हारे शासन का दुनिया में एक रचना की भाषा प्राकृत थी'। (षट् खण्डागम १ पु. की छत्र प्राधिपत्य क्यों नहीं होता। उसके तीन कारण हैं। प्रस्तावना पृ० ५२) एक कारण कलिकाल, दूसरा थोताओं का कलुष आशय साधारणतया उन श्लोकों का भाव ठीक प्रतीत होता और तीसरा वक्ताओं का अच्छी तरह तुम्हारे शासन का है किन्तु प्रारम्भ के श्लोकों से उक्त अर्थ व्यक्त नहीं होता प्रतिपादन न कर सकना।
पहले और दूसरे श्लोकों का अर्थ इस प्रकार होता हैहमें आज प्राचार्य समन्तभद्र के अंतिम हेतु पर ध्यान (षट् खण्डात्) षट् खण्ड रूप भागम से (महाबन्धं अपदेना है; क्योंकि जैन शासन के प्रसार के लिए यही हमारे नीय) महाबन्ध को अलग करके (शेष पंच खण्डेतु) शेष वश की चीज है । स्वयं आचार्य महाराज का जोर भी इसी पाँच खण्डों में (ततः व्याख्या प्रज्ञप्तिं च षष्ठं खण्डं संक्षिप्य) पर है। हमें पाज ऐसे वक्ता एवं लेखक तैयार करने की उसके बाद व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक या व्याख्याप्रज्ञप्ति रूप जरूरत है जो जैनत्व का मौलिक रूप जन-मानस के सामने छठे खण्डों को उसमें मिलाकर (इति निष्पन्नानां षण्णां रख सकें; जिनकी वाणी में उनका पात्मा भी बोल रहा खण्डानाम्) इस प्रकार से तैयार हुए छहों खण्डों की हो और जो तप दृष्टि की यथार्थता को स्वयं समझते हए (तथा कषायाख्य प्राभृतकस्य च) और कषाय प्राभूत की निर्भयतापूर्वक तत्व-प्रतिपादन कर सकें। इस महान कार्य (षष्ठि सहस्र ग्रन्थ प्रमाणयुताम्) साठ हजार श्लोक प्रमाण की ओर जितना जल्दी हमारा ध्यान जाय उतना ही सहित (प्राकृत भाषा रूपा पुरातन व्याख्यां सम्यक् व्यालिअच्छा है।
खत्) प्राकृत भाषा रूप प्राचीन व्याख्या को सम्यक् रूप
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किरण १
ज्या व्याख्या प्रामाप्ति परन्डागम का टीका अन्य पा?
से लिखा (महाबन्धे) महाबन्ध पर (पंचाधिका प्रष्ट सहाद्विसप्तत्या) ७२ हजार श्लोक प्रमाण संस्कृत प्राकृत सहस्र ग्रंथां व्याख्या) पांच अधिक पाठ हजार ग्रंथ प्रमाण भाषा मिश्रित धवला टीका लिखी। व्याख्या को लिखा।
उक्त दोनों ही उदाहरणों से यही प्रकट होता है कि प्रतः पाँच खण्डों की टीका का नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति
व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक ग्रंथ का सम्बन्ध षट् खण्डागम के है यह बात तो उक्त श्लोकों से व्यक्त नहीं होती । बल्कि
छठे खण्ड से था। बप्पदेव ने उसे षष्ठ खण्ड के रूप में उनसे तो यही व्यक्त होता है कि बप्पदेव ने पाँच खण्डों
पांच खण्डों में मिलाकर पट खण्डों की निष्पत्ति की और में व्याख्याप्रज्ञप्ति को सम्मिलित न करके पहले • खण्ड
फिर षट् खण्डागम पर टीका लिखी । इसी तरह वीरसेन निष्पन्न किए और फिर इन पर टीका रची।
स्वामी ने भी पहले व्याख्या प्रज्ञप्ति को प्राप्त कर उसके
आधार पर बन्धनादि अट्ठारह अधिकारों के द्वारा सत्कर्म श्रुतावतार में ही आगे जो श्लोक वीरसेन स्वामी
नामक छठे खण्ड की रचना की और तब उन षट् खण्डों से सम्बद्ध हैं वे भी इस दृष्टि से विचारणीय हैं । वे श्लोक
पर धवला टीका रची। इस प्रकार हैं
_अतः व्याख्या प्रज्ञप्ति को षट् खण्डागम के प्राद्य पांच "व्याख्या प्रजप्तिमवाप्य पूर्व पट खण्डत स्तत स्तस्मिन् ।। खण्डों की टीका समझना भूल है। इसी तरह उसके रचउपरितमबन्धनाद्य धिकार रष्टादश विकल्पः ॥१८॥ यिता बप्पदेव थे यह भी अभी विचारणीय है । बप्पदेव ने सत्कर्मनामधेयं पप्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य ।
कपाय प्राभृत पर उच्चारणा वृत्ति रची थी, जब धवला इति ष णां खण्डानां ग्रंथ सहमद्वि सप्तत्या ॥१८॥ टीका में उनके नाम के साथ उसका उल्लेख मिलता है। प्राकृत संस्कृत भाषामियां टीका विलिख्य धवलाख्याम्।" किन्तु धवला में व्याख्या प्राप्ति के केवल दो उल्लेख होने
इन श्लोकों का भाव इस प्रकार लिया जाता है- पर भी उसे बप्पदेव कृत नहीं लिखा है। दोनों उल्लेख भी 'वहाँ वीरसेन स्वामी को व्याख्याप्रज्ञप्ति (बप्पदेव गरु बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । एक उल्लेख तो द्रव्य प्रमाणानुगम की बनाई हई टीका) प्राप्त हो गई। फिर उन्होंने ऊपर में हैं जिसमें बतलाया है कि 'लोक' वातवलयों से प्रतिष्ठित के बन्धादि अट्ठारह अधिकार पूरे करके सत्कर्म नामका
है' ऐसा व्याख्याप्रज्ञप्ति का वचन है । दूसरा उल्लेख वेदना
खण्ड में है वह कुछ बड़ा है और आयुबन्ध से सम्बद्ध हैं। छठवा खण्ड संक्षेप से तैयार किया और इस प्रकार छह
उसे देकर कहा गया है कि इम व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र के खण्डों की ७२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत और संस्कृत साथ पट् खण्डागम सूत्र में कैसे विरोध न होगा। उसका मिथित धवला टीका लिखी ।
उत्तर देते हुए वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इस सूत्र से
उक्त व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र भिन्न प्राचार्य के द्वारा बनाया (पट् खण्डागम १ पु० की प्रस्तावना पृ० ३८ ।)
होने के कारण पृथक है, अतः उन दोनों में एकता नहीं हो जिस प्रकार की भूल बप्पदेव सम्बन्धी श्लोकों को सकती । समझने में की गई है वैसी ही भूल इन श्लोकों को भी वीरसेन स्वामी के इस समाधान से भी यही व्यक्त समझने में की गई है।
होता है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र भिन्न कतक कोई ग्रन्थ
हैं और वह षट खण्डागम का टीका ग्राथ नहीं है। 'धाइनका अर्थ इस प्रकार होता है
ख्या प्रज्ञप्ति सूत्र' शब्द से भी यही प्रकट होता है इसमें (षट् खण्डत पूर्व) पट् खण्डागम से पहले (व्याख्या
व्याख्या प्रजाप्ति को सूत्र कहा है टीका नहीं कहा। अतः
व्याख्या प्रजप्ति पट् खण्डागम का टीका ग्रन्थ प्रतीत नहीं प्रज्ञप्तिमवाप्य) व्याख्या प्रज्ञप्ति को पाकर (ततः तस्मिन्)
होता। फिर उसमें (उपरितमवन्धनाद्यधिकारैः अष्टादशविकल्पैः) ऊपर के बन्धन आदि अट्ठारह अधिकारों के द्वारा (सत्क
१ 'तं कधं जणिज्जदि ? लोगों वाद पदिट्ठिदों त्ति
वियाहपण्णत्तिवयणादो।'-पु. ३, पृ० ३५ मनामधेयं पष्ठ खण्डं विधाय) सत्कर्म नामक छठे खण्ड
२'एदेण वियाह पण्णत्ति सुत्तेण सह कहं ण विरोहो ? की रचना करके (संक्षिप्य) और उसे उसमें मिलाकर
ण, एदम्हादो तस्स पुधभूदस्स पाइरियभेदेण भेदमावण्णस्स (इति पण्णां खण्डानां) इस प्रकार छहों खण्डों की (ग्रन्थ एयत्ताभावादो।-पट् खण्डागम, पु०१०, पृ० २३८ ।
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जैन संत रत्नकीर्ति : जीवन एवं साहित्य
ले०-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, एम. ए. पी. एच. डो. वह विक्रमीय १७वीं शताब्दी का समय था। भारत एवं आयुर्वेद आदि विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन कराया। में बादशाह अकबर का शासन होने से अपेक्षाकृत शान्ति शिष्य व्युत्पन्नमति था। अतः शीघ्र ही उसने उन पर थी किन्तु बागड़ एवं मेवाड़ प्रदेश में राजपूतों और मुसल- अधिकार कर लिया। अध्ययन समाप्त कराने के बाद मानी शासकों में अनबन रहने के कारण सदैव ही युद्ध का अभयनन्दि ने उसे अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया। खतरा तथा धार्मिक संस्थानों एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के नष्ट ३२ लक्षणों एवं ७२ कलाओं से सम्पन्न विद्वान् युवक को किए जाने का भय बना रहता था। लेकिन बागड़ प्रदेश कौन अपना शिष्य बनाना नहीं चाहेगा । संवत् १६४३ में में भ० सकलकीत्ति ने १५वीं शताब्दी में धर्म एवं एक विशेष समारोह में उसका पट्टाभिषेक भी कर दिया साहित्य प्रचार की जो लहर फैलाई थी वह अपनी चरम गया और उसका नाम रत्नकीर्ति रखा गया। रत्नकीर्ति, सीमा पर थी। यद्यपि उस लहर को प्रचलित हुए सौ इस पट्ट पर संवत् १६५६ तक रहे। इसलिए इनका काल वर्ष से भी अधिक समय व्यतीत हो गया था फिर भी लगभग संवत् १६०० से १६५६ तक का माना जा उसमें धार्मिक वातावरण के अतिरिक्त जनसाधारण के सकता है। हृदयों में उत्साह और वात्सल्य का प्रवर्तन एक प्रकार
युवाकाल का प्रोत्तेजन दे रहा था, परिणामस्वरूप चारों ओर नयेनये मन्दिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठा विधानों की भरमार
सन्त रत्नकीति उस समय पूर्ण युवा थे। उनकी थी। भट्टारकों, मुनियों, एवं सन्तों का यत्र-तत्र विहार
शारीरिक सुन्दरता देखते ही बनती थी। जब वे धर्म होता रहता था और वे अपने सदुपदेशों द्वारा जन-मानस
प्रचार के लिए विहार करते थे, तो उनके अनुपम सौदर्य को पवित्र किया करते थे। गृहस्थों की उनके प्रति अगाध
एवं विद्वत्ता से सभी मुग्ध हो जाते थे। तत्कालीन विद्वान्
गणेश कवि ने भ. रत्नकीत्ति की प्रशंसा करते हए किखा श्रद्धा थी। जहां उनके चरण पड़ते थे वहां वे अपनी पलकें। बिछाने को तैयार रहते थे। ऐसे ही वातावरण में घोधा नगर के हैबड जातीय श्रेष्ठी देवीदास के यहां एक बालक
अरध शशिसम सोहे शुभ भाल रे। का जन्म हुआ। माता सहजलदे विविध कलाओं से युक्त
वदन कमल शुभ नयन विशाल रे॥ बालक को पाकर फूली नहीं समायी। बचपन में उसको
दशन दाडिम सम रसना रसाल रे। किस नाम से पुकारा जाता इसका कहीं कोई उल्लेख नही
अधर बिंबाफल विजित प्रवाल रे ॥१॥ मिलता। वह बालक बड़ा होनहार था "होनहार विरवान
कंठ कंबूसम रेखात्रय राजे रे । के होत चीकने पात" वाली कहावत उसमें पूरी तरह
कर किसलय-सम नख छवि छाजे रे । चरितार्थ हो रही थी। बड़ा होने पर वह विद्याध्यन करने वे जहां भी विहार करते सुन्दरियाँ उनके स्वागत में लगा।
विविध गीत गाती । ऐसे ही अवसर पर गाये हुये गीत का शिक्षा और पद प्राप्ति
एक भाग देखिएएक दिन उसका भट्टारक अभयनन्दि से साक्षात्कार कमल वदन करुणालय कहीये, हो गया। वे उसकी योग्यता तथा वाक् चातुर्यसे प्रभावित कनक वरण सोहे कांत मोरी सहीये । होकर बड़े प्रसन्न हुये और उसे अपना शिष्य बना लिया। कमल दल लोचन पापना मोचना, भ० अभयनन्दि ने उसे सिद्धान्त, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष
कलाकार प्रगटो विख्यात मोरी सहीये ।
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किरण १
बलसाढ़ प्रतिष्ठा
बलसाढ़ नगर में संधपति मल्लिदास ने जो विशाल प्रतिष्ठा करवायी थी वह रत्नकीति के उपदेश से ही सम्पन्न हुई थी । मल्लिदास हूँबड़ जाति के धावक तथा अपार सम्पत्ति के स्वामी थे। इस प्रतिष्ठा में सन्त रत्नकीर्ति अपने संघ सहित सम्मिलित हुए थे इसका विस्तृत वर्णन तत्कालीन कवि जयसागर ने अपने एक गीत में किया है । जल यात्रा का एक बर्णन देखिये - राग सामेरी
जंन सन्त रत्नफीति जीवन एवं साहित्य
:
जलयात्रा जुगले जाय, त्याहाँ माननी मंगल गाव । संपति मल्लिदास सोहत संघवेण मोहनदे कंत ॥ सारी श्रृंगार सोलमुसार, मन धरयो हरष अपार । च्याला जल यात्रा काजे, वाजिन बहुविध बाजे ॥ वर ढोल मीशाण नफेरी, दगडी दमाम सु भेरी । सणाई सरुणा साद, भल्लरी कसाल सुनाद ॥ यथूक नीसाण न फार बोले विरद बहुविध भार पालखी चामर शुभ छत्र, गजगामिनी नाचे विचित्र ॥ घाट चुनडी कुभ सोहावे, चंद्राननी ओढीने श्रावे । शिष्य परिवार
अब तक उपलब्ध रचनाओं से ज्ञात होता है कि भट्टारक रत्नकीकि के अनेक शिष्य थे। वे प्रायः विद्वान् एवं साहित्यसेवी रहे होंगे। किन्तु उनमें कुमुदचन्द्र, गणेश जयसागर एवं राघव के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कुमुदचन्द्र को संवत् १६५० में इन्होंने अपने पट्ट पर बिठलाया। ये अपने समय के समर्थ भट्टारक एवं साहित्य सेवी थे । इनके द्वारा रचित अनेक पद, गीत एवं रचनाएँ उपलब्ध हो चुकी हैं। कुमुदवन्द्र ने अपनी प्रत्येक रचना मे प्रायः अपने गुरु रत्नकीत्ति का स्मरण किया है। गणेश ने भी इनके स्तवन में अनेक पद लिखे है- एक वर्णन पड़िये
वदने चंद हरावयो, सीधले जीत्यो घनंग | सुंदर नयणा नीरखा मे लाजा मीन कुरंग । जुगल श्रवण सुभ सोभतारे नास्या शुकनी चंच |
(१) इनकी एक शिष्या वीरमति ने संवत् १६६२ में एक महावीर की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी, देखो भट्टारक सम्प्रदाय ।
-संपादक
अधर अरुण रंगे श्रममा दंतमुक्त परपंच । जुहवा जतीणी जाणे सखी रे, मनोपम अमृतवेल | प्रीवा कंबु कोमलनी रे, उन्नत भुजनीबेल ।
इसी तरह इनके एक शिष्य राघव ने इनकी प्रशंसा में लिखा है कि वे खान मलिक द्वारा भी सम्मानित किये गये थे
लक्षण बत्तीस कला अंगि वहोत्तरि, खान मलिक दिए मान जी ।
कवि के रूप में
रत्नकीत्ति को अपने समय का एक अच्छा कवि कहा जा सकता है। अभी तक इनके ३८ पद प्राप्त हो चुके हैं। पदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये सन्त होते हुए भी रसिक थे । इसीलिए इन्होंने अपने पदों का विषय मुख्यतः नेमिनाथ का विरह है। वे विरह की तड़पन से बहुत कुछ परिचित थे । किसी भी बहाने राजकुल धौर नेमि की संयोग कल्पना को मूर्तिरूप देना चाहते थे। कवि ने लिखा है कि राजुल बहुत चाहती है कि उसके नयन नेमि के आगमन की इन्तजार न करें, लेकिन लाख मना करने पर भी वे आगमन की बाट जोहना नहीं छोड़ते इसी भाव को अङ्कित करने वाला कवि का एक पद देखिए-
बरज्यो न माने नयन निठोर ।
सुमिरि-२ गुन भये सजल घन, उमंगी चलेमति फोर ॥१॥ चंचल चपत रहत नहीं रोके, न मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरि को मारग, जे ही विधि चंद्र
।
चकोर ||२|| तन मन धन योवन नही भावत, रजनी न जावत भोर । रतनकीरति प्रभु वेग मिलो, तुम मेरे मन के चोर ॥३॥ एक अन्य पद में राजुल कहती है कि नेमि ने पशुभ्रों की पुकार तो सुन मी लेकिन उसकी पुकार क्यों न सुनी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे दूसरों का दर्द जानते ही नही हैं
सखी री नेमि न जानी पीर ।
बहोत दिबाजे आये मेरे घरि संग लेई हलधर वीर ॥१॥ नेमिमुख निरखी हरपीयन से अब तो होइ मन धीर । तामे पसूय पुकार सुनी करो, गयो गिरिवर के तीर ॥२॥
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वर्ष १५
चंद वदनी पोकारती डारती, मंडन हार उर चीर। लगता है और न वदन पर प्राभूषण ही सुहाते हैं। इसे रतनकीरति प्रभू भये वैरागी, राजुल चित कियो धीर ॥३॥ कवि के शब्दों में पढ़िये
एक पद में राजुल अपनी सखियों से नेमि से मिलाने राग असावरी की प्रार्थना करती है। वह कहती है कि नेमि के वियोग
प्रा जेष्ट मासे जग जलहरनो उमाह रे । में योवन, चंदन, चन्द्रमा ये सभी फीके लगते हैं। मात,
काई बाप रे वाय विरही किम रहे रे ॥ पिता सखियां एवं रात्रि सभी दुख उत्पन्न करने वाली हैं
प्राररते भारत उपजे प्रङ्ग रे । इन्हीं भावों को रत्नकीति के पद में देखिये
अनंग रे संतापे दुख केहे रे ।। सखी,! को मिलावे नेमि नरिंदा ।
केहनें कहे किम रहे कामिनी आरति अगाल । ता विन तन मन यौवन रजत हे चारु चंदन अरु चंदा ॥१॥
चारु चंदन चीर चिंते माल जाणे व्याल ।। कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुःसह मदन को फंदा ।
कपूर केसर केलि कुंकम केवड़ा उपाय । तात मात अरु सजनी रजनी, वे अति दुख को कंदा ॥२॥
कमल दल जल छांटणा वन रिपु जांणे वाय । तुम तो शंकर सुख के दाता, करम अति काए मंदा ।
भावे नहीं भोजन भूषण, कर्ण केरा माप । रतनकीरति प्रभु परम दयालु, सोवत अमर नरिदा ॥३॥
परी नग में पान नीको, रालि करें कर माप । अन्य रचनायें
गिरिनारि केरो गिरितपे, सखि जेष्ट मास विसेष । इनकी अ य रचनाओं में नेमिनाथ फाग एवं नेमि
दुःसह दीन दोहिला लागे, कोमला सलेषि ॥ ॥ बारह मासा के नाम उल्लेखनीय है। नेमिनाथ फाग में
इस प्रकार सन्त रत्नकीति अपने समय के प्रसिद्ध ५७ पद्य हैं। इसकी रचना हांसोट नगर में हुई थी। फाग में नेमिनाथ एवं राजुल के विवाह, पशुओं की पुकार सुनकर भट्टारक एवं साहित्य सेवी विद्वान् थे। इनकी अभी और विवाह किये बिना ही वैराग्य धारण कर लेना और अन्त भी रचनाएँ उपलब्ध होने की आशा है । इनके द्वारा रचित में तपस्या करके मोक्ष जाने की प्रति संक्षिप्त कथा दी हुई पदों की (जो अभी तक हमें उपलब्ध हुये है) प्रथम पंक्ति है। राजुल की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि ने एक निम्न प्रकार हैस्थान पर लिखा है
१. पद-सारंग ऊपर सारंग साहे सारंगत्यासार जी चंद्रवदनी मृगलोचनी मोचनी खंजन मीन ।
२., -सुण रे नेमि सामलीण साहेब क्यों बन छोरीजाय । वासग जीत्यो वेणिई, श्रेणिय मधु कर दीन ।।
, -सारंग सजी सारंग पर आवे युगल गल दाये शशि, उपमा नाशा कीर ।
,, -वृषभ जिन सेवो बहु सुखकार अधर विद्रुम सम उपता, दंतनू निर्मल नीर ।।
, -सखीरी सावन घटाई सतावे चिबुक कमल पर षट पद, पानंद करे सुधापान ।
-नेमि तुम कैसे चले गिरिनार ग्रीवा सुंदर सोभती, कंबु कपोल ने वान ॥१२॥
७., कारण कोउ पिया को न जाणे नेमि बारह मासा इनकी दूसरी बड़ी रचना है । इसमें -राजुल गेहे नेमी जाप १२ त्रोटक छंद हैं। कवि ने इसे अपने जन्म स्थान घोधा ६., -राम ? सतावे रे मोही रावन नगर के चैत्यालय में लिखा था। इसमें राजुल एवं नेमि १०., -प्रब गिरि वरज्यो न माने मेरो के १२ महीने किस प्रकार व्यतीत होते हैं यही वर्णन करना ११. -नेमि तुम मापो धरिय घरे रचना का मुख्य उद्देश्य है। ज्येष्ठ मास का वर्णन करते १२.,, -राम कहे अवरं जपा मोही भारी हुये कवि ने लिखा है इस मास में काम इतना सताने १३.,-दशानन ? वीनती कहत होइ दास लगता है कि चंदन का लेप एवं केवड़ा जल का स्नान भी १४., --वरज्यो न माने नयन निठोर उसके काम वृद्धि में सहायक होते हैं। न भोजन अच्छा १५.,-झीलते कहा करचो यदुनाथ
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राजा हरसुखराय
लेखक - श्री परमानन्द शास्त्री
दिल्ली के धर्मपुरा का विशाल जैन मन्दिर राजा हरसुखराय के उदात्त परिणामों का फल है। यह मन्दिर कलात्मक सुन्दर और ऐतिहासिक दृष्टि से दिल्ली के उपलब्ध सव मन्दिरों से महत्वपूर्ण है । वेदी की नक्कासी का कार्य अनुपम है ।
एक समय था जब दिल्ली के बादशाह ने हिसार से लाला हुकूमतराय को (जो उस समय वहाँ प्रतिष्ठित नागरिक और शाही श्रेष्ठी कहे जाते थे) दिल्ली बुलवाया, और उन्हें स-सम्मान रहने के लिए शाही मकान प्रदान किया । लाला जी के पांच पुत्र थे, हरसुखराय, मोहनलाल संगमलाल, सेवाराम और तनसुखराय । इनमें हरसुखराय सब में ज्येष्ठ, गंभीर और बात बनाने की कला में अत्यन्त निपुण, मिठबोला एवं कम बोलते थे । दिल्ली में आबाद होने के थोड़े ही दिन बाद उनकी केवल श्री वृद्धि ही नहीं हुई; किन्तु लोक में उनकी प्रतिष्ठा और गौरव भी बढ़ा। उनका गौर वर्ण, लम्बा कद और पतला दुबला बदन, पाय
१६ पद -- शरद की रयनि सुन्दर सोहात १७.,, - - सुंदरी सकल सिंगार करे गोरी १८. - कहा थे मंडन करूं कजरा नेन भरूं
१६. सुनो मेरी सपनी धन्य या रयनी रे
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२०.,, - थडो नीहालती रे पूछति सहे सावननी बाट
२१. रात्री ? को मिलावे नेमि नरिंदा
२२,, - सखीरी ? नेमि न जानी पीर
"
२३.,, -. वदेहं जनता दारण
-
२४. " श्रीराग गावत सुर किन्नरी २५, श्रीराग गावत सारंग धरी
२७.,,
२६.,, - आजू याली आये नेमि तो साउरी --बली बंधोका न वरज्यो अपनो 1- आजो रे सखि सामलियो, बहानो रथ परि रूडो भावेरे ।
२८.,,
जामा, कुर्ती और पगड़ी शाही लिबास में जिन्हें पहिचानना कठिन हो जाता था। उनकी दरबारी पोशाक उन्हें जैन बताने के लिये सर्वथा असमर्थ थी । वे अधिक बोलना भी पसन्द नहीं करते थे, पर जो कुछ भी बोलते थे उसमें इतनी सावधानी जरूर रखते थे कि उससे किसी का महित न हो जाय ।
उत्कर्ष के दिन
इन्होंने सन् १७६१ वि० सं० १८४८ में साहूकारे की एक कोठी लाला सन्तलाल जी के साझे में खोली । लाला सन्तलाल जी अग्रवाल पानीपत के निवासी थे, वहां से प्राकर
किसी समय दिल्ली में बसे थे। बादशाह की ओर से उन्हें भी शाही मकान दिया गया था, जो आज भी उनके कुटुम्बियों के पास सुरक्षित है ।
कोठी खुलने के कुछ ही समय बाद ला० हरसुखराय श्री सन् १७६५ ( वि० सं० १८५२ मे ) शाही खजांची बना दिये गए। खजाची का कार्य इन्होंने बड़ी दूरदर्शिता और
२९. पद - गोखिचडी जू ए राजुल राणी नेमिकुमर वर श्रावेरे ।
३०.,, - आवो सोहामणी सुदरी वृन्द रे, पूजिये प्रथम जिणंदरे ।
३१.,, -- ललना समुद्र विजय सुत साम रे, यदुपति नेमि कुमार हो ।
३२.,, -- -सुणि सखि राजुल कहे हई हरप न माप लालरे ३३.,, - सशधर वदन सोहाणी रे, गजगामिनी गुणमालरे ३४., वाणारसी नगरी नो राजा अश्वसेन गुण धार रे श्री जिन सनमति अवतरचा ना रंगी रं ३६.,, - नेमि जी दयालु रे तू तो यादव कुल सिणगाररे
३५.
३७.,, कमल वदन करुणा निलयं
सुदर्शन नाम के मैं बारि
जैन साहित्य शोध संस्थान की ओर से प्रकाशित ।
25. "
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अनेकान्त
वर्ष १५
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तत्परता से किया, उससे साहूकारी करने में विशेष सफलता मिली, और बादशाह के हृदय में उनके प्रति आदर उत्पन्न हो गया। इतना ही नहीं; किन्तु बादशाह आपके काम से इतना खुश हुआ कि उसने पापको राजा की उपाधि से भी अलंकृत किया। वे बादशाह आलमशाह द्वितीय के नवरत्नों में से एक थे। उनका चित्र नवरत्नों के साथ, दिल्ली के लालकिले के पुरातत्व संग्रहालय में लगा हुआ है।
लाला हरसुखराय को शाही खजांची होने के नाते सरकारी सेवाओं के उपलक्ष्य में तीन जागीरें, सनदें और सार्टिफिकेट आदि भी प्राप्त हुए थे। जो उनके कुटुम्बियों के पास आज भी सुरक्षित है। आप भरतपुर राज्य के कौंसिलर (Councilor) भी थे। तथा राजस्थान के कोषाध्यक्ष होने से आपका सम्बन्ध अच्छे-अच्छे अंग्रेजों और विभिन्न राज्यों के दीवानों, राजाओं, नवाबों और सेठसाहकारों से था। और समाज में भी आपकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। खजांची होने के साथ आपकी सूझ-बूझ और योग्यता इतनी अच्छी थी कि पाप से एक बार परिचित होने पर आप उनके सदैव शुभचिन्तक और हितैषी बने
राजा हरसुखराय* रहते थे। बड़े पुण्यात्मा और भद्र प्रकृति मानव था थे, अतएव उसे धार्मिक कार्यों एवं परोपकार में लगाकर सौजन्य और भद्रता पूर्ण व्यवहार आपकी महत्ता के द्योतक उसका प्राय
उसका प्रायश्चित्तमात्र करते थे और देने के बाद उससे वे थे। लक्ष्मी पति होने पर भी अभिमान छू भी नहीं गया अाना मोहभाव सर्वथा हटा लेते थे । यदि वे ऐसा न करने था। वे पान पर मिटना जानते थे, और बात के धनी थे, तो उससे रागभाव बना रहता, और वह अहंकार तथा । जो कह देते थे वह कर गुजरते थे। अन्य साधी भाइया ममकार की वृद्धि का कारण बनता, जिससे प्रात्मा अनन्त के प्रति उनका व्यवहार अत्यन्त सौहार्द पूर्ण, दयालुता और दुःखों का पात्र होता । अतः उन्होंने विवेक से कार्य किया साधर्मी वात्सल्य से भरा हया था। वे धन को धामिक और वे सदा के लिए निःशल्य बन गये। बेनकी कर और कार्यों में कोड़ियों की तरह बखेरते थे, और गरीबों का कुए में डाल' की नीति का चरितार्थ करते थे। उनका सदा सन्मान करना अपना कर्तव्य मानते थे। और इस
यह त्यागभाव जैनधर्म के अनुकूल था; किन्तु खेद है कि [ का सदा ध्यान रखते थे कि मरा वजह स किसा क अब समाज दान की यथार्थता और महत्ता को भूल गया स्वाभिमान में कोई ठेस न पहुँच जाय । और कोई बुरा है। इसी कारण वह थोड़ा सा दान करके भी आपनी मानकर यह न कह बैठे कि हम तो गरीब ही भले है, पर यशोलिप्सा का संवरण नहीं कर सका. इसी कारण वह पाप तो अपनी धन्ना-सेठी प्रकट कर रहे है। अस्तु, वे धार्मिक कार्यों में धन लगा कर अपना और अपने कुटुम्बियो अपनी सम्पत्ति का अनेक धार्मिक और लौकिक कार्यों में का नाम उत्कीर्ण कराता है। खुलकर विनिमय करते थे, परन्तु बदले में सम्मान की जीवन-घटना कोई भावना नहीं रखते थे। उन्होंने कभी यश के लिये आपके जीवन-सम्बन्ध में अनेक घटनाएं प्रचलित हैं, धन खर्च नहीं किया और न उससे नाम पाने का कभी उनमें कुछ का सम्बन्ध जीवन के साथ हो सकता है और स्वप्न में विचार ही किया। वे परिग्रह को पाप समझते *लालकिला पुरातत्त्व विभाग संग्रहालय के सौजन्य से प्राप्त
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किरण १
राजा बरसुखराय
कुछ केवल उनके प्रभाव को ही मूचित करती हैं। यहाँ साकार हो उठा और स्वप्न में ही प्रसन्नता के साथ एक ऐसी जीवन-घटना दी जा रही है, जिससे उनके साहस मन्दिर निर्माण कराने का विचार भी पक्का हो गया। उस और परद्रव्य से निस्पृहता का भाव अंकित हुए बिना नहीं समय दिल्ली में इतने जैन मन्दिर न थे और जो थे वे रहता।
इतने सुन्दर विशाल एवं चित्ताकर्षक भी न थे, जिनमें उन पर लक्ष्मी की अतिशय कृपा थी, पुण्योदय से जनता सुविधा के अनुसार वात्सल्य के साथ धर्म-साधन कर वैभव में पर्याप्त वृद्धि हो रही थी, फिर भी भावों में सके। साथ ही उसमें उनकी इच्छा एक विशाल शास्त्र प्रत्याशक्ति और इंद्रिय-विपयों में लोलुपता नहीं थी। उस भडार का संग्रहीत करने की थी; क्योंकि सर्वसाधारण को समय रुपया बाहर से गाड़ियों में आता-जाता था। आने स्वाध्याय करने के लिए शास्त्र सुलभ नही होते थे। इन्हीं
माना लगा दिया सद्विचारों से प्रेरित हो आपने मन्दिर बनवाने का निश्चय जाता था (कहा जाता है कि रुपया मकान में समाता नहीं
माना नहीं किया और प्रातःकाल ही अपनी उस योजना को कार्यरूप था)। शाही खजांची होने के कारण बड़े-बड़े नवाबों, में परिणत करने के लिये अपने मकान के पास हो राजाओं आदि को रुपये की आवश्यकता होने पर निश्चित धमपुरा म विशाल जमान खराद का और बादशाह से व्याज पर दे दिया जाता था और सरकारी खजांची होने
'मन्दिर-निर्माण' करने की प्राज्ञा भी ले ली। आज्ञा मिलते के कारण उसकी वमूली में देर नहीं लगती थी।
ही आपने शुभ मुहूर्त में विशाल मन्दिर की नींव डाल दी सन् १८५७ में जब राज विप्लव (गदर) हुआ, दिल्ली
और उसकी चिनाई का काम तत्परता के साथ होने लगा और उसके आस-पास भय और अातंक का साम्राज्य छाया,
और सात वर्ष के कठोर परिश्रम के द्वारा मन्दिर बनकर तब आपने अपने कुटुम्बीजनों को सुरक्षा की दृष्टि से
प्रायः तैयार हो गया। जब शिखर में दो-तीन दिन का हिसार भेज दिया और आप एकाकी निर्भय हो अपने
काम अवशिष्ट रह गया, तब राजा साहब ने तामीर बन्द नौकरों के साथ दिल्ली में ही रहे। उस समय लूट-खसोट
कर दी, जो राजा साहब सर्दी-गर्मी और बरसात में हर
समय मिस्त्री मजदूरों में खड़े होकर काम कराते थे, वे अब और डांकेजनी यादि की भीषण घटनाएं हो रही थी। कुछ डाकू लोग अपने सरदार के साथ आपके मकान पर
वहाँ नहीं है। भी पाये, राजा जी ने डाकुयों को देखते ही अपने मकान ।
विरोधी जनों को अटकल (अनुमान) लगाते देर न को खोल दिया और स्वयं तिजोडियाँ खोल दी और डाकयों लगी और एक महाशय बोले-'हमने पहले ही कहा था के सरदार से कहा कि आपको जितने धन की जरूरत हो कि इस मुसलमानी राज्य में जब पुराने मन्दिरों का संरले जाइये । डाकुमो का मरदार समझदार था, उसने सोच क्षण दूभर है, तब नये मन्दिरों का निर्माण बादशाह कैसे विचार कर अपने साथियों से कहा कि यह बडा भला सहन कर सकता है ? अादमी है, इसका यह माल अपने को हजम नही हो इतने में दूसरे मज्जन अपनी बुद्धि का कौशल दिखसकता । आप अपना माल सम्हाल कर रक्खें-हमें उसकी लाते हुए बोल उठे, खैर भाई, राजा साहब बादशाह के जरूरत नहीं और हम आपकी रक्षा के लिये अपने पाँच खजांची हैं, मन्दिर बनवाने की अनुमति ले ली होगी।
आदमी छोड़े जाते है जिससे आपको अन्य डाक लोग तग मगर शिखरबन्द मन्दिर कैसे बनवा सकते हैं ? शिखर बन न करें। राजा साहब डाकुनों के सरदार की बात सुनकर जाने पर मंदिर और मस्जिद में अन्तर ही क्या रह जायगा । अवाक रह गए और आश्चर्य से उनकी ओर देग्यने लगे। ये बातें परस्पर हो ही रही थी कि इतने में एक वृद्ध
सज्जन अपने अन्य दो साथियों के साथ उधर पा निकले, जिनमन्दिर निर्माण
उनमे एक ने मंदिर की ओर देखते हुए कहा। राजा सन् १८०१ (वि० सं० १८५८) में राजा साहब के माहब ने मन्दिर बनवाया तो है, बहुत सुन्दर पर मुसलमान मन में रात्रि में सोते समय मन्दिर निर्माण का विकल्प इसे कब सहन कर सकते थे। मैं तो यह पहले ही जानता
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वर्ष १५ था; परन्तु मैंने किसी से कुछ कहा नहीं था, अब देखो ना, की थी, फिर न मालूम यह क्यों आपत्ति पाई। तामीर बन्द करनी ही पड़ी है । इस राज्य ने सहस्त्रों मंदिर
राजा साहब ने बहुत कुछ टाल-मटूल की, पर अन्त में धराशायी करा दिये हैं, मूर्तियां तुड़वा डाली हैं। ऐसी है
वे सकुचाते हुए बोले, भाइयों के आगे अब पर्दा रखना भी स्थिति में भला इसकी तामीर कैसे चल सकती थी ?
ठीक मालूल नहीं होता-जो कुछ थोड़ी सी पूंजी थी वह इसीसे बन्द करनी पड़ी जान पड़ती है। इतने में दूसरे
सब समाप्त हो गई। मैं कर्ज लेने का आदी नहीं हूँ, सोचता सज्जन, जो राजा साहब के व्यक्तित्व से प्रभावित थे, एवं
हूँ विरादरी से चन्दा कर लूं, पर कहने की हिम्मत ही नहीं उनके प्रेमी थे, बोले आपलोग जो तरह-तरह के अनुमान लगा.
होती। अतः मजबूर होकर तामीर बन्द करनी पड़ी। कर व्यर्थ की बातें कर रहे हैं । राजा साहब के पास जाकर
इतना कहना था कि मित्रों का हृदय-कमल खिल उठा, ठीक हाल क्यों नहीं मालूम कर लेते। यदि बादशाह की आज्ञा
वस, इतनी सी बात पर आपको चिन्ता करने की जरूरत तामीर बन्द करने की हुई है तो राजा साहब से उसका
नहीं थी पापको किसी से कर्ज लेने की आवश्यकता ठीक पता चल सकेगा। बिना किसी निर्णय के वे शिर-पैर
नहीं और न चन्दा मांगने की ही जरूरत है और न हम की बातें कर दिल के फफोले क्यों निकाल रहे हो। चलो,
लोगों के होते हुए इतनी परेशानी उठाने की। अन्यथा तुम्हें डर लगता है तो मैं राजा साहब से मालूम कर दूंगा।
धिक्कार हैं हमारे इस मानव जीवन को। आपको जितने इतने में वृद्ध महाशय पुनः कह ही बैठे, इसमें राजा साहब
धन की आवश्यकता हो सेवा में हाजिर है। का क्या बिगड़ा, पर हमारी नाक तो नीची हो ही गई। उन्हें चिन्ता भी क्या, शाही खजांची जो ठहरे। घर में
राजा साहव किंचित् मुस्कुराहट के साथ कुछ लज्जा चन से बैठे होंगे, उन्हें उसका पता जरूर चल गया होगा;
__ का अनुभव करते हुए बोले-मुझे अपने साधर्मी भाइयों अन्यथा तुम्हीं बतामो, एकदम तामीर बन्द होने का क्या
से इसी उदारता की आशा थी, किन्तु मुझे इतनी रकम कारण है ? इतने में तीसरे साथी ने कहा बाबु साहब ने
की आवश्यकता नहीं है। दो-तीन दिन की तामीर खर्च ठीक ही कहा, राजा साहब से मालूम कर अपना संशय
के लिए जितनी रकम की आवश्यकता है उसे यदि मैं लगा क्यों नहीं दूर कर लेते, व्यर्थ की अटकल वाजियों से कोई
तो सारी विरादरी से, अन्यथा किसी से भी नहीं लूगा । काम नहीं होता और न दोषारोपण से कोई भला हो सकता राजा साहब के समक्ष किसी किस्म का आग्रह करना है । यहाँ व्यर्थ का विसंवाद करने से क्या प्रयोजन है ? वहाँ उचित नहीं था, अतः प्रत्येक घर से नाममात्र का चन्दा जाने में पाप लोगों को भय और संकोच क्यों हो रहा है, किया गया और मन्दिर के शिखर का काम पूरा हो गया। यह उचित मालूम नही होता। केवल छिद्रान्वेषी होने से उस समय मन्दिर की शोभा अद्वितीय थी और वह देखते काम नहीं चल सकता। राजा साहब चतुर व्यक्ति हैं, ही बनती थी। पक्की रंगीन सुवर्णाकित चित्रकारी, साथ ही धर्मनिष्ठ हैं वे धर्म पर पाए हए संकटों को कैसे वारीक बेल-बूटा, प्रांगण का (प्रांगनका) सुन्दर डिजायन, सहन कर सकते हैं।
खुला हुआ सहन और चारों ओर अलंक्रत कमनीय दृश्य, जब अन्य मित्रों और साधर्मीजनों को मन्दिर की कलात्मक वेदी का निर्माण और उसकी पच्चीकारी की तामीर बन्द होने के समाचार ज्ञात हए, तो खेदखिन्न हो अनूठी कला । जो मन्दिर को देखता, गद्गद् हो जाता । (मोर माहार-पानी का परित्याग कर) राजा साहब के हृदय प्रसन्नता से भर जाता और यह कहे बिना नहीं पास दौड़े हुए भाए और मांखों से अश्रुधारा डालते हए, एवं रहता कि धन्य है राजा साहब को, जो इतना सुन्दर और अपनी प्रान्तरिक वेदना व्यक्त करते हुए बोले, राजा साहब, विशाल मान्दर बनवाकर तय्या 'मापके होते हुए मन्दिर अधूरा रह जाय, तब तो हमारा जब मन्दिर की प्रतिष्ठा का समय आया, तब आपने दुर्भाग्य ही है। मापने तो कहा था कि बादशाह सलामत उसे बड़ी भारी तय्यारी और महोत्सव के साथ सम्पन्न ने शिखरबन्द मन्दिर बनवाने के लिए खुद ही इच्छा व्यक्त कराया । (उसके लिए एक विशाल पण्डाल बनवाया गया)
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राजा हरसुलराय और प्रतिष्ठा का कार्य उत्साह के साथ सम्पन्न किया गया रोहण कीजिए। तब राजा साहब पगड़ी उतार कर बोले और सन् १८०७ वि० सं० १८६४ में वैशाख शुक्ला तीज। -भाइयों, मन्दिर मेरा नहीं, पंचायत का है सभी ने चंदा (अक्षयतृतीया) के दिन शुभ मुहूर्त में अभिषेक के साथ दिया है। अतः पंचायत ही कलशारोहण करे और वही जय-जय शब्दों के नादपूर्वक श्री आदिनाथ की प्रशांत मूर्ति आज से मन्दिर का प्रबन्ध करे । जब लोगों ने राजा साहब विराजमान की गई।
की बात सुनी, तो अवाक रह गए और तब उन्हें उस थोड़े प्राकस्मिक दुर्घटना
से चन्दा देने का रहस्य समझ में आया और ला० हरसुखप्रतिष्ठा महोत्सव का कार्य सम्पन्न हो ही रहा था
राय जी के अन्तः विवेक का पता चला। उस समय राज
को चार पाना और मजदूर को दो आना मजदूरी के मिलते कि महोत्सव के कार्य में सहसा एक विघ्न मा गया, जिसने
थे। तब इस मन्दिर में ७-5 लाख रुपया लगा है। दशहजार रंग में भंग कर दिया, उस दिन उत्सव का अन्तिम दिन
में तो केवल वेदी के ऊपर का कमल बना था और सवा था, पंडाल जनता से खचाखच भरा हुआ था और नृत्य
लाख में संगमर्मर की वेदी, राजा साहब का विवेक अत्यन्त गान, भजन हो रहा था। इतने में बदमाशों की कुछ टोली
मूल्यवान था, यद्यपि वे विशेष शास्त्र-ज्ञानी नहीं थे; परन्तु में मंडप के चारों ओर आग लगा दी, तथा चाँदी-सोने का
ममता को बुरी समझते थे। इसीसे उन्होंने पर वस्तु से सामान लूटना शुरू कर दिया, सभी लोग घबड़ाए हुए
अपने अहंभाव को दूर कर अपनी विवेक जागृति का मडप से पर की ओर भागे । स्त्री बच्चों को सुरक्षित स्थान
परिचय दिया था, इतना ही नहीं किन्तु मन्दिर की सुरक्षा पर पहुँचाया । प्राग बुझाने का भी प्रयत्न किया गया।
और उपासना आदि के लिये काफी जमीन जायदाद दे गए राजा साहब सचिन्त्य दशा में खड़े हुए उसकी रक्षा का
थे, जो आज भी मन्दिर के पास मौजूद है। इस जीव को प्रबन्ध कर रहे थे। फिर भी गुन्डे लोग चांदी-सोने का
अहंकार-ममकार ही तंग करते हैं और वही मानव को बहुतसा कीमती सामान लेकर भाग गए। आग बुझा दी
पतन की और ले जाते है । पर विवेकी मनुष्य उनके फंदे में गई, अगले दिन प्रातः काल राजा साहब दरबार में पहुंचे
नहीं पाते। राजा हरसुखराय का ममकार-अहंकार का त्याग राजा साहब का चेहरा कुछ उदास और गम-गीन-सा
उन के आदर्श जीवन की महत्ता का द्योतक है, और जैन दिखाई देता था । यद्यपि उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करने का
समाज के लिये अनुकरणीय आदर्श, जो धार्मिक कार्यों में काफी प्रयत्न किया; किन्तु सब बेकार, कारण अन्तर्मानस
अल्प द्रव्य लगाकर अपनी महत्ता प्रकट करते हैं उन्हें राजा में वेदना जो थी। बादशाह को जब हाल मालूम हुमा,
साहब के अपूर्व त्याग और अन्तः विवेक पर ध्यान देना तब गुन्डों को बुलवाया और आज्ञा दी, कि राजा साहब ।
चाहिये । जीवन अल्प, लक्ष्मी चंचल और विनाशीक है, का जो कुछ भी सामान लाये हो, वह सभी वापिस करो।
नहि मालूम ये कब विघट जाये। अतः विवेक को सबल इस प्रकार की हरकत तुम्हें नही करनी चाहिये थी और
करने प्रयत्न का करना चाहिये । यदि तुमने पाइन्दा ऐसी हरकतें की तो तुम्हें उसकी सख्त सजा दी जावेगी। अस्तु, गुण्डों ने तत्काल चोरी किया शाही समय में दिल्ली में प्रथम जैन रथोत्सव हुआ सब सामान लाकर खजांची साहब को दे दिया। और
संवत् १८६७ में राजा साहब के हृदय में रथोत्सव प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न हुआ और श्री नये मन्दिर जी में
निकालने का विचार हुआ, साथ ही, आपके मित्रों ने भी श्री आदिनाथ की प्रशान्त मूर्ति विराजमान की गई और
रथोत्सव के निकलने की प्रेरणा की। प्रतः अपनी चतुराई मंदिर आदिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुअा।
से सुनहरी मस्जिद का जो सुवर्ण-लेप खराब हो गया था राजा साहब का अन्तः विवेक
उसे पुनः करवा दिया। जब चाँदनी चौक से शाही सवारी जब कलशारोहण का समय आया और पंचायतने गुजरी, तब बादशाह ने देखा कि मस्जिद का गुम्बज ऐसा राजा. माहब से निवेदन किया कि राजा साहब कलशा- चमक रहा है जैसे उस पर अभी ही सुवर्ण-लेप कराया
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महाफवि रघू द्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी
लेखक-प्रो० राजाराम जैन एम. ए.
अपभ्रंश साहित्य के इतिहास में महाकवि रइधू कृतियों में उल्लिखित प्रशस्तियों एवं प्रेरक तथा प्राश्रयका व्यक्तित्व एवं कृतित्व अपना विशेष स्थान रखता है। दाताओं के भरे-पूरे मण्डल तथा उनके कथनोपकथनों को उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेकों रचनाएं की, लेकिन पढ़कर यह विदित होता है, कि ग्रन्थ रचना के पूर्व महाअभी तक उनकी कुल २३ रचनामों का पता चल सका है, कवि के हृदय की तरंगों एवं प्रतिभा के महत्वपूर्ण तन्तुओं उनमें भी अभी २-३ रचनाएं अनुपलब्ध ही है। उपलब्ध को झंकृत करना आवश्यक होता था। उनके परमभक्तों में रचनाओं में से ३-४ रचनाओं को छोड़कर बाकी की प्राय: क्या राजा-महाराजा, क्या राजपुरुष और क्या भट्टारक या सभी रचनायें विशाल है। कृतियों में अन्तरंग एवं बहिरंग अध्यात्मक-रस-मधुप ब्रह्मचारी, प्रायः सभी उन्हें रिझाना स्वरूप के निरीक्षण-परीक्षण करने से विदित होता है कि भी खूब जानते थे, जिनकी कुशल सूझ-बूझ से महाकवि वे एक महान भावुक एवं उदार महाकवि थे। कुछ रचनाएं रइधु अपने दो विशाल एवं अमूल्य ग्रन्थरत्न हमें प्रदान तो उन्होने स्वान्तः सुखाय लिखी, लेकिन कुछ को उन्होंने कर सके। अपने परम भक्तों के अत्याग्रह पर लिम्वीं। महाकवि की ब्रह्मचारी खेल्हा का व्यक्तिगत जीवन-परिचय रइधृ
गया हो, जब बादशाह ने पूछा तब किसी ने कह दिया आपने हस्तिनापुर, करनाल, मुनपत, हिसार, सांगानेर और कि खजांची साहब ने कराया है। इसे सुनकर बादशाह पानीपत आदि स्थानों पर भी मन्दिर निर्माण कराये थे। बहुत खुश हुमा । अगले दिन दरवार में जब राजा हरसुख और वे सब उसी समय पंचायत को सौप दिये गए थे। राय जी गए, तब बादशाह ने कहा, आज आप जो मांगना आप गुप्तदानी और दयालु भी थे, जब किसी की हीन चाहें सो मांगलें । तब उन्होंने कहा कि जहापनाह-पाप स्थिति का पता चलता, तो अपने आदमियों के हाथ उनके की कृपा से मेरे पास सब कुछ है, परन्तु मेरे मित्र और घर लड्डुओं में मुहरें रखक रभिजवा देते थे, पर इस बात समाज वाले सब यह प्रेरणा करते है कि रथोत्सव कैसे को कभी प्रकट नही करते थे। यदि कोई वापिस करने निकाला जा सकता है ? इसी चिन्ता में मै हूँ। बादशाह . आता तो कह देते थे हमारी नहीं है, वे तो आपकी ही है ने कहा रथोत्सव निकालिये, शाही लवाजिम और जो चाहे आपको अपने भाग्य से ही प्राप्त हुई हैं। इस तरह वे सो राज्य से मिलेगा- तब हरसुखराय जी ने कहा, जहांप- समदत्ति और दयालुता के विवेक को जानते थे। नाह, आपकी कृपा से ही रथ निकल सकता है। अब सन् १८०३ (वि. स. १८६०) में अंग्रेजो ने दिल्ली मैं आपकी आज्ञानुसार रथोत्सव निकालने का प्रयत्न पर कब्जा किया, तब उनके कार्यों में भी सहायोग दिया करूंगा । पश्चात् उत्साह के साथ दिल्ली में प्रथम रथोत्सव और खजांची का कार्य करते रहे। उस समय हुकम तो निकाला गया।
बादशाह का चलता था किन्तु अधिकार अंग्रेजों का था। अन्य मन्दिर निर्माण कार्य
बाद में उन्होंने बादशाह को भी हटा दिया, और वे एक मात्र आपने केवल मन्दिर निर्माण ही नहीं वराया, किन्तु शासक रह गये। नये मन्दिर में विशाल शास्त्रों का संकलन भी कराया, जो इस तरह धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए आपने
आज भी अच्छी अवस्था में मौजूद है । और जिस में अनेक स० १८७६ के लगभग कोठी का साझा परस्पर बांट दिया प्राचीन प्रतियाँ ग्रन्थ सम्पादन में उपयोगी हैं और वे बाहर और नि शल्य बन गये । उसके एक वर्ष बाद सं० १८८० विद्वानों के पास भेजी जाती हैं। दिल्ली के अतिरिक्त में उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया।
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महाकवि रहबूद्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी
साहित्य में विस्तृत रूप से नहीं मिलता, किन्तु उनकी प्रेरणा से रइधू द्वारा लिखे गये "सम्मइ जिण चरिउ" एवं "णेमिचरिउ" नामक दो ग्रन्थों की प्रशस्तियों में उनके सम्बन्ध में अवश्य ही कुछ सूचनायें मिलती हैं। उन्हीं के आधार से यह विदित होता है कि वे महान् साधक एवं ब्रती तपस्वी तो थे ही, साथ ही साहित्य-रसिक, साहित्य-प्रेरक एवं साहित्य प्रेमी भी । व्यावहारिक दृष्टि से भी वे बड़े चतुर एवं साहित्य की श्री-वृद्धि में तत्पर रहते थे। खेल्हा ने महान वि रइधू से किस प्रकार ग्रंथ-रचनाएं कराई उसकी चर्चा यहां की जाती है।
रणेमिचरिउ–णेमिचरिउ महाकवि रइधू की सभी रचनाओं में एक विशाल कृति है। इसमें १४ सर्ग एवं ३०२ कड़वक अथवा लगभग १६०० पद्य हैं । कई दृष्टियों
प्रसि कईस मणि वियरतहं । जिण समय सुतु पयर्डतहं ॥ से महत्वपूर्ण इस रचना के निर्माण करा सकने के लिए
किंचिण दोसु संक णउ किज्जई। सकइत्तणि सत्तिण खेल्हा ब्रह्मचारी को अथक एवं अनवरत परिश्रम के साथ
लोविज्जइं। (मि० १२४।६-६) ही साथ बड़ी कुशल सूझ-बूझ से काम लेना पडा। खेल्हा
उक्त वक्तव्य के अन्तिम पद "सकइत्तणि सत्ति ण के मन में इच्छा जाग्रत होती है कि रइधू उनके निमित्त
लोविजई" पद ने कवि की हत्तंत्री को झंकृत कर दिया (ग्राम्प-अपभ्रश में) "णेमिचरिउ की रचना करें अतः वे
और इस प्रकार खेल्हा के मनोरथ की पूर्ति के हेतु कवि उनसे निवेदन में कहते हैं .---
तैयार होने की सोचने लगता है किन्तु फिर भी उसने कोई भो रइधू पंडिय मुह भावण। पई बहु सत्थरइय सुह दावण ।।
विशेष उत्साह नहीं दिखाया। खेल्हा की कुशल-दृष्टि से सिरि तेसठ्ठि पुरिम गुण मंदिरु । रइउ महापुराण जय चंदिका कवि का यह गूढ़ रहस्य भी छिपा न रह सका और उसने तह भरहह सेणावइ चरिय । कोमइ कह पबंध गण भरियल लगे हाथ झनझनपुर के लोणासाहु की कवि के प्रति श्रद्धाजसरह चरिउ जीवदय पोसणु । वित्तसार सिद्धत पयामणु।। भक्ति का परिचय देते हुए कह ही दियाजीवंधरह वि पासह चरियउ । विरदवि भवण त्तउ जस भरियउ प्रच्छइ सो तुम्हहं भत्तिल्लउ । मण कमलंतरि सरइ अतुल्लउ॥ भो कइ तिलय महागुण भूसणु । सिरि अग्?िनेमिहु जणपोसणु।।
(णेमि ११७४४) विरइय चरिउ मज्भ उवरोहे । सोउं वंकमि पयणिय मोहें। तब खेल्हा ने देखा कि उक्त कथन से कवि के ललाट
(णेमि०१४३१५-११) को रेखाएं कुछ कुछ खिल रही हैं तब फिर उसने पुनः
निवेदन कियालेकिन उक्त कवि-प्रशंसा एव ब्र० खेल्हा के निवेदन
तुहु पुणु सावयजण उवयारिउ । ने कवि के मन पर कोई भी गहरा प्रभाव नहीं डाला और
विरहि मत्थु मिग्धु महु परिउ ।। वह चुप ही बना रहा । इससे खेल्हा के मन में बड़ी निराशा
सो णिव्वाहई चरिय (चरिउ) महातरु । हुई, फिर भी अपनी चतुराई से कवि को पुनः रिझाने का
तुम्हहं सेव करइ कय आयरु ।। प्रयत्न करते हुए वह कहता है :
(णेमि० १७१५-६) तं सुणि तणिउ अणुव्व्य धारें। भो पंडिय कि बह वित्थारें॥ "तुम्हहं सेव करइ कय भायर" मुनते ही कवि भावापई सग्मइ वरुलटु विसेसें । कवणु असुहु पयणई उबहासें। वेश से भर उठता है और खेल्हा द्वारा इच्छित “णेमिचरिउ'
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१८
अनेकान्त
के रचने की वह अपनी स्वीकारता प्रदान कर देता है। रइधूणामें गुणगणधारउ, सम्महजिण चरिउ-१० सर्ग एवं २४६ कड़वक
सो णो लघइ वयण तुम्हारउ ।। अथवा लगभग १२०० पद्यों वाले “सम्मइजिण चरिउ"
(सम्मइ० ११५७-६) के लेखन की कथा भी कम रोचक नहीं। प्रस्तुत रचना में इसके बाद भ० यशःकीतिने ब्र० खेल्हा की ओर से प्र० खेल्हा अपने धर्मगुरु यशकीति भट्टारक से संसार की जो वकालत की वह भारतीय साहित्य में अद्भुत है। प्रसारता का वर्णन करते हुए तथा अपने को इस प्रसारता से वस्तुतः यह सभी खेल्हा की ही परोक्ष करामात थी। संतप्त बताते हए चित्रपट पर पाते हैं (सम्मई० ११४ाह-११) देखिए यशःकीति किस प्रकार रइध को तैयार करते हैं:वे चन्द्रप्रभा एवं महावीर स्वामी के परमभक्त थे। उनके
भो सुणि कइयण कुल तिलय सारू । मन में इच्छा होती है कि यदि कोई कवि (जैन भाषा में)
णिवाहियणिच्च कइत्त भारु । 'सन्मति चरित" की रचना कर दे तो उसका स्वाध्याय कर
जिण सासण कुल वित्थरण दच्छ । उनके मन को बड़ी शान्ति प्राप्त हो। लेकिन वह कहें
मिच्छत्त परम्मुह भाव सच्छ । किससे? महाकवि रइबू का नाम खेल्हा ने सुना अवश्य
महु तण वपण ग्राथण्णिवण । पा लेकिन सम्भवत: उन्हें ऐसा आत्मविश्वास न था कि
अवगहिं बहुविह मण वियप्प ।। उनके निवेदन पर महाकवि सम्मइजिण चरित' की रचना के लिए तैयार हो जायेंगे, यद्यपि खेल्हा के मन में इच्छा
(सम्मइ० १।६।१-३) यही थी कि रइधू ही उक्त रचना करें। खेल्हा यह
भट्टारक यश:कीर्ति ने कवि को अपनी ओर से कुछभी बोल वात भी अच्छी तरह जानते थे कि रइधू भट्टारक यशकीर्ति
कति सकने का अवसर न देकर तुरन्त ही 'अवगहिं बहुविह मण का अनुरोध नहीं टाल सकते । अतः ऐसे अवसर पर भ० वियप्प' कहकर हिसार के नहाउदार चरित थी तोस उ यशकीति को ही मध्यस्थ बनाना उचित समझ बडी कुश- साहू की दानवीरता एवं साहित्य रमिकता का परिचय देते लता पूर्वक उन्होंने भ. यशकीति के समक्ष निम्न भूमिका हुए कहा :बांधी।
तुहुँ पुण तहो भण्वहुँ वियलिय गब्बहु णामु चडावहिं सिरि चरमिल्ल जिणिदहु केरउ ।
कव्वुणिरु ।।
(वही १।।१४) चरिउ करावमि सुक्ख जणेरउ ।।
इसके बाद भी कवि को अपनी ओर से कुछ भी बोलने जइ कुवि कइयणु पुण्णे पावमि ।
का कोई अवसर नहीं । यश.कीति ही कवि की प्रतिभा, सहता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि ।।
दयता एवं प्रखंड विद्वत्ता को प्रशंसा करते हैं, जिससे कवि
(मम्मइ० ११५१५-६) की भावुकता उभड़े बिना नही रहती। फिर भी कवि "ता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि' कहकर खेल्हा ने सात्विक एवं निश्छल मन से यशःकीति के चरणकमल गुरुदेव के गम्भीर नेत्रों की ओर आधेक क्षण तक झांका पकड़कर अपनी असमर्थता व्यक्त करते है :और फिर उनसे कुछ प्राशाजनक संकेत भांपकर लगे हाथ
गुरुपय कमल हत्थ धारेप्पिणु । उन्होंने अपने गुरुदेव को कवि की अन्तरंग एवं बहिरंग
___ कइणा बोलिउता पणवेप्पिणु ।। सभी परिस्थितियाँ खूब अच्छी तरह से समझाते हुए उन्हें
हउं तुच्छमई कव्वु किह कीरमि। अपने मन की बात सुनाई :
विणु वलेण किम रणमहि धीरमि ।। तइया इममाइ (इमाइ ?) तासु पउत्तउ,
णो आयण्णिय वायरण तक्क । तेणजि अणुमण्णियउ णिरुत्तउ ।।
सिद्धत चरिय पाहुड प्रवक्क ।। तं जि सहलु करि भो मुणि पावण, .
मुद्धायम परम पुराण गंथ । एत्थु महाकइ णिवसइ सुहमण ।।
माणस संसय तम तिमिर मंथ ।।
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किरण १
कहाकवि रहनू उल्लिखित रामाचारी
किह कव्वुरयमि गुणगण समुद्द ।
को उन्मादई जिण समय मुद्द ॥ सम्हारिसेहि गियर कईहि ।
बुहकुलहं मग्झि उभय मह णामस्स वि धारणि गहनु भब्बु ।
भो कि कोरिज्जई पारुकन्तु ॥ ( सम्म० ११२।१२-१८ )
तब यशः कीर्ति ने इसके उत्तर में कहा : ता सूरि भणइ सुणि कइ ललाम ।
भो रइधू लक्खिय छंद गाम ॥ तुहुँ बुद्धि तरंगिणिए समुद ।
मिच्छावाइय मययरू रउ६ ॥
इस परियाणिवि मा होहि मंदु
अगुराएँ थुणिज्जइ तिजयवंदु || ( सम्म ६० १६१६ - २१ ) गुरु का ऐसा आश्वासन सुनकर कवि उनकी श्राज्ञा को शिरोधार्य कर लेता है ( ११६/२२), फिर भी वह सोचता है कि चतुर्मुख स्वयम्भू पुष्पदन्त, वीर प्रभृति कई महाकवियों ने विशाल रचनाएँ की है, जिनकी सर्व प्रशंसा भी हो चुकी है । ग्रतः उनके ग्रागे में क्या लिख सकता हूँ ? इस पर कीर्ति पुनः उन्हें उत्साह दिलाते है :पुणु विसेविनूरि पपई । एहचिनमणि भावहि संपई ॥ जई खग्गेसु णहर्यालि गमु सज्जई ।
नामउकि यिकमु वज्जई ॥ जइ सुरत इच्छिय फल अप्परं ।
ता कि इयरुचयई फलसंपई ||
जं रवि किरणहि तमभरु खंडइ ।
ता सज्जोउ सपह कि छंटइ ॥ जइ मलयाणिलु भुवण बहु वासद ।
ताकि इयरुम वह स सई ॥
जसु मइ पसरु प्रत्थि इह जेतउ ।
दोमुनि गोड नेन ॥ (सम्मइ० ११०११-६)
यशः कीर्ति का यह सम्बोध- प्रतिबोध यहीं तक सीमित नहीं, आगे भी धाराप्रवाह रूप से चलता चला है। यहाँ भाषा का सौष्ठव, भाषों की मामिकता विषयको गरिमा
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तथा शैली की सरसता साथ ही गुरु का आत्मवेदन कवि को मर्माहत एवं उत्तेजित किए बिना न रहा और कवि को अन्तः निविकल्प होकर अपनी स्पीकरता देते हुए कहना पड़ा
सेल्हग बंभ पयन पुष्ण केरसमि ह तुरिया | ( वही ० १।११।१४ ) अब प्रश्न यह उठता है कि जिसने इतनी कुशल शुभबूझ एवं चतुराई से यश: कीर्ति भट्टारक को भी अपने काम के लिए उकसाया ही नहीं बल्कि उनसे पूरी-पूरी वकालत करा कर सैलानी तबियत के एक महाकवि से अपना सम्पूर्ण कार्य करा लिया, वह खेल्हा ब्रह्मचारी आखिर था कोन ? खेद की बात है कि उसका पूर्ण एवं सन्तोषजनक उत्तर तत्काल ही शासानी से नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त साधन एवं सामग्री मेरे सम्मुख नहीं । हाँ, रइधू-साहित्य के अथाह सागर में डुबकी लगाकर यत्किञ्चित् जो कुछ भी हाथ लग सका उसके आधार पर उनका व्यक्तिगत परिचय निम्न प्रकार है :--
व्यक्तिगत जीवन परिचय-- खेल्हा योगिनीपुर की पश्चिम दिशा में स्थित हिसार पिरोज (संभवत: फिरोजशाह द्वारा बसाये गये हिसार नामक नगर ) के निवासी अग्रवाल वंश के गोयल गोत्र मे उत्पन्न श्री तोसउ साहू के ज्येष्ठ पुत्र थे ( सम्मइ० १।३१ - ३४११६) । स्वाध्यायप्रेमी होने के कारण वे सिद्धान्त एवं ग्रागम ग्रंथों के जानकार हो गये थे (११३(२) ।
उनका विवाह कुरुक्षेत्र के जैन धर्मानुरागी सेठियावंश के श्री सहजा साहू के पुत्र श्री तेजा साहू की जालपा नामक पत्नी से उत्पन्न खीमी नामक पुत्री से हुआ था (सम्मइ० १०३८।१८-२०) सम्मतः इनके कोई संतान न षी प्रत उन्होंने अपने भाई के पुत्र हेमा को गोद ले लिया तथा गृहस्थी का भार उग सीपकर मुनि यशः कीर्ति के पास अणुव्रत धारण कर लिए ( सम्मइ० १०|३८|२८३४) और फिर तभी से वे ब्रह्मचारी कहलाने लगे ।
खेल्हा ब्रह्मचारी साहू तोसउ के सुपुत्र थे अतः इससे उनकी सम्पन्नता में कोई सन्देह नहीं । ये निस्सन्तान थे श्रतः सम्भवतः उन्हें इसी कारण संसार से निराशा होने लगी थी। वे बड़े ही उदार, धर्मात्मा एवं गुणज्ञ थे ।
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अनेकान्त
वर्ष १५
उन्होंने ग्वालियर के किले में चन्द्रप्रभ भगवान् की के पौराणिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने के उपरान्त भी एक विशाल मूर्ति का निर्माण कराया था (सम्म इ० उनकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती। वे उस समय की लोक१४।११-१२) । ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संघपति श्री प्रचलित भाषा में पौराणिक ग्रन्थों की रचनाओं का अध्ययन कमलसिंह के भी ये सुपरिचित एवं घनिष्ट मित्र थे; क्योंकि करना चाहते थे, यद्यपि महाकवि रइघू के पूर्ववर्ती महाउनके सहयोग एवं सहायता से इन्होंने चन्द्रप्रभ भगवान् कवि पुष्पदन्त ने अपने "तिसट्ठि पुरिस गुणालंकार में की मूर्ति की एवं एक विशाल शिखरबन्द मन्दिर की अरिष्टनेमि स्वामी एवं महावीर स्वामी के चरितों का प्रतिष्ठा भी कराई थो (वही १८१६-१८) । मूत्ति वर्णन किया था पर महाकवि पुष्पदन्त की भाषा परिनिर्माण के आसपास ही वे एकादश प्रतिमा के धारी हो निष्ठित अपभ्रंश भाषा थी और खेल्हा ब्रह्मचारी ग्राम्यगये थे (वही (११४१६)।
__ अपभ्रंश में भी पौराणिक रचनाओं का दर्शन करना चाहते इस प्रकार रइधू० साहित्य में खेल्हा० ब्रह्मचारी का थे। यही कारण है कि उन्होंने रइघू को ग्राम्य-अपभ्रंश में जो भी संक्षिप्त वर्णन मिलता है उसके आधार पर हम पौराणिक रचनाएं लिखने को प्रेरित किया। उनके निम्न विशिष्ट गुण पाते हैं :
इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि रइधू (१) प्रत्युत्पन्नमतित्त्व
में साहित्यिक कल्पना की अतिशय उड़ान भले ही न हो खेल्हा ब्रह्मचारी की प्रतिभा विलक्षण थी। योजना- पर १५-१६ वीं सदी की भाषा के विभिन्न रूप अवश्य ही निर्माण, उनका विस्तार एवं उन्हें रचनात्मक रूप देकर सुरक्षित हैं । खेल्हा ब्रह्मचारी को भापा की इन विभिन्न सफल बनाना; प्रश्नों के सुन्दर उत्तर देना आदि उनकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करना था, अतः उन्होंने महाकवि से तर्कणात्मक प्रतिभा के परिचायक हैं। यशः कीति भट्टारक परिनिष्ठित मिश्रित ग्राम्य-अपभ्रंश में पौराणिक कृतियाँ को रइधू को प्रेरित करने के लिये उन्होंने उकसाया और लिखवाई। इस दृष्टि से महाकवि तो यश का भागी है ही पूर्ण सफलता प्राप्त की।
लेकिन खेल्हा का योगदान भी उमे कम यशस्वी नहीं (२) जनभाषा अपभ्रंश के प्रति प्रास्था एवं अभिरुचि बनाता।
संस्कृत एवं प्राकृत में विविध लेखको के कई प्रकार (५) प्राचीन भारत में अध्ययन की एक परम्परा थी के "नेमिचरित" तथा "सन्मतिचरित" आदि के उपलब्ध कि कोई नया जिज्ञासु शिष्य अपने लिए एक नवीन रचना होते हुए भी महाकवि रइघु से अपभ्रंश में उक्त रचनायें लिखने का अनरोध करता था और उस
लिखने का अनुरोध करता था और उस रचना का अध्ययन लिखने के लिये उन्होंने अनुरोध किया।
करके वह विद्वान बनता था। यही प्रवृत्ति हमे पेल्हा मे (३) प्रेरक के रूप में
भी मिलती है। अलंकार-शास्त्र में कवि के गुणों का निरूपण करते (६) खेल्हा की साहित्य-रसिकता का परिचय उरा समय प्राचार्यों ने आश्रयदाता या प्रेरक ब्यक्ति को भी समय अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचता प्रतीत होता है जब उन्नत स्थान प्रदान किया है। अतः खेल्हा ब्रह्मचारी स्वयं एकादश प्रतिमाधारी होने की प्रतिष्ठा को भी भूलकर वह कवि न होने पर भी कवि तुल्य माना जा सकता है। एक सामान्य अणुव्रती कवि रइधु का अपने को सेवक मान (४) प्रात्म-साधना एवं साहित्य-साधना का समन्वय लेता है। इससे प्रतीत होता है कि समाज में विद्वान् कवियों
खेल्हा ब्रह्मचारी की ज्ञान-पिपासा अद्भुत थी। संस्कृत को यथेष्ट सम्मान प्राप्त होता था।
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एक रहस्योद्घाटन
रात्रि भोजन त्याग : WAT अणुव्रत
लेखक-पं० रतनलालजी कटारिया
उमास्वामी कृत "त-वार्थमूत्र" अध्याय ७ सूत्र १ को छठे अणुव्रत का यह सब कथन सामान्य (Common) निम्नांकित टीकाओं में रात्रि भोजन त्याग नाम के छठे है अतः मुनि और श्रावक दोनों की अपेक्षा से कहा गया अणुव्रत के विषय में इस प्रकार लिखा है :
है। इसके सिवा पालो। तपानभोजन को लेकर जो (१) पूज्यपाद कृत-'सर्वार्थ सिद्धि' :--
विवेचन है वह तो खास तौर से मुनियों की अपेक्षा से ही ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजन चरमणं
है ऐसी हालत में यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि-'रात्रि तदिहोपसंख्यातव्यम् न, भावनास्वन्तर्भावात् । अहिसावत
भोजन त्याग को फिर 'अणुव्रत, संज्ञा क्यों दी गई है ? भावना हि वक्ष्यन्ते तत्र शालोकितपानभोजन भावनाबार्येति ।
उसे 'वन, सामान्य से ही अभिहित करना चाहिये था 'मणु,
कहने से वह सिर्फ श्रावकों के लिए ही जाना जाता है।" (२) अकलंक देव कृत 'राजवातिक'
इस प्रश्न का समाधान तत्वार्थ की किसी भी टीका में स्यान्मनमिह रात्रिभोजन विरत्युपसख्यानं कर्तव्यं तदपि पष्ठ कही भी नहीं पाया जाता है। मणव्रतमिति तन्न, कि कारणं, भावनान्तर्भावात् ।
__इमी तरह-- (३) भास्करनंदि कृत 'सुखबोधवृत्ति'---
(५) मुनियों के 'देवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण, और रात्रिभोजनवर्जनाख्यं तु पष्ठमणुव्रतमालोकितपान भोजन 'पाक्षिक प्रतिक्रमण, में पंच महाव्रतों के बाद ही रात्रि भावनारूपमओवक्ष्यते ।
भोजन विरमण नामक छठा अणुव्रत बताया है देखों :श्रुतसागर कृत 'तत्वार्थवृत्ति'
"प्रणब्बदं राइ भोयणादो वे रमण" (पप्ठमणुव्रतं ननुरात्रिभोजन विरमण पप्ठ मणुव्रतं वर्तते । रात्रि भोजनाद्विरमणं) (सर्वार्थ सिद्धिवत्)
- -"क्रिया कलाप, पृष्ठ ५२, ८७, ८०, १०२-१०३ इन मब टीकाग्रन्थों में बताया है कि
(६) आशाधर कृत 'नित्य महोद्योत, (श्लोक १६) "रात्रि भोजन त्याग नामक छठा अणुव्रत है उसको की थतसागर कृत टीका में लिखा हैयहां परिगणना होनी चाहिए। नही, क्योंकि आगे अहिमा
"पंचमहाव्रतानि रात्रि भोजन वर्जनाभिधानाणुव्रत व्रत को पालोकित पान-भाजन भावना म उसका अन्तभाव पप्ठानि प्रतिपादितानि भवन्तीति अर्थान-५ महाव्रत और हो जाता है।
रात्रिभोजन त्याग नाम का छठा अणुव्रत मुनियों के होता भास्कर नंदि ने-'रात्रि भोजन-त्याग, को 'अलोकित
है । देखो-'अभिपेक पाठ मंग्रह, पृ० १२६ । पान भोजन, का पर्याय वाची ही बताया है। ऐसा ही
(७) वीरनंदि कृत 'प्राचारमार, (मुनियों का आचार्य विद्यानंद ने-'श्लोक वार्तिक, में बताया है देखो
प्राचार ग्रन्थ) पृष्ठ ३५ में पंच महाव्रतों के बाद लिखा पालोकितपानभोगनाख्या भावना रात्रिभोजन विरतिरेवेति नासावुपसंख्येया।
व्रत त्राणाय कर्तव्यं गत्रिभोजन वर्जनम् । अर्थात्-पालोकित पान भोजन नाम की भावना सर्वथान्नान्निवृत्तिस्तत्प्रोक्तं पष्ठ मणुव्रतम् ॥७॥ रात्रि भोजन त्याग ही है अतः उसकी अलग गणना करने
अधिकार ५ को जरुरत नहीं होती।
अर्थ :-(मुनियों को) व्रतों की रक्षा के लिए रात्रि
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२२
अनेकान्त
वर्ष १५
में सब प्रकार से भोजन का त्याग करना चाहिये इसे रात्रि देश त्याग रूप से और मुनियों के सर्व देश त्याग रूप से भोजन त्याग नाम का छठा अणुव्रत कहा है।
होता है। दोनों के लिए इसका उल्लेख ग्रन्थों में "अणुव्रत, इन सब प्रमाणों मे खास तौर से मुनियों के भी छठा इस सामान्य नाम से ही किया गया है। अणूव्रत बताया है किन्तु मुनियों के साथ अणुव्रत शब्द की पं० आशाधर ने भगवती आराधना, की अपनी मूलारासंगति किसी तरह बैठाती नहीं इस पर मैने एक शंका धना दर्पण, नाम की टीका में भी इस छठे अणुव्रत पर इस "जैन संदेश, साप्ताहिक में समाधानार्थ भेजी थी जिसका प्रकार प्रकाश डाला है :-देखो-पाश्वास ६ गाथा समाधान भाग २१ अंक १६ पृष्ठ ६ पर प्रकाशित हुआ है ११८५-८६ पृष्ठ ११७६। किन्तु उसमें शंका का कुछ भी समाधान नहीं हुआ-समा- "ततो महाव्रत संपूर्णतामिच्छ-रात्रि भोजन विरमणं धान का कोरा प्रपंच किया गया है। प्रस्तु
षष्ठमणुव्रतमनुतिष्ठे देव । अगुव्रतत्वं चास्य दिवाभोज___दूसरे भी कुछ विद्वानों के साथ मैने इस पर ऊहापोह नस्यापि करणान् । यदादु :-छठे अणुव्वदे राइ भोयणादो किया परन्तु किसी से कुछ भी समाधान प्राप्त नहीं हुमा। वेरमण मिति । एक रोज मै भी ग्राशाधर कृत सटीक अनगार धर्मामृत देख अर्थ :-महाव्रतों की सम्पूर्णता चाहने वाले (मुनियों) रहा था यकायक उसमें कुछ मुझे इसका सुन्दर और युक्ति को रात्रि भोजन त्याग नाम का छठा अणवत पालन करना युक्त समाधान मिल गया अाज उसे विज्ञ पाठकों के लिए ही चाहिए। इस व्रत की 'अणु, संज्ञा दिन में भोजन करने नीचे प्रकट किया जाता है :
की अपेक्षा से है । अति त्याग सिर्फ रात्रि भोजन का ही है अनगार धर्मामृत (पृष्ठ ३०३) अध्याय 6 श्लोक १५० इस कालिक अपूर्णता की दृष्टि से यह अगु लघु व्रत है। में-रात्रि भोजन त्याग नाम के छठे अणुव्रत को पंचम हा- यह छठे अणुव्रत का रहस्य है। इस रहस्य को नहीं व्रतों का प्रधान बताते हुए 'नक्तमशनोज्झाणु व्रतामाणि,, समझने से अच्छे-अच्छे पंडितों ने इस विपय में अनेक पद की टीका में लिखा है :
गलत असंगत और भ्रांत कथन किए है जिनके कुछ उदा___"नक्तं रात्रावशनस्य चतुर्विधाहारस्योज्झा वर्जनम् । हरण मय ममीक्षा के नीचे प्रस्तुत किए जाते हैं :सैवाणुव्रतं तस्या श्चाणुव्रत त्वं रात्रावेव भोजन निवृत्ते (१) पं० लालरामजी ने वीर सं० २४६२ में 'प्राचार दिवसे यथाकालं तत्प्रवृत्तिसंभवात् ।,
सार, की हिन्दी टीका में उसके निम्नांकित श्लोक का अर्थ अर्थात्-"रात्रि में चारों प्रकार के प्राहार का त्याग इस प्रकार किया है :करना (छठा) अणुव्रत है उसे अणुव्रत इसलिए कहा है कि व्रतत्राणाय कर्तव्यं रात्रिभोजन वर्जनम् । रात्रि में ही भोजन का त्याग बताया है दिन में तो यथा सर्वथान्नान्निवृत्ति स्तन्प्रोक्तं षष्ठ मणुव्रतम् ॥ समय भोजन करने की छूट है"। अतः आहार का त्याग सिर्फ रात्रि में ही होने से यह काल की अपेक्षा अणु-लघु अर्थ :-"इन व्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन व्रत है । अगर सदा के लिए रात और दिन के आहार का त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए रात्रिभोजन का त्याग त्याग बता दिया जाता तो यह व्रत भी अन्य ५ व्रतों की तरह करने से व्रतों की रक्षा होती है इसी लिए रात्रि में अन्न व्यापक हो जाता 'अणु, नहीं रहता किन्तु धर्म के साधन का सर्वथा त्याग करने को गृहस्यों के लिए छठा प्रणुव्रत भूत इस शरीर को चलाने के लिए भोजन की जरुरत होती कहा है।" है उसका सर्वथा त्याग शक्य नही और भोजन दिन में ही समीक्षा :-यह मुनियों का आचार ग्रंथ है इसमें गृहनिरवद्य संभव है रात्रि में नहीं प्रतः दिन की छूट दी गई स्थों का अणुव्रत बताना साफ़ गलत है इसके सिवा उक्त है और रात्रि का सर्वथा त्याग कराया गया है । इस तरह श्लोक के पहिले, ग्रंथ में पंच समितियों का कथन हैं फिर 'रात्रि भोजन त्याग, में रात्रि शब्द इसके काल कृत अगुत्व बीच में ही गृहस्थों के छठे अणुव्रत का कथन बताना भी को सूचित करता है। यह प्रणु = लघु व्रत गृहस्थों के एक स्पष्ट असंगत है । इसीतरह चार प्रकार के आहारों में से
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forcer t
रात्रि मोजन त्यान
सिर्फ 'अन्न, आहार का त्याग बताना भी भ्रांत है यहाँ 'अन्न का अर्थ भोजन ( श्राहार ) सामान्य से है और 'सर्वथा, शब्द मुनियों के लिए नव कोटि से त्याग करने के अर्थ में दिया गया है अर्थात् यह सारा कथन मुनियों के लिए बताया है गृहस्थों का यहां कोई प्रसग ही नहीं है। इसके लिए ऊपर प्रमाण नं ० ७ देखिए ।
(२) विक्रम सं० १९८५ में पं० जुगलकिशोरजी मुस्तार कृत 'जैनाचार्यो का शासन भेद,, ' नाम का एक महत्वपूर्ण ट्रेक्ट प्रकाशित हुआ है उसमें पृष्ठ २१ से ४१ तक रात्रि भोजन त्याग नाम के छठे अणुव्रत के विषय में काफी कहापोंह किया है परन्तु इस व्रत के 'अणु, शब्द को मात्र गृहस्थों का समझ लेने से सारा विवेचन अनेक भूल-भ्रांतियों व आपत्तियों से भरा हुआ है धीर कुछ माना ग्रन्थकारो पर श्रन्यथा - दीपारोपण को लिए हुए है मूल में ही भूल होने से यह सारा प्रकरण आमूल चूल सदोष है जिसकी नीचे संक्षेप में कुछ समीक्षा की जाती है।
मुस्तार सा० - " गृहस्थों का व्रत एक देश याग से अणुव्रत और मुनियों का व्रत सर्व देशत्याग से महावत कहलाता है । गृहस्थों के ५. श्रणुव्रत होते है । किन्तु कुछ श्राचार्यों ने रात्रिभोजन विरति नाम का छठा अणुव्रत भी उनके बताया है जैसा कि निम्नांकित प्रमाणों से प्रकट
है
(ख) - - व्रतत्राणाय कर्त्तव्यं रात्रिभोजन वर्जनम् । सर्वधान्नान्निवृत्ते स्तन्प्रोक्तं मतम् ॥ ५ - ७० ।। "आचार सार, ' यह विक्रम की १२वीं शती के माचार्य वाक्य है इसमें कहा गया है कि ( मुनि को) व्रतों की रक्षा के लिए सर्वथा रात्रिभोजन का त्याग करना
बीरनंदि के श्रहिंसादिक
१. इस ट्रेक्ट के पृ० ६४ पर लेख समाप्ति काल सन् १६२० दिया है इससे लेखन काल और प्रकाशन काल में करीब 2 वर्ष का अन्तर पड़ता है। यह अन्तर वास्तविक है या लेखन काल मे कोई भूल है कुछ निश्चित नहीं ।
२. इसके बाद वि० सं० १९०७ में 'घनेकांत वर्ष १०३२७-३२८ में परिशिष्ट रूप से इस पर कुछ थोड़ा और विचार किया है।
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चाहिए और अन्न की निवृत्ति से वह रात्रिभोजन का त्याग छठा अणुव्रत कहा जाता है, । चारित्र सार में चामुंडराय ने श्रावक के रात्रि भोजनत्याग में चारों प्रकार के आहार का त्याग माना है उसी तरह अगर यहां 'अन्न' पद को उपलक्षण मानकर उससे चारों प्रकार के प्रहार का त्याग लिया जाय तो इस विषय में फिर प्रतिमापारी धावक और मुनियों के त्याग में कोई अन्तर नहीं रहेगा दोनों का त्याग एक ही कोटि का हो जायगा यह खटकने की बात है,, ।
समीक्षा-विजय सं० १९७४ में माणिक चन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई से प्रकाशित श्राचारसार के पृ० ३५ पर तथा वीर सं० २४६२ में लालारामजी कृत हिन्दी टीका वाले ग्राचारसार पृ० १२१ पर उक्तश्लोक नं ६० में 'निवृत्ति' पाठ दिया हुआ है किन्तु मुख्तार सा० ने उसकी जगह मन कल्पित 'निवृते' पाठ बनाकर उत्तरलोक का अर्थ मुनि और श्रावक दोनों के लिए अलग-अलग विभक्त कर दिया है - यह ठीक नहीं है । वीरनंदि आचार सार एकमात्र मुनियों का पाचार ग्रंथ है उसमें कहीं भी धावकों के प्राचार का व्याख्यान नहीं है । जब श्रावकों के ५ अणुव्रतों का ही कोई नामोल्लेख तक वहां नहीं है तब श्रावकों के छठे अवत का कथन उसमे कैसे हो सकता है ? यह सोचने की बात है । प्रणुव्रत शब्द से उसे श्रावकों का ही व्रत समझ लिया गया है जो सबसे बड़ी भूल है जिसका विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में कर आये है उससे पाठक वास्त विक तथ्य को भलीभांति हृदयंगम कर सकते है।
१
व्रती श्रावक के रात्रि में चारों प्रकार के प्रहार का त्याग आशाधर ने भी सागार धर्मामृत मे बताया है। आशाघर ने वह त्याग मन वचन काय इन तीन कोटि से ही बताया है जब कि मुनियों के वह नव कोटि से होता है यह व्रत प्रतिमाधारी श्रावक और गुनियों के रात्रिभोजनत्याग में खास अन्तर है अतः इस विषय में दोनों एक कोटि में नहीं था सकने श्रावकों के नवकोटि त्याग होने में अनेक आपत्तियां है जिसका एक उदाहरण यह है किफिर व्रती स्त्रियां रात्रि में शिशु को स्तनपान नहीं करा १. हिरणार्थ मूलव्रत विशुद्धये।
I
नक्तं भुक्तिं चतुर्धापि सदा धीरस्त्रिधात्यजेत् ॥४-२४ ॥
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अनेकान्त
वर्ष १५ सकतीं इसलिए माशापरादि ने उसे गृहस्थों के लिए तीन राजवात्तिक में विशेष विकल्प उठाये हैं वे सब मुनियों से कोटि से ही विहित किया है। इस तरह व्रती श्रावकों के ही सम्बन्ध रखते हैं जिन सब से यह स्पष्ट हो जाता है रात्रिभोजन त्याग में चारों प्रकार के आहार का त्याग कि-मुनिधर्म को लक्ष्य करके ही रात्रि भोजन विरमण बताने में कोई खटकने जैसी बात नहीं है वह समुचित का आलोकितपानभोजन नाम की भावना में अन्तर्भाव ही है।
किया गया है श्रावक धर्म अथवा उक्त छठे अणुव्रत को इसके सिवा अगर (गृह विरत या छठी प्रतिमाधारी) लक्ष्य करके नहीं। श्रावक और मुनि का रात्रि भोजन त्याग एक कोटि का यहां मैं अपने पाठकों पर इतना और प्रकट किए देता भी मान लिया जाय तो कोई आपत्ति या बाधा जैसी बात हूँ कि-श्री विद्यानन्द आचार्य ने श्लोक वार्तिक में इस नहीं है। क्योंकि जब साधारण श्रावक तक का सम्यग्दर्शन रात्रि भोजन-त्याग को (छठा अणुव्रत, नही कहा है किन्तु और सातवीं प्रतिमा वाले गृह विरत श्रावक का ब्रह्मचर्य रात्रि भोजन विरति इसनाम से ही प्रतिपादन किया है और मुनि के सम्यग्दर्शन और ब्रह्मचर्य के समकक्ष हो सकता उसे उन्हीं विकल्पों के साथ आलोकितपानभोजन भावना में है तो रात्रि भोजनत्याग के एक कोटि का होने में क्या अन्तर्भूत किया है इससे मालूम होता है कि-विद्यानन्द बाधा है ? अगर यह कहा जाय कि-सम्यग्दर्शन और प्राचार्य की दृष्टि श्री पूज्यपाद और अकलंक देव की उस ब्रह्मचर्य एक कोटि का होते भी मुनि के संयम की प्रकर्षता सदोष उक्ति पर पहुँची है जिसके द्वारा उन्होंने उक्त छठे से उसमें तरतम भेद है तो यही बात रात्रि भोजनत्याग अणुव्रत (श्रावक बत) को आलोकित पान भोजन भावना के साथ भी लागू हो जायगी इस तरह श्रावक और मुनि में अन्तर्भूत किया था और इस लिए विद्यानन्द ने उसका दोनों के लिए रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग उपर्युक्त प्रकार से संशोधन करके ('अणुव्रत, नाम न दे बताने में कोई खटकने जैसी बात नहीं है और न इससे करके) कथन के पूर्वापर सम्बन्ध को एक प्रकार से ठीक दोनों का अन्तर बाधित होता है।
किया है वास्तव में वार्तिककारों का काम भी प्रायः यही मुख्तार सा०
होता है । वे अपनी समझ और शक्ति के अनुमार दुरुक्तार्थों "पूज्यपाद और अकलंक देवादि ने तत्वार्थ की अपनी का संशोधन करते हैं,,। अपनी टीका में रात्रि भोजन विरमण नाम के इस छठे समीक्षा:-पूज्यपाद और अकलंकदेव ने किसी दुरुप्रणवत (श्रावक व्रत) का उल्लेख किया है और उसे क्तार्थ का प्रतिपादन नही किया है न विद्यानन्द ने ही वैसे अहिंसा व्रत की आलोकित पान भोजन भावना में अन्तभूत किसी दुरुक्तार्थ का संशोधन किया है । 'अणु' शब्द प्रयोग बताया है किन्तु रात्रि भोजन में संकल्पी हिंसा नही होने के रहस्य को नहीं समझने से मुख्तार सा० स्वयं उलझ से महिंसाणुवत की प्रतिज्ञा में रात्रि भोजन का त्याग नहीं गए हैं और मान्य प्राचार्यो पर दोपारोपण कर बैठे है। पाता तब उसकी भावना में ही उसका समावेश कैसे हो जिस तरह कोई लक्ष्मण को राम का छोटा भाई कहे सकता है ? अतः यह एक पृथक व्रत जान पड़ता है और और कोई राम का भाई ही कहे दोनों ठीक हैं उसी तरह उक्त पालोकित पान भोजन नाम की भावना में इसका पूज्यपाद और अकलंक देव ने रात्रिभोजन विरमण को छठा अन्तर्भाव नहीं होता । हां महाव्रतियों की दृष्टिी से पालो- अणुव्रत कहा है और विद्यानन्द ने उसे व्रत (विरति) ही कित पान भोजन नाम की भावना में रात्रि भोजनत्याग कहा है। पहिला कथन विशेषात्मक है और दूसरा सामाका समावेश जरूर हो सकता है इसी दृष्टी से पूज्यपाद न्यात्मक । पहिले कथन में कोई दुरुक्तार्थता नहीं है अगर अकलंक देव ने उसका समावेश किया है किन्तु ऐसा करते होती तो विद्यानन्द स्वयं उसे प्रकट करते, परन्तु विद्यानन्द हुए उनकी दृष्टि अहिंसाणुव्रत के स्वरूप पर नहीं पहुँची ने ऐसा कुछ नहीं किया है अतः दोनों कथनों में कोई अंतर उनके सामने अहिंसा महाव्रत और मुनियों का चरित्र ही नहीं है विवक्षामात्र है। रहा है इसी से आलोकित पान भोजन के विषय में जो 'अणु' शब्द से मुख्तार सा० ने उसे मात्र गृहस्थों का
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रात्रि भोजन त्याग त
किर
व्रत समझ लिया है किन्तु भणु शब्द वहाँ कालकृत अल्पता से लघु- छोटे के धर्य में प्रयुक्त है वह एक देशत्याग से धावकों और सर्व देशत्याग से मुनियों दोनों के होता है दोनों के लिए उसका उल्लेख 'अणुव्रत' इस सामान्य नाम से ही किया गया है इसी सामान्य दृष्टि से पूज्यपाद अकलंक देवादि ने उसे आलोकितपानभोजन भावना में अन्तर्भूत बताया है लेकिन आलोकितपान भोजन का कथन अन्यव्रत भावनाओं की ही तरह मुनियों की प्रधानता से किया है किन्तु इससे धावक विवक्षा का निषेध नहीं किया है और इसीलिए प्रलोकित पान भोजन भावना को अहिंसा व्रत को ही भावना बताई है यहिसा महावत की नहीं 1 इस तरह आलोकित पान भोजन भावना श्रावकों के हिंसाणु व्रत की भी भावना है और उसे श्रावकों के रात्रि भोजन विरति रूप में मानने में कोई बाधा नहीं है।
आशाधर ने सागार धर्मामृत ० ४ श्लोक २८ तथा सोमदेव ने यशास्तिलक उत्तरखन्ड पृ० ३३८ में रात्रिभोजन त्याग को अहिंसा का रक्षक और मूलगुणों का विशुद्धक बताया है ऐसा ही यशः कीर्ति कृत प्रबोधसार प्र० २ श्लोक ५१ में लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि रात्रि भोजन का त्याग किये बिना न तो हिमाद्रत बन सकता है और न मूलगुण ही, इसीलिए रात्रिभोजन को २२ भक्ष्यो मे माना है और ग्राचार्य कुन्दकुन्द ने रयणसार ग्रंथ में था की ५३ किपाओं में धनस्तमित दिवाभोजन 'रात्रिभोजनत्याग, बताया है ।
इसके सिवा उत्तरगुणपूलगुणों के रक्षक होते है और आशाधर ने उत्तरगुणों में अहिंसादि १२ व्रतों को और मूलगुणों में रात्रिभोजनत्याग बताया है इस दृष्टि से हिंसाणुव्रत उल्टा रात्रिभोजनत्याग का रक्षक हो जाता है यह सब कन दोनों की एकात्मकता को सिद्ध करता है ऐसी हालत में हिमाणत और उसकी भावना में रात्रिभोजनस्याग के अन्तर्भाव का निषेव करना कोई अर्थ नही रखता । अहिंसा से रात्रिभोजनत्याग ही स्पा सभी व्रतनियम अन्तर्भत हो जाते है भाचायों ने जो अलग अलग १२ व्रत, रात्रिभोजनत्याग, जलगालन, मद्य-मांस-मबुत्याग यादि भेदों का उल्लेख किया है वह सब मंदबुद्धियों के लिए की दृष्टी ने किया है।
ऐसी हालत में मुख्तार सा० का यह लिखना कि'मुनियों की दृष्टि से ही रात्रिभोजन विक्रमण का घालोकित पानभोजन में अन्तर्भाव होता है धावकों के वास्ते वह पृथक व्रत बताया गया है, बिल्कुल बेजा है। रात्रिभोजनत्याग को पृथक व्रत श्रावकों के लिए ही नही बताया है। बल्कि मुनियों के लिए भी बताया है देखो 'क्रिया कलाप' प्०८०, १०२ "प्रहावरे छट्ठे अणुब्वदे राइ भोयणांदो वेरमणम्,, ।
इसके सिवा यह कहना कि अहिसात में सिर्फ संकल्पी हिंसा का ही त्याग होता है और रात्रिभोजन में कोई संकल्पी हिंसा नही होती अतः रात्रिभोजनत्याग श्रहिंसाणुव्रत में नहीं श्राता, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है बल्कि प्रान्त और सदोष है ।
संकल्पी हिंसा के त्यागी अहिंसावती के जीव मारने का परिणाम नहीं होता वह आरभादि हिंसा बिना प्रयोजन नहीं करता, श्रयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति नही करता, जानबूझ कर हिंसा कर्म में प्रवृत्त नहीं होता परन्तु रात्रिभोजी के यह सब होता है धतः उसके स्पष्टतः संस्पी हिंसा का दोष बाता है। रात्रिभोजन में स्थावर और जसजीवों का प्रचुर घात और रागभाव की अधिकता होने से द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की तीव्र हिमा होती है इससे रात्रिभोजन महा हिंसा यज्ञ है इसका त्याग करना अहिंसाणुव्रत में गर्भित नहीं होगा तो फिर सत्यतादि में होगा ? यह यह सोचने की बात है । रात्रिभोजन और हिंसा का परस्पर
सम्बन्ध है। रात्रिभोजन में महाहिंसा ही नहीं स्पष्टतया मास भक्षण का दोप भी याता है और उससे मूलगुणों का ही विधान हो जाता है श्रतः श्रहिंसाणुव्रती के वह किसी तरह नहीं बन सकता 'महिसाणुव्रती' संतोपी, मम्यग्दृष्टि, जाग्रतबुद्धि " होता है न उसके रात्रिभोजन जैसी महा प्रयत्नाचार प्रवृति और प्रचुर जीवों का होमकर्म कभी नही बन सकता। मीलिए लिखा है :
कोकेन बिना भुजानः परिहरेत्कथं हिसा । अपि बोधितप्रदीपो भोज्यजुषा सूक्ष्मजीवानाम् ॥ अर्थ :- भोजन करने वाले के, विना सूर्य के प्रकाश
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१. मागार धर्मामृत ग्रध्याय ८ ग्लोक १८ । अमित गति श्रावका चार अध्याय ६० श्लोक १७
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के हिंसा का परिहार कैसे हो सकता है ? अर्थात् दीपक दोनों ही के अलग भी बताया है। जला लेने पर भी रात्रिभोजी के सूक्ष्म जीवों की हिंसा का मेरा पाठकों से निवेदन है कि वे मुख्तार सा० के निराकरण नहीं बन सकता।
ट्रेक्ट के एतद् विषयक प्रकरण को माद्योपान्त पढ़ें उन्हें शायद 'महाहिंसा का त्याग महाव्रत में और अल्पहिंसा मालूम हो जायगा कि-उक्त समीक्षा कितनी उपयोगी का त्याग अणुव्रत में होता,-समझकर अहिंसाणुव्रत में आवश्यक और समुचित है। इसी सरह की गलतियां इस रात्रिभोजन का त्याग असंभव बताया जाता हो तो यह विषय में अनेक विद्वानों ने की है और करते जाते हैं उनके भी ठीक नहीं है । महाव्रत में तो लघु से लघु हिंसा का प्रतीकार के लिए ही मैंने प्राशाधर के इस रहस्योद्घाटन त्याग होता है और अणुव्रत में महाहिंसा का त्याग अहिंसा- को प्रकट किया है किसी की व्यक्तिगत पालोचना या मानणुव्रत में समाविष्ट हो जाता है अहिंसाणुव्रत में उसका प्रतिष्ठा को गिराने की दृष्टि से नहीं। समावेश किसी तरह अंसंभव नहीं है।
मुख्तार सा. मेरे प्रादरणीय हैं। मैं यह मानता हूँ ___ इस तरह यह संक्षिप्त समीक्षा है । इस लेख का सार कि उन जैसे युक्ति-युक्त और प्रामणिक लि वने वाले जैन यह है कि रात्रिभोजन त्याग के विकासाशनवर्जन, समाज में बहुत कम हैं उन्होंने बहुत-सा साहित्य प्रणयन अनस्तमित, दिवाभोजन, छट्ठा अणुव्रत, आलोकित पान- कर हमारे युगों के अज्ञानांधकार और अन्धश्रद्धा को मेटा भोजन आदि अनेक नामान्तर हैं वैदिकों में जो सूर्य दर्शन है उन जैसे साहित्य तपस्वी पर समाज को गर्व है किन्तु करके भोजन करने का व्रत है वह भी इसी का एक प्रकार को न विमुह्यति शास्त्र समुद्र" अर्थात् शास्त्र समुद्र है। यह रात्रि भोजनत्याग : छठा अणुव्रत मुनि और श्रावक अथाह है उसमें कौन नहीं चूकता। दोनों के होता है इसे "अणुव्रत सिर्फ रात्रि में ही भोजन
अन्त में मैं एक बात और कहना चाहता हूँ किके त्याग की अपेक्षा से अर्थात् कालकृत लघुता की दृष्टि" ।
वीर सेवा मन्दिर से "जैनल मणावली" के प्रकाशन का से कहा है। इसका अन्तर्भाव अहिंसाणुव्रत - पालोकित
प्रयत्न हो रहा है उसमें-अणुव्रत या पष्ठ अणुव्रत शब्द पानभोजन भावना में हो जाता है । यह मुनि और श्रावक
के लक्षण में आशाधर के इस रहस्योद्घाटन का अवश्य २. आदि पुराण पर्व २० श्लोक १६०
संग्रह किया जाय। .
'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य ब्योरे के विषय मेंप्रकाशन का स्थान
वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागंज दिल्ली प्रकाशन की अवधि
द्विमासिक मुद्रक का नाम
प्रेमचन्द राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१ दरियागंज, दिल्ली प्रकाशक का नाम
प्रेमचन्द मंत्री वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१ दरियागंज दिल्ली सम्पादक का नाम
प्रा० ने० उपाध्ये M. A. D. Litt. कोल्हापुर
रतनलाल कटारिया, केकड़ी (अजमेर) राष्ट्रीयता
भारतीय पता
c/o वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली स्वामिनी संस्था
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली मैं, प्रेमचन्द घोषित करता हूँ कि उपरोक्त विवरण मेरी पूरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है । १७-४-६२
ह०प्रेमचन्द प्रकाशक
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देवगढ़ की जैन-प्रतिमाएं
लेखक-प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, सागर विश्वविद्यालय प्राचीन भारत के कलाकेन्द्रों में देवगढ़ का महत्वपूर्ण देवगढ़ के उक्त अभिलेख हवीं से लेकर १८वीं शती स्थान है । यहाँ ई० पांचवीं शती से लेकर मुगल काल तक तक के हैं । प्रमुख मंदिर संख्या १२ में सं० ६१९ का लेख वास्तु एवं मूर्तिकला का विकास होता रहा। इतने लम्बे मंदिर के एक द्वारस्तम्भ पर उत्तकीर्ण है । इस लेख की समय तक किसी एक स्थान को संस्कृति एवं कला का विशेषता यह है कि इस पर शक संवत् भी दिया है। केन्द्र बने रहने का बहुत कम सौभाग्य मिलता है। देवगढ़ कन्नौज के यशस्वी प्रतीहार शासक मिहिरभोज के समय में वैष्णव एवं जैन धर्म का साथ-साथ कई शताब्दियों तक में यह लेख लिखा गया। इस मंदिर के एक दूसरे लेख में विकास हुमा, यह भी उल्लेखनीय है। इससे यहाँ के सहि- १८ लिपियों और भाषाओं के नमूने सुरक्षित हैं। भारत ष्णुतापूर्ण वातावरण का पता चलता है।
में यह लेख अपने ढंग का अनोखा है। जैन परम्परा में देवगढ उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में ललितपुर से भगवान् ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियों का लगभग १६ मील पश्चिम-दक्षिण की ओर है मध्य रेलवे आविष्कार करने वाली कहा गया है। जो लिपियां इस के जाखलौन स्टेशन से उसकी दूरी केवल आठ मोल है। शिलापट्ट पर हैं वे तत्कालीन भारत में प्रचलित विभिन्न सुरम्य पहाड़ी पर देवगढ़ के बहुसंख्यक जैन मंदिर स्थित शैलियों को परिचायक है। हैं। नीचे कलकल नादिनी बेतवा (प्राचीन वेत्रवती) बहती अन्य लेखों के द्वारा विभिन्न दाताओं, उनकी वंशाहै। दूसरी ओर नीचे प्रसिद्ध दशावतार मंदिर है, जिसका वलियों, जैनाचार्यों, श्रावक-श्राविकाओं प्रादि के नामों का निर्माण गुप्त युग में हुआ था।
पता चलता है। स्थानों के भी कई नाम पाए है। साँची सौभाग्य से देवगढ़ की स्थिति घने जंगल के बीच मे एवं भरहुत के अभिलेखों की तरह देवगढ़ के इन लेखों का होने के कारण यहाँ की कलाराशि प्रायः मुरक्षित रह भी महत्व है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यकाल में देवसकी। विध्य क्षेत्र के दूसरे प्रसिद्ध स्थान खजुराहो की गढ़ जैन एवं जनेतर समाज की श्रद्धा का केन्द्रविन्दु बन कलाकृतियां भी इसी कारण बच गई। बड़े नगरों से दूर गया था और सभी वर्ग के लोग यहाँ आकर इस तीर्थ की एकांत स्थानों में ही प्राचीन काल में स्तूपो, विहारों, मंदिरों अभिवृद्धि में अपना योगदान करते थे। विभिन्न वंशों के आदि के निर्माण की परिपाटी थी।
शासकों का संरक्षण तो इस तीर्थ को प्राप्त था ही। देवगढ़ की पहाड़ी पर चढ़ते समय क्रमश. तीन कोट- देवगढ़ में लगभग ३१ जैन मंदिर विद्यमान है । अन्य द्वार मिलते है। सबसे ऊपर 'किले' के उत्तर-पूर्वी भाग पर कितनों के भग्नावशेष ही अब बचे है। ये अवशेष विविध जैन मन्दिर स्थित है। देवगढ तथा वहाँ निमित इन मदिरों प्रतिमाओं, इमारती पन्थरो, अभिलिखित शिलापट्टों आदि के सम्बन्ध में अनेक जनथतियाँ प्रचलित है। सौभाग्य से के रूप में है। यहाँ अब तक विभिन्न मंदिरों एवं प्रतिमानो पर ३०० से देवगढ़ की अगणित जैन प्रतिमाएं पूर्व एवं उत्तर मध्य ऊपर लेख मिल चुके हैं, जो देवगढ़ के इतिहास पर बड़ा काल की हैं । इन्हें देखने से पता चलता है कि इनके निर्माता प्रकाश डालते हैं। जिस प्रकार शुंग-सातवाहन कालीन कलाकार कितने दक्ष थे ! मंदिर संख्या १२ में स्थित बौद्ध धर्म की जानकारी के लिए भरहुत और साची की भगवान् शांतिनाथ की प्रतिमा विशालता एवं भव्यता का कलाकृतियाँ एवं शिलालेख उपयोगी है उसी प्रकार मध्य- समन्वित रूप है। गुर्जर प्रतिहार काल में निर्मित इस कालीन जैन धर्म एवं कला के विकास का परिचय बहुत प्रतिमा में वे सभी विशेषताएं मौजूद है जो इस काल में कुछ हमें देवगढ़ के इन अवशेषों से ज्ञात होता है।
(शेष पृष्ठ ३० पर)
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भगवान महावीर का जीवन-चरित महत्वपूर्ण पत्र
[हिन्दी के सुविख्यात लेखक तथा प्रोजस्वी पत्रकार श्रद्धेय बनारसीदास चतुर्वेदी उन व्यक्तियों में से है, जो लोकोपयोगी विचारों के बीज बराबर भूमि में डालते रहे हैं उनके बहुत-से बीज अंकुरित ही नहीं, पल्लवित भी हुए हैं । जैन समाज तो उनका विशेषरूप से ऋरणी है। बड़े आकार में साढ़े आठ सौ पृष्ठों के प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ की कल्पना उन्होंने ही दी थी, उसकी तैयारी में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा; वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ के बुन्देलखण्ड विभाग का उन्होंने स्वयं सम्पादन किया; जनसमाज के महान कवि स्व० बनारसीदास के श्रात्मचरित 'अर्द्ध कथानक' तथा कविवर छत्रपति रचित 'श्री ब्रह्मगुलाल-चरित' की सारगर्भित भूमिकाएँ लिखीं; अतिशय तीर्थ प्रहार और पपौरा पर पुस्तिकाएं तैयार कराई है; श्रहार की ऐतिहासिक मूर्तियों के संरक्षरण के लिए वहाँ एक विशाल संग्रहालय के निर्मारण में सहायता दी और 'महावीर-डायरी' का प्रकाशन कराया और भी बहुत से काम उनकी प्रेरणा से हुए हैं और श्राज भी हो रहे हैं, यह सारा कार्य उन्होंने निस्वार्थ सेवा भावना से किया है।
चतुर्वेदी जी की बड़ी इच्छा है कि भगवान महावीर का एक ऐसा विस्तृत जीवन-चरित लिखा जाय, जो सरल-सुबोध होने के साथ-साथ सबके लिए सुपाठ्य और उपादेय हो, इस कार्य को उन्होंने स्वयं प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन वह पूरा नहीं हो सका। नीचे हम उनका एक पत्र दे रहे हैं, जिसमें उन्होंने अपनी उसी भावना को व्यक्त किया है।
हम आशा करते हैं कि चतुर्वेदी जी के विचारों पर पाठक मनन करेंगे और ऐसे साधक सामने श्रावेंगे, जो उनकी इच्छा की पूर्ति कर सकें।
६ नार्थ एवेन्यू, नई दिल्ली ।
- यशपाल जैन ] नहीं हो सका और अब ऐसे श्रमसाध्य कार्य को हाथ में लेने की सम्भावना ही नही रही। फिर भी उस पुण्य कार्य के बारे में अपने विचार में ग्रापको लिख देना चाहता हूँ ।
३-४-३२
प्रिय यशपालजी,
आप जानते ही हैं कि मैं भी कभी हिन्दी में भगवान महावीर का जीवनचरित लिखना चाहता था और उसके लिए साहू शान्तिप्रसादजी ने ६०) मासिक पर एक सहायक - साहित्याचार्य श्री राजकुमारजी का प्रबन्ध भी कर दिया था । पर वह क्रम छः-सात महीने से अधिक न चला और यद्यपि उस बीच में कुछ कार्य तो हुआ ही । श्री राजकुमारजी ने 'महावीर डायरी' तैयार की, पपोरा क्षेत्र पर पुस्तिका लिखी गई और उस क्षेत्र के परीक्षार्थी विद्यार्थियों की शिक्षा भी चलती रही । तथापि मुख्य कार्य में अधिक प्रगति नहीं हुई। उसमें मैं मुख्यतया अपना ही दोष मानता हूँ । अव्यवस्था, असंयम और प्रमाद - ये तीनों मेरे पुराने मित्र है और इन्हीं के कारण वह यज्ञ पूर्ण
मैं जानता हूँ कि भगवान के अनेक जीवनचरित मौजूद है और वे अपनी-अपनी योग्यता तथा श्रद्धा के द्वारा लिखे गए हैं। पर महापुरुषों तथा जगत् की विभूतियों में अनन्त गुण होते हैं और उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने का अधिकार भी सभी को है। रिसर्च या अन्वेषण करने की कोई योग्यता मुझ में नहीं और मेरे द्वारा किसी महत्वपूर्ण ग्रंथ के लिखे जाने की सम्भावना भी नही थी। हां मेरी कार्यपद्धति में शायद कोई विशेषता हो सकती है ।
मेरा यह विश्वास है कि जो भी व्यक्ति भगवान महावीर का जीवनचरित लिखना चाहे, उसे कम-से-कम उतने • वर्षों या महीनों तक, जब तक कि वह इस यज्ञ में भाग ले संयमपूर्वक रहना ही चाहिए। भगवान के पवित्र
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भगवान सहावीर का जीवन चरित जीवनचरित का लेखनकार्य और निज के जीवन का असं थी कि चार-पांच श्रद्धालु व्यक्तियों के साथ उन तीर्थयम, ये दोनों चीजें साथ-साथ कदापि नही चल सकतीं। स्थानों की पैदल-यात्रा करूंगा, जहां भगवान ने विहार मैं उक्त जीवनचरित को किसी परोपकार की भावना मे किया था। आज वायुधान और मोटर के युग मे ऐसी नहीं लिखना चाहता था। महाकवि अकबर की वे पंक्तियां यात्रा का मजाक भी उठाया जा सकता है, पर यह तो मुझे बहुत पसन्द है जिनमें उन्होंने लिखा था-मैं अपनी-अपनी भावना का प्रश्न है। ऐसी यात्रा में पाठअपने और दूसरे शायरों में कुछ अन्तर पाता हूँ, वे कविता पाठ मील पर पड़ाव डाला जा सकता है और वायु-सेवन का साज-शृंगार करते है और मैं कविता द्वारा अपने को के साथ-साथ अहिसा, अपरिग्रह इत्यादि विषयों पर बातसंवारता है।
चीत हो सकती है। उन संवादों को फिर सीधी-साधी "सकुन उनसे संवरता है, सकुन से मैं संवरता हूँ" जबान में लिखा जा सकता है।
मझे भगवान के जीवनचरित में जो बातें अत्यन्त भाषा की सादगी के मामले में महावीर सबसे प्रथम पाकर्पक जंचती हैं वे है उनकी हद दर्जे की अहिंसा, क्रान्तिकारी थे । बहत बरस पहले श्री महेन्द्रकुमारजी का नितान्त अपरिग्रह और स्वावलम्बन की असीम भावना। लेख इस बारे में मैंने पढ़ा था। पर दिल्लगी की बात यह एक बार मैंने अपने एक बौद्ध बन्धु से कहा था-"भग- है कि जैन पंडितों की भाषा सबसे ज्यादा मुश्किल होती वान गौतम बुद्ध ने यह आदेश देकर कि जो मांस खासतौर है। पांडित्य का प्रदर्शन तो हमें करना नही-पांडित्य अपने पर तुम्हारे लिए न पकाया गया हो, उसे तुम ग्रहण कर पास है ही नही, इसलिए उसका प्रदर्शन भी एक प्रकार सकते हो, एक ऐसा समझौता किया कि जिसके परिणाम- काग
जा माण स्वरूप हिसा बढ़ी ही, घटी हगिज नहीं।" मैंने यह बात ज्यों-की-त्यों लिख देनी है पालोचना की दृष्टिी से नहीं कही थी। भगवान गौतम
आप जानते ही है कि मेरा यह स्वप्न नया नही । न बुद्ध के प्रति मेरी अत्यन्त श्रद्धा रही है। पर अपनी क्षुद्र
जाने कितने बरसो से यह मेरे मन में चक्कर काटता रहा बुद्धि के अनुसार अपनी स्पष्ट सम्मति न कहना भी कायरता
है, पर मैं जैनियों के "काललब्धि" के सिद्धान्त का कायल है, एक प्रकार का अधर्म है।
हूं। बरसों का यह स्वप्न अभी तक पूरा नहीं हो सका, परिग्रह तो आज के युग का सबसे बड़ा पाप है और
इसमें मैं अपनी साधना की कमी ही मानता हूँ। मेरा यह दुर्भाग्य की बात यही है कि हम लोग विशेषतः जैन
दृढ विश्वास है कि कोई-न-कोई साधक कभी-न-कभी इसे समाज-इरा पाप की भयंकरता को नहीं समझते।
अवश्य पूरा करेगा। आध्यात्मिक स्वावलम्बन ही भगवान की सबसे बड़ी देन है । अपनी साधना मे उन्होने देवतामों की मदद को
धर्म संस्थापकों की स्मृति की रक्षा वही लोग करते
है, जो उनके सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारते है और बिल्कुल अस्वीकार कर दिया था। सहिष्णुता की तो उनमें । पराकाष्ठा थी ही और आज का पंचशील पाखिर है
इस दृष्टि से उन महानुभावों के भी रेखाचित्र तैयार करने
चाहिए, जिन्होंने अपना समय और शक्ति महावीर के क्या ? अनेकान्त या स्याद्वाद की आधुनिक राजनैतिक
सिद्धान्तों को कार्यरूप में परिणित करने में खपा दिया, भाषा में विस्तृत व्याख्या ही तो है।
फिर वे चाहे जिम मुल्क के हो, चाहे जिस मजहब के महावीर के जीवन की मूल शिक्षायों को अपने जीवन
__ मानने वाले हों, चाहे प्राचार्य हरिभद्र सूरि हों या खान में यथाशक्ति उतारने की उत्कट अभिलाषा यदि किसी
अब्दुल गफ्फारखां। लेखक के मन में हो तो उसे इस यज्ञ के प्रारम्भ करने की प्रथम परीक्षा में पास होने लायक नम्बर तो मिल ही विस्तृत जीवनचरित की बात छोड़कर फिलहाल एक सकते है । संस्कृत तथा अर्द्धमागधी के विद्वानों का सहयोग ट्रेक्ट-सौ सवा सौ पन्नों का-अहिसा की परम्पराऐसे महान कार्य में लेना ही पड़ेगा। मैने कभी कल्पना की पर क्यों न निकाला जाय ।
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अनेकान्म
वर्ष १५
__ भगवान महावीर, राजचन्द्र तथा महात्मा गान्धी, इन या भाड़े के टटुओं से नही कराये जा सकते और न तीन भारतीयों और विलियम लायड गैरिसन, टालस्टाय महीने दो महीने में एक बृहद् ग्रंथ तैयार करने वाले जादूतथा एलबर्ट स्वाइटज़र इन तीन विदेशी अहिंसा-प्रेमियों के गरों से। उनके लिए एक खास साधना और एक विशेष रेखाचित्र साथ-साथ छपाये जा सकते हैं। पुस्तक को श्रद्धा की जरूरत है और ये चीजें बाजार में किसी भाव चित्रित तो करना ही होगा।
नही मिलतीं कि कोई मनचला खरीद लावे। बड़ा ग्रन्थ जन-समाज लाखों रुपये प्रतिवर्ष दान में खर्च करता भले ही देर में तैयार हो पर छोटे-छोटे ट्रेक्ट तो प्रकाशित रहता है और मेलों पर भी लाखों का ही व्यय होता है, किये ही जा सकते हैं । पर उच्चकोटि के प्रचारकार्य की प्रायोजना उसके द्वारा
विनीत, प्रायः नहीं होती। ऐसे पवित्र कार्य अर्थलोलुप लेखकों से
बनारसीदास चतुर्वेदी
देवगढ़ को जैन प्रतिमाएं सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रदर्शित करने में यहां के कलाकार कितने
पटु थे। (पृष्ठ २७ का शेष)
देवगढ़ की मूर्तिकला को देखकर यह बात स्पष्ट हो निर्मित कनौज तथा पूर्वी राजस्थान की प्रतिमाओं में मिलती जाती है कि यहाँ धर्म को निप्प्राण या जटिलरूप में दिखाने हैं । बाहुबलि की ११वीं शती की प्रतिमा भी अत्यंत प्रभा- की बात नहीं है, बल्कि उसे जीवंत रूप में प्रकट किया वोत्पादक है।
गया है। विविध मनोरंजक अलंकरणों, आकर्षक भावउत्तर मध्यकाल में अलंकरण के साथ सौम्यता एवं
भंगिमाओं एवं मानन्दपूर्ण अभिव्यक्तियों द्वारा धर्म एवं कला
को यहाँ शाश्वतरूप प्रदान किया गया है । इन प्रतिमाओं मृदुलता का जो समन्वय भारतीय कला में हुआ उसका जीता-जागता रूप हमें देवगढ़ की बहुसंख्यक तीर्थकर एवं
के देखने से दर्शक के सामने धर्म का प्राणमय, उदात्त एवं अन्य प्रतिमाओं में मिलता है। सरस्वती, अंबिका, पद्मा
मानन्दमय रूप उपस्थित हो जाता है। वती, चक्रेश्वरी आदि अनेक देवियों के मूर्त रूप भी यहाँ
भारतीय विविध राजवंशों गुप्त, गुर्जर प्रतीहार, दर्शनीय हैं। विभिन्न जिन प्रतिमाओं एवं शासन देवियों
चंदेल, बुन्देला आदि एवं जनसाधारण के द्वारा संरक्षित
प्रद्धित देवगढ़ की यह अपार कलाराशि हमारे लिए एक के नाम भी उत्कीर्ण मिले हैं। ये सूचना पट्ट बहुत उपयोगी हैं।
अत्यन्त गौरव की वस्तु है। इस कलाराशि का समुचित
अध्ययन अनुसंधान आवश्यक है। लेखक के द्वारा इस मंदिरों में गंगा-यमुना, पत्रावली, पशु-पक्षी आदि के सम्बन्ध में एक विस्तृत विवरण तैयार किया जा रहा है, जो जो बहसंख्यक अलंकरण मिलते हैं उनसे इस बात का पता निकट भविष्य में ही प्रकाशित होगा। आशा है इससे एक चलता है कि अलंकरण के विभिन्न भारतीय अभिप्रायों को कमी की पूर्ति कुछ अंशों में सम्भव हो सकेगी।
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अनेकान्त
देवगढ़ की जैन मूर्तियां
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मरस्वती की मति का शिलालेख
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अनेकान्त
रा०प० हरखचन्दजी जैन, रांची, बिहार प्रान्त के यशस्वी अंन नेता और कार्यकर्ता, कई संस्थानों के अध्यक्ष,
सरल प्रकृति और उदार मना
स.सि. धन्यकुमारजी जैन, कटनी मध्य प्रान्त के ख्यातिप्राप्त दानी, धर्मात्मा
और प्रतिष्ठित व्यापारी और बंकर
श्री शिखरबन्दजी सरावगी, कलकत्ता शिक्षित. उत्साही, मननशील युवकरन
श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता
मुनि संघ को यात्रा कराने वाले. किराना बाजार के प्रतिष्ठित व्यापारी
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जैन साहित्य का अनुशीलन
डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री एम. ए., पो. एच-डी. कलकत्ता निवासी बाबू छोटेलालजी से यह जानकर सके। इस विषय में मैं नीचे लिखे कार्यों को प्रोर ध्यान प्रसन्नता हुई कि वे 'अनेकांत' तथा साहित्य योजना को आकृष्ट करना चाहता हूँ। पुनः प्रारम्भ कर रहे हैं। इस दिशामें मैं कुछ सुझाव १-महाभारत भारतीय चेतना का विश्वकोष है। उपस्थित करना चाहता हूँ।
उसके गम्भीर अध्ययन से पता चलता है कि हमारी जैन समाज का क्षेत्र कितना ही सीमित हो किन्तु संस्कृति का मूल स्रोत त्याग तथा सर्व-मंत्री रहा है। जैन साहित्य की दृष्टि से यह परम्परा अत्यन्त समृद्ध है। यह एवं बौद्ध परम्पराओं ने भी उसी पर बल दिया है। महासाहित्य जैन समाज की ही नहीं समस्त भारत की सम्पत्ति भारत के एक हजार श्लोकों को चुनकर उनके साथ तुलहै उसमें जीवन के लिए वह प्रेरणा विद्यमान है, जिसकी नात्मक दृष्टि से जन एवं बौद्ध आगमों से उद्धरण दे वर्तमान मानवता को अत्यन्त आवश्यकता है । दुख की बात दिये जाएं, तो वह मूल स्रोत सामने आ जाएगा, जो भारत यह है कि साम्प्रदायिकता के संकुचित वातावरण में उस की सांस्कृतिक त्रिवेणी के रूप में प्रवाहित हुआ है। इतना महती प्रेरणा को भी भुला दिया जाता है। हमें प्रकाश ही नहीं ईसाई तथा मुस्लिम परम्पराओं के साथ भी यथाकी आवश्यकता है किन्तु ऐसी मनोवृत्ति बन गई है कि स्थान तुलना की जा सकती है। महाभारत का शान्तिपर्व दूसरे से प्रकाश लेने की अपेक्षा अंधकार में पड़े रहना जैनियों के उत्तराध्ययन एवं दशवकालिकसूत्र तथा ज्ञानार्णव अच्छा प्रतीत होता है । दूसरी ओर वह प्रकाश एवं बौद्धों का धम्मपद इस दिशा में विशेष रूप से उल्लेजिनके आधिपत्य में है, वे भी उसकी प्रत्येक किरण पर खनीय है। अपना नाम पट्ट लगाकर अहंकार एवं अस्मिता के पोषण २-जैन चरित्र का प्राधार अहिंसा सत्य आदि पांच में लगे हुए हैं। उन्हे प्रकाश के व्यापक प्रसार की इतनी महाव्रत हैं। योग दर्शन में वे पाच यमो के रूप में बताए चिन्ता नहीं है, जितनी नामपट्ट की । वर्तमान युगकी आव- गए हैं और बौद्ध साहित्य में शील के रूप में। तीनों परश्यकता है कि एक ओर प्रकाशप्राप्त करने के लिए उसके म्परामों में इनका पर्याप्त विकास हुआ है किन्तु दृष्टिकोण स्रोत को महत्व देने की संकुचित वृत्ति का परित्याग किया मे थोड़ा सा भेद भी है। उदाहरण के रूप में योगजाय और दूसरी ओर जिनके पास प्रकाश है वे नामपट्ट दर्शन का बल मानसिक पवित्रता पर है, बौद्ध दर्शन अहिंसा की अपेक्षा अन्धकार दूर करने की अधिक चिन्ता करें। को करुणा के रूप में उपस्थित करता है और उसके विधि ___ स्वस्थ मानवता के निर्माण के लिए धर्म का जो पक्ष पर बल देता है। जैन दर्शन मनवचन और काया संदेश है वह किसी एक परम्परा में सीमित नहीं है । भारत तीनों के अनुशासन पर बल देता है। इन सब का तुलकी जैन बौद्ध तथा वैदिक परम्पराम्रो में वह समान रूप नात्मक अध्ययन भारतीय प्राचार की आधारशिला को से प्रवाहित हुआ है। तीनों में उसका विकास भी हुआ है उपस्थित कर सकता है जो साम्प्रदायिकता से परे हैं और और दुरुपयोग भी। हम अपने विकास को सामने रखते है जहां सबका एकमत है। और दूसरे के द्वारा किए गए दुरुपयोग को नहीं इसी मनो- ३-भारतीय कथा विश्व के प्राचीन साहित्य में वृत्ति ने मानवता को छिन्न-भिन्न कर रखा है और एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अनेक कथाएं व्यापारियों द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति संदेह भरी दृष्टिसे देखने लगा अरव, तुर्किस्तान, यूनान, रोम तथा विश्व के अन्य महाहै । हमें ऐसे साहित्य की आवश्यकता है, जो इस मनो- द्वीपों में पहुंची और उनके माहित्य की सम्पत्ति बन गई । वृत्ति को दूर करके सभी के स्वस्थ रूप को सामने रख बहुत सी कथाएँ सैकड़ों भाषाओं में मिलती हैं। इस क्षेत्र
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अनेकान्त
वर्ष १५
में जैन कथानों का विशिष्ट स्थान है। मधु बिन्दु वाली -एक ऐसी पत्रिका की आवश्यकता है जो प्रकाजैन कथा विश्व की चालीस से अधिक भाषाओं में रूपा- शित एवं अप्रकाशित समस्त जैन साहित्य का परिचय न्तरित हो चुकी है । विन्टरनिट्ज ने अपनी पुस्तक 'Some देती रहे। पत्रिका वार्षिक हो या अर्धवार्षिक । विश्व में Problems of Indian Literature' तथा टोनी ने 'जन आज तक जितना जैन साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसका कथा रत्नकोष' की भूमिका में इस ओर संकेत किया है। प्रामाणिक परिचय उसमें रहे। उसके "अप्रकाशित जैन उन कथानों का तुलनात्मक अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृ- साहित्य" १९६० से पहले का प्रकाशित जैन साहित्य तिक संबंधों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
एवं "नवीन जैन साहित्य" आदि स्तम्भ हो सकते ४-जैन साहित्यके अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। हैं। इसी प्रकार विभिन्न-भाषाओं एवं विषयों के लिए जो मुद्रित हुए थे उनमें से भी बहुत से अब नहीं मिलते। अलग-अलग उपस्तम्भ हो सकते हैं। पत्रिका अंग्रेजी में इस दिशा में कुछ संस्थाएं कार्य कर रही है, फिर भी काम रहे तो उसका प्रचार और भी व्यापक रूप से होगा। बहुत बड़ा है। प्राकृत साहित्य का कार्य प्राकृत टेक्स्ट ६-जैन परम्परा के विषय में अनुशीलन सम्बन्धी सोसायटी ने उठाया है अब संस्कृत ग्रन्थो के विवेचनात्मक जहाँ-जहाँ कार्य हो रहा है, उस सबके संयोजन की भी संस्करणों की आवश्यकता है। यदि उनका अंग्रेजी अनुवाद परम आवश्यकता है, जिससे यह पता लग सके कि कहाँ क्या निकल सके तो और भी अच्छा होगा। विदेशों में इसकी कार्य हो रहा है और पुनरावृत्ति न होने पाये । इसी प्रकार बड़ी मांग है।
नवीन कार्य के लिए मार्ग दर्शन भी प्राप्त हो सके।
कुछ अप्रकाशित जैन कथा ग्रंथ लेखक-श्री कुन्दनलाल जैन, एम० ए० एल० टी०, साहित्यशास्त्री
प्राचीन विश्व साहित्य में जैन साहित्य का अपना एक भयंकर परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे है। जिससे महत्वपूर्ण स्थान है परन्तु आज के इस वैज्ञानिक विकास प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों के मुद्रण एवं प्रसारण की ओर शील युग में जैन साहित्य का प्रचार एवं प्रसार सबसे प्रत्यनशील हो रहे हैं। पुराने ग्रंथ भंडारों की वैज्ञानिक अधिक कम है। यह हमारे पिछड़ेपन की जबर्दस्त निशानी ढंग से सूचियां तैयार हो रही हैं और उनमें उपलब्ध महत्वहै। आज प्रसारएवं प्रचार और मुद्रणके इतने अधिक आधु- पूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन होने लगा है। लेखक भी दिल्ली के निकतम साधन सुलभ हैं फिर भी हमारा साहित्य प्राचीन भंडारो में उपलब्ध लगभग पांच हजार पांडुलिपियों की ग्रंथागारों में पड़ा सड़ रहा है, अनेकों बहुमूल्य ग्रंथ दीमक विधिवत् सूची तैयार करने में लगा हुआ है । वर्तमानमें नया देवी निगल गई है। पठन-पाटन तो दूर उनके दर्शन भी मंदिर-धर्मपुरा के सरस्वती भंडार के ग्रन्थों की सूची तैयार किसी समय दुर्लभ थे, यही कारण है कि जैन साहित्य की की जा रही है। यह भंडार ला० हरसुखराय जी ने ही महत्ता एवं प्रचुरता से लोग सर्वथा अनभिज्ञ रहे और समृद्ध किया था। यहाँ पर सभी विपयों के बहुमूल्य ग्रंथ इसीलिए लोगों ने जैनधर्म और साहित्य के विषयों में उपलब्ध हैं। बहुत से अजैन ग्रंथ भी हैं। सबसे बड़ा अनेकों भ्रांतिपूर्ण बातें लिखी हैं। इस सब का उत्तरदायित्व प्राश्चर्य तो यह कि उस समय में ऐसे ग्रंथ आसानी से हमारे अन्धविश्वास और प्रदूर दर्शिता पर है।
उपलब्ध नहीं हो पाते थे, इनके तैयार कराने में अथवा अब लोग कुछ सचेत हो रहे हैं, उन्हें अपनी भूल के एकत्रित करने में कितना द्रव्य तथा समय व्यय हा होगा
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कुछ अप्रकाशित जन कथा ग्रंथ
यह भव पाज तो कल्पना लोक जैसी बातें लगती हैं इतने ३६वें सर्ग के ३२वें श्लोक से ४७वें श्लोक तक गुरु परबड़े भण्डार का तैयार करना कराना साधारण व्यक्ति के म्परा वर्णित हैं। 'ख' प्रति में २९६ पत्र हैं, लिपि काल वश की बात न थी, यह तो कोई विशेष प्रभावशाली असौज शुक्ला १२ भौमवार सं०१८१३ शाके १६७८ हैं व्यक्ति ही करा सकता था, ला. हरसुखराय जी ऐसे ही ग्रन्थ के अन्त में लिपिकार ने अपनी प्रशस्ति लिखी है जो प्रभावशाली व्यक्ति थे। मुगल-शासन में उनका महत्वपूर्ण जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह पृ० १०० तथा प्रशस्ति संगह पृ० स्थान था और इसलिए वे इतना महत्वपूर्ण विशाल सर- ७० पर प्रकाशित प्रशस्ति से सर्वथा भिन्न है । इनके प्रथम स्वती यज्ञ संपन्न कर सके।
१४ सर्ग जिनदास जी के गुरु सकलकीति द्वारा लिखे हैं। यहां मैं कुछ कथा साहित्य के ग्रंथों का विवरण 'ग' प्रति में २६६ पत्र हैं, २६वां पत्र नहीं है जिस पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो मेरी शोध के पश्चात् अप्रकाशित प्रशस्ति तथा लिपिकाल आदि के होने की संभावना है। सिद्ध होते हैं। मैंने सभी उपलब्ध संभव साधनों से जानने इन प्रतियों का उल्लेख जि. र० कोश पृ० 46VIII तथा
का प्रयास किया है फिर भी यदि किसी विद्वान् कृपालु आमेर भंडार सूची पृ० १६१ पर मिलता हैं राज० स० पाठक को इनसे किसी प्रथ के प्रकाशित होने की सूचना २ पृ० २१८ सूची ३ पृ० २२४. उपलब्ध हो तो कृपया वह ग्रन्थ कब? और कहाँ ? से वषभनाथ चरित्र प्रकाशित हुआ है कि सूचना मुझे देकर अनुग्रहीत करें मैं उनका अत्यधिक आभार मानूगा।
इसके लेखक भ० सकलकीति हैं जो भ० पद्मनन्दी के
शिष्य थे। यह ग्रंथ २० सोंमें समाप्त होता है मूलसंस्कृत श्री मुनि सुव्रतनाथ पुराण
श्लोकों में है। इसकी तीन प्रतियाँ उपलब्ध हैं। 'क' प्रति इसके लेखक व कृष्णदास जी हैं जो हर्ष के पुत्र तथा के २१२ पत्र हैं लिपि काल बैसाख कृष्णा ८ रविवार सं० मंगल के भाई उल्लिखित हैं । यह गंथ २३ सर्ग मे समाप्त १८२५ है । इसमें ४६२८ श्लोक हैं यह ग्रंथ मुलतानी लाला होता है। यह मूल संस्कृत श्लोकों में है इस पर कोई लिल्लियन के पुत्र राजाराम उनके पुत्र गोकुलचन्द के पठटीका नही है। इसका रचना काल कार्तिक शुक्ला १३ नार्थ आत्माराम, अनन्दीराम, दीपचन्द ने लिखा था । संवत् १६८१ है। इसकी श्लोक संख्या ४ हजार २५ है। 'ख' प्रति में १६५ पत्र है प्रति अत्यधिक जीर्ण है। ७० कृष्णदास जी कल्पवल्ली नगर के रहने वाले थे। विशेष विवरण कुछ नही मिलता। लेखक ने अन्तिम पाठ श्लोकों में अपनी प्रशस्ति भी लिखी 'ग' प्रति में १२६ पत्र है तथा लिपिकाल कार्तिक है जो जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह (मुख्तार सा०) १० ६७ वदी ७ सं० १६६८ है । प्रति अत्यधिक जीणं है। इसका
और प्रशस्ति मंग्रह (काशलीवाल) पृ. ४७ पर प्रका- उल्लेख जि. र० को० मे पृ० ३६५ पर मिलता है। शित है। इस ग्रन्थ मे ६३ पत्र हैं तथा इसका विवरण राज० सृ० २ पृ०, १५, २१०, मूची ३ पृ० ६३. जिन रत्नकोप पृ० ३१२ प्रथम आमेर भण्डार की सूची
" सूची हनुमान चरित्र पृ. ११३ पर मिलता है। आमेर की प्रति का लिपि काल
इसके लेखक श्री वीरसिंह के सुपुत्र ब्र० अजित हैं इसे सं० १८५० है । राज० सू० २ पृ० १७.
'ग्रंजना चरित्र' भी कहते हैं। इसमें ८० पत्र तथा २००० हरिवंश पुराण
संस्कृत श्लोक हैं। प्रारम्भ के २१ श्लोकों में विभिन्न इसके लेखक श्री. जिनदास जी हैं जो श्री सकल- प्राचार्यों को नमस्कार किया गया है। यह ग्रंथ भृगुकच्छ कीति के शिष्य (छोटे भाई) थे। यह ग्रन्थ ३६ सर्ग में (भडौच) के नेमि जिन मन्दिर में लिखा गया था। इसका समाप्त होता है। यह मूल संस्कृत श्लोकों में हैं। इसकी उल्लेख जि. र० कोश प० ४५६। (हनुमच्चरित) आमेर तीन प्रतियां उपलब्ध है। 'क' प्रति में १६७ पत्र हैं तथा सूची पृ० १६० पर मिलता है। राज. म०२० २०, लिपि काल ज्येष्ठ शुक्ला ११ सं० १७७३ है । इसके २३४, सूची ३ पृ० २२१.
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• अनेकान्त
बर्ष १५
श्रीपाल चरित्र
काल श्रावण वदी १२ रविवार सं० १६६५ है । इसके २१ इसके लेखक म. सकलकीति है। इसकी पत्र संख्या पत्र तथा १०१८ श्लोक हैं। यह प्रति चतुर्मुनि के शिष्य ३६ लिपिकाल फागन सुदी २ रविवार सं० १६४३ हैं और जीवण ऋषि ने "योगेपछा नगर में लिखी थी। जिन० कोश ७ परिच्छेदों के ८०४ श्लोकों में समाप्त होता है। इसकी पृ० ३२० आमेर सूची पृ० ११६ अन्त में लेखक की प्रशस्ति दो प्रतियां हैं 'क' प्रति में ४८ पत्र हैं लिपि काल आदि है जो जै० म०प्र० सं० में पृ० १०६ पर प्रकाशित है। कुछ भी उल्लिखित नहीं है । इसका विवरण जि० र० को. ३६८ आमेर सूची पृ० १५६ पर मिलता है।
इसके लेखक श्री वासवसेन हैं जिन्होंने इसे सं०१५८५ राज. सू०२१०१६, २३३ में समाप्त किया था। इसमें पाठ सर्ग हैं । देखो जिन० २० श्रीपाल चरित्र
कोश पृ. ३२० (सका रचनाकाल विचारणीय है ?) इसके लेखक श्री श्रुतसागर हैं, इसकी पत्र संख्या १५
यशोधर चरित्र मूल है। अन्त में लेखक ने प्रशस्ति लिखी है जो जै० ग्र० प्र०
इसके लेखक श्री भ० सकलकीति हैं। इसमें ६६ पत्र पृ० १६ पर प्रकाशित है । दूसरी सूचियों में इसका उल्लेख
तथा ८ सर्ग है । इसका लिपिकाल मगसिर सुदी १० बुधनहीं मिलता है।
वार सं० १७४७ है । श्लोक ७६० हैं इस प्रति में लिपिधन्यकुमार चरित
काल की निम्न प्रशस्ति है।" श्री मूलसंघे नंद्याम्नाये बला
कारगणे सरस्वती गच्छे कुन्दकुंदाम्नागे भ० जगत्भूषण इसके लेखक भ० सकलकीति है इसकी पत्रसंख्या ३६
तत्पट्टे विश्वभूपण तत्पट्टे गोलालारान्वय ब्रह्म श्री विनयहै यह ६ अधिकारों के ८५० श्लोकों में लिखा गया है इसका लिपि काल आसोज सुदी १ सं० १६२१ है यह
सागर तन्शिष्य प. हरिकिशन स्वयमेव लिखापितं धर्मोप
करणं" इसका विवरण निम्न प्रतियों में मिलता है। जिन मा० अनंतकीति देव के शिष्य ब. रायमल्ल ने अपने पढने
रत्नकोष पृ० ३२० xvii आमेर सूची १ पृ० ११६ प्रशस्ति के लिए लिखी थी इसका विवरण जिनरत्न कोश पृष्ठ १८७ Y तथा आमेर भंडार सूची पृ० ७५ पर मिलता है । ?
संग्रह पृ० ५३ राज० सूची ३ पृ० ३६,७५,२१७ राज.
सूची २, २२८, ९८८ । इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो गया है पर मूल अप्र
पद्म चरित्र-टिप्पण काशित है।
इसके लेखक मुनि श्रीचन्द है। यह प्राचार्य रविषण धन्य कुमार चरित
के संस्कृत पद्मचरित के पदों का टिप्पण है जो संस्कृत गद्य इसके लेखक का नामोल्लेख नहीं है यह संस्कृत गद्य
के ५८ पत्रों में लिखा गया है, इसका रचनाकाल सं. में ३७ से ५१ पत्र अर्थात् १३ पत्रों में लिखा गया था
१०८७ है और लिपिकाल पौष वदी ५ रविवार सं० १८७४ ऐसा प्रतीत होता है इसके साथ कोई और ग्रन्थ लिखा
है। ग्रंथ के अंत में टिप्पणकार की निम्न प्रशस्ति है। गया होगा जिसकी पत्र संख्या इसी में चली आई । अंतिम
"लाट (ड)वागडि थी प्रवचनसेन पंडितात्थद्मचरित प्रशस्ति में भ० लक्ष्मीचन्द तत्पट्टे श्री अभयचन्दैः ब्रह्म
स्सको बलात्कारगण श्री श्रीनंद्यावार्य सत्कवि शिष्येण श्री मतिसागर पटनार्थ दत्तं । भ० देवेन्द्रकीर्ति श्री धर्मचन्द
श्रीचन्द्र मुनिना, श्रीमद्विक्रमादित्य संवत्सरे सप्तशीत्यधिक श्री धर्मभूषण भ. देवेन्द्रकीर्ति संबंधि भ० श्री कुमुदचन्द्र
वर्ष सहस्र श्रीमद्धारायां श्रीमतो भोजराजे भोजदेवस्य पद्म संबंधि इत्यादि लिखा है।
चरिते तस्य टिप्पणं (श्रीचन्द्रमुनिना कृतं समाप्तम्) ।" यशोधर चरित्र
लिपिकार की निम्न प्रशस्ति हैं "श्री मूलसंघे बलात्कारगणे इसके लेखक सरस्वती गच्छ में रामसेन के उत्तरा
सरस्वतीगच्छ कुन्दकुदाम्नाये लिखी लसकर मध्ये लेखक
दोष शोधनात् पंडितस्य" । इसकी प्रशस्ति "ज० ग्र० प्र० धिकारी भीमसेन के शिष्य "श्री सोमकीति" है इसका स० में प०१६३ पर प्रकाक्षित है इसका विवरण "जि. रचनाकाल पौष कृष्णा ५ रवौ सं० १५३६ है तथा लिपि- र० को० के पृ० २३३ix पर मिलते हैं। क्रमशः]
7 भ० देवेन्द्रको श्री कुमुदचन्द्र वर्ष सहतस्य टिप्पणं ( है "श्री मूलसंबर मध्ये लेखक
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जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठाविधि का अशुद्ध प्रचार
लेखक-श्री मिलापचन्द कटारिया,, केकड़ो, (राजस्थान प्रजमेर)
जब से स्व० ७० शीतलप्रसाद जी ने इस जयसेन अच्छे पंडित भटकते थे। अब ब्रह्मचारीजी के इस प्रतिष्ठा प्रतिष्ठापाठको आधार बनाकर उसमें कहीं-कहीं नेमिचन्द्र ग्रन्थ की बदौलत उनको भी भटकने की जरूरत नहीं रही प्रतिष्ठा पाठ के कुछ अंशों का समावेश करके तथा कुछ है। किन्तु यह याद रखना चाहिये कि प्रतिष्ठाचार्य का वातें अपनी तरफ से और मिलाकर एक नये प्रतिष्ठा- पद जितना ही गौरवपूर्ण है उतना ही वह भारी जोखम पाठपथ का प्रकाशन किया है तब से बहुत करके उसी के का भी है। जो प्रतिष्ठाचार्य अंटसंट प्रतिष्ठाविधि करते हैं आधार से कई बिम्पप्रतिष्ठायें हुई हैं और हो रही है। वे अपना बहुत ही अहित कर रहे है। धातु पाषाण उसमें उन्होंने याग मण्डल पूजा आदि कुछ प्रकरणों को की निराकार मूर्ति में जिनेन्द्र की प्रतिष्ठा करना हिन्दी छन्दों मे भी लिख दिया है जिससे उनका उपयोग कोई हंसी खेल नहीं है। प्रतिष्ठा जैसे गुरुतर कार्य हिन्दी के ज्ञाता भी गा-बजा कर कर लेते हैं। साथ ही के लिये पल्लवग्राही पांडित्य से काम नहीं चला करता है। उन्होंने उममें पंचकल्याणकों के दृश्य ऐसे नाटकीय ढंग से इसके लिये मंत्र, तंत्र, वास्तु विद्या, शकुन, निमित्तज्ञान, लिखे हैं कि तदनुमार दृश्य दिखा देने से साधारण जनता ज्योतिष आदि विविध विषयों का परिज्ञान होना चाहिये। का खूब मनोरंजन होता है; फलत: दर्शक लोग अधिक संख्या साथ ही प्रतिष्ठाचार्य खुद भी जितेन्द्री, सुलक्षण, सदामें एकत्रित होते है और मेले की रौनक बढ़ जाती है उससे चारी, देशकाल का ज्ञाता, नम्र, मंदकसायी, देव-शास्त्र
धन खर्च करने वाला यजमान भी अपने को धन्य समझने गुरु का अनन्य भक्त, मान्य, प्रभावक आदि लक्षणों का • लगता है और उससे प्रतिष्ठाचार्य की भी महिमा बढ़ धारी होना चाहिये। इसी वजह से पुराने जमाने में दूर
जाती है। अगर कोई प्रतिष्ठाचार्य इस ढंग से काम न दूर तक कोई विरले ही प्रतिष्ठाचार्य मिलते थे। आज की करे तो उसकी प्रतिष्ठा लोगों को फीकी-फीकी सी प्रतीत तरह वे सुलभ नहीं थे। उस वक्त के प्रतिष्ठापक-यजमान होती है। लोगों को मजा नही आता इससे प्रतिष्ठापक का भी विचारवान होते थे। वे भी ऐसे ही प्रतिष्ठाचार्यों से दिल भी मुरझा जाता है और विचारे बसे प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा विधि कराना योग्य समझो थे और उन्हें बड़े ही को तो पायंदे किसी प्रतिष्ठा में बलाना भी कोई नही पादर-मान से लाते थे। उस आदर-सन्मान का वर्णन चाहता है। उधर नाटकीय ढग से प्रतिष्ठा करने वाले प्रतिष्ठा शास्त्रो में भी लिखा मिलता है। प्रतिष्ठाचार्यों की भी अब कोई कमी नहीं रही है और न ब्रह्मचारी जी के इस प्रतिष्ठा ग्रंथ में प्रतिष्ठा विधि रहेगी; क्योकि स्व. ब्रह्मचारी जी ने प्रतिष्ठा की सब विधि सम्बन्धी कुछ ऐसे कथन भी मिलते हैं जो न तो जयसेन हिन्दी में लिख दी है। अतः अब तो इसने लिय संस्कृत प्रतिष्ठा पाठ में है और न अन्य किसी प्रतिष्ठा ग्रंथ में ही । भापा के ज्ञान होने की भी ऐसी कोई खास जरूरत नहीं केवल ब्रह्मचारी जी के प्रतिष्ठा ग्रन्थ में लिखे होने से ही रही है पीर न किमी गुरु की खुशामद की । एक दो नाट- इदानी उनका प्रचार हो रहा है । नीचे हम इसी का दिग्दकीय उंग की प्रतिष्ठा ब्रह्मचारी जी के प्रतिष्ठा ग्रन्थ से र्शन कराते है-यहा हम उन्ही अशुद्धियों पर विचार करा दीजिए; नाम हो जायगा, फिर तो जगह-जगह से करते है जो खास प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्ध रखती है। निमन्त्रण ही निमन्त्रण है।
(१) पृ० १४१ में मुख वस्त्र विधि का वर्णन करते प्रतिष्ठाचार्य का पद एक बड़ा सम्मान का पद है और हुए ब्रह्मचारी जी ने लिखा है कि-"एक शुद्ध वस्त्र में इसको कोई-कोई तो अर्थोपार्जन का साधन भी बना लेते सात प्रकार अनाज वाँध कर प्रतिमा के मुख पर ढक कर हैं। इस पद की प्राप्ति के लिए कई संस्कृत के अच्छे- लपेट दे। तथा ग्रागे जौ की माला रख दे।" एक प्रसिद्ध
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प्रनेकान्त
प्रतिष्ठाचार्य को थोड़े अरसे से पहले एक प्रतिष्ठा महोत्सव में हमने इसी तरह करते देखा है । किन्तु जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में जहाँ यह विधि लिखी है वहाँ के विवेचन से तो ऐसा अर्थ कदापि नहीं निकलता । वहाँ जैसा कुछ लिखा है बह इस प्रकार है -
नूनं
वर्ष १५
स्थापन, और मुखवस्त्र प्रदान। इन तीनों क्रियाओं की प्रयोग विधि अलग लिख दी है। यही मंत्र इसी रूप में आशाधर प्रतिष्ठापाठ पत्र १०६ में भी लिखकर उसकी प्रयोगविधि वहाँ इस प्रकार बताई है
"मुखवस्त्रदानपूर्वकं यवमालामारोप्य जिनस्य पादाग्रतः सप्तधान्यान्युपहरेत् ।" अर्थात् पहिले मुखवस्त्र देकर फिर यवमाला का आरोपण करे और फिर जिनचरणों के आगे सप्तधान्य भेंट करे । आशाधर जी ने यहां मदन फल ( मैणफल) को यवमाला के साथ लगाने को कहा है जैसा कि उनके निम्न श्लोक से प्रगट है
भक्तद्धिवृद्धिकृदनुक्षणभाविशर्म
निरावृतिचमत्कृति कारितेजो,
नोशक्यमीक्षितवतामपि भावुकानाम् । इत्येवमपितनयानयनेन शंभो - रप्रेमुखाग्रमद्वस्त्रमुपाकरोमि ।। ८५५|| इसकी वचनिका इस प्रकार की है
"अरु नवीन और निरावरणता का चमत्कार करने वाला प्रभु का तेज है सो देखने वारे भव्यनिकू शक्य नहीं है । ऐसे या प्रकार अर्पितनयका अवलंबन कर श्री भगवान् का मुख के अग्रभाग में वस्त्र से परदा करूँ हूँ ।"
"श्रीं ह्रीं अर्हते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं सप्तधान्ययुतं मुखवस्त्रं ददामि स्वाहा ।" इति मुखाग्रे वस्त्रयवनिकां दत्वा यवमालावलयं जिनपादाग्रतः स्थापयेत् ।' अर्थात् "नों ह्रीं श्रर्हते "मुखवस्त्रं ददामिस्वाहा " इस मन्त्र को बोलकर भगवान् के मुंह के आगे वस्त्र का परदा देकर जपमाला को जिनचरण के आगे रक्खे । यहाँ वचनिकाकार ने और भी स्पष्ट किया है"ऐसे मुखवस्त्र अप्ररोपण । अर मुखनामप्रग्रभाग का है तात बिंब के घड़ा एक परदा भगवान् को प्राड़ देना ऐसा अभिप्राय है । इसहीकू मूलपाठ मे " यवनिकां दत्वा " ऐसा कहा है।"
आगे श्लोक ८६६ में भी इस मुखवस्त्र को हटाने का कथन करते हुये " यवनीं दूरमुदयेत्" पाठ दिया है जिसका अर्थ होता है" "वस्त्र की यवनिका को दूर कर दे ।" यहां ' यवनीं" शब्द से परदा ही बताया है । ब्रह्मचारी जी ने जो सात प्रकार के अनाज की पोटली को प्रतिमा के मुख पर बाँधने को कहा है सो ऐसा कथन ऊपर लिखे मन्त्रों में “सप्तधान्ययुतं मुखवस्त्रं" वाक्य में सप्तधान्य को मुखवस्त्र का विशेषण समझ लेने की भूल से हुआ है। तथा इस मंत्र के "समदनफलं " वाक्य का तो अर्थ ही ब्रह्मचारी जी साफ उड़ा गये हैं । दरअसल में इस मन्त्र में केवल तीन क्रियाओं का संकेतमात्र किया है-यवमाला, सप्तधान्य का
संपत्फला मितगुणावलिमुद्गिरंत्या । राठद्धिवृद्धियवमालिकयचितोऽर्हन्
गोः सप्तधान्यकमदोर्हतु सप्तभंगीम् ॥ म्रव्याय ४- १६२ ।। अर्थ- क्षण भर के बाद होने वाली सुख-संपदा के फलों की प्रचुर गुणावली को बतलाने वाली, और मदनफल व ऋद्धि-वृद्धि ( ये दोनों जड़ी बूटियाँ हैं) युक्त ऐसी जयमाला से जो पूजे गये हैं और जो भक्तों की ऋद्धि-वृद्धि के करने वाले है ऐसे अर्हत भगवान् सप्तधान्यरूपी वाणी की सप्तभंगी को प्राप्त होवे । अर्थात् उनके आगे भेंट किये सप्तधान्य मानों उनकी वाणी के सप्तभंग रूप होश्रो ।
नेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठ पृ० ५६३ में मुखवस्त्र के लिए ऐसा लिखा है- "मुखवस्त्रमेवं कुर्यात् वेदिकायामंतगृहे च ।" मुखवस्त्र ऐसा करे - वेदी पर और भीतरी गृह पर । यहाँ भी मुखवस्त्र का अर्थ परदा ही व्यक्त किया है । वह परदा वेदी और निजमंदिर ( गर्भ गृह) दोनों पर होना चाहिए नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ के पूजामुख प्रकरण में लिखा है कि - प्रभात ही जिन मंदिर जावे तो मंदिर के किवाड़ खोल कर पाँव हाँथ धोके निजमंदिर में प्रवेश करे वहाँ परदा हटाकर भगवान् के दर्शन करे ऐसा वर्णन करते हुये " उद्घाटयवदनवस्त्रं" इत्यादि श्लोक लिखा है । इसमें भी मुखवस्त्र' शब्द का प्रयोग परदा के अर्थ में किया है।
और ऊपर उद्धृत जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के श्लोक में भी जिस उत्प्रेक्षा से कथन किया है उससे भी 'मुखवस्त्र' का भाव परदा करना ही झलकता है । यहाँ भी भी समझना चाहिए कि -- तिलकदान के बाद मूर्ति की अष्टद्रव्य से पूजा
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किरण ३
जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठाविषि का प्रशुद्ध प्रचार
लिखी है। इससे सिद्ध होता है कि तिलकदान-विधि के बाद वचनिका नहीं की है। अर्थ इसका यह है-मुखोद्घाटन के ही मूर्ति पूजनीय होती है। पूजनीय मूर्ति के अंग मुख पर बाद ही सोने के पात्र में रखे क'रादि गंधद्रव्य से युक्त
टिना अयुक्त है। इसी ख्याल से तो जयसेन ने की हुई सुवर्णशलाका को दक्षिण हाथ में लेकर "सोहंस" तिलकदान के बाद अधिवासना विधि में बिब के कंकण
का ध्यान करता हुआ प्राचार्य नयनोन्मीलनयंत्र को दिखा बाँधने का कथन नहीं किया है यह एक खास ध्यान देने कर आगे लिखे श्लोक और मंत्र को पढ़े और सोने की शलाका योग्य बात है।
से नेत्रोन्मीलन करे ।' पृ० १३२ की वचनिका में लिखे इसलिए ब्रह्मचारीजी ने जो मुखवस्त्र विधि में सात- "तिह गंधकरि सुवर्णशलाकाकरि" इस वाक्य से में यही धान्यों को वस्त्र में बांधकर उससे प्रतिमा के मुख को लपे- बताया है कि जिस ककुमादिगंध से नेत्रोन्मीलन मंत्र लिखा टना लिखा है और उसी के मुताबिक आजकल के प्रतिष्ठा- गया है उस गंध को सलाई में लेकर नेत्र में फेरे । इसीसे चार्य जो विधि करते हैं वैसा विधान जयसेन प्रतिष्ठा पाठ बहुत कुछ मिलता-जुलता कथन नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ पृ० आदि किसी भी प्रतिष्ठाग्रंय में नहीं है। यह हम ऊपर बता ५५८ और ५७४ में लिखा है । वहां देख सकते हैं। चुके हैं।
इस विषय में आशाधरजी ने अपने प्रतिष्ठापाठ के (२) पृष्ठ १४२ पर ब्रह्मचारीजी ने नयनोन्मीलन चौथे अध्याय में इस प्रकार लिखा हैक्रिया की विधि इस प्रकार लिखी है "एक रकाबी में यनोन्मील्य समस्तवस्तुविशदोभासोद्भर्ट केवलकपूर जलाकर सुवर्ण की सलाई को रक्वे । और दाहिने ज्ञानं नेत्रमदशि मुक्तिपदवी भव्यात्मनामव्यथा । हाथ में लेकर फिर 'सोहं' मंत्र को ध्याता हुअा १०६ दफे तस्या त्रार्जुनभाजनापितसिताक्षीराज्यकर्पूरयुक्"ओं ह्री श्री अर्हनमः" मंत्र पढ़े। फिर निम्नलिखित श्लोक वक्त्रस्वर्णशलाकया प्रतिकृतौ कुर्वेदृगुन्मीलनम् ॥१८४ ।। व मंत्र पढ़कर नेत्र में मलाई फेरे।" ब्रह्मचारीजी के इस अर्थ-समस्त पदार्थों को स्पष्ट देखने की है उद्भटता कथन का यही आशय है कि कपूर के काजल को सलाई जिसमें ऐसे केवलज्ञानरूप नेत्र को खोलकर जिन्होंने भव्यमें लेकर उसको भगवान् की आँखों में प्रांजे । किन्तु इस जीवों को बाधारहिन मुक्ति पदवी दिखाई उन भगवान् प्रकार का कथन जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में तो क्या ? अन्य की प्रतिमा में यहाँ चाँदी के पात्र में रक्खे मिश्री, दूध धृत किसी भी प्रतिष्ठा पाठ में नही है। जयमेन प्रतिष्ठा पाठ कपूर इनमें सोने की सलाई का अग्रभाग डुबोकर उससे में यह कथन दो जगह पाया है पृ० १३२ पर और २८४ नेत्र खोलता है। पर । पृ० १३२ पर मूल मे जो लिखा है उसकी बचनिका इस प्रकार जयसेन प्रतिष्ठापाठ प्रादि किसी भी प्रतिऐसी है
प्ठापाठ में कार जलाकर उसके काजल से नेत्रोन्मीलन "सुवर्णशलाका करि कुकुमकरि (नेत्रोन्मीलनयंत्र को) करना नही लिखा है। न मालूम व शीतलप्रसादजी ने लिखि, लवंग पर रक्त पुप्पनिकरि ‘ों ही थीं अर्ह नम." ऐसा कथन किम प्राधार पर किया है ? अच्छे २ प्रतिष्ठा ऐमा मंत्र एकसौ आठ बार जपि चादी के पात्र में मिश्री चार्य ब्रह्मचारी जी की इसी विधि से काम करते रहे दूध घृत स्थापनकरि तिह गंध करि सुवर्णशलाका करि मूर्ति हैं। इस अशास्त्रीय विधि से अबतक सैकड़ों प्रतिमाओं की के नेत्र में फेरि इन्द्र है सो पूरकनाड़ी बहतां नेत्रोद्घाटन प्रतिष्ठा हो चुकी है। करे।
ब्रह्मचारी जी तो इम विधान में आये मिथी घृत दूध . २८८ पर ऐसा लिखा है-"तदनंतरमेव रुक्मपात्र आदि का भी कोई उल्लेख नहीं करते हैं। ब्रह्मचारीजी ने स्थित कपरयुक्त सुवर्णशलाका दक्षिणपाणी विधृत्य तो जो कुछ उनकी समझ में आया सो लिम्व दिया, किंतु इन 'सोहं स' इति ध्यायन्नाचार्यो नयनोन्मीलन यंत्रं प्रदर्श्य श्लोक प्रतिष्ठाचार्यो का तो कर्तव्य था कि जिन शास्त्रों के मिमं पठेत् ।" आगे श्लोक और मंत्र लिखकर फिर लिखा प्राधार पर से ब्रह्मचारी जी ने प्रतिष्ठाग्रंथ लिखा है उनसे है-"इति स्वर्णशलाकया नेत्रोन्मीलनं कुर्यात् ।" इसकी इसका मिलान करके यथार्थता का पता लगाते।
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३५
(३) पृष्ठ १३४ पर भगवान् को श्राहार देने का वर्णन करते हुए जो मूर्ति को मस्तक पर धरकर प्राचार्य का भाहार के लिये जाना, काल्पनिक राजा सोम और श्रेयांस का अपनी रानियों को साथ में लेकर उन्हें परगाड़ना आदि कथन किया है सो ऐसा नाटकीय ढंग तो ब्रह्मचारी जी के इस सारे ही प्रतिष्ठा पाठ में पाया जाता है किन्तु इस नाटकीय ढंग की धुन में भगवान् के हाथ में जो इशु रस की धारा डालने की बात कही है वह जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुकूल नहीं है। एक प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठाचार्य जी ने भगवान् के ग्राहारदान की जो विधि कराई थी वह भी सुन लीजिये अनेक व्यंजनों से भरा बाल प्रतिमा जी के सामने रखकर उसमें से अनेक नरनारी बारी-बारी से आकर भोजन का ग्रास बना बना कर प्रतिमा के हाथों पर ही नहीं मुंह पर रखते जाते थे। यह हमारा पांखों देखा हाल है। धन्य है इन प्रतिष्ठाचार्यो की लीलाओं को नाटकीय ढंग की भी तो कोई हव होनी
चाहिए ।
'
भगवान् के माहारदान के विषय में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में जैसा कुछ लिखा है उसे देखिये-तत्रोपवासं मधवा तयार्यो यज्वा शची चान्यमहे नियुक्ताः । विदष्युरुवं विधिना हि मध्यंदिने जिना चरपूजनानि ॥ ८४२॥
तदेव पंचाद्भुतवृष्टिर विवस्य पुष्पांजलिना समेता । योज्या ध्वनि तरंगणं विधाय भुजीयुरन्यानपि भोजयित्वा ।।
अनेकान्त
१५
द्वारा अष्टद्रव्य से पूजा करने को भी लिखा है सो यह भी प्रयुक्त है। इस प्रकार का विधान लिखने का इस प्रकरण को नाटकीय ढंग का रूप देने से हुआ प्रतीत होता है वर्ना प्रतिष्ठा ग्रंथों में तो ऐसा कुछ लिखा नहीं है। अभी तो प्रतिमा की तिलक दान विधि ही नहीं हुई, तो उसके पहले उसकी प्रष्ट द्रम्प से पूजा से की जा सकती है ? माना कि इस वक्त भगवान् मुनि अवस्था में हैं पर यहाँ साक्षात् भगवान् तो नहीं है यहाँ तो उनकी मूर्ति है। अष्टद्रव्य से पूजने के योग्य मूर्ति प्रतिष्ठाविधि में कब होती है यह तो विचार करना ही हो पढ़ेगा। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में भी पृष्ठ २७८ पर तिलकदान विधि के बाद “अत्राष्टकं देयं" वाक्य देकर तिलकदान के बाद ही भ्रष्टद्रव्य से पूजा करना बताया है। यहीं पर वचनिकाकार ने तिलदान को प्रतिष्ठा का मुख्य कार्य बताया है । अर्थात् तिलकदान यह प्रतिष्ठा की मुख्य क्रियाविधि है। इसके पहले मूर्ति की अष्टद्रव्य से पूजा नहीं हो सकती है। इसी तिलदान विधि में प्रत्रावतरावतर आदि आह्नानादि मंत्रों का प्रयोग कत भगवान् को मूर्ति में स्थापन करने की भावना की जाती है। पाशावर जी ने भी अपने प्रतिष्ठापाठपत्र १०५ में तिलकदान विधि के हो चुकने बाद ही "तत्काल प्रतिठितार्हत्प्रतिमां नमस्कुर्यात् " ऐसा लिखा है । अर्थात् उसी समय प्रतिष्ठित हुई भर्हतप्रतिमा को नमस्कार करे ।
८८३॥
अर्थ - अयं भगवान् के उस दीक्षादिन में इन्द्र धार्य-यजमान इन्द्राणी और अन्य पुजारी उपवास रक्वें । अगले दिन के मध्या में विधि के साथ भगवान् के धागे नैवेद्य भेंट करें और तब ही बिंब के आगे पुष्पांजलि के साथ पंचाश्चर्यो की वर्षा करे और अनेक बाजे बजवा कर इन्द्रादि आप पारण करें तथा अन्य साधर्मी जनों को भी जिमायें।
यहां भगवान् का प्रहार करने का भाव दिखाने को प्रतिमा के आगे नैवेद्य भेंट करना मात्र लिखा है। अतः प्रतिमा के हाथ में आहार धरना योग्य नहीं है । ब्रहाचारी जी ने भगवान् के उक्त आहारदान के प्रकरण में प्रतिमा जी को पड़गाहकर उनकी दातार के
fre प्रतिष्ठा में तिलकदान विधि कितनी मुख्य और महत्व की है इसके लिए ग्राशावर जी अपने प्रतिष्ठापाठ अध्याय ४ में लिखते हैं कि
द्रव्यैः स्वैः सुनयाजितैजिनपते बिबं स्थिरं वा चलं । ये निर्माप्य यथागमं सुदृषदाचारमात्मनान्येन वा ॥ लग्ने बल्गुनि संभवंति तिलकं पश्यति भक्त्या च ये । ने सर्वोऽय महोदयांतमुदवं भव्याः लभतेऽद्भुतम् ||२||
अर्थ-यायोपार्जित स्वद्रव्य से जो शास्त्रानुसार उत्तम पापाण आदि की स्थिर व चल जिनप्रतिमा को बनाकर अपने या प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा उत्तम लग्न में तिलकविधि करते हैं और उस विधि को जो भक्ति से देखते है वे सत्र ही भव्य जीव महोदयांत कहिये मोक्ष है पन्त में जिसके ऐसे अद्भुत उदय को - अहमिंद्रादि पद को प्राप्त होते है ।
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जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठाविधि का अशुद्ध प्रचार
फिरल १
मुद्रित जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में प्रशुद्धियां
आगे हम छपा हुआ जयसेन प्रतिष्ठापाठ जो इस वक्त प्रचार में श्रा रहा है उसके बाबत लिखते हैं
आज से ३६ वर्ष पहले इस पाठ को सेठ हीराचंदजी नेमीचंदजी दोशी सोलापुर वालों ने उपाया था। इसके यागमंडल पूजविधान में अन्य प्रतिष्ठा ग्रथों की तरह रागी द्वेषी देवों को कतई आराधना नहीं है। उसमें पंच परमेष्ठी सम्बन्धी पूजविधान लिखा है । अन्यत्र भी जहां तहां इसमें देव शास्त्र गुरु की ही आराधना लिखी है तथा इसमें अन्य प्रतिष्ठा पंचों की तरह किसी भी विधान में गोमय गोमूत्र का उपयोग नहीं किया है इत्यादि कारणों से यह प्रतिष्ठा पाठ अपनी खास विशेषता रखता है और अधिकतथा श्रद्धा का पात्र बना हुआ है। किन्तु इस प्रतिष्ठा पाठ में कही । कही हमें अशुद्धियाँ नजर आती हैं। खासकर वेधुि जो मुख्यतया प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्ध रखती है उन पर अवश्य ही ध्यान दिया जाना चाहिये इसलिये यहाँ हम दूसरी अशुद्धियों को छोड़कर प्रतिष्ठा विधि सम्बन्धी अशुद्धियों का ही उल्लेख करते हैं
(१) पृष्ठ ११७ के श्लोक ३३८ में कहा है--- आचार्येण सदा कार्य क्रियां पश्चात् समाचरेत् । श्री मुखोद्घाटने नेत्रोन्मीलने कंकणोज्झने । पद्याचार्यको श्रीमुखोद्बाट नेत्रोन्मीलन प्रौर कंकणमोचन में सदा मातृकान्यास करना चाहिये। फिर अन्य प्रिया करनी चाहिये।
तथा पृष्ठ १३६ में मंत्र नं० २५ वां इस प्रकार है"नमोर्हते भगवतेऽईते सद्य सामायिकप्रपन्नाय कंकणमपनयामि स्वाहा।” दीक्षास्थापनमंत्रः । यही मंत्र प्रशाधर प्रतिष्ठा पाठ में भी भगवान् के दीक्षाग्रहण में लिखा है। इस प्रकार जयसेनप्रतिष्ठापाठ में उक्त दो स्थानों में कंकण दूर करने का उल्लेख किया है । परन्तु ग्रंथ भर मे कहीं भी किसी भी विधान में जिनबिंव के कंकण बांधना नहीं बताया है तथा पृष्ठ १३६ में " अठ्ठबिहकम्ममुक्का " श्रादि ३८ व मंत्र मुखोद्घाटन का दिया है जिसे अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों में कंकणबंधन का मंत्र लिखा है। मगर जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के पृष्ठ २०३ में जहां कि मुखोद्घाटन किया का वर्णन किया है वहां यह मंत्र न देकर अन्य ही वह मंत्र
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लिखा है जो अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों में पाया जाता है। इस प्रकार इस विषय में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में खास गडबड नजर भाती है।
(२) पृष्ठ १३५ पर नं० ३०, ३१, ३२ के तीन मंत्र दिये हैं दरसल ये तीन मंत्र नहीं है। तीनों का मिलकर एक ही मंत्र है और उसका नाम जियमंत्र है। यही जिनमंत्र प्रशाधर प्रतिष्ठा पाठ के पत्र ६६ पर लिखा है । इस मंत्र का उपयोग जन्म कल्याणक में किया जाता है। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पृ० २५६ में इसे जन्म कल्याणक की विधि । में लिखा भी है वहां इसके दो मंत्र बना दिये हैं। इस तरह एक ही मंत्र जिनमंत्र को कहीं मंत्रों में विभाजित कर लिखना, कहीं दो मंत्रों में लिखना साफ ग्रंथ प्रांत की प्रशुद्धता को प्रकाः करता है।
।
(३) १० १३६ ० ३६ और १७ के दो तिलक मंत्र लिखे है । किन्तु पृ० २७८ में जहां कि तिलक विधि का वर्णन किया है वहाँ जो तिलक मंत्र लिखा है वह उक्त दोनों ही तिलक मंत्रों से भिन्न है यह भी इस ग्रंथ की प्रशुद्धि को सूचित करता है ।
(४) दीक्षा कल्याणक में एक संस्कार मालारोपण की विधि की जाती है। इस विधि का मतलब ऐसा हैं। कि भगवान् की मुनि अवस्था में पंचाचारों के पालन करने से उत्पन्न होने वाली मात्मा की विशुद्ध-अवस्था विशेष के ४८ भेद करके उन भेदों को ही यहां अलग-२ प्रड़तालीस संस्कार बना दिये हैं । उन संस्कारों को प्रतिमा में प्रारोपण करना यही पंचसंस्कारारोपण विधि कहलाती है । इन संस्कारों में से ११व संस्कार जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में पृ० २७२ पर 'शीलसप्तक' नामका लिखा है । यह नाम बिल्कुल गलत मालूम देता है। क्योंकि तीन गुण व्रतों और चार शिक्षाव्रतों को 'शीलसप्तक' कहते हैं जो श्रावक व्रतों के अन्तर्गत है । यहाँ मुनि अवस्था में यह संस्कार कैसा ? प्राशावर प्रतिष्ठा-पाठ में इस नामका कोई अलग संस्कार नहीं है । वहाँ हवें संस्कार का नाम " त्रियोगासंयमच्युतेः शीलन" है जिसका अर्थ होता है त्रियोग के द्वारा असंयम से अलग रहने का स्वभाव । जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में इसी को दो नामों से लिख दिया है- त्रियोगेनसंयमाच्युत्ति और शीलसप्तक ऐसा लिखने
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अनेकान्त
वर्ष १५ की गलती से हमा जान पड़ता है। इसी तरह इसमें जो इस कथन का मागे के विवेचन के साथ कुछ मेल भी नहीं ४४वा ४५वां संस्कार लिखा है वे भी पाशाघर-प्रतिष्ठा बैठता है क्योंकि प्राचार्य के नग्न हए बाद आगे यहाँ मूखोपाठ में नहीं हैं इन दोनों का अन्तर्भाव ४३वें संस्कार में द्घाटन, नयनोन्मीलन इन दो विधियों का करना बताकर हो जाता है अतः ये निरर्थक हैं कुछ संस्कार लिखने से रह फिर आगे सूरिमंत्र देने का विधान किया है। मुखोद्घाटन गये हैं। इस तरह जयसेन प्रतिष्ठापाठ का यह प्रकरण में परदा हटाए बाद प्रतिष्ठाचार्य का नग्न रहना कैसे हो कछ प्रशादियों को लिए हए ज्ञात होता है। अफसोस है सकेगा? वैसे भी उसके लिए नग्नता का विधान अटपटा कि इस छपी हुई अशुद्ध प्रति से जितनी प्रतिष्ठाएँ अब तक सा ही नजर आता है और यहाँ यह भी स्पष्ट नहीं हुई उन सब में संस्कारों का प्रारोपण अशुद्ध रूप से ही किया है कि मुखोद्घाटन, नयनोन्मीलन और सूरिभंत्र इन हुमा।
तीन क्रियानों से कौनसी क्रिया नग्न होकर की जावे। (५) जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पृ० २७८ पर तिलकदान बल्कि प्राचार्य के नग्नता का कथन किये बाद, आगे वह विधि लिखी है। उसके श्लोक ८४६ के चौथे चरण के कब वस्त्र धारण करे? ऐसा कुछ कथन ही नहीं "निजाभिषिक्त्यै" वाक्य से यहां दही, दूब, सरसों, कपूर किया है। इससे साफ प्रगट है कि यह कथन मूल मैं अगर आदि से मिश्रित जल से यजमान की स्त्री को स्नान प्रक्षिप्त है। यह तो पहिले ही विचारणीय था ही फिर करने को कहा गया है। किन्तु वचनिकाकार ने "निजा- तुर्रा यह है कि ब्रह्मचारीजी ने अपनी तरफ से इसके साथ भिषिक्त्यै" की जगह "जिनाभिषक्त्यै" पाठ मानकर अर्थ और नमक मिर्च लगा दिया है। वे अपने प्रतिष्ठा पाठ में किया है "जिनका अभिषेक के अथि ।" किन्तु यह अर्थ भी लिखते हैं कि-"फिर आचार्य नग्न हो जावे व ऐलकादि यहां ऐसा कुछ बैटता नहीं है। तथा यहाँ की मूल गद्य में भी नग्न हो जावे (पृ० १४१) फिर प्राचार्य और मुनि यजमान की पत्नी के द्वारा प्राचार्य के तिलक करने का प्रादि जो हो वह मिलकर सूरिमंत्र पढ़े। दोनों कानों में विधान किया है किन्तु वचनिका में इस गद्य का और पढ़कर सर्वज्ञपना प्रगट करे (पृ० १०२) जयसेनप्रतिष्ठा यहां के श्लोक ८५०-५१ का कतई अर्थ नहीं है। सम्भव पाठ में तो कही मुनि ऐलक का नाम नही है, फिर न जाने है जिस प्रति से वचनिका बनाई गई है उसमें ऐसा मूल ब्रह्मचारीजी इस काम में मुनि ऐलक को क्यों ले आये ? पाठ नही हो। यहाँ के श्लोक ८५.१ में यह तिलक विघ्न- साथ ही प्रतिमा के कानों में पढ़े जाने की बात भी बड़ी समूह के नाश करने के लिए बताया है । आचार्य के तिलक विचित्र है । प्रथमानुयोग आदि किसी भी प्राचीन शास्त्र में करने से विघ्नसमूह का नाश मानना भी अटपटा सा ही है। ऐसा उल्लेख देखने में नहीं पाया कि जहाँ किसी मुनि ने मौर इस श्लोक में 'विदधातु' क्रिया के स्थान में 'विधातु' प्रतिमा को मूरिमंत्र दिया हो। वस्त्रधारी भट्टारकों ने प्रयोग भी अशुद्ध किया है।
ऐसा कहीं किया हो तो बात दूसरी है। आजकल जो सूरिइस तरह यह प्रकरण इसमें अजीबसा हो गया है और मंत्र दिया जाता है जिस किसी को बताते नहीं हैं उसका ग्रंथ की अशुद्धता को जाहिर करता है। शायद इसी से भी हाल सुनिए -"ओं भूर्भुवः स्वः ओं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो ब्रह्मचारी जी ने भी अपने प्रतिष्ठा पाठ में इस प्रकरण के देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" यह ब्राह्मण मत का इस प्रकार के कथन को नहीं अपनाया है।
गायत्री मंत्र है । इसी मन्त्र के साथ असिमाउसा आदि जैन (६) पृ. २८२ में अधिवासना विधि के बाद "सर्वान् मंत्र जोड़कर किसी ने मनघडंत सूरिमंत्र बना डाला है। जनानपसृत्य दिगंबरत्वावगत प्राचार्यः..." आदि गद्य पाठ इस तरह जयसेन प्रतिष्ठापाठ की मुद्रित प्रति में यत्र दिया है जिसमें सब लोगों को हटाकर प्रतिष्ठाचार्य के तत्र अशुद्धियाँ नजर आती हैं। अतः इसकी पुरानी हस्तनग्न हो जाने को कहा है। किन्तु वचनिका में ऐसा कुछ लिखित प्रति की किन्हीं शास्त्र भण्डारों से खोज होना भी नहीं लिखा है। इससे यही अनुमान होता है कि वच- बहुत ही जरूरी है। इस दिशा में प्रतिष्ठाचार्यों को प्रयत्न निकाकार के सामने मूल प्रति में यह पाठ नहीं था और करना चाहिए ताकि जिन बिंब प्रतिष्ठा की विधि सही रूप
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दौलतरामकृत जीवंधर चरित्र : एक परिचय
लेखक-श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, जयपुर
१८२४ " , १८२४
दौलतराम जी १८ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध साहित्य उक्त १३ रचनाओं के अतिरिक्त प्रभी हम लोगों ने सेवी हो गए है। ये राजस्थानी विद्वान् थे। स्व० पं० जब अक्तूबर मास के प्रथम सप्ताह में साहित्य एवं पुरातत्व श्रीप्रकाश शास्त्री ने अपने लेख में इनकी १० रचनाओं के की खोज में एक १६ दिवसीय भ्रमण किया था तब जयपुर नाम गिनाये थे। जिनमें श्रीपाल चरित्र एवं परमात्मा- के अग्रवाल दि. जैन मन्दिर में इनकी एक रचना "जीवंधर प्रकाश को उन्होंने अतिरिक्त लिखा था। इधर जब राज- चरित्र" और उपलब्ध हुई है जिसका परिचय यहां लिखा स्थान शास्त्र भण्डारों की विस्तृत खोज हुई है तभी से जा रहा है। हिन्दी की सैकड़ों नवीन रचनाएं उपलब्ध हुई है। पंडित जीवंधर चरित्र की प्राप्ति की घटना प्रवर दौलतरामजी की राजस्थान के इन शास्त्र भण्डारों डा० कासलीवाल, मैं तथा सुगनचन्द जी जब रात्रि में अब तक हमें निम्न रचनाएं प्राप्त हो चुकी हैं
को ८॥ बजे अग्रवाल मन्दिर के शास्त्र भण्डार को देख १ पुण्याथव कथा कोश हि० गद्य र० काल सं० १७७७
रहे थे तब एक गट्ठर में कुछ बिखरे हुए पत्र दिखाई दिये। २ क्रिया कोश भाषा हि० पद्य , , १७९५
सभी विखरे हुए. पत्रों को इकठ्ठ कर उन्हें क्रम से लगाया ३ अध्यात्म वारहखडी , ,, १७६८
गया तब ज्ञात हुआ कि यह पं० दौलतरामजी कृत जीवं४ पद्मपुराण भाषा हिं० गद्य १८२३
धर चरित्र की मूल पाण्डु लिपि है । यह प्रति स्वयं ग्रंथकार ५ आदिपुराण भाषा
के द्वारा स्थान स्थान पर संशोधित को हुई है। इस ग्रंथ ६ हरिवंश पुराण
की रचना उदयपुर में इसी मन्दिर में बैठकर की गई थी। ७ पुरुषार्थ सिध्युपाय
" , १८२७
रचना क्योंकर हुई ८ वसुनन्दिश्रावकाचार
१८१८ पं. दौलतराम जी बसवा (जयपुर) के निवासी थे। परमात्म प्रकाश
इनके पिता का नाम अानन्दराम था एवं इनका गोत्र १० श्रीपाल चरित्र
कासलीवाल था । ये प्रारम्भ में वकील (मुस्तार) थे तथा ११ श्रेणिक चरित्र
जयपुर महाराज के सेवक थे। इनकी रुचि धर्म की मोर १२ तत्वार्थ सूत्र (टव्वा टीका),
अच्छी थी अतः महाराजा जयपुर ने इन्हें महाराणा उदय१३ सारसमुच्चय
पुर की सेवा में कुछ दिनों के लिए भिजवा दिया। ये महा
राणा के पास रहने लगे तथा वहाँ इनका धान मन्डी के में की जा सके। जयसेन प्रतिष्ठापाठ के अशुद्ध छपने के
अग्रवाल मन्दिर में शास्त्र प्रवचन होने लगा। इन्होंने वहां कारण उसमें प्रतिष्ठा विधि का कोई स्थल संदेहजनक प्रतीत हो और वह स्थल अन्य प्रतिष्ठा ग्रन्थों में योग्य
महापुराण (संस्कृत) की स्वाध्याय भी की । उसमें जीवं. दीखे तो उसका उपयोग अन्य प्रतिष्टाग्रन्थों से कर लेने में
धर स्वामी का वर्णन पाया। उसे सुनकर कालाडेहरा के भी कोई हर्ज नही है ऐसी हमारी समझ है।
श्री चतुरभुजदास अग्रवाल, पृथ्वीराज एवं सागवाड़ा निवासी मने यह लेख विचारशील विद्वान प्रतिष्ठाचार्यों के सेठ बेलजी हैबड ने इनसे हिन्दी में जीवंधर कथा लिखने परामर्श के अर्थ प्रस्तुत किया है। ग्राशा है, वे गंभीरता का अनरोध किया। उन्हीं की प्रेरणा से प्रापाढ़ सुदी २ से इस पर विचार करेंगे । मैंने यहाँ जो कुछ लिखा है वह - सुझाव की दृष्टि से लिखा है। यदि इसमे मैंने कहीं भूल
१ जैन साहित्य संस्थान जयपुर की ओर से प्रकाशित की हो तो वे मुझे बताने की कृपा करेंगे ।
२ देखिये बीर वाणी वर्ष २ अंक २-३
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वर्ष १५
गुरुवार संवत् १८०५ में यह नवरस युक्त ग्रंथ पूर्ण किया ४. जीवंधर चरित्र रइधू अपभ्रंश जैसा कि निम्न पंक्तियों से ज्ञात होया है--
५. जीवंधर चरित्र नथमलविलाला हिन्दी "बांच्यो महापुराण बीस हजार सिलोका
६. जीवंधर चरित्र पन्नालाल जाकै अन्ति अनूप वीर चरित जु गुण थोका"
उक्त रचनाओं के अतिरिक्त डा. वेलंकर ने अपने जाम कथा रसाल स्वामि जीवंधर केरी जिनरत्नकोश में निम्न रचनाओं के नाम और गिनाये हैं :सुनिकर हर भव्य स्तुति कीनीजु पनेरी ॥
१. जीवंधर चरित्र
भाष्कर कवि तबै बोलियो अग्रवाला वासी काला डहर को
२. जीवंधर चरित्र
ब्रह्मय्या चतुर चतुरभुज नाम चरंची ग्रंथ ५६ सिव सहरको ३. जीवंधर चरित्र
सुचन्द्रचार्य जो 8 ग्रंथ अनूप देश भाषा के माहीं
पंडित दौलतराम कासलीवाल ने गुणभद्राचार्य कृत बांचे बहुतहि लोक या महैं संस नाहीं॥ संस्कृत के उत्तरपुराण में वर्णित जीवंधर की कथा के सब गिरथ की बनिन आवै तो इह जीवंधर तनी। आधार पर जीवनधर चरित्र लिखा है । यह ग्रन्थ किसी का अवसिमेव करनी सूभाषा प्रथीराज इह भनी। अनुवाद नहीं है बल्कि कवि की स्वतंत्र मौलिक रचना सुनी चतुरमुख बात सोहि दौलत उरधरी है। इसे हिन्दी का प्रबन्धकाव्य कहा जाय तो प्रत्युक्ति सेठ बेलजी सुघर जाति हुँमड हितकारी ॥ नहीं होगी। इसमें घटनाओं का अच्छा कम है तथा नाना सागवाड है वास श्रवण की लगन घनेरी
भावों का रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समासब साधरमी लोक धरै श्रद्धा श्रुत केरी ॥ वेश है इस काव्य में ७२५ पद्य हैं तथा दोहा, चौपाई, तिन नै प्राग्रह करि कहि फुनि दौलत के मन बसी वेसरीछन्द, अरिल्ल, बडदोहा भुजंगप्रयात आदि अनेक छंदों संस्कृत ते भापा कीनी, इह कथा है नौ रसी।। का प्रयोग हुआ है। सम्पूर्ण काव्य ५ अध्यायों में विभक्त ठारह से जु पंच पापाढ़ सुमासा।
है जिनमें विरह, मिलन, युद्ध वर्णन, नगरवर्णन प्रादि सभी तिथि दोइज गुरुवार पक्ष सुकल जुसुभ भासा ।। प्रकार के वर्णन हैं। इस कथा का नायक जीवधर कुमार तीज पहर मु एह ग्रंथ सुभ पूरण हुो।
है जो धीरोदात्त प्रकृति का है तथा प्रतिनायक काष्टांगार श्री जिनधर्म प्रभाव सकल भव भ्रम ते जूवो॥ है। कथा में नायक प्रतिनायक का विरोध बराबर चलता अन्य रचनाएं तया इस रचना को विशेषता रहता है। नायक जीबंधर प्रतिनायक काष्ठांगार को मार ___ अन्य महापुरुषों के जीवन की तर.. जीवंधर कुमार का कर अपने पिता का खोया हुअा राज्य प्राप्त करता है और जीवन चरित्र भी जैन समाज में अपनी अनेक विशेषताओं अन्त में संसार रो विरक्त होकर सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर के कारण महत्वपूर्ण एवं जनप्रिय रहा है। उनका जीवन मोक्ष प्राप्त करता है । सम्पूर्ण काव्य की कथा बड़ी रोचक श्मसान में जन्म होने से लेकर अनेक कौतूहल पूर्ण घटनाओं है तथा पाठकों की उसे पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहती है। के साथ मानवता की चरम सीमा पर पहुँचता है तथा वे इसका कथानक सजीव होने के साथ २ जीवन को स्पर्श अन्त में केवल ज्ञान प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करते हैं। करने वाला भी है। इसलिये ऐसे महान पुरुषों का जीवन चरित्र संस्कृत, अप- कवि ने हृदय को छूने वाली सीधी-साधी जन-साधारण म्रश हिन्दी आदि कितनी ही भाषाओं में निबद्ध किया की भाषा में जीवंधर के जीवन की सम्पूर्ण घटनाओं का हुमा मिलता है। अब तक जीवन्धर के जीवन से सम्बन्धित रोचक वर्णन किया है। पूरे काव्य में ऐसा लगता है मानों राजस्थान के भण्डारों में निम्न रचनाएं प्राप्त हो चुकी है। कवि पाठकों से कविता में साधारण बातचीत करता चलता
१. जीवंधरचम्पू हरिचन्द्र संस्कृत है-साधारण से साधारण पढ़ा-लिखा भी कवि के अभि२. जीवंधर चरित्र शुभचन्द्र
प्राय को समझने में सफल होता है। ३. क्षत्र चूड़ामणि वादीसिह
राजा रानी एवं पुरोहित का परिचय देखिये :
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किरण १
बौलतरामकृत जीवघर चरित्र : एक परिचय चौपाई
घर में विवाह योग्य कन्या माता-पिता के लिये तहां राजपुर नगर अनूप, राज कर सत्यंधर भूप॥ कितनी चिन्ता की वस्तु होती है तथा विवाह के पश्चात् पटरानी विजया गुण खानि, जा समान रति रूप न मानि ॥ उनका कितना भार कम हो जाता है
मंत्री काष्ठांगारिक एक प्रोहित रुद्रदत्त अविवेक । दोहा-"रहै कंवारी कन्यका ब्याह जोगि घर माहि ।
कवि की भाषा साहित्यिक कलाबाजियों से कोसों माता तात को दूसरी ता सम चिंता नाहि ॥ दूर है । काव्य की रचना कवित्व शक्ति दिखाने को नहीं पुत्रि परणावन समा, नहि निचितता और । अपितु सत्यं शिवं सुन्दरम् को ध्यान में रखते हुए स्वपर तातै भयो निचित अति गरुड वेग खग मौर ॥" कल्याणार्थ-धार्मिक पुरुषों के चरित्र को कथा के बहाने माता और पुत्र का दंडक वन में मिलन होता है उस से कहने के लिए की गई है। सारे काव्य में ढूंढारी (जय- समय माता की दुर्दशा तथा स्नेह का चित्रण देखियेपुरी) भाषा के साथ २ प्रज भाषा का मिश्रणहै किन्तु कहीं "तहाँ लखी विजया गुण खानी, अति विलाप जुत सोक भी कवि ने शब्दों में क्लिष्टता नहीं आने दी है।
निधानी। कवि ने बाल लीला का अच्छा वर्णन किया है । बालक सुत सनेहत आंचल जाके, भरि आये 4 करि अति ताके ॥ जीवंधर अपने अन्य साथियों के साथ लाख की गोली से अश्रुपात परिपूरण नैना, अति दुरबल तन सखलित बैना । खेलते दिखाई देते हैं।
जहु चिंता जुत है संतप्ता, जटी भूत सिर केस विक्षिप्ता ।। "एक दिवस या पुर के पासा, कंवर करत है केलि किलासा नित्य निरंतर उश्न निराासा, तिन करि विवरण अधर उदासा । लाख तनी गोली करि वाला, खेलत है रस रूप रसाला।" अति मलीन जाके सब दंता, सर्वाभरण रहित दुखवंता ॥ ___ जीवंधर कुमार प्रारम्भ से कुशाग्र बुद्धि एवं तत्काल चितवंति निज चित्त मझारा, सुत वियोग को दुख प्रति भारा। उत्तर देने वाले थे। उन्हें गोली खेलते देख एक साधु ने तब ही प्राय परयो सुन पावां, हाथ जोरि सिर नमि सुभभावा। पूछा कि लाला नगर कितनी दूर है ? इस पर उनका दई असीस ताहि तब माता, होहु पुत्र तुम्हरे मुख साता ॥" उत्तर देखिये--
कवि ने ग्रन्थ में धार्मिक सिद्धान्तो तथा चारित्र संबंधी "बोले कंवर सबै इह जान, बालक चेलक पंथ पिछाणे। बातों का भी अच्छा विवेचन किया हैतू प्रति वृद्ध ज्ञान न तोकी, किती दूर पुर पूछत मोको ॥ "अनन्तानुबंधी महा क्रोध मान मद लोभ । तरवर सरवर बाग विसाला, बहुरि देखिये खेलत बाला । बहुरि तीन मिथ्यात ए सात प्रकृति मति क्षोभ ।। तहां क्यों न लखिये पुर नीरा, संसै कहा राखिये वीरा ॥ इन को उपशम क्षय बहुरि अर खय उपसम होइ। ज्यों लखि धूम अनि ह्व जान,तौ बालक लखि पुर परवान।।" तब प्रकट सम्यक् त्रिविधि मूल व्रत को सोय ।।
बालक जीवधर की बातों पर प्रसन्न हो तापसी उनके सात उपसमा उपसमी क्षयतै क्षायक जान । साथ भोजन करने घर आता है। माता बालक को गर्म- एक उदै ह्व सातमी सो वेदक परवानि ॥ गर्म भोजन परोसती है। बालक माता से रूठ जाता है हिंसा मिथ्या वचन पर चोरी नारी संग । तथा रोने लगता है और कहता है-गर्म भोजन कसे किया परिग्रह त्रिस्ना पंच ए पाप कुमति के अंग ।। जावे । माता को परेशान होती देख तापसी बालक को न सकल पाप को सर्वथा त्याग महाव्रत जानि । रोने तथा धैर्य रखने के लिये समझाता है। इस पर किंचित त्याग अणुव्रता इह निश्च परवानि ।।" बालक जीवंधर का उत्तर देखिये
इस तरह उक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि दौलतराम "सुनि तापस के वचन विवेकी, बोले पाप भाव कर एकी। जी ने जीवंधर चरित्र के रूप में एक श्रेष्ठ काव्य की
रचना की है जिसे भाव-भाषा एवं शैली आदि सभी दृष्टियों रोवे के गुन तुम नहि जानो, मेरी बात हिये परवानो।।।
से उत्तम कृति कहा जा सकता है। इस रचना की उपजाय सलेषम जो दुखदायी, नेत्र विमल है अति अधिकाई।
लब्धि से हिन्दी भाषा की प्राचीन रचनामों में एक और तितै प्रहार हु सीतल होई, यामै तो भौगुन नहि कोई ॥' रचना की वृद्धि हुई है।
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अहिंसा के पुजारी एल्बर्ट स्वाइटज़र
लेखक-६० बनारसीदास चतुर्वेदी एम. पी.
"सुबह हम दोनों स्टेशन की ओर रवाना हुए। रास्ते में १८९६ में दर्सनशास्त्र की डिग्री ली। इस प्रकार धर्ममैंने उनकी अहिंसा का प्रत्यक्ष उदाहरण देखा। हम दोनों विज्ञान और दर्शन-शास्त्र में उन्होंने ऊंची-से-ऊंची परीक्षाएं मिलकर उनका एक भारी बंडल और एक छड़ी लिये हुए पास कर लीं। थे बंडल का एक-एक सिरा दोनों जने पकड़े थे। बर्फ की उनकी बाल्यावस्था की कई मधर घटना प्रसिद्ध है। वजह से सड़क बहुत .फिसलनी हो रही थी। हम दोनों
एक बार उनकी माताजी ने उनके लिए प्रोवरकोट सिलवा झपटते हुए चले जा रहे थे। एकाएक वह रुक गये। झटके की वजह से मैं प्रायः गिर-सा पड़ा। उन्होंने इसके ।
गया था और उनसे कहा, "देखो एल्बर्ट, मैंने तुम्हारे लिए लिए मुझसे माफ़ी मांगी और सड़क से एक कीड़े को
एक प्रोवरकोट बनाया है और वह बिल्कुल नया मालूम उठाया। कीड़ा सर्दी और बर्फ से अधमरा हो रहा था। सोता " के गाल लाल हो गये और उन्होंने कहा उन्होंने उसे उठाकर सड़क के किनारे, एक झाड़ी के नीचे "माताजी, अाज तो ज्यादा सदी नहीं है, मुझे प्रोवरकोट सूखी भूमि में रख दिया और बोले, " यहां यह हिफाजत की जरूरत नहीं।" माताजी ने कहा, "देखो, काफी कोहस से रहेगा। सड़क पर पड़ा रहेगा तो मर जायगा।"
।। पड़ा हुआ है, तुम इसे पहन लो।" एल्बर्ट ने कहा, "माता उपर्युक्त घटना सन् १६२३ में घटी थी और यह दीन- जी, और किसी बच्चे के पास तो प्रोवरकोट है ही नहीं, बन्धु सी. एफ. ऐण्डू ज द्वारा अहिंसा के पुजारी एल्बर्ट फिर भला अकेला मैं उसे क्यों पहनू ?" माताजी ने कहा, स्वाइटज़र के विषय में लिखी गई है। स्वाइटज़र का जन्म "अच्छा, इसकी चर्चा कल हम फिर करेंगे।' दूसरे दिन १४ जनवरी सन् १८७५ को हुआ था और इस समय वह इसी सवाल पर अपने पादरी पिता जी से उनका झगड़ा ८७ वर्ष के युवक हैं । भिन्न-भिन्न विषयों के ज्ञाता होने हो गया ! पिताजी ने उन्हें काफी डाट बताई और कहा के कारण उनकी गणना संसार के अद्भुत महापुरुषों में की "तुम जिद क्यों करते हो? देखो, तुम्हारी माताजी कितना जाती है। जिस प्रकार दक्षिण अफ्रीका के जनरल स्मट्स परिश्रम करके तुम्हारे लिए कपड़े तैयार कराती है। बड़े भारी सेनाध्यक्ष और फौजी विज्ञान के प्राचार्य थे, तुम्हारा फर्ज है कि उन्हें खुश करने के लिए कम-से-कम और साथ-ही-साथ बड़े राजनीतिज्ञ और दार्शनिक भी, पहन तो लो !" पर एल्बर्ट इस बात से राजी नहीं हुए, और जिस तरह पायरलैण्ड के जार्ज रसल (ए. ई.) क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि ऐसी कोई चीज पहनें, जो उत्कृष्ट कवि होने के साथ-साथ बड़े अच्छे चित्रकार और दूसरे विद्यार्थियों को मुअस्सर नही। दूसरे दिन उनके समाज-सेवक भी थे, उसी प्रकार एल्बर्ट स्वाइटजर भी पिताजी ने उन्हें धक्का देकर घर से निकाल दिया और पियानो बजाने में दुनियां के सर्वक्षेष्ठ कलाकार होने के कहा, "जाग्रो, बाहर जाओ और जबतक तुम अपनी यह साथ-ही-साथ अति उच्चकोटि के समाजसेवक और धर्म- जिद नहीं छोड़ते, बाहर रहो । एल्बर्ट घर के बाहर बैठे शास्त्र तथा दर्शनशास्त्र के विश्वविख्यात प्राचार्य भी हैं। हुए अपने घुटनों पर हाथ रख कर रोते रहे ! यह घटना
जब एल्बर्ट स्वाइटजर पांच बरस के थे तभी से उनके उनके समस्त जीवन पर प्रकाश डालती है। पिताजी ने उनको गान-विद्या की शिक्षा देनी शुरू कर दी एल्बर्ट स्वाइटज़र अहिंसा के समर्थक के नाम से मशथी। आठ बरस की उम्र में वह पियानो बजाने लगे थे। हूर है। सत्याग्रह- सिद्धान्त की खूबी उन्हें कैसे ज्ञात हुई, १८६३ में उन्होंने स्कूल लीविंग परीक्षा पास करली। वह भी सुन लीजिये । एक दिन उन्होंने देखा कि सड़क पर १८१८ में उन्होंने धर्म-विज्ञान की परीक्षा पास की और एक अपमानित यहूदी जा रहा था। गांव के लड़के उसके
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महिंसा के पुजारी एल्वर्ट स्वाइटवर
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पीछे पीछे उसपर आवाजे कसते हुए उसे और तंग करते मना किया और जब वह मेडिकल कालेज में दाखिल होने हुए पा रहे थे, मगर वह उनके तानों के उत्तर में मन्द-मन्द के लिए गए तो वहां के आचार्य ने उनकी इस बात पर मुस्करा रहा था। उसके चेहरे पर एक विचित्र प्रकार की यकीन ही नहीं किया कि उनके विश्वविद्यालय का एक उदारता और शराफत के भाव थे।
महान शिक्षक मामूली विद्यार्थियों के साथ डाक्टरी के प्रथम स्वाइटजर ने अपने संस्मरणों में लिखा है-"उसकी वर्ष में दाखिल होने पा रहा है ! उन्होने समझा कि स्वाइस मुस्कराहट ने मुझे वश में कर लिया। मैंने उसी यहूदी इटजर विक्षिप्त हो गए हैं और उन्होंने स्वाइटजरसाहब से से पहले-पहल यह बात सीखी कि दूसरों के उत्पीड़न को कहा, "मालूम होता है कि आप बहुत परिश्रम करते रहे हैं, किस तरह शांतिपूर्वक बर्दाश्त किया जाता है। वह यहूदी आप छुट्टी क्यों नहीं ले लेते ? अगर आप चाहें तो इस बारे ही मेरा सबसे बड़ा गुरु है।
में मनोवैज्ञानिक डाक्टर से कुछ बातचीत कर लें।" यह उनकी अहिंसा का एक उदाहरण और भी सुन लीजिये सुनकर स्वाइटजर साहब बड़े जोर के साथ हंसे और बोले एक बार वसंत ऋतु में वह अपने एक साथी विद्यार्थी हेनरी "नहीं-नहीं में कोई पागल थोड़ा ही हो गया हूँ। मैं सचके साथ वन-यात्रा के लिए गए हुए थे। वहां एक पेड़ पर मुच डाक्टरी पढ़ना चाहता हूँ।" और तीस बरस की उम्र बहुत सी चिड़ियां उन्होंने देखीं । हेनरी ने कहा, देखो कैसी में वह डाक्टरी के प्रथम वर्ष में दाखिल हो गए। छः बरस सुन्दर चिड़ियां इस वृक्ष पर हैं, जिनकी चोटी लाल है, पर तक वह घोर परिश्रम करते रहे और इस प्रकार उन्होंने पीले । और एक चिड़िया को तो मै अभी-अभी गिरा डाक्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उसके बाद वह साल सकता हूँ।"
भर तक अस्पतालों में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करते रहे। ज्योंही हेनरी ने अपनी गुलेल के लिए एक पत्थर उठाया सन १९१३ में वह अफीका के लिए रवाना हो गये और और एल्बर्ट से कहा कि तुम भी एक पत्थर उठायो, उसी तबसे लेकर अब तक उनन्चास वर्ष तक वहीं निरन्तर समय गिरिजाघर के घन्टे बजने लगे। एल्बर्ट के दिमाग में काम करते रहे है। दीनबन्धु ऐण्ड्रज ने उनके बारे में बिजली की तरह एक विचार कौंध गया। बाइबिल में लिखा लिखा है। है--"तुम किसी की हत्या मत करो।" बस तुरन्त ही वह बड़े "इस प्रकार तीस वर्ष की अवस्था में इस व्यक्ति के जोर से चिल्लाये और हाथ से तालियां भी बजाई ? इस परों पर सारा संसार दिखाई देता था, परन्तु शोर-गुल को सुनते ही तमाम चिड़ियां पेड़ पर से उड़ गई उसी समय स्वाइटजर ने एकाएक यह निर्णय किया कि वह और उनका साथी हेनरी भौंचक्का-सा रह गया । हेनरी ने समस्त ख्याति और ऐश्वर्य को त्याग कर, अफ्रीका की उन्हें बहुत फटकारा, पर एल्बर्ट ने उसका कोई भी जवाब जगली जातियों में रहकर, उनका इलाज करके उनकी नहीं दिया। उस दिन से एल्बर्ट ने यह सबक सीख लिया सेवा करेगे और अपना सारा जीवन उनकी सहायता करने कि चाहे कोई कुछ भी कहता रहे, मैं उसकी परवा न करके और उन्हे भाराम पहुंचाने में लगायेंगे। गत सत्ताईस अपनी बात पर दृढ़ रहूंगा। उस दिन के बाद वह किसी वर्षों से वह अकथनीय कठिनाइयों का सामना करते हुए भी मछली पकड़ने या शिकार करने की पार्टी में शामिल कांगों नदी के तट पर रहते है और जंगली जातियों की नहीं हुए और न किसी ऐसे खेल में, जिसमें किसी जीव की सेवा में निरत हैं। उनकी वीर और विदुपी पत्नी उनके हिसा हो।
इस कार्य में उनकी सहायता करती है । उन्होंने सब प्रकार धर्म-विज्ञान और दर्शनशास्त्र में ऊंची से-उची डिग्री की विपत्तियां झेली हैं और अनेक बार उनका स्वास्थ्य पाने पर भी उन्होंने यह निश्चय किया कि मै डाक्टर बन- भंग हुअा है । उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का भी कुछ कम कर अफ्रीका के नीग्रो लोगों के बीच में काम करूंगा, और सामना नही करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने यह ठान रक्खा उन्होंने एक मेडिकल कालेज में शिक्षा प्राप्त करने का है कि सरकार या किसी सोसाइटी से पैसा नहीं लेंगे, बल्कि निश्चय कर लिया। उनके संगी-साथियों ने उन्हें बहुत-कुछ स्वयं अपने परिश्रम पर निर्भर रहेंगे। उन्होंने अफ्रीका की
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अनेकान्त
वर्ष १५
दो-तीन आदिम जातियों के सम्बन्ध में किताबें लिखी हैं, हुए वह कीड़ों-मकोड़ों को अपने पैर के नीचे आने से बचाजिसमें उन्होंने अफ्रीका के जंगलों में अपने जीवन की कथा वेगा, यहाँ तक कि वह रात को खिड़कियां बन्द करके लैम्प सुनाई है। ये पुस्तकें मानव-प्रकृति और विज्ञान के गंभीर की रोशनी में काम करना पसंद करेगा, बजाय इसके कि रहस्यों से परिपूर्ण हैं । इन पुस्तकों की विक्री से तथा जब खिड़की खोलकर परवानों को लैम्प पर आकर जलने दे।" कभी-बहुत दिनों बाद वह यूरोप आते हैं, तब वहां एक बार एक पालतू हिरन ने उनके वर्षों के परिश्रम से संगीत का कन्सर्ट बजाकर जो पैसा कमाते हैं, उसमें अपना, लिखित एक ग्रंथ को ही चबा डाला, पर स्वाइटजरसाहब अपने परिवार का तथा अस्पताल का खर्च चलाते हैं।" उस पर बिलकुल नाराज न हुए। सिर्फ इतना ही कहाप्रथम महायुद्ध के दिनों में वह बन्दी बना लिए गए "अरे भलेमानस, तू नहीं जानता कि तूने यह क्या कर
डाला है !" १६१५ की वसंत ऋतु में वह एक छोटे-से स्टीमर दीनवन्धु ऐण्ड ज ने अपने एक लेख में लिखा हैद्वारा नदी की यात्रा कर रहे थे । आस-पास वन का दृश्य "जब मेरी स्वाइटजर से भेंट हुई तो उन्होंने फौरन ही था और उन्होंने देखा कि प्रकृति में चारों ओर संघर्ष चल मेरे समस्त हृदय पर अधिकार कर लिया। मैने कभी रहा है । पेड़-पौधे तथा जंगल के जीव अपने जीवन को उनके समान बच्चों की-सी स्वाभाविक स. लता का श्रादमी कायम रखने के लिए परस्पर संघर्ष कर रहे हैं। उसी नहीं देखा । सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि वह अंग्रेजी समय एक विचार उनके मन में आया-"क्या हम लोग नहीं जानते है और मेरा जर्मन अथवा फ्रेंच का ज्ञान बहुत एक-दूसरे का विनाश करके ही जीवित रह सकते है ?" अल्प है । खैर, किसी तरह हम लोगों ने इस मुश्किल को उस समय उनके हृदय में बड़ी दुविधा उत्पन्न हो गई। हल किया। हम लोगों की बातचीत शुरू से आखिर तक वह इस प्रश्न को हल नहीं कर पा रहे थे। दो दिन तक गांधीजी के सम्बन्ध में ही थी। उनका स्टीमर चलता रहा और उनका दिमाग भी चक्कर ।
"भारत की परिस्थिति ने उन पर गहरा प्रभाव डाला काटता रहा । तीसरे दिन शाम को, जबकि सूर्यास्त का
था। उन्होंने मुझसे कहा-'आपका और मेरा देश बहुतबड़ा सुन्दर दृश्य उनके सामने उपस्थित था, एक साथ
कुछ एक-सा है। हम दोनों के देशों को पराजय उठानी पड़ी
है और दोनों ही के देश आजकल पीड़ित है।" उनके मस्तिष्क में एक उज्जवल विचार उत्पन्न हुआ
"मैंने उन्हें महात्मा जी के पाश्चर्यजनक अस्त्र अहिंसा 'सर्व जीव दया' (रेववेंस फार लाइफ) मानों उन्हें जीवन
की बातें बताई । स्वाइटजर के वैज्ञानिक भाव जाग्रत हो दर्शन की कुंजी ही मिल गई ! तबसे वह समस्तसंसार में
गये और उन्होंने 'जन-धर्म और अहिंसा' शब्द के वास्तअपने सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध हो चुके हैं। उन्होंने इस
विक अर्थ प्रादि के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की। सिद्धांत का गम्भीर मनन किया है और वह कुछ निश्चित
उन्होंने यह भी पूछा कि भारत के धार्मिक जीवन में इस परिणामों पर भी पहुँचे है। उनके सिद्धांत का सार यह सिद्धांत का प्रभाव कितना है? है-"प्रत्येक प्राणी का जीवन पवित्र है और उसकी रक्षा
"मगर थोड़ी ही देर बाद हम लोग घूम-फिरकर करना हमारा कर्तव्य है।" पर क्या हम हिमा से पूर्णतया पुनः महात्मा जी के विषय पर पहुँच गये। सवाल पूछतेबच सकते हैं ? एल्बर्ट स्वाइटजर का मत है-"कभी-कभी ।
पूछते उनकी तबीयत ही नहीं भरती थी। वह बराबर हिसा हमें करनी ही पड़ती है। अपने मरीजों को बचाने के पन..usन करते जाने
प्रश्न-पर-प्रश्न करते जाते थे। हमारे दुभाषिया महाशय को लिए हमें कीटाणुओं को नष्ट करना पड़ता है। लेकिन मेरी बात उन्हें समझाने में विशेष कठिनाई होती थी। बिना किसी कारण के हमें यह अनाचार हरगिज नहीं स्वाइटजर को इस बात की बड़ी खुशी थी कि मैं महात्मा करना चाहिए । दुनिया में कोई चीज इतनी छोटी नहीं हैं जी के साथ रख सका और उनके निजी मित्र की हैसि. कि जो हमारी प्रेम पात्र न बन सके । सच्चा अहिंसावादी
यत से उनकी बातें बता सकता है। बार-बार वह यही किसी पेड़ की पत्तियों को भी नहीं काटेगा । मार्ग में चलते कहते थे हम बड़े भाग्यवान हैं।"
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'अनेकान्त' का प्रकाशन
लेखक-श्री वंशीधर शास्त्री एम० ए० ४० वर्ष पूर्व की बात है, स्व० श्रीमान् साहू सलेख- हुआ है। प्राचीन पर्वत, गुफायें, प्राचीन मन्दिर ताम्रपत्र, चन्दजी रईस नजीबाबाद ने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शिलालेख, प्राचीन मूर्तियां, प्राचीन किले प्रादि बातों के महासभा के २५वें अधिवेशन (कानपुर) के अपने अध्य- अनुसंधान से जैनियों का कितना साम्राज्य कहां रहा है, क्षीय भाषण में कहा था कि “जैन इतिहास, जैनधर्म के जैन धर्म का कितना प्रचार तथा प्रभाव था, इन बातों का गौरव का प्रधान चिन्ह है। जैन धर्म और जैनों के महत्व परिचय अच्छा मिल सकता है। कौन प्राचार्य कब हये, का परिचय जैन पुरातत्वों के अनुसंधान से बहुत कुछ मिल उन्होंने किन-किन ग्रंथों की कब रचना की, ये बातें भी उसी सकता है। अभी तक जैनियों का पुरातत्व इतस्ततः पड़ा विभाग से सम्बन्ध रखती हैं । इसलिये ऐसी खोज के लिये
"हम लोग बड़ी रात तक बैठे हुए अहिंसा की बातें एक पुरातत्व विभाग भी आवश्यक है। करते रहे। उन्होंने मुझसे कहा कि उनके जीवन का भी "अाजकल मन्दिरों का रुपया पूजन, उपकरण और, सबसे गम्भीरतम सिद्धांत गही रहा है और महात्मा ने इमारत के काम में ही लगता है । जिन मन्दिरी में अधिक भारत के राष्ट्रीय संग्राम का इसे मूल सिद्धात बनाकर रुपया हो उन्हें अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाना चाहिये । उस द्रव्य बहुत ही अच्छा किया।"
को जीर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराने, जहां जो ग्रन्थ नहीं कुछ दिन हुए स्वाइटजर साहब को शॉति पुरस्कार है वहां उन्हें मंगाकर स्थानीय सरस्वती भवन की वृद्धि मिला था।
कराने, तथा अन्य स्थानों के मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराने जैसा कि हम कह चुके है, वह उन्चास बरस से में जहां आवश्यकता हो लगा देना चाहिये । एक मन्दिर का अफ्रीकियों की सेवा कर रहे हैं। महस्रों ही आपरेशन रुपया दूसरे मन्दिर के कार्य में लगाना शास्त्र विरुद्ध नही उन्होंने इस बीच में किए है और शायद कई लाख रोगियों है। जिन स्थानों में जैनों का निवास है परन्तु भाइयों की का इलाज किया है और सबसे बड़ी खूवी की बात यह है असमर्थता के कारण मन्दिर नहीं बन सका है वहाँ अधिकि यह कर्तव्य उन्होने किगी परोपकार की भावना से काश रुपये वाले मन्दिरों को वहां मन्दिर बनवा देना नही किया, बल्कि वह समझा है कि गोरे लोगों ने काले चाहिये ।' आदमियो पर जो अत्याचार किए है. उनके प्रायश्चित्त "जैन साहित्य प्रकाश और उसका प्रचार भी जैनधर्म स्वरूप ही में उनकी कुछ सेवा कर रहा है।
की उन्नति में परम सहायक है। इसलिये उसकी रक्षा कुछ वर्ष पहले मैने पढ़ा था कि संसार में प्रभु ईसा- वृद्धि करना हमारे लिये आवश्यक है। कर्म सिद्धान्त, जीव मसीह के तीन अनुयायी सबसे महान माने जा सकते हैं- सिद्धान्त, भाव विवेचना, कथाक्रम से चारित्र निरुपण आदि एल्बर्ट स्वाइटजर, दीनबन्धु ऐण्ड ज और कागावा । इनमें जैन धर्म के सभी अंगो का यदि प्रमार किया जाय तो जैन से दीनबन्धु ऐण्ड ज के साथ वर्षो तक काम करने का मौका धर्म से जगत् की बहुभाग जनता का हित हो सकता है। मझे मिला था और जापान के गांधी कागावा के दर्शन भी परन्नु जितना साहित्य प्राज हमारे सामने उपलब्ध है वह मैने किए थे । मेरे मन में अभी एक लालसा बाकी है- अभी अपर्याप्त है परम पूज्य जैनाचार्यों की अभी बहुत सी यानी कभी-न-कभी अहिंसा के पुजारी एल्बर्ट स्वाइटजर कृति यत्र तत्र भंडारी में छिपी हुई है। ईडर, नागौर के चरणस्पर्श करने की।
आदि स्थानो में अनेक उत्तम ग्रन्थों का भन्डार है। उन (सस्ता साहित्य मंडल न्यू देहली द्वारा प्रकाशित सब ग्रन्थों को प्रकाश में लाने की बी जरूरत है। यदि सेतुबन्धु पस्तक से साभार)
ये ग्रंथ प्रकाश में न आये तो बड़े दुःख का विषय होगा कि
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अनेकान्त
वर्ष १५
बहुत से अमूल्य तत्व रत्न यों ही नष्ट भ्रष्ट हो जायेंगे। था कि वहां कम खर्च में इसका प्रकाशन हो सकेगा किंतु फिर तो प्राचार्यों की कृति के लोप से हमारा विनय भाव दुःख यही है कि वहाँ जाकर भी पत्र का पाठ वर्ष तक कहां तक बढ़ा हुआ एवं प्रशंसनीय समझा जायगा इसे प्रकाशन नहीं हो सका। आप लोग ही सोचें।"
पत्र के वर्ष २ की प्रथम किरण में पाठ बर्ष के अंतHTRA नाम के मेवा. राल के सम्बन्ध में श्री मुख्तारसाहब ने लिखा है कि श्रम को खोलने और उसका संचालन करने के लिये सन्
ने और उसका संचालन करने के लिये सन "जनवरी सन् १९३४ में बाबू छोटेलाल जी ने अनेकान्त १९२६ की महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर जैन समाज को पुनः प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की और पत्र दारावर स्थापित किया गया और ममत द्वारा सूचित किया कि मैं अनेकान्त के ३ साल के घाटे के भद्राधम ने अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये 'अनेकान्त लिए इस समय ३६००) रु. एक मुश्त भेंट करने के लिए पत्र निकाला।
प्रस्तुत हूँ आप उसे अब शीघ्र ही निकालें। उत्तर में मैने अनेकान्त चिरस्थायी बने
(मुख्तारसा०) ने लिख दिया कि मैं इस समय वीर सेवा
मन्दिर के निर्माण कार्य में लगा है-जरा भी अवकाश मुझे यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई कि जैनपुरातत्व
नही है। का प्रमुख पत्र 'अनेकान्त' का पुर्नप्रकाशन प्रारम्भ हो रहा
तत्पश्चात् लाला तनसुखरायजी जैन देहली ने पत्र है । इस अवसर पर इसकी पुरातन गति-विधियों पर प्रकाश
के दो वर्ष का घाटा सहन करने का प्राश्वासन दिया तब डालना आवश्यक समझता हूँ।
प्राठ वर्ष बाद पत्र १-११-१९३८ से निकलना प्रारम्भ अनेकान्त दिगम्बर जैन समाज का तो प्रमुख साहित्यिक हुमा । चौथे वर्ष में १० सज्जनों ने ८२६) रु० सहायतार्थ गवेषणात्मक पत्र रहा ही है किन्तु इससे हिन्दी साहित्य प्रदान किए। की भी कम सेवा नहीं हुई। इसके द्वारा बहुत से प्राकृत सन् १९४८ में अनेकान्त के नवें वर्ष में भारतीय ज्ञानहिन्दी, संस्कृत, अपभ्रंशके अज्ञात लेखक एवं ग्रन्थ प्रकाश में पीठ काशी ने पत्र को काफी घाटे में प्रकाशित किया और आए।
एक वर्ष बाद पत्र ज्ञानपीठ से पृथक् होकर ७ माह तक नही ___ इस पत्र का इतिहास जहाँ हमें इसकी गौरव-गाथा से निकला तत्पश्चात् जुलाई १९४९ में देहली से प्रकाशित हुआ अवगत कराता है वहां हमें कुछ शिक्षा भी देता है कि गवे. पत्र को बराबर घाटा लगता रहा और १० वें वर्ष के अन्त षणात्मक पत्र चालू रखना, विशेषतः दिगम्बर जैन समाज में कि० ११-१२ में मुख्तार सा० ने सूचना दी कि १५ माह में असाध्य नहीं तो अति श्रम साध्य अवश्य है । के अर्से में पत्र को ढाई हजार के करीब घाटा रहा । ___आज से ३२ वर्ष पूर्व वीर नि० सं० २४५६ में देहली समाज से केवल २६८ ) की सहायता प्राप्त हुई . ... के समन्तभद्राश्रम से अनेकान्त का प्रथम अङ्क निकला था। ऐसी स्थिति में जब तक इस घाटे की पूर्ति नहीं हो जाती
प्रथम वर्ष में पत्र को ६२२०) का घाटा रहा और तब तक आगे के लिए कोई विचार ही नहीं किया जा संस्था के सदस्यों से प्राप्त सदस्यता सहायता आदि की सकर आमदनी जोड़ने पर १२५२%) का घाटा रहा।
इस पर भी कोई घाटे को वहन करने के लिए तैयार समन्तभद्राश्रम एवं अनेकान्त के संचालन के लिए नहीं हुए प्रतः डेढ़ वर्ष तक पत्र बन्द रहा। इस बीच में देहली उपयुक्त नहीं समझा गया, अतः वीर सेवक संघ की बहुत से भाई मुख्तार सा० को अनेकांत को प्रकाशित करने कार्यकारिणी ने ता. २६-१०-१९३० को समन्तभदाथम के लिए प्रेरित करते रहे किन्तु किसी भी प्रकार से श्री एवं अनेकांत को सरसावा ले जाने का निर्णय किया और मुख्तार सा० पत्र को प्रकाशित करने के लिये तैयार नहीं नवम्बर सन् १९३० में वहाँ ले भी गए। अनेकान्त का हुए। अक्टूबर सन् १९४४ में श्री मुख्तार सा० कलकत्ता सरसावा से प्रकाशन करना तो इसलिए तय किया गया। (१) अनेकान्त वर्ष १ कि० १२ पृ० ६६८-६६६
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गए। "वहीं अनेकान्त को स्थायित्व प्रदान करने एवं संचालक असमर्थ रहे। इसी कारण न तो पत्र के ग्राहक ही सुचारु रूप से चलाने के लिए संरक्षकों और सहायकों का बढ़े और न इसको लेखकों का ही सहयोग मिला। मायोजन करना और उन्हें पत्र सदा भेंट स्वरूप वर्तमान में प्राचीन साहिन्यान्वेपण को महत्त्वपूर्ण दिया जाना तय हुआ । बाबू नन्दलाल सरावगी (श्री छोटे स्थान दिया जाने लगा है एवं समाज में विभिन्न स्थानों लाल जी के अनुज) की १५००) रु. की सहायता ने इस पर-जयपुर, आगरा, वाराणसी एटा प्रादि-अनेक मायोजनको विशेष प्रोत्साहन दिया। कलकत्ता मे १३ विद्वान अन्वेषणकार्य में लगे हुये है उनकी शोधपूर्ण रचसंरक्षक एवं सहायक बन गये।
नाओं-लेखों एवं प्रबन्धों के प्रकाशन के लिए समाज संरक्षकों एवं सहायकों से प्राप्त स्थायी फण्ट के लिए में साधन सम्पन्न संस्थाओं एवं पत्रों का प्रायः अभाव ही सारी रकम ६५६६)रु. १०३, ११ वे एवं १२ वें वर्ष के है अत: ऐसी स्थिति में वीर सेवा मंदिर (समंतभद्राश्रम) घाटे में पूरी कर दी गई और फिर भी 8-) का द्वारा अनेकांत का पुन. संचालन मागत योग्य ही है। घाटा पूरा नही हो मका। स्थायी फण्ड की रकम चालू अन्त मे श्री मुख्तार सा. की उन सेवामों को याद खर्च में लगाकर पत्र का स्थायित्व समाप्त कर दिया करना जरूरी है जो उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा पत्र को गया। चालू खर्च न तो वीर सेवा मन्दिर ने ही और न की। बाबू छोटेलाल जी जैन ने भी समय २ पर मुख्तार सा० के ट्रस्ट ने ही वहन किया। १३ वें वर्ष में न केवल स्वयं आर्थिक महायता दी अपितु औरों से भी १४९२ )एव १४ वर्ष में ५५००) रु. से अधिक दिलाई एवं पत्र का सम्पादन भी कुछ समय वहन किया । का घाटा रहा । अतः जुलाई मन् ५७ से पत्र बन्द ही हो अब बाबू छोटेलाल जी की ही प्रेरणा और उनके अध्यगया।
वसाय का परिणाम है कि "अनेकांत' का पुनः दर्शन हो इम प्रकार पत्र ने अपनं १४ वर्ष का समय २८ वर्षों रहा है। मे पूर्ण किया है। पत्र में लगातार घाटा लगना रहा जिस अंत में इस भावना के माथ लेख ममाप्त कर रहा हूँ के कारण पत्र चालू नहीं रखा जा सका फिर भी यह तथ्य कि यह पत्र स्थायित्व प्राप्त करे एवं जैन समाज ही नही सत्य है कि इस पत्र ने दिगम्बर जैन समाज में इतिहास अपितु, भारत के गोध पत्रों में अग्रगण बने एवं जैन
और माहित्यान्वेपण को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । किन्तु माहित्य एवं संस्कृति की पुरानन सामग्री को प्रकाश में फिर भी समाज की साहित्यिक अभिरुचि बनाने में इसके लाता रहे । एव मौलिक साहित्य-सृजन का स्रोत बने ।
वीर मेवा मन्दिर और "अनेकान्त" के महायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी० मार० मी० जैन, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवनदास जी मरावगी, कलकत्ता २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता
१५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता
१५०) श्री चम्पालाल जी मरावगी, कलकत्ता ५००) श्री बैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता
१५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता
१५.०) श्री कस्तूरचन्द जी अानन्दीलाल, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा. हरबचन्द जी जैन, रांची
१५०) श्री कन्हैयालाल जी मीताराम, कलकना २५.१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड़या), कलकत्ता १५०) श्री प० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता २५.१) श्री स० मि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी १५०) श्री मालीगम जी मरावगी, कलकत्ता २५०) श्री वशीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकता १५०) श्री प्रतापमल जी मदनलाल जी पाडया, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दिरदाग जी जैन, कलकत्ता
१५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी
१५.०) श्री शिवरचन्द जी सगवगी, कलकत्ता १०) श्री महावीरप्रमाद जी अग्रवाल, कलकना
१५०) श्री मुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ, कनकना १००) श्री म्पचन्द जी जैन. कलकना
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वीर सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
(१) पुरातन जैनवाक्य-सूची -- प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रंथों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्यों की सूची | सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डाक्टर कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका ( Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए घतीय उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द (जिसकी प्रस्तावनादि का मूल्य अलग से पाँच रुपये है.)
१५) (२) आप्त- परीक्षा - श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर - विषय के सुन्दर सरस राजीव विवेचन को लिए हुए न्यायाचार्य पं० दरबारीमान जी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादि से युक्त, सजिल्द ।
८)
(3) न्याय दीपिका तथा समाधितंत्र और इप्टोपदेश ये तीनों व धनुपलब्ध है
(४) स्वयम्भू स्तोत्र - समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय समन्तभद्र - परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का विश्लेषण करती हुई महत्व की गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठ की प्रस्तावना मे सुशोभित
>)
(2) स्तुतिविद्यास्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीनने की कला, सटीक, मानुवाद और श्रीगण किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द- सहित । 211) ( ६ ) अध्यात्मकमलमार्तण्ड - पंचाध्यायीकार कवि राजमल्ल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित
811)
और मुम्तार श्रीजुगलकिशोर की ७० पृष्ठ को विस्तृत प्रस्तावना में भूषित । ( 9 ) युवत्यनुशासन -- तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि मे अलंकृत सजिन्द
१1 ) (111)
"
—
(८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र - प्राचार्य विद्यानन्द रचित महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । (१) शासन चतुशिका ( तीर्थपरचिय ) मुनि मदनकोनिकी १३वीं शताब्दी की रचना हिन्दी अनुवाद सहित || ) (१०) समीचीन धर्मशास्त्र स्वामी समन्तभद्र का गृहस्था चार विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्यानार श्री जुगलकिशोरजी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त सजिल्द ३) (११) जैनग्रशस्ति संग्रह – संस्कृत और प्राकृतके १७१ अप्रकाशित ग्रंथों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण महित अपूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्दशास्त्री की इतिहास साहित्य विषयक परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द ।
1
-
...
...
४) (१२) अनित्यभावना - ग्रा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तारश्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१३) तत्वार्थमूत्र ( प्रभाचन्द्रीय) मुख्तारथी के हिन्दी अनुवाद तथा व्यारुश से युक्त (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ क्षेत्र
|
...
वृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण वर्णिसूत्र लिखे शास्त्री उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी म.ईज के कागज, और कपडे को पक्की जिल्द
...
1)
(१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ = ), (१६) समन्तभद्र विचार-दीपिका = ) |
(१७) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द ( वीर शासन संघ प्रकाशन)
८)
( १ = ) जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंश के ११६ अप्रकाशित ग्रंथों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह इतिहास
प्रकाशक - प्रेमचन्द वीर सेवा मन्दिर के लिये नया हिन्दुस्तान प्रेम, दिल्ली में मुद्रित
१)
७८ ग्रंथकारों के परिचय श्रार उनके परिशिष्टों सहित । सम्पादक पं० परमानन्द शास्त्री मूल्य सजिल्द १० ) (१२) कसाय पाहूड सुनमून प्रथ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिसम्पादक पं० हीरालाल जी सिद्धांत १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट २० )
...
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जून १९६२ है मासिक
চনকাল
सत्साहित्य का निर्माण उन्हीं व्यक्तियों द्वारा संभव है, जिन्होंने अपने जीवन को संयम और साधना से पवित्र कर लिया है।
सम्पादक डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये, श्री रतनलाल कटारिया डॉ. प्रेमसागर जैन, श्री यशपाल जैन
Grant
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मंदिर) का मुरवपत्र
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विषय-सूची
अनेकान्त के स्तम्भ वर्धमान-जिन-स्तुनि.
४६ १. ऐतिहासिक महापुरष 'दर्शन' का अर्थ 'मिलना
स्तम्भ में तीर्थकर, प्राचार्य, त्यागी, भक्तजन, राजा, -श्री प० रतनलाल कटाग्यिा ५०
मत्री, शूरवीर, धर्मवीर, कर्मवीर, दानवीर और हरिभद्र द्वारा उल्लिवित नगर
ग्रन्थ कागे के परिचय रहेंगे। -डा० नमिचन्द जैन ५१ २. अनुसन्धान और सिद्धान्त जैन अपभ्रंश का मध्यकालीन हिन्दी के
इतिहाग और साहित्य सम्बन्धी शोध- खोज के और भक्ति काब्य पर प्रभाव-डा० प्रेमसागर जैन ५७
मैद्धान्तिक लेख रहेगे। जैन साहित्य में मथुग-डा. ज्योतिप्रसाद जैन
३. गौरव-गाथा अज्ञात हिन्दी कवि टेकचन्द व उनकी रचनाएँ -श्री अगरचन्द नाहटा
जैन पूर्वजों के द्वाग की गई लोकसेवा और गौरव
गाथा के लेख रहेगे। गनी मगावती -श्री सत्याश्रम भारती ग्रंथ एवं ग्रथकारों को भूमि-राजस्थान
४. तीर्य, मन्दिर और गुफा डा० कस्तूरचन्द कामलीवाल
प्राचीन जैन तीर्थो, मदिगे, गफाओं और मूर्तियो आदि काष्ठामंध स्थित माथुर संघ-गुर्वावली
के परिचय दिये जायगे। -पं० परमानन्द जैन शास्त्री
५. कथा-कहानी - कवि जगतराम
मुच और भावपूर्ण पौगणिक, ऐनिहासिक तथा राजनापुर विनग्विनी की धानु प्रतिमाग
मालिक कहानियां रहेगी। -थी बालचन्द जैन एम०१० ८५ ६. नारी समुत्थान ऐहोल का शिलालेख
स्त्रियों को ऊंचा उठाने और कर्तव्यनिष्ठ बनाने वाले --श्री प० के० भुजावली गाम्बी ८७
लेख रहेंगे। श्रीक्षेत्र बडवानी
७. सुभाषित मरणयां -प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर
जीयन - ज्योति जगाने वाली मूक्तियों का मकलन तत्त्वोपदेश-छहढाला : एक समालोचन
रहगा। -श्री पं. दीपचन्द पाण्ड्या साहित्य-समीक्षा - डा.प्रेमसागर
-सनालोचना के लिये साहित्य निम्न पते पर भेजे।
• 190dutputsdedehatebabeetlestosdedesibabattestestantshitalestedesbadeshbabsbaleked.hastant shastarankoshisthetesh shashutosd.shth..d.npohtop-de-bedeuba-tha
पद
-
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिये सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है।
totre.
detast
व्यवस्थापक 'अनेकात' वीर सेवा मंदिर २१, दरियागंज, देहली-६
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ग्रोम अहम
अनकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धविधानम् । सकलनय विलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्य १५
वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६ किरण, २ ) ज्येष्ठ शुक्ला १२, वीर निर्धारण सं० २४८८, विक्रम सं० २०१६ । सन् १९६२
वर्धमान-जिन-स्तुतिः प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे, जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे । मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गी: सेव या त्वा स्तुते, ते जा ये प्रगता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवाय ते ।
-स्वामी समन्तभद्राचार्य अर्थ-डे देवाधिदेव ! वृद्धि वही है जो कि अापको स्मरण करे-आपका ध्यान करे, मरतक वही है जो कि आपके चरणो में गत रहे-झुका रहे, जन्म वही सफल और श्रेष्ठ है, जिसमे ससार परिभ्रमण को नाट करने वाले आपके चरणों का आश्रय लिया गया हो, पवित्र वही है जो कि आपके मत मे अनुरक्त हो, वागी वही है जो कि आपकी म्नति गरे और बुद्धिमान पण्डितजन वे ही है जो कि अापके दोनों चरणों में नत रहें।
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'दर्शन' का अर्थ 'मिलना'
लेखक -- श्री रतनलाल कटारिया
संस्कृत में दर्शनार्थक जितनी भी धास्तुएँ हैं, उनका अर्थ 'मिलना' भी होता है । उदाहरण के लिए निम्नःत्रित पद्य पर दृष्टि दीजिए
"रिक्तपाणिनं पश्येत् राजानं देवता गुरु”
यहाँ 'पश्येत्' किया है, जिसका पर्व घर 'देखें' किया जाय तो ठीक नहीं लगता और निर्दोष भी नहीं रहता है; उसकी जगह 'मिलें अर्थ 'कया जाय तो ज्यादा अच्छा लगता है और निर्दोष भी रहता है। उपर्युक्त पूरे पद्य का ठीक अर्थ इस प्रकार होगा
"खाली हाथ राजा, देवता और गुरु से नही मिले" । कोशों में भी दर्शनाक पातुयों धीर शम्दों का पर्व"मिलना, साक्षात्कार, मुलाकात" भी दिया है ।
अंग्रेजी में भी दर्शनार्थक 'See' धातु का प्रयोग Visit, Meet मिलना, भेंट करना के अर्थ में भी पाया जाता है। यह तथ्य दृष्टि में न होने से कुछ विद्वान् मंपाबकों अनुवादकों ने इस विषय में गलतियों की हैं। उदा हरण के तौर पर उनके २-३ नमूने नीचे दिए जाते है(१) डागम पवला टीका पुस्तक १ पृष्ठ ७१ (प्रस्तावना पृष्ठ १२, परिशिष्ट पृष्ठ २७) लिखा है - "जिणपालियं दट्ठूण पुप्फयंताइरियो वणवामविसयं
-
समीक्षा यहाँ 'पण' का जो देखकर' या 'देखने के लिए किया है वह ठीक नही है। इसकी जगह 'मिलकर या 'मिलने के लिए करना चाहिए ।
गदो"--
अर्थ – जिनालित को देखकर अथवा देखने के लिए भूतबलि भी द्रविड देश को प्रस्थान कर गये । पुष्पदंत याचार्य बनवास देश गए।
'देखने के लिए' अर्थ मे यह भाव 'जिनपालित' या तो कोई छोटे से जिन्हें देखने के लिए पुष्पदंताचा दोनों बातें नहीं थीं । ग्रगर दोनों
झलकता है कि शिशु थे या बीमार थे वनवास देश गए। किन्तु बातें हों भी तो किसी
मुनि के लिए ऐसा करना उचित नहीं है, यह उसकी पदचर्या के विरुद्व है । प्रत 'दण' का अर्थ 'देखने के लिए' करना समुचित नही है, उसका अर्थ 'मिलने के लिए करना चाहिए। यह प्र फबता हुआ है और इससे अभिव्यक्ति भी ठीक होती है ।
पुष्पदताचार्य का निपालित से मिलने का उद्देश्य उन्हें दीक्षा देकर सिद्धांतसूत्र पढाने का था, यह धवला टीका के उसी प्रकरण में आगे बताया है ।
(२) उपर्युक्त प्रकरण इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार में इस प्रकार है
वर्षाकालं कृत्वा विहरन्तौ दक्षिणाभिमुखं । ११॥ जग्मतुरष करहाटे तयोः स यः पुष्पदंतनाम मुनिः । जनपालिताभियान दृष्ट्वासी भागिनेयं स्वं ।। १३६ ।। दवा दीक्षां तस्मै तेन समं देशमेत्य वनवासम् । तीच भूतबलर मथुरायां द्रविडदेशेऽस्थात् । १३३ । (तत्वानुशासनादि १०५) 'जैन सिद्धात भास्कर, भाग ३ किरण ४' में पं. व जुगल किशोर जी मुख्तार ने धवलादि के ग्राधार पर "श्रुतावतार कथा" लिखी है, उसके पृ० १३० पर मुख्तार मा० ने लिखा है
"वषयोग को समाप्त करके तथा जिनपालित को देखकर पुष्पदंताचार्य तो वनवास देश को चले गए और
इन्द्रनंदिश्रुतावतार मे जिनालित को पुष्पदत वा भानजा लिखा है और दक्षिण की ओर विहार करते हुए दोनों मनियों के कहा पहुँचने पर उसके देखने का उल्लेख किया है।'
गर्भाधा मुस्तार साहब ने भी जो देखकर' और 'देखने का' शब्द प्रयोग किया है वह ठीक नहीं है, उसकी जगह 'जिनपालित से मिलकर और उससे मिलने वा शब्द प्रयोग होना चाहिए ।
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हरिभद्र द्वारा उल्लिखित नगर
लेखक-डा० नेमिचन्द जैन
जैन साहित्य में ग्राम, नगर, खेट, कवंड, मडम्ब, पट्टण, तट से वेष्टित को संवाहन और पर्वत पर रहने वाले ग्राम द्रोण सवाहन और दुर्गाटवी का उल्लेख पाता है। जिस को दुर्गाटवी कहते है । हरिभद्र ने अपनी "समराइच्चकहा" गांव के चारों ओर दीवालें रहती है वह ग्राम कहलाता है। नामक रचना में ग्राम', नगर, पट्टण, गार', जिसके चारों ओर दीवालें हों तथा जो चार दरवाजों से मडम्ब' और ड्रोण' का उल्लेख किया है। भी युक्त हो वह गांव नगर कहलाता है। नदी पोर पवतो हरिभद्र ने बताया कि नगर बहुत सुन्दर होता था। से वेप्टित रहने वाले ईव को मडम्ब; जहां रत्न उत्पन्न उसके चारों ओर प्राकार रहता था। परिग्या भी नगर के होते है उसे पट्टण; नदी वेष्टित ग्राम को द्रोण; उप-समुद्र चारों ओर रहती थी। नगर में प्रधान चार द्वार रहते थे,
जिनमे कपाट लगे रहते थे। यातायात के लिए नगर में इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के श्लोक १३२ में जो 'दृष्ट्वा '
सड़कें होती थी। त्रिक, चतुष्क' और चत्वर नगर के पद है, उसका अर्थ 'देखकर' करना गलत है । उसका अर्थ
मार्गों की संज्ञाएँ पाती है । जहां तीन राड़ो मिलती हों, 'मिलकर' करना चाहिए।
उसे त्रिक; चार सड़के मिलती हो, उसे चतुक और जहां (३) गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, पर्व ६२ श्लोक १२८ चार से भी अधिक रास्ते हों, उसे चत्वर कहते थे। जहां "नापूर्वो नः स पश्यताम्" का अर्थ ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ० बहुत मे मनुष्यों का यातायात हो वह महापथ और १४६ में इस प्रकार किया है
सामान्य मार्ग को पथ कहा जाता था। हरिभद्र ने उत्सवों "हमारे लिये यह अपूर्व प्रादमी नही, जिसमेकि देखागावे"। के अवसर पर नगर को सजाने और उसके मार्गो गे
समीक्षा- यहाँ 'पश्यतां' का अर्थ जो देखा जाव' मुगन्धित पुष्प या सुगन्धित चूर्ग विकीर्गा करने का उल्लेख किया है, वह ठीक नहीं है, उसकी जगह 'मिला जावे' करना किया है। नगर के बाजारो को सीधी एक रेमा में बनाया समुचित होगा।
जाता था। नगर में तालाब बनाने की भी प्रथा थी। इसी तरह आगे श्लोक १३०-"नाहमेष्यामि तं दृष्टु
प्राचार्य हरिभद्र ने निम्नलिखित नगरों का अपनी मिति प्रत्यब्रवीदसौ" का अर्थ इस प्रकार किया है
उक्त रचना में उल्लेख किया है जिनका मंक्षिप्त विवेचन "त्रिपष्ट ने कहा कि-मै उसे देखने के लिए नहीजाऊँगा।" यहां किया जाता है। समीक्षा यहाँ भी 'द्रष्टुम्' का अर्थ 'देखने के लिए',
१. दहा पृ० ११८ किया गया है किन्तु वह ठीक नहीं है। 'मिलने के लिए'
२. सम० के प्रत्येक भव में अर्थ होना चाहिए।
३. सम० पृ० २७ इस तरह उपर्युक्त प्रकरणों में दर्शनार्थक क्रियाओं का
४. सम० पृ० २७ 'मिलना' अर्थ करना ही सुसंगत है।
५. मम० पृ० २७ दर्शनार्थक धातुपों का 'देखना अर्थ शाब्दिक है और ६. सम० पृ० २७ 'मिलना' अर्थ भावात्मक है, जहाँ जैसा संगत हो वैसा ही ७. सम० पृ. ६, ३२६ अर्थ करना चाहिए तभी वह फबता है और ठीक अभि- ८. वही व्यक्ति होती है।
६. वही
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अनेकान्त
वर्ष १५ वर्तमान में चम्पा नगरी भागलपुर के एक किनारे पर में सातवीं शताब्दी में शिवपूजा का घर-घर प्रचार था।' स्थित है। इसका स्टेशन नाथनगर है। चीनी यात्री हर्षचरित्र में थानेश्वर में होने वाली उपज, पशुसम्पत्ति, ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में चम्पा की समृद्धि का धनसंपत्ति एवं उसके सांस्कृतिक वैभव का सुन्दर वर्गान जिक्र किया है।
किया है। इसमें सन्देह नही कि सातवी-पाठबी शताब्दी २०. जयपुर-हरिभद्र ने इस नगर को अपरविदेह के साहित्य मे इस नगर को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। में बतलाया है । इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि "अपरविदेह खेत्ते अपरिमिय गुणणिहाण तियसपुरवराणु
३. दन्तपुर -महाभारत के अनुसार दन्तपुर कलिग गारि उज्जाणा रामभूसियं समत्थमे इणि तिलयभूयं जयउरं
3 को राजधानी थी। इसे दन्तकर भी कहा गया है। नाम नयर ति"-अपरविदेह क्षेत्र में अपरिमित गुणों का २४. पाटलापथ'--इस नगर की स्थिति का परिज्ञान भाण्डार इन्द्रपुरी का अनुकरण करने वाला उद्यान और विवधतीर्थकल्प से होता है । इस ग्रन्थ में पाटला मे नेमिपारामों से विभूपित समस्त पृथ्वी का तिलक स्वरूप नाथ जिनालयके होने का उल्लेख है। हमारा अनुमान है जयपुर नाम का नगर है । इस वर्णन से भी ज्ञात होता कि सौराष्ट्र में कही इस नगर की स्थिति रही होगी। है कि उक्त जयपुर वर्तमान जयपुर से भिन्न है।
२५. पाटलीपुत्र'--गंगा के तट पर अवस्थित यह २१. टंकनपुर'-हमारा अनुमान है कि यह टक्कन
बहुत प्रसिद्ध पुराना नगर है । जैन साहित्य में बताया गया पुर होना चाहिए । टक्कनपुर के स्थान में टंकनपुर लिखा।
गया है कि कुणिक के परलोक गमन के उपरान्त उसका गया है। इसकी स्थिति विपाशा और सिन्धु नदी के मध्य
पुत्र उदायी चम्पा का शासक नियुक्त हुया । वह भी अपने भाग का प्रदेश टक्क या वाहीक कहा जाता था। शाकल
पिता के सभास्थान, श्रीड़ास्थान, शयनस्थान प्रादि को या स्यालकोट टक्क देश की राजधानी थी। इसमें भद्र
देखकर, पूर्व स्मृति जाग्रत हो जाने से उद्विग्न रहता था। और पारदृ देश भी सम्मिलित थे। राजतरंगिणी मे टक्क
उसने प्रधान प्रामात्यो की अनुमति से नूतननगर निर्माणार्थ की स्थिति चन्द्रभागा या चिनाव के तट पर मानी गई है।
प्रवीण नैमित्तिको को अदिश दिया। भ्रमण करते-करते कुवलयमाला के अनुसार वाहीक या पञ्चनद देश टक्क
वे गंगा के तट पर प्राय । गुलाबी पुप्पों से सुसज्जित कहा जाता था।
छवियुक्त पालि वृक्षों को दबकर वे पाश्चर्यान्वित हुए। २२. थानेश्वर'-प्राचीन कुरुक्षेत्र का यह एक
तर की टहनी पर चाप नामक पक्षी मुंह खोले बैठा था। भाग था। कुरुक्षेत्र में पानीपत, सोनपत, और थानेश्वर
कीड़े स्वयं उसके गुह में या पड़ने थे। इस घटना को तक का भूभाग शामिल था। इस का एक अन्य नाम स्थाणु
देखकर ये लोग सोचने लगे कि यहां पर नगर का तीर्थ भी मिलता है। सातवी शताब्दी में इसे सम्राट हर्प
निर्माण होने से राजा को लक्ष्मी की प्राप्ति होगी । फलतः की राजधानी होने का गौरव प्राप्त हुआ है। महाकवि
उस स्थान पर नगर का निर्माण कराया, जिसका नाम बाणभट्ट ने इस नगर का बड़ा हृदय-ग्राह्य वर्णन किया है।
पाटलिपुत्र रखा गया ।' वर्तमान में यह नगर पटना के वहाँ मुनियों के तपोवन, वेश्यानी के कामायतन, लासकों
नाम से प्रसिद्ध है और विहार की राजधानी है। संस्कृत की संगीतशालाएं, विद्यार्थियों के गुरुकुल, विदग्धों की
____ साहित्य मे पाटलिपुत्र बहुत प्रिय नगर रहा है। विट् गोष्ठियाँ, चारणों के महोत्सव समाज थे। शस्त्रोपजीवी, गायक, विद्यार्थी, शिल्पी, व्यापारी, बन्दी, बौद्ध भिक्षु ३. डा० वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा सम्पादित मादि सभी प्रकार के लोग वहा थे। थानेश्वर के इलाके
हर्ष चरित एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ०५५ ६. वही, पृ० ७५
४. सम० पृ० ५२६ १. सम० पृ० १७२
५. वही, पृ० ७१३ २. वही, पृ० १८१
६. वही, पृ० ३३६
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किरण २
हरिभद्र द्वारा उल्लिखित नगर २६. पुन्द्रवर्धन' - इस नगर की स्थिति बंगाल के पानी की अनेक बावड़ियाँ, कुएं, तालाब और नदियां मौजूद मालदा जिले में है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इस नगर थीं। यहां बाणगंगा और गडकी नदी का संगम होता था। का नाम पाया है तथा इसे हरिभद्र ने पुण्ड्र नामक एक रामायण (१।४८) में भी मिथिला का उल्लेख पाता है, जनपद बतलाया है। वर्तमान बोगराजिले का महास्थान यहाँ इसे जनकपुरी भी कहा गया है। भगवान् महावीर ने गढ़ नामक ग्राम पर जनपद में था। कनिंघम ने इस नगर यहाँ अनेक चातुर्मास व्यतीत किये थे। इस नगरी के चार की समता महास्थान गट से की है, यह वर्धन कुटी से दरवाजों पर चार बड़े बाजार थे। १२ मील पश्चिम है। महा भारत (सभापर्व ७८, ६३) में ३३. रत्नपुर-इस नगर की स्थिति कोगल जनपद
आया है कि पुण्ड के राजा दुकल आदि लेकर महाराज में थी। विविधतीर्थकल्प में धर्मनाथ की जन्मभूमि रत्नपुर युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ मे उपस्थित हुये थे। कौटिल्य में मानी गई है। यह नगर व्यापार की दृष्टि से बहुत के अर्थशाब (अध्याय ३२) में लिखा है कि पुड़ देश का समृद्धशाली था। वस्त्र श्याम और मणि के समान स्निग्ध वर्ण का होता ३४. रथनूपुर-चक्रवालपुर--हरिभद्र ने अनुसार था। हरिभद्र ने इसे अमरावती के समान बताया है। यह विजयार्द्ध की दक्षिण घेणी का एक नगर है। दक्षिण
२७. ब्रह्मपुर-पूर्व दिशा में वर्तमान प्रासाम में थेणी के ५० नगरों में से यह बाईसवां नगर पड़ता है। इस नगर की स्थिति थी।
३५. रथवीपुर"-हरिभद्र के निर्देगानुमार यह भरन२८. भंभानगरहरिभद्र ने विजय के अन्तर्गत इस क्षेत्र का एक नगर है। इसकी स्थिनि मिनीपुरके प्रागे और नगर की स्थिति मानी है। हमारा अनुमान है कि यह इलाहाबाद के पहले होनी चाहिये । नगर प्रामाम में यही अवस्थित था।
३६. राजपुर-विजन में गजपुर का निर्देश हरि२६. मदनपुर-हरिभद्र ने इसकी स्थिति कामरूप भद्र ने किया है, पर यह वर्तमान में सौराष्ट्र मे अवस्थित आसाम गें मानी है।
एक नगर है। ३०. महासर - यह वर्तमान में मार नाम का ३७. लक्ष्मीनिलय -ग्रामाम में इम नगर की स्थिति स्थान है जो दयार से ४० मील दक्षिण नर्मदा के तट पर ही अवस्थित है।
३८. वर्धनापुर- -उत्तरापथ गे म नगर का निर्देग ३१. माकन्दी'-- इम नगर की स्थिति हस्तिनापुर के
हरिभद्र ने किया है । वर्तमान में यह कन्नीज के प्राग-गाम प्राम-पाम रही होगी। महाभारत (५।७२-७६) में बताया
स्थिन कोई नगर है। गया है कि युधिष्टर ने दुर्योधन मे पाच पांच सौ गाव माग
३६. वसन्तपुर'---गजगृह के पाम का एक नगर । थे, उनमें से एक माकन्दी भी था। ३२. मिथिला* ---मिथिला विदह (तिरहत)की प्रधान
वमन्तपुर का गस्कृत साहित्य में भी उल्लेख पाया है। नगरी थी। हरिभद्र ने इसकी प्रशसा की है। जैन साहित्य ४०. वाराणसी --- काशी देश की प्रधान नगरी है। में बताया गया है कि यहां बहुत से कदलीवन तथा मीरे वरुणा प्रौर असि नाम की दो नदियों के बीच में प्रवरिया १. वि। ती. क० पृ०६७
३. वही पृ. १२० २. मम० १०५
८. वही, पृ० ८५.५. नथा ७३६ ३, वही, पृ०१६
५. वही, प०१२५. ४. वही, पृ० ८०५
६. वही, पृ० १०३ ५. वही, प००८
७. वही,प० १६८ ६. वही पृ० १०८
८. वही, पृ० ७११ १. समः पृ० ८९३
६. वही, पृ० ११। २. वही पृ० १८१
१०. वही, पृ० ८४५
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अनेकान्त
वर्ष १५
होने से यह वाराणसी कही जाती है। यह गंगा के तट ४८. श्रावस्ती-श्रावस्ती कुणाल या उत्तर कोशल पर है।
देश की मुख्य नगरी थी जो अचिरावती (राप्ती) नदी के ४१. विलासपुर'-यह विद्याधर नगर है । हरिभद्र ने किनारे अवस्थित थी । जैन और बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती इसकी स्थिति विजया में मानी है। पर यथार्य में का बहुत विस्तृत वर्णन है। श्रावस्ती में चार दरवाजे थे, इसकी स्थिति मालवा और गुजरात के मध्य में होनी जो उतरद्वार, पूर्वद्वार, दक्षिणद्वार तथा केवट्टद्वार के नाम चाहिए। मध्य प्रदेश का प्रसिद्ध विलासपुर भी संभवतः से पुकारे जाते थे। थावस्ती में पार्श्वनाथ के अनुयायी हरिभद्र द्वारा उल्लिखित विलासपुर हो सकता है। केशी मुनि तथा महावीर के अनुयायी गोतम स्वामी के
४२. विशाखबर्द्धन'-कादम्बरी पटवी में विशाख- महत्वपूर्ण संवाद होने का उल्लेख जैन ग्रन्थों में माता है। वर्द्धन नगर की स्थिति बतलाई गई है। बिहार में प्राधु- आजकल श्रावस्ती के चारों ओर घना जंगल है। यह गोंडा निक भागलपुर और मुंगेर के बीच इमकी स्थिति होनी जिलान्तर्गत सहेट-महेट स्थान है। चाहिए।
४६. श्रीपुर'-विविधतीर्थकल्प के अनुसार श्रीपुर में ४३. विशाला--प्रवन्तिदेश की प्रधान नगरी अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की गई है । श्रीपुर का नाम है।
का निर्माण माली-सुमालि ने किया है। ४४. बराटनगर-यह मत्स्य प्रदेश की राजधानी ५०. साकेत-पायोध्या का दूसरा नाम साकेत है। था। महाभारत में इसकी चर्चा पायी है, यहाँ पांडवों ने ५१. सुशर्मनगर-इस नगर की स्थिति गुजरात में गुप्तवास किरा था। ग्राधुनिक धौलपुर, भरतपुर और कही होनी चाहिए। जयपुर का सम्मिलित भूभाग वैराट देश कहलाता था और ५२. हस्तिनापुर -यह नगर कुरुदेश की राजधानी वैराटनगर सम..वतः भरतपुर रहा होगा।
था। यह जैनों का पवित्र तीर्थ माना जाता है। किंवदन्ती ४५. शंखपुर... हरिभद्र ने उत्तरापथ में इस नगर है कि इसे हास्तिन नाम के राजा ने बसाया था। यह वर्तकी अवस्थिति मानी है। विविध तीर्थ कल्प में बताया है कि मान में गंगा यमुना के दक्षिण तट पर मेरठ से २२ मील राजगह से जरासन्ध की सेना और द्वारिकावती से श्री दूर उतर-पश्चिम कोण में और दिल्ली से ५६ मील दक्षिणकृष्ण की सेना युद्ध के लिए चली। मार्ग में जहां ये दोनो पूर्व खण्डहरों के रूप में वर्तमान है। सेनायें मिनीं, वहा परिष्टनेमि ने शंखध्वनि की और शंख- ५३. क्षितिप्रतिष्ठित'-यह राजगृह का दूसरा नाम पुर नाम का नगर बसाया।
है । जैन साहित्य में राजगृह को क्षितिप्रति प्ठत, चणकपुर, ४६. शंखवद्धन-हरिभद्र के अनुसार भरतक्षेत्र में ऋषभपुर तथा कुशाग्रपुर नाम से भी अभिहित किया गया शखबर्द्धन नगर की स्थिति है। इस नगर की सौराष्ट्र में है। जैन साहित्य के अनुसार राजगह में गुणसिन, मंडिअवस्थिति रही होगी।
कुच्छ, मोग्गरपाणि आदि अनेक चैत्यगदिर थे। गुणसिल
चैत्य में भगवन् महावीर अनेक बार पाकर ठहरे थे। ४९. श्वेतविका-यह केकया देश की प्राचीन
पहाड़ियों में घिरे रहने के कारण यह नगर गिरिवज के नाम राजधानी है। यह श्रावस्ती के उत्तरपूर्व में नेपाल की तराई
से भी प्रख्यात था। राजगृह व्यापार का बड़ा केन्द्र था। में अवस्थित था। श्वेतविका से गंगा नदी पार कर महा- यहाँ से नमशिला, प्रतिष्ठान, कपिलवस्तु, कुसीनारा ग्रादि वीर सुरभिपुर पहुँचे थे। बौद्ध ग्रंथों में श्वेतविका को भारत के प्रसिद्ध नगरो को जाने के मार्ग बने हुए थे।
विविधतीर्थकल्प में राजगह में छत्तीस हजार घरों के होने सेतव्या कहा गया है।
का उल्लेख है। वर्तमान में राजगृह पटना जिले का राज१. सम. पृ० ४१२५. वही, पृ० ७३७
गिर ही है। २. वही, पृ० ६७३६ . वही पृ० ६७३
८. वही, पृ० २८३ ३. वही, पृ० २३४ ३. वही पृ०२८६% ३१२ ७. वही, पृ०३६५-३६६ १. सम० पु०६९८-३६६ ४. वही, पृ०१२७; १७५ ४. वही, पृ० २८५
२. वही, पृ० ३३६ ५. वही, पृ० ६७१,६
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जैन अपभ्रश का मध्यकालीन हिन्दी के
भक्ति-काव्य पर प्रभाव
लेखक-डा० प्रेमसागर जैन जिस भांति संस्कृत श्लोक' और प्राकृत 'गाथा छन्द उनको भाषा जनसाधारण की भाषा थी, अतः उसमे गेयके लिए प्रसिद्ध हैं, ठीक वैसे ही अपभ्रंश में 'दूहा' का सबसे परकता अधिक है। श्री उद्योतनसूरि (७७८ ई.) का यह अधिक प्रयोग किया गया। अपभ्रश का तात्पर्य है दूहा- कथन-कि अपभ्रंश का प्रभाव बरसाती पहाड़ी नदियों की साहित्य । यह दो भागों में बांटा जा सकता है-एक तो भांति बेरोक होता है और प्रणयकुपिता नायिका की भांति वह जो भाटों के द्वारा रचा गया और जिसमें शृंगार, वीर यह शीघ्र ही मनुष्यों के मन को वश में कर लेता है - पादि रसों की भावात्मक अभिव्यक्ति है। इसके उदाहरण परमात्मप्रकाश पर पूर्णरूप से घटित होता है। जहाँ तक प्राचार्य हेमचन्द्र के सिद्धहेमशब्दानुशासन' में प्रचुर भाव धारा का सम्बन्ध है, उसमें भी योगीन्दु की उदारता मात्रा में मौजूद है । दूसरा वह, जिपके रचयिता बौद्ध स्पष्ट परिलक्षित होती है। वे किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म सिद्ध और जैन साधक थे। तिलोप्पाद, सरहपाद और विशेष की संकुचित सीमानों में आबद्ध नहीं हुए। उन्होंने कण्हपाद आदि का दूहासाहित्य 'दोहा-कोष' में प्रकाशित मुक्त प्रात्मा की भांति ही उन्मुक्तता का परिचय दिया। हो चुका है । जैन साधकों का साहित्य एक संकलित रूप उनका जिन शिव और बुद्ध भी बन सका। उनके द्वारा में तो नहीं, किन्तु पृथक् पृथक् पुस्तकाकार या किसी निरूपित परमात्मा की परिभाषा में केवल जैन ही नहीं पत्रिका में प्रकाशित होता रहा है । कुछ ऐसा है जो हस्त- अपितु वेदांती, मीमांसक और बौद्ध भी समा सके । उन्होंने लिखित रूप में उपलब्ध है।
अजैन शब्दावली का भी प्रयोग किया। परमात्मप्रकाश परमात्मप्रकाश अपभ्रश का सामर्थ्यवान् ग्रंथ है । इसके अध्यात्म का ग्रथ है, जैन या बौद्ध ग्रय नहीं । इसके दो अधिरचयिता आचार्य 'योगीन्दु' एक प्रसिद्ध कवि थे। उनका कारों में १२६ और २१६ दोहे हैं। इस पर ब्रह्मदेव की समय ईसा की छठी शताब्दी माना जाता है।' उन्होंने इस संस्कृत टीका और प. दौलतराम की हिन्दी टीका महत्त्वग्रंथ का निर्माण अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट को अध्यात्म का पूर्ण है। यह ग्रन्थ डा. ए. एन. उपाध्ये के सम्पादन में विषय समभाने के लिए किया था । अत उसमें एक अध्या- बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। पक की सरलता, मधुरता और पुनरावृत्ति वाली बात
योगसार नाम के ग्रन्थ के रचयिता भी योगीन्दु ही माजूद है। योगान्दु न स्वय स्वाकार किया है कि शिष्य थे । इसमें १०८ दोहे हैं । इसका विषय परमात्मप्रकाश से को समझाने के लिए शब्दो को बारम्बार दोहराना पड़ा मिलता-जलता है। किन्त इसमें वैसी सरसता नहीं है । डा.
र रूपको का भी प्रयोग किया ए० एन० उपाध्ये ने इसका भी सम्पादन किया है । इसका गया है। उनके पद्य कोमलता और माधुर्य से युक्त हैं। प्रकाशन परमात्मप्रकाश के साथ ही बम्बई से हुआ था। १. देनिए मिद्धहेमराब्दानुशासन, डा० पी० एल.
३. देखिए वही, प्रस्तावना, पष्ठ १०६ और अपभ्रंश वैद्य संपादित, भण्डारकर प्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टी
काव्यत्रयी, गायकवाड़ ओरिण्टयल सीरीज, बड़ौदा, ट्यूट से प्रकाशित, सन् १९३६, अब संशोधित
श्री एल० बी० गान्धी लिखित प्रस्तावना, संस्करण १६५८ में फिर छपा है।।
पृ०६७-६८। २. परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये लिखित- ४. श्री ब्रह्मदेव ईस्वी तेरहवीं शताब्दी में और पं. प्रस्तावना, पृ०६७।
दोलतराम अठारहवीं शताब्दी में हुए थे।
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अनेकान्त
वर्ष १५
सावयधम्म दोहा के रचयिता को लेकर दो भिन्न मत वैराग्यसार के रचयिता सुप्रभाचार्य हैं। कई दोहों हैं । डा० ए० एन० उपाध्ये इसे लक्ष्मीचन्द की रचना बत- में उनका नाम पाया है। यह काव्य सबसे पहले डा. लाते हैं और डा० हीरालाल जैन देवसेन की। इस समय वेलणकर द्वारा सम्पादित होकर 'एनल्स पॉव भण्डारकर देवसेन वाला मत ही प्रचलित है। डा. हीरालाल का मोरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट' में प्रकाशित हुआ था। सबसे बड़ा तर्क यह है कि सावयत्र मदोहा देवसेन के भाव- संस्कृत टीका के साथ जैन सिद्धान्त भारकर, भाग १६, संग्रह' से बिल्कुल मिलता जुलता है। भाषा, शैली और किरण २, दिसम्बर १:४६ में भी छा चुका है। कवि ने भावधारा के साम्य पर रचयिताओं की सही पहचान होती संसार की क्रूरता और व्यर्थता दिखाकर जीव को प्रात्मरही है। देवसेन मालवा प्रान्त की धारा नगरी के निवासी दर्शन की पोर उन्मुख किया है। इस काव्य में धन की थे। उन्होंने वहाँ पर ही सन् ६३३ ई० में सावयधम्म सार्थकता जिनेन्द्र की भक्ति में स्वीकार की गई है। काव्य दोहा का निर्माण किया था। अब यह 'दोहक' डा. हीरा- में सरसता और पाकर्षण की कमी नहीं है। लाल जैन के सम्पादन में कारंजा से प्रकाशित हो चुका है। मुनि रामसिंह के दोहापाहुड़ के अतिरिक्त एक और इसका दूसरा नाम श्रावकाचार दोहक भी है। इसमें श्रावक दोहा-पाहुड़ उपलब्ध हुअा है। उसकी हस्तलिखित प्रति धर्म का वर्णन होने पर भी कवि की उन्मुक्तता स्पष्ट है। मामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में मौजूद है। उसमे ३३३
दोहे हैं। इसके रचयिता कोई महचन्द्र नाम के कवि दोहा-पाहुइ मध्यकालीन संत काव्य की एक शक्ति
हैं। यह स्पष्ट है कि ये महीचन्द्र नाम के तीनो जैन शाली कृति है। इसके रचयिता मुनि रामसिंह के विषय में
भट्टारकों से पृथक हैं। उन्होंने एक स्थान पर 'जोइंदु' का केवल इतना विदित है कि वे राजस्थान के निवासी थे।
स्मरण किया है। उनका काव्य परमात्मप्रकाश से डा० रामकुमार वर्मा ने उनका समय वि० सं० ६६० से
प्रभावित है। उसमें परमात्मप्रकाश की भाँति ही 'निष्कल ११५७ के मध्य निर्धारित किया है । डा. हीरालाल जैन
ब्रह्म' के ध्यान से अनन्तसुख की प्राप्ति की बात कही गई उन्हें सन् १००० के लगभग मानते हैं। इस ग्रन्थ में
है। उसकी अन्य प्रवृत्तियाँ भी परमात्मप्रकाश से हूबहू केवल २२२ दोहे हैं। डा. हीरालाल जैन के सम्पादन
मिलती-जुलती हैं। यह भी र स्यवाद' का उत्तम और विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ यह अथ भी कारंजा से
निदर्शन है। प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ में एक पोर प्रात्मसाक्षात्कार के बिना बाह्य पाडम्बर नितांत हेय और व्यर्थ
महात्मा मानन्दतिलक ने 'पाणंदा' नाम की एक बताये गये हैं, तो दूसरी ओर जीवन को परमात्मा से प्रेम मुक्तक रचना का निर्माण किया था। उसकी हस्तलिखित
पुन करने की बात कही गई है। वहाँ आत्मा और परमात्मा
प्रति भामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में मौजूद है। इसके के तादात्म्य से उत्पन्न हुए समरसीभाव के अनुपम चित्र
रचना-कान पर मतभेद है, किन्तु भाषा की दृष्टि से वह पाये जाते हैं । दोहा-पाहुड़ एक रहस्यवादी कृति है । हिन्दी
चौदहवीं शताब्दी की प्रतीत होती है। इतना निश्चित है के भक्तिकालीन रहस्यवाद पर उसका स्पष्ट प्रभाव परि
कि उसका निर्माण कबीर आदि निर्गुनिए सन्तों से पूर्व लक्षित होता है।
हुमा था। इसमें ४४ पद्य हैं। यह रचना आध्यात्मिक
भक्ति का सरस उदाहरण है। इसमें 'म-पाको चिदानन्दु, १. यह ग्रन्थ माणिकचन्द-दिगम्बर जैन ग्रंथमालासे श्री सोनी जी के सम्पादन में, विक्रमाब्द १९७८ में
णिरंजणु, परमसिउ आदि विशेषणों से युक्त किया गया प्रकाशित हो चुका है।
है। इसमें लिखा है कि साधु जन तीर्थों में भ्रमण न करके २.देखिए 'हिन्दी साहित्य का मालोचनात्मकता कुदेवा को न पूज कर अपने हृदय में भरे प्रमत-सरोवर में डा० रामकुमार वर्मा, पृ० ३।
__ स्नान करें और हृदय में ही विराजमान परमात्मा की ३. पाहुडदोहा, भूमिका-डा. हीरालाल जैन उपासना करें, उन्हें परमानन्द मिलेगा। सद्गुरु की महिमा लिखित पृ० ३३।
का स्थान स्थान पर वर्णन किया गया है।
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किरण २
जैन अपभ्रंश का मध्तकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव हिन्दी का भक्ति-काव्य दो भागों में विभक्त है- सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी थे। कबीर पर जाने निर्गुणमक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा । निर्गुण-भक्ति और अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा घारा के दो भेद हैं- ज्ञानाश्रयी-शाखा और प्रेमाश्रयी-शाखा। था, जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्ट । कबीरदास की इसी भांति सगुण भक्ति धारा भी कृष्ण-काव्य और राम- सत्यान्वेषक बुद्धि ने उसको स्वीकार किया। उन्होंने अनुकाव्य के रूप में बंटी हुई है। इनमें निर्गुण भक्ति काव्य भूति के माध्यम से उसको पहचाना । अनेकान्त के पीछे जैन अपभ्रंश के दूहाकाव्य से प्रभावित है, ऐसा मैं मानता छिपे सिद्धान्त को न किसी ने समझाया और न उनका उस हूँ। दोनों की अधिकांश प्रवृत्तियाँ समान हैं। इसीलिए सिद्धान्त से कोई अर्थ ही था। कबीरदास सिद्धान्तों के डा. हीरालाल जैन ने लिखा था, "इनमें वही विचार-स्रोत घेरे में बंधने वाले जीव नहीं थे । खैर, कबीरदास ने उस पाया जाता है, जिसका प्रवाह हमें कबीर की रचना में सुगन्धि को पसन्द किया जो सर्वोत्तम थी, वह कहाँ से आ प्रचुरता से मिलता है।" डा. रामसिंह तोमर का भी रही थी, किसकी थी, इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। कथन है कि, "जो हो हिन्दी-साहित्य में इस रहस्यवाद आज वह हमारे विचार का विषय अवश्य है। मिश्रित परम्परा के आदि प्रवर्तक कबीरदास है और उन
कबीरदास पर वैसे तो न जाने कितने सम्प्रदायों का की शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती रूप जैन रचनाओं में
प्रभाव है, प्राचार्य क्षितिमोहन सेन ने इसी को लेकर प्राप्त होता है।"
लिखा था कि कबीरदास की भूख सर्वग्रासी है', किन्तु कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे । 'निर्गुण' का अर्थ
उनमें नाथ और मूफी सम्प्रदायों को प्रमुखता दी जाती है। है - गुणातीत । गुण का अर्थ है-प्रकृति का विकार
मैं नाथ-सम्प्रदाय का सम्बन्ध जैन परम्परा से मानता हूँ। सत्त्व, रज और तम । संसार इस विकार से संयुक्त है और
मेरे डी.लिट. के शोध-निबन्ध में यह मान्यता सप्रमाण ब्रह्म रहित । किन्तु कबीरदास ने विकार-संयुक्त संसार के
पुष्ट की जायगी। इतना तो डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने घट घट में निर्गुण ब्रह्म का वास दिखा कर सिद्ध किया है
मान ही लिया है कि नाथसम्प्रदाय में जो बारह-सम्प्रदाय कि 'गुण' 'निर्गग' का और 'निर्गुण' 'गुग' का विरोधी
अन्तर्मुक्त किए गए थे, उनमें 'पारस' और 'नेमि' सम्प्रदाय नहीं है। उन्होंने "निरगुन में गुन और गुन में निरगुन"
भी थे। दोनों जैन थे । और इसी कारण नाथ सम्प्रदाय में को ही सत्य माना। अवशिष्ट सब को धोखा कहा।
अनेकान्त का स्वर मौजूद अवश्य था, भले ही उसका रूप अर्थात् कबीरदास ने सत्त्व, रज, तम के राहित्य की अपेक्षा
अस्पष्ट रह गया हो। ब्रह्म को निर्गुण और सत्त्व, रज, तम रूप विश्व के कणकग में व्याप्त होने की दृष्टि से सगुण कहा । उनका ब्रह्म ऐसा
यह ही अनेकान्त का रवर अपभ्रंश के जैन दूहा-काव्य
यह ही अनेकान्त का रवर व्यापक था-जो भीतर से बाहर और बाहर से भीतर तक में पूर्णरूपसे वर्तमान है। कबीर ने जिस ब्रह्म को फैला था। वह प्रभाव रूप भी था और भावरूप भी, निराकार 'निर्गुण' कहा है, योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश' में उसे ही भी था और साकार भी, द्वैत भी था और अद्वैत भी। 'निष्कल' संजा से अभिहित किया गया था । 'निष्कल' की स्पष्ट है कि कबीर का ब्रह्म अनेकान्तात्मक था। जैसे परिभाषा बताते हुए टीकाकार ब्रह्मदेव ने 'पञ्चविध-शरीर अनेकान्त में दो विरोधी पहलू अपेक्षाकृत दृष्टि से निभ ४. डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, हिन्दी ग्रन्थ १. देखिए महचन्द कृत पाहुडदोहा, भामेर शास्त्र भण्डार
रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, नवम्बर १९५५, पू० २०४ जयपुर की हस्तलिखित प्रति, दोहा नं. ३२८ ।
-५, संतो, धोखा कानूं कहिये २. डा० हारालाल जैन, अपभ्रश भाषा प्रौर साहित्य गुण में निरगुण निरगुण में गुग, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ५०, अंक ३-४,
बाट छांडि क्यूं बहिये? पृ०,१०७।
कबीर ग्रन्थावली, पद १८० । ३. डा. रामसिंह तोमर, जैन-साहित्य की हिन्दी साहित्य
प्राचार्य क्षितिमोहनसेन, कबीर का योग, कल्याण, को देन, प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ४६७ ।
योगांक, पृष्ठ २६६।
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बर्ष १५
रहितः' लिखा । महचन्द ने भी अपने दोहापाहुड़ में निर्मल जल में तारानों का समूह प्रतिबिम्बित होता है।' निष्कल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है । शरीर किन्तु त्रिभुवन में जिनदेव की व्याप्ति कुछ विचार का रहित का अर्थ है-निःशरीर, देहरहित, प्रस्थूल, निराकार, विषय है । त्रिभुवन का अर्थ है-त्रिभुवन के रहने वालों प्रमूर्तिक, अलक्ष्य । प्रारम्भ में योगीन्दु ने इसी 'निष्कल' का घट-घट । उसमें निर्गुण या निप्कल ब्रह्म रहता है । को 'निरजन' कह कर सम्बोधित किया है । उन्होंने लिखा निष्कल है पवित्र और घट-घः है अपवित्र-कलुष और है-जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न मल से भरा । कुछ लोगों का कथन है कि गन्दगी से युक्त स्पर्श, न जन्म और न मरण वह निरञ्जन कहलाता है। जगह में वह ब्रह्म नही रह सकता, अत. पहले उसको तप, निरञ्जन का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है । वैसे साधना या संयम किसी भी प्रक्रिया से शुद्ध करो तब वह 'निष्कल' के अनेक पर्यायवाची है। उनमें आत्मा, सिद्ध, रहेगा अन्यथा नहीं। कबीर ने निर्गुणराम की शक्ति में जिन और शिव का स्थान-स्थान पर प्रयोग मिलता है। पूरा विश्वास किया और कहा कि उसके बसते ही कलुष मुनि रामसिह ने समूचे दोहा-पाहुड़ में केवल एक स्थान स्वतः ही पलायन कर जाता है। उन्होंने स्पष्ट ही लिखा पर 'निर्गुण' शब्द भी लिखा है । उन्होंने उसका अर्थ किया "ते सब तिरे राम रसवादी । कहे कबीर बूडे बकवादी।" है-निलक्षण और नि संग । वह 'निष्कल' से मिलता उनकी दृष्टि में विकार की लहरों से तरगायित इस संसारजुलता है।
सागर में से पार होने के लिए राम रूपी नया का ही सहारा कबीर की 'निर्गुण में गुण और गुण में निर्गुण' वाली
है । कबीर से बहुत पहले मुनिरामसिंह ने भीतरी चित्त के बात अपभ्रश के काव्यों में उपलब्ध होती है। योगीन्दु ने
मैल को दूर करने के लिए निरंजन को धारण करने की लिखा-जसु मन्भंतरि जगु वसह जग-अभंतरि जो जि।'
बात कही थी। उन्होंने यह भी लिखा कि जिसके मन में इसी भांति मुनि रामसिंह का कथन है-तिहुयणि दीसइ
परमात्मा का निवास हो गया, वह परमगति पा लेता देउ जिणु जिणवरि तिहुवशु एउ ।' अर्थात् त्रिभुवन
है। उनके कथनानुसार जिसके हृदय में भगमन् जिनेन्द्र में जिनदेव दिखता है और जिनवर में यह त्रिभुवन । जिन
मौजूद है, वहां मानो समस्त जगत ही संचार करता है । वर में त्रिभुवन तो दिख सकता है, ठीक वैसे ही जैसे ३. तारा-यणु जलि बिबियउ णिम्मलि दीसइ जेम । २. देखिए परमात्मप्रकाश, ११२५ की ब्रह्मदेव कृत
अप्पए णिम्मलि बिबियउ लोयालोउ वि तेम ॥ संस्कृत टीका, पृ. ३२।।
परमात्मप्रकाश, १११०२, पृ० १०६ जासु ण वशु ण गंधु रसु जासु ण सदु ण फासु ।
४. रसना राम गुन रमि रस पीजै । गुन प्रतीत निरमो. जासु ण जम्मगु मरणु ण विणाउ गिरजगु तासु ।।
लिक लीजै॥ निरगुन ब्रह्म कथौ रे भाई । जा मुमिरत सुधि-बुधिपरमात्म प्रकाश, १३१६, पृ० २७ ४. हउं सगुगी पिउ गिग्गुणउ जिल्लक्खगु णीसंगु ।
_मति पाई॥ एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहि अंगु ।
विष तजि राम न जपसि प्रभागे। का बड़े लालच पाहुड दोहा, १००वां दोहा, पृ० ३०
के लागे। १. जसु प्रभंतरि जगु वसइ जग-अभंतरि जो जि।
ते सब तिरे रामरसस्वादी । कहै कबीर बूड़े बकबादी। जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउसोजि
कबीर ग्रन्थावली, पद ३७५
५. अन्भिंतरचित्ति वि मइलियड बाहिरि काई तवेण । परमात्मप्रकाश, ११४१, पृ० ४५
चिति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ।। २. तिहुयणि दीसइ देउ जिणु जिणवरि तिहुवणु एउ ।
पाहुड़ दोहा, ६१वां दोहा, पृ० १८ जिणवरि दीसइ सयलु जगु को वि ण किज्जइ भेउ॥
६. जसु मणि णिवसइ परमपउ सयलई चित चवेवि । पाहुडदोहा, ३६वां दोहा, पृ० १२ सो पर पावइ परमगइ अट्ठई कम्म हणेवि ॥६६॥
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जैन अपभ्रश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव
उसके परे कोई नहीं जा सकता। प्राचार्य योगीन्दु ने भी मझधार में डूबने के समान माना है। दादू का कथन लिखा है, "जिसके मन में निर्मल प्रात्मा नहीं बसता, उस भी मिलता-जुलता है-कोई द्वारिका दौड़ता है, कोई कासी का शास्त्र-पुराण और तपश्चरण से भी क्या होगा?"८ और कोई मथुरा, किन्तु साहिब तो घट के भीतर मौजूद अर्थात् निष्कल ब्रह्म के बसने से मन भी शुद्ध हो जाएगा, है।' संत कवियों की यह मान्यता अपभ्रंश कवियों में उसकी गन्दगी रहेगी नहीं । विषय कषायों से संयुक्त मन अधिकाधिक देखी जाती है। परमात्मप्रकाश में लिखा जब निरंजन को पा लेता है, तो वह मोन का हकदार बन है-प्रात्मदेव न तो देवालय में रहता है, न शिला में, न जाता है । इसके अतिरिक्त तन्त्र और मन्त्र उसे मोक्ष नहीं लेप्य में और न चित्र में, वह तो समचित्त में निवास करता दिला सकते । श्री महचन्द ने भी दोहा-पाहड़ में लिखा है। योगीन्दु ने योगसार में भी लिखा-श्रुतकेवली (सब है, "निष्कल परम जिन" को पालेने से जीव सब कमों से विद्यामों का पूर्ण जानकार) ने कहा है कि तीथों में, देवामुक्त हो जाता है, पावागमन से छूट जाता है और अनंत लयों में देव नहीं है, वह तो देह देवालय में विराजमान सुख प्राप्त कर लेता है।"
रहता है इसे निश्चित समझो। यह सांसारिक जीव उसके
दर्शन मन्दिरों में करना चाहता है, ऐसा उपहासास्पद है।" कबीर मादि संत कवियों ने 'साहिब' को घट के भीतर मूनि रामसिंह ने पाहड़-दोहा में उनको मूर्ख कहा है, जो देखने के लिए कहा। उन्होंने स्पष्ट ही लिखा कि देवालय, शिव को देवालयों में दढते फिरते हैं, वे अपने देह-मन्दिर को मस्जिद, मूति और चित्र प्रादि में वह' नहीं रहता । वहाँ नही देखो, जहाँ वह विराजमान है। महात्मा मानन्द उसका हूँठा जाना व्यय ही होगा। इसी भाँति उन्होंने तिलक का कानतीर्थयात्रा को भी निःसार माना। तीर्थों में भगवान नहीं
अठसठि तीरथ परिभमइ, मूढा मरहिं भमनु । रहता। 'भ्रम विधाराण को अज' में कबीरदास ने लिखा
अप्पा विन्दु न जाणही, प्रागंदा घट महि देउ अणंतु है-यह दुनियाँ मन्दिरो के आगे सिर झुकाने जाती है, ... परन्तु हरि तो हृदय के भीतर रहते हैं, तू उसी में लौ
२. पाहण केरा पूतला, करि पूजे करतार ।
इही भरोग जे रहे, ते बूडे काली धार ।। लगा।' इसी भाँति उन्होंने पत्थर की मूति के पूजने को
देखिए वही, पहला दोहा. ७. केवल मन परिबज्जियउ हि सो ठाइ अगाइ। ३. दादू केई दौड़े द्वारिका, केई कासी जाहिं ।
तस उरि सत्रु जगु संचरद परइ ण को विजाइमा केई मथुरा को चले, साहिब घट ही माहिं ।। ८. अामा णिय-मणि गिम्मल उणियमें यस ण जामु । दादू की वाणी, यशपाल संपादित, दिल्ली, सत्य पुराण तव-चरणु मुक्नु वि करहि कि तासु ॥
पृ० १६ का अन्तिम पद परमात्मप्रकाश, १९८, पृ० १०२ ४. देउ ण दे उले णवि सिलए णवि लिप्पड़ णवि चित्ति । ६. जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसाहि जंतु ।
अखउ णिरंजगु णाणमउ सिउ संठिउ सम-रित्ति ॥ मोक्खहं कारगु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मतु ।।
परमात्मप्रकाश, १२१२३, पृ० १२४ वही, १११२३, पृ० १२५ ५. तित्यहि देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि-वृत्तु । १०. झायहिं णिक्कुलु परम जिगु कम्मट्ठहविणि मुकका देहा-देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरत्तु ॥४२॥
प्रावण-गवण-विवजियउ, लहु (हू) मगंतु चउक्कु ।। देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ । महचन्द, पाहुड दोहा, आमेर शास्त्र भण्डार की हस्त- हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्ध भिक्ख भमेइ ॥४३॥ लिखित प्रति,
१वां,दोहा। ६. मूढा जोव इ देवलई लोयहि जाइं किया। १. कबीर दुनियां देहुरे, सीस नवांवग जाइ।
देह ण पिच्छइ अप्पणिय जहि सिउ संतु ठियाई।१८०। हिरदा भीतर हरि बस, तूं ताही सौं ल्यो लाइ॥
पत, तू ताहा सा ल्या लाइ॥ ७. देखिए 'प्राणदा' की हस्तलिखित प्रति, (मामेर कबीर ग्रन्थावली, भ्रमविधासण को अङ्ग, ११वां दोहा शास्त्र भण्डार, जयपुर) तीसरा पद्य ।
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अनेकाल
कबीरदास ने सबसे बड़ा काम यह किया कि उस अव्यक्त ब्रह्म को प्रेम का विषय बनाया। अभी तक वह केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्तव्य माना जाता था। पं० रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में निर्गुण ब्रह्म से प्रेम करने की बात सूफियों से भाई, भारतीय भरती में उसका बीज भी नहीं था । किन्तु आत्मा से प्रेमपरक प्रणय की परम्परा जैनकाव्यों में उपलब्ध होती है और उसका प्रारम्भ अपभ्रंश के दूहा- साहित्य से ही नहीं, अपितु उसके भी बहुत पूर्व से मानना होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि मुनिरामसिंह के पाहुड़-दोहा पर प्राचार्य कुन्दकुन्द के भावपाड़ का प्रभाव है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय वि० सं० की पहली शती माना जाता है । कबीरदास ने निर्गुग-भक्ति के क्षेत्र में दाम्पत्य रति का रूपक घटित किया । उन्होंनेब्रह्म कोपति और जीव को पत्नी बनाया । 'हरि मेरा पीव में हरिकी बहुरिया को लेकर प्रेम
विविध पहलुओं पर कबीरने लिखा, तन्मय हो के लिखा । ब्रह्म को पति बनाने की बात पाहुड़ दोहा में भी उपलब्ध होती है। मुनि रामसिंह ने लिखा में सगुणी हैं और दिय निर्गुण-निलक्षण और निःसंग, घत. एक ही देहरूपी कोठे में रहने पर भी हमारा अंग से अंग न मिल सका। आगे चलकर हिन्दी के जैन काव्य में दाम्पत्य-प्रेम का सरस उद्घाटन हुम्रा । उनमें सर्वोत्कृष्ट थे महात्मा श्रानन्दघन | उनकी रमा रूपी दुलहिन ने परमात्मा रूपी पिय से प्रेम किया फिर दर्शन, मिलन और तादात्म्य जन्य मानन्द का अनुभव किया। वैसे बनारसीदास, भगवतीदास, द्यानतराय, मनराम भादि जैन हिन्दी के कवियों ने माध्यात्मिक भक्ति में दाम्पत्य रतिको प्रमुखता दी । किन्तु रूपक के रूप में भी अश्लीलता नहीं प्रापाई, यह उनकी विशेषता थी । शालीनता और मर्यादा बनी रही। पति-पत्नी का प्रेम चलता रहा और प्राध्यात्मिकता भी निभती रही ।
६२
ब्रह्म के प्रति प्रेम की भावात्मक अभिव्यक्ति ही रहस्यवाद कहलाती है। कबीर के रहस्यवाद की सबसे बड़ी विशेषता है 'समरसी भाव' । प्रात्मा और परमात्मा के एक होने — तादात्म्य होने को समरसता कहते हैं।
१. देखिए पाहुडदोहा १०० व पद्य, पृ० ३०
१५
रसता इसलिए कहा कि दोनों के एक होने से ब्रह्मानन्द मिलता है उसे ही रख कहते हैं प्रारमा भर परमात्मा के तादात्म्य को लेकर जैन परम्परा में कुछ भिन्नता है। जैन प्राचार्यों की 'आत्मा' एक अखण्ड ब्रह्म का खण्ड अंश नहीं है, मत उसके बड़ा में मिलने जैसी बात उत्पन्न ही नहीं होती । किन्तु प्रारमा शुद्ध होकर परमात्मा बनती है । श्रात्मा के तीन भेद हैं- बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्यश्रात्मा इतनी मिथ्यावंत होती है कि वह पूर्ण शुद्धता प्राप्त ही नहीं कर सकती। अन्तरात्मा में शुद्ध होने की ताकत होती है, किन्तु वह अभी पूर्ण शुद्ध है नहीं । परमात्मा आत्मा का पूर्णशुद्ध रूप है ।" रहस्यवाद में श्रात्मा के दो ही रूप काम करते करते हैं - एक तो वह जो अभी परमात्म-पद को प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह जो परमात्मा कहलाता है। पहले में बहिरात्मा और प्रन्तरात्मा शामिल हैं और दूसरे में केवल परमात्मा पहला अनुभूति कर्ता है और दूसरा अनुभूतितत्त्व |
चाहे प्रात्मा ही ब्रह्म बनती हो अथवा वह ब्रह्म में मिलती हो, समरसता मौर वम्जन्य धनुभूति का मानन्द जैन का प्यों में उपलब्ध होता है। कबीर ने लिखा है, 'पाणी ही ते हिम भया, हिम गया बिनाइ । जो कुछ था सोई भया, अब कछू कद्या न जाय || 3" ठीक ऐसा ही जैन कवि बनारसीदास का कथन है-"य मोरे पट मैं पिय माहि । जन तरंग ज्यों द्विविधा नाहि ॥ ४" द्विविधा के मिटने की बात भगवतीदास भैया" ने भी कही, "जब
अपनो जिउ आप लो, तब तेजु मिटी दुविधा मन की ।"" हिन्दी कवियों की यह समरसता अपभ्रंश के दूहा काव्य में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है। आभार्य
२. परमात्मप्रकाश, १1११-१५, पृ० २०-२४ ३. कबीर ग्रन्थावली, परचा की बंग, १७ वां दोहा ४. बनारसीदास, अध्यात्मगीत, १६ वां पत्र, बनारसीविलास, जयपुर, पु० १६१
५. भगवतीदास "भैया शतमष्टोतरी ३५ वां कवित्त, ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई सन् १९२६६०, पृ० १६
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किरण २
जैन अपशका मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रमाण
६३
योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश में लिखा है-मणु मिलियउ कह कर अपने नित्य, निरंजन और ज्ञानमय परमात्मा को परमेसरह परमेसरु वि मणस्स । बी हि वि समरसि-हूवाह परमानन्द स्वभाव वाला घोषित किया। एक दूसरे दोहे पुज चडाव कस्स । अर्थात् मन परमेश्वर में और में 'केवल सुक्ख-सहाउ' लिखा,' अर्थात् उसका स्वभाव परमेश्वर मन में मिल कर समरसीभूति हो गये, तो फिर पूर्ण सुख रूप है. ऐसा कहा । 'परम मुख' और 'परमानन्द' मैं अपनी पूजा किसे चढ़ाऊँ।' एक दो शब्द के हेर-फेर पर्यायवाची हैं। तात्पर्य हुआ कि परमानन्द और केवल से मुनि रामसिंह ने भी लिखा-"मगु मिलियउ परमैसर सुख स्वभाव वाले ब्रह्म से जिसका तादात्म्य होगा वह भी हो परमेसरु जि मणस्स । बिप्णि वि समरमि हुइ रहिय तद्रूप ही हो जायगा । इस मानन्द को पूर्णतया स्पष्ट पुज्ज चडाव कस्स :" दोनों की भाषा में यत्किञ्चित् करते हुए उन्होंने एक पद्य में लिखा-समझाव में प्रतिमन्तर के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है। मुनि प्रानन्द ष्ठित योगीश्वरों के चित्त में परमानन्द उत्पन्न करता हुमा तिलक ने भी समरस के रंग की बात लिखी है। उनका जो कोई स्फुरायमान होता है, वह ही परमात्मा हैं।' कथन है-समरस भावे रगिया अप्पा देखइ सोइ । अप्पउ अर्थात प्रात्मा जब परमानन्द का अनुभव कर उठे, तो जाणइ पर हणइ पाणंदा करइ णिरालंब होइ॥' समझो कि परमात्मा मिल गया है । 'परमान्द' के 'परम'
प्रात्मा और परमात्मा के तादात्म्य से उत्पन्न होने की व्याख्या करते हुए उन्होने उसे अद्वितीय का वाचक वाला मानन्द केवल कबीर के भाग्य में ही नहीं बदा था। लिखा है। उनका कथन है-शिवदर्शन से जिस परम बनारसीदास को भी मिला और उन्हें उसका स्वाद कामधेनु, सुख की प्राप्ति होती है, वह इस भवन में कही भी नहीं वित्राबेलि और पंचामत भोजन जैसा लगा।' उनकी है। उस अनन्त सुख को इ.द्र करोगे देवियों के साथ रमण दृष्टि में रामरसिक और रामरस पृथक नहीं रह पाते, दोनों करने पर भी प्राप्त नहीं कर पात।।'' टीक यह ही बात एक हो जाते हैं । द्यानतराय ने उम आनन्द को गूगेके गुटके मूनि रामसिंह ने पाहुड़-दोहा मे लिखी है-"तं सुहु इंदु समान कहा, जिसका अनुभव तो होता है किन्तु कहा नहीं वि णउ लहइ देविहिं कोडि रमंतु ।"" उन्होंने यह भी जा सकता। कबीर ने इसी को 'गंगेकरी शर्करा बैठे लिखा कि जिसके मन में परमात्मा का निवास हो गया, ही मुसकाप' कह कर प्रकट किया था। समरसता से वह परमगति को पा जाता है। यह परमगति, परम उत्पन्न होने वाले इस मानन्द की बात कबीर से कई शताब्दी
७. णिच्चु णिरजणु णाणमउ परमाणंद सहाउ ।
जिन nिimm पूर्व प्राचार्य योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश में स्वीकार की
___ जो एहउ सो सतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ।। १।१७ थी। उन्होंने "णिच्चु णिरंजण णाणमउ परमाणंद-सहाउ"
८. केवल दंसण-णाणमउ केवल-सुक्ख-सहाउ। १. परमात्म प्रकाश, १११२३ (२) पृ० १२५
__ केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावर भाउ॥१॥ २. पाहुडदोहा, ४६ वां दोहा, पृ १६
६. जो सम-भाव-परिट्ठियहं जोइहँ कोइ फुरेउ। ३. देखिए मामेरशास्त्र भण्डार जयपुर की 'पागंदा' परमाणंदु जणतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥५॥ की हस्तलिखित प्रति 60 वां पद्य ।
१०. जं सिव-दसणि परम-सुहु पावहि भाणु करंतु । ४. अनुभौ के रस को रसायन कहत जग,
तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मल्लिवि देउ प्रणतु ___ अनुभौ अभ्यास यह तीरथ की ठौर है ।
॥११॥ अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि,
जं मुणि लहइ अणत सुहु णिय-प्र.पा झायतु । अनुभौ को स्वाद पंच अमृत को कौर है । तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु॥११७ बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई वि० सं० ११. जं सुहु विसय परं मुहउ णिय अप्पा झायंतु । १९८६, पृ०१७
तं मुहु इंदु वि णउ लहइ दविहिं कोडि रमंतु ॥३॥ ५. देखिये वही
१२. जसु मणि णिवसइ परमपउ सयलइ चित चवेवि ६. थानतविलास, कलकत्ता, ६० वां पद, पृ०२५
सो पर पावइ परमगइ अट्ठई कम्म हणेवि ॥६६॥
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६४
पर्व १५
सुख पौर परम मानन्द ही है । मुनि मानन्द तिलक ने कि परमानन्द रूपी सरोवर में जो मुनि प्रवेश करते हैं, वे भी-'प्रणणिरंज गु परम सिउप्पा प्रपा परमा गदु' लिख- अमृत रूपी महारस को पीने में समर्थ हो पाते हैं, किन्तु कर प्रात्मा को 'निरजन' और शिव कहते हुए 'परमानन्द' गुरु के प्रदेश से' । मुनि रामसिंह ने ब्रह्मको अमर कहकर भी कहा ।' अर्थात प्रात्मा परमानन्द रूप है।
उसे अपनाने का प्राग्रह किया है। अर्थात् उसके प्रमतरूप की कबीरदास ने परमात्मा के मिलन को प्रमत का धारा- महिमा गायी है। योगीन्दु ने अमृत सरोवर को एक सार बरसना कहा है। जिस प्रकार अमृत अमरत्व प्रदान दृष्टान्त के द्वारा प्रकट किया है। उन्होंने लिखा हैकरता है, इसी प्रकार मिलन की यह वर्षा जीवको परम ज्ञानिया क निमल मन म अनादि देव इसी प्रकार निवास पद देती है। इस अमत का ज्ञान गरु से प्राप्त होता है। कर रहा है, जैसे सरोवर में हरा लीन रहता है। सभी कछ
कबीर इसके पारखी हैं। उन्होंने इस अमत को छक कर अनादि है हंस भी और सरोपर भी परमात्मप्रकाश में माती पर स्थित ब्रह्म का अजरामर विशेपण तो एकाधिक बार प्रयुक्त हुमा
सुधा-सरोवर का उल्लेख किया है। उसमें स्नान करने से है। हृदय रूपो सरोवर में हंस के विचरण करने की बात दुख दूर हो जाते हैं, परम प्रानन्द उपलब्ध होता है। इस तो महचन्द ने भी लिखी है। सरोवर को गुरुदेव दिखाता है, किन्तु वह ही देख सकता
मध्यकालीन.संत कवियों ने अपने ब्रह्म को सभी पौरा. है, जिसका उममें दिन लगा है। इस मुधा-सान और णिक देवों के नाम से पुकारा है। किन्तु उनका अर्थ मुधा-पान की महिमा कवि बनारसीदाम को भी विदित पुराण-सम्मत नहीं था। कबीर का राम निरजन है। वह थी। कवि प्रानन्दमूरि ने भी अमृत का प्राचमन किया था। निरञ्जन जिसका हम नहीं, प्राकार नहीं, जो समुद्र नहीं, जिस अमृत के प्रानन्द की बात हिन्दी के जैन और अजन पर्वत नही, धरती नहीं, पाकाश नहीं, सूर्य नही, चन्द्र नहीं, कवियो में इतनी प्रसिद्ध है, उसका पूर्ण स्वाद प्राभ्रंश-कवि पानी नहीं, पवन नहीं-प्रर्थात् सभी दृश्यमान पदार्थों से ले चुके थे। मुनि प्रानन्दतिलक ने लिखा है कि ध्यान विलक्षण । उनका विष्णु वह है जो संसार रूप में विस्तत रूपी-सरोवर में प्रत रूपी जल भरा है, जिसमें मुनिवर है, उनका गोबिन्द वह है जिसने ब्रह्माण्ड को धारण किया स्नान करते हैं और मटकों को धोकर निर्वाण में जा है, उनका खुदा वह है जो दम दरवाजों को खोन देता है. पहुँचते है । इन्हीं मुनि ने एक दूसरे स्थान पर लिखा है करीम वह है, जो इतना सब कर देता है, गोरख वह है जो
ज्ञान से गम्य है, महादेव वह है जो मन को मानता है, १. देखिए पामेरशास्त्र भण्डार, जयपुर को 'पाणंदा' की हस्तलिखित प्रति दूसरा दोहा।
सिद्ध वह है जो इस चराचर दृश्यमान जगत का साधक है, २. अमृत बरिसै हीरा निपजे,
५. परमाणंद सरोवरहं जे मुणि करइ प्रवेग । घटा पड़ टकसाल ।
अमिय महारसु जइ पिवइ प्रागंदा गुरु स्वामि उपदेनु॥ कबीर जुलाहा भया पार,
देखिए वही, २६ वाँ पद्य । अनर्भ उतरघा पार।। कबीर-वाणी कबीरदास, डा. द्विवेदी, पृ० २६०
६. देह हो पिक्विवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि ।
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाण मुगेहि ।। ३. सुधा सरोवर है या घट में, जिसमें सब दुख जाय । विनय कहे गुरुदेव दिखावे, जो लाऊँ दिल ठाय ।।
__ पाहुइ-दोहा, ३३ वाँ दोहा, पृ० १० प्यारे काहे कं ललचाय ॥ ७. णिय-मणि णिम्मलि णाणियह णिवसइदेउ अणाइ । देखिए पदसंग्रह, बड़ौत शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ॥ प्रति, पृ०१७
परमात्मप्रकाश, १/१२२, पृ० १२३ झाण सरोवर अमिय जलु मणिवरु करइ सोहागु । प्राकम्म मल धोहि पाणंदा रे !णियहा पांह णि-वाण।
८. महचन्द, दोहापाड, ग्रामेर शास्त्र भण्डार की हस्तदेखिए भामेर शास्त्रभण्डार की हस्तलिखित
लिखित प्रति, ३२० वां पद्य । प्रति, पांचवां पद्य।
६. कबीर ग्रंथावली, २१६ वा पद ।
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जैन-साहित्य में मथुरा
लेखक-डॉ० ज्योति प्रसाद जैन उत्तरप्रदेश राज्य के मथुरा जिले के मुख्य नगर मथुरा में भी शूरसेन राज्य की गणना है और उसकी राजधानी को जैनधर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । इस मथुरा बताई गई है। यद्यपि 'भगवतीसूत्र' के १६ प्रदेशों नगर के प्राचीन नामान्तर उत्तरमथुरा, मधुरा, मधुपुरी, या जनपदों में शूरसेन देश या उसकी राजधानी मथुरा का मधुपूना, महुरा, मथुला आदि मिलते हैं। पूर्वकाल में उल्लेख नहीं है, तथापि 'प्रज्ञापनासूत्र' की २५१ मार्य देशों यह ब्रजमंडल की और उसके पूर्व शूरसेन जनपद की राज- की सूची में वे सम्मिलित हैं । 'ज्ञाताधकथासूत्र' में उल्लिधानी थी। प्राचार्य जिनमेन स्वामि कृत 'आदिपुराण' खित नगरनामों में मथुरा और पांडुमथुरा, दोनों के नाम (पर्व १६, श्लोक १५५) के अनुसार कर्मभूमि के आदि में मिलते हैं। 'स्थानांगसूत्र' (वृत्तिसहित, पृ० ४५३), प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के आदेश से देवराज इन्द्र 'निशीथचूर्णि' आदि ग्रन्थों में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारत ने जिन ५२ देशों का इस भूतल पर निर्माण किया था उनमें वर्ष की जिन दश महानगरियों या महाराजधानियों का यह देश भी जो कालान्तर में शूरसेन देश के नाम से प्रसिद्ध उल्लेख है उनमें भी मथुरा का नाम है। दक्षिण भारत के हुमा, सम्मिलित है। उसकी राजधानी मथुरा का भी उसी दिगम्बराचार्यों ने अपने ग्रंथों में पांड्यदेशान्तर्गत मदुरा समय निर्माण होने से उसकी गणना भारतवर्ष की प्राध या दक्षि गमथुरा से, जिसे पांड्यमथुरा भी कहते हैं, भेद नगरियों में की जाती है। पुन्नाटसंघी जिनसेन सूरि कृत करने के लिए इस नगर का उल्लेख प्राय: उत्तरमथुरा 'हरिवंश' में उल्लिखित प्राचीन भारत के १८ महाराज्यों नाम से किया है। कहीं-कहीं देश का नाम भी शरसेन के
- स्थान पर सौरदेश मिलता है। इस मथुरा की स्थिति उस नाथ वह है जो त्रिभुवन का एकमात्र यति या योगी है। प्राचीन मध्यदेश के अन्तर्गत बताई गई है जो मगध से जैन महात्मा मानन्दघन ने भी अपने ब्रह्म के ऐसे ही स्थण पर्यन्त विस्तृत था और जैनमुनियों का निर्बाध अनेक पर्यायवाची दिये हैं। उन्होंने भी इनका पौराणिक विटा क्षेत्र था। अर्थ नहीं लिया है। उनका राम वह है जो निजपद में रमे, इसके अतिरिक्त प्रत्या
इसके अतिरिक्त, अत्यन्त प्राचीन पाठ 'निर्वाणभक्ति' रहीम वह है जो दूसरों पर रहम करे, कृष्ण वह है जो की 'महराए अहिच्छित्ते' गाथा में प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र एवं कर्मों को करसे, महादेव वह है जो निर्वाण प्राप्त करे, पाश्व तीर्थस्थान के रूप में मयरा का स्पष्ट उल्लेख है। इसी वह है जो शुद्ध प्रात्मा का स्पर्श करे, ब्रह्म वह है जो प्रकार 'निशीथचूर्णि' में "उत्तरावहे धम्मचक्कं मथुराए प्रात्मा के सत्य रूप को पहचाने । उनका प्रात्मब्रह्म देवणिम्मियो थूभो" शब्दों द्वारा मथुरा के 'देवनिर्मित निष्कर्म, निष्कलंक और शुद्ध चेतनमय हैं। इससे स्पष्ट स्तूप' को उत्तरापथ का धर्मचक्र स्थल बताया है। प्राचार्य है कि कबीर और मानन्दघन दोनों ही का राम दशरय सोमदेव (१०वीं शती ई.) के समय तक भी मथुरा के का पुत्र नहीं था। वह अवाङमानसगोचर था। क्रमश.
इस 'देवनिर्मित स्तूप' की प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के रूप में १. कबीर ग्रंथावली, ३२७ वां पद ।
पूर्ववत् ही ख्याति थी। बृहत्कल्पभाष्य की एक अनुश्रुति के २. निज पद रमे राम मी कहिये, रहीम करे रहमान री। अनुसार 'उत्तरापथ के इस महत्त्वपूर्ण नगर के अन्तर्गत ६६
करशे कर्म कृष्ण सो कहिये, महादेव निर्वाण री॥ ग्रामों के निवासी अपने गृहद्वारों के ऊपर नथा चतुप्पथों परसे रूप पारस सो कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। पर जिन मूर्तियों की स्थापना करते थे।' इह विध साधो पाप पानन्दघन, चेतनमय नि.कर्म री॥ सन् १३३१ ई. के लगभग जिनप्रभमूरि विरचित
बम्बई, पद ६७ वां। 'विविध तीर्थकल्प' के अन्तर्गत 'मथुरापुरीकल्प' में वर्णित
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अनेकान्त
वर्ष १५
अनुश्रुति के अनुसार मथुरा नगर को धर्मतीर्थ बनाने का मथुरा का वह प्राचीन स्तूप स्वर्णमयी ही था। उनका सौभाग्य सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ के समय में ही हो समवसरण भी इस नगर में पाया था और उसकी स्मृति गया था। उस समय यह नगरी बारह योजन दीर्घ एवं में जिस स्थल पर समवसरण रचा गया था वहां कल्पद्रुम नौ योजन विस्तीर्ण थी, वह यमुना के जल से प्रक्षालित की स्थापना करके भ० पाश्र्वनाथ के उपलक्ष से भी मथुरा उत्तुंग प्राचीर से अलंकृत थी और असंख्य जिनमन्दिरों, में धर्मतीर्य स्थापित किया गया था। इसी काल में मथुरा देवालयों, धवलभवनों, वापी, कूप, पुष्करिणियों एवं हाट- का एक राजा बड़ा लोभी था। उसने विवेक को तिलांबाजारों से सुशोभित थी। वहीं अनेक चातुविद्य ब्राह्मण जलि देकर स्तूप के स्वर्ण और रत्नों का अपहरण करना नित्य शास्त्र पाठ करते थे। एक बार धर्मघोष एवं धर्म- चाहा। इस पर देवी के कोप से उसी स्थान पर उक्त रुचि नाम के दो तपस्वी मुनि इस नगर के उपवन में प्राकर राजा की अपमृत्यु हो गई। देवी ने यह देखकर कि स्तूप ठहरे। उक्त मुनिद्वय की प्रेरणा से उक्त उपवन की इस रूप में सुरक्षित रहना कठिन है, उसे ईटों से पाच्छाअधिष्ठात्री कुबेरा नामकी देवी ने रातोंरात एक विशाल दित कर दिया। इस प्रकार ईटों से बने उस प्राचीन जैन एवं अतिमनोहर रत्ननटित स्वर्ण स्तूप का निर्माण किया। स्तूप के, जिसे 'वोद्व स्तूप' भी कहते हैं, अवरोप ही गत यह स्तूप तीन मेखलाओं (वेदिकाओं) से युक्त था, शिखर शताब्दी के उत्तरार्ध में मथुरा के कंकाली टोले की खुदाई पर तीन छत्र धारण किए हुए था और अनेक जिनबिंबों में पुरातत्त्वज्ञों को प्राप्त हुए थे, जिनका प्राय. एक मत तथा ध्वजा, तोरण, माला आदि मंगल द्रव्यों से अलंकृत अनुमान है कि वह स्तूप ईस्वी सन् के प्रारम्भ होने में पांच था। उसमे मूलनायक के रूप में भ० सुपार्श्वनाथ की या छ सौ वर्ष पूर्व अवश्य बना होगा। मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई थी। उनका समवसरण अन्तिम तीर्थङ्कर भ. बर्द्धमान महावीर (५६६भी इस स्थान पर पाया बताया जाता है। सम्भवतया ५२७ ई०पू०) के शुभागमन से भी मथुरा नगर धन्य इन्हीं कारणों से उक्त स्तूप का वर्णन 'मथुरायां महालक्ष्मी हुआ बताया जाता है। एक अनुश्रुति के अनुसार मथुरा निमितः श्रीसुपार्श्वस्तूपः' के रूप में किया गया है। इसके का तत्कालीन राजा भीदाम नाम का था, किन्तु हरिषेण उपरान्त, चौदहवे तीर्थ ङ्कर भ० अनन्तनाथ का स्मारक- के 'वृहत्कथाकोष' तथा नागदेव रचित 'सम्यक्त्वकौमुदी' तीर्थ निकटवाहिनी यमुना नदी के हृद में रहा बताया नामक ग्रन्थों के अनुसार जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित जाता है । बाईसवें तीर्थङ्कर भ० अरिष्टनेमि के समय में सौरदेश की राजधानी इस मथुरा नगरी में पद्मोदय का पुत्र मथुरानगरी यदुवंशी क्षत्रियों के अन्धकवृष्णि संघ की एक राजा उदितोदय राज्य करता था। सुबुद्धि उसका मन्त्री प्रमुख राजधानी थी। उसी बीच कुछ समय के लिए इस था और यमदण्ड कोटपाल (शहर कोतवाल) था। इसी पर कृष्ण और बलराम के मातुल अत्याचारी कंस का नगर में रूपखुर नामक तस्कर का पुत्र स्वर्णखुर भारी दस्यु शासन रहा, जिसका अन्त उक्त दोनों शलाका पुरुषों था जो अजनगुटिका के प्रयोग द्वारा अपना चोरी का व्यव. (नारायण कृष्ण और बलभद्र-बलराम)ने किया तथा राज्य साय करता था। नगर का राज्यश्रेष्टि जिनदत्त का पुत्र के न्याय्य अधिकारी उग्रसेनको, जो कंस के पिता थे और पुत्र अहंद्दास था जो अत्यन्त धनाढय था और अपनी पाठ द्वारा पदच्युत हुए थे, पुनः राजपद पर प्रतिष्ठित किया। पत्नियों सहित जिनधर्म का परम श्रद्धालु भक्त था। उस इस काल की घटनाओं का विशद वर्णन हरिवशपुराण, काल में मथुरा में प्रतिवर्ष शारदीय पूर्णिमा के दिन कौमुदी वसुदेवहिंडी, उत्तरपुराण, नेमिनाथचरित, पांडवपुराण महोत्सव मनाया जाता था, जिसमें नगर की आबालवृद्ध मादि जैन ग्रन्थों में पाया जाता है।
समस्त स्त्रियां भाग लेती थीं. किन्तु पुरुषों का इस उत्सव मयुरापुरी-कल्प में वर्णित एक अन्य अनुश्रुति के अनु- में सम्मिलित होना वर्जित था। नगर के बाहर स्थित सार तेईसवें तीर्थङ्कर भ. पाश्र्वनाथ (८७७-७७७ ई० उद्यानों एवं पुष्प वाटिकाओं में यह उत्सव मनाया जाता पूर्व) के समय तक कुबेरा देवी द्वारा निर्मित एवं रक्षित था। ऐसे ही एक अवसर पर सेठ ग्रहद्दास और उसकी
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किरण २
जैन-साहित्य में मथुरा
धर्मपत्नियों की प्रादर्श धर्म-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हीं नगर में विद्युच्चर वा अंजनचोर नाम के महा भयङ्कर के साथ राजा उदितोदय ने, उसके मन्त्री ने तथा चौर्यकर्म दस्यु एवं उसके पांचसौ साथियों के जीवन में महान् में संलग्न स्वगंखुर ने भी संसार का त्याग करके प्राचार्य क्रान्ति घटित हुई। उन सबने दस्यु वृत्ति का ही त्याग नहीं श्रीधर एवं प्रायिका ऋषभा के निकट मुनिव्रत धारण किया, वे सब संसार छोड़कर साधु बन गए और मथुरा किया था।
नगर के बाहिर ही एक उद्यान में दुर्धर तपश्चरण में लीन __भगवान महावीर की शिष्य परम्परा में उनके निर्वाण होकर घोर उपसर्ग सहन करते हुए सद्गति को प्राप्त हुए से ६२ वर्ष पश्चात् (अर्थात् ई०पू० ४६५ में) मोक्ष लाभ और उनकी स्मृति में उक्त स्थान पर ५०१ स्तूप बना दिए करने वाले अन्तिम केवलि जम्बू स्वामी की पवित्र तपो- गए। ये स्तूप मध्यकाल तक अपनी जीर्ण शीर्ण अवस्था में भूमि इसी मथुरा नगर का चौरासी नामक स्थान रहा है विद्यमान रहते आये बताये जाते हैं जैसा कि पांडे राजमल्ल
और एक जनश्रुति के अनुसार उन्होंने इसी स्थान पर ही जी और पं० जिनदास जी के जम्बूस्वामी चरित्रो से सूचित निर्वाण लाभ किया था। उन महामुनि के प्रभाव से इसी होता है।
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व्यवस्थापक-'अनेकान्त
वीर-सेवा-मन्दिर २५ दरियागंज, दिल्ली-६
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अज्ञात हिन्दी जैन कवि टेकचन्द व उनकी रचनाएँ
लेखक-श्री अगरचन्द नाहटा
मध्यप्रदेश विशेषतः मालवा में जन-धर्म का प्रचार दो और वहां की कुछ प्रतियां तो अन्य स्थानों में चली गई। ढाई हजार वर्षों से चलता पा रहा है, पर इस प्रदेश में सारांश यह है कि वे ज्ञान-भंडार सुरक्षित नहीं रह सके। रचित प्राचीन जैन-साहित्य की जानकारी बहुत ही कम दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रंथ-भंडार उस सम्प्रदाय के मन्दिरों है, क्योंकि प्राचीन ग्रन्थों में वे ग्रन्थ कब और कहाँ रचे गये, में रहते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रंथ भंडार इसका स्पष्ट उल्लेख प्रायः नहीं मिलता। मध्यकाल में उपाश्रयों में। इसलिए इन दोनों प्रकार के ज्ञान ही ग्रन्थों के अन्त में विस्तृत प्रशस्तियाँ दी जाने लगी थीं, भंडारों की खोज सम्यक प्रकार से की जाय तो मध्यप्रदेश जिनमें ग्रन्थकार का संक्षिप्त परिचय, ग्रन्थ रचना का समय के साहित्य और इतिहास की अवश्य ही बहुमूल्य सामग्री व स्थानका उल्लेख पाया जाता है। मालव प्रदेश-उज्जयिनी प्रकाश में आयगी।
और धाग नगरी व मांडवगढ़ में जैन धर्मावलम्बियों का तीन वर्ष पूर्व एक जैन मुनिराज के प्रयत्न से हमारे काफी प्रभाव था। इन स्थानों के सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों में 'अभय जैन ग्रन्थालय' में मध्यप्रदेश के एक दिगम्बर शास्त्र अनेक उल्लेख मिलते है और इन स्थानों में रहते हुए जन भंडार की कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई। इनमें विद्वानों ने अनेक ग्रन्थ भी लिखे है।
'टेकचन्द' नामक एक जैन कवि की तीन रचनाएँ विशेष प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के साथ-साथ जैन विद्वानों रूप से उल्लेखनीय हैं, क्योंकि अब तक इस कवि एवं इस ने हिन्दी साहित्य की भी महान् सेवा की है। सैकड़ों जैन की रचनामों की जानकारी सर्वथा अज्ञात थी। प्राप्त कवियों की छोटी मोटी हजारों हिन्दी रचनाएँ, आज भी रचनाप्रो के अनुसार कवि के पूर्वज, राजस्थान के जयपुर प्राप्त हैं । दिगम्बर संप्रदाय के कवियों ने तो अपभ्रंश-काल नगर के निवासी थे। कवि ने अपने दो ग्रन्थों की प्रशस्तियों के बाद हिन्दी को ही प्रधान रूप से अपनाया और श्वेता- में अपना 'आवश्यक-परिचय' दिया है। उनके अनुसार म्बर कवियों ने राजस्थानी व गुजराती भाषा को । क्योंकि सवाई जयपुर के महाराजा जयसिंह के समय 'दीपचन्द' श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रचार राजस्थान व गुजरात में ही नामक कवि के दादा, वहाँ रहते थे। वे बड़े धर्म श्रद्धालु अधिक रहा है।
और पागम तत्त्वों के जानकार थे। उनके 'रामकृष्ण' मध्य प्रदेश बहुत विशाल प्रान्त है और उसके अनेक नामक पुत्र हुआ। संयोगवश वे जयपुर को छोड़कर मेवाड़ ग्राम-नगरों में काफी संख्या में जैन-धर्मावलम्बी निवास के शाहपुरा में जाकर बस गए। उस समय वहाँ के राजा करते हैं। उनके रचित साहित्य का परिमाण भी बड़ा उम्मेदसिंह व मंत्री खुशालचन्द थे। रामकृष्ण कवि टेकहोना चाहिए। पर उघर के हस्त-लिखित ग्रंथ-भण्डारों की चन्द के पिता थे। बाल्यावस्था में कवि में धार्मिक भावना खोज अभी तक नहीं हो पायी इसलिए इस प्रान्त में रचित की कमी थी। अतः वे विविध व्यसनों में भासवत थे। जैन साहित्य की जानकारी प्रद्यावधि बहुत ही कम प्रकाश बहुत काल बीत जाने के बाद कोई ऐसा सुयोग मिला कि में पा पाई है। राजस्थान और गुजरात में तो ग्रंथ भंडार जिनवाणी और जैनधर्म के प्रति इनकी श्रद्धा उमड़ पड़ी। प्रायः सुरक्षित हैं और वहां के निवासियों ने समय-समय पर कर्मयोग से (सम्भवतः व्यापार आदि आजीविका के लिए) सैंकड़ों व हजारों प्रतियाँ लिखकर एवं लिखवाकर उन शाहपुरा को छोड़कर ये मालवे के इन्दौर नगरमें भाये और भंडारों को समृद्ध बनाया है। मांडवगढ़, धारा प्रादि के वहाँ कुछ समय रहना हुआ। वहाँ रहते हुए वहाँ की कई समृद्धिशाली श्रावकों ने भी ग्रन्थ भंडार स्थापित किए धार्मिक मंडली से इन्हें ग्रन्थ बनाने की प्रेरणा मिली और थे, पर मुसलमानी पाक्रमणों के समय वे नष्ट-भ्रष्ट हो गए 'बुद्धि प्रकाश' नामक संग्रह ग्रन्थ का कुछ अंश वहाँ रचा
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अज्ञात हिन्वी जन कवि टेकचन्द व उनकी रचनाएँ गया । इन्दौर से फिर संयोगवश ये 'भाडलनगर' पहुंचे। बिसपतवार सुहावनों, हर्ष करन कू प्राय । वहां भी शास्त्र चर्चा प्रेमी धार्मिकजनोंकी मंडलीका मच्छा ता दिन ग्रन्थ पूरन भयो, सो सुख को वरनाय ।। योग मिला और उसकी प्रेरणा से "बुद्धि प्रकाश" अन्य को इति श्री पुण्यास्रव विधाने केशवनन्दि दिव्य मुनि वहीं पूर्ण किया। कवि का तीसरा ग्रन्थ मालवा के राय- शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु विरचिते तत् अनुसारे साधर्मी वचसेनगढ़ में रचा गया है, सम्भव है वे भाडलनगर से राय- निका ठई, ताके अनुसार छन्द चौपाई, ढाल साहपुरे मध्ये सेनगढ़ पहुँचे हों। इस तरह मालव प्रदेश के इन्दौर, भाडल- टेकचन्द सावर्मी करी। लेखन प्रशस्ति के तीन दोहे इस गढ़ और रायसेनगढ़ इन तीनों स्थानों में कवि टेकचन्द का प्रकार है। ठहरना हुआ और वहाँ रहते समय इन्होंने दो ग्रन्थों का श्री साधर्मी टेकचन्द, उपगारी गुण पूर । निर्माण किया। इससे पूर्व शाहपुरामें रहते हुए भी वे एक भाडलपुर मन्दिर थकी, राजत शोभा पूर ॥ विस्तृत ग्रन्थ बना चुके थे । कविके तीनों ग्रन्थोंका संक्षिप्त सभा चतुर गुणपूर है, लाला प्रासाराम । परिचय निम्न प्रकार से है
तिलोकचन्द शुभ प्रणति जिन, जपे निरन्तर नाम। १. पुण्यात्रव कथा-कोश (भाषा)-संस्कृत भाषा के
चतुर आदि भायन घन, घरयो धर्म दिढपाठ । इस कथा कोप की रचना मुनि केशवनन्दि के शिष्य राम
निस दिन शास्त्र विचारिके, पूजा करि हर्ष बाढ ॥ चन्द्र मुमुक्षु' ने की थी। उसकी 'वचनिका' नामक हिन्दी
लेखक कृष्ण ब्राह्मण ॥श्री श्री ॥ संवत् १८२६ जेठ भाषा-टीका संवत् १७७७ में पंडित दौलतराम ने बनाई
कृष्ण ११ बुधवार । पत्र ३३६ ।। थी। उसी के आधार से चौपाई प्रादि हिन्दी छन्दों में
ग्रन्थ के प्रारम्भ में साधर्मी धनराम के प्रागरे में कवि टेकचन्द ने यह पद्यानुवाद संवत् १८२२ की फागुन ।
रचित इस ग्रन्थ की वचनिका का उल्लेख है पर वह अभी सुदी ११ बृहस्पतिवार को शाहपुरा में रहते हुए पूरा
तक कही प्राप्त नहीं हुई है। किया । कवि की यह सबसे बड़ी रचना है। इस ग्रन्थ का
२. बुद्धि प्रकाश-वास्तव में यह कवि की फुटकर परिमाण करीब बारह हजार श्लोकों का है। इसमें ६६
रचनात्रों का संग्रह-ग्रन्थ जान पड़ता है। जैन धर्म सम्बन्धी कथायें हैं। इस ग्रन्थ की संवत् १८२६ की लिखी हुई ।
कई रचनाओं के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में "कृपण दाता की प्रति प्राप्त कर उसकी लेखन प्रशस्ति सम्वाद (पद्य २०२, भाडलपुर में रचित)।" सात व्यसन से यह विदित होता है कि कवि उस समय भाडलपुर के राज' (पद्य २५५, संवत् १८२७ श्रावण सुदी १४, भाडलमन्दिर में विराजमान थे। लाला आसाराम तिलोकचन्द पुर) चेतनकर्मचरित्र (पद्य २२७), 'अक्षरबत्तीसी' के लिए कृष्ण ब्राह्मण ने इस प्रति को लिखा था। कवि (पद्य ४८), 'गुरु परीक्षा,' 'ढाल गण' आदि फूटकर ने प्रशस्ति में अपना परिचय भी दिया है, जिसका साराश रचनाएं संगृहीत हैं। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में 'पुण्यास्रव ऊपर दिया जा चुका है। यहाँ केवल अन्तिम अंश ही कथा कोश भाषा' की प्रशस्ति की भांति कवि ने अपना दिया जा रहा है जिसमें ग्रंथ रचने के समय का उल्लेख है। विस्तृत परिचय दिया है जिसका संक्षिप्त सारांश ऊपर
दिया जा चुका है। इन्दौर में रहते हुए इस ग्रंथ का संवत् अष्टादस शत' जानि, ऊपर बीस दोय.
प्रारम्भ हुआ था और संवत् १८२६ की जेठ सुदी ८ को फिरि आनि ।
भाडलपुर में यह ग्रंथ समाप्त हया । इस ग्रंथ की ६५ पत्रों फागुन सुदि ग्यारस निशि मांहि, कियो समापत
की प्राप्त प्रति, संवत् १८२८ की प्रथम मासाढ़ सुदी ११ उर हुलसांहि ।।५।।
रविवार को रामप्रसाद दुबे की लिखी हुई है। ग्रंथ की १. पुण्यास्रव कथा-कोश की एक प्रति का लेखन, काल समाप्ति १८२६ में हो गयी थी पर इसमें जो 'सप्त व्यसन सं० १५८४ दिया हुआ है, इससे पूर्व ही रामचन्द्र मुमुक्षु राज' रचना है, वह उसके चौदह महीने बाद की है । अतः को होना चाहिए।
सभव है १८२८ में जब यह प्रति लिखी गई तब इस ग्रंथ
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अनेकान्त
वर्ष १५
समाप्ति के बाद की उक्त रचना को भी सम्मिलित कर संवत् अष्टादश सही, ऊपरि गिनि तेतीस । लिया।
मिति मासोज सुदी द्वितीय, सोमवार निशि ईस॥ ३.रिणकचरित्र-इसकी रचना संवत् १८३३ ऐसे अथ पूरण कियौ, मंगलकारण एक । प्रासोज सुदी द्वितीया सोमवार को मालवा के रायसेनगढ़ मन वचन तन शुभ जोग धनि, शीश नमावत में पूर्ण हुई । इसकी प्रति उसी संवत् की ग्रंथकार से स्वयं
'टेक' ||६३ लिखवायी हुई १४२ पत्रों की हमारे संग्रह में है, जिसके
इतिश्री महामण्डलेश्वर राजा श्रेणिक चरित्रे १९वीं प्रारम्भ के ११ पत्र नहीं हैं और कई पत्र उदेई के खाए
सन्धि समाप्त.। संवत् १८३३ मिती कुमार सुदी १० हुए हैं । अतः इसकी दूसरी पूर्ण प्रति अन्वेषणीय है। टेक
लिखावतं साधर्मीभाई टेकचन्द । लेखक किसनचन्द ब्राह्मण । चन्द ने श्रेणिक चरित्र की गुजराती रचना जो बहुत-सी ढालों में थी, के आधार से इस चरित को १६ संधियों में इस प्रकार सं. १८२२ से ३३ तक में रचित कविके संवत् १८३३ में रायसेनगढ़में बनाया है । अन्तिम तीन दोहे तीन ग्रंथों का परिचय दिया गया है। संभव है इंदौर आदि के इस प्रकार हैं
भण्डारों में कवि की अन्य रचनायेंभी प्राप्त हों। मालवादि देश मालवा के विस, रायसेनगढ़ जोय । मध्यप्रदेश में जैन विद्वानों ने हिन्दी साहित्य काफी रचा तहां थान जिन गेह में, कथा रची सुख होय ॥ होगा उसकी खोज होनी चाहिए।
*लेखक का कवि टेकचन्द की अन्य रचनाओं के उप- की कृतियाँ उपलब्ध हो चुकी हैं। इनमें प्रथम और द्वितीय लब्ध होने का अनुमान सत्य है। जयपुर और दिल्ली के रचनाएं प्रकाशित भी हुई हैं। सभी हिन्दी में हैं। सुदृष्टि जैन ग्रन्थ भण्डारों में उपर्युक्त कवि की पच परमेष्ठि-पूजा तरंगिणी कवि की विस्तृत हिन्दी में गद्य रचना है, यह कर्म दहन पूजा, तीन लोक पूजा, पंचमेरु पूजा, सोलह प्रकाशित हो चुकी है। विसनराज वर्गन वि० सं० १८२७ कारण पूजा, (सप्त) विसनराज वर्णन और पदसंग्रह नाम की कृति है।
-सम्पादक 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य ब्योरे के विषय मेंप्रकाशन का स्थान
वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागंज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि
द्वैमासिक मुद्रक का नाम
प्रेमचन्द राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१ दरियागंज, दिल्ली प्रकाशक का नाम
प्रेमचन्द, मन्त्री-वीर सेवा मंदिर राष्ट्रीयता
भारतीय पता
२१ दरियागंज दिल्ली सम्पादक का नाम
प्रा० ने० उपाध्ये एम० ए०, डी.लिट०, कोल्हापुर रतनलाल कटारिया, केकड़ी (अजमेर) प्रेमसागर जैन एम० ए०, पी० एच० डी०, बड़ौत
यशपाल जैन दिल्ली राष्ट्रीयता
भारतीय पता
c/o बीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली स्वामिनी संस्था
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली मै प्रेमचन्द घोषित करता हूँ कि उपर्युक्त विवरण मेरी पूरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है।
प्रेमचन्द १५-६-६२
प्रकाशक
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रानी मृगावती
लेखक-श्री सत्याश्रम भारती चित्रकार ! तुम्हारी कल्पना शक्ति अद्भुत है । ऐसी विवाह करने का अधिकार है, फिर भी उनकी काम तृष्णा सुन्दरी की कल्पना करके चित्र बनाना सहल नहीं है। नहीं मानती, वे पर-स्त्रियों को छीनने की घात लगाये
'नही महाराज! यह कोरी कल्पना नहीं है। जिस रहते है। सतीत्व का बोझ स्त्रियों के सिर पर है और रमणी का यह चित्र है वह सशरीर मौजूद है। पुरुषों के लिए पाप भी गौरव की बात है । यदि पुरुष स्त्री
_ 'ऐं ! क्या कहा ? सशरीर मौजूद है ! हो नहीं का पति (स्वामी) है तो स्त्री पुरुष को (स्वामिनी) क्यों सकता। ऐगा सौन्दर्य स्वर्ग में भी नहीं हो सकता, मर्त्य- नहीं है; जरूर है। लोक की बात तो क्या है ?'
इन सब विचारों से उसका सिर चकराने लगा। फिर नहीं महाराज! मैं सच कहता हूँ, यह रानी मृगावती भी उसने किसी तरह अपने को सम्हाल कर भीतर प्रवेश का चित्र है, जो कि कौशाम्बी नरेश की पत्नी है।' किया।
'ऐं ! यह कौशाम्दी नरेश की पत्नी है ! प्रोह ! महारानी को देखकर चण्प्रद्योत चौक पड़ा। उसने एक भिक्षुक के घर में यह रत्न पाहुया है। मेरे रहते धीरे से हाथ रखकर पूंछा-क्या प्राज तबियत खराब है? उसे क्या अधिकार है कि वह इस रत्न का स्वामी बने ।
'नहीं।' दूत।'
'फिर भोजन क्यों नहीं किया ! इाका कारुण !' 'महाराज !'
'कुछ नहीं।' 'जानी और कौशाम्बी नरेश को सूचित करो कि 'कुछ तो।' यदि तुम जीवित रहना चाहते हो, तो मृगावती सरीखे 'कह तो दिया-कुछ नहीं।' रत्न को मेरे हवाले करो। बन्दर के गले में मोतियों की मृगावती के पा जाने पर हमारे साथ कंसा व्यवहार माला शोभा नहीं पाती। प्रधान जी ! पत्र लिखकर दूत रक्खेंगे, क्या इस बात का अभ्यास कर रहे हो ? के हाथ भेज दो।'
चण्डप्रयोत चौक पड़ा। वह समझ ही नहीं सकता था 'जो आज्ञा।'
कि क्या उत्तर दिया जाय। थोड़ी देर में उसने अनमने दूत को विदा करके राजा चण्डप्रद्योत अपने शयनागार मुंह से उत्तर दिया-"जैसा होगा देखा जायगा।" में चला गया; परन्तु वहां भी उसे चैन नहीं मिला। उस राजमहिपी पीछे हट गई, और लौटने लगी। इतने में दिन चण्डप्रद्योत ने भोजन ही न किया, रणवास में भी न मालूम चण्डप्रद्योत के हृदय में क्या पाया कि उसने बेचैनी फैल गई। सन्ध्या होते ही राजमहिषी ने शयनागार उठकर महारानी का हाथ पकड़ लिया। महारानी ने में प्रवेश किया।
गम्भीरता से कहाराजमहिपी के ऊपर चण्डप्रद्योत का सबसे अधिक प्रेम 'मुझे रोकते क्यो हो?' था। राजमहिपी सुन्दरता की खानि, प्रेम की पुतली होने 'कुछ बात करना है।' के साथ ही तेजस्विनी भी थी। उसे अपने स्त्रीत्व का अभि- 'क्या बात !' मान था। सि समय उसने चण्डप्रद्योत की अवस्था का 'तुम इतनी नाराज क्यं हो गई हो।' हाल सुना और उसे यह मालूम हुआ कि एक स्त्री के पीछे 'क्या तुम्हें इतना भी नहीं मालूम ? स्त्रियों के विषय यह सब काण्ड उपस्थित हुआ है, तब उसका हृदय तिल- में आचरण सम्बन्धी झूठी सच्ची आशंका होने से ही पुरुषों मिला उठा। पुरुषों को एक नहीं, दो नहीं; बल्कि बीसों का खून खौल उठता है, और वे मरने मारने पर उतारू
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७२
अनेकान्त
वर्ष १५
(२)
हो जाते हैं। स्त्रियों को ऐसा दंड दिया जाता है कि जिससे मैं कहती हूँ कि मार मगावती का ध्यान छोड़ो। एक स्त्री उनका यह जन्म ही नहीं, अनेक जन्म नष्ट हो जाते हैं। के रहो तो दूसरा विवाह भी न करना चाहिये, फिर परकिन्तु पुरुष उस पाप को खुल्लमखुल्ला करते हैं। फिर भी स्त्री हरग तो महापाप है। वे अपनी नाम-मात्र की पत्नियों से पूछते हैं कि इतनी 'मच्छा ! अब मैं तुम से शिक्षा नहीं लेना चाहता।' नाराज क्यों हो गई हो? अर्थात् पुरुषों के ऐसे पाप भी तो मैं भी यह कहती हूँ कि स्त्री को अपने जीवन पर स्त्रियों की नाराजी के लिये पर्याप्त कारण नहीं हैं ! पूर्ण अधिकार है। किसी बन्धन में रहना 'न रहना' उसकी
राजमहिषी के स्वभाव को चण्डप्रद्योत अच्छी तरह इच्छा पर निर्भर है।' जानता था। उसका हृदय कोमल था, उसमें प्रेम था, परंतु इतना कहकर राजमहिषी चली गई। चण्डप्रद्योत साथ में तेज भी था। वह खरी बात कहने वाली थी। अांखें फाड़कर पत्थर की मूत्ति की तरह स्तब्ध खड़ा रह इतना होने पर भी उसके मुंह से इतनी कड़ी बात कभी गया । न निकली थी। आज की बातें सुनकर चण्डप्रद्योत के पाश्चर्य का ठिकाना न रहा। लेकिन आज उसके पास कौशाम्बी नरेश शतानिक बहुत दिनों से बीमार थे। कुछ उत्तर न था। वह थोड़ी देर चुप रहकर फिर उनकी पत्नी मृगावती में जितना सौन्दर्य था उससे भी बोला
अधिक पति प्रेम था। बीमारी की हालत में रानी ने पति "स्त्रियों को पुरुषों के साथ इतनी स्पर्धा न करनी की दिन-रात सेवा की, फिर भी बीमारी न घटी। यह चाहिये।
देखकर मृगावती को अपना भविष्य अन्धकारपूर्ण मालूम 'क्यों ? क्या उन्हें सुख दुःख नहीं होता? क्या उनके । होने लगा। महाराज की हालत भी नाजुक हो गई थी। प्राण नहीं है ?'
मृगावती को ही राज्य का कारबार देखना पड़ता था। चण्डप्रद्योत ने कड़ककर कहा-प्राण तो पशुओं के राजकुमार अभी बिल्कुल बालक ही था। अगर महाराज भी होते है।
की तबियत कुछ अच्छी होने लगती तो मृगावती को कुछ 'तो स्त्रियां पशु हैं ?'
पाशा भी होती। परन्तु अवस्था बिल्कुल उल्टी थी। अब की बार चण्डप्रद्योत कुछ लज्जित सा हो गया। इस समय दासी ने आकर खबर दी कि राजा चण्डमनुष्य किसी को पशु समझ सकता है। परन्तु उसी के प्रद्योत का एक दूत पाया है। सामने उसे पशु कहना कठिन है। वह अपने स्वार्थ और 'क्या कहता है।' क्रूरता को नंगा नहीं करना चाहता । इसीलिये चण्डप्रद्योत 'एक पत्र लाया है।' ने कुछ नम्र होकर कहा-फिर भी यह तो मानना ही 'दूत के ठहरने का प्रबन्ध कर और पत्र इधर ला।' पड़ेगा कि स्त्रियों को पुरुषों के काम में हस्तक्षेप न करना रानी मृगावती की आजा के अनुसार कार्य किया गया। चाहिये।
पत्र महाराज के नाम पर था। रानी ने ही वह पत्र पड़कर यह मैं मानती हूँ कि स्त्री और पुरुष का कार्यक्षेत्र सुनाया। जुदा-जुदा है। युद्ध क्षेत्र में जाकर आप कहाँ पर सेना खड़ी करें और कहाँ पर न करें-इस विषय में में हस्तक्षेप नहीं "कौशाम्बी नरेश श्री शनानिक को प्रचण्ड विक्रमकर सकती। इसी प्रकार गृह प्रबन्ध के काम में आप शाली महाराजाधिराज श्री चण्डप्रद्योत जी सूचित करते हैं हस्तक्षेप नही कर सकते । योग्यता होने पर सिर्फ एक दूसरे कि आपके पास जो रमणीरत्न मृगावती है, उसे महाराज को सलाह या सहायता दे सकते हैं। परन्तु जिन कार्यों से की सेवा में शीघ्र ही उपस्थित करें। सर्वोत्कृष्ट रत्नों का स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में खटाई पड़ सकती है, उनके विषय स्वामी सर्वोत्कृष्ट शक्तिधारी राजा ही हो सकता है। में एक दूसरे को हस्तक्षेप करने का अधिकार है । इमीलिये इसीलिये आपको उस रमणीरत्न के रखने का कोई अधि
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फिरल २
कार नहीं है। अभी तक जो हुआ सो हुप्रा, लेकिन अब महाराज का ध्यान इस ओर गया है। इसलिये आपकी भलाई इसी में है कि रमणीरत्न मृगावती को समर्पित कर के महाराज के प्रीतिभाजन वनें ।"
"यदि दुर्भाग्य से आप अपना भला न सोच सकेंगे और आज्ञा पालन में थानाकानी करेंगे तो खेद के साथ लिखना पड़ता है कि तलवार के द्वारा उस श्राज्ञा का पालन कराना पड़ेगा । इसीलिये हमें आशा है कि आप समय पर ही सचेत हो जायेंगे, और तलवारों को म्यान से बाहर न निकलने देगे ।
महाराज की श्राज्ञा से
रानी मृगावती
गृह-सचिव।"
पत्र सुनते ही महाराजा शतानिक के मुह से चीख निकली। बीमारी के कारण उनकी मानसिक दुर्बलता यों ही बढ़ रही थी; लेकिन इस आघात ने तो मानों उन्हें मृत्यु के मूह में ढकेल दिया। रानी के ऊपर तो मानों पहाड़ ही टूट पड़ा । न वह महाराज को सान्त्वना दे सकती थी और न महाराज ही उसे सान्त्वना दे सकते थे। विकट परिस्थिति थी ।
बड़ी देर तक चुपचाप अपंग के बाद मृगावती ने राजा से कहा-
1
"
महाराज ! चिन्ता छोड़िये जैसा होगा देखा जायगा । इस मे सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योत पापी क्रूर और बलशाली है । इसलिए राज्य की रक्षा करना कठिन है । परन्तु राज्य से भी बढ़कर वस्तु है धर्म और अभिमान । हम जीकर नहीं तो मर कर उसकी रक्षा कर सकते हैं । आज्ञा दीजिये कि दूत को जवाब दे दिया जाय ।
महाराज की दशा विलकुल बिगड़ गई थी। उनके मुँह से कुछ भी उत्तर न मिला तब महाराज की तरफ से रानी ने पत्र लिखा ।
पत्र
"उज्जयिनी नरेश थी चण्डप्रद्योत को कौशाम्बी नरेश शतानिक का जयजिनेन्द्र ! अपरंच आपका पत्र श्राया । बांचकर बड़ा खेद हुआ। कोई भी मनुष्य अगर उसमें मनुष्यता का शतांश भी मौजूद है, ऐसी पापमयी बातें मुंह से नहीं निकाल सकता। फिर भगवान महावीर
के अनुवायी के मन में ऐसे पाप विचारों का माना बड़े दुख की बात है।"
" मालूम होता है कि इस समय प्राप ऐश्वयं और शक्ति के मद से उन्मत्त हो रहे हैं, इसलिए जैनत्व के साथ मनुयत्व भी खो चुके हैं।
"एक साथ भाई के नाते हम आप को सूचित करते हैं कि आप इन पाप विचारों को छोड़ कर प्रायश्चित्त लेकर पवित्र बनें। यदि श्राप मनुष्यत्व को बिलकुल तिलाअजलि ही दे चुके हों तो भाप बड़ी खुशी से युद्धक्षेत्र में प्राइये। वहाँ पर हमारी तलवार आपका स्वागत करेगी। ऐसे पापियों को दंड देने की ताकत उसमें अभी मौजूद है। आपका हितैषी शतानिक
पत्र तो भेज दिया गया लेकिन मृगावती की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। उसे अपनी चिन्ता नहीं थी; क्यों कि वह मरना जानती थी। उसे चिन्ता थी अपनी मानरक्षा की, महाराज की, और बालक राजकुमार की ।
शाम के समय महाराज की अवस्था कुछ सुधरी । उन्होंने खोली मोर क्षीणस्वर से मृगावती से कहा प्रिये ! क्या उपाय किया ?
मृगावती उस समय फिकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी। वह समझ ही नही सकती थी कि क्या उत्तर दें ? किन्तु महाराज की ऐसी अवस्था में वह उनके हृदय को धक्का नहीं देना चाहती थी। उसने हृदय की सारी वेदनाओं को दबाया, उस पर पत्थर रख दिया। अपने संघते हुए गले को किसी तरह साफ कर उसने कहा"महाराज ! डर क्या है ? किसकी ताकत है जो मेरी तरफ नजर उठा कर देख सके ? मैं अपने गौरव की रक्षा करूँगी। मैं इज्जत के लिये मरना जानती हूँ ।"
महाराज का चेहरा खिल गया । किन्तु थोड़ी ही देर में उस पर फिर विपाद के चिन्ह नजर आने लगे। मृगा बती ने कहा- 'महाराज ! आप चिन्ता क्यों करते हैं ?"
मृगावती तुम सच् क्षत्राणी हो, मानुपी नहीं देवी हो । परन्तु मैं प्रभागा है। मुझे वेद यही है कि ऐसे विकट अवसर पर मैं घर में विस्तरों पर पड़ा-पड़ा मर रहा है। रणक्षेत्र की गौरव दामिनी भूशय्या मेरे भाग्य में नहीं है ।
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प्रनेकान्त
१५
कहते-कहते महाराज का गला रुंध गया। उनकी तैरता रह जाय और आता हुआ कोई मच्छ दिखाई पड़े प्रांखों से प्रांसुत्रों की धारा बह निकली । तो उसकी जैसी हालत होती है वही हालत रानी की थी। उसके चारों ओर विपत्तियां थी । वह असहाय और निराश हो गयी थी ।
मृगावती भी रो रही थी, उसने रुंधे गले से कहा"महाराज ! धैर्य रखिये। आपकी तबियत शीघ्र ही अच्छी हो जायगी और प्राप शत्रु को उसके पाप का फल अवश्य चखा सकेंगे ।"
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और सिर हिलाया । असीम निराशा थी। रोई चिल्लाई अपने वश में से दो मोती
महाराज एक हल्की हँसी हँसे इस हंसी में और सिर हिलाने में रानी ने उसका अनुभव किया, परन्तु नहीं । उसने बड़ी हिम्मत के साथ गले खातुन मानो उसने धीरे टपका ही दिये ।
को
रात्रि भर महाराज की तबियत बहुत खराब रही। रानी मुगावती ने तो पलक भी न मीचे। रात्रि भर जागती रही, सेवा करती रही, प्रार्थना की, परन्तु सब वर्थ गया । सवेरे के समय जब कि ससार का सूर्य उग रहा था तब रानी मृगावती का सूर्य डूब रहा था । (=)
वह
रानी मृगावती वीराङ्गना थी । उसके हृदय में बल था, साहम था, था। लेकिन महाराज के स्वर्गवा से उसका बल साहस और धैर्य छूट गया। वह वारवार महाराज के शव के ऊपर गिर पड़ती थी। जब लोग दाह के लिए महाराज का शव ले जाने लगे तो रानी शव से चिपट गयी। यह देखकर दर्शकों का भी साहस छूट गया । असंख्य मुखों से आर्त्तध्वनि निकली । उस समय समस्त प्रजा रो रही थी, मन्त्री रो रहे थे । राज महल की एक-एक ईंट रो रही श्री ।
किसी तरह दाह किया हो गई। कुछ दिन शान्ति रही, पर एक दिन दूत के द्वारा वह भयंकर समाचार मिला ही । मन्त्रियों की चिन्ता बढ़ गई। वे समझ नहीं पाते थे कि रानी को यह समाचार किस तरह दिया जाय ।
आखिर डरते-डरते एक वृद्ध मंत्री ने यह समाचार सुनाया किन्तु उसे यह देखकर अत्यन्त श्राश्वर्य हुआ कि रानी ने यह समाचार सुनकर कोई घबराहट प्रकट नही की। बल्कि थोड़ी देर तक एक टक देखकर वह उठ बड़ी हुई।
जहाज के डूब जाने पर जब कोई श्रादमी समुद्र पर
जब तक थोड़ी बहुत आशा रहती है, तब तक मनुष्य चिन्ता करता है, लेकिन निराशा की सीमा पर पहुँच जाने पर वह चिन्ता छोड़ देता है। रानी मृगावती ने चिन्ता छोड़ दी थी । उसने निश्चय कर लिया था कि युद्ध क्षेत्र की शस्त्र शय्या पर ही मैं जीवन छोडूंगी। मेरे जीते जी कोई मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता ।
प्रद्योत की विशाल सेना ने कौशाम्बी नगरी को घेर लिया। उसे यहां पर राजा शतानिक की मृत्यु का समाचार मिल गया था। इसलिए वह समझता था कि
असहाय चिड़िया को पकड़ने में अब बहुत दर न लगेगी । सुन खरावी का मौका न ग्रायगा । यही समभार उसने किसी तरह की रुद्रता न दिखलाई। वह जानता था कि नारी हृदय तलवार के स्थानपर फूल से पराजित होता है ।
रानी मृगावती ने देखा कि कौशाम्बी नगरी तो असंगनिकों से घिर गई है, लेकिन अभी तक किसी तरह का आक्रमण नहीं हुआ है । वह इसी उधेड़ बुन में लगी हुई थी कि इतने में प्रयोत का दूत धाया और उसने एक पत्र दिया। रानी ने एकान्त में उस पत्र को पदा
......
"श्रीमती मृगादेवी की सेवा में !
प्रिये ! मैं यहाँ तुमसे युद्ध करने नहीं श्राया था, किन्तु मैं उस कन्टक को हटाने प्राया था जो कि हमारे और तुम्हारे बीच में पड़ा था । अब देव ने ही उसको दूर कर दिया है इसलिए युद्ध की कोई श्रावश्यकता ही नही रह गयी है। श्राशा है, अत्र तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करोगी मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूँ किन्तु सेवक हूँ। तुम्हारे सौन्दर्य का प्यासा है। प्रेमपिपासु. चण्डप्रद्योत "
I
पत्र पढ़ने पर रानी ने नीचे का मोंठ चबाया और पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । इतने पर भी जब संतोष न हुआ तो उसे पैरों के नीचे डालकर रौंद डाला । दूत के द्वारा सन्देश भेज दिया कि पत्र का उत्तर कल दिया जायगा ।
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रानी मृगावती
( ४ )
मामला ऐसा हो गया था कि मंत्रि-मण्डल कुछ भी सलाह नहीं दे सकता था। रानी को अपने शील की चिन्ता नहीं थी । वह प्राण देकर शील बचा सकती थी, श्रीर प्राण देना वह जानती थी। लेकिन उसे अपने अनाथ बच्चे की चिन्ता थी। मरने से निर्दोष पत्नीत्व बच सकता या परन्तु मातृत्व की बलि होती थी।
दूसरे दिन फिर चण्डप्रद्योत का दूत आया और उत्तर मांगा। मंत्री लोग क्या उत्तर दें। उनकी तो अक्ल ही कुछ काम नहीं देती थी लेकिन उस दिन रानी के मुह पर कुछ दूसरा ही रंग था। रानी ने दूत को पत्र देकर विदा किया।
1
( ५ )
पत्र लेकर चण्डप्रद्योत ने बड़ी उत्सुकता से पढ़ा"महाराज !
माज में विश्व है। इसके पहले मैं स्वतन्त्र नही थी, किन्तु देव ने यह बन्धन तोड़ दिया है । और मैं अब स्वतन्त्र हूँ । इसीलिए आपके पत्र पर मैं स्वतन्त्रता पूर्वक विचार कर सकी हूँ।
बहुत विचार करने के बाद मैं इस निश्चय पर पहुँची हूँ कि आपकी माता मानने में ही मेरा भला है। हां, एक प्रश्न ऐसा है जो आपकी आज्ञा-पालन में बाधक हो रहा है ।
आपको मालूम होगा कि मे राजपत्नी होने के साथ एक बालक की मां भी हूँ । यद्यपि पत्नीत्व का बन्धन टूट गया है परन्तु मातृत्व अभी जीवित है। उसके कारण बालक को असहाय अवस्था में कैसे छोड़ सकती हूँ। मेरा पुत्र अभी बिलकुल प्रबोध है। इधर कोशाम्बी राज्य चारों तरफ शत्रुओं से घिरा हुआ है । मेरी अनुपस्थिति में प्रबोध बालक की क्या दशा होगी, इसके कहने की जरूरत नहीं । यद्यपि श्राप में कौशाम्बी राज्य की रक्षा करने की शक्ति है, परन्तु आप तो उज्जयिनी में रहेंगे और शत्रु सिर पर ऊधम मचायेंगे, तब आपके द्वारा भी राज्य की रक्षा न हो सकेगी। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप कुछ वर्षों तक धैर्य रखिये पुत्र के नम होने पर में आपकी चा का पालन अवश्य करूंगी, ग्राशा है आप मेरी परिस्थिति पर विचार करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे ।
विनीत मृगावती
ㄨˋ
पत्र पढ़कर चण्डघोत प्रसमंजस में पड़ गया। आज उसे मालूम हुआ कि बड़े-बड़े वीरों को जीतने की अपेक्षा एक महिला को जीतना बड़ा कठिन है । परन्तु दूसरा उपाय तो था नहीं। जिस रास्ते पर वह चला था उसी रास्ते से उसे विजय की आशा थी । लेखनी का काम तलवार नहीं कर सकती थी ।
चण्डप्रद्योत ने फिर पत्र लिखा
प्रिये !
तुम्हारा पत्र मिला । मेरी प्रार्थना तुमने मन्जूर की इसका मुझे बड़ा हर्ष है । लेकिन तुम्हारे पत्र के उत्तरार्ध ने मुझे और भी अधिक असमंजस में डाल दिया ।
अगर कोई भीख माँगने आवे और उसे आश्वासन देकर कह दिया जाय कि 'अभी मौका नहीं फिर माइना तो उस भिखारी व्यक्ति को जितना कष्ट होगा—उसी तरह का, किन्तु उससे हजार गुना मुझे हो रहा है ।
प्रिये ! तुम्हें अब कौशाम्बी की चिन्ता न करनी चाहिये, धीर न बालक के लिए अपने जीवन को बर्बाद करना चाहिये ।
यथाशक्ति मैं कौशाम्बी की रक्षा करूगा | कौशाम्बी की रक्षा के लिए जंमा जो कुछ प्रबन्ध चाहोगी बंसा ही हो जायेगा। मुझे एक-एक घड़ी एक एक वर्ष के समान बीत रही है। इसलिए दया कर ग्रब मुझे ज्यादा
तुम्हारा प्रेमी चण्डप्रयोत चण्यांत ने पत्र भेज दिया। दो घड़ी के भीतर ही
उसका उत्तर आया । महाराज !
पत्र मिला । श्राप पुरुष है अगर आप स्त्री होते श्रीर माता बनने का सौभाग्य प्राप्त करते तो आपको मालूम होता कि माता का स्नेह क्या है। माता के छोटे से हृदय में अपने पुत्र के लिए कितना स्थान है। माता अपने पुत्र के लिए सर्वस्व छोड़ सकती है। जब गाय अपने बछड़े के लिए शेर का सामना कर सकती है, तब मैं तो मानुषी हूँ गाय से भी गई बीती हो जाऊं ?
महाराज मैं जानती हूँ कि आपको मेरे वक्त से परितोष न होगा। यह चिन्ता मुझे बड़ी देर से सता रही
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अनेकान्त
आर
है। मैं पापको भी दुखी नहीं करना चाहती। इसलिए जीतना चाहते हो । परन्तु याद रक्खो । पाप का फल कभी मापकी सलाह के अनुसार यही ठीक है कि कौशाम्बी का अच्छा नहीं होता। अब तुम्हारा भला इसी में है कि सकप्रबन्ध कर दिया जाय ।
शल घर लौट जाओ। यदि मेरी सलाह न जंचे तो यहीं प्रबन्ध के लिए दो बातों का उपाय करना आवश्यक पड़े-पड़े कोट की दीवालों से सिर पीटते रहो। दो वर्ष बाद है-एक तो यह कि जिसमें शत्रुदल नगर में प्रवेश न करें, देखा जायगा। दूसरा यह कि नगर के घेर लेने पर सेना को और नाग- मैं आशा करती हूँ कि तुम्हें सुबुद्धि प्राप्त होगी और रिकों को भोजन का कष्ट न हो, इसलिए माप नगर के तुम इस अमूल्य मानव जीवन को नष्ट न करोगे। चारों ओर मजबूत कोट बनवा दें और कम से कम एक
हिताकांक्षी साल के लिए भोजन सामग्री एकत्रित कर दें। एक साल
मृगावती के बाद फिर देखा जायगा। आपके इस काम में मैं और
चण्डप्रद्योत की आँखें लाल हो गई । वह ओंठ चबाने मेरे आदमी आपकी मदद करेंगे । अगर अच्छी तरह काम लगा और घर-घूर कर कौशाम्बी का कोट देखने लगा, किया गया तो एक महीने में ही सब काम हो जायगा। लेकिन बस उस समय कौशाम्बी अजेय थी। उसके बाद मझे बिवाह करने में कोई ऐतराज न रहेगा। इसी समय उज्जयिनी से दूत पाया। उसने समाचार
आपकी दिया कि राजधानी में प्रशान्ति मची है। इसी से चण्ड
मृगावती प्रद्योत को शीघ्र लौटना पड़ा। पत्र पढ़ कर चण्डप्रद्योत को बहुत शान्ति मिली। चण्डप्रद्योत लज्जित होकर घर आया। लज्जा के महीने भर के भीतर कोट तैयार हो गया। मृगावती ने कारण वह अपनी रानी के पास भी नहीं जा सकता था। इसके लिए दिन रात परिश्रम किया। सीसा मिला-मिला परन्तु इस तरह कब तक गुजर होगी, यही सोच कर वह कर कोट की दीवालें ववमय बना दी गई । शस्त्रास्त्र भी अन्त.पुर में गया। परन्तु वहाँ रानी का पता न था। बहत तैयार करवाये। मृगावती ने एक साल के बदले दो चण्डप्रद्योत ने आश्चर्य के साथ सखियों से पूंछा-रानी साल के लायक भोजन सामग्री एकत्रित कर ली। बीसों कहाँ है ? नए कुएँ खुदवा डाले । नए सैनिकों की भर्ती की गई और "वे तो गई।" उनको सिखा पढ़ा कर योग्य सैनिक बनाया गया। सब "कहाँ ?" काम हो जाने के बाद महारानी ने जाने का निश्चय किया इस प्रश्न के उत्तर में उन्होने मांसू बहा दिए और प्रजा में हाहाकार मच गया। चण्डप्रद्योत के शिविर में सभी सिसक सिसक कर रोने लगीं। प्रानन्द-भेरी वजने लगी।
राजा ने घबराहट के साथ पूछा-देहान्त हो गया ? ठीक समय पर चण्डप्रद्योत दूल्हा की तरह सज धज "नहीं महाराज! देहान्त नहीं हो गया, परन्तु जो कर मृगावती के स्वागत के लिए खड़ा था। इसी समय कुछ हुआ वह देहान्त के बराबर ही है।' कोट के ऊपर से एक तीर पाया और चण्डप्रद्योत के मुकुट तो ठीक ठीक कहो न, क्या बात है ? में लगा। मुकुट टूट कर जमीन पर गिर पड़ा। सभी "महाराज! आपके प्रस्थान के पीछे एक दिन महासामन्त चिल्ला उठे हाय ! हाय ! यह कैसा अपशकुन रानी ने छिपकर विषपान का उद्योग किया, किन्तु हम हुधा ? तीर के साथ यह पत्र भी था
लोगों की नजर पड़ गई और यह कार्य न हो पाया। चण्डप्रद्योत !
उसके कुछ दिन वाद न मालूम वे कहां चली गई। बिस्तरों तुम मनुष्य नहीं राक्षस हो। तुम एक अबला को पर आपके नाम का यह पत्र पड़ा मिला था। अपना शिकार बनाना नाहते हो। अपनी शक्ति का दुरु- चण्डप्रद्योत पत्र पढ़ने लगा। पयोग करना चाहते हो। पशु हृदय से नारी-हृदय को महाराज !
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ग्रंथ एवं ग्रंथकारों की भूमि-राजस्थान
लेखक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए०, पो० एच० डी० भारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थान एवं त्यान के प्रतीक हैं तो जैसलमेर, नागौर, बीकानेर, है । एक ओर यहाँ की भूमि का प्रत्येक कण वीरता एवं जयपुर, अजमेर, कोटा, आदि के ग्रन्य-संग्रहालय एवं शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है तो दूसरी ओर भारतीय पोथीखाने उन ग्रंथकारों एवं साहित्य प्रेमियों की सेवाओं साहित्य एवं संस्कृति के गौरव स्थल भी यहां पर्याप्त मात्रा के मूर्तरूप हैं, जिन्होंने अनेक संकटों एवं झंझावातों के मध्य में मिलते हैं। यदि राजस्थान के वीर योद्धाओं ने देश की भी साहित्य की पवित्र धरोहर को सुरक्षित रखा । वास्तव रक्षा के लिए हंसते २ अपने प्राणों को न्योछावर किया तो में राजस्थान की भूमि पावन एवं महान् है एवं उसका यहाँ होने वाले प्राचार्यों, सन्तों एवं विद्वानों ने साहित्य प्रत्येक कण वन्दनीय है। की महती सेवा की और अपनी रचनामों के द्वारा यहाँ के जन जागरण को जीवित रखा। यहाँ के रणथम्भौर,
राजस्थान की भूमि में संस्कृत, प्राकृत, मपभ्रंश, कुम्भलगढ़, चित्तौड़, भरतपुर, मांडौर जैसे दुर्ग यदि वीरता
हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती आदि भाषामों के उद्भट
- विद्वान् हुए । इन प्राचार्यों तथा सन्तों ने अपनी रचनाओं विवाह के समय हम और आप एक बन्धन में बंधे
द्वारा भारतीय साहित्य के भण्डार को इतना अधिक भरा थे। मैंने अपने बन्धन को जरा भी ढीला नहीं होने दिया। कि
कि वह कभी खाली न हो सका। शिशुपाल वध के
कभी आपके प्रेम में मै अपनी वास्तविक स्थिति को भूल गई
रचयिता महाकवि माघ राजस्थानी विद्वान् थे। इन्होंने थी, परन्तु उस दिन मैंने अपने को पहचाना । मुझे मालूम
अपने इस महाकाव्य को जो काव्य के तीनों गुणों (उपमा, हुआ कि मैं दासी हूँ पत्नी नहीं। लेकिन मैं इस घर में
अर्थ एवं पदलालित्य) के प्रसिद्ध है, भनिमाल (जोधपुर) पत्नी बनकर सेवा कर सकती हूँ, दासी बनकर गुलामी।
में समाप्त किया था। पार्थपराक्रमव्यायोग के कर्ता नहीं।
मल्हारनदेव पाबू के परमार राजा धारावर्ष के छोटे भाई अब पाप मगावती को ले ही प्रायेंगे। इसलिए मैं थे। महापंडित पाशाधर मूलतः माण्डलगढ़ के निवासी थे। आप दोनों के बीच का कांटा नही बन सकती। मैं अपने इन्होंने जीवन भर संस्कृत साहित्य की सेवा की और को मिटा सकती हूँ, परन्तु अपने पत्नीत्व का ऐसा अपमान जिनयज्ञकल्प, सागार धर्मामत, अनगार धर्मामृत, त्रिषष्टिनहीं सह सकती।
स्मृतिशास्त्र, अध्यात्मरहस्य, भरतेश्वराभ्युदय, राजमतीपुरुष स्त्रियों को जो चाहे समझे, परन्तु स्त्रियां भी विप्रलंभ, काव्यलंकार जैसे उच्चकोटि के ग्रंथों की रचना अपने मानव जीवन का उत्तरदायित्व समझती हैं। उनका की। संस्कृत साहित्य का घर घर में प्रचार करने वाले जीवन प्रात्मोन्नति करने के लिए है, न कि गुलामी करने एवं समाज में धार्मिक जागृति को फैलाने वाले जैन सन्त के लिए। भगवान महावीर की कृपा से अब स्त्रियों को भट्टारक सकलकीति राजस्थान के स्नातक थे। इन्होंने ८ भी आत्मोन्नति करने का अधिकार है। इसलिए मैं जाती वर्ष तक भट्टारक पद्मकीर्ति के पास नैणवां में गहरा अध्ययन हैं। जितने दिन हो सका आपकी सेवा की, अब कुछ दिन किया और फिर राजस्थान एवं गुजरात में स्थान स्थान पर प्रात्मा की सेवा करूंगी।
भ्रमण करके २५ से भी अधिक ग्रथों की रचना की। सकलमापकी भूतपूर्व पत्नी कीर्ति ने साहित्य निर्माण के लिए वातावरण को इतना चण्डप्रद्योत पत्र पढ़कर सिर पीटने लगा। वह 'वोऊ जागृत किया कि इनके पश्चात् होने वाले इनके शिष्य दीन से गया।'
जीवन भर साहित्याराधना में लगे रहे और उन्होंने संस्कृत
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वर्ष १५ में सैकड़ों रचनायें निबद्ध की, जो माज भी राजस्थान के के दरबार में रहकर हिन्दी भाषा की उत्कृष्ट कृति विहारी जैन भण्डारों में संग्रहीत की हुई मिलती हैं। सकलकीर्ति सतसई की रचना की थी। दादू महाराज के कितने ही के इन शिष्यों में भुवनकीर्ति, ब्रह्मजिनदास, ज्ञानभूषण, शिष्य राजस्थानी थे। इन्होंने हिन्दी में बहुत से साहित्य शुभचन्द्र, सकलभूषण, सुमतिकीति के नाम उल्लेखनीय है। का सृजन किया है। राजस्थान में इसी प्रकार हिन्दी एवं राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, सागवाड़ा राजस्थानी के २०० से भी अधिक विद्वान् हुए होंगे जो आदि प्रदेश इन ग्रन्थकारों की गतिविधियों के मुख्य केन्द्र जीवन पर्यन्त साहित्य-सेवा में व्यस्त रहे, लेकिन अभी इन थे। इसी तरह पंडित रायमल एवं जगन्नाथ, क्रमशः विद्वानों की साहित्यिक सेवाओं का कोई मूल्यांकन नहीं हो वराट एवं टोरायसिंह के निवासी थे और इन्होंने यहीं सका है। छोहल, ठक्कुरसी, वूचराज, छीतर ठोलिया, रहते हुए ग्रंथों की रचना की थी। पं० मेधावी ने नागौर विद्याभूषण, ब्रह्म रायमल्ल, आनन्दघन, हेमराज (द्वितीय) में संवत् १५४१ में धर्मसंग्रह श्रावकाचार की रचना हर्षकीर्ति, जोधराज, खुशालचन्द, टोडरमल, जयचन्द, की थी।
दौलतराम, दिलाराम आदि विद्वान् राजस्थानी ही थे। प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के भी राजस्थान में इस प्रकार राजस्थान की भूमि साहित्यिक विद्वानों को काफी विद्वान् हुए । प्राकृत भाषा की प्रसिद्ध रचना 'जम्बू- जन्म देने की दृष्टि से सदैव उर्वरा रही है। जिसके लिए द्वीपप्रज्ञप्ति' के ग्रंथक र प्राचार्य पद्मनन्दि राजस्थानी हमें गौरवान्वित होना चाहिए। विद्वान् थे। पद्मनन्दि ने अपने आपको गुणगणकलित, राजस्थान के ग्रंथ-संग्रहालय भी कम महत्त्व के नहीं त्रिदंडरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध प्रादि विशेषणो से युक्त लिखा हैं । वैदिक एवं जैन दोनों ही धर्मों के अनुयायियों ने है। बारां नगर को इनके जन्म स्थान होने का सौभाग्य भारतीय साहित्य की सुरक्षा में गहरी दिलचस्पी ली। प्राप्त हुआ था। इसी प्रकार अपभ्रंश भाषा की प्रसिद्ध राजा महाराजानों ने अपने संरक्षण में पोथीखाने स्थापित रचनायें भविसयत्तकहा के लेखक पं० धनपाल एवं धम्म- किए। उनमें आज भी हजारों हस्तलिखित ग्रंथों का परिक्खा के रचयिता महाकवि हरिपेण इसी प्रदेश के रहने संग्रह मिलता है। दूसरी ओर जनों ने तो ग्रंथों के संग्रह वाले थे। पं० धनपाल की जन्म भूमि चित्तौड़ थी। विविध एवं उनकी सुरक्षा का जो प्रादर्श उपस्थित किया है वह भाषाओं के ज्ञाता, अनेक ग्रंथों के रचयिता, जैन दर्शन के अन्य सभी समाजों के लिए अनुकरणीय है । युद्धों एवं अन्य महान् ज्ञाता हरिचन्द्र सूरि को राजस्थानी होने का गौरव प्राकृतिक उपद्रवों के मध्य में भी जिस ढंग से इन्होंने अपने प्राप्त है।
ग्रंथ संग्रहालयो को नष्ट होने से बचाया वह सर्वथा प्रशंसहिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के विद्वानों की तो अभी नीय है । राजस्थान में राजकीय पोथीखानों, राजा-महासंख्या भी नहीं की जा सकती। यहाँ इन भापामों के राजाओं के निजी संग्रहालय, ब्राह्मण पडितों के घरों में सैकड़ों विद्वान् हुए जिनकी साहित्यिक सेवायें इतिहास में संगृहीत ग्रंथों के अतिरिक्त जैन ग्रंथ संग्रहालयों में विशाल स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य है । इस दिशा में अभी साहित्य का संग्रह है। राजस्थान में २०० से भी अधिक जितनी खोज हुई है वह यहाँ के विद्वानो की सेवाओं को छोटे बड़े संग्रहालय हैं। जिनमें दो लाख से भी अधिक देखते हुए नगण्य सी है। हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा की ग्रंथों का संग्रह होगा। ये ग्रंथ संग्रहालय अधिकांशत: व्यसेवा करने में जैन एव जैनेतर दोनों ही धर्मों के कवियों वस्थित एवं सुरक्षित है । ये समाज के स्वाध्याय मन्दिर हैं का समान योग है। हिन्दी की लाडली मीरा पर राजस्थान जिन्हें आज की भाषा में शोध प्रतिष्ठान कहा जा सकता को गौरव है। इन्होंने अपने पदों द्वारा भक्ति की जो है। इन भण्डारों में जैन एवं जैनेतर दोनों ही विद्वानों के धारा बहाई थी वह सदैव गतिमान रहेगी। जैन कवि लिखे हुए ग्रंथों का संग्रह है। इनमें साहित्य की अमूल्य पद्मनाभ चित्तौड़ के थे । इन्होंने अपनी बावनी को १४८६ में निधियां सुरक्षित हैं । जैसलमेर के भण्डार में कुवलयमाला, समाप्त किया था । महाकवि बिहारी ने पामेर के महाराजा काव्यादर्श, काव्यमाला, काव्यालंकार, वक्रोक्तिजीवित,
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काष्ठासंध स्थित माधुरसंघ गुतविली
लेखक-पं० परमानन्द शास्त्री
भारतीय इतिहास में शिलालेखों, ताम्रपत्रों, ग्रंथ प्रशस्तियों, कलात्मक प्रस्तर फलकों, और मूर्तिलेखों आदि का जितना महत्व है, उतना ही महत्व प्राचीन प्रबन्धों, पट्टायलियों और सुर्यावलियों आदि का भी है। इनमें उल्लिखित इतिवृत्तों में ऐसी उपयोगी सामग्री उपलब्ध हो जाती है, जो ऐतिहासिक तथ्यों के निर्णय में बहुत कुछ साहाय्य प्रदान करती है। जैन ग्रंथभण्डारो में अनेक गुर्दा बलियाँ और पट्टावलियाँ पाई जाती हैं। जिनमें जैना, और भट्टारकों की नामावली तथा उनमें कुछ भट्टा रकों श्रादि के कार्यों का उल्लेख भी रहता है, जो तीर्थ यात्रा, धर्मप्रचार, पट्टाभिषेक, वन और वाद-विजय से सम्बन्ध रहता है। यहाँ काष्टासघ की एक शाखा माथुर संघकी एक गुर्वावली दी जा रही है, जो उक्त परम्परा के बाचायों और भट्टारकों आदि का नाम प्रस्तृत करती है, यह गुर्वावली अभी तक अप्रकाशित है और दिल्ली के धर्मपुरा के नये मन्दिर के शास्त्र भण्डार से उपलब्ध हुई है, इस गुर्वावली में ६८३ वर्ष की श्रुत परम्परा के धर्मारघुवश कुमार संभव आदि सैकड़ो काव्यों की जितनी प्राचीन प्रतियाँ सुरक्षित हैं इतनी प्राचीन प्रतियां ग्रन्यत्र मिलना सुलभ नहीं है । जैसलमेर के अतिरिक्त नागौर, अजमेर, कोटा, जयपुर, बीकानेर, भरतपुर, रिषभदेव, सागवाड़ा के जैन भण्डारों में महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की सैंकड़ों प्रतियाँ सुरक्षित है। इन ग्रंथ संग्रहालयों को देखने हुए कभी-कभी यह विचार होता है कि प्राचीन काल में साहित्य संग्रह के महत्व को अधिक समझा जाता था। यदि उन्हें श्राज जैसी सुविधाये मिली होतीं तो संभवत. गाँव गांव में पुस्तकालय भाज से मैकड़ों वर्ष पहले ही जुल गए होते।
इस प्रकार राजस्थान ग्रंथ एवं ग्रंथकारों दोनों के लिए ही पावन भूमि रहा है, जिसके लिए प्रत्येक भारतीय गौरवान्वित है ।
चार्यों के नामोल्लेख के अनन्तर अनेक आचार्यों या भट्टारकों के नामादि प्रस्तुत किए गए हैं पर उनके समयादि की उसमें कोई सूचना नहीं मिलती और न अन्य कोई प्रामाणिक साधन ही उपलब्ध हैं जिनसे उनके समयादि के सम्बन्ध में निर्णय किया जा सके उस कठिनाई का एक कारण आचार्यों के नामों की क्रमबद्धता का न होना भी है।
कालदोपसे जैन संघ अनेक गण-गच्छ श्रादिक में विभक्त हो गया है । जैसे देवसंघ, गौडसंघ, नंदिसंघ, मूलसंघ यापनीयसंघ, पुष्करगण, बलात्कारगण, देसीगण सरस्वती गच्छ, माथुरगच्छ, पुस्तक गच्छ और नन्दितटगच्छ श्रादि ।
जयपुर भंडारके एक गुच्छक में काष्ठासंघकी पट्टावली के निम्न पद्यों में उसकी चार शाखाओं का उल्लेख है, नन्दितर, माथुर बाग और लाल (ट) बागढ़। इससे माथुरसंघ भी उसकी एक शाखा ज्ञात होती है ।
काष्टासंघो भुवि ख्यातो जानन्ते नृसुरासुराः । तत्र गच्छाच चत्वारो राजन्ते विधुता सिती ॥ १e नंदीतटसंज्ञश्च माथुरो बागाऽभिध ।
लाल (2) बागड इत्येते विख्याता क्षितिमंडले ||२०|| काष्ठासंघ की उत्पत्ति का समय आ० देवसेन ने अपने दर्शनसार ग्रन्थ में ६५३ बतलाया है, जो रामसेन के द्वारा निष्पिछसंघ मथुरा में उत्पन्न हुआ था । यदि दर्शनसार के कर्ता द्वारा लिखित उक्त समय प्रामाणिक हो तो काष्ठामंपकी उत्पत्तिका समय वि.की १०वीं शताब्दीका मध्यभाग हो सकता है। यद्यपि इस संघ में अनेक विद्वान् आचार्य मुनि हुए है, किन्तु जो साधु ग्रन्य शाखा प्रशाखाओं में विभक्त है उनका यहां कोई उल्लेख नहीं है । जैसे काष्ठासङ्घ माथुरसङ्घ के श्रमितगति आदि विद्वान |
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प्रस्तुत गुर्वावली में विद्वानों का नामोल्लेख क्रम इस प्रकार है - जयसेन, वीरसेन, ब्रह्मसेन, रुद्रसेन, भद्रसेन कीर्तिषेण जयकीति, विश्वकीर्ति अभयसेन भावकीर्ति विश्वचन्द्र, अभयचन्द्र, माघचन्द्र, नेमिचन्द्र, ( उदयचन्द्र )
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वर्ष १५
विनयचन्द्र, बालचन्द्र, त्रिभुवनचन्द्र (विजयचन्द्र) रामचन्द्र, वि० सं० १३५३ से १३७२ तक रहा है। वही समय यशःकीर्ति, अभयकीति, महासेन, कलासेन, कुंदकीति, त्रिभु- माधवसेन का हो सकता है। कहा जाता है कि माधवसेन वनचन्द्र, रामसेन, मनोराम, हरिषेण', गुणसेन, कुमारसेन, का स्वर्गवास दिल्ली में ही हुमा था। प्रतापसेन, माहव (माधव) सेन उद्धरसेन, देवसेन, विमल उद्धरसेन, माववसेन के शिष्य थे, जो बड़े विद्वान, सेन, धर्मसेन, भावसेन सहस्रकीति गुणकीर्ति मलयकीति शमी, गुणशील के धारक और ब्रह्म-पथ के पथिक थे। गुणभद्र, भानुकीति और कुमारसेन ।
इनका समय भी १४वीं शताब्दी का अन्त जान पड़ता है । इस 'गविली' में अपने ही संघ के कुछ विद्वानों का देवसेन-नाम के अनेक विद्वान् हो गए है। प्रस्तुत नाम भी छुटा हुमा जान पाता है। उदाहरणार्थ बालचन्द्र देवसेन उन सबसे भिन्न जान पड़ते हैं। माथुरसंघी एक मुनि के गुरु उदयचन्द्र का नाम छूटा हुआ है। नेमिचन्द देवसेन का उल्लेख दूबकुंड गांव के सं०११५२ के ३ पंक्तियों उदयचन्द, बालचन्द और विनयचन्द ये चारों ही माथुर वाले शिलालेख में मिलता है। जिस पर उनकी मूर्ति भी संघ के विद्वान् थे। इनमें मुनि उदयचन्द की कोई कृति पङ्कित है । यह एक जैन स्तूप स्तम्भ लेख हैं। मेरे अवलोकन में नहीं आई।
१. प्रथम देवसेन वे हैं जो रामसेन के शिष्य थे और किन्तु मुनि बालचन्द की दो अपभ्रंश कथाएं और जिनका जन्म सं० ६५३ बतलाया है, वही संभवतः दर्शनविनयचन्द्र मुनिकी चूनडीरास आदि तीन रचनाएँ उपलब्ध सार के कर्ता थे। हैं। इनका समय विक्रम की १३वी १४वौं शताब्दी होना दूसरे देवसेन वे हैं, जो शक सं० ६२२ (वि० सं० चाहिए; क्योंकि मुनि विनयचन्द के 'कल्याणकरासु' की
७५७) में चन्द्रगिरि पर्वत से स्वर्गवासी हुए थे।
तीसरे देवसेन वे हैं, जिनका उल्लेख दूबकुंड (ग्वालियर) प्रति सं० १४५५ की लिखी हुई मौजूद है । अतएव उनका
के सं०११४५ के शिलालेख में सम्मान के साथ किया गया समय इससे बाद का नहीं हो सकता, किन्तु पूर्ववती हैं। है और जो लाडबागड संघ के उन्नत रोहिणाद्रि थे विशुद्ध
प्रस्तुत माहासेन वा माधवसेन, प्रतापसेन के पट्टधर थे। रत्नत्रय के धारक थे । और समस्त प्राचार्य जिनकी आज्ञा जिन्होंने पंचेन्द्रियों के समूह को जीत लिया था, जिससे वे को नतमस्तक होकर धारण करते थे। यथामहान् तपस्त्री जान पड़ते हैं। विद्वान होने के साथ-साथ
प्रासीद्विशुद्धतरबोधचरित्रदृष्टि
नि शेष सूरि नतमस्तक धारिताज्ञः । वे मंत्र-तंत्र-वादी भी थे। उन्होंने बादशाह अलाउद्दीन
श्री लाटबागडगणोन्नतरोहणाद्रिखिलजी द्वारा प्रायोजित वाद विवाद में विजय प्राप्त कर
माणिक्य भूतचरितो गुरुदेवसेनः ॥ जैनधर्म का उद्योत किया था और दिल्ली के जैनियो का -देखो दूबकुंड शिलालेख, एपिग्राफिका इंडिका वाल्यूम २ धर्म-संकट दूर किया था। अलाउद्दीन खिलजी का समय
पे०२३७-२४०
चौथे देवसेन वे हैं, जो भवनन्दि के शिष्य थे और जिन १. काष्ठासंघ की दूसरी पट्टावली में हरिषेण के स्थान
का उल्लेख वल्लीमले के शिलालेख में किया गया है, जो पर 'हर्षषेण' नाम पाया जाता है।
उत्तरी अर्काट जिले के वनिवास तालुका में है। (जन २. माहवसेन के बाद जैन सि० भा० की पट्टा. लेख संग्रह भा. २) वली में विजयसेनादि का नाम देकर दूसरी शाखा के पांचवें देवसेन वे हैं जो 'सुलोयणाचरिउ' के कर्ता हैं। विद्वानों का नामोल्लेख किया है।
छठे देवसेन वे हैं जो वीरसेन के शिष्य थे और जिनका -देखो, जैन सि० भास्कर भा. १ किरण ४ उल्लेख अमितगति द्वितीय ने सुभाषितरत्नसंदोह में, और ३. देखो, जनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २, जो अभी जयधवला प्रशस्ति के ४४वें पद्य में किया गया है। वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो रहा है।
२. दूबकुंड शिलालेख वाली तीन पक्तियां ये हैं४. देखो, जन सिद्धान्त भास्कर भाग १ किरण ४ में १-सं० ११५२ वैशाख सुदि पञ्चम्यां। प्रकाशित काष्ठासंघ पट्टावली का फुटनोट तथा जैनगजट
२-श्री काष्ठासंघ महाचार्य वर्म श्री देव हिन्दी २ जुलाई सन् १९५९ में प्रकाशित दिल्ली में जैन
३ -सेन पादुका युगलम, (स्तम्भलेख) धर्म नामक लेख
See Archeological survey of India,
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किरण २
काष्ठासंघ स्थित नापुर संघ गुर्वावली
८१
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विमलसेन-देवसेन के शिष्य थे। इनके द्वारा प्रति- साथ ही साथ, प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश भाषा के विद्वान और ष्ठित एक मूर्ति सं० १४२८ की धर्मपुरा के नये मन्दिर प्रतिभा सम्पन्न कवि भी थे। में विराजमान है। जिसकी प्रतिष्ठा किसी जइस या जैस- आपने सं० १४८६ में अपने ज्ञानावरणी कर्म के वाल सज्जन के द्वारा सम्पन्न की गई थी। इनकी उपाधि क्षमार्थ भविष्यदत्तपंचमी कथा' श्रीधर' की और सुकुमाल'मलधारी' भी बतलाई जाती है।
चरिउ की प्रति लिखवाई थी। पापकी इस समय चार धर्मसेन - विमलसेन के शिष्य थे, इनके द्वारा रचनायें उपलब्ध हैं। पाण्डवपुराण सं० १४६७ में दिल्ली प्रतिष्ठित तीन मूर्तियां हिसार जिले के मिट्टी' नामक ग्राम में मुबारिकशाह के मन्त्री हेमराज की प्रेरणा से बनाया से मनीराम जाट को प्राप्त हुई थीं, ये पार्श्वनाथ, अजित था, और सं० १५०० में हरिवंशपुराण की रचना की थी। नाथ और वर्धमान तीर्थंकर की सं० १४८१, १४४२ को आदित्यवारकथा और जिनरात्रिकथा' ये दो कथायें भी प्रतिष्ठित है और अब हिसार के जैन मन्दिर में विराज. रची थी। अन्य कथाग्रंथ भी बनाये होंगे, पर दुर्भाग्य से मान हैं।
उपलब्ध नहीं हैं। आपके अनेक शिष्य थे । आपने स्वयंभावसेन-धर्मसेन के शिष्य थे। वे कब हुए और भूदेव के खंडित हरिवंशपुराण का अपने गुरु गुणकीति के उनका जीवन परिचय क्या है यह अभी प्रज्ञात है। इनसे साहाय्य से ग्वालियर के समीप कुमारनगर के चैत्यालय भावसेन विद्यदेव भिन्न ज्ञात होते हैं। क्योंकि इनके में बैठकर समुद्धार किया था, और उसके एवज में वहाँ साथ ऐसा कोई विशेषण प्रयुक्त नहीं है । भावसेन विद्य अपना नाम भी अंकित कर दिया था। पाप प्रतिष्ठाचार्य का तंत्ररूपमालावृति, और विश्वतत्त्वप्रकाश ग्रंथ के कर्ता भी थे, मापके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां मिलती है। हैं। जो भिन्न ही जान पड़ते हैं । वे दर्शनशास्त्र के भी अच्छे आपके सौजन्य से रइधू कवि ने अनेक रचनायें रची थी। विद्वान थे।
इनका समय विक्रम की १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। सहस्रकीति-भावसेन के पट्टधर थे। इनकी किसी
मलयकीति-भट्टारक यश कीति के पट्टधर थे । प्राप रचना का कोई परिचय प्राप्त नहीं हुआ और न समयादि की कई रचनाएं होंगी, किन्तु वे मेरे अवलोकन में नहीं की भी कोई सूचना मिली है ।
पाई। आपने भी अनेक मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाई थी। गुणकोति- सहस्रकीति के शिष्य थे। यह अपने जिनमें सं० १५०२ और १५१० के दो लेख प्राप्त हुए समय के विशिष्ट तपस्वी और ज्ञानी थे। इनके द्वारा हैं । सं. १८६८ माघ सुदि ६ रविवार के दिन ग्वालियर के गुणभद्र-मलयकीति के पट्टधर एवं शिष्य थे । पापकी (तोमरवंशी) राजा वीरमदेव के राज्यकाल में सिंघई अपभ्रंश भाषा की १५ कथाएं दिल्ली के पंचायती मन्दिर महाराज की पुत्री देवनी ने पंचास्तिकाय की प्रति लिख- के गुच्छकों में उपलब्ध हैं। जिनमें से कई कथायें उन्होंने वाई थी और स० १४६६ माघ सुदि ६ रविवार के दिन ग्वालियर में रहकर भक्त श्रावकों की प्रेरणा से बनाई थीं। राजकुमार सिंह की प्रेरणा से गुणकीर्ति ने एक धातु की १. भविष्यदत्त कथा की यह प्रति दिल्ली के धर्मपुरा मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। जो अब आगरा के कचौड़ा के नए मन्दिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । देखो, गली के मन्दिर में विराजमान है। इनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेकान्त वर्ष ८, किरण १५-१२ अनेक मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। इन्ही भट्टारक गुणकीर्ति के २. सं० १५०२ वर्ष कातिक सुदि ५ भौमदिने श्री कनिष्ठ भ्राता और शिष्य यशकीर्ति थे, जो तपस्वी होने के काष्ठासंघे श्री गुणकीर्तिदेवाः तत्प श्री यश.कीतिदेवाः
१. देखो, मिट्टी ग्राम से प्राप्त मूर्तियों के लेख। तत्पट्टे श्री मलयकीर्तिदेवान्वये सादु नरदेवा तस्य भार्या २. गुणकीति नाम के और भी विद्वान हो गए हैं।
जणी । देखो पाहार-मूर्ति लेख, अने० १० १० १५६ ३. देखो कारंजा शास्त्र भण्डार । भट्टारक सम्प्रदाय
सं० १५१० माघ सुदि १३ सोमे श्री काष्ठासंघ पृ० २१६
प्राचार्य मलयकीति देवताः नः प्रतिष्ठितम् ।
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आपके समय में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई, और मूर्तियों की प्रतिष्ठा का कार्य भी हुम्रा, किन्तु तब तक राज्याश्रय में कमी भा गई थी ।
भानुकीति — भट्टारक गुणभद्र के पट्टधर थे । यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। इनकी लिखी हुई रविव्रत कथा तो मेरे अवलोकन में आई है। परन्तु अन्य रचनामों का अभी पता नहीं चल सका । इनका परिचयात्मक पद्य राजमल के जंबूस्वामिचरित से यहां दिया गया है । यह वि० की १७ वीं शताब्दी के विद्वान थे ।
कुमारसेन -- भानुकीर्ति के पट्टधर थे। बड़े ही सौम्य प्रकृति, व्रताचरण में निरत, काम-सेना के विजेता थे । दयालु और प्रभावशाली थे । इनके समय में अनेक ग्रन्थ लिखे गये, जो यत्र-तत्र भण्डारों में उपलब्ध होते हैं ।
इस तरह इस गुर्वावली के जिन थोड़े से विद्वानों का परिचय ज्ञात हो सका है, उसे विद्वानों के विचारार्थं प्रस्तुत किया हैं, यदि उन विद्वानों के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानकारी हो, तो उससे मुझे सूचित करने की कृपा करें ।
गुर्वावली
प्रणम्य बीरं परमात्म-सुदरं,
गुणैः पवित्रं विशदं स्वभावनः । अहं गुरूणां बर-नाम-पद्धति, परा प्रवक्ष्यामि विमुक्तहेतवे ॥१॥ त्रयोऽपि तस्याऽनु बभूवुरंत्यका, केवलज्ञानविमुक्तहेतवे ।
मुनीन्द्र चन्द्रो भुवि गौतनो परी, धर्म- जम्बधृतनानी ततोऽनु विष्णुनायोजन प्रबुद्धविष्णोर्भुवि नन्दिमित्रकः । बभूव तस्मादपराजितो गणि
स्ततश्च गोवर्द्धननामकः सुधीः ॥३॥ सुभद्रबाहुः परमो बभूव्यस्तमेव 'नोमीह गुणौघमन्दिरं । इमे वश: पंच यतीन्द्रनायका, श्चतुर्द्दशस्थान सुपूर्वधारका:
प्रका
१. तमोव इति स्तमोव ख- प्रति पाठः ।
॥२॥
॥४॥
वर्ष १५
इनो विशाखो गुणसार्थधारको,
सुनागसेनो
. बभूव च प्रौष्ठिलनाम सुन्दरः । गुणाग्रणीः क्षत्रियसाह्वयोजन, जयनामकोऽभवत् ॥ ५ ॥ पुनश्च सिद्धार्थमुनिर्जगन्नुतो, गुणगरिष्ठो धृतिषेणाह्वयः । प्रभून्मुनीन्द्रो विजयश्च बुद्धिमान्, स-गंगदेवो
वरधर्मसेनकः || ६ ||
अभी
बभूवुर्दश पूर्वधारिणः
समस्त विद्यांबुधिरारगाः पराः । सुमव्य राजीव- सुबोध कारिणी, जिनेन्द्रधर्माद्विनिवासगामिनः ||७||
ततोऽनि नक्षत्रमुनिर्महातपाः महामुनीन्द्रो जयपालसंज्ञकः । मौ च पांडवसेनाभिध ततो बभूवाऽनु च कंससाह्वयः ॥ ८ ॥ एकादशाङ्गविद्यानां पारगाः स्युवंश इमे । श्रीमतुविधेने माथुरे पुष्कर ह्वये || || सुभद्रश्च यशोद्रो भद्रबाहुर्महायशाः । लोहार्यश्चेत्यमी ज्ञेयाः प्रथमाङ्गाधिपारगाः ॥ १० ॥ जयसेनो जगत्त्राता वीरसेनस्तथैव च । ब्रह्मसेनो विशुद्धात्मा रुद्रसेनस्ततोऽभवत् ॥ ११॥ भद्रसेन स्तमो भानु कीर्ति सेनो विशुद्धधीः । जयकीत्तिस्तपोमूर्ति विश्वकीर्तिस्तथाऽजनि ॥१२॥ ततोप्यभय कीर्तिर्योऽभूत्सेनो विदुषां पतिः । भावीतिर्यशस्फूर्तिः विश्वचन्द्रो गणाग्रणीः ॥ १३ ॥ यतोभयादिचन्द्रोऽथ माघचन्द्रोऽघभंजकः । नेमिचन्द्रो ननोशेष विद्यावर-नराधिपः ॥ १४ ॥ पूज्यो विनयचन्द्रोभूद् बालचन्द्रो गणाधिपः । त्रिभुवनादिचन्द्रश्च रामचन्द्रस्तथा गणिः ||१५|| पद-वाप्रमाणेषु यो हि प्रावीण्यमागतः । मान्यो विजयचन्द्रोऽसौ विदुषांवरमण्डले ।। १६ ।।.
यशः कीर्तिशोमूर्तिरभय कीर्तिरनुत्तमः । महासेनो कलासेनः कुंदकीर्ति सुनिर्मलः ॥ १७॥ २. धर्माद्रि इति धर्माहि ख प्रति पाठः ।
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किरण २
काष्ठा संघ स्थित माथुर संघ गुर्वावली
त्रिभुवनादिचंद्रोद्भव्याम्भोजविबोधकः । रामसेनो मनोरामो हरिषेणो धृतस्थितिः ॥१८॥
प्राचारनिळं मुतपः प्रवीणं धर्मोपदेशं महिमाधुरीणं । धीरां जित-स्वान्तविकारसंग, नौम्याशु साधु गुणसेनसज्ञं ॥१९॥ क्रोधादिशान्ताय समात्मनेऽभि, तस्मै मुनीन्द्राय नमोस्तु भक्त्या । छित्वा गतः संसृतिवल्लरी यो, देवं पदं भासि-कुमारसेनः ॥२०॥ आचारपंचत्रतपंचभद्रान्, यो निश्चलान् पालयति स्वहेतून् । तं नौमि दांतं मद-मोह-शान्तं, प्रतापसेनं जितकामसेनं ॥२१॥ पंचेन्द्रियग्रामनिकायधामा, महामना माहवसेननामा । प्रभूत्सुरी भव-गापार्शी, चारित्रचारी गुणशीलधारी ॥२२॥ सुब्रह्मभावी गतिमोगामी, मुशीतधर्ता जिनधर्म कर्ता। नरामरैनिम्मितपादसेव, शिप्योप्यभूदुद्धरसेनदेव ॥२३॥ विज्ञानसारी जिन ज्ञकारी, तन्वार्थवेदी पर-संघ-भेदी । स्वकर्मभंगी बुयूथसंगी', चिरं क्षिती नंदतु देवसेनः ॥२४॥ अमितगुणनिवामः खंडिताकर्मपाशः, समयविद कलंकः क्षीणसंसारशंकः । मदन-कदन-हंता धर्मतीर्थस्य नेता,
जयति महति लीनः शामने देवसेनः ॥२५॥ निरूपमगुणरत्नः शुद्धतत्वात्मयत्नः, समितिततिगरिप्ठः साधुनोकेरुचेष्टः । शशिकिरणसुशीतः कर्मबंधादिभीतो, जयति विमलसेन' शं प्रदेयात्सदा नः ॥२६॥
इत्यं सद्गुरुनामवर्ण सुमनोमालामिमां यःपुमान्, तत्रस्तद्गुण राजिराजितपदं, कंटे दधाति स्फुटं । सवृत्तां विमलादिसेनविहितां प्राप्प प्रसन्नाशयः । श्रेयःसंततिमत्र विदतितरां निश्रेयसं तत् क्रमात् ।।२७ गुण-गण-मणिरलं चारुचारित्रयलं, कलिकलुष सरलं सुव्रते सुप्रयरनं । मदन मथन धेनुः सर्वदाकामधेनुः,
सुगुरु विमलसेनः पट्टके धर्मसेनः' ॥ २८॥ काष्ठसंघगणनायकवीरः, धर्म-साधन-विधान-पटीरः । राजते सकलसंघसमेतः, धर्मसेन गुरुरेष चिदेतः (?)
॥२६॥ धर्मोद्वारविधिप्रवीणमतिक: सिद्धान्तपारंगमी। शीलादिव्रतधारकः शम-दम-शान्ति प्रभाभासुरः । वैभारादिकतीर्थराजरचितप्राज्यप्रतिष्ठोदयस्तत्पट्टाब्जविकासनकतरणिः श्रीभावसेनो गुरुः ॥३०॥ - कर्म-ग्रन्थविचारसारसरणी रत्नत्रयस्याकरः । श्रद्धाबंधुरलोकलोकनलिनीनाथोपमः साम्प्रतम् ॥ तत्सद्देऽचलचूलिकासुतरणिः कीर्तोऽपि विश्वंभरो। नि:यं भाति सहस्रकीतिरिति यः क्षान्तोऽस्ति
दैगंवर. ॥३१॥ श्रीमांस्तस्य सहस्रकीतियतिनः पट्टे विकष्टेऽभवत् । क्षीणांगो गुणकीतिसाधुरनधो विद्वज्जनानां प्रियः । मायामानमदादिभूधरपत्री राधान्तवेदी गणी। हेया-देय-विचार-चारुधिपणः कामेभकंठीरवः ॥३२॥ यत्तेजो गुणबद्धबुद्धिमनसो मूला' भवन्तो नुताः । श्रीस्याद्वादहता कणाद-सुगताद्या वादिनः पादयोः । जीयाच्छीगुणकीर्तिसाधुरसको चारित्रदृग्ज्ञानभाक, श्रीमन्माथुरसंघपुष्करशशी निर्मुक्त दम्भारवः ॥३३॥ तत्पटे व्रत-शीलसंयमनदीनाथो यशःकीतिरासीदुद्दण्ड-कुदार्प-काम-मथनो निर्ग्रन्थमुद्रावरः । विख्यातो जिनपादपंकजधराविकृष्ट चेतोगृहः, शास्त्रारभसुतुंडतांडवकरः स्याद्वादसत्प्रेक्षणः ॥३४॥ १. 'ख' प्रती पधद्वयमधिकं वर्तते ।
२.की.दि विश्वंभरो इति ख प्रति पाठः ३. विरज्जनानंदितः इति 'ख' प्रति पाठ.। ४. हेयाहेय इति पाठः ख प्रति, ५. 'मूलाम्भवान्तो इति' ख प्रति पाठः ।
१. 'रंगी' इति ख प्रति पाठः ।
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अनेकान्त
वर्ष १५
दीक्षादाने सुदक्षोवगतगुरुलघु शिख्यया क्षेत्रनाथं, ?
[ तत्पट्ट मुच्चमुदयाद्रिमिवानुभानुः, ध्यायन्नश्रांतशिष्टं चरितसहृदयो मुक्तिमार्गे समागें। . थीभानुकीतिरिह भाति हतांधकारः । यो लोभ-क्रोध-माया-जलदविलयने मारुतो माथुरेशः, उद्योतयन्निखिलसूक्ष्मपदार्थसार्थान्, काष्ठासंघे गरिष्ठो जयति स मलयाद्यस्ततः कीतिसूरिः ॥ भट्टारको भुवनपालकपनबन्धुः ॥३८॥
तत्पट्टमब्धिमभिवर्द्धनहेतुरिन्दुः, गुणगणमणिभूषो वीतकामादिदोष,
सौम्यः सदोदयमयो' लसदंशुजाल. । कृतजिनमततोषस्तत्पदे शांतवेषः ।
ब्रह्मव्रताचरणनिजितमारसेनो, धृतचरणविशेषः सत्यघोषो विरोषो,
भट्टारको विजयतेऽथ कुमारसेनः ।।३९॥ ] जयति च गुणभद्रः सूरिरानन्दभूरिः ॥३६॥ ये नित्यं व्रतमन्त्रहोमनिरता ध्यानाग्निहोत्राकुलाः
षट्कर्माभिरतास्तपोधनधनाः साधुक्रिया साधव । यो जानाति सुशब्दशास्त्रमनघं, काव्यानि तर्कादिक,
शीलप्रावरणा गुणप्रहरणाश्चंद्रार्कतेजोधिकाः, सालंकारगुणर्युतानि नियतं जानाति छन्दांसि च ।
मोक्षद्वारकपाट-पाटन भटाः प्रीगंतु मां साधव; ॥४०॥ यो विज्ञानयुतो दयाशमगुगर्भातीह नित्योदयः,
[] बड़े ब्रेकट वाले पद्य पांडे राजमल के जंवूस्वाजीयाच्छीगुणभद्रसूरिपदगः श्रीभानुकीर्तिर्गुरुः ॥३७॥ मिचरित की पीठिका से उद्धृत ग्येि गए हैं।
पद राग विलावल
चेतन अपनी रूप निहारो
___ नहिं गोरो नहिं कारो॥ टेक ।। दरसन ग्यान मई चिन्मूरति ।
___ सकल करम ते न्यारौ ॥१॥ जाकी विन पहिचान जगत मैं
सह्यो महादुख भारौ। जाके लखे उदै हूं ततखिन
___ केवल पान उजारौ ॥ २ ॥ करम जनित परजाय पाय तुम
कीनौं तहाँ पसारी। मापा-परसरूप न पिछानी
ताते भी उरभारी ॥३॥ प्रब निज में निज को अवलोकी
ज्यों कै सब सुरझारौ। 'जगतराम' सब विधि सुखसागर
पद पावौ अविकारी ॥४॥
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अनेकान्त
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राजनापुर खिनखिनी गांव की धातु- प्रतिमाएँ
सरस्वती नौवीं शती राजनापुर खिनखिनी
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भगवान ऋषभनाथ का
चतुविशति पट्ट
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राजनापुर विनखिनी गांव की धातु-प्रतिमाएँ
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यक्ष यक्षी-नौवी शती राजनापूर विग्विनी
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राजनापुर खिनखिनी की धातु प्रतिमाएँ
लेखक - श्री बालचन्द जैन
ईस्वी सन् १९२६ में, विदर्भ के अकोला जिले के मुर्तिजापुर तालुका में स्थित राजनापुर खिनखिनी गांव के एक कुएं में अचानक ही जैन धातु प्रतिमानों का एक बड़ा संग्रह प्राप्त हो गया था । उस संग्रह में कुल मिलाकर २७ प्रतिमाएँ थीं जो ट्रेजर ट्रोव एक्ट के अंतर्गत नागपुर के केन्द्रीय संग्रहालय के लिये अवाप्त की गई थीं । संग्रह की प्रतिमाओं में से अनेक प्रतिमाएँ कला की दृष्टि से बहुत ही उत्कृष्ट एव सुन्दर है । वे यूरोप के जर्मनी, स्विट्जरलैंड फ्रांस और इटली आदि देशों की प्रदर्शनियों मे प्रदर्शित हो चुकी है और अभी हाल में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की शताब्दी- प्रदर्शनी में नई दिल्ली में प्रदर्शित की गई थी ।
उपर्युक्त संग्रह की सभी प्रतिमाएँ दिगम्बर सम्प्रदाय की है। निर्माण शैली की दृष्टि से उन्हं दक्खिनी शैली का कहा जा सकता है । निर्माणकाल के अनुसार संग्रह की प्रतिमाओं को चार समूहों में विभाजित किया गया है और उनका समय ईस्वी सन् की सातवी शती से लेकर बारहवीं शती तक प्राका गया है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी के विदर्भ आक्रमण के समय इन मूर्तियों को अविनय से बचाने के उद्देश्य से किसी जैन मंदिर के व्यवस्थापकों ने इन्हें गांव के कुएँ में छिपा दिया था ।
प्रथम समूह - सातवीं प्राठवीं शती
बड़ा
संग्रह की केवल दो प्रतिमाएँ ही इस समूह में रखी जा सकती है । दोनों प्रतिमाएँ जैन यक्षी अम्बिकी है । एक में वह बैठी हुई है और दूसरी में खड़ी हुई । अम्बिका की प्रतिमाओं का जैनों में प्रारम्भ से प्रचार रहा है और उत्तर तथा दक्षिण भारत में समान रूप से उसकी प्रतिष्ठा की जाती रही है ! अम्बिका की कहानी जैन ग्रंथो में इस प्रकार मिलती है- कहा जाता है कि अपने पूर्व जन्म में अम्बिका को अपने पति के कटु व्यवहार से घर छोड़कर जाना पड़ा। वह अपने क्रमश. सात और पांच वर्ष के दो पुत्रों, शुभंकर और प्रियंकर को
लेकर निराश्रित होकर निकल पड़ी। थकावट और भूख से वह और उसके दोनों बेटे छटपटाने लगे कि राह में एक आम का पेड़ दिखाई पड़ा। अम्बिका पेड़ की नीचे झुकी हुई डाल पकड़ कर सुस्ताने लगी और उसके दोनों बेटों ने ग्राम के फल खाकर अपनी क्षुधा शांत की । मृत्यु के बाद अम्बिका बाईनवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ की शासनदेवी हुई । अतः उसके पति ने अम्बिका को बहुत कष्ट दिये थे, वह मर कर सिंह यौनि में पैदा हुआ और अम्बिका देवी का वाहन बना ।
अम्बिका को आम्रादेवी भी कहा जाता है। उसकी प्रतिमाएँ बनाते समय उसे ग्राम के पेड़ के नीचे खड़े या बैठे दिखाया जाता है। उसका वाहन सिंह होता है । उसके बायें हाथ में आम्रलुम्बि दिखाई जाती है । उसका छोटा बेटा प्रियंकर गोद में बैठा रहता है और बड़ा बेटा शुभंकर उसका दहना हाथ पकड़े रहता है । राजनापुर खिनखिनी के संग्रह के प्रथम समूह की पहली प्रतिमा में अम्बिका जी सिंह पर ललितासन में विराजमान हैं और दूसरी प्रतिमा में वे त्रिभंग मुद्रा में चौकी पर खड़ी हैं । दोनो ही प्रतिमानों में सिंह, आम्रलुम्बि और शुभंकर तथा प्रियंकर यथास्थान दर्शाये गये है। देवी के मस्तक पर भगवान नेमिनाथ की छोटी सी प्रतिमा है ।
द्वितीय समूह - नौवीं शती
द्वितीय समूह की प्रतिमाएँ इस संग्रह की सबसे अच्छी प्रतिमाएँ हैं। उनका समय ईस्वी सन् की नौवीं अथवा दशवी शती का पूर्वाद्धं हो सकता है। समूह की पांचों ही प्रतिमाएं एक से एक बढ़कर है। उनकी बनावट सुन्दर, शैनो प्रौड़ और कारीगरी कुशलतापूर्ण है । वास्तव में वे प्रतिमाए समूचे संग्रह की जान है और अपने समय की किसी भी सुन्दर से सुन्दर धातु प्रतिमा की बरावरी कर सकने में समर्थ है। इन पांचों मूर्तियों में से दो तो चतुर्वि शतिपट्ट हैं, एक अम्बिका का प्रतिमा है, एक देवी सरस्वती
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अनेकान्त
वर्ष १५
की प्रतिमा है और एक अन्य प्रतिमा में कोई यक्ष और पांचवीं प्रतिमा यक्ष और यक्षी की है। विशेष यक्षी खड़े हुये हैं।
लक्षणों के प्रभाव में इन यक्ष-यक्षी को पहचाना नहीं जाता चतुविशतिपट्ट को भून नायक प्रतिमा मादि तीर्थकर किन्तु सम्भवतः वे तीर्थकर नेमिनाथ के यक्ष-पक्षी गोमेध भगवान ऋषभनाथ की है। वे चौकी पर रक्खे कमल ओर अम्बिका हैं । कुन सवा नौ इंच ऊंची इस धातु प्रतिपर अर्ध पद्मासन में ध्यानस्थ बैठे हुए हैं । उनके केशों के मा में यक्ष-पक्षी विभग मुद्रा में खड़े हैं । उनके हाथों में लट कंधों पर लटक रहे है, छाती पर श्रीवत्स लांछन है, बिजौरा तथा कमल हैं । दोनों के तन पर नाना प्रकार के पाखें अर्धनिमीलित और नासिका पर जमी हुई हैं। गले प्राभूषण हैं। कार स्थित तीर्थकर प्रतिमा को चिन्ह के पर तीन रेखाएं अंकित करके कलाकार ने कम्बुग्रीव के अभाव में पहचान सकना संभव नहीं है। प्रादर्श की योजना की है। तीर्थकर के दोनों मोर क्रमशः
तृतीय समूह-ग्यारहवों से लेकर तेरहवीं शती खड़े सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र चंवर ढोर रहे हैं । तीन ओर भग्य तेईस तीर्थकरों की छोटी-छोटी प्रतिमाएं है, नीचे इस समूह की प्रतिमाएँ पश्चात्कालीन है और वे यक्ष गोमुख और यक्षी चक्रेश्वरी है। चौकी पर नवग्रहों ग्यारहवीं शताब्दी के मन्तिम चरण से लेकर तेरहवीं की योजना है। कार की भोर 'गुणप' का नाम उत्कीर्ण शताब्दी तक की हो सकती हैं। इस समूह में कुल सत है जो संभवतः प्रतिमा दान करने वाले की सूचना देता है। प्रतिमाएं हैं किन्तु उनमें से महत्वपूर्ण केवल दो-तीन ही है।
अम्बिका की प्रतिमा लक्षण में तो ऊपर की प्रतिमानों कुछ प्रतिमाएं लाछन के अभाव में पहचानी नहीं जती जैसी ही है किन्तु कारीगरी में उनसे श्रेष्ठ है। छ: इञ्च किन्तु दो प्रतिमाएं क्रमशः प्रादिनाथ और नेमिनाथ की ऊंची इस प्रतिमा में अम्बिका खड़ी हुई है। उसका केश- हैं। अ.दिनाथ की प्रतिमा पर वृषभ का चिन्ह है और गुन्थन निराले ढंग का और ध्यान देने योग्य है। ऐसा नेमिनाथ की प्रतिमा को उनकी यक्षी अम्बिका के द्वारा केश गुन्थन अत्यन्त कम मिलता है ।
पहचाना जाता है । समूह की प्रायः सभी प्रतिमाएं बनावट सरस्वती की प्रतिमा देखते ही बनती है वह इतनी में अपेक्षाकृत हीन कोटि की हैं और प्रतिमा-शास्त्र की सुन्दर और भावपूर्ण है कि दर्शक देखते ही रह जाता है। दृष्टि से भी उनमें कोई नवीनता नहीं है। प्रलंकरणों से दूर रख कर भी कलाकार ने इस प्रतिमा
चतुर्य समूह को इतना सुघड़ और सजीव रच दिया है कि तुलना करने के लिए तत्कालीन कोई कृति ही नहीं दिखाई पड़ती। चौथे समूह की कुछ प्रतिमाएं तो रुचिकर है किन्नु सरस्वती जिनवाणी का मूर्त रूप है । वही देवी इस प्रतिमा अन्य साधारण ही कही जा सकती है । इन में प्रादिनाथ में ललितासन में कमल पर मासीन है। उसके तन पर और नेमिनाथ की प्रतिमाएं ढंग की बनी हैं। इनमें से कोई माभूषण नहीं है । उसके एक हाथ में पोथी और कुछ मूर्तियों पर सोने का मुलम्मा था किन्तु अब केवन दूसरे हाथ में वत्तिका है। प्रोखों पर चांदी का मुलम्मा उसके चिन्ह मात्र ही बच रहे हैं। इस समूह में द्विमूर्तिका था । चौकी पर एक संक्षिप्त लेख है जिससे विदित होता और सर्वताभद्रिका प्रतिमा के अलावा एक घण्टी, एक है कि यह प्रतिमा 'पूर्णवसदि' नामक मंदिर में प्रतिष्ठापित पंचमेरु, एक चौकी तथा गायका स्तनपान करते हए वत्स की गई थी।
की आकृति भी है।
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ऐहोले का शिलालेख
लेखक-श्रो शिक्षाभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री
ऐहोले बीजापुर जिलांतर्गत हुनगुंद तालुक में एक असफल प्रयत्न किया । और उस प्रयत्न में विफल हो, अंत छोटा सा गाँव है । यह आज एक सामान्य गाँव है। फिर में प्राणत्याग किया । भी इतिहास की दृष्टि से यह ऐहोले एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर आज अनेक बहुमूल्य प्राचीन इस भयंकर राज्यविप्लव से राज्य में जब अपायकारी देवालय और शिलालेख जो मौजूद हैं. वे केवल कर्णाटक प्रनायकत्व फैला, तब महाप्रतापी द्वितीय पुलकेशी ने राज्यके इतिहास की दृष्टि से ही नहीं, अखण्ड भारतीय इतिहास शासन की बागडोर अपने समर्थ हाथों में ले ली। बल्कि की दृष्टि से भी विशिष्ट गौरव की वस्तु हैं । इस गाँव में इस राज्यक्रांति से लाभ उठाने के ख्याल से अप्पायक और मेगुटि नामक जिनालय में जो एक शिलालेख उपलब्ध है, गोविंद नामक दो वीर नायकों ने भीमरथी के उत्तर प्रदेश वह लेख अनेक दृष्टियों से कर्णाटक के प्राचीन लेखों में को जीतने के लिए जो श्रम उठाया था, अनीतिपूर्ण उस अग्र स्थान को प्राप्त है । यह लेख शक सं० ५५६', ई० श्रम को पुलकेशी ने सर्वथा विफल बनाया । अनन्तर सन् ६३४ का है । सातवीं शताब्दी का कन्नड़ लिपि में इम्मड़ि पुलकेशी ने अपनी अपरिमित सेना के बल से उत्कीर्ण है । लेख १६ पक्तियों में विविध छन्दों के ३२ कदंबों की राजधानी वनवासि को अधीन किया; गंग और पद्यों में समाप्त हुआ है।
पालुप शासकों को पराजित किया और कोंकण के मौर्यों
को सम्पूर्ण जीत लिया। इसी प्रतापी पुलकेशी ने पश्चिम शिलालेख 'जिन स्तुति' से प्रारम्भ होता है। अनन्तर समुद्र के लिए अलंकारभूत पुरीनगरी को मदगज घटाकार इसमें चालुक्य वंश की कीर्ति गाई गई है। इस राजवंश का सैकड़ों विशाल नावों से घेर कर लूट लिया। इतना ही मूल पुरुष सत्याश्रय था। बाद का कीर्तिशाली शासक नहीं, पुलकेशी के शौर्य के सामने असमर्थ लाट, मालव जयसिंह वल्लभ था। इसका पुत्र रणराग, रणराग का पुत्र और गुर्जर देश के अधिपतियों ने उसके एकाधिपाय को पुलकेशी । यह पुलकेशी वातावि अर्थात् वर्तमान बादामि सहर्ष रवीकार कर लिया । में शासन करता रहा । बल्कि इसने एक अश्वमेघ यज्ञ भी किया था। पुलकेशी का पुत्र कीर्तिवर्मा था। यह महा
समय सामंतों की शिरोरत्नराजि से महाराजा हर्ष प्रतापी एवं विजयी शासक रहा । इसने नल, मौर्य और भी रणभूमि में अपने मदगज समूह को बलि चढ़ाकर भय कदम्बों को जीत लिया था। इसके बाद इसका छोटा भाई के कारण प्रहर्ष हुमा।' इस प्रकार पुलकेशी अपने गुणामंगलीश शासक हुमा । इसकी सेना पूर्व तथा पश्चिमी समुद्र तिशय से देवेंद्रतुल्य शासक कहलाता हुमा ५५ हजार गांवों तक पहुँच गई थी। इसकी सेना ने कलच्चुरियों की सम्पत्ति
१. "प्रतापोपनता यस्य लाटमालवगूर्जराः । को छीन लिया था और रेवती द्वीप को भी ले लिया था।
दण्डोपनतसामंतचर्या वर्या इवाभवन् ॥२२॥" बाद इस मंगलीश ने भ्रातपुत्र पुलकेशी के राज्य का अधिः
('जैन शिलालेख संग्रह' भा०२, पृष्ठ ६६.) कारी होने पर भी अपने लड़के को सिंहासन पर बैठाने का
___२. "अपरिमितविभूतिस्फीतसामन्तसेना, १. पञ्चाशत्सु कलौ काले, षट्सु पञ्चशतासु च । मुकुटमणिमयूखाक्रान्त पादारविन्दः ।
युधि पतितगजेन्द्रानीकबीभत्सभूतो, समासु समतीतासु, शकानामपि भूभुजाम् ॥३४॥
भयविगलितहों येन चाकारि हर्षः ॥२३॥"
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अनेकान्त
से सम्मिलित विशाल तीन महाराष्ट्रों का स्वामी बना। के लिए वस्तु मानकर, कविताशक्ति में कालिदास और पौर देखिए-कलिंग एवं कोमल जनपद इसकी सेना के भारवि के तुल्य कीर्तिशाली यह विवक्षण बिकीति जयशील सामने न टिककर भयभीत हो गए। पुलकेशी की महती होकर जीते रहें। सेना के पदाघात से जर्जरित विशपुर आसानी से इसको यहाँ तक हुआ लेख का सार । अब देखिए लेख से हस्तगत हुमा' । पुलोशी के हाथियों के पदाघात को प्राप्त चरित्र का क्या उपकार हुआ । इस लेख से चरित्र का कुनाल सरोवर, रण में मन्यु को प्राप्त शत्रुओं के रक्त से जो उपकार हुआ है वह सीमातीत है। भारत के एक रंजित हुआ । इसने अपने उत्कर्ष के विरोधी पल्लव नरेश विख्यात राजवंश चालुक्यों के, इस वंश के प्रारम्भिक को अपनी सेना धूलि से पाच्छादित कांचीपुर की प्राकार- नरेशों के, खासकर इस वंश के नरेशों में दिगंतकीतिशाली भित्तियों की पाड़ में छिपने को बाध्य किया। चोल राजा- महाराज द्वितीय पुलकेशी के सम्बन्ध में अनेक चारित्रिक पों पर किए गए पाक्रमण में इसकी गजपक्तियों के पुल से बातों को सर्वप्रथम प्रकट करने का श्रेय एक मात्र इस लेख कावेरी नदी का प्रवाह ही रुक गया । पल्लव बल ध्वंसी को ही प्राप्त है । इम्मडि पुलकेशी की अद्भुत् जैनयात्रा इस पुलकेशी ने दक्षिण में चोल, केरल और पाण्डय नरेशों की बातों को विस्तार से वर्णन करने वाला लेख इसे छोड़को ऊजित बनाया।
कर दूसरा नही है।
सिह पराक्रमी राजसिंह पुलकेशीने अपने चचाके कुतंत्र को इस प्रकार सत्याधय पुलकेशी ने समस्त दिशाओं में
समूल नाश कर चालुक्य सिंहासनाधिकार को स्वयं वहन कर
समल: अपनी जनयात्रा को पूर्ण कर, मानशील नरेन्द्रों को सम्मान
अविवेय सामंतों के उपद्रवों को मिटाकर गंग, कदंब एवं पूर्वक विदा कर, देव और द्विजों का सत्कार कर बातापि- पालुप नरेशों को अपने अधीन बनाया, पश्चिम की ओर पर में प्रवेश करके सागरवेष्टित भूवलय पर एक ही नगरी चलकर कोंकण के मोर्यों को पराजित किया, सागरवलके समान शासन करता रहा । इस कलियुग में भारतयुद्धो- यित पुरी नगरी को छीन लिया, मध्य भारत के मालव परांत ३७३५ संवत्सरों के बीतने पर, इस सत्याश्रय भू- तथा दक्षिणोत्तर के गर्जर नरेशों को जीता; नर्मदा तक वल्लभ के कृपापात्र विद्वान् रविकीति ने श्री जिनेन्द्र
घसकर उत्तर भारत के चक्री कन्नौज के हर्षवर्धन को भगवान् के वैभवोपेत इस शिलामय प्रालय का निर्माण
परास्त किया, पूर्वाभिमुख हो कलिंग, कोशलादि जनपदों किया। इस जिनालय के निर्माता एवं इस प्रशस्ति के को एक-एक करके पादाक्रांत किया। दक्षिण की ओर चल रचयिता रविकीति धन्य हैं।
कर पल्लवों को प्रवीन बनाया और कावेरी प्रदेश में अपनी विनिर्माण को अपने काव्य निर्माण अव्याहत जय-भेरी को बजवाया। काव्यमय होने पर भी
महत्वपूर्ण इन सब घटनाओं के चारित्रिक बलयुक्त चित्ता१. "पिष्ट पिष्टपुरं येन जातं दुर्गमदुर्गमम् ।
वर्षक शब्द चित्र को यहाँ पर हम स्पष्ट देख सकते हैं। चित्रं यस्य कलेक्त्तं जातं दुर्गमदुर्गमम् । २६॥"
अन्त में यह लेख स्पष्ट शब्दों में भारतयुद्ध के बाद के कलि('जैन शिलालेख संग्रह' भा० २, पृष्ठ ६७.)
युग के विगत वर्ष का संवत्सरों की निश्चित संख्या को बत२. "कावेरीदुतशफरी विलोलनेत्रा
लाता है । गणनानुसार यह लेख ई० सन् ६३४ का सिद्ध चोलानां सपदि जयोद्यनस्तस्य (?)। -
१. मेनायोजिनवेऽश्मस्थिरमर्थविधी विवेकिना जिनवेश्म । प्रश्च्योतन्मदगजसेतुरुद्धनीरा
म विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदास भारविकीतिः ।। संस्पर्श परिहरति स्म रत्न राशेः ॥३०॥"
॥३७॥ ३. "चोलकेरलपाण्डयानां योऽभूत्तत्र महर्द्धये ।
२. "त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः।। पल्लवानीकनीहारतुहिनेतरदीधिति. ॥३१॥"
सप्ताब्दशतयुक्तेषु श (ग) तेष्वन्देषु पश्चमु (३७३५) ('जैनशिलालेख संग्रह भा० २, पृष्ठ ६७) [जैन शिलालेख संग्रह भा० २, ४४ ६८] ॥३३।।
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किरण २
ऐहोले का शिलालेख होता है। विदित होता है कि इस समय पुलकेशी वैभ- सुन्दर पद्यों को कृष्णमूर्ति जी गद्गद हो मुझे सुनाने लगे। वोन्नत शिखर पर प्रारून हो, अपनी दिग्विजय को पूरा उन्हीं से मालूम हुमा कि रविकीति का यह शिलालेख पूर्वोक्त करके वातापि राजधानी में लौटकर, सुचारु रूप से राज्य विश्वविद्यालय सम्बन्धी एम. ए. की कक्षा में रखा भी शासन करता रहा। अब विज्ञ पाठक ऐहोले के गौरवपूर्ण गया है । कविता में उच्चकोटि के माधुर्य, सौकुमार्यादि शिलालेख से भाषा साहित्य का क्या उपकार हुआ यह काव्योचित्त सभी गुण मौजूद है। लेख में शब्दों का स्वाभी देख लें।
मित्व, व्याकरण-छंद-अलंकार आदि का अभ्यास, कालियद्यपि कई शताब्दियों के पूर्व ही कर्णाटक में संस्कृत दास, भारवि मादि महाकवियों की कृतियों का गाढ़ परिभाषासाहित्य को विशिष्ट गौरव मिल चुका था। प्राचार्य चय मादि बातों को देखने से रविकीर्ति एक सामान्य कवि समंतभद्र, प्राचार्य पूज्यपाद प्रादि महर्षियों की प्रमूल्य न हो कर, निःसंदेह एक उच्चकोटि के प्रतिष्ठित महाअमर कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी थीं। फिर भी मनीषी कवि सिद्ध होते हैं। पर खेद की बात है कि प्रभी तक रविकीर्ति का यह महत्वपूर्ण लेख विशेष उल्लेखनीय है। आपका कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हपा। यद्यपि भारतीय राजाओं की प्रशंसा करने वाले गद्यपद्यात्मक संस्कृत प्रशस्तिकाव्य, साहित्य एवं शिलालेखों एक बात और है। महाकवि कालिदास के काल के में यत्र-तत्र उपलब्ध अवश्य होते हैं। पर ऐसे स्ततिपरक विचार में विद्वानों में गहरा मत भेद है। पर महाकवि खंडकाव्यों में प्रस्तुत लेख एक विशिष्ट स्थान को प्राप्त की चारित्रिक जिज्ञासा में यह लेख एक महत्वपूर्ण स्थान है । इस लेख के लेखक रविकीर्ति, महाकवि कालिदास और रखता है । क्योंकि रविकीति का यह लेख महाकवि के काल भारवि की समश्रेणी में अपने को गिनाते हैं। कतिपय की एक निश्चित सीमा को निर्धारित करता है। कालीविमर्शकों को यह अतिशयोक्ति मालूम दे सकती है। पर दास के शुभ नाम को सर्वप्रथम उल्लेखित करने वाला कवि के असाधारण पाण्डित्य एवं काव्य प्रतिभा को देख शिलालेख यह ही एक है। इस महाकवि की ख्याति कर यह कदापि अत्युक्ति मालूम नहीं देती । वस्त. इनकी सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, दक्षिण भारत जैसे सुदूर कविता को पढ़ कर प्रत्येक सहृदय विद्वान् मुक्त कंठ से देश में जब फैली हुई थी, तर इसमे कतिपय शताब्दियों के प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। बल्कि हाल पूर्व ही महाकवि जीवित रहा होगा। यों प्रासानी से ही में कर्णाटक विश्वविद्याला धारवाड़ के संस्कृत-विभाग अनुमान किया जा सकता है। सारांशतः लिपि, भाषा के प्रधान, सहृदय डा० के० कृष्णमूर्ति एम० ए०, पी० एच० साहित्य और इतिहास प्रादि अनेक विशेषतामों को प्राप्त डी से इस शिलालेख के विषय में जब बात चीत हुई ऐहोले का यह शिलाले व कणांटक की एक चिरस्मरणीय थी, तब डाक्टर साहब ने रविकोति की इस कविता की बहुमूल्य निधि है। जैन समाज के लिए भी यह लेख एक मुक्तकंठ से प्रशंसा की। इतना ही नहीं, कविता के कतिपय गौरव की वस्तु है।
बकान्योक्ति मौनि करि ठाढो बक मुंह न हलावं पग ध्यान धर बंठो ठग पंष न पसार है। चूंच नासा नैन पल ग्रीवा भी संकोच गल अचल शरीर थल करै तिहं वार है । तपी पासी दिशा लीये मैलो मन माहि किए बाहिर सफेदी दिए अंतर विगार है। अमर जालूं पागे पाय परत न मीन धाय कपट भनेक भाय तोलू बकाधार है।
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श्रीक्षेत्र बडवानी
लेखक-प्रो० विद्याधर जोहरापुरकर
मध्यप्रदेश में विन्ध्य पर्वतमाला के एक भाग में चूल- है। बृहत् का प्राकृत रूप 'वड' होता है, बृहत्पुर 'वडगिरि यह क्षेत्र है । समीप ही स्थित बडवानी नामक नगर वानी' का संस्कृतीकरण होना चाहिए। यहां की मूर्ति को से इस क्षेत्र को भी बरवानी कहते हैं। यहाँ पर्वत पर 'बावनगज' तथा बड़ेबाबा' भी कहा जाता है, प्रतः पाषाण में उत्कीर्ण एक बृहत्काय मूर्ति है। इसकी ऊंचाई प्रस्तुत श्लोक में उल्लिखित 'बृहदेव' इसी मूर्ति का उल्लेख ८४ फीट कही गई है। चरणों के समीप गोमुख यक्ष तथा मानने में कोई हानि नहीं है। इस स्थान को 'श्रीमती चक्रेश्वरी यक्षिणी की मूर्तियो हैं, अतः यह मूर्ति ऋपभदेव आदि निषिद्धिका' कहा है, यह सम्भवत यहाँ से किसी की सिद्ध होती है। इस क्षेत्र के जो ऐतिहासिक उल्लेख मुनि के निर्वाण का सूचक है। मिले हैं, उन्हें समयक्रम से प्रस्तुत करना इस लेख का श्रुतसागर ने षट्प्राभृतटीका में बोधप्राभूत गा० २७ उद्देश्य है।
का विवरण करते हुए कई तीर्थक्षेत्रों के नाम दिए है। प्राकृत निर्वाणकांड में-जिसका समय ता कर्तृत्व इनमें चलाचल (चूलगिरि) भी सम्मिलित है। इनका भनिश्चित है-चूलगिरि का वर्णन इस प्रकार है- समय १५वीं सदी का उत्तरार्ध है।
बडवाणीवरनयरे दक्विणभायम्मि चलगिरिसिहरे। इसी समय के भट्टारक गुणकीति के मराठी प्राथ इंदजियकुंभकण्णा णिवाणगया णमो तेसि ॥१२॥ धर्मामृत' में दो वाक्यों में इस क्षेत्र का उल्लेख है (१०
इसके अनुसार यह क्षेत्र इन्द्रजित तथा कुम्भकर्ण का ७४)-'बडवाणि नगरि चुलगिरि पर्वति कुंभकर्ग इंद्रजित निर्वाणस्थल है। प्राचीन पुराणग्रंथो (उत्तरपुराण, पद्म- मुख्य करौनि पाऊठ कोडि मुनि मिद्ध जाते त्या सिद्धपुराण प्रादि) में इन्द्रजित व कुम्भकर्ण के दीक्षा लेने का क्षेत्रासि नमस्कार माभा । वडवाणि नगरि त्रिभुवनतिलकु तो वर्णन है, किन्तु उनके मुक्तिस्थान का उल्लेख नहीं है। त्या देवासि नमस्कार माझा।' इसमें बावनगज मूति को
अपभ्रंश निर्वाणभक्ति में--जिसके कर्ता उदयकीर्ति 'त्रिभुवनतिलक देव' कहा गया है। हैं (समय अनिश्चित है)-यह उल्लेख मिलता हैं
प्रायः ऐसा ही वर्णन १६वीं सदी पूर्वाध के कवि मेघबडवाणी रावणतणउ पुत्त । हउं वंदउ इंदजित मुणि पवित्त ।। राज की गुजराती तीर्थवंदना में है
(मेरे संग्रह की हस्तलिखित प्रति) वडवानि नगर सुतीर्थ पश्चिम चुलगिरि जानिजोए । इसमें रावग के पुत्र इंद्रजित के (निर्वाण ?) का कुंभकर्ण इंद्रजित सिद्ध हवा ते वखाणिजोए ॥१५ उल्लेख है।
वलि ते सुभि मझारी त्रिभुवनतिलक छे जिणप्रतिए । मदनकीर्ति की शासनचतुस्त्रिशिका में-जो १३वीं
चोथा कालनि होए तीन काल वंदामियए ॥१६ सदी के पूर्वार्ध की रचना है-यह श्लोक है
यहां बावनगज मूर्ति को 'चौथे काल की' कहा है। द्वापंचाशदनूनपाणिपरमोन्मानं करैः पंचभिः यं चक्रे जिनमर्ककीर्ति नृपतिग्रीवाणमेकं महत् ।
सोलहवीं सदी-उत्तरार्ध के कवि ब्रह्म ज्ञानसागर तन्नाम्ना स बृहत्पुरे वरबृहद्देवाल्यया गीयते
ने अपनी तीर्थावली में यह वर्णन दिया है-(यह उद्धरण श्रीमत्यादिनिषिद्धिकेयमवताद् दिग्वाससा शासनम् ॥६ ।
हमारे हस्तलिखित संग्रह में मौजूद है) इसमें 'पर्ककीति राजा' द्वारा ५२ हाथ प्रमाण मूर्ति १. पुराणों के अनुसार प्रकीति प्रथम चक्रवर्ती के निर्माण का वर्णन है तथा स्थान का नाम बृहत्पुर दिया सम्राट भरत के पुत्र थे।
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श्रीक्षेत्र बरबानी
वडवाणि वरनयर तास समिप मनोहर ।
है, जिसमें बलात्कारगण के भट्टारक शुभकीति तथा बघेरचलगिरिंद्र पवित्र भवियण-जन-बढ़सुबकर। वाल 'सं० पदम' का उल्लेख है। ये मूर्तियां बावनगज कुंभकर्ण मुनिराव इंद्रजित मोक्ष पधाव्या।
मूर्ति के समीप के मंदिरों में हैं। पर्वत के शिखर पर जो सिद्धक्षेत्र जगजाण बहुजन भवजल ताव्या।
मंदिर है, उसमें सं० १५१६ का लेख है। इसमें काष्ठाबावन संघपति पायकरि बिंब प्रतिष्ठा बहुकरी। संब-माथुरगच्छ की क्षेमकीति-हेमकीति-कमलकीति-रत्नब्रह्म ज्ञानसागर वदति कीति त्रिभुवनमा विस्तरी॥६४ । कीति वाली भट्टारक परम्परा का उल्लेख है। रत्नकीर्ति
ने सं० १५१६ में उक्त मंदिर का जीर्णोद्वार किया था। इसमें कई संघपतियों द्वारा इस क्षेत्र पर की गई
इस मन्दिर के अहाते में यक्षयक्षिण्यादि परिवारसहित बिंबप्रतिष्ठा का वर्णन अधिक है।
चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं जो काल प्रभाव से बहुत सत्रहवीं सदी-उत्तरार्ध के भट्टारक विश्वभूषण की घिसी-पिटी स्थिति में पहुंच गई हैं। इनकी शैली ११वींसर्वत्रैलोक्य जिनालय जयमाला में भी वडवानी-बावनगज १२वीं सदी की प्रतीत होती है। का उल्लेख है
शिखर से कुछ नीचे के एक छोटे मन्दिर में सं० बडनगरेवडवाणमुनिंदाबावनगज सेवित मुनि चन्दा ॥३६ १९६७ की एक मूर्ति है-यह बलात्कारगण के भट्टारक
दि. जैन डिरेक्टरी में कहा है कि इस क्षेत्र पर २२ चन्द्रकीति के शिष्य गुणचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित है। शिखरस्थ मन्दिर हैं, उनके जीर्णोद्धार का समय सं० १२३३, १३८० मन्दिर में तथा पर्वत की तलहटीमें स्थित सोलह मन्दिरों तथा १५८० है, प्रतिष्ठाचार्यों के नाम नंदकीति और राम- में सं० १९३६ में स्थापित की हुई कई मूर्तियां हैं, इनमें
प्रतिष्ठाचार्य का नाम नहीं है, सिर्फ 'परमदिगम्बर-गुरूपयहां के दो शिलालेख जो सं० १२२३ के हैं तथा जिन
देशात्' लिखा है । तलहटी के मन्दिरोंके सन्मुख एक मानमें लोकनन्द-देवनन्द-रामचन्द्र का उल्लेख है-अनेकान्त स्तम्भ सं० १६६५ में स्थापित किया गया है। सं० २००१ वर्ष १२ पु० १९२ में प्रकाशित हुए हैं।
में प्राचार्य शान्तिसागर के शिष्य मुनि चन्द्रसागर की यहाँ
मृत्यु हुई, उनकी समाधि भी स्थापित है। सं० २००५ में हमने गत मास इस क्षेत्र के दर्शन किये। उस समय
कानजी स्वामी द्वारा स्थापित दो प्रतिमाएं दो वेदियों पर उक्त दो लेखों के दर्शन नहीं हो सके। हमने जो मूर्तिलेख
विराजमान हैं। इनके समीप एक कमरे में कई भग्न प्रतिदेवे उनमें एक संवत् १२४२ का है, एक सं० १३८० का
माएं हैं जो अलंकरण-शैली के कारण ११वीं-१२वीं सदी १. जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४२
की प्रतीत होती हैं।
पद राग कल्याण मोहनी तीन्यों लोक ठगे ॥ टेक ।। भये प्रमत मोहनी लागी, जोग जुगति न जगे ॥१॥ सुर नर नारक पशु पंखी जन मुकति • मंत्र दगे । सुधि बुधि विकल भये घर भूल्यो पर के रंग रंगे ॥२॥ करि परतीति अपनपो मूल्यो ठग के संग लगे। निरूपम रतन हरे तीन तीन्यौ सरवस ले उमगे ॥३॥ दिस्टि दैखि सचर चिर इहि विधि भव वन वीचि खये। रूपचन्द चित चेत चतुर मति जोगि जागी भगे ॥४॥
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तत्वोपदेश-बहताला : एक समालोचन
लेखक-श्री दीपचन्द पांड्या
सित रस
का यो।
प्रदेशों
कुछ वर्ष पूर्व श्री प्राचार्य विनोबा भावे ने "भूदान" ३. कविवर दौलतराम जी : तत्त्वोपवेश छहढालाके सिलसिले में समस्त भारत में पैदल यात्रा का उप- यह दूसरी छहढाला की छाया रूप परिमार्जित और विकक्रम किया था और वे मेरे नगर केकड़ी (राजस्थान) में सित रचना है; जो इस लेख का मुख्य विषय है। भी ठहरे थे। यह यात्रा अपने ढंग की अनूठी थी। उनके साय प्रायः भारत के सभी प्रदेशों के समाज सेवक कार्य
छहढाला; गीति काव्य कर्ता भी थे। दर्शनार्थियों में तो अमेरिका तक के लोग
ढाल', भास, रासो, गीत और सज्झाय ये शब्द भी बाये थे। कहना होगा कि उक्त यात्रा विश्व में एक पुरानी हिन्दी की जैन पद्य-रचनामों के लिए प्रायः उपयुक्त महत्त्वपूर्ण यात्रा थी। तब व्यावर निवासी श्रीजालमसिंह शब्द हैं। जैनों में यह पद्य-साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जी मेडतवाल जैन वकील के साथ मैने श्री विनोबा जी गया ग्रन्थ-भण्डारों में उपलब्ध है। 'चाल-ढाल' यह यौगिक से भेंट की थी और हमने उन्हें एक ग्रन्थ भी समर्पित शब्द प्रचलित है ही; ढाल का वाच्यार्य तर्ज किया जाना किया था। उनके साथ हुई ज्ञान चर्चा के दौरान में 'श्री उचित होगा। प्रधानतया छह ढालें-तर्जे पाई जाने से विनोबा जी ने 'छहढाला' के विषय में अपना मत व्यक्त इनका छहढाला नामकरण समुचित प्रतीत होता है। करते हुए इस प्राशय के वाक्य कहे थे-"छहढाला ग्रन्थ मुझे बहुत पसंद है। यह छोटा सा जैन ग्रन्थ विषय-संक- तत्वोपदेश छहढालाके रचयिता का संक्षिप्त परिचय लन की दृष्टि से 'सागर को गागर में भरे'-जैसा है दि. जैन ग्रन्थकारों में दौलतराम नाम के दो विद्वानों थोड़े में ही बहुत प्रमेय को लिए है । प्रस्तु;
को हम जानते हैं, जिनमें पहले बसवा निवासी खडेलतीन छहढाला
वाल जैन थे। इनकी साहित्यिक प्रवृत्तियों का काल पाठकों को विदित हो कि, दि. जैन समाज में विक्रम संवत् १७७७ से १८१८ तक पाया जाता है। इनका 'छहढाला' नाम से तीन विभिन्न रचनाएँ पाई जाती हैं। परिचय अनेकान्त' के गतांक में प्रकाशित "दौलतराम संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
कृत जीवंधर-चरित; एक परिचय" लेख में पढ़िये । १.कविवर धानतरायजी : छहडाला-यह एक दूसरे इस ग्रन्थ के निर्माता थे। ये सासनी जिला 'सम्बोधपंचाशिका' नामक प्राकृत-भाषा के अन्य का रूपा- हाथरस के निवासी पल्लीवाल दि. जैन थे। आपके पिता न्तर है। रचना काल स. १७५८ विक्रम है। इसमें कुल का नाम श्रीटोडरमलजी था। जन्म वि०सं० १८५०-१८५५ ४६ पद्य हैं। प्रत्येक पद्य का प्रादि वर्ण नागरी वर्गमाला और समाधिमरण विक्रम मं० १९२३-२४ में हमा था।
है, अतएव यह कहीं-कही 'अक्षर बावनी भी इनकी केवल दो रचनाएँ उपलब्ध हैं । १. अध्यात्मपद संग्रह कही जाती है।
(विविध राग-रागनियों में), लगभग १०० से अधिक २.कविवर बुधजनजी: छहढाला-यह कवि की उत्तम पदों का संग्रह और २. छहढाला-अनेक धार्मिक स्वतन्त्र रचना जान पड़ती है। रचना काल विक्रम संवत् सूक्तियों से परिपूर्ण। जान पड़ता है, अध्यात्मपद संग्रह १८५६ है । इसमें कुल ६४ पद्य हैं । यही तत्त्वोपदेश छह- समय-समय पर रचे गये पद्यों का संग्रह है । इनका विस्तृत पाला का आधार है । कविता शब्दार्थ की दृष्टि से स्खलित परिचय अनेकान्त वर्ष ११ अङ्क ३ में पृ० २५२ पर कविहै मौर ढूंढारी बोली से प्रभावित है।
वर पं० दौलतराम जी लेख में पढ़िये ।
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हिरल २
१. श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन साधु वर्ग अपने प्रवचनों में प्राज भी जनसाधारण की भाषा में 'ढाल' को गाते हैं।
कवि दौलतरामजी की काव्य-प्रतिभा
कविवर दौलतराम जी संस्कृत भाषा के अच्छे ज्ञाता थे, वे जैन सिद्धान्त ग्रन्थों के भी विशिष्ट शाता थे। उनके समय में विद्याशालाएं बहुत ही कम थीं। यह सब प्रतिभारमक ज्ञान उन्होने विशिष्ट क्षयोपशम से तो प्राप्त किया ही पर जहाँ भी वे रहे, साधम जनों को गोष्ठियां जोड़-जोड़कर और स्वाध्याय शैलियों में बैठ-बैठकर भी विस्तृत किया था। वे साधर्मीजनोंको गोष्ठीको जीवन सुधार की दिशा में बहुत बड़ी नियामत समझते थे। यह बात उन्होंने अपने एक पद में व्यक्त भी की है। वे लिखते है
सत्योपवेश-छहढाला एक समालोचन
धन धन साधर्मीजन मिलनकी घरी । बरसत भ्रम-ताप हरन ज्ञान-धन भरी। जाके बिन पाये भव विपति प्रति भरी । निज पर हित अहित की काढून सुधपरी कविवर कोरे तुक्कड़ कवि न होकर एक प्रतिभा शाली कवि थे, उनकी रचनाएँ जो उपलब्ध हैं; सबकी सब चुनी हुई, पद लालित्य के साथ-साथ अयं गाम्भीर्य पूर्ण है और वे जिनेन्द्र शास्त्र, गुरु, बहुर अनासक्ति की प्रधानता को लिए हुए हैं। इनके पदों में वर्णनीय विषय की प्रतिस्पष्टता के साथ अनुप्रासों की छटा और शब्दों की उचितार्थ में प्रयुक्ति पाठक के मनको लुभाने वाली है।
काव्य मधुरिमाका रसास्वाद थोड़े में कीजिए - राग रेखता
चित चितिकै विदेश कब अशेष पर ब दुखदा अपार विधि दुचार की चमू दमूं । टेक | तजि पुण्य पाप थापि श्राप आप में रखूं, कद राग-भाग शर्म या दाघिनी धर्म ॥१॥ दृग ज्ञान भान तें मिथ्या प्रज्ञान तम दमूं, कव सजीव प्राणि भूत सरसों छमूं ॥२॥ मल जल्ल लिप्त-कल सुकल सुबल्ल परिणमूं, दलके त्रिशल्ल मल्ल कब अटल्ल पद पमं ॥३॥
ἐπ
कब घ्याय अज अमर को फिर न भव-विपिन भर्मू, जिन पूर कोल दौलको यह हेतु हौं नमूं ॥४॥ पिछली दो रचनाओं का समन्वय
कवि दौलतराम जी ने 'कौ सत्य उपदेश यह ललि बुधजन की भाव पद के द्वारा अपनी रचना 'तत्त्वोपदेश' बुध की रचना का उपजीवी होना स्वीकार किया है। इन दोनों छहढालाओं का तुलनात्मक विवरण देना कि न होगा।
श्रत
यहां
विवरण इस प्रकार है
बुधजन की छहढाला
ढाल पद्य विषय
१,
१३ द्वादशानुप्रेक्षा
२, ७ संसार के चतुर्गति दुल
३, ११ भेदविज्ञान सम्यक्त्व
४, १३ सम्यक्त्व के पच्चीस दोष ५, १० श्रावकाचार
६. १० मुनिवर्या तत्त्वोपदेश छहढाला
१ प्रादिमंगल दोहा
२,
१५ द्वादशानुप्रेक्षा
१. १. संसार के चनुति दुख
३,
१७ निश्चयव्यवहार रत्नत्रय श्रौर
व्यवहार सम्यक्त्वका विस्तृत वर्णन ।
४,
६ अन्त्य के पद्यों में श्रावकाचार ६, १५ मुनिचर्या
तत्वोपदेश में विशेष बन
२, १५ मिथ्यामार्ग के प्रगृहीत गृहीत भेद
४,
८ प्राद्य छंदों में सम्यग्ज्ञान का वर्णन ३ पद्य प्राद्यन्त दोहादि रूप
छहढाला के छंद
इस प्रकार कविवर ने इस ग्रंथ में प्रत्यन्त संक्षेप में विषय को गुम्फन किया है । इसकी पद्य संख्या, कुल ६५ है । इसकी छालों में चौपाई, पद्धतिका वा पद्धतीचंद, नरेन्द्र
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छंद या' चाल जोगीरासो, रोडक या रोला पाइता कहा रच्यो पर-पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै। और गीतिका ये मुख्य छंद हैं।
अब "दौल" होहु सुखी स्वपद रचि दाव मत चूको यहै ॥ तत्त्वोपदेश की विशेषता
कविवर के इस शिक्षा वाक्य को हमेशा ही गुनगुनाते कविवर ने तत्वोपदेश में प्राचीन सूक्तियों को किस रहना चाहिए । कवि ने इसमें अपना हृदय उड़ेल दिया है। प्रकार प्रात्मसात् किया है, उन्हें कितने अच्छे ढंग से यदि प्रातःकाल ही स्वस्थ मन होकर एकान्त स्थान में अपना लिया है यह देखिये
स्वर साधना पूर्वक गीति में इस ग्रन्थ का पाठ किया जाय दुःखादिभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । मोर चितन किया जाय तो स्वानुभूति का वचनातीत दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवाऽनुमतमेव ॥ मानन्द मिलता है। हमें मनुष्य भव पाकर ऐसे ग्रन्थों के
आत्मानुशासन (गुणभद्र भदंत कृत २ रा पद्य) सहारे से जीवन को सफल बनाना चाहिये । जे त्रिभुवन में जीव अनन्त सुख चाहे दुखतै भयवन्त ।
छहढाला का व्यापक प्रचार तातै-दुख हारी सुखकार कह सीख गुरु करुणाधार ॥ छहढाला १ली ढाल १ पद्य
कुछ वर्षों पहले तत्त्वार्थसूत्र-भक्तामर स्तोत्र का पंचमहन्वयजुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिया णिच्चं ।
दैनिक पाठ के रूप में जैसा दि० समाज में प्रचार था, णिज्जियसयलपमाया उक्किद्रा अंतरा होंति ॥१८५।।
वर्तमान में उससे भी ज्यादा प्रचार छहढाला का है। क्या सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होति ।
गृहस्थ श्रावक और क्या त्यागीवर्ग सभी के पठन मनन अविरयसम्माइद्री होति जहण्णा जिणिदपयभत्ता १६६ का विषय बना हुमा है। खासकर समाज के सभी परी.
-स्वामि कार्तिकेयाऽनुप्रेक्षा क्षालयों द्वारा पठन-क्रम (कोर्स) में निहित होने के कारण उत्तम, मध्यम, जघन्य विविध हैं अन्तर पातय ज्ञानी । प्रतिवर्ष शिक्षालयों में इसकी अनिवार्य शिक्षा चालू है। द्विविध संगविन सुद्धपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी॥ काठियावाड़ में संत श्री कहानजी स्वामी के यहाँ भी इस मव्यम अन्तर प्रातम है जे देशव्रती अनगारी। ग्रंथ का व्यापक प्रचार है। जघन कहे अविरत समदृष्टी तीनों शिव-मगचारी ॥
विशिष्ट संस्करण छहढाला ३ रीढाल, ४५ पद्य
अब तक इस ग्रंथ पर हिन्दी गुजराती भाषा में अनेक लेखवृद्धि के भय से ये दो ही. उदाहरण सूचना के
टीका, अनुवाद विवेचन, प्रादि को लिये हुए कई लिये यहाँ लिखे हैं । यह समूचा ग्रन्थ प्राध्यात्मिक संत जैन
संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अभी अभी 'सिंघई बन्धु' ऋषियों के प्रवचन-सागर का मन्थन करके उढ़त किया
देवरी (सागर) द्वारा इस ग्रंथ का चित्रमय विशिष्ट गया है और ममृत जैसा सुख कारक है। यह भौतिकवाद
संस्करण प्रकाश में लाया गया है। इस संस्करण की के युग में गुजरते हुए माज के विषयाभिमुखी पामर प्राणी
विशेषता इस प्रकार हैके लिये परम शांति को प्रदान करने वाला है। प्रतएव
ग्रंथ के प्रायः प्रत्येक पद्य के साथ कल्पित चित्र की श्री विनोबा जी जैसे राष्ट्र के सन्तों द्वारा अभिनन्दित हुपा
तहमा योजना हुई है। जिससे बालकों को और सर्वसाधारण को है । इसकी यह मन्तिम शिक्षा सुषुप्त मानव के उद्बोधन के
ग्रंथ का भाव समझने में बड़ी सहूलियत हो गई है। ग्रंथ लिये पर्याप्त है। देखिये
की संकलन शैली में मूलपाठ, चित्र, कठिन शब्दार्थ, अर्थ यह राग भाग दहै सदा तातें समामृत सेहये।
पौर भावार्य यह क्रम बरता गया है। ढालों के अन्त में चिरभजे विषयकषाय, प्रवतो त्यागि निज-पद बेइये॥
विद्यार्थियों और स्वाध्याय प्रेमियों के लिए कई उपयोगी १.० जिनदास की अप्रकाशित सुप्रसिद्ध रचना निर्देशन तथा विशेष अर्थ भी जोड़े गये हैं। परिशिष्ट 'क' 'जोगीरासों' इसी छंद में निबद्ध हुई है प्रतः दि. जैनों में में कुछ जैन पारिभाषिक शब्दोंका सुबोध लक्षणसंग्रह दिया इस छंद का नाम 'चाल जोगीरासो' माजरूढ़ हो गया है। गया है
नगारा।
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किरण २
छहढाला के पाठ भेब
जब किसी भाषा ग्रंथ का अधिक प्रचार होता है तो उसके पाठों में कुछ तबदीलियां घाजानी स्वाभाविक हैं। तत्त्वोपदेश छहढाला में कुछ तब्दीलियां भागई हैं, वे स्वयं कविकृत नहीं हैं, प्रपितु लेखकों और पाठकों की समझ का प्रतिफल जान पड़ती हैं। संस्कृत भाषा में तो अपने व्याकरण सम्बन्धी कठोर नियमों के कारण अशुद्धियां फौरन पकड़ में था जाती है। हिन्दी भाषा में विविध प्रान्तीय बोलियों का प्रभाव होने के कारण देश भेद से प्रतियों के पाठ भेद प्रायः बन जाते हैं । यहाँ में तत्वोपदेश के कुछ पाठांतरों की तालिका एक प्राचीन लिखित प्रतिके प्राधार से संकलित करके विद्वानों की जानकारी के लिए दे रहा है।
तालिका में क ख ग घ ये संकेत पद्यके प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पाद (चरण) के सम्बन्ध में समझना चाहिये । पहला पाठ प्रचलित है। दूसरा पाठ सुधार के लिए है । ढाल १ ली पद्य, दस ग, मेहसमान = मेरुप्रमाण, ढाल २ री पद्य १ घ, कहूँ = करूं, ८ घ, जेह = एह, ६ क, जे = जो, १३. एकान्तवाद दूषित एकान्ति बात दूषित १३ कपिलादि रचित और कुमतिन विरचित भुतको अभ्यास ये दो पाठ = रागी कुमतिन कृत श्रुत अभ्यास ढाल ३ री
-
तस्योपदेश-डाला एक समालोचन
ढाल ५ वीं
१ गन्ध माई चिन्ती = माही चितवी, क, चपलाई = चलताई, ११ ग, खिपावे = नसावे १२ क, करौ = करें १४ ग सो ते १५ ग सुनिये सुनि ढाल ६ वीं
=
...
डरत
=
-
१ ग, मृण तृण, ४ ख, मृग गण = मृग गणि, ६ ख, टरत ६ घ, तीनघा = तीन भी १० ग, तसु फलनिर्त कर्म फल १० प पुनि कलनितं पुष्य कलते, १२ क, बसे बसे १२ ख, विनर्स लर्स: = विनसेलसे । अब स्व. बाबू ज्ञानचंद जंन नाहौर द्वारा सुझाये गये पाठान्तर दिये जाते हैं वे इस प्रकार हैं ।
=
=
ढाल एक पद्य ६ ख उसे नहि तिसो उसे तन तिसो ढाल २-पद्य १४ ख धरि करन विविधविध = घरिकरत विविध विधि,
EX
ढाल ४—पद्यख फिर थाई थिर नाही, ढाल ५ - पद्य ४ क खगाधिप खगादिक, पद्य ११ घ सोई सिव सुख दरसावे सोही जिय सिवसुख पावे
इस प्रकार मैंने इस ग्रंथ का शब्द और अर्थ की दृष्टि से शुद्ध प्रचार हो; अत: यह प्रयास किया है । विद्वद्गण इस पर अपना अभिमत प्रकट करें। तत्त्वोपदेश छहढाला की अधिक प्रसिद्धि को देखकर कुछ गज्जनों ने इसी का रूपान्तर लिख डाला
१क, मुसो ५ क मागारी अनगारी, ६ च ५क, चलत, ग, शम - सम,
नित = निज, ७ ग, चलन
है।
११ दिन १२, शंका न पारिन धारि में आये हैं, परन्तु उनमें न
ग, अब,
=
१६ क, पंढ नारी = सब नारी
ढाल ४ थी
५ घ, इह विधि गये। यह विधि गई, ७ क, जे जो ११ ग, काहूकी किसी निकाह के किसू बीतं ।
ऐसे दो रूपान्तर मेरे देखने तो छन्ददोष की परवाह गई है और है और न जैन न जैन सिद्धान्त की मान्यता का ही ख्याल रक्खा गया है; ऐसी प्रवृत्ति सच मुच अवाञ्छनीय है । अन्त में बहुश्रुत विद्वानोंसे निवेदन है कि तत्वोपदेश के पद्यों के साथ तुलनात्मक प्राचीन ग्रंथों के वाक्यों की योजना करके और पाठान्तर में से समुचित पाठ अपनाकर एक सर्वोपयोगी विशिष्ट संस्करण तैयार करें, और इस तरह श्रुतसेवा का परिचय दें । भलं बहु श्रुतेसु
१. श्री क्षुल्लक श्रद्धेय पं० सिद्धसागर जी की प्रेरणा से कन्हैयालाल जी चौधरी टोडा रायसिंह द्वाराप्रेषित जीर्ण पत्रों में से संकलित प्रति पर से उद्धृत कुछ पाठान्तर श्री सोनागिर क्षेत्र की कमेटी के मुनीमजी के दफ्तर से प्राप्त खरड़े पर से भी लिये गये है।
=
103+
भाज से ५३ वर्ष पूर्व लाहौर से प्रकाशित मूल छहढाला पर से उद्धृत ।
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साहित्य-समीक्षा
राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की प्रन्य-सूची, परिशिष्ट चार शीर्षकों में विभक्त है-ग्रन्थानुक्रमणिका चतुर्थ भाग
ग्रंय एवं ग्रंथकार, शासकों की नामावली, ग्राम एवं नगरों
की नामावलि । सूची के अध्येता इनके सहारे ही सूची में सम्पादक - डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए०,
अन्तनिहित अभीष्ट तथ्यों को अल्प समय में ही प्राप्त कर पी० एच०डी०, शास्त्री, पं० अनूपचन्द न्यायतीर्थ, साहित्य
सकते हैं। रत्न, भूमिका लेखक-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, अध्यक्ष
राजस्थान में लगभग २०० ग्रंथभण्डार और २ लाख हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी,
ग्रंथ हैं । इससे वहां के जैनों का ग्रंथ प्रेम स्पष्ट ही है । प्रकाशक-केशरलाल बख्शी, मन्त्री-प्रबन्धकारिणी
र इन ग्रन्य भण्डारों में बैठ कर ही अनेक साधुओं और कमेटी, श्री दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र, श्री महावीर जी, बटालों ने साहित्य निर्माण का कार्य किया है। महावीर भवन जयपुर, पृष्ठ-६४३, मूल्य १५ रुपये।
यदि उनकी सब सामग्री प्रकाश में पा जाय तो इतिहास इसके पूर्व तीन भाग महावीर भवन, जयपुर से ही बदलना पड़े। पुरातत्व में राजामों और सामन्तों के द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। विद्वत्समाज में उनकी प्रशंसा हुई है लिखाई असत्य बातों का भण्डाफोड़ हो और साहित्य तथा और अनुसन्धित्सुमों ने पर्याप्त लाभ उठाया है। तीन भागों दर्शन में अनेक नये अध्याय जोड़ने पड़ें। यह सत्य है कि के अनुभव से इस भाग को निर्दोष बनाने में सहायता मिली महावीर भवन ने जो कदम उठाया है, वह पावनता के साथ
साथ भारतीय संस्कृति के लिए भी महत्वपूर्ण है। __इसके प्रारम्भ में प्रकाशकीय वक्तव्य के उपरान्त पिछली सूचियों की अपेक्षा इसमें विशेषता है कि काशी विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध विद्वान् डा. वासुदेवशरण सभी अज्ञात और नवीन ग्रन्थों की पूरी प्रशस्तियां दी गई अग्रवाल की लिखी हुई भूमिका है। उसमें उन्होंने शोध- हैं। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है गुटकों का परिचय । संस्थान, महावीर भवन की ऐसे प्रयासों के लिए मुक्त कंठ अज्ञात कवियों को मौलिक कृतियां इन्हीं गुटकों में संकसे प्रशंसा की है। प्रस्तावना स्वयं डा० कसूरचन्द कासली. लित मिली हैं-विशेषतया हिन्दी का पद-साहित्य और बाल ने लिखी है। उसमें जयपुर के १२ जैन ग्रंथ भण्डारों अपभ्रंश का गीतिकाव्य । प्रारम्भ में ये गटके जैन व्यक्ति का परिचय है, जिनके दस सहस्र हस्त लिखित ग्रंथों को के दैनिक धार्मिक जीवन के प्रतीक थे । अर्थात् एक धार्मिक इस सूची में स्थान मिला है। भण्डारों के परिचय में प्राचीन- जन प्रात. उठकर जिन स्तोत्र, पद आदि को पड़ना आव. ग्रंथों की प्राचीन प्रतियाँ और नवीन ग्रन्थों की सूचना श्यक समझता था, उन्हें संकलित कर लेता था । मध्यकाल अनुसन्धित्सुओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है । तदुपरान्त के अंतिम खेवे तक आते आते वह धर्मनिष्ठ व्यक्ति इन ही ४२ प्राचीन एवं प्रज्ञात रचनाओं का परिचय दिया गटकों में प्रायुर्वेद के नुस्खे, ज्योतिप से सम्बन्धित गणितगया है।
कुण्डलियां, मुस्लिम बादशानों नवाबो के राज्य में व्यापारी मूल सूची २६ विषयों में विभक्त है। सहस्रोंप्रन्थों का वर्ग की दशा, तीर्थयात्रा विवरण मादि अनेक साधारण यह वर्गीकरण परिश्रम साध्य था, जो बिना संलग्नता के जीवन से गथी बातें भी लिखने लगा। प्रत. ये नबीन सम्भव नहीं होता । प्रत्येक ग्रंथ का नाम, ग्रंथ कर्ता का नाम, साहित्य के संकलन की दृष्टि से ही नहीं, अपितु भारतीय ग्रंथ की भाषा, लेखन की तिथि, ग्रंथ पूर्ण है या अपूर्ण ।
संस्कृति के सही दर्शन के रूप में भी उपयोगी है। इनके इत्यादि सूचनायें सम्पादकों के धैर्य और कार्यक्षमता की
अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति पर की गई शोध अधूरी द्योतक हैं।
ही रह जायेगी।
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किरण २
साहित्य-समीक्षा
भण्डारों और उनमें पड़ी सामग्री में रसमयता हो सुरुचि और शालीनता का चित्र अंकित हो जाता है। यह सकती है, किन्तु उनकी सूची बनाने का काम रूक्षतम है, ही उसकी विशेषता है। कहीं रस के 'कण बराबर' भी दर्शन नहीं होते। उसे सम्पन्न
मेरी दृष्टि में महावीर जयन्ती के अवसर पर अब करने के लिए धैर्य और साहस की आवश्यकता है। डा० तक निकलने वाले सभी विशेषांकों में यह उत्तम है। कस्तूरचन्द कासलीवाल और श्री अनूपचन्द जैन महावीर राजस्थान जनसभा जयपूर अपनी इस परम्परा को कायम भवन में केवल पार्ट टाइम काम करते हैं। उन्हें अपने रक्खेगी, ऐसी मुझे प्राशा है। ममय का दीर्य अंश राजस्थान गवर्नमेंट के एकाउन्ट डिपार्टमेंट में लगाना होता है । फिर भी उनकी रचि और
छहढाला संलग्नता से यह कार्य पूरा हुआ है। यद्यपि उन्हें महावीर लेखक-पं० प्रबर दौलतराम जी, अनुवादक-श्री भवन से पैसे का प्राधार भी मिला है, किन्तु वह न कुछ के नेमीचन्द पटोरिया, सम्पादक-श्री नुपेन्द्रकुमार जैन, बराबर है। यह सच है कि ऐसे काम पैसे के बल पर नहीं, प्रकाशक-सिंघईबन्धू, देवरी (सागर) म०प्र०, पृ० १२७ अपितु कार्यकर्ताओं की लगन पर निर्भर करते हैं। दोनों मूल्य-एक रुपया। ही सम्पादक धन्यवाद के पात्र हैं। वे अवशिष्ट भण्डारो
छहढाला पण्डितप्रवर दौलतराम जी की प्रसिद्ध कृति का काम भी इसी लगन से पूरा कर सकें, ऐसी हमारी
है। पं. दौलतराम नाम के दो कवि हुए हैं। एक वह थे, कामना है।
जिन्होंने 'अध्यात्म बारहखड़ी' का निर्माण किया था। महावीर जयन्ती स्मारिका
उनका समय वि० सं० १७६७ माना जाता है । छहढाला के
निर्माता पं० दौलतराम सासनी (मलीगढ़) के रहने वाले सम्पादक-५० चैनसुखदास न्यायतीर्थ, प्रकाशक
थे । उनका जन्म वि० सं० १८५५ में और मृत्यु वि० सं० श्री रतनलाल छाबड़ा, मन्त्री, राजस्थान जैन समा, जयपुर
१९२३ में हुई थी। उनके बनाए हुए अनेक पद भी प्राप्त पृष्ठ संख्या-२५३, मूल्य--२ रुपया।
हुए हैं। उनकी माय कृतियाँ भी होंगी। शायद भण्डारों विगत महावीर जयन्ती के अवसर पर इस 'स्मारिका' की शोध खोज में उपलब्ध हो सकें। उनके भावों में भक्तिका प्रकाशन हुमा था। यह एक प्रकार का 'विशेषांक' विभोरता है तो भाषा में प्रसादगुण । दोनों के ममन्वय है। इसमें मंगलपाठ के अतिरिक्त ५७ निबन्ध और हैं। ने उन्हें ग्राकर्षण का केन्द्र बना दिया है। सभी शोध परक हैं और मान्य विद्वानों के द्वारा लिखे गये हैं । यदि हम प्रत्येक निबन्ध को एक उच्चकोटि का 'रिमर्च
छहढाला मे छह ढाले (तर्जे) है। तर्ज का अर्थ है पेपर' कहे तो अत्युक्ति न होगी।
दुग, अर्थ त् छन्द । उनमें चौपाई, पद्धड़ी, नरेन्द्र, रोला,
छन्दचाल और हरिगीता का प्रयोग हमा है। इनमें संगीत निबन्धों के संकलन में त परता और योग्यता से काम की लय भी है। संगीत ने काव्य को अधिक रसात्मक बना लिया गया है। जैन और अजन दोनों ही विद्वानों के जन दिया है। यह ही कारण है कि ग्राम भी जनों के घर घर विषयों पर गंभीर लेख पाठकों को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। में पण्डित दौलतराम के छहढाला की प्रतिष्ठा है। जैन
जहा तक सम्पादन का सम्बन्ध है पं० चनसुखदास बालक बचपन से ही उसे कण्ठस्थ कर लेता है। एक ख्यातिप्राप्त विद्वान और सम्पादक है। वे वर्षों से अब तक छहढाला के पचासों संस्करण विविध 'वीरवाणी' के सम्पादन में निरत है । उनकी उदारता और प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो चुके हैं । प्रस्तुत मंस्करण निर्भयता प्रसिद्ध है। प्रत्येक निबन्ध के प्रारम्भ में दिया श्री नृपेन्द्रकुमार जैन के सम्पादन में निकला है। इसकी हुमा उसका मारांश माधुनिक सम्पादन-कला का द्योतक सबसे बड़ी विशेषता है-प्रत्येक पद्य के भाव को प्रद्योतित है। पूरी पत्रिका को पढ़ने के उपरात पाठक के हृदय पर करने वाले चित्र का सन्निवेश । चित्र भाव का सही प्रतीक
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६८
अनेकान्त
वर्ष १५ .
है। मनेक भाव सूक्ष्म हैं, उनका चित्रातून प्रासान नहीं अपना मूल्य था । लेखक ने मष्ट किया है कि निमित्त के था। सब कुछ लगन और परिश्रम से सम्पन्न हो सका है। न मानने से सम्यक्चारित्र का निरास हो जाता है, जिसके इन चित्रों की सहायता से बालक छहढाला के अर्थ को प्रभाव में केवल सम्यवस्व धारण करने पर भी यह जीव प्रासानी.से हृदयङ्गम कर सकेंगे। बाल-मस्तिष्क पर मोक्ष नहीं पा सकता। इसके अतिरिक्त एक मात्र निश्चय चित्रशैली से प्रति किया हुआ पद्य का भाव अमिट हो को ही माननेवाले एकांतपक्ष के दोष से दूषित माने जायेंगे । जाता है। अतः मैं इस कार्य की सराहना करता हूँ।
मैं इस पुस्तक की दो दृष्टियों से प्रशंसा करता हूँ - अनुवाद भी पासान है, उससे शब्दार्य और भावार्थ दोनों स्पष्ट हो जाते है। अन्त में परिशिष्ट 'क' के अन्तर्गत
पहली तो इसलिए कि कहानजी स्वामी के मत की समीक्षा लक्षणात्मक शब्दों का मतलब भी बुभिगम्य है।
होते हुए भी न तो उनके प्रति श्रद्धा भाव में कमी आई है तात्त्विक विचार
और न शैली में कटुता या रोष की अभिव्यक्ति है । इसके लेखक-पं० प्रजितकुमार शास्त्री, प्रकाशक-श्रीकृष्ण
विपरीत लेखक का यह पूर्ण विश्वास है कि अभी तक श्री जैन, मंत्री-श्री शास्त्र स्वाध्यायशाला, श्री दिगम्बर जैन
कहानगी स्वामी के सामने इस प्रकार के विचार सुसयोजित पार्श्वनाथ मन्दिर, दिल्ली, पृष्ठ-११२, मूल्य-चार पाने।
रूप में रक्खे ही नहीं गये, अन्यथा वे इतने उदार हैं कि प्रस्तुत पुस्तक में जैन धर्म से सम्बद्ध ७० विषयों पर अपनी मान्यता में अवश्य ही सुधार कर लेते। लिखा गया है । विशेषता यह है कि 'पावश्यक उदाहरण दूसरी इसलिए कि गम्भीर और सूक्ष्म विषयों का प्रति प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रथों से ही संकलित करके रक्खे गए पादन इतने पासान ढंग से किया गया है कि प्रत्येक की हैं। ऐसा करने में लेखक की दृष्टि से कहानजी स्वामी के समझ में आ जाता है । भाषा प्रासान है और शैली में भी समक्ष यह स्पष्ट करना रहा है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दुरूहता नहीं है। यदि गम्भीर और सूक्ष्म विषयों का निश्चय और व्यवहार नयों में केवल निश्चय को ही नहीं, आमान और स्पष्ट विश्लेषण विद्वत्ता है, तो 'तात्त्विक अपितु व्यवहार को भी तथा उपादान और निमित्त में विचार' का लेखक अवश्य ही इस परिधि में आ जाता है। केवल उपादान को ही नहीं, अपितु निमित्त को भी महत्ता इससे पुस्तक की उपादेयता भी सिद्ध ही है। दी। उसके अनुसार प्रपेक्ष कृत दृष्टियों से दोनों का अपना
-प्रेमसागर जन
पद
ज्ञान हिंडोला बैठिक झूल चेतनराय ॥ टेक ॥ जिन वृष बाग सुहावनी, जप तप व्रत तरु सार । तत्त्व सुरुचि साया झुकी, जुग नय डोरी डारि ॥ १॥ सुध पान पटली विष, सुमति नारि संग पाय। अजफा गीत सुगावही भविजन को सुषदाय ॥२॥ सरधा सषी सु झुलावही सिवरमणी ललचाय। सघन घटा विग्यान की छाई चहूँ दिसि ध्याय ॥ ३ ॥ जिन धुन घन गरजन लगे समरस जल बरसाय । कर्म सकल मल धोय के लहसुष 'मुन्दर' गाय ॥४॥
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प्रिय भाई छोटेलालजी,
छा छौरालाल जैन का एक पत्र
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सादर सस्नेह जय जिनेन्द्र |
प्राज कोई ४-५ वर्षों के पश्चात् 'अनेकान्त' पत्रिका के दर्शन पाकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है। वीर-सेवा-मन्दिर के सम्बन्ध में जो विरोध व अव्यवस्था के समाचार देखने सुनने को मिल रहे थे, उनसे तो यह प्राणा भी नहीं रही थी कि इस उपयोगी पत्रिका के अभी पुनः दर्शन हो सकेंगे । आप इस पत्रिका को तथा संस्था को जीवित रखने और पुष्ट बनाने का जो प्रयास व त्याग सदैव करते आये हैं, उसके बल पर एक आशा की किरण तो अवश्य थी । किन्तु आपके स्वास्थ्य को देखते हुए वह आशा की किरण भी विस्तृत अधकार में विलीन मी हो रही थी। ऐसी परि
स्थिति में जो प्रापने पत्रिका को पुनः जीवन प्रदान करने का माहस व संकल्प किया, उसके लिये आपके धौर श्री प्रेमचन्दजी के प्रदम्य उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। इस अंक में प्रस्तुत सामग्री भी पत्रिका की पूर्व प्रतिष्ठा के अनुकूल है। डा० प्रादिनाथजी उपाध्ये जैसे अनुभवी और प्रख्यात विख्यान का पत्रिका के सम्पादकों में नाम देखकर भविष्य के लिये बड़ी आशा बंध रही है । मुझे भरोसा है कि आप अब ऐसी योजना बनाने में सफल होंगे जिससे संस्था और उसकी वह पत्रिका आगे जैन माहित्य व शोध-खोज के महत्वपूर्ण कार्य मे विभिन्न रूप से क्रियाशील रह सके ।
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवनदास जी मरावगी, कलकत्ता ५०० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता ५००) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रॉबी २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पापा), कलकत्ता २२१) श्री म०मि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी २५०) श्री वंशीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन कनकता २५०) श्री सिंघई कु दनलाल जी, कटनी, २२०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी० प्रा० मी० जैन, कलकत्ता
आपका
हीरालाल जंग, जबलपुर
वीर सेवा मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
२५०) श्री रामस्वरूप जी नेनिचन्द, कलकत्ता २५० ) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी मरावगी, कलकत्ता १५०) श्री कस्तूरचन्द जी आनन्दीलाल, कलकत्ता १५०) श्री कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) श्री प० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५० ) श्री मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री प्रतापमल जी मदनलाल जी पांड्या, कलकत्ता १५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता १५०) श्री शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता १२०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ, कलकत्ता १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकता १००) श्री बद्रीप्रसाद जी आत्माराम, पटना
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अनेकान्त पर अभिमत
शुरू से ही यह पत्र पुरातत्त्व की खोज का मान्य पत्र था। उसका सुचारु रूप से चालू रखना निहायत जरूरी है। पाप तो बराबर तन, मन, धन मे महायता करते आये हैं तथा अब भी इसकी मार्थिक स्थिति सुधारने का प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है, आप इसमें अवश्य सफलीभूत होंगे ।
नयमल सेठी, कलकत्ता अंक की छपाई, गेट अप, मुरु पृष्ठ का रंग चित्र बहुत सुन्दर है। 'अनेकान्त' सिद्धान्त को प्रकट कर विश्व को अपने कल्याण का मार्ग बतावे एवं अपने ममाज के सामने ग्वोज-ग्वोज कर उनकी अपनी प्राचीन गौरव-गाथा को प्रकाश में लावें।
मानमल कासलीवाल, इन्दौर
अनेकान्त का प्रथम अंक मिला। अंक सुन्दर एवं खोजपूर्ण लेग्यो मे परिपूर्ण है। एक लम्बे समय में जैन समाज मे एक ग्वोजपूर्ण मामग्री युक्त पत्र का जो अभाव म्बटक रहा था, प्राशा है वह अभाव अब 'अनेकान्न' के प्रकाशन से दूर हो सकेगा।
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर __अंक सुन्दर निकला है, मामग्री पठनीय है, इम गमय शोध-पत्र की महती आवश्यकता है, आपने इम पत्र को पुनरुज्जीवन देकर समाज का बहुत बड़ा कार्य किया है।
डा० नेमिचन्द जैन ज्योतिषाचार्य, पारा
दीर्घकाल के उपगत फिर 'अनेकान्त' के दर्शन में बडी प्रसन्नता हुई । लेखों का चयन सुन्दर हुआ है, माय ही छपाई, मफाई अादि भी । मुखपृष्ठ पर दिया हा चित्र आकर्षक ही नहीं, वह पत्र के नाम को स्पष्ट बतला
के. भुजबली शास्त्री सम्पादक 'गुरुदेव'
प्रकाशन भी बहुत सुन्दर हुअा है, सम्पादक भी योग्य है। प्राशा है अब यह सतत निकलता ही रहेगा। अनुसन्धान की दृष्टि मे बहुत उपयोगी पत्र है ।
नेमिचन्द्र जैन, सहारनपुर
अनेकान्त पत्र की प्रति मिली, वास्तव में अंक मे लेख अादि एवं छपाई पढ़ने योग्य और सुन्दर है, मैं स्वागत करता हूँ । भविष्य मे यह पत्रिका अपने उद्देश्य में सफल हो, ऐमी कामना करता हूँ।
मटरूमल बैनाडा अागरा मने तो कई बार लोगों से जिकर किया है कि अनेकान्त जैमा पत्र प्रकाशित होना ही चाहिये, आज पुनः इसे प्रकाशित होते देखकर हृदय में जो सन्तोप प्रकट हा है उमे मैं लिख नहीं सकता हूँ। प्रवागक, व्यवस्थापक तथा सहायक महानुभाव निसन्देह धन्यवाद के पात्र हैं।
कामताप्रसाद शास्त्री, काव्यतीर्य
डोंगरगढ़ (दुर्ग) म०प्र०
प्रकाशक-प्रेमचन्द, वीर मेवा मन्दिर के लिए नया हिन्दुस्तान प्रेम, दिल्ली में मुद्रित
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अगस्त १९६२ * मासिक
Bীকাল
सत्साहित्य का निर्माण उन्हीं व्यक्तियों धारा संभव है, जिन्होंने अपने जीवन को संयम और साधना से पवित्र कर लिया है।
सम्पायक-मण्डल ० प्रा० ने० उपाध्ये श्री रतनलाल कटारिया म० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मंदिर) का मुरवपत्र
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உ
विषय-सूची
अनेकान्त के स्तम्भ
विषय
ற்ற
महद्भक्ति नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के मूर्ति लेख
-परमानन्द शास्त्री १०० तिरुपरुट्टिकुनरम् (जिन-काञ्ची)
-श्री टी० एन० रामचन्द्रन १०१ भ० महावीर और उनका जीवन दर्शन
-डा० ए०एन० उपाध्ये १०४ पवित्र पतितात्मा (कहानी) श्री सत्याश्रय भारती ११५ कवित्त - रूपचन्द्र नगर खेट, कर्वट, मटम्ब और पत्तन प्रादि की परिभाषा
--डा० दशरथ शर्मा तीन विलक्षण जिनबिम्ब -श्री'नीरज' जैन १ जैन अपभ्रंश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव -डा० प्रेमसागर जैन मंगलोत्तमशरण पाठ-रतनलाल कटारिया पद
-जग जीवन काष्ठासंघ लाट बागड़ गण की गुर्वावली --परमानन्द शास्त्री
१३४ मादिकाल की चर्चरी मंज्ञक रचनाओं की परम्परा का उद्भव और विकास -डा. हरीश १४३ साहित्य समीक्षा अनेकान्त पर अभिमत
.ऐतिहासिक महापुरुष
स्तम्भ में तीर्थकर, प्राचार्य, त्यागी, भक्तजन, राजा, मंत्री, शूरवीर, धर्मवीर, कर्मवीर, दानवीर और
ग्रन्थकारों के परिचय रहेंगे। २. अनुसन्धान और सिद्धान्त
इतिहास और साहित्य सम्बन्धी शोध- खोज के और
मैद्धान्तिक लेख रहेंगे। ३. गौरव-गाथा
जैन पूर्वजों के द्वारा की गई लोकसेवा और गौरव
गाथा के लेख रहेगे। ४. तीर्य, मन्दिर और गुफा
प्राचीन जैन तीर्थों, मंदिरों, गुफाओं और मूर्तियों आदि
के परिचय दिये जायंगे। ५. कथा-कहानी
सुरुचि और भावपूर्ण पौराणिक, ऐतिहासिक तथा मौलिक कहानियां रहेंगी। नारी समुत्थान स्त्रियों को ऊँचा उठाने और कर्तव्यनिष्ठ बनाने वाले
लेख रहेगे। ७. सुभाषित मणियां
जीवन - ज्योति जगाने वाली सूक्तियों का संकलन रहेगा।
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ற்கர்மார்கyaththirthp-பால்கற்பா பரதtttttttte
-समालोचना के लिये साहित्य निम्न पते पर भेजे ।
ध्यवस्थापक 'अनेकात' वीर सेवा मंदिर २१, दरियागंज, देहली-६
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त्रैलोक्यनाथ (वर्द्धमान) मन्दिर के भित्तिचित्र-तिरुपत्तिकुनम १ नमि और विनमि का राज्याभिषेक धरणेन्द्र कर रहे हैं । (ऊपर) २ भगवान आदिनाथ चर्या के लिये नगर में आये तब आहार-दान-विधि-ज्ञान से शून्य राजागण उन्हें हाथी, घोड़ा,
वस्त्राभूषण भेंट करने लगे । इसपर भगवान बन को लौट गये । (मध्य भाग में)
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भगवान वर्द्धमान के जन्माभिषेक की सवारी में नृत्य-गानरत देव-देखियो ।
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मोम् पहम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिडजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष १५ ) वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६ । अगस्त किरण, ३ ) श्रावण शुक्ला १२, वीर निर्वाण सं० २४८८, विक्रम सं० २०१६ ( सन् १९६२
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते, हस्तावेजलये कयाधुतिरतः करणोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपरं सेवेशी येन ते, तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥
-स्वामी समन्तभद्राचार्य
अर्थ हे भगवन् ! मेरी श्रद्धा केवल आपके ही मत में है, मैं स्मरण भी आपका ही करता हूँ, पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ भी प्रापको अंजलि बांधने (हाथ जोड़ने) के लिये ही हैं, मेरे कान भी पापकी कथा सुनने में आसक्त हैं, मेरी आँखें केवल आपके रूप को देखती हैं आपके दर्शन करती हैं, मुझे व्यसन आपकी स्तुति करने का ही है-मैं हमेशा आपकी स्तुति में ही लगा रहता हूँ और मेरा मस्तक भी आपको नमस्कार करने में तत्पर रहता है । हे तेजःपते ! हे केवलज्ञानस्वामी ! इस तरह मैं आपकी सेवा करता हूँ इसीलिये संसार में मैं तेजस्वी, सुजन और पुण्यवान् हूँ।
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संयोजक वीर सेवा मन्दिर सं.क.परमानन्द शास्त्री
नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूर्ति-लेख
(वेदी नं• एक बायें से हाई प्रोर)
१. चन्द्रप्रभ, सफेद पाषाण चिन्ह चन्द्रमा, पचासन, साइज ऊंचाई २० इंच प्रासन सहित, चौड़ाई ७ इंच, मासन लम्बाई ६ इंच, चौड़ाई ३३ इंच।
लेख-वीरसंवत् २४४६ वि० सं० १९७६ माघ शुक्ला द्वादशी चन्द्रवासरे कुन्दकुन्दाम्नाये दिल्ली नगरे प्रतिष्ठितम् ।
२. आदिनाथ, सफेद पाषाण, पद्मासन, साइज ऊंचाई २१ इंच आसन सहित । चौड़ाई ८ इंच । चिन्ह वृषभ
लेख-श्री वीर संवत् २४६८ माघ शुक्ला एकादशी बुधवासरे मूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे दिगम्बर कुन्दकुन्दाम्नाये इन्दौर नगरे तिलोकचन्द कल्याणमल तत्पुत्र हीरालाल कृत पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवे प्रतिष्ठाचार्य राजकुमार, मुन्नालाल, भूरालाल प्रतिष्ठा कार्य स्थापितमिदं बिम्बं कल्लाणाय भवतु नूतन धर्मपत्नी स्व. पारसदास जैन दिल्ली।
३. बाहुबली, खड्गासन सफेद पाषाण ऊंचाई २३ इंच, पासन सहित प्रासन ५ इंच, चौड़ाई ६३ इंच ।
लेख-श्री वीर सं० २४८६ वि० सं० २०१६ फागुणमासे प्रतिष्ठाचार्य नन्दलालेन प्रतिष्ठापित, लाला मंगलघर, धर्मपत्नी गुणमाला।
४. भगवान पार्श्वनाथ, सप्तफणी, पाषाण, सफेद, साइज, ऊँचाई ११ इंच, चौड़ाई ५३ इंच, प्रासन २ इंच । पपासन चिन्ह सर्प
लेख-सं० १६४२ वर्षे फागुणमासे शुक्ल पक्षे तिथौ ८ दिने प्रतिष्ठितां, भानुकीर्ति प्राचार्यवर्य लोहाचार्यान्वये प्रतिष्ठिता।
५. पाश्वनाथ, सफेद पाषाण, पद्मासन साइज ऊंचाई १७ इंच, चौड़ाई ७५ इंच, आसन लम्बाई १५ इंच मोटाई प्रासन ४ इंच । चिन्ह सर्प
लेख-श्री वीर निर्वाण सं० २४६६ वि० सं० २००० वंशाखमासे शुभे शुक्लपक्षे पूर्णिमातिथौ बुधबासरे इन्द्रप्रस्थ नगरे मूलंसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाम्नाये प्रतिष्ठापितम् पं० मुन्नालाल जी इत्येतैः प्रतिष्ठाप्य दि० जैन अनाथाश्रम चैत्यालये स्थापितं बिम्बं लोककल्याणं भवतु ।
६. भगवान प्रादिनाथ सफेद पाषाण पपासन, ऊँचाई ३० इन्च, चौड़ाई ११ इन्च, चिन्ह वृषभ, प्रासन लम्बाई २४ इन्च, मोटाई मासन ४ इन्च ।
लेख-प्रों स्वस्ति श्री संवत् १९२३ का मिति द्वि० ज्येष्ठ शुक्ला १० शुक्रवारे काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्कर. गणे लोहाचार्याम्नाये भट्टारक जित् महीचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. जगत्कीतिदेवास्तत्पट्टे म. ललितकीतिदेवास्तत्पट्टे भ० राजेन्द्रकीर्ति देवास्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये बाँसलगोत्रे साधुश्री मोतीलालजित् तत्पुत्र सेवारामजित् तत्पुत्र व्रजपालदासजित् तत्पुत्र जिनवरदासजित् तद्भार्या मिश्रीकुंवरिस्तत्पुत्र भगवानदास मातृस्मरणार्थ अंगरेज बहादुरराज्ये पारामपुरे सकलपंचसहायेन श्री जिनमन्दिर पूर्वक, श्री जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कारापितम् (ता)। क्रमशः
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तिरुपरुट्टिकुनरम् (जिन काञ्ची)
भी टी. एन. रामचनन्
तामिल देश के दिगम्बर जैन चार विद्यास्थानों अथवा अब हम तिरुपट्टिकुनरम् के धार्मिक इतिहास के पतिचतुःसिंहासनों की चर्चा करते हैं; वे थे:-कोल्हापुर, जिन रोचक प्रश्न पर पाते हैं जो उतना ही रोचक एवं अद्भुत काञ्चीपुर, पेनुकोण्डा तथा देहली । मैसूर के जैनों की है जितना कि इसका सांसारिक इतिहास; क्योंकि जिनकी सूची भिन्न है । बगैस (Burgess) ने सुझाव रखा काञ्चीवरम् जैसा स्थान, जोकि जैनों के पवित्र विद्याथा कि दक्षिण अर्काट जिले में वर्तमान चित्तामूर ही स्यात् स्थान में से एक था, अन्यथा नहीं हो सकता। स्थानीय जिन-काञ्चीपुर था, परन्तु स्थानीय परम्परा जो जिन- रीतियों एवम् मन्दिर के भीतर तथा समाधि के स्तम्भों काञ्चीपुरम् के नाम को तिरुपट्टिकुनरम् ग्राम से संबंधित पर के शिलालेखों के अध्ययन से मुनियों की एक व्यवस्थित करती है, तथा प्राचीन काल से काञ्ची की विद्या-स्थान धर्मसत्ता का पता चलता है जिनका इनमें से कुछ लेखों में (घटिका-स्थान) के रूप में उच्च ख्याति एवं अनेक अन्य गुरु एवं शिष्य के रूप में उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है जैन पुस्तकों एवं परम्पराओं में भी काञ्चीपुर का एक कि उनका मुख्य कार्य दिगम्बर जैनधर्म का प्रचार था। विद्या-स्थान के रूप में निर्देश, ऐसे तथ्य हैं जो तिरुपरुट्टि- इनमें से कुछ मुनियों में गहन पाण्डित्य के साथ साथ प्रसाकुनरम् के वर्तमान ग्राम की जिन-काञ्ची से एकरूपता धारण चातरी तथा हिन्दूधर्म जैसे अन्य धर्मों के साथ निर्वाह को प्रमाणित करते हैं। देहली तथा पेनुकोण्डा के मठों का की भावना भी थी, जिससे उन्हें बहुत लाभ हुमा; क्योंकि अब पता नहीं लगता।
उन्होंने अपने धर्म के लिए न केवल देश के राजा का काञ्जीवरम् (काञ्ची) के स्मारक इस तथ्य के साक्षी
संरक्षण ही प्राप्त किया वरन् हिन्दुओं के क्रोध से उसकी
रक्षा भी की। ये मुनि धीरे धीरे धार्मिक प्राधिपत्य के हैं कि नगर बहुत प्राचीन काल से विभिन्न धर्मावलम्बियों
अतिरिक्त, देश में अत्यधिक राजनैतिक प्रभाव भी प्राप्त का गढ़ था । बौद्ध, जैन, शंव तथा वैष्णव, प्रत्येक धर्म का
करने लगे। बारी बारी से इस नगर पर प्राधिपत्य रहा और प्रत्येक ने अपने प्रभाव के निश्चित चिह्न छोड़े । ह्वेनसांग के अनुसार
दक्षिण भारत के साहित्य को जैनों की देन बहुत जो ६४० के लगभग काजीवरम् आया था, काञ्ची इतना
अधिक है जिनमें से अधिकांश लेखक धार्मिक उत्साह से प्राचीन है जितना बुद्ध, बुद्ध ने इसके नागरिकों का धर्म
प्रेरित थे। संगम युग के दो तामिल महाकाव्यों, मणिमेकपरिवर्तन कराया। धर्मपाल बोधिसत्व का वहाँ जन्म हुमा
लाई तथा सिलप्पादिकरम्, से हमें पता लगता है कि जैन और प्रशोक ने इसके समीप कई स्तूप बनवाये ।" भागे
मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभक्त बे; मुनि या तपस्वी चलकर वह लिखता है कि "उसके काल में जैन तो बहु
जैसे कि जिन-काम्बी में थे, और श्रावक अर्थात् जनसंख्यक थे" और बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्म लगभग बराबरी
साधारण । इन उत्साहियों में जो सबसे अधिक विद्यान के थे।"
उन्होंने धर्म के प्रभावशाली प्रचार के हेतु अपने मापको प्रारम्भिक काल में बौद्धधर्म के प्रभाव के साथ साथ भिन्न संघों या मठों या सम्प्रदायों में संगठित कर लिया। ही जैनधर्म का प्रभाव भी विद्यमान था । काम्जीवरम् के प्रत्येक संघ अनेक गणों में विभाजित था और प्रत्येक गण प्रायः प्रत्येक मन्दिर का स्थल पुराण लोगों के इस विश्वास अनेक गच्छों में। संघ चार हैं जो दिगम्बर सम्प्रदाय के की पुष्टि करता है कि "काजीवरम् युगों तक एक बौद्ध विशिष्ट अंग हैं: १. नन्दी २. सेन ३. देव भौर ४. सिंह संध नगर रहा और तत्पश्चात् एक जैन नगर"।
शिलालेखों से पता चलता है कि इन संघों में सबसे अधिक
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बात
महत्वपूर्ण था द्रमिल संघ, जो सम्भवतः वही था जो तिरुपट्टिकुनरम् के निवासियों की स्मृति में केवल मदुरा में स्थापित हुमा था। उसके गणों में नन्दीगण नाम अकलंक से सम्बन्धित परम्परा ताजी है। इससे पहिले के का एक गण दक्षिण भारतीय जैनधर्म के इतिहास में प्रसिद्ध मुनि तथा बाद के तपस्वी प्रायः विस्मृत हो गए हैं। यह था।
बात सहज ही समझने में प्रा जाती है, क्योंकि अकलंक यह अद्भुत बात नहीं है कि तिरुपट्टिकुनरम् में हमें से सम्बन्धित परम्परा, काञ्ची से लगभग १२ मील गुरुमों एवं शिष्यों की व्यवस्थित धर्मसत्ता मिलती है क्योंकि दूर एक जैन ग्राम तिरुप्पनमूर में बनी हुई है जहाँ के सं० ४७, ५४, १०५, १०८ और १४५ के श्रवण बेल्गोल एक मन्दिर में पत्थर के एक विशाल प्रोखल के बारे शिलालेखों से पता चलता है कि इस धर्मसत्ता की पद्धति में मन्दिर के पुजारी बताते हैं कि पराजित विधर्मियों ईसा के ३०० वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य के काल से प्रारम्भ को गिक्षा देने के लिए इसका प्रयोग किया जाता हुई। श्रवणबेल्गोल में, जहां पहले तीर्थकर के पुत्र बाहु- था। इस प्रोखल के सामने मन्दिर के प्रांगन की भीत वली की विशाल मूर्ति है, धर्मदूतों तथा अन्य गुरुओं एवं पर एक नक्काशी है जिसमें एक जैन मुनि को उपदेश शिक्षकों की परम्परा से सम्बन्धित प्रचुर सूचना का होना देने की मुद्रा में दिखाया गया है, इससे उस मुनि का स्वाभाविक ही था। श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों के अनु- प्रचार कार्य प्रदर्शित होता है जिसने चारों ओर लोगों को सार प्रथम गुरु या यतीन्द्र कुन्दकुन्द प्राचार्य थे; तत्पश्चात् यह बताया कि जैनधर्म अन्य सभी धर्मों से उच्च था, तत्त्वार्थ सूत्र के संग्रह कर्ता उमास्वामी, गुघ्रपिच्छ और जैन होने के फलस्वरूप गुणों में बहुत वृद्धि होगी और यदि उनके शिष्य बलाकपिच्छ हुए। उनके पश्चात् ख्यातनामा उनके उपदेश की अवहेलना करके कोई विधर्मी ही बना समन्तभद्र हुए जिनका नाम दिगम्बर जैनधर्म के इतिहास रहेगा तो प्रोखल उसकी बुद्धि में अवश्य परिवर्तन कर देगा। में स्वर्णाक्षरों में अंकित है । परम्परा के अनुसार उनका प्रकलंक के पश्चात् ११६६ ई. तक तिरुपरुटिकुनरम् काल १३८ ई० है।
__ में या उसके आस-पास जो मुनि हुए, उनके सम्बन्ध में उनके दक्षिण भारतीय जैनधर्म तथा संस्कृत साहित्य पर नामों के अतिरिक्त कुछ भी ज्ञात नहीं है। सौभाग्य से लिखने वाले सभी विद्वान् इस बात पर एकमत हैं कि मन्दिर तथा अरुणागिरि के शिलालेख कुछ अन्य मुनियों पर दक्षिण भारत में समन्तभद्र का उद्भव केवल दिगम्बर जैन प्रकाश डालते हैं। उदाहरणार्थ शिलालेख सं० ३ तथा धर्म के वृत्त में ही एक नवयुग का द्योतक नही है वरन् २२' चन्द्रकीति नामक एक गुरु की चर्चा करते है जो संस्कृत साहित्य के इतिहास में भी है। समन्तभद्र के पश्चात् तिरुपरुट्टिकुनरम् में थे और जिनका शव अरुणागिरि पर कई मुनि हुए, जिन्होंने प्रचार का कार्य जारी रखा और गाड़ा गया है और वहाँ उस पर एक समाधि बना दी गई जैन सम्प्रदाय को सरल श्रेणियों में संगठित किया तथा है। ११६६ ई. वाले पहिले शिलालेख में अम्बिग्राम में देश के साहित्य की अभिवृद्धि की । उनमें ये मुख्य थे : मन्दिर को कुलोत्तुङ्ग तृतीय द्वारा बीस वेलिस भूमि के दान सिंहनन्दि, जिनके बारे में परम्परा है कि उन्होंने गंगवाड़ी का वर्णन है; दानकर्ता को प्राप्त कर्ताओं ने स्पष्ट बता के राज्य की स्थापना की; पूज्यपाद जो जैनेन्द्र व्याकरण दिया था कि तिरुपरुट्टिकुनरम् का मन्दिर उसके संरक्षण के लेखक थे और प्रकलक, जो काञ्ची से दूसरों की का अधिकारी था; क्योंकि उसमें उनके गुरु चन्द्रकीत्ति रहते अपेक्षा अधिक सम्बन्धित हैं। क्योंकि उनके बारे में कहा थे। राजा ने न केवल मन्दिर को बीस वेलिस भूमि ही जाता है कि उन्होंने ७८८ ई. के लगभग काञ्ची में राजा दी, वरन् उनकी विद्वत्ता तथा कार्य की सराहना के रूप में साहसतुङ्ग हिमशीतल के दरबार में बौद्धों को विवाद में चन्द्रकीत्ति को 'कोटेपुर के प्राचार्य' की उपाधि भी दी। असत्य सिद्ध कर दिया, राजा को जैन बना लिया तथा अरुणागिरि पर प्राप्त शिलालेख सं० २२ में उन्हीं चन्द्रकीति उसकी सहायता से बौद्धों को काञ्ची तथा दक्षिण भारत
१.टी. एन्. रामचन्द्रन्, "तिरुपरुट्टिकुनरम् और उसके से लदा के लिए निकलवा दिया।
मन्दिर" पृष्ठ ५०, ६१ ।
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तिरुपट्टिनरल (जिन काडी) को एक अन्य मुनि का माध्यात्मिक गुरु बताया गया है जो मन्दिर के मुनिवास में एक कोठरी उनको दी गई है और तिरुपट्टिकुनरम् में रहे और जिनका नाम अनन्तवीर्य दूसरी उनके गुरु चन्द्रकीति को। वामन'.था। जैन धर्मसत्ता के सम्बन्ध में अभी तक जो अनन्तवीर्य वामन की पहिचान के सम्बन्ध में हम कुछ हमें ज्ञात हो चुका है उतने मात्र से हम उपरोक्त चन्द्र- पूर्णतः अन्धकार में हैं। परन्तु हम जानते हैं कि उनका कीतिको पहिचानने में असमर्थ हैं तथा स्थानीय जैनों से काल चन्द्रकीत्ति के पश्चात् है जो ११९६ ई. के कुलोत्तुंग इस सम्बन्ध में कोई सहायता प्राप्त होनी सम्भव नहीं है। तृतीय के लेखों में आते हैं। फलतः वे चन्द्रकीत्ति से कुछ श्रवणबेलगोल में प्राप्त अन्य सूचियों से भी कोई सहा- वर्ष पश्चात् रखे जाने चाहिएं, यथा तेरहवीं शताब्दी के यता नहीं मिलती । मान्ध्र कर्नाट देश से प्राप्त जैन आचार्यों मध्य में। आन्ध्र-कर्नाट देश से प्राप्त जैन प्राचार्यों की की सूची में अवश्य एक चन्द्रकीत्ति हैं जिन्हें दो अन्य सूची के अध्ययन से भी एक अनन्तवीर्य देव का पता लगता प्राचार्यों के मध्य रखा गया है; एक कनककीतिदेव, है। जिन्हें भावनन्दि और अमरकीति माचार्य के मध्य जिनकी दानकुलपाडु के उन निसिढि शिलालेखों में से एक रखा गया है। यद्यपि यह अनन्तवीर्यदेव संभवतः हमारे में चर्चा है जो मद्रास के अजायबघर में रखे हुए हैं, और अनन्तवीर्य वामन हो सकते हैं क्योंकि इस बात को असत्य दूसरे भट्टारक जिनचन्द्र । हमारे चन्द्रकीत्ति (११६६ ई०) सिद्ध करने के लिए उनकी तिथियों में कुछ नहीं है, परन्तु
और उपरोक्त में कोई सम्बग्ध देखना उचित नहीं होगा आन्ध्र-कर्नाट सूची में तिरुपरुट्टिकुनरम् से उनके सम्बन्ध क्योंकि इनको तो दशवीं शताब्दी में रखा जाना जाहिये। की कोई भी चर्चा नहीं है अतः इस बात की सम्भावना में क्यांकि उस निसिढ़ि की तिथि, जिसमें चन्द्रकीति के पूर्व- बाधा होती है। वर्ती कनककीत्तिदेव की चर्चा है, निश्चित आधारों मन्दिर में दूसरे मुनि, जिनके सम्बन्ध में हमें मन्दिर पर ६१०-६१७ ई० नियत हो चुकी है । इस प्रकार हमारे के खातों और जैन-साहित्य दोनों से ही स्पष्ट सूचना चन्द्रकीत्ति एक भिन्न व्यक्ति हैं जो स्वयं तिरुपट्टिकुनरम् मिलती है, वे मल्लिसेन वामन हैं । सं०६, १५ और २४१ में रहे और स्वर्गवासी हुए।
के शिलालेखों में उनका वर्णन है। सं०९ के शिलालेख में सं०१८और २२° के शिलालेखों में अनन्तवीर्य वामन उन्हें पुष्पसेन-मुनि-पुङ्गव वामन के गुरु मल्लिसेन वामनका वर्णन है, जोकि चन्द्रकीत्ति के शिष्य एक अन्य मुनि थे। सूरि बताया गया है। सं० २४ में, जोकि पुष्पसेन की पहिला शिलालेख मन्दिर की भीतर वाले कोरा वृक्ष के समाधि का है, उन्हें फिर पुष्पसेन का गुरू कहा गया है उत्तर-पूर्व की एक बलिपीठ पर पाया जाता है और दूसरा और मल्लिसेन नाम से वर्णन किया गया है। सं० १५ में, अरुणगिरि मेरु पर एक समाधि की शिला पर । पहिले जोकि उनकी प्रशसा में एक कविता है, उन्हें मल्लिसेन शिलालेख में केवल यह लिखा है कि बलिपीठ अनन्तवीर्य कहा गया है और उनका प्राध्यात्मिक नाम वामन है। का है जिसका अर्थ है कि मन्दिर के अर्चका को ज्ञात स्मरण रहे कि महान् शिक्षक एवं धर्म, दर्शन मादि के रीति से उसकी उपासना करनी चाहिये अर्थात् पीठ पर लेखक वामन कहलाते है; वामन शब्द विद्वत्ता के साथ मेंट (बलि) रखना (यह विश्वास था कि मुनि की प्रात्मा रखा जाता है और मल्लिसेन, अपने नाम मल्लिसेन की उसे खावेगी)। दूसरे शिलालेख में स्पष्ट लिखा है कि अपेक्षा बामन नाम से अधिक विख्यात थे, जैसा कि स्थानीय शिला उपरोक्त मुनि की स्मृति में स्थापित की गई जिन्हें परम्परा से सिद्ध होता है। वह एक साहित्यिक थे, अपने चन्द्रकीति को अपना प्राध्यात्मिक गुरु गिनने का विशिष्ट काल में बहुत प्रसिद्ध थे और संस्कृत, प्राकृत तथा तामिल सम्मान प्राप्त था। मन्दिर के खातों या स्थानीय परम्परा में लिखे गए कई ग्रन्थों के रचयिता थे। तामिल में उनके से इन मुनि के बारे में और अधिक कुछ ज्ञात नहीं होता। एक ग्रन्थ से, जिसका नाम 'मेरुमन्दार पुराणम्' है-और
है जिसमें से मन्दिर के भीतर के कुछ चित्रों को समझने के १. टी. एन्. रामचन्द्रन्, उपरोक्त ही, पृष्ठ ६०-६१। । २. टी. एन. रामचन्न्द्रन्, उपरोक्त ही, पृ. ६०-६१ । १. उपरोक्त ही, पृष्ठ ५८, ६२।
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लिए मैं प्रायः सहायता लेता था-हमें पता चलता है कि गया कि मरुणामिरि-मेरु पर के समाधि स्तम्नों में से एक वे भाषाओं में संस्कृत एवं प्राकृत को भी जानते थे और उनके लिए है, जिसके सम्बन्ध में अद्भुत बात यह है कि मतों में जैन तथा अन्य पद्धतियों को। उन्होंने 'मेरुमन्दार- उस पर कुछ भी नहीं लिखा है। पुराणम्' को इस प्रकार प्रारम्भ किया है, "तामिलाल जहाँ तक इन मुनि के काल का प्रश्न है एक मौन, मोनर सोल्लालरीन" अर्थात् "मैं यहाँ एक का वर्णन परन्तु निश्चित, इंगित प्राप्य है । इरुगप्पा, जिसके शिलालेख तामिल में करता हूँ" (श्लोक सं० २) । इससे प्रगट होता १३८२ और १३८७-८८ ई. के हैं, पुष्पसेन के प्रति अपनी है कि उनके इससे पहिले के ग्रन्थ तामिल के अतिरिक्त भक्ति का वर्णन करता है और स्वयं को उनका शिष्य किसी अन्य भाषा में लिखे गए होंगे. यथा संस्कृत में। बताता है, परन्तु अपने गुरु के गुरु मल्लिसेन के प्रति अपने उनके संस्कृत ज्ञान ने उन्हें 'उभय-भाषा-कवि-चक्रवर्ती' वा दो भाव के सम्बन्ध में मौन है । उसके मौन का केवल एक ही भाषामों के कवि-सम्राट की उपाधि प्राप्त कराई। उनके अर्थ हो सकता है, और वह यह है कि इरुगप्पा के मन्दिर कुछ प्राप्य ग्रन्थ दर्शन पर संस्कृत ग्रन्थों की टीका है में प्रागमन के समय मल्लिसेन की मृत्यु हो चुकी थी। इस यथा पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार की मेरु- प्रकार वह अनन्तवीर्य वामन के पश्चात् और इरुगप्पा के मन्दारपुराणम् और समयदिवाकर जोकि नीलकेसितिरटु आगमन के पहले आते हैं और इसलिये उन्हें चौदहवीं शतानाम के एक सामिल ग्रंथ की टीका है। उनके शिष्य पुष्प- ब्दी के पूर्वार्द्ध में रखा जा सकता है सेन ने जिसकी हम अभी चर्चा करेंगे, राजनैतिक महत्त्व अब हम ख्यातनामा पुष्पसेन पर पाते हैं जिनका स्यात् प्राप्त कर लिया था क्योंकि बुक्का द्वितीय (१३८५-१४०६ अपने काल में बहुत अधिक राजनैतिक प्रभाव था । बुक्का ई.) के सेनापति इरुगप्पा से उसका सम्बन्ध था, परन्तु द्वितीय के सेनापति एवं मन्त्री इरुगप्पा के ऊपर उनका उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में ही महत्त्व प्राप्त किया जान जो अधिकार था, उसके फलस्वरूप विजयनगर के राजाओं पड़ता है। यहाँ पुष्पसेन के सभी शिलालेखों से वह उच्च ने उन्हें संरक्षण दिया और मुनि ने राजकीय संरक्षण का श्रद्धा प्रकट है कि जो पुष्पसेन के हृदय में उनके लिए थी। लाभ उठाने में कोई कमी नहीं की। उन्होंने अपने राजकीय सं०९ में वह अपने-आपको मल्लिसेन का भक्त शिष्य शिष्य इरुगप्पा को मन्दिर में तथा अन्यत्र (विजयनगर) कहता है और सं० २४ में काव्यमय ढंग में "वह मधुमक्खी निर्माण करने के लिए तैयार कर लिया, जैसा कि शिलाजो श्री मल्लिसेन के चरणकमल पर मंडराती है।"' पर- लेख सं० ७और 8' में वर्णित है। पिछले शिलाम्परा उसे सम्पूर्ण मन्दिर के निर्माण से सम्बन्धित करती लेख में स्वयं मुनिको गोपुर के ऊपरी भाग का निर्माण है। यद्यपि यह सत्य नहीं हो सकता, तथापि इससे वह करने वाला बताया गया है। शिलालेख सं० ७, ९, उच्च श्रद्धा एवं महत्त्व प्रकट होता है जो वहाँ के जैनों में २३ व २४ पुष्पसेन के सम्बन्ध में हैं। सं० २३ व इन मुनि के लिए थे। मुनिवास में उनके लिए एक कोठरी २४ समाधि की वेदी पर हैं। पहले में उनका नाम है और निश्चित करने के अतिरिक्त, लोगों ने उनके लिए एक दूसरे में दुःखी मनुष्य समाज की मुक्ति के लिए उनका बलिपीठ बनाया है। इसको उन्होंने चोल बरामदे के उत्तर प्राशीर्वाद मांगा गया है। यह अद्भुत बात है कि समाधि की भीत में पाले में उस शिलालेख के नीचे रखा है जिसमें की वेदी में पुष्पसेन के शिलालेखों वाले दो स्तम्भ पाए उनकी प्रशंसा की एक कविता है जिससे कि उपरोक्त गए जबकि वहां चन्द्रकीर्ति का कोई भी स्तम्भ नहीं है जो शिलालेख स्वयं मुनि से सम्बन्धित हो जाय। आज इस हमारी सूची में पहले मुनि हैं। यदि हम इस बात को बलिपीठ की पूजा होती है जैसी कि इसी प्रकार के एक स्मरण रखें कि स्वयं मन्दिर में दो अन्य बलिपीठ या अन्य की, जोकि इससे नीचे ईंटों के स्तम्भ पर रखा हुमा स्तम्भ हैं, दोनों ही बिना लेख के, एक कोरा वृक्ष के है और उनके शिष्य पुष्पसेन के लिए है। मुझे बताया सामने और दूसरा मल्लिसेन वाले बलिपीठ के नीचे और
१. टी० एन० रामचन्द्रन्, उपरोक्त ही, पृष्ठ ६७ । १. उपरोक्त ही, पृ० ५७-८
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तिरुपनिरन् (जिन-काची) दोनों ही समाधिवालों जैसे ही हैं, तो यह स्पष्ट हो के अवशेष जैन उद्गम के हो सकते हैं। उड़ीसा में जाता है कि इन लेख रहित तथा एक से स्तम्भों में से कुछ भुवनेश्वर के निकट जैन गुफाओं में से एक में चित्रों के कभी न कभी बदल गए होंगे या गलत स्थान पर रखे गए चिन्ह हैं। सित्तन्नवासल भित्तिचित्र, जिनका वर्णन फिर होंगे। स्थानीय परम्परा में पुष्पसेन को बहुत श्रेष्ठता दी किया जायगा, जैन हैं और पद्धति में अजन्ता तथा बाग के गई है, सम्भवतः उनके राजनैतिक प्रभाव के कारण मुनि- भित्तिचित्रों से सम्बन्धित हैं परन्तु जैन पाण्डुलिपियों के वास में एक कोठरी उनके नाम है और उनकी उपासना छोटे चित्रों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । जैन मूर्तिकला बहुत कुछ उसी प्रकार की जाती है जैसे मल्लिसेन की। में कोई स्पष्ट विदेशी तत्व नहीं है। बाद के काल में जहाँ तक उनकी सिद्धता का प्रश्न है, शिलालेख सं०६ भवन निर्माण एवं मूर्तिकला में उनकी पूर्णता अपनी सुन्दरता पौर २४ से सहायता मिलती है। पहिले में उन्हें वामन टेक्नीकल पूर्णता और शानदार सजावट मे विस्मय में डाल कहा गया है और 'मुनियों में वृषभ, (मुनिपुंगव) और देती है। यह पाशा की जानी चाहिए थी कि कलाकारों "परवादिमल्ल" की उपाधि दी गई है, जिसका अर्थ है की ऐसी जाति चित्रकला में महान् कृतियां उत्पन्न करेगी। "विवाद में अपने शत्रुओं का सफल प्रतिद्वन्दी"। दूसरे शिला- जैनों में प्रथा प्रचलित थी 'छतों में जिनके जीवन की लेख में मल्लिसेन के प्रति उनकी भक्ति पर जोर दिया गया
मुख्य घटनामो को अंकित करना, जिन्हे मुख्यमन्दिर या है और दुखी तथा बढ़ते हुए मानव के लाभ के लिए उनके
दालान की एक कोठरी समर्पित है।' उसी प्रथा के अनुसार आशीर्वाद की प्रार्थना की गई है।
तिरुपरुट्ठिकुनरम् के त्रैलोक्यनाथ अथवा वर्धमान मन्दिर में __ पुष्पसेन का समाधि-स्तम्भ दूसरों से बड़ा है, दूसरों के मुख-मण्डप तथा संगीत-मण्डप की छत में रंगीन चित्रों की मध्य में स्थित है और उस पर का शिलालेख भी सबसे बड़ा एक श्रेणी हैं जो कि, जैसा पहले ही कहा जा चुका है, २४ है। इससे मुनि के अधिक महत्त्व का प्रमाण मिलता है, जैन तीर्थंकरों में से तीन की जीवन-गाथानों को चित्रित जिनकी स्मृति में स्तम्भ का निर्माण हुमा । ऐसा प्रतीत होता करती है। है कि यह स्तम्भ समाधि के स्तम्भों के समूह में अन्तिम
यद्यपि कला-समालोचकों को कला की दृष्टि से है और इस तथ्य से यह शंका संभव हो जाती है कि सम्भ
'रंगों से धोने' की इस नीति के विरुद्ध बहुत कुछ कहना वतः पुष्पसेन के पश्चात् उस स्थान में वैसे ही अन्य मुनि
है, क्योंकि ऐसे चित्रों में रूढ़ि बहुत बड़ा कार्य करती है, नहीं थे, या यदि कोई थे तो उन्होंने इस प्रकार महत्त्व
तथापि इसका स्वागत होना चाहिये ; क्योंकि इससे जैन प्राप्त नहीं किया, जिस प्रकार उनके पूर्ववर्ती मल्लिसेन
पुराण शास्त्र के देवताओं की जीवन-गाथामों को जानने एवं पुष्पसेन जैसों ने किया । अन्यथा उनकी समाधियों की
का एक सरल साधन मिलता है और उन लोगों से वर्णन भी आशा की जानी चाहिए।
सुनने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता, जो उन्हें जानते हों, मन्दिर के भीतर के मुनिवास में पाँच कोठरियाँ हैं,
न जैन पुराणों में देखने की आवश्यकता होती जिनमें से जिनमें से एक के सम्बन्ध में अभी निश्चय होना शेष है। अधिकतर दुर्भाग्य से अभी तक पाण्डुलिपि रूप में ही है। अन्य चार चन्द्रकीति अनन्तवीर्यवामन, मल्लिसेन वामन,
रंगों से धोने और चित्र बनाने की इस प्रथा ने, जिसे श्रीमती और पुष्पसेन वामन की प्रात्मानों के लिए है। ५ नाम
स्टीवेन्सन 'आधुनिक धुन' कहती है, स्पष्टतः शिला लेखन प्राप्य नहीं हैं, न तो मन्दिर के शिलालेखों में और न
की उस धुन का स्थान ले लिया है जिसकी प्रारम्भिक शतास्थानीय परम्परामों में बहुत सम्भव है कि वे चन्द्रकीति के
ब्दियों से प्रथा थी, और जो सम्भवतः पल्लव राजा पूर्ववर्ती हों जिनका नाम हम तक नहीं पाया है।
महेन्द्रवर्मन प्रथम से प्रारम्भ हुई तथा मूर्तिकला एवं भवनचित्रकला
निर्माण कला में पतन की ओर संकेत करती है । उपयोगिता महत्त्वपूर्ण जैन चित्र-कला के अवशेष बहुत कम बचे है। के दृष्टिकोण से देखनेपर इन चित्रों का निश्चय ही स्वागत उड़ीसा में रामगढ़ पहाड़ी में जोगीमेर गुफा में, भित्तिचित्रों किया जाना चाहिये; यह प्रथा हिन्दू मन्दिरों में भी फैल
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भ. महावीर और उनका जीवन दर्शन
डा०ए० एन० उपाध्ये
भारत के कुछ विशिष्ट पुरुषों में अध्यात्म एवं ज्ञान शक्ति के केन्द्र थे और मानव समाज उनकी असीम कृपा की पिपासा अनादि काल से ही प्रचलित रही है। उस पर निर्भर था। पुरोहित लोग देवतामों को बलि चढ़ा-चढ़ा समय भी जब कि जनसाधारण अज्ञानता, गरीबी एवं अपने कर ही मानवों की सुरक्षा का ढोंग रचा करते थे। यह पूर्वजों की अन्धश्रद्धा तथा पूजा में ही लगा रहता था। एक वैदिक विचारधारा थी जो भारत में उत्तर-पश्चिम से धार्मिक नेताओं का महत्व अपने भक्तों के विश्वास विजय भाई और अपने अद्भुत प्रभाव से यत्र-तत्र अनेकों अनुयायी में ही निहित था। भारत में धार्मिक नेता दो प्रकार के बनाती हुई भारत के पूर्व और दक्षिण में फैल गई। रहे है-एक पण्डों व पुरोहितों के रूप में उपदेशक तथा
इसके विपरीत भारत के पूर्व में गंगा-यमुना के कछारों दूसरे परोपकारी एवं आत्म-शोधी के रूप में मुनि लोग।
में कुछ मात्म-शोधी साधु हुए जो उच्च राजघरानों से सम्बउपदेशक शास्त्रोक्त पद्धति के महारथी होते थे वे कहा करते
न्धित थे तथा उच्च चिन्तन एवं धार्मिक क्रांति के इच्छुक थे कि विश्व एवं देवतामों तक का अस्तित्व और उद्धार
थे। उनकी दृष्टि में प्राणीमात्र धार्मिक चिन्तन का केन्द्र उनके द्वारा प्रवर्तित बलिदान के मार्ग से ही सम्भव ही है. साथ ही अचेतन जगत से उसके सम्बन्ध टूटने का एक इनके सम्प्रदाय बहुदेववादी थे। देवता लोग प्रायः प्राकृतिक ।
_ साधन भी है। इससे वे साधु लोग जीवन की इहलौकिक गई है। इनमें चित्रित विभिन्न घटनाओं से एक अजैन भी और पारलौकिक समस्याओं पर सोचने के लिए बाध्य हुए; ऐसा प्रभावित होता है कि वह कदाचित् ही उन्हें भूलता क्योंकि उनके समक्ष पात्मा (चेतन) और कर्म (जड़ पदार्थ) या फिर उन्हें पहचानने में असफल होता है । वे एक प्रकार दोनों ही यथार्थ थे। इहलौकिक अथवा पारलौकिक जीवन से जैन पुराण शास्त्र और मूर्तिविद्या की चित्रित पुस्तकें प्रात्मा और कर्म के पारस्परिक अनादि-निधन सम्बन्धों का हैं जो अपने वर्णन को सरल एवं रोचक ढंग से प्रस्तुत करती परिणाम ही तो है और यही सांसारिक दुखों का कारण हैं। इस रीति में निहित विचार मितव्ययता है जैसा कि भी है, पर धर्म का मूल उद्देश्य कर्म को आत्मा से पृथक मुझे त्रिचनापल्ली के एक चित्रकार ने बताया जो उस समय करना है, जिससे मात्मा पूर्ण मुक्त हो शुद्ध ज्ञानात्मक नत्रभूतेश्वर मन्दिर में कार्य कर रहा था । यह कार्य शिला- चिदानन्द चैतन्य का मानन्द अनुभव कर सके। मनुष्य लेख के कार्य से कम व्यय का है जो कि बहुत अधिक अपना स्वामी स्वयं ही है। उसके मन, वचन और काय कष्टसाध्य भी है मुझे यह भी बताया गया कि रंग फीके उसे अपने ही रूप में परिणमन करते हैं तथा कराते रहते पड़ें तो चित्रों को नया किया जा सकता है। उनको नया न हैं। इस प्रकार मनुष्य अपने भूत भविष्य का निर्माता व करने का यह फल हुमा है कि तिरुपरुट्टिकूनरम् के अनेक विघटनकर्ता स्वयं ही है । धार्मिक पथ पर अग्रसर होने के चित्र फीके पड़कर लुप्त हो गए हैं जिससे हमें उनको, पूर्ण- लिए वह अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों को अपना आदर्श मानता रूप से नष्ट हो जाने से पहले ही, पजीबद्ध करने का है और जब तक आध्यात्मिक उन्नति की चरम-सीमा एवं प्रोत्साहन मिला है।'
परिपूर्णता (कृतकृत्यता) नहीं प्राप्त कर लेता तब तक अनुवादक-डा० ए० के० दीक्षित, बड़ौत मुनि-मार्ग का अवलम्बन कर कर्म-संघर्ष में रत बना रहता १. 'तिरुपट्टिकुनरम् और उसके मन्दिर' लेखक : ९ टी० एन० रामचन्द्रन् प्रकाशक : मद्रास म्यूजियम, १९३४, इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि प्राच्य प्लेट ६-३०।
धार्मिक विचारधारा में ईश्वर कर्तृत्व एवं उसके प्रचारक
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म. महावीर और उनका जीवन दर्शन
पुरोहितों का कोई स्थान न था । यह युग तो जैन तीर्थकर ३. मौल उत्तर में) एक समृद्धशाली राजषानी थी, इसके नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, प्राजीवक सम्प्रदाय के पास-पास ही कुण्डपुर या क्षत्रियकुण्ड के महाराज सिवार्य गोशाल, सांख्य दर्शन के कपिलऋषि एवं बौद्धधर्म के पोर उनकी महारानी त्रिशला (प्रियकारिणी) की कोख से प्रवर्तक महात्मा बुद्ध के प्रतिनिधित्व का काल था। भ. महावीर जन्मे थे। अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं एवं ____स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश में विशेषतया गुणों के कारण ही शातपुत्र, वैशालीय, वर्द्धमान और सन्मति शिक्षित वर्ग में भारतीय प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को प्रादि नामों से प्रसिद्ध थे। उनकी माता त्रिशला चेटक वंश नवीन रूप में डालने के प्रति विशेष जागरूकता दिखाई दे से सम्बन्धित थी, जो विदेह का सर्वशक्तिमान् लिच्छवि रही है । बड़े हर्ष की बात है कि इस प्रसंग में महावीर शासक था, जिसके संकेत पर मल्लवंशीय एवं लिच्छवि पौर बुद्ध को बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से स्मरण किया जाता लोग मर मिटने को तैयार रहते थे। है और उनके महत्व को प्रांका जाने लगा है । पर पाश्चर्य महावीर के विवाह के सम्बन्ध में एक परम्परा उन्हें तो यह है कि ऐसे महापुरुषों को, जिन्होंने अपनी शिक्षामों बाल ब्रह्मचारी बतलाती है पर दूसरी के अनुसार उनका एवं उपदेशों द्वारा इस देश को नैतिकता एवं मानवता के विवाह यशोदा से हुआ था और उनसे प्रियदर्शना नामकी क्षेत्र में इतना अधिक महान् और समृद्ध बनाया, फिर भी पुत्री उत्पन्न हुई थी। राजपुत्र होने के कारण महावीर के अपनी ही भूमि में उन्हें कुछ समय के लिए भुला दिया तत्कालीन राजवंशों से बड़े अच्छे सम्बन्ध थे। उनसे अपेक्षा गया। दूसरी सबसे अधिक खटकने वाली बात यह है कि की गई थी कि वे अपने पिता के राज्य का अधिकारपूर्वक महावीर और बुद्ध का महत्व एवं उनके साहित्य का जो उपभोग करें, पर उन्होंने वैसा नहीं किया। ३० वर्ष के मूल्यांकन हम लोग सदियों पूर्व स्वयं अच्छी तरह कर सकते होते ही उन्होंने राजकीय भोगोपभोगों का परित्याग कर थे वह सब अब पश्चिमी विद्वानों द्वारा हुआ और हम प्रसुप्त डाला और प्राध्यात्मिक शांति की खोज के लिए मुनि दीक्षा दशा में पड़े रहे। जैन और बौद्ध साहित्य के क्षेत्र में धारण कर ली इस प्रकार जीवन की कठिनतम समस्यामों पश्चिमी विद्वानों की बहुमूल्य सेवाओं ने हमारी पाखें को सफलता पूर्वक कैसे हल करना चाहिए, इसका एक खोल दी है और आज हम इस स्थिति में हो सके हैं कि सर्वश्रेष्ठ मादर्श उन्होंने तत्कालीन जगत के समक्ष प्रस्तुत हम अपनी विभूतियों को पहचान सकें।
किया। २४ वें तीर्थंकर भ० महावीर म० बुद्ध के समकालीन आध्यात्मिक शांति एवं पवित्रता के मार्ग में राग एवं थे, उनके विचार एवं सिद्धांत भारतीय प्राच्य संस्कृति के
व सिद्धात भारतीय प्राच्य संस्कृति के संग्रह की प्रवृत्तियाँ बड़ी बाधक थी, पर उन्होंने प्रादर्श अनुकूल थे। भ० महावीर एवं उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने रूप से सहर्ष उन सबका परित्याग कर दिया, स्वयं निग्रंप जो भी उपदेश दिये थे वे सब प्राज जैन दर्शन के नाम से बन गए और दैगम्बरी वेष धारण कर साधना और तपश्चविख्यात हैं, पर आज वे हमारे जीवन में सक्रिय रूप से रण में तल्लीन हो गए। इस बीच उन्हें जो-जो कष्ट भोगने नहीं उतरे हैं, जिनका जैन साहित्य में विभिन्न भाषामों पड़े उनका विस्तृत वर्णन आचारांगशास्त्र में मिलता है। द्वारा विवेचन किया गया था।
लोग उन्हें गालियां देते थे, बच्चे उन पर पत्थर फेंकते थे। भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के इतिहास में विहार इस प्रकार बंगाल के पूर्वी भाग में उन्होंने बड़ी बड़ी यातप्रान्त का बड़ा महत्व है । म बुद्ध, भ. महावीर, राजर्षि नायें सहीं। १२ वर्ष की कठोरतम यातनामों के पश्चात् जनक जैसी पुण्य विभूतिगों को प्रदान करने का श्रेय इसी महावीर प्रपनी शारीरिक दुर्बलतानों पर विजय प्राप्त कर विहार की पावन पुण्य भूमि को है । मीमांसा, न्याय एवं सके और समय तथा स्थान की दूरी को लांघते हुए शुद्ध वैशेषिक जैसे श्रेष्ठ दर्शनों की बहुमूल्य भेंट देने वाली एवं पूर्णज्ञान की उपलब्धि कर केवली या सर्व कहलाये। मिथिला का गौरव भी तो विहार प्रान्त ही को प्राप्त होता उन दिनों श्रेणिक बिंबसार राजगृही के शासक थे, भगवान है। लगभग २५०० वर्ष पूर्व वैशाली (वसाढ़ पटवा से महावीर की सर्व प्रथम देशना (दिव्य-ध्वनि) रामगृही
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के समीप विपुलाचल पर्वत पर हुई थी। लगातार ३० वर्ष तक वे मगध देश के विभिन्न भागों में भगवान बुद्ध की भाँति विहार करते रहे और जैनधर्म का प्रचार किया। म महावीर के माता-पिता भ० पार्श्वनाथ के अनुयायी थे, भ० महावीर ने अपने बिहार काल में जीवन की कठि नाइयों एवं उनसे बचने के उपायों से लोगों को अवगत कराया। उन्होंने भ्रात्मा की उच्चता एवं पवित्रता पर बल दिया, उनके उपदेश सर्वसाधारण के लिए थे उनके अनुयायियों में जिनमें राजा महाराजा थे, गरीब किसान भी थे, उन्होंने चतुविध संघ की स्थापना की, जो मुनि धार्मिका, श्रावक र श्राविका नाम से प्रसिद्ध हुआ था वह आज भी प्रचलित है। भगवान महावीर के सिद्धान्तों का प्रभाव जैन दर्शन के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र भी मिलता है । वे तीर्थंकर थे उन्होंने युगों युगों से संत्रस्त मानवता के परित्राण एवं सर्व शान्ति की स्थापना के लिए मार्ग निर्धारण किया था । द्वितीय शताब्दि में समन्तभद्र स्वामी ने महावीर के सिद्धांतों को, जो महावीर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध थे, 'सर्वोदय' नाम दिया, जिसका इस देश में भाज महात्मा गाँधी जी के बाद सामान्यतः प्रयोग किया जाता है। ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व भ० महावीर ७२ वर्ष की धायु में पावापुर से निर्वाण सिधारे, जिसकी खुशी में जगह जगह दीप जलाये गए और तब से ही सम्पूर्ण भारतवर्ष में दीपावली पर्व प्रचलित हुआ ।
भ० महावीर के जीवन एवं कार्यों पर बढ़ा विशाल नवीन पोर प्राचीन सभी तरह का साहित्य उपलब्ध है और उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भी अन्य पुरुषों की भाँति बहुत से पुराण लोक कथायें तथा अनेकों श्रतिशयोक्ति पूर्ण बातें लिखी गई हैं। फलतः उनके विषय में विशुद्ध वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन व शोध करना बड़ा कठिन हो गया है; क्योंकि अध्ययन व शोध के जो साधन हैं वे साम्प्रदायिकता या धार्मिकता से अछूते नहीं हैं. उनमें साम्प्रदायिकता की गंध विद्यमान है। ऊपर मैंने जो कुछ कहा है वह भ० महावीर का केवल साधारण सा जीवन-परिचय ही है। इस प्रकार यदि भ० महावीर का और अधिक ऐतिहासिक अध्ययन करना कठिन है तो मेरी राय से यह प्रति उत्तम होगा कि उनके सिद्धान्तों का
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गंभीरता पूर्वक अध्ययन किया जाय और उनका जीवन में सक्रिय प्रयोग किया जाय अपेक्षा इसके कि उनके व्यक्तिगत जीवन पर लम्बे चौड़े वाद-विवाद या बहस मुबाहिसे सड़े हों।
वैशाली नगर अपने समय में उन्नति के चरम शिखर पर था और भ० महावीर की जन्मभूमि होने के कारण भारतीय धार्मिक जगत में तो इसकी ख्याति और भी अधिक बढ़ गई थी। वैशाली की पुण्य विभूतियों ने मानबता के उद्धार के लिए बड़े अच्छे अच्छे सिद्धान्त सिखाये और स्वयं स्थान एवं साधनामय पावन जीवन अंगीकार किया। महावीर तो अपने समकालीनों में निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ रहे ! 'महावस्तु' में लिखा है कि भ० बुद्ध ने वैशाली के अलारा एवं उड़क में अपने प्रथम गुरु की खोज की अर उनके निर्देशन में जैन बन कर रहे । पश्चात् उत्पन्न मध्य मार्ग अपनाकर वैशाली में अत्यधिक सम्मानित हुए । उन्हें राजकीय सम्मान प्राप्त था, वे "कूटागाराला (जो मुख्यतया उनके लिए ही बनाई गई थी) के महावन में रहते थे। द्वितीय बौद्ध परिषद की बैठक वैशाली में ही हुई थी, अतः यह बड़ा पवित्र तीर्थं स्थान माना जाने लगा, यहीं पर संघ हीनयान और वज्रयान के रूप में विभाजित हुआ था । म० बुद्ध की प्रसिद्ध शिष्या भाम्रपाली वैशाली में ही रहती थी, जहाँ उसने अपना उपवन म० बुद्ध एवं संघ को वसीयत के रूप में अर्पण किया था । वैशाली का राजनैतिक महत्व भी था यहाँ गणतन्त्रीय शासन पद्धति प्रच सित थी, यहाँ लिच्छवि गणराज्य के राष्ट्रपति महाराज चेटक थे, जिन्होंने मल्ल की गणराज्य, काशी, कौशल के १० गणराज्य तथा लिच्छवियों के εगणराज्य मिलाकर एक संघशासन का संगठन किया था। 'दीष निकाय' में वज्जी संघ की शामन-पद्धति एवं कार्य कुशलता की श्रेष्ठता का सुन्दर वर्णन मिलता है, जो तत्कालीन गणतन्त्रात्मक शासनपद्धति का श्रेष्ठतम आदर्श थी। वैशाली वाणिज्यका भी विशालतम केन्द्र थी जहाँ श्रीमंतों, वणिजों एवं शिल्पियों की मुद्रायें चला करती थीं जब फाहियान (२९८-४१४ ई०) भारत आया तब वैशाली धर्म, राजनीति एवं व्यापार का एक प्रमुख केन्द्र थी, पर अगली तीन शताब्दियों में इसका पतन प्रारम्भ हो गया और ह्वेनसान (६३५ई०) जब माया
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भ. महावीर मौरमा जीवन वर्शन
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तब तो यह बिल्कुल ही नष्ट-भ्रष्ट हो गई थी और अब महावीर की स्मृति अपनी ही जन्मभूमि में २५०० वर्ष तो जीर्ण शीर्ष बुद्धा की भांति बिल्कुल ही उपेक्षित है। बाद भी उनके सम्बन्धियों एवं वंशजों द्वारा माज भी
माधुनिक भारतीय गणराज्य ने वैशाली संघ की एकता सुरक्षित है। से बहुत कुछ सीखा है तथा वज्जीसंघ की एकता हमारे
भारत के सांस्कृतिक इतिहास में महावीर का समय प्रजातन्त्र की प्रमुख प्राधार शिला है और अहिंसा निश्चय ही प्रतिभा, मानसिक विकास एवं सूझ-बूझ का जो पंचशील का प्राण है हमारी नीति निर्धारण की मूल वग था, उनके समकालीनों में केशकंबली, मक्खली केन्द्र विन्दु है। हमारी केन्द्रीय सरकार हिन्दी को राज
गोशाल, पकुद्ध कच्चायन, पूरणकश्यप, संजय वेलट्ठिपुत्त भाषा बनाकर मगध शासन की नीति का अनुकरण कर रही और तथागत बद्ध प्रभूति जैसी धार्मिक पुण्य विभूतियां थीं। है, जिसने वर्ग विशेष की भाषा की अपेक्षा जन साधारण भ० महावीर'ने अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों से बहुत कुछ सीखा की भाषा को ही प्रतिष्ठा एवं गौरव प्रदान किया था।
एवं पाया था। उन्हें धर्म और दर्शन की एक सुव्यवस्थित सम्राट अशोक के सभी लेख प्राकृत में ही उपलब्ध हैं परम्परा ही उत्तराधिकार में नहीं प्राप्त हुई थी, अपितु जो तत्कालीन जन भाषा थी। हमारे प्रधान मन्त्री पं०
सुसंगठित साधु संघ एवं उनके सच्चे अनुयायी भी मिले नेहरू को भी प्रियदर्शी सम्राट अशोक की भांति अपने थे। वे उस दर्शन एवं धर्म का सक्रिय प्रयोग करते थे जिसे उच्चाधिकारियों की अपेक्षा जनता जनार्दन से मिलना भगवान महावीर तथा उनके शिष्यों ने प्रचलित किया। अत्यधिक रुचिकर है। इस रूप में वैशाली को उपेक्षित
रूप में वशाली को उपक्षित म बुद्ध और भ० महावीर समकालीन थे। उनका नहीं कहा जा सकता है और आजकल तो केन्द्रीय शासन, विहार (प्रचार क्षेत्र भी एक ही था और वहां के राजवंश विहार शासन, भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शांतिप्रसाद एवं शासक दोनों के ही भक्त थे। इन दोनों ने मानव के जी और वैशाली संघ के उत्साही सदस्य डा. जगदीशचन्द्र
मानवीय रूप पर ही विशेष बल दिया था और जनता माथुर आदि के सत्प्रयत्नों के फलस्वरूप वैशाली का उत्थान जनार्दन को उनकी अपनी ही भाषा में उच्च नैतिक आदर्श हो रहा है विहार शासन ने जैन और प्राकृत साहित्य के
सिखाये थे। जिनसे व्यक्ति मात्र का प्राध्यात्मिक धरातल अध्ययन के लिए यहाँ एक स्नातकोत्तर संस्था की स्थापना
ऊँचा उठा एवं सामाजिक दृढ़ता में योग मिला । ये पादर्श, की है आशा है यह ज्ञान और अध्ययन का विशाल केन्द्र
भावी पीढ़ी के लिए प्राच्य अथवा मागध धर्म के श्रेष्ठ प्रतिबन जावेगी!
निधि सिद्ध हुए और श्रमण संस्कृति के नाम से विख्यात कालचक्र की प्रबल गति एवं राजनतिक परिवर्तनों हुए। सौभाग्य से तत्सम्बन्धी मूल साहित्य प्राज भी हमें के कारण वैशाली सर्वथा ध्वंस हो गई और हम भारत- उपलब्ध है । प्रारम्भिक बौद्ध और जैन साहित्य के तुलनावासी भी उसके अतीत वैभव एवं महत्व को भुला बैठे, त्मक अध्ययन से दोनों में एक अद्भुत समानता तथा पर आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि वैशाली ने धार्मिक एवं नैतिक चेतना प्राप्त होती है, जो न केवल अपने सुयोग्य सपूतों को अब तक भी नही भुलाया है २००० वर्ष पूर्व ही उपादेय थी अपितु प्राज भी भनेकों वैशाली के जैन व बौद्ध स्मारकों में वहा के स्थानीय मूल उलझन भरी मानवीय समस्याओं के सुलझाने का एकमात्र निवासी सिंह व नाथक्षत्रिय लोगों द्वारा अधिकृत एक उप- साधन है। म. गांधी ने जो सत्य और अहिंसा की ली जाऊ खेत भी एक बड़े महत्वपूर्ण स्मारक के रूप में भाज (ज्योति) जगाई उसकी पृष्ठभूमि में भ० महावीर एवं भी विद्यमान है लोग इसे जोतते बोते नहीं हैं। क्योंकि म. बुद्ध के नैतिक प्रादर्श ही तो हैं। पाली भाषा में जो उनके यहां वंश परम्परा से यह धारणा प्रचलित है कि इस निसंथ सिद्धांत का विवरण मिलता है वह जैन और बौद्ध के पवित्र भूमि पर भगवान महावीर प्रवतरित हए थे, प्रतः पारस्परिक सम्बन्धों के निर्णय में प्रत्यधिक सहायक है। इस पुण्य भूमि को जोतना बोना नहीं चाहिए। भारत के भ. महावीर और म० बुद्ध में इतनी अधिक समानता धार्मिक इतिहास में यह एक अद्भुत घटना है जो भगवान थी कि प्रारम्भ में तो यूरोपीय विद्वान् दोनों को एक ही
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व्यक्ति समझने की भांति कर बैठे, पर मान गम्भीर प्रध्या के समय से चला पा रहा था। डा. याकोबीने लिखा है मन के विकास एवं शोष-खोज के फलस्वरूप दोनों महा- कि "जब बौद्ध धर्म की स्थापना हुई, तब निगण्ठ (निप्रथः) पुरुषों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो गया है, जिन्होंने जो जैन या महत् के नाम से प्रसिद्ध हैं, एक महत्वपूर्ण वर्ग भारतीय चिन्तनधारा के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण के रूप में विद्यमान थे। पाली साहित्य में भ० महावीर प्रभाव छोड़ा। यह एक ध्यान देने की बात है कि म बुद्ध का 'निगण्ठनातपुत्त' के नाम से उल्लेख मिलता है। इस ने केवल ज्ञान (दिव्यज्योति) प्राप्ति से पूर्व कई विद्वानों प्रकार महावीर और बुद्ध ने प्रारम्भ में एक ही श्रमण के साथ अनेकों प्रकार के प्रयोग कर मध्यम मार्ग अपनाया संस्कृति के आदर्शों पर अपना जीवन प्रारम्भ किया, पर था तथा तत्कालीन प्रचलित अनेकों धार्मिक मान्यतामों आगे चलकर वे भिन्न-भिन्न हो गये और इसी तरह उनके एवं परम्परामों का परित्याग भी किया था, पर भ. महा- अनुयायी भी समय और स्थान भेद के कारण भिन्न-भिन्न वीर के साथ ऐसा नहीं हुआ था, उन्होंने तो भ. ऋषभ- हो गये। पर यह एक शोध का विषय है जैसा कि ऊपर देव, नेमिनाथ एवं अपने निकटतम पूर्ववर्ती तीर्थकर पाश्व- कहा जा चुका है कि दोनों धर्म भारत में पैदा हुए, पर जैननाथ (जो उनसे केवल २०० वर्ष पूर्व हुए थे) द्वारा प्रच- धर्म तो माज भी जीवित रूप से अपनी जन्मभूमि में विद्यलित धर्म को ही अंगीकार किया और उसे ही तत्कालीन मान है पर बौद्धधर्म अपनी जन्मभूमि को छोड़ पूर्वी समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। म० बुद्ध के विचार अपने क्षितिज पर पल्लवित हो रहा है- ऐसा क्यों? एक बड़ा समकालीन मतों एवं विश्वासों से बहुत कम मेल खाते हैं; विचारणीय प्रश्न है। अतः पाज यह अत्यधिक आवश्यक क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि "मानवजाति के लिए है कि म० बुद्ध और भ. महावीर की शिक्षाओं का जो मैंने कुछ नवीन खोज की है" पर भ० महावीर के विचार अध्ययन हुआ उसे और भी अधिक विस्तार एवं शोधअपनी समकालीन विचारधाराओं से बहुत मिलते-जुलते हैं, पूर्वक मनन, चिन्तन कर पता लगाया जाय । वे दूसरों के विचार समझने को सदैव उत्सुक रहते थे, जैन सम्प्रदाय के इतिहास की सामग्री यत्र-तत्र विखरी क्योंकि वे उस धर्म का उपदेश साधारण से परिवर्तित रूप में पड़ी है। महावीर के पश्चात् जैनधर्म का अनुवर्तन बड़ेकर रहे थे, जो भ० पार्श्वनाथ के समय से प्रचलित था। बड़े धुरंधर विद्वान् एवं साधुओं ने किया, जिन्हें श्रेणिक उदाहरणार्थ डा. याकोबीने लिखा है "महावीर और बुद्ध विम्बसार तथा चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे महान् प्रभावशाली दोनों ने अपने मतों के प्रचार के लिए अपने-अपने वंशों का शासकों का माश्रय प्राप्त था। बहुत से धार्मिक साधु, सहारा लिया । दूसरे प्रतिद्वंद्वियों पर उनका प्रचार निश्चय राजवंश, समृद्ध व्यापारी एवं पवित्र परिवारों ने जैनधर्म ही देश के मुख्य-मुख्य परिवारों पर निर्भर था। म. बुद्ध की स्थिरता एवं प्रगति के लिए बड़े-बड़े बलिदान किए की मायु ८० वर्ष की थी जबकि भ० महावीर केवल ७२ फलस्वरूप भारतीय कला, साहित्य, नैतिकता, सभ्यता एवं वर्ष ही जिये। म० बुद्ध के मध्य मार्ग ने समाज को एक संस्कृति के लिए जैनियों की जो कुछ भेंट है उस पर भारत नवीनता दी पौर नये अनुयायियों में विशेष उत्साह पैदा को गर्व है। किया, फलस्वरूप उनका प्रभाव बड़ी दूर-दूर तक विस्तार भ. महावीर के सिद्धान्त विधिवत् रूप से तत्कालीन से फैला, पर भ. महावीर ने तो नवीन और प्राचीन दोनों लोकभाषामों में नियमानुसार अन्यबद्ध हुए जिनकी को ही अपनाया था, इसलिए वे सहयोग की भावना से व्याख्या नियुक्ति, चूणि, भाष्य एवं टीकामों के रूप में हुई प्रोत-प्रोत रहे। उनके समय नये अनुयायियों का प्रश्न इतना और फुटकर विषयों पर छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी गई। ज्वलन्त न था जितना कि म. बुद्ध के सामने था। जैन उन पर भागे चलकर बड़ा विवेचनात्मक विस्तृत साहित्य भौर बौद्ध साधुनों के नियमों में बड़ी समानता थी, इसका तयार हुमा। उनकी शिक्षामों एवं सिद्धान्तों को बड़े-बड़े प्रबल प्रमाण यह है कि कुछ समय के लिए म. बुद्ध ने दिग्गज विद्वानों एवं मुनियों ने बड़े तार्किक ढंग से सुरक्षित नियत्व (दिगम्बरत्व) धारण किया था, जो भ० पार्श्वनाथ रक्षा, जबकि अन्य भारतीय पद्धतियों में ऐसा बहुत ही
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म. महावीर रानीवन पर्सन कम था। भारतीय साहित्य में जैनियों की सेवा भनेकों ही जान सके, इस सबका श्रेय इन भंडारों के संग्राहकों विषयों से सम्बन्धित हैं और वे प्राकृत (मर्धमागधी) अप- एवं निर्मातामों को ही है। ग्रंश, संस्कृत, तामिल, कन्नड, पुरानी हिन्दी एवं पुरानी जैन साहित्य का निष्पक्ष एवं समालोचनात्मक अध्ययन गुजराती प्रादि विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है। जैना- जैनधर्म और जीवन के सही दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने में चार्यों ने भाषामों को अपने उद्देश्य का मूल साधन माना घा, समर्थ हैं । जीवन की जैन दृष्टि से मेरा तात्पर्य उस जीवन धार्मिक उदारता के कारण उन्होंने किसी एक ही भाषा पर दर्शन से है जिसमें जैन मध्यात्म एवं नीति (माचार) बल नहीं दिया । धन्य है उनकी दूरदर्शिता को कि उन्होंने विषयक मूल सिद्धान्तों का न्यायपूर्ण विवेचन हो और जैन संस्कृत ओर प्राकृत भाषाओं में इतने विशाल साहित्य का उद्देश्यों की पूर्ति होती हो, आज के जैनधर्मावलंबियों की निर्माण किया तथा तामिल और कन्नड को इतना अधिक जीवन-दृष्टि से नहीं। सुसमृद्ध किया, इसके लिए मुझे विद्वज्जनों से विशेष कुछ आध्यात्मिक दृष्टि से सभी पात्मायें अपने अपने कहने की जरूरत नहीं है । गत कई वर्ष हुए डा. बलर ने विकास के अनुसार (गुणस्थान रूप से) धर्म के मार्ग में जैन साहित्य के विषय में लिखा था कि "व्याकरण, खगोल अपना यथायोग्य स्थान पाती हैं। प्रत्येक की स्थिति अपने शास्त्र और साहित्य की विभिन्न शाखामों में जैनाचार्यों अपने कर्मानुसार सुनिश्चित है और उनकी उन्नति अपनी की इतनी अधिक सेवाएँ हैं कि उनके विरोधी भी उस तरफ अपनी संभाव्य शक्ति पर निर्भर है। जैनियो के ईश्वर न प्राकर्षित हुए । जैनाचार्यों की कुछ रचनायें तो आज यूरोपीय तो विश्व के कर्ता हैं और न ही सुख दुखों के दाता । वे विज्ञान के लिए भी अत्यधिक महत्व पूर्ण है। दक्षिण में तो एक आध्यात्मिक मूर्ति हैं, जिन्होने (कृतकृत्यता प्राप्त जहाँ उन्होंने द्रविड़ों के बीच कार्य किया वहाँ उनकी कर ली है उनकी पूजा स्तुति केवल इसलिए की जाती है भाषामों के विकास में उन्होंने पूर्ण योग दिया । कन्नड़, कि हम भी तदनुकूल बनकर उसी कृतकृत्यत्व एवं सर्वज्ञत्व तामिल एवं तेलगु आदि साहित्यिक भाषायें तो जैनाचार्यों की स्थिति को प्राप्त कर सकें। प्रत्येक प्रात्मा को अपने द्वारा डाली हुई नींव पर ही निर्भर हैं और आज उनके ही कर्मानुसार सुख दुख का फल भोगना ही चाहिए, सच तो कारण पल्लवित होरही हैं, यद्यपि यह भाषा विकास का यह है कि हर प्रात्मा अपना भावी भाग्य विधाता स्वयं ही कार्य उन्हें अपने मूल उद्देश्य से बहुत दूर खींच ले गया हैं। किसी मात्मा के पुण्य-पाप का दूसरे के साथ विनिमय फिर भी इससे भारतीय भाषा एवं सम्यता के इतिहास में होना बिल्कुल ही निराधार है, अतः ऐसे विचारों से कोई उन्हें बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुमा । एक बड़े जर्मन किसी का आश्रित या प्राधीन नहीं बनता है और विश्वास विद्वान ने कहा था जो शोष खोज से भी सिद्ध होता है कि एवं पाशा पूर्वक अपना कर्तव्य पालन करता हुआ निरंतर यदि माज ह्वलर जीवित होते तो भारतीय साहित्य में जैना- प्रगतिशील बना रहता है । यदि कोई पुरुष बाह्य अथवा चार्यों की सेवामों पर वे बड़े उच्च कोटि के शोधपूर्ण प्रांतरिक दबाव के कारण दुष्ट या हत्यारा बन जाता है विचार व्यक्त कर जैनत्व का महत्त्व बढ़ाते । जैनियों ने बड़ी तो उसे निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि अन्तरंग से तो सावधानी एवं चिंता पूर्वक प्राचीन पांडुलिपियों को सुर- वह पवित्र ही है अतः जब कभी काललन्धि आवेगी वह क्षित रखा है। जैसलमेर, जयपुर, पट्टन और मूडबद्री प्रादि स्वानुभूति कर पात्म कल्याण कर लेगा। स्थानों में जो इनके ही संग्रह (भंडार) हैं । निश्चय ही वे जैनधर्म में कुछ प्राचार संबंधी नियम सुनिश्चित हैं, राष्ट्रीय सम्पत्ति के एक भाग हैं । उन्होंने ये संग्रह (भंडार) जो मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में क्रमशः विकास ऐसी विद्वत्ता एवं उदार दृष्टि से तैयार किए कि वहां करने में सहायक होते हैं । जब तक वह समाज में रहता धार्मिक द्वेष का कोई नामोनिशान (चिह्न) तक न था। है तब तक माध्यात्मिक उन्नति के साथ साथ समाज सेवा जैसलमेर और पट्टन के भंडारों में तो कुछ ऐसी मूल बौर की भोर विशेष भाकृष्ट रहता है, पर यदि वह सांसारिक कृतियां उपलब्ध है, जो कि हम केवल तिब्बती भमुवाद से झंझटों को छोड़ मुनिपद अंगीकार करता है तो फिर
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उसका सामाजिक उत्तरदायित्व घट जाता है। जैनधर्म में नहीं। ये सद्गुण सुयोग्य नागरिकों के अनुकूल सामाजिक श्रावकों के कर्त्तव्य मुनियों जैसे ही होते हैं पर मात्रा एवं राजनीतिक वर्ग तैयार करते हैं जो मानवीय दृष्टि से (Degree) में कुछ कम होते हैं, अतः श्रावक अपनी प्रच्छे मादमियों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए क्रियामों का पाचरण करता हुआ क्रमशः मुनिपद प्राप्त उत्साहित करते हैं। कर सकता है।
तीसरा विशिष्ट गुण है ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जो अहिंसा एक ऐसा सिद्धान्त है जो जीवन में जैन दृष्टि धार्मिक एवं माध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ विभिन्न का प्रवेश कराती है, जिसका मूल अर्थ है प्राणीमात्र पर दशाओं व विभिन्न मात्राओं में सीखा जाता है। एक अत्यधिक करुणाभाव रखना। जैनधर्म की दृष्टि से सभी प्रादर्श धार्मिक पुरुष जब मन वचन कर्म के बन्धन से मुक्त प्राणी समान हैं और हर धार्मिक पुरुष का कर्तव्य है कि हो जाता है तो उसकी चिरसंचित निधि का अंतिम अवशेष उसके द्वारा (निमित्त से) किसी को कष्ट न पहुंचे। प्रत्येक उसका शरीर मात्र ही रह जाता है जिसे स्थिर (जीवित) प्राणी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व एवं गौरव है और यदि रखने के लिए उसकी आवश्यकताएं भी अत्यधिक सीमित कोई अपना अस्तित्व कायम रखना चाहता है तो उसे रह जाती हैं और जब इनका भी धर्म साधन में कोई योग दूसरों के अस्तित्व का भी पादर करना चाहिए। एक नहीं रह जाता तो इन्हें भी वह सहर्ष परित्याग कर देता दयालु पुरुष अपने चारों भोर दया का वातावरण बनाये है। सुख-शांति की खोज मानव मात्र का एक चरम लक्ष्य रखता है । जैनधर्म में यह सुनिश्चित है कि बिना किसी है। यदि वैयक्तिक प्रवृत्तियों एवं इच्छामों को विधिवत् जाति, धर्म, रंग, वर्ग तथा स्थान के भेदभाव से जीवन रूप से काबू में रखने का प्रयत्न किया जाय तो फिर मनुष्य पूर्ण रूपेण पवित्र एवं सम्माननीय है । जैनधर्म की दृष्टि को मानसिक आनन्द एवं आध्यात्मिक शांति तो मिल ही से हिरोशिमा और नागासाकी का निवासी उतना ही पवित्र जाती है। स्वेच्छापूर्वक धन की आवश्यकताओं को सीमित एवं श्रेष्ठ है, जितना कि लंदन और न्यूयार्क का । उनके करना एक बहुत बड़ा सामाजिक गुण है जिससे सामाजिक काले-गोरे रंग, भोजन अथवा वेष भूषा ये सब बाह्य विशेषण न्याय एवं उपभोग की वस्तुओं का समुचित वितरण होता मात्र ही हैं । इस प्रकार अहिंसा की प्रक्रिया वैयक्तिक रहता है। सशक्त एवं श्रीमंत लोग निर्बल एवं गरीबों को तथा सामूहिक दोनों ही रूप से एक महान सद्गुण है और कूड़ा करकट या उपेक्षित कदापि न समझे, अपितु वे कोषादि कषायों से रहित एवं रागद्वेष विहीन । यह करुणा अपनी अभिलाषामों एवं आवश्यकतामों को स्वेच्छा का भाव निस्सन्देह बड़ा प्रभावक एवं शक्तिशाली होता है। पूर्वक क्रमशः नियंत्रित करें जिससे उपेक्षित वर्ग भी जीवन
जैनाचार का दूसरा महान गुण है भाईचारा या मैत्री में अच्छी तरह जीने के सुअवसर प्राप्त कर सके । ये गुण भाव (Neighbourliness)। प्रत्येक पुरुष को सत्य बोलना व्यक्ति या समाज में बाहरी दबाव अथवा कानून से नहीं चाहिए और दूसरे के गुणों का आदर करना चाहिए, जिससे थोपे जा सकते अन्यथा गुप्त पाप और छल एवं पाखण्ड की समाज में उसका मान मौर विश्वास बढ़े तथा साथ ही प्रवृत्तियां बढ़ने लगेंगी। अतः बुद्धिमान पुरुष को इन गुणों बह दूसरों के लिए सुरक्षा का वातावरण निर्माण में सहायक का क्रमशः अभ्यास कर एक उच्च मादर्श उपस्थित करना बन सकें। यह बिल्कुल व्यर्थ एवं हेय है कि अपने पड़ोसी चाहिए, जिससे एक प्रबुद्ध एवं सशक्त समाज का क्रमिक के साथ तो दुष्टता का व्यवहार करे और समुद्र पार विदे- विकास हो सके। शियों के प्रति विश्वबन्धुत्व एवं उदारता दिखाने का ढोंग व्यक्ति का बौद्धिक स्तर बनाने वाले बहुत से तत्त्व हैं, र। व्यक्तिगत कारुण्य पारस्परिक विश्वास एवं आपसी जैसे वंश परम्परा, वातावरण, पालन-पोषण, अध्ययन और सुरक्षा के भाव अपने पड़ोसी से ही भारम्भ होना चाहिए। अनुभव इत्यादि, पर उसके विचार एवं विश्वास (दृढ़ता) पौर फिर वे क्रमशः उत्तरोत्तर स्तर पर सक्रियरूप से का निर्माण तो बौद्धिक स्तर से ही होता है और वह यदि समाज में फैलाना चाहिए, कोरे रूक्ष सिद्धान्तों के रूप में बौद्धिक ईमानदारी एवं भावाभिव्यक्ति के ऐक्य में पिछड़
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म. महावीर और उनका जीवन-दर्शन
जाता है तो फिर ये सब गुण दूषित हो जाते हैं और मनुष्य मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं अभिव्यक्ति अपूर्ण है अतः की व्यक्तिगत या सामूहिक भावनामों भयवा तौर-तरीकों विभिन्न सिद्धान्त भी अपूर्ण ही हैं, ज्यादा से ज्यादा वे सत्य के अनुसार विभिन्न रूप धारण कर लेते हैं, इसीलिए की एक तरफा दृष्टि को ही पेश करते हैं जो शब्द या विचारों की निर्द्वन्द्वता एवं दृष्टिकोण का सहयोग दुर्लभ-सा विचारों द्वारा ठीक रूप से व्यक्त नहीं की जा सकती। ही होता जाता है। प्रायः हम सब अपने पापको बहुत धर्म सत्य का प्रतिनिधित्व करता है, प्रतः सहिष्णुता जैन अच्छा और ठीक समझते हैं पर किसी विषय पर मापस में धर्म एवं मादर्शों की मूल आधारशिला है। इस सम्बन्ध में सहमत होने की अपेक्षा प्रसहमत होना आसान ही नहीं तो जैन शासकों और सेनापतियों तक के प्रादर्श अनुकरणीय स्वाभाविक भी है, इसी स्थिति से निपटने के लिए जैनधर्म है। भारत के राजनैतिक इतिहास से यह स्पष्ट रूप से ने विश्व को दो बड़े महत्वपूर्ण सिद्धान्तों की भेंट प्रस्तुत ज्ञात होता है कि किसी भी जैन शासक ने कभी किसी को की हैं, वे हैं नयवाद और स्याद्वाद, जो किसी विषय को मौत की सजा नहीं दी, जब कि जैन साधु एवं जैनियों को समझने और समझाने में बड़े साधक होते हैं। पदार्थ के अन्य धर्मावलम्बियों की धर्मान्धता का कोप-भाजन बनना विभिन्न दृष्टिकोणों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों का पड़ा । डा. Saletore ने ठीक ही कहा है “जैनधर्म के विश्लेषण नयवाद से होता है। एक उलझे हुए प्रश्न के महान् सिद्धान्त अहिंसा ने हिन्दू संस्कृति को सहिष्णुता के विश्लेषणात्मक परिचय का यह एक सुन्दर उपाय है। नय सम्बन्ध में बहुत कुछ दिया है तथा यह भी सुनिश्चित है एक ऐसा विशेष मार्ग है जो एक सम्पूर्ण पदार्थ के किसी कि जैनियों ने सहिष्णुता का पालन जितनी अच्छी तरह एक भाग अथवा दृष्टिकोण का विवेचन करता है, जिससे एवं सफलतापूर्वक किया उतना भारत के अन्य किसी वर्ग सम्पूर्ण पदार्थ गलत नहीं समझा जा सकता। इन विभिन्न ने नहीं किया।" दृष्टिकोणों के समन्वय की भी एक नितान्त आवश्यकता है एक समय था जब मनुष्य प्रकृति की दया पर निर्भर जिसमें प्रत्येक दृष्टिकोण अपनी उचित स्थिति प्राप्त कर था, पर प्राज प्रकृति के रहस्यों पर विजय पाकर वह उसका सके और यह कार्य "स्याद्वाद" द्वारा होता है। एक व्यक्ति स्वामी बन बैठा है। विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अस्ति, नास्ति और उभय रूप से पदार्थ का वर्णन कर तेजी से विकास हो रहा है। अणु शक्ति एवं राकेटों के सकता है। इन तीनों के संयोग से सात अन्य विशेषण और प्राविष्कार ऐसे आश्चर्यकारी हैं कि यदि वैज्ञानिक चाहे तो बन जाते हैं जो स्यात् शब्द के जुड़ने से विषयको समझने सम्पूर्ण मानव जाति को कुछ ही क्षणों में ध्वंस कर सारी और समझाने का एक समुचित मार्ग बन जाता है। मस्ति की सारी पृथ्वी को ही अदल-बदल सकता है, प्रतः माज नास्ति के विवेचन में स्याद्वाद पृथक् नय के सत्तात्मक सम्पूर्ण मानव जाति विपत्ति के कंगार पर खड़ी है, जिससे दृष्टिकोण को दबा देता है। प्रो० ए० बी० ध्रुव ने कहा उसका मस्तिष्क पथ-भ्रष्ट हो चकरा रहा है तथा उसकी है "स्पाद्वाद काल्पनिक रुचिका सिद्धान्त नहीं है जो सत्त्व शरण में भाग रहा है जहाँ इस विनाश से सुरक्षा (राहत) विद्या (प्राणि विज्ञान) सम्बन्धी समस्याओं को आसानी से मिल सके अतः निश्चय ही हमें अपने प्राचीन पादों का सुलझा सके अपितु यह तो मनुष्य के मनोवैज्ञानिक एवं पुनरंकन करना होगा। आध्यात्मिक जीवन के ताल-मेल को बैठाता है"। एक दार्श- वैज्ञानिक प्रगति मनुष्य को अधिकाधिक सुख-शान्ति निक जब जैनधर्म के मूलतत्त्व अहिंसा एवं बौद्धिक सहयोग प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील है, पर दुर्भाग्यवश मनुष्य के साथ अन्य धार्मिक विचारों पर अपने मत व्यक्त करता मनुष्य रूप से नहीं समझा जा रहा है, प्रायः गोरी जातियाँ है तो उसमें स्याद्वाद से विचारों की निष्पक्षता पाती है ही मनुष्यता की अधिकारिणी समझी जाती हैं यही दृष्टिऔर यह निश्चित करता है कि सत्य किसी की पैतृक कोण हमारे नैतिक स्तर का विध्वंसक है । यदि विश्व का सम्पत्ति नहीं है और ना ही किसी जाति या धर्म की कुछ भाग अधिक सुसभ्य एवं प्रगतिशील बना हुमा समझा सीमानों में सीमित है।
जाता है तो वह निश्चय ही विश्व के बाकी भाग की नादानी
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एवं सज्जनता के बल-बूते पर ही बना है। मानव जाति का अच्छा पड़ोसीपन एवं लालसामों पर नियन्त्रण, ये सहयोगात्मक सामूहिक विकास ही जातिभेद नीति को जड़- दोनों बड़े श्रेष्ठ सद्गुण है। सत्य सदा सत्य ही रहता है मूल से नष्ट कर सकता है। अपनी व्यक्तिगत समृद्धता एवं उसे वैयक्तिक, सामूहिक, राजनैतिक अथवा सामाजिक श्रेष्ठता की अपेक्षा मानवमात्र की श्रेष्ठता एवं पवित्रता किसी भी दृष्टि से देखिए, एक ही मिलेगा। जिसे स्वयं का महत्व समझा जाना चाहिए । वैज्ञानिक प्रवृत्ति एवं प्रात्मज्ञान नहीं है और ना ही दूसरों को मनुष्य रूप से साघु प्रवृत्ति के परस्पर सहयोग होने पर ही मनुष्य सही जानने की इच्छा है वह दूसरों के साथ तो क्या स्वयं भी ढंग से मनुष्य के रूप में परखा जा सकता है। तकनीकी सुख-शांति से नहीं रह सकता है। स्व-पर विवेक ही हमारे रूप से संगठित इस विश्व में अब स्व-पर का भेद बहुत ही प्रापसी सन्देहों को मिटा कर युद्ध के लगातार भय को थोड़ा रह गया है। माज अपना कल्याण दूसरों के कल्याण सन्तुलित करता है एवं हमें शांति पूर्ण सहअस्तित्व की पर ही निर्भर है। यदि इस अहिंसा के सिद्धांत को ठीक डंग स्थिति में ले जाता है। से समझा जावे एवं प्रयोग किया जावे तो विश्व नागरिकता
आजकल विचार एवं भाषण की स्वतन्त्रता एक विलके मानवीय दृष्टि की यह एक मावश्यक माधारशिला बन
क्षण ढंग से पंगु हो रही हैं । लोगों के अपने अभिप्राय पूर्ण सकती है।
प्रचार यथार्थ सत्य को छिपा ही नहीं देते अपितु उसे ऐसा ____मनुष्य की सुगठित क्रूरता से हमें निराश नहीं होना।
तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं कि सारा संसार पथभ्रष्ट हो चाहिए । कर्म सिद्धान्त के अनुसार हम अपने भाग्य विधाता
भटक रहा है । इसका स्पष्ट अर्य है कि विवेकी पुरुष स्वयं स्वयं ही हैं । हम मारम निरीक्षण करें, अपने विचारों का
प्रबुद्ध रहे तथा अपने ज्ञान की सीमाओं को समझता हुमा विश्लेषण करें तथा अपने उद्देश्यों का वैयक्तिक व सामूहिक
व सामूहिक नय एवं स्यावाद रूप से दूसरों के दृष्टिकोणों का प्रादर रूप से मनुमान लगायें और किसी भी शक्ति के आगे
करना सीखे। हम मानव में मानवता के विश्वास को न हीनतापूर्वक झुके बिना ही इस विश्वास और पाशा के
खोयें और परस्पर प्रत्येक का मानव रूप में ही आदर साथ स्व-कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर रहें कि मनुष्य को अपने
करना सीखें तथा मनुष्य को विश्व नागरिक के रूप से अस्तित्व एवं भलाई के लिए उन्नति का प्रयत्न करना है।
स्वस्थ एवं प्रगतिशील स्थिति में रहने देने में योग दें। जैन देवत्व प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है और वह धर्म के मार्ग
धर्म के मूल सिद्धान्त (अहिंसा, व्रत, नयवाद और स्याद्वाद) का अनुसरण कर इस देवत्व को प्राप्त कर सकता है।
यदि सही ढंग से समझे जावें तथा उनका ठीक ढंग से विज्ञान एवं तकनीकी बुद्धि बल से हमें निर्णय करना है कि गाजावेतो प्रत्येक व्यक्ति विश्व का सयोग्यतम माया हम मानव समाज की भलाई को भागे बढ़ाना चाहते।
हम मानव समाजका लक्षिा मानकापाहत नागरिक बन सकता है। हैं अथवा स्वयंको रेडियम धर्मी धूलि के ढेर रूप में परिवर्तित करना चाहते हैं।
अनुवादक-कुन्दनलाल जैन एम. ए., एल. टी.
हंसान्योक्ति
मानसर धरनी मुदित मराल तहां पंकज पौन कर सुखन सुरारी है। मधुप मधुप धुनि गावत गुंजार कर मुक्ताफलती खिलावै सदा मन सांचै है। एक समय बाजी वाय छूट गयो वास थल, ऐसी विष करी हंस कूपजल जारी है। कहत 'अमर कवि' भूत भावी वर्तमान सुख दुख सह जीव कर्म बस ना है।
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पवित्र पतितात्मा
लेखक-श्री सत्याभय भारती
के उपवास से उनका शरीर भले ही कृश हो जाता हो नहीं पिताजी, यह कभी नहीं हो सकता । संसार परन्तु उनकी प्रात्मा पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं मुझे विष समान मालूम होता है। इस निःसार जीवन के पड़ता था। विपत्तियों को उनने चूर चूर कर दिया था। लिये मैं सच्चा जीवन नहीं खो सकता।'
बे एक अजेय वीर साबित हो चुके थे। जिन लोगों ने 'बेटा, तुम्हारा कहना ठीक है। लेकिन साधु-जीवन उनको दीक्षा लेने से रोका था वे भी माश्चर्यचकित हो बड़ा कठिन है । कोई भी चीज वहीं तक अच्छी है जहाँ तक गये और अपने रोकने पर उन्हें पश्चाताप हो रहा था। हम उसे सह सकें। अगर पच न सके तो अमृत भी विष मनुष्य की प्रकृति विचित्र है। वह भौंरे के समान हो जाता है।'
हैं। भोंरा काठ को काट डालता है परन्तु कमल के पत्र कुछ भी हो। मैं नही मान सकता।'
को नहीं काट पाता। मनुष्य भी बड़ी बड़ी आपत्तियों को नन्दिषण ! तुम राजमहलों में रहे हो! भला, किस चूर्ण कर डालता है परन्तु प्रलोभनों की मार पड़ने पर तरह जंगल मे रहोगे?
हार जाता है। नन्दिषेण ने विपत्तियों को जीत लिया था "पिता जी ! शेर के बच्चे को जंगल में रहना सिखा- किन्तु प्रलोभनों का जीतना बाकी था। सब से बड़ी ना नहीं पड़ता। वह जंगल में ही सुखी रहता है। सोने परीक्षा देने की ओर उनका ध्यान न था। का पिंजड़ा देखकर वह लुभा नहीं जाता।
रूक्ष भोजन तथा अन्य तपस्यामों ने उनकी इन्द्रियों 'नन्दिषेण ! मेरा साहस नहीं होता कि तुम्हें दीक्षा को बहुत कुछ शिथिल कर दिया था फिर भी जवानी के लेने की आज्ञा दूं। परन्तु तुम्हारा हठ जबर्दस्त है। जोश को वे मार न सकी। भीतर का शत्रु दब गया पर जब तक तुम ठोकर न खायोगे तब तक तुम्हें किसी की मरा नहीं। वह चुपचाप पड़ा-पड़ा मौके की बाट देखता शिक्षा न लगेगी। खैर जागो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। रहा। नन्दिषेण महाराज श्रेणिक को प्रणाम करके चले गये
( ३ ) और भगवान महावीर के समवशरण में पहुंचे। वहां पर नगर भर में कामकान्ता का नाम प्रसिद्ध था। उस भी सबने रोका परन्तु उसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा।
नगर के वेश्या जगत् की यह रानी थी, अनेक युवकों कों आखिर उनने दीक्षा ले ही ली।
उसने अपनी आँखों के इशारे पर नचाया था। अनेकों को
गन्ने की तरह चूस कर रास्ते का कूड़ा-कचरा बना दिया मानव हृदय एक तरह की गेंद है जो टक्कर खाकर था। उसका बड़ा ठाटबाट था। लेकिन उसकी वास्तनीतिक जलता निहिण को ज्यों- विक सम्पत्ति थी उसका यौवन और उस से भी बड़ी ज्यों रोका गया त्यों त्यो उनका हृदय और भी अधिक सम्पत्ति थी उसका सौन्दर्य और सबसे ज्यादा जहर था उछलता गया, और इसी जोश में उनने दीक्षा ले ली उसकी तिरछी चितवन में। नन्दिषण विपत्तियों से डरने वाले नहीं थे। जंगलों में एक दिन नन्दिषेण मुनि उसी नगर में भिक्षा के लिये शेर की गर्जना उनके हृदय पर कुछ भी प्रभाव नहीं गये। उनने कामकान्ता को देखा। उसी समय काम ने डालती थी। कड़ी से कड़ी धूप और कड़ी से कड़ी ठंड उनके हृदय पर चोट की। हृदय डांवाडोल हुमा । नन्दिको वे बिना किसी संक्लेश के सह जाते थे। कई दिन षेण ने उस दिन भिक्षा न ली और लौट पाये।
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अनेकान्त
स्थान पर आकर उन्होंने अपने चित्त को स्थिर करने की बहुत कोशिश की, बहुत धात्मचिन्तन किया किन्तु सब व्यर्थ । काम ने उनको जकड़कर पकड़ लिया था और अब वे एक तरह से पिंजड़े में पड़े हुए शेर के समान हो रहे थे।
आज रात्रिभर नन्दिषेण को निद्रा न आई। वे प्राँखें मींचते थे लेकिन अँधेरा न होता या सामने कामकान्ता नजर आने लगती थी। उनके हृदय में एक प्रकार का युद्ध हो रहा था । रागवृत्ति और विरागवृत्ति एक दूसरे को पराजित करना चाहती थी।
नन्दिषण ! क्यों जरासे प्रलोभन में पड़कर अपनी अमूल्य सम्पत्ति को बरबाद कर रहे हो ! अगर तुम्हें भोग ही भोगना था तो घर में ही क्या कमी थी ? यह व्रत क्यों धारण किया था ।
'जो कुछ हो । अब यह व्रत नहीं पाल सकता | घर में भोगों से तृप्त हो गया था इसीलिये भोग छोड़ दिये थे अब फिर भूख लगी है तो क्या भूखों मरता रहे?
'तो क्या नन्दिषेण ! भूल के लिये विष लालोगे ! जिसको तुम उचित समझ कर छोड़ आये हो उसी का फिर सेवन करोगे ?
उच्छिष्ट और अनन्तकाल से खा रहा हूँ । भूख न लगे वह अच्छा, अथवा लगे तो उसे सहन कर सकू तो अच्छा, लेकिन भूख 'के दुःख से बिलबिलाता रहूँ और उच्छिष्ट अनुच्छिष्ट का विचार करता रहूँ, इससे बढकर मूर्खता और क्या होगी ? नहीं, अब यह वेदना मुझ से न सही जायगी ।'
वर्ष १५
कामकान्ता ने देखा कि एक साधु उसी के घर की मोर भा रहे हैं। प्राज तक उसने सैकड़ों युवकों को देला था और उन को अपना शिकार बनाया था। लेकिन श्राज उसे मालूम हुआ कि मैं स्वयं शिकार बन रही हूँ ।
आजतक उसने तन बेचा था, लेकिन ग्राज उसका मन छीना जा रहा था । नन्दिषण को देखकर उसका मन काबू में न रहा । वेश्या पुरुष की दासी नहीं है किन्तु धन की दासी है। लेकिन आज वह अपने सिद्धांत पर विजय प्राप्त न कर सकी ।
नन्दिषेण धीरे धीरे वहाँ पहुँचे। उसने बहुत कोशिश की कि अभी कुछ नहीं बिगड़ा इसलिए लौट चलूं, परन्तु वे न लौट सके। फिर सोचा, अगर कामकान्ता मेरा तिरस्कार कर दे तो भी अच्छा है। लेकिन यह भी न हुम्रा कामकान्ता ने विनय से कहा- "महाराज क्या आज्ञा है ?"
'अरे ! तुम राजपुत्र होकर ऐसी बात करते हो ! 'राजपुत्र है या कोई है, आाखिर मनुष्य हूँ मैं जड़ नहीं हूँ। जो मनुष्य सौन्दर्य पर मुग्ध नहीं होता वह या तो ईश्वर है या जड़ | मुझ में कमजोरी है, मैं ईश्वर नहीं बन पाया हूँ इसलिये सौन्दयं का प्रभाव मेरे ऊपर न पडे यह कैसे हो सकता है ?
इस तरह दोनों वृत्तियों का घोर युद्ध होता रहा। लेकिन नन्दिषेण का हृदय स्थानच्युत हो गया था, वह सम्हल न सका । दूसरे दिन नन्दिषेण भिक्षा के लिये नगर में गये और उसी वेश्या के मकान पर पहुँचे ।
नन्दिषेण चुप रहे उसने सोचा- अब भी भाग सकता हूँ । उनने पीछे देखा भी, परन्तु भाग न सके ।
कामकान्ता सब कुछ ताड़ गई। उसने पशुओं को नहीं, किन्तु मनुष्यों को चराया था वह मनोविज्ञान की पंडिता थी। आज उसे अपनी विजय पर गर्व था। विजय के सच्चे गर्व से मनुष्य नम्र हो जाता है । इस नम्रता से वह अपने गर्व का जितना परिचय दे सकता है उतना अन्य तरह नहीं इसीलिए उसने फिर धत्यन्त नम्रता ने कहा'देव दासी पर कृपा कीजिये। यह सारी सम्पत्ति आपकी है। मेरा यौवन, मेरा सौन्दर्य, मेरा शरीर और मेरे प्राण भी आपके हैं ।'
।
नन्दिषेण ने कहा – 'कामकान्ता ! मैं निर्धन हूँ । क्या तुझ से यह भी नहीं हो सकता है कि मेरा अपमान कर दे ? मुझे धुतकार दे ? तू वेश्या होकर भी एक निर्धन को क्यों चाहती है ? तू अपने धर्म को क्यों भूलती हैं ?"
कामकान्ता ने लज्जा से सिर झुकाकर कहा - 'देव ! स्त्री, चाहे वेश्या हो या पतिव्रता, वह एक ही पुरुष को चाहती है। वेश्याओं का हृदय भी कुलवती स्त्रियों के समान कोमल होता है, उस में भी प्रेम होता है भौर भगर पृष्टता माफ़ हो तो मैं यह भी कह सकती हूँ कि वह प्रेम इतना ही पवित्र होता है जितना कि कुलवती स्त्रियों का।'
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पविध पतितात्मा
नन्दिषेण ने ताज्जुब से कहा-'क्या वह प्रेम पवित्र नाय! भाप मेरे साथ रहकर भी परोपकार कर होता है ? तुम्हारी यह बात मेरी समझ में नहीं पाती !' सकते हैं। धार्मिक जीवन भी बिता सकते हैं। सैकड़ों __ कामकान्ता उत्तेजित होकर बोली-'हां, वह प्रेम मनुष्यों को धर्म मार्ग पर लगा सकते है। पवित्र होता है ? मैं सौ बार कहती हूँ कि वह प्रेम पवित्र 'तेरे यहाँ कौन भला आदमी धर्म सुनने को भायेगा।' होता है।
___'दुनियाँ में जो भले आदमी कहे जाते हैं उनमें से 'तब वे सैकड़ो पुरुषों के हाथ उस प्रेम को क्यों बेचती हजारों प्रादमी मेरे यहाँ धूल चाटते है। अगर मैं उनकी हैं ? क्या पवित्र प्रेम इस तरह बेचा जा सकता है ?' ओर देख दूं तो वे अपने को कृतकृत्य समझे। अगर आप ___ 'नाथ ! कोई भी वेश्या प्रेम नहीं बेचती! फिर पवित्र
मेरे यहाँ पाने वालों को पतित समझते है तो मैं सिद्ध कर
दूंगी कि समाज में हजारों लोग गाय का मुह लगाकर प्रेम की तो बात ही क्या है ? वह तन बेचती है, मन नहीं बेचती । प्रेम मन में रहता है तन में नही रहता।'
शिकार करते हैं। समाज एक शरीर है जो ऊपर साफ
सुन्दर और भीतर से महा गन्दा और दुर्गन्धित है।' ___ 'कामकान्ता ! तेरी बातें मधुर और जोरदार हैं,
'अनुभव की मूर्ति ! तेरी बातें सुनकर मैं चकित हो गया लेकिन ये मेरे हृदय पर बड़ी भारी चोट कर रही हैं । मेरा
। हूँ यदि सचमुच समाज की यह दशा है तो मैं उसे हाथ हृदय फिसलता हुआ था, तूने पैर पकड़ कर नीचे की पोर
जोड़ता हूँ। मैं उसका भला नहीं कर सकता।' खींच लिया । मेरा बुद्धि बल व्यर्थ जा रहा है। मैं जान
कामकान्ता को हँसते देख कर नन्दिपेण ने पाश्चर्य से बूझ कर विष पी रहा हूँ।'
सिर हिलाकर पूछा-'हंसती क्यों हो?' _ 'देव ! तब आप जाइये। एक वेश्या के पास विष
क्या आप भले आदमियों को सुधारना चाहते हैं ? पीने के लिए न पाइये । मैं यह नहीं चाहती कि आफ्को
परन्तु इसमें बहादुरी क्या है ? बहादुरी तो इस बात में पतित होना पड़े । सच्चा प्रेम, प्रेमी का पतन नही चाहता,
है कि आप बिगड़ों को बनावें। सुधरे तो सुधरे हुए ही हैं, उत्थान चाहता है। जाइये नाथ ! जाइये । मेरे हृदय को
उन्हें आपकी जरूरत नहीं है। आपकी जरूरत है उन शूद्रों छीनकर वन का रास्ता लीजिये।
को, जो समाज में ज्ञान के अधिकारी भी नहीं माने गये नन्दिषेण चुप रहे । वे स्वयं निर्णय नहीं कर पाते थे हैं, जिन्हें समाज ने पशुओं से भी बदतर समझा है। -रहँ या जाऊँ । नन्दिषेण को चुप देखकर कामकान्ता ने प्रापकी जरूरत है उन टीन महिलानों को. जो अन्याय की कहा-प्यारे ! अगर संसार में प्रेम कोई चीज है और चक्की में पिस रही हैं, गुलामी करना ही जिनके लिए धर्म पुरुषों में हृदय नाम का कोई पदार्थ होता है तो आपको
पदार्थ होता है तो आपको बतलाया जा रहा है । जो बिगड़ा है, जहाँ अनेक खराबियाँ वन में भी शान्ति न मिलेगी । मेरा प्रेम आपके हृदय को हैं-वहीं सूधारकों की जरूरत है, वहीं सुधार करना चैन नहीं लेने देगा, आप इधर से भी जायेंगे और उधर चाहिए । स्वर्ग लोक में तीर्थकर नहीं होते, नरलोक में से भी जायेंगे। आप पहिले सोच लीजिये और फिर जिसमें तीर्थकर होते है। आपका कल्याण हो वही कीजिये। मैं अपने लिये आपको
कामकान्ता की बातें सुनकर नन्दिषेण पत्थर की नहीं गिरा सकती
मूर्ति की तरह चुप रहे । उनके हृदय में आश्चर्य की लहरें कामकान्ता ! तेरी बातों से मैं पागल हो जाऊँगा। उठने लगीं। यह वेश्या है, परन्तु इसके भीतर कितना ज्ञान मुझे सोचने दे। परन्तु सोचू क्या ? मैं हृदय खो चुका हूँ है ! कितनी पात्रता है ! क्या यह शक्ति सुमार्ग पर नहीं
और बुद्धि से भी हाथ धो चुका हुँ । मैं मानता हूँ कि यदि लगाई जा सकती? मैं एक बार उद्योग करूंगा । मैं इधर से चला जाऊँ तो मुझे वन में भी शान्ति नहीं "कामकान्ता ! मैं एक प्रतिज्ञा के साथ तेरे यहां रह मिलेगी। किन्तु मुझे चिन्ता यही है कि मैं अपने पवित्र सकता हूँ।" जीवन को इस प्रकार नष्ट कैसे करूं ?'
'वह क्या ?'
मूति
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११८
___मैं प्रतिदिन दस मनुष्यों को प्रबोध देकर भगवान उस मनुष्य को उपदेश देने का क्या अधिकार है ? जो उस महावीर के पास भेजा करूंगा।'
पथपर नहीं चल सकता। यही सोचते सोचते वे धर पाये। 'मुझे स्वीकार है !'
कामकान्ता ने उनका उदास मुंह देखकर कहा-नाथ 'अब मैं तेरे यहां रहने को तैयार हूँ आज तेरी पूर्ण माज यह उदासी क्यों ? विजय हुई है।
'कामकान्ता !' याज तक मैं कितनी भूल पर था ? 'नाथ, यह मेरी विजय नहीं, प्रेम की विजय है।' मुझे यह अधिकार नहीं है कि जिस पथ पर मैं नहीं चल
सकता उस पर दूसरों को चलाऊँ।' नन्दिषेण दस आदमियों को प्रबोध देकर प्रतिदिन
'तब क्या आप दूसरों को प्रबोध नहीं देना चाहते ?' भगवान महावीर के पास भेजते रहे । उनकी वाणी में 'सो तो मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।' प्रोज था जिसे सुनकर लोगों के दिल पिघल जाते थे। दोनों बातों का पालन कैसे होगा। अपनी वक्तृत्व शक्ति के बल पर बहुत दिनों तक वे इसी
'कामकान्ता, अब मैं क्षमा चाहता हूँ। आज दसवा प्रकार भादमी भेजते रहे । एक दिन उन्हें सिर्फ नौ प्रादमी
आदमी नहीं मिल रहा है । इस लिए अपनी प्रतिज्ञा पालन हा मिल । दसवा एक सुनार था। नान्दषण न उस बहुत करने के लिए मैं स्वयं दसवां आदमी बनकर भगवान के समझाया परन्तु वह न माना। बल्कि जाते जाते वह कह पास जाता हैं। गया कि आप तो वेश्या के यहां मौज कर रहे हैं और हमें
क्या दसवाँ आदमी मैं नहीं बन सकती ?' उपदेश देते हैं-वैराग्य का।
'कामकान्ता, धर्म का मार्ग कठिन है।' ___ यह अप्रिय सत्य, नन्दिषेण के हृदय में गोली की तरह लगा। नन्दिषेण की पतितात्मा मर गई और उसमें
'पाप इसकी चिन्ता न करें।' पवित्रात्मा का जन्म हुआ। उनके हृदय में बार बार वही आज नन्दिषण ने भ० महावीर के पास दस आदमी ध्वनि गूंजने लगी। अन्त में उनने मन ही मन कहा कि न भेजे किन्तु दस आदमियों को लेकर वे स्वयं पहुंचे।
कवित्त उर को उजारौ सौ उजारी आप मातम को
परि परि जारी न्यारो देखौ नित नूर है । जीभ क्रम काय कर जी को क्रम काय कर
प्रान को न जाप कर आप महासूर है । जाके परताप माहिं देख्यो परताप नाहिं
मातम प्रवाह ज्ञान सागर सपूर है। नाही को विलोक लोकालोक को निवास
जा लोक सौ प्रतीत 'चन्द' चेतना सहूर है।
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नगर, खेट, कर्वट, मटम्ब और पत्तन आदि की परिभाषा
ले० डॉ० दशरथ शर्मा
अनेकान्त के जून १९६२ के अङ्क में पृ० ५१ पर डा. नेमिचन्द जैन ने नगर, खेट, कर्वटादि की जो परिभाषा दी है वह हरिषेण के बृहत्कथाकोश में दी हुई परिभाषा से अंशतः भिन्न है । बृहत्कथाकोश वि० सं० २०८८ की कृति है । 'तथा चोक्तम्' शब्दों से उद्धृत और 'निगदन्ति मनीषिणः' शब्दों से निर्दिष्ट उसकी परिभाषा सं० १०८८ (सन् १०३१ ई०) से भी पर्याप्त प्राचीन रही होगी ।
बृहत्कथाकोश के इस विषय के श्लोक निम्नलिखित
है :
"ग्रामं बृहद्वृति नूनं निगदन्ति मनीषिणः । शालगोपुरसंपन्नं नगरं पौरसंकुलम् ॥१४- १४ ॥ नद्यद्विवेष्टितं खेटं वृतं कर्व टमद्रिणा । शतैः पञ्चभिराकीर्ण ग्रामाणां च मटम्बकम् ॥१९४-१५ ॥ पत्तनं रत्नसंमूर्ति सिन्धुवेलासमावृतम् । द्रोणा मुखमभिस्पष्टं सन्निवेशं नगोपरि ॥ ९४ - १६॥ तथा चोक्तम्
ग्रामोवृत्यावृतः स्यान्नगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासि शालं, खेटं नद्यद्रिवेष्ट्यं परिवृतमभितः कर्वटं पर्वतेन । युक्तं ग्रामैर्मटम्बं दलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनि-, द्रोणाख्यं सिन्धुवेलावलयितमभितो वाहनं चाद्रिरूढम् । ।।६४-१७।।
इन श्लोकों के आधार पर ग्रामादि की परिभाषा इस प्रकार होगी :
ग्राम-- डा० नेमिचन्द्र जैन के मतानुसार 'जिसके चारों ओर दोवालें रहती हैं वह ग्राम कहलाता है ।' हरिषेण के अनुसार ग्राम वह छोटी सी प्रादमियों की बस्ती है जो चारों ओर बड़ी सी बाड़ ( वृति) से घिरी हो । ग्राम के चारों ओर दीवाल नहीं होती । कौटिल्य ने सौ कुलों से पाँच सौ कुलों तक की बस्ती को ग्राम की संज्ञा दी है ।
नगर -- ग्राम में सुरक्षा के लिए केवल बाड़ होती । नगर में चारों ओर मजबूत दीवाल होती, जिसे मध्यकालीन शब्दों में हम 'शहरपनाह' कह सकते हैं। इस दीवाल में नगर में प्रवेश करने के लिए चार मुख्य दरवाजे रहते; जैन कथाएं नगरों के वर्णनों से परिपूर्ण हैं ।
सेट-नदी और पहाड़ों से वेष्टित होने के कारण पर्याप्त सुरक्षित स्थान का नाम खेट या खेटक है।
कर्वट - चारों घोर पर्वतों से घिरी बस्ती कर्वट कहलाती । कौटिल्य ने कार्बटिक संज्ञा उस स्थान विशेष को दी है जो दो सौ गाँवों के व्यापार प्रादि का केन्द्र होता (द्विशतग्राम्याः कावंटिक अर्थशास्त्र, द्वितीय अधिकरण, प्रथम अध्याय) ।
मटम्ब - डा० नेमिचन्द्र ने “नदी और पर्वतों से वेष्टित स्थान" को मटम्ब माना है। वास्तव में यह परिभाषा खेट शब्द की है। मटम्ब तो उस बस्ती विशेष की संज्ञा है जो पाँच सौ ग्रामों के व्यापार आदि का केन्द्र होता हो ।
पतन - पत्तन में रत्नों की प्राप्ति होती । अन्यत्र पत्तन का अर्थ ध्यान में रखते हुए हमें इस श्लोक का अर्थ सम्भवतः यह करना चाहिए कि पत्तन रत्न या धन के श्रागम का मुख्य स्थान था । पत्तन दो प्रकार के होते, जलपत्तन और स्थलपत्तन । कुछ टीकाकारों ने "जहाँ नौकाओं द्वारा गमन होता उसे 'पट्टन' और जहाँ नौकाओं के प्रतिरिक्त गाड़ियों और घोड़ों से भी गमन होता उसे पत्तन की संज्ञा दी है" ( पत्तनं शकटैर्गम्यं घोटकैनौभिरेव च । नोभिरेव तु यद् गम्यं पट्टनं तत्प्रचक्षते ॥ व्यवहारसूत्र पर मलयगिरि की वृत्ति, भाग ३, पृष्ठ १२७ ) । उद्धरण डा० सांडेसरा के 'जैन श्रागम साहित्य माँ गुजरात' से है ।
होलमुख डा० नेमिचन्द्र ने नदी वेष्टित ग्राम को द्रोण की संज्ञा दी है जो ठीक प्रतीत नहीं होती । कौटिल्य के समय चार सौ ग्रामों के केन्द्रीय ग्राम की द्रोणमुख संज्ञा थी । बृहत्कथाकोश के 'सिन्धु वेलावलयितमभितः' से इसकी
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अनेकान्त
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समुद्र तट पर अवस्थिति निश्चित है। समुद्री बन्दरगाह ही १. क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, द्रोणमुख कहलाता है। विषय को स्पष्ट करने के लिए डा.
दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति (कठोपनिषद्) सांडेसरा की उपर्युक्त पुस्तक से दो उद्धरण पर्याप्त होंगे।
२. दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसना (दुर्गशप्तशती) १. दोहिं गम्मति जलेण वि थलेण वि दोणमुहं, जहा
इस बारे में और भी स्पष्ट निश्चय के लिए कि भरुयच्छ तामलित्ति एवमादि (जिनदासगणि महत्तर की दुर्गाटवी 'पर्वत पर रहने वाला ग्राम' न था, अपितु केवल आचारांगसूत्र चूर्णि) पृ० २८२ ।
अटवि विशेष है, पाठक कुवलयमाला के निम्नलिखित उद्ध२. द्रोण्यो नावो मुखमस्येति द्रोणमुखं जल-स्थल निर्ग- रण को पढ़ेंमप्रवेशं यथा भृगुकच्छं ताम्रलिप्तिर्वा (उत्तराध्ययन सूत्र
"अस्थि इओ अइदूरे णम्मया णाम महाणई । तीए य पर शान्तिसूरि की वृत्ति, पृ० ६०५)।
दाहिणे कूले देयाई णाम महाडई। तीए देयाडईए मज्झे संवाहन-डॉ. नेमिचन्द्र ने संवाहन को उपसमुद्रतट
णम्मयाए णाइदूरे विझगिरिवरस्य पायासण्णे अणेय-सउणसे वेष्टित ग्राम माना है। किंतु बृहत्कथाकोशकार ने 'वाहन'
सावय-संकिण्णे पएसे एणिग्रा णाम महातावसी।" को मदिरूढ़ कहा है, और उसी का अनुवाद सन्निवेशं नगोपरि' कह कर किया है । ऊपर दिये उद्धरणों को ध्यान में
(अनुच्छेद २५२, पृ० १५६) रखते हुए सिन्धुवेलावलयित' 'सिन्धुवेलासमावृत' आदि इसमें रेखांकित शब्दों से स्पष्ट है कि देवाटवी केवल शन्दों को हम द्रोणमुख के विशेषण ही मान सकते हैं। नर्मदा नदी के दक्षिण तट पर स्थित महान् अटवी का नाम
वर्गाटवी-डॉ. नेमिचन्द्र ने 'दुर्गाटवी' का अर्थ 'पर्वत था। उसी देवाटवी में नर्मदा के निकट विध्यगिरि के पादापर रहने वाला ग्राम' कर डाला है जो वास्तव में पिछले सन्न प्रदेश में एणिका नाम की एक महातापसी रहती थी। शब्द का अर्थ है। अटवी शब्द वन प्रदेश के लिए और कभी यह ध्यान देने योग्य है कि यह प्रदेश भी 'पादासन्न, है कभी वन प्रदेश में रहने वाले जन समूह के लिए, अशोक 'अद्रिरूढ़' या 'निगोपरि' नहीं। की धर्मलिपियों में प्रयुक्त है। समुद्रगुप्त की प्रयाग की श्री हरिभद्रसूरि के ग्रन्थ साहित्य और दर्शन के क्षेत्र प्रख्यात प्रशस्ति में अटवि में रहने वालों के लिए 'पाटविक' में अनुपम हैं । आठवीं शताब्दी के भारतीय धार्मिक, बौद्धिक शब्द है। दुर्गाटवी केवल एक अटवि विशेष है जिसमें आवा- और सामाजिक जीवन को समझने के लिए उनके ग्रंथों का गमन अत्यन्त कठिन रहा होगा। दुर्ग शब्द के इस प्रयोग सम्यक् अध्ययन और मनन की अत्यन्त आवश्यकता है। के लिए देखें :
हरिभद्र एक युग-प्रवर्तक है।
प्रभु तेरे दरसण की बलिहारी ॥ टेक ॥ निरविकार सुखकार अनूपम
कोटि चन्द्र दुति धारी॥१॥ भव-दधि पार भये याही ते
ये निश्च उर धारी। 'रूप' कहै भव-भव जाचत हूँ
पाऊं सरण तिहारी ॥२॥
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तीन विलक्षण जिन बिम्ब
लेखक-श्री नीरज जैन
इस महादेश में प्रचलित अनेक धर्मों में परस्पर जो चिह्न अंकित है, दोनों मोर दो कमलपुष्प बने हैं जिनके साम्य और समन्वय प्रारम्भ से ही रहा है उसके अनेक ऊपर २२+२२ इंच की पद्मासन श्रीवत्स चिह्नांकित भगउदाहरण प्रायः सभी धर्मों के शास्त्रों, स्तोत्रों तथा क्रिया- वान आदिनाथ की मनोज्ञ मूर्ति है। कलाप में बहुतायत से प्राप्त होते ही हैं पर इस प्रकार के इस मूर्ति की सुन्दर जटाओं का अद्वितीय संयोजन ही साम्य एवं समन्वय का चित्रण मूर्त रूप में भी यत्र तत्र इसकी विशेषता है। यहां केशराशि का संयोजन सीरा दिखाई दे जाता है और उससे हमारी सैकड़ो-हजारों वर्ष पहाड़ की गुफा में स्थित जैन प्रतिमाओं की तरह प्रारम्भ प्राचीन सरल-सामाजिक एवं उदार धार्मिक दृष्टि का पता होता है तथा ऊपर जटाओं का बहुत कलात्मक गुंथन करके चलता है।
कलाकार ने स्पष्ट ही भुमरा के एकमुख शिव या नचना पुरातत्त्व विशेषज्ञ तथा पर्यटक श्री मुनि कान्तिसागर ने के चतुर्मुख शिव की जटाओं की प्रतिकृति प्रस्तुत करने का "खण्डहरों का वैभव" में एक ऐसे पाषाण खण्ड का उल्लेख प्रयास किया है । इन दोनों शिव मूर्तियों की जटामों से इस किया हैं जिसमें एक साथ शिव और भगवान आदि नाथ जटा-जूट संयोजन का साम्य इतना स्पष्ट है कि कलाकार का अंकन किया हुआ उन्हें मिला था ।
की इस अद्भुत प्रेरणा का स्रोत उजागर हो उठा है । जटाओं पुरातत्व दर्शन की लालसा में भ्रमण करते हुए मुझे की तीन तीन अलकें कानों के पीछे से पाकर कन्धों पर भी कुछ ऐसी विलक्षण प्रतिमानों का दर्शन करने का लहराती दिखाई गई हैं और शेष जटाएं पीठ की ओर सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिन्हें देखकर उस युग की वैचारिक झूलती चली गई हैं तीर्थंकर प्रतिमाओं में इस प्रकार का सरलता और धार्मिक उदारता पर गर्व करने का मन हो केशराशि-संयोजन निश्चित ही अद्यावधि अनुपलब्ध है। उठता है। ऐसी मूर्तियों में से तीन की चर्चा में इस लेख में मूर्ति के पार्श्व भाग में गोमुख यक्ष और देवी चक्रेश्वरी कर रहा हूँ।
का स्पष्ट अंकन है। प्रभामण्डल में कमल की प्राकृति दिखाई दो प्रतिमाएं पन्ना जिले के सिद्धनाथ नामक स्थान से गई है जिसके दोनों ओर हाथ में पुष्पमाल लिए उड़ते हुए कुछ समय पूर्व लाकर सलेहा के जैन मन्दिर में रख दी गई विद्याधर अंकित हैं। इन विद्याधरों का अवलम्बन लेकर है। यह सिद्धनाथ अवश्य ही कभी जैन केन्द्र रहा होगा स्थित की गई चौकी पर दोनों ओर से एक एक हाथी सूंड में जैसा कि उस स्थान के नाम से और इन मनोहर सविशेष घट लेकर भगवान का अभिषेक करते हुए दिखाए गए हैं। मूर्तियों से स्पष्ट हो जाता है। इस स्थल पर खोज किये जाने हाथियों के शरीर की मरोड़ तथा घटों की स्थिति सुन्दर की आवश्यकता है। मूर्तियों का विवरण इस प्रकार है:- बन पड़ी है। इन हाथियों के बीच में एक सुन्दर छत्र का भी आदिनाथ के गूंथे हुए जटा जूट
अंकन है जिसे त्रैलोक्यनाथ की तीनलोक-परमेश्वरता बताने यह २७ इंच चौड़े और ४० इंच ऊँचे पाषाण फलक के अभिप्राय से तीन भागों में प्रदर्शित किया गया है। पर युगादि देव की पद्मासनस्थ प्रतिमा है । नीचे सिंहासन में महेश्वर का तीसरा नेत्र युगादिदेव के मस्तक पर दोनों मोर दो वहिर्मुख सिंह और बीच में धर्मचक्र का अंकन इसी मन्दिर में सिद्धनाथ से ही लाई गई यह एक और है। यह धर्मचक्र बुद्ध शिल्प की प्रतिकृति है तथा गुप्तकाल प्रतिमा है जिसका प्राकार १४४१८ इंच है। भगवान की प्रतिमाओं में अधिकतर पाया जाता हैं। मध्य कालीन आदिनाथ की यह प्रतिमा-वृषभ-चिह्नांकित है। यद्यपि मूर्तियों में इसका अंकन यदा कदा ही हुआ है। पीठिका के इसका केश-संयोजन साधारण गुच्छकों के माध्यम से दर्शाया ऊपर से झूलती हुई झालर पर पुष्पमाल भौर वृषभ का गया है परन्तु कंधेपर जटामों का अंकन दर्शनीय है। इस
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अनेकान्त
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वह सहज ही उमा महेश्वर की भ्रान्ति का कारण बन जाता है, देव मूर्ति चतुर्भुज है जिसके एक दाहिने हाथ में त्रिशूल है तथा दूसरा हाथ नीचे घुटने पर रखा है। वाय ओर एक हाथ में सम्भवत: नाग अंकित है तथा दूसरे हाथ में देवी प्रतिमा के उन्नत यक्ष भाग को आवेष्ठित कर रखा है। नामाङ्गी देवी मूर्ति दो भुजा धारिणी है जिसका दाहिना हाथ देवता के कंधे पर अवलम्बन भाव से पड़ा है तथा बायें हाथ में सम्भवत: पारिजात रहा होगा, जो खंडित है।
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मूर्ति की ही विशेषताएँ बरबस दर्शक का ध्यान अपनी मोर प्राकषित कर लेती हैं। प्रथम तो इसका पृष्ठभाग का फलक पृथक् सा दिखाई देता है और समूची मूर्ति लासे उभार के साथ चतुर्दिक दर्शनीय (फोर डायमेन्शन) बन गई है। दूसरे इस भव्य प्रतिमा के उन्नत ललाट पर बीचों बीच तीसरा नेत्र बड़ी दचि एवं सुन्दरता के साथ अंकित है। ऊपर उल्लिखित भुमरा का निर्माण भार शिव या वाकाटक काल में ( गुप्तकाल के पूर्व ) हुआ था। नचना के चतुर्मुख शिव गुप्तकाल की धरोहर है तथा सीरा पहाड़ का जैन स्थापत्य इनका समकालीन है। इन आधारों पर तथा उपरोक्त दोनों मूर्तियों की सविशेष अंकन पद्धति के अवलोकन से भी इन प्रतिमाओं का निर्माण-काल निर्विवाद रूपेण गुप्तकाल ठहरता है। जैन स्थापत्य के ये दोनों बिलक्षण प्रस्तर खण्ड महत्वपूर्ण है । अनमोल हैं ।
तोर्थंकर के सान्निध्य में उमा महेश्वर ब्रह्मा और कार्तिकेय
rai जिले के गुढ़ नामक स्थान में मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण कलावशेषों का पता मिला था। वहाँ जाने पर दो दो विशाल जैन प्रतिमाएँ एक कयोत्सर्ग घासन साढ़े छ फुट ऊँची तथा दूसरी पद्मासन साढ़े तीन फुट ऊँची मुझे प्राप्त भी हुईं, जो लाकर सतना के समीप रामवन के तुलसी संग्राहलय में स्थापित कर दी गई है, उनका वर्णन पृथक् किसी लेख में करूंगा, यहाँ तो चर्चा का विषय वह पूर्वश्रुत अद्भुत प्रतिमा है जिसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया है, इस मूर्ति के विशाल परिकर का का संदर्भ समभ में मैं अभी भी असमर्थ हूँ भौर उस विषय के विद्वानों का सहारा इस दिशा में चाहता हूँ । गुढ़ में शंकर जी के मंदिर के प्रांगन में पूर्वी दीवाल पर लगी हुई यह अद्भुत प्रतिमा केवल एक फुट चौड़ी और डेड़ फूट ऊँची है, सबसे नीचे वृषभ ( जोशंकर और दोनों की प्रतिमाओं का लक्षण है), उठता हुधा दिखाई दे रहा है, इसी के ही सामानान्तर मूर्ति के दाहिनी मोर सुन्दर मयूर पर घासीन एक मानवाकृति 'कित है, इन दोनों ने सिहासन का रूप निर्मित कर दिया है जिसके पाव भाग में चामरधारी पक्ष यक्षणी दृष्टव्य हैं।
सिहासन के ऊपर मनोहारी देव युगल का अंकन है का अनुरोध करता हूँ ।
इसके पश्चात् ही इस मूर्ति की विलक्षणता प्रारम्भ होती है। देव युगल में शीर्ष भाग पर पृथक् पृथक् नाग फणा वलि दर्शायी गई हैं, जिसमें देवता के ऊपर एक दाढ़ी धारी चतुर्मुख मूर्ति अंकित है तथा देवी प्रतिमा के ऊपर वाले फण पर चस्पष्ट सी मानवाकृति दिखाई देती है उन दोनों के बीच में फणावलि के समास पर, साढ़े तीन इंब ऊँची सुन्दर, स्पष्ट और बड़ी प्यारी तीर्थङ्कर प्रतिमा उत्कीर्ण है । इस प्रकार यह फलक यद्यपि निश्चित ही जैन कलावशेष है तथापि हिन्दू मूर्ति विधान की दृष्टि से इसमें वृषभासीन त्रिसूलधारी शंकर और उनकी अर्द्धाङ्गिनी पार्वती, मयूर प्रातीन कुमार कार्तिकेय तथा चतुर्मुख ब्रह्मा का स्पष्ट अंकन दृष्टिगोचर होता है । कला की दृष्टि से मूर्ति का निर्माण भाठवीं सदी से पूर्व एवं ग्यारहवीं सदी के बाद का नहीं है ।
ग्यारहवें तीर्थकर यनाथ के परिकर से इस मूर्ति का कुछ साम्य बैठता है । यथा गरुड़ या मयूर उनका लक्षण है। उनके शासन देव की संज्ञा ईश्वर है जो चतुर्भुज है तथा वृषभासीन है। उसके हाथों मे अभय मुद्रा, त्रिशूल वेतस और कटक होते हैं। गौरी उनकी शासन देवी का नाम है और वह भी चतुर्भुजी एवं वृषभासीन होती है । उसके हाथों में कलश और दण्ड तथा अभय और वरद मुद्राएं होती है। इस प्रकार इस मूर्ति को भगवान श्रेयांश नाथ की प्रतिमा मानना युक्ति संगत हो सकता है परन्तु यह तभी संभव है जब मयूर पर भासीन मानवाकृति तथा देव युगल पर अंकित फणावलि और चतुर्मुख देनाकृति की उपस्थिति का कुछ समाधान हो सके ।
मैं जिज्ञासु भाव से पुरातत्त्वज्ञ विद्वानों एवं जैन तथा हिन्दू मूर्तिशास्त्र के जानकारों से यह समाधान प्रस्तुत करने
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जैन अपम्रश का मध्यकालीन हिन्दी के
भक्ति-काव्य पर प्रभाव
लेखक- प्रेमसागर बन
(गतांक से आगे) प्रात्मा को अनेक नामों से पुकार कर उसे अमूर्त, जिसने नरसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकश्यप को मारा अलक्ष्य, अजर अमर घोषित करने वाली जैन-परम्परा और अर्जुन का रथ हाँक कर कौरवों का विनाश किया, अति प्राचीन है। प्राचार्य-मानतुंग ने 'भक्तामर स्तोत्र' में अपितु वह जो समूचे संसार में फैला है और सब पदार्थों जिनेन्द्र को बुद्ध कहा, किन्तु वह बुद्ध नहीं जिसने कपिल- को हस्तामलकवत् देखता है। उनका ब्रह्मा 'क्षुत्तष्णाराग वस्तु में राजा शुद्धोदन के घर जन्म लिया था, अपितु वह रहित' था, उर्वशी के मोह-जाल में फंसने वाला नहीं।' जो 'विबुधाचितबुद्धिबोधात् बुद्ध हैं। उन्होंने शंकर भी अन्त में जिनेन्द्र का रूप बताते हुए प्रकलंकदेव ने लिखाकहा किन्तु शंकर से उनका तात्पर्य 'शं' करने वाले से था, जिसके माया नहीं, जटा नहीं, कपाल नहीं, मुकुट प्रलयङ्कारी शंकर से नहीं। उनका जिनेन्द्र धाता भी या नहीं, माथे पर चन्द्र नहीं, गले में मुण्डमाल नहीं, किन्तु 'शिवमार्गविधेविधानात्' होने से धाता था। सब हाथ में खट्वाङ्ग नहीं, भयंकर मुख नहीं, काम-विकार पुरुषों में उत्तम होने से ही उनका भगवान पुरुषोत्तम था।' नहीं, बैल नहीं, गीत-नृत्यादि नहीं, जो कर्मरूप अंजन से प्राचार्य भट्टाकलंक ने अकलंक-स्तोत्र में ऐसे ही विचार रहित निरंजन है, जिसका सूक्ष्म ज्ञान सर्वत्र व्याप्त है।' व्यक्त किये हैं। अर्थात् उन्होंने भी जिनेन्द्र को शंकर, जो सबका हितकारी है, उस देव के वचन विरोध रहित, विष्णु और ब्रह्मा कहा, किन्तु उनका शंकर 'शं' करने वाला अनुपम और निर्दोष हैं। वह राग-द्वेष आदि सब दोषों से था, प्रलय करने वाला नहीं । उनका विष्णु वह नहीं था रहित हैं। ऐसा देव पूजा करने योग्य है, फिर भले ही वह १. कबीर ग्रन्थावली, ३२७वां पद।
बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, विष्णु या शिव हो । २. निज पद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहेमान री। ५. यत्नाद्येन विदारितं कररुहेर्दैत्येन्द्रवक्षःस्थलम् । करशे कर्म कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री॥ सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽमारयत्कौरवान् ।। परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। नासौ विष्णुरनेककालविषयं यज्ज्ञानमव्याहतम् । इह विधि साधो पाप मानन्दघन, चेतनमय निःकर्म री। विश्वं व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णुः सदेष्टो मम।३। आनंदघन पदसंग्रह, अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल, ६. उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः ।
बम्बई, पद ६७वाँ।
पात्रीदण्डकमण्डलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ।। ३. बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधा-,
प्राविर्भावयितुं भवन्ति स कथं ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् । त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ।।४।। धातासि धीर ! शिवमार्गविधेविधानाद्-,
७. माया नास्ति जटाकपालमुकुटं चन्द्रो न मूर्बावली, व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥ खट्वांगं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोप्रमुखं ।
भक्तामरस्तोत्र, २५वा पद्य । कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्यं पुनः, ४. सोऽयं किं मम शंकरो भयतृषारोषातिमोहक्षयं । सोऽस्मान्यातु निरंजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः कृत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमकरः शंकरः ॥२॥
शिवः ॥१०॥
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अनेकान्त
बर्ष १५
प्राचार्य योगीन्दु ने इस परम्परा का यथावत् पालन है। अपभ्रंश साहित्य में परमात्मा के जिस पर्यायवाची किया। उन्होंने लिखा कि-परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, शब्द का सबसे अधिक प्रयोग किया गया, वह है 'निरंजन' बुद्ध जो चाहे सो कहो, किन्तु परमात्मा तभी है जब वह शब्द । योगीन्दु ने निरंजन की परिभाषा लिखी है, जिसका परम पात्मा हो ।' परम प्रात्मा वह है जो न गौर हो न विवेचन पिछले पृष्ठों पर हो चुका हैं । योगीन्दु ने योगसार कृष्ण हो, न सूक्ष्म हो न स्थूल हो, न पण्डित हो न मूर्ख हो, में भी परमात्मा के निष्कल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव न ईश्वर हो न निःस्व हो, न तरुण हो न वृद्ध हो। इन आदि अनेक नाम दिये हैं। तात्पर्य वहां भी यह ही है कि सबसे परे हो ऊपर हो, मूत्तिविहीन हो, अमन हो, प्रनिन्द्रिय परमात्मा को किसी नाम से पुकारो किन्तु वह है निरंजन हो, परमानन्द स्वभाव हो, नित्य हो, निरंजन हो, जो कर्मों रूप ही। महात्मा ग्रानन्दतिलक ने उसे हरि, हर ब्रह्मा से छुटकारा पाकर ज्ञानमय बन गया हो, जो चिन्मात्र हो, कहा। किन्तु साथ ही यह भी लिखा कि वह मन और त्रिभुवन जिसकी वन्दना करता हो।' उसे सिद्ध भी कहते बुद्धि से अलक्ष्य है। स्पर्श, रस, गन्ध से बाह्य है और हैं, सिद्ध वह है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो । सिद्धि का शरीर से रहित है। योगीन्दु-जैसी ही बात है। अर्थ है निर्वाण । निर्वाण कर्मों से छूटी विशुद्ध आत्मा कह- जो परमात्मा निराकार है, अमूर्त है, अलक्ष्य है, उसकी लाती है। ऐसी आत्मा में सम्पूर्ण लोकालोक को देखता भक्ति किस प्रकार सम्भव है ? मन को चारों ओर से हटा हुमा सिद्ध ठहरता है। सिद्ध और ब्रह्म के स्वरूप में कोई कर, उसे देह-देवालय में बसने वाले ब्रह्म में तल्लीन करना, अन्तर नहीं है। परमात्मा को शिव भी कहते हैं। शिव ब्रह्म से प्रेम करना और ब्रह्म का नाम लेना यदि भक्ति है, वह है जो न जीर्ण होता है, न मरता है और न उत्पन्न तो वह भक्ति कबीर ने की और उनसे भी पूर्व जन भक्तों होता है, जो सबके परे है, अनन्त ज्ञानमय है, त्रिभुवन का ने। उन्होंने किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपने मन को स्वामी है, निर्धान्त है। तीन लोक तथा तीन काल की ब्रह्म में समपित नहीं किया-उनका समर्पण बिला शर्त वस्तुओं को नित्य जानता है। वह सदैव शान्त स्वरूप रहता था। उनका प्रेम भी अहेतुक था। उममें लौकिक अथवा
पारलौकिक किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं था कबीर जैसा १. जो परमप्पउ परम-पउ हरि हरु बंभु वि बुद्ध।
बिला शर्त प्रात्म समर्पण-मगुण परम्परा में तो दूर निर्गुणपरम-पयासु भणंति मुणि सो जिण-देउ विसुद्ध ॥ - परमात्मप्रकाश, २।२००, पृष्ठ ३३७ ।।
। ५. जरइ ण मरइ ण संभवइ जो परि को वि अणंतु ।
तिहुवणसामिउ णाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ।। २. अप्पा गोरउ किण्ठ ण वि अप्पा रत्तु ण होइ ।
पाहुड-दोहा, ५४वा दोहा, पृ० १६ । अप्पा सुहमु वि थूलु ण वि णाणिउ जाणे जोइ॥
६. जो णिय-भाउ ण परिहरइ, जो पर भाउ ण लेइ । अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु ।
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर, सो सिउ संतु हवेइ॥ तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेसु ॥
परमात्म प्रकाश, १२१८, पृ० २७ । परमात्मप्रकाश, १८६, ६१, ५०६०, ६४।
७. णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु । ३. प्रमणु प्रणिदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु ।
सो परमप्पा जिण-भणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥ मप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एड्ड णिरुत्तु ।।
योगसार, हवाँ दोहा, पृ० ३७३ । मुत्ति-विहूणउ णाणमउ परमाणंद-सहाउ ।
८. हरिहर बंभु वि सिव णही मणु बुद्धि लक्खिउं ण जाई। णियमि जोइय पप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ ।।
मध्य शरीर हं सो बसइ अणंदा लीजइ गुरुहिं पसाई ।। परमात्मप्रकाश, १३३१, २।१८, पृ० ३७, १४७ । फरसरसगंधबाहिरउ स्वविहूणउ सोई। ४. जेहउ णिम्मलु णाणमउ, सिद्धिहि णिवसइ देउ । जीव सरीरहं भिण्णु करि अणंदा सद्गुरु जाणइ सोई ।। तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ ।
आमेर शास्त्र भण्डार की 'पाणंदा' की हस्तलिखित परमात्मप्रकाश, ११२६, पृ० ३३ ।
प्रति, १८, १६ पद्य ।
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किर
धारा के भी अन्य कवियों में न बन पड़ा। उन्होंने कहा - इस मन को बिस्मिल करके, संसार से हटा करके, निराकार ब्रह्म के दर्शन करूं । किन्तु यह मार्ग आसान नहीं है। इस पर चलने वाले को सिर देना पड़ता है। यदि वह ऐसा न करेगा तो उस पर अंगारे दहकाये जायंगे।' इस सब का तात्पर्य है कि सभी सासारिक सुख-सुविधाओं की बलि देकर मन को ब्रह्म में लीन करना चाहिए, अन्यथा विकृत विश्व में फँसे रहने के कारण उसे नारकीय दुःख झेलने होगे। ब्रह्म में मन समो देने से मलीमस स्वतः ही रह जायगा छूट जायगा । ऐसा नहीं है कि हमने मन दिया तो ब्रह्म ने पवित्रता। कबीर में लेन-देन वाली बात नहीं थी। कबीर ने ऐसी शर्त कभी नहीं लगाई। "मन दीया मन पाइये, मन बिन मन नहि होइ" में केवल मन के उन्मुख होने की बात है, शर्त की नहीं। मन को संसार से उनमन करके निरंजन में खपाना मूलाधार है ।
जैन ' का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव
बिला शतं मन को निरञ्जन में लगाने की बात जैसी जैन परम्परा में देखी जाती है, अन्यत्र नहीं । जैन सिद्धांत के अनुसार शर्त का निभाव नहीं हो सकता । जैन भक्त जिस ब्रह्म की आराधना करता है, उसमे कर्तृत्व शक्ति नहीं है । वह विश्व का नियन्ता नहीं है । उसे किसी की पूजा और निन्दा से कोई तात्पर्य नहीं है। फिर भी उसके गुणों का स्मरण चित्त को पवित्र बनाता है-पापों को दूर करता है । 3 ब्रह्म के कुछ न करते हुए भी, उसके स्मरण मात्र से ही पवित्रता मिलती है और उससे शुभ कर्म बंधते
१. इस मन को विशमल करों, दीठा करौ प्रदीठ । जे सिर राखौ प्रापणां, तो पर सिरिज अंगीठ ॥
कबीर- साखी - सुधा, मन को अंग, छठा दोहा । २. मन दीयाँ मन पाइए, मन बिन मन नहीं होइ । मन उनमन उहा अंड ज्यू, अनल अकासाँ जोइ ॥ देखिए वही, ६ वां दोहा ।
३. न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे
न निन्दया नाथ ! विवान्तरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मूतिर्नः
पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ प्राचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र, १२१२
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हैं, जो इहलौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार की विभूति देने में समर्थ हैं । इस भांति जैनभक्त के ब्रह्म में केवल प्रेरणा देने वाला कर्तृत्व होता है । अर्थात् उसके मूक धौर धकर्ता व्यक्तित्व में इतनी ताकत होती है, जिसके स्मरण या दर्शन मात्र से भक्त को वह सब कुछ स्वतः ही मिल जाता है। जिसकी उसे धाकांक्षा रहती है। किन्तु भक्त प्राकांक्षा रहित होता है । निष्काम होता है । कुछ न देने वाले का दर्शनाकांक्षी निष्काम होगा ही यह सत्य है। किन्तु उसे ब्रह्म को देखने की इच्छा तो रहती है। वह सांसारिक इच्छा में न गिनी जाने के कारण 'कामना' नहीं कहलायेगी धर्म यह है कि पहले तो जैनभक्त के निष्काम होने से ही शर्त वाली बात नहीं टिक पायगी, फिर यदि टिकायी भी जाये तो किसके सहारे ? जो सब कुछ भा कर मोक्ष में जा विराजा हो, उसे तुम्हारे भले-बुरे से क्या तात्पर्य । उसके पास अपने गुण हैं, उन्हें तुम चाहो तो प्राप्त कर लो वे तुम्हारे पास भी है-छिपे पड़े हैं, ढूंढ लो। अर्थात् शर्त को कहीं स्थान नहीं । एक जैन भवत ने खोज कर लिखा
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"तुम प्रभु कहियत दीन दयालु, आपन जाइ मुकति में बैठे, हम जु रुलत जगजाल ।" जैन ब्रह्म क्या करे, जब उनसे विदित है कि उसने तुम्हें जगजाल में नहीं रुलाया, फिर उसे जग-जाल से न निकालने का उपालम्भ मिश्रा-जन्य है । तुम स्वय जग-जाल में रुले, स्वयं निकलो। वे लोग निकलने की प्रेरणा दे सकते है जो निकल चुके है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं बताइये ऐसों से धाप क्या शर्त लगायेंगे तो शर्त का मूल ही जैन परम्परा में नहीं है ।
इसके विपरीत जो अपने मन को बिला दातं निःस्वार्थ भाव से ब्रह्म में केन्द्रित करता है, वह भी वैसा ही हो जाता है । पिछले पृष्ठों मे परमानन्द, अनन्तसुख और परमगति पाने की बात लिखी है, वह मन को परमात्मा में ध्यानस्थ करने से ही तो सम्भव हुआ था । परमात्मा परमानन्द का ही बना है। वह उसका स्वरूप है। योगीन्दु ने यहाँ तक
१. देखिए द्यानत-पदसंग्रह, कलकत्ता, ६७ वां पद,
पृष्ठ २८
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लिखा कि जो परमात्मा है, वह ध्यान का विषय होगा ही।" योगीवृन्द भी उस ज्ञानमय परमात्मा का ध्यान लगाते हैं । * ध्यान के बिना तो हरि-हर भी अपने ही अन्दर रहने वाले ब्रह्म को नहीं देख पाते । कबीर की भाँति ही योगीन्दु ने लिखा था कि अन्य सब परभावों को छोड़कर हे जीव ! अपनी आत्मा की ही भावना करो। वह आत्मा जो आठ कर्म और सब दोषों से रहित है तथा दर्शन-ज्ञान और चारित्र से युक्त है। उसका ध्यान करने से एक क्षण में स्वतः ही परमपद मिल जाता है। पाहुड़ दोहा में जिला है कि योगियों को उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिए जो त्रैलोक्य का सार है। उन्होंने उनको मूढ़ कहा जो जगतिलक प्रात्मा को छोड़कर अन्य किसी का ध्यान करते हैं । मरकत मणि को पहचानने के उपरान्त कांच की क्या गणना रहती है ।" श्रात्मदेव की भावना से पाप एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं। सूर्य एक निमेष में अन्धकार के समूह का विनाश कर देता है। उनके अनुसार जो परम निरंजनदेव को नमस्कार करता है, वह परमात्मा हो जाता है। जो १. एर्याह जुत्तउ लक्खणहिँ, जो पर णिक्कलु देउ । सो तहिं णिवस परम-पर, जो तइलोयहँ भेउ ॥
परमात्मप्रकाश, ११२५, पृ० ३२ २. जोदय - विदहि णागमउ, जो भाइज्जद भेठ । मोक्खहँ कारणि प्रणवरउ, सो परमप्पउ देउ ॥ वही, १०३९, ०४३. ३. अप्पा मेल्लिवि णाणमउ, भ्रष्णु परायउ भाउ । सो खंडेविणु जीव तुहुँ भावहि श्रप्प सहाउ ॥ भट्ठ कम्म बाहिरउ, सयलहं दोसहं चतु दंसण- गाण-चरितमङ, भप्पा भावि मिस्तु ॥ वही, १ ७४, ७५, पृ० ८०, ८१. ४. धप्पा भायहि णिम्मलउ, कि बहुएँ प्रष्येण । जो कार्य परम-पर, सम्भइ एक्क-खणेण ॥ वही, ११६७, पृ० १०१. ५. अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ, मूढ म झायहि भण्णु । जि मरगज परियाणिय, तहू कि कब गण्णु ॥७१॥ ६. अप्पाएव विभावयह, णासद पाठ खणेण ।
सूरु विषणासह तिमिरहर, एक्कल्लड, णिमिसेण ॥७५॥ ७. परमणिरंजणु जो णवइ, सो परमप्पउ होइ ॥ ७७॥
वर्ष १५
अशरीरी का संधान करता है, वही सच्चा धनुर्धारी है।" महात्मा ग्रानन्दतिलक ने लिखा है, "परमप्पउ जो भावई सो साच्च विवहा"" अर्थात् जो परमात्मा का ध्यान करता है, वह ही सच्चा व्यवहार है ।
जहाँ तक महेतुक प्रेम का सम्बन्ध है, वह भी जैनपरम्परा में ही अधिक खपता है । जो वीतरागी है वह राग को पसन्द न करेगा। किन्तु जैन भक्त उसकी वीतरागता पर रीझ कर ही भक्ति करता है। वीतरागी से राग करने वाले के हृदय में प्रतीकार स्वरूप प्रेम पाने को आकांक्षा न रही होगी, यह सत्य है । किन्तु जैन हो या अजैन एक प्रेमी अपने दिल का क्या करे? भगवान चाहे निर्मोही हो या निर्गुण या शून्य -सनेही, जब उससे प्रेम किया है तो प्रेमी का हृदय उसके साथ रभस प्रालिंगन को मचलेगा ही । कबीर बाद में मचला, मुनि रामसिंह का मन पहले ही मचल चुका था । जैन आचार्यों ने सिद्धान्त की दृष्टि से लिखा है कि यह मचलन बुरी नहीं; अच्छी होती है। भगवान के प्रति किया गया राग पाप के बन्ध का कारण नहीं बनता । इसी कारण तो जिस भांति कबीरदास की आत्मा पियमिलन के लिए बेचैन हुई, प्रिय श्रागमन के लिए सचिन्त बनी, उसी भाँति मुनि रामसिह की आत्मा ने अपनी सखी से कहा था—प्रियतम को पांच (इन्द्रियों) के बाहर स्नेह लग गया है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उसका आगमन नहीं होगा । * प्रिय ग्रागमन के लिए दोनों की बेचैनीसमान है। दोनों का सन्देह समान है। दोनों की चिन्ता समान है। कबीर का प्रेम अहेतुक न बनता यदि उन पर केवल रामानन्दी भक्ति का प्रभाव होता - उन्हें वह योगधारा भी जन्म से मिली थी, जिसमें फक्कड़ता थी और मस्ती भी । उस योगधारा में जो महेतुक वाला पुट था वह अवश्य ही
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१. सरीरहं संधाणु किउ सो घाणुक्कु णिरुत्तु ॥ १२१ ॥ २. देखिए 'गंदा' की हस्तलिखित प्रति २४ वां पद्म । ३. देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरत्तो । सम्मतमुज्वहंतो भाणरम्रो होद जोई सो ।
भाचार्य कुन्दकुन्द, मोक्षपाहूद, ५२वीं गाया। ४. पंचहि बाहिरु मेहडउ हलि सहि लग्गु पियस्थ । तासु न दीसह भागमणु जो खलु मिलिउ परस्स ॥ पाहुड-दोहा, ४५ दोहा ।
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जैन अपन' का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव जैन परम्परा से-जाने या अनजाने कैसे ही माया होगा। 'भैया' का पति कहीं भटक गया है तो वह दुलराते हुए कहते मैं नाथ-सम्प्रदाय को अनेक सम्प्रदायों का संकलन कह चुका हैं, "हे लाल ! तुम किसके साथ लगे फिरते हो तुम अपने हूँ। जैनों में योग वाली बात अधिक थी। इसीलिए अहे- महल में क्यों नहीं पाते, वहाँ दया, क्षमा, समता पौर तुकता भी अधिक थी।
शान्ति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा में खड़ी हुई हैं। अहेतुक प्रेम का निर्वाह हिन्दी के जैन कवियों ने खूब एक से एक अनुपम रूप वाली हैं।"' दुलराना सफल हुमा किया। पत्नी पिय के वियोग में इस भांति तड़फ रही है जैसे पिय घर वापिस मा गया, तो सुमति की प्रसन्नता का जल के बिना मछली। उसके हृदय में पति से मिलने का ठिकाना न रहा । वह पिय के साथ परमानन्द की अनुभूति चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नाम सखी में डूब गई । महात्मा मानन्दघन की सुहागिन नारी के पति से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह मग्न भी लम्बी प्रतीक्षा के बाद स्वयं मा गए हैं। उसकी प्रसहो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है। मैं अपनपा न्नता अगाध है। उसने इस उपलक्ष में श्रृंगार किया खोकर पिय से मिलूंगी, जैसे पोला गल कर पानी हो जाता है। सहज स्वभाव की चूड़ियां और स्थिरता का कंगन है। और जब पति उसे मिला, तो रभस प्रालिंगन कौन पहना है, ध्यानरूपी उर्वशी को उर में धारण किया है, सूरत कहे, एकमेक हुए बिना चैन न पड़ा। उन दोनों के 'एक- के सिंदूर से मांग सजायी है, निरति की वेणी को आकर्षक मेक' को लेकर बनारसीदास ने लिखा-वह करतूति है ढंग से गूंथा है और भक्ति की महंदी रचाई है।'
और पिय कर्ता, वह सुख-सीव है और पिय सुख-सागर, वह शिवरमणी कुमारी है। कुंपारियों के विवाह होते ही शिव-नीव है और पिय शिवमन्दिर, वह सरस्वती है और हैं। शिव रमणी का विवाह तीर्थकर शान्तिनाथ (१६वें पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है तीर्थंकर) के साथ होने वाला है। अभी विवाह मण्डप में और पिय शंकर, वह जिनवारणी है और पति जिनेन्द्र । दुलहा नहीं आ पाया है, किन्तु वधू की उत्सुकता दबती
नहीं और वह अपने मन-भाये के अभी तक न आने से १. मैं विरहिन पिय के आधीन ।
उत्पन्न हुई बेचैनी सखी पर प्रकट कर देती है। उसका यों तड़फो ज्यों जल बिन मीन ॥३॥
कथन है कि उसका पति मुख-कन्द चन्द्र के समान है तभी अध्यात्म गीत, बनारसीविलास ।
तो उसका मन-उदधि आनन्द से आन्दोलित हो उठा है २. होहुँ मगन मैं दरसन पाय, ज्यों दरिया में बूद समाय।
१. कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल, पिय कों मिलौ अपनपो खोय,
आवो क्यों न पाज तुम ज्ञान के महल में। ओला गल पाणी ज्यों होय ॥
नक हू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेती, देखिए वही, ६ वा पद्य, पृ० १६० । कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी है टहल में । ३. पिय मो करता मैं करतूति,
एक ते एक बनी सुन्दर सुरूप घनी, पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविभूति ।
उपमा न जाय गनी वाम की चहल में ॥२७॥ पिय सुखसागर मैं सुखसीव,
भैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ब्रह्मविलास, पिय शिव मन्दिर में शिव नीव ।
२. सहज सुभाव चूरियाँ पेनी, थिरता कंगन भारी, पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम,
ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुन माल प्रधारी। पिय माधव मैं कमला नाम ।
सुरत सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी, पिय शंकर मैं देवि भवानि,
उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, पारसी केवल कारी। पिय जिनवर मैं केवल वानि ॥
महिंदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी। देखिए वहीं, पृ० १६१।
आनन्दघन पद संग्रह, २०वां पद
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और उसके नेत्र चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं।" यह सच है कि अभी उसे धानन्द हो रहा है, किन्तु जब पति से मिलने जायगी तो मानन्द के साथ-साथ भय भी उत्पन्न होगा। पति अनजाना है, धनजाने से मिलने में भय तो है। ही कवीर की नाविका काँप रही है-परहर कम्पे वाला जीव, ना जाने क्या करसी पीव जायसी की नायिका घबड़ा रही है-धनचिन्ह पिउ कांपे मन माही का मैं कहन- गहब जी बाँहों । इसी प्रकार बनारसीदास की नव-यौवना भी भड़भड़ा गई है-बालम तु तन चितवन गागर फूटि । चरा गौ फहराय सरम गँ छूटि । इस विवेचन से सिद्ध है कि निर्गुनिए सन्तों के अहेतुक प्रेम पर सूफियों का नहीं अपितु उस समय धारा का प्रभाव था जो कबीर से शताब्दियों पूर्व चली भा रही थी।
जैनसाहित्य में सतगुरु पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित है । उसकी महिमा यहाँ तक बढ़ी कि 'पंचपरमेडी' (अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु) को 'पंचगुरु' की संज्ञा से अभिहित किया गया। जहाँ कबीर ने गोविन्द और गुरु को दो बताया वहां जैन धाचायों ने दोनों को एक कहा। उनकी दृष्टि में गोविन्द ही गुरु है । एक शिष्या ने कहा कि मैं उस गुरु की शिष्यानी हूँ जिसने दो को मिटा कर एक कर दिया है ।" आत्म और अनात्म के भेद को
१. सहि ए री दिन भाज सुहाना मुझे मन भाया,
श्राया नाहि घरे । सहि ए री ! मनधि धनन्दा सुखकन्दा चन्दा देह परे ।। चन्द जिवां मेरा वल्लभ सोहे, नैन चकोरहि सुक्ख करें । १ शान्तिजिनस्तुति, बनारसी विलास । २. कबीरदास, सबद ६१ पद, सन्त सुधासार, दिल्ली, पु० ८५ । ३. जायसी, पद्मावती, रत्नसेन भेंट खण्ड, पद्मावत, काशी, पृ० १३२ । ४. अध्यात्म पद पंक्ति, १० वां राग बरवा, पहला पद्य, बनारसी - विलास, जयपुर, पृ० १५४ । ५. वे मंजेविंगु एक्कु किउ महं न चारिय विल्लि । तहि गुरुवहि हजं सिस्सिणी अण्णहि करमि ण लल्लि ।।
पाहुड-दोहा, १७४वाँ दोहा, पू० ५२ ।
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मिटाने वाला ही गुरु है। केवल ग्रंथों का पारायण करने वाला गुरु नहीं है। कबीर ने भी केवल ग्रन्थ पढ़कर गुरु बनने वाले की निरर्थकता घोषित की है। गुरु वह है जो ब्रह्म तक पहुँचने का रास्ता दिखाये अथवा जिसके प्रसाद से ब्रह्म प्राप्त किया जा सके। रास्ता वह ही दिखा सकता है, जिसके पास ज्ञान का दीपक हो । यह दीपक कबीर के गुरु के पास था और जैन गुरु तो दीपक रूप ही था। एक जीव लोक और वेद के अन्धकार से ग्रस्त पथ पर चला जा रहा था, आगे उसे सतगुरु मिल गया तो उसने ज्ञान का दीपक दे दिया, मार्ग प्रकाशित हो उठा और वह अभीष्ट स्थान तक पहुँचने का रास्ता पा गया । श्राचार्य देवसेन का भी कथन है कि अंधकार में क्या कोई कुछ पहचान सकता है । गुरु के वचनरूपी दीपक के बिना प्रकाश ही न होगा, तो फिर देखना कैसे हो सकेगा, पहचानना तो दूर रहा। अनदेखा, अनबीहा लक्ष्य उपलब्ध भी न हो सकेगा। किन्तु गुरु के दीपक के साथ भी है कि वह ज्ञान का होना चाहिए । साधारण दीपक तो ६४ जला दिए जाये तो भी अंधकार दूर नहीं होगा। अंधकार तो चौदह चन्द्रों के एक साथ होने पर भी हटेगा नहीं, जब तक उसमें ज्ञान का प्रकाश न होगा। ज्ञान का प्रकाश ही मुख्य है-- वह प्रकाश जो श्रात्म-ब्रह्म तक पहुँचने का मार्ग दिखाता है । इस प्रकाश का प्रदाता ही गुरु है, फिर चाहे
८. गुरु दिणय अप्पापरहं
गुरु हिमकिरण गुरु दीवड गुरु देउ । परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥ १ ॥ पाहुड - दोहा ।
१. पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि | मार्ग में सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥११॥ गुरुदेव की अंग, कबीर यासी-सुधा, पु०६
२. तं पायडु जिणवरवयणु, गुरुउबएसई होइ । अंधार विणु दीवट, महव कि पिछइ कोइ ।।६।। सावयधम्म दोहा,
२. चाँदीवा जो करि, चौदह चंदा माँहि
तिहि परि किसको बानियाँ, विहि परि गोविन्द नाहि गुरुदेव को श्रंग, १७ वाँ दोहा, कबीर-साखी-सुधा, पृ० ८
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जैन अपभ्रंश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव
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बह प्रकाश चन्द्र से पाये, चाहे सूर्य से, चाहे दीपक से पौर और पुष्ट रूप में अपभ्रंश-युग से चली आ रही थी। जैनचाहे किसी देव से।'
अपभ्रंश-काव्य में सतगुरु की जी खोलकर प्रशंसा की गई है कबीर के गुरु के प्रसाद से गोविन्द मिलते है । सुन्दर उनसे गुरु के प्रसाद की परम सामर्थ्य भी प्रकट हो जाती है दास के गुरु भी दयालु होकर आत्मा को परमात्मा से मुनि रामसिंह ने लिखा है-तू तभी तक लोभ से मोहित मिला देते हैं।' दादू के मस्तक पर तो गुरुदेव ज्यों ही हुआ विषयों में सुख मानता है, जब तक कि गुरु के प्रसाद पाशीर्वाद का हाथ रखते हैं कि उसे 'प्रगम-अगाध के दर्शन से अविचल बोध नहीं पा लेता।' उन्होंने यह भी कहा कि हो जाते हैं। जैन कवियों ने भी गुरु के प्रसाद को महत्ता लोग तभी तक धूर्तता करते हैं, जब तक गुरु के प्रसाद से दी है। कवि कुशललाभ को भी गुरू की कृपा से ही शिव- देह के देव को नहीं जान लेते।' मुनि महचन्द का कथन सुख उपलब्ध हुआ है। सोलहवीं शताब्दी के कवि है, " यह जीव गुरु के प्रसाद से परम पद (ब्रह्म) को चतरुमल ने पंचगुरुषों के प्रणाम करने से मुक्ति का मिलना अवश्य ही उपलब्ध कर लेता है।" महात्मा मानन्दतिलक स्वीकार किया है। इसी शती के ब्रह्म जिनदास ने प्रादि- ने असीम श्रद्धा के साथ लिखा कि यदि शिष्य निर्मल भाव पुराण में गुरु के 'प्रसाद' से 'मुकतिरमणी' के मिलने की से सुनता है तो गुरु के उपदेश से उसमें असीम ज्योति उल्लबात लिखी है। पाण्डे रूपचन्द ने गुरु की कृपा से ही 'अवि- सित हुए विना नहीं रहती। यह सच है कि शिष्य का चलथान' प्राप्त होना लिखा है। यह परम्परा विकसित भाव निर्मल होना ही चाहिए, अन्यथा गुरु का उपदेश १. देखिए पाहुड-दोहा, प्रथम दोहा, पृ० १
निरर्थक ही होगा। कबीर के अनुसार बपुरा सतगुरु क्या २. परमातम सो पातमा जुरे रहे बहु काल ।
कर सकता है यदि शिष्य ही में चूक हो । उसे चाहे जैसे सुन्दर मेला करि दिया सद्गुरु मिले दयाल ।।
समझाओ, सब व्यर्थ जायगा, ठीक वैसे ही जैसे फूक वंशी में
ठहरती नहीं, बाहर निकल जाती है। पाण्डे रूपचन्द ने सुन्दर दर्शन, इलाहाबाद, पृ. १७७ ३. दादू गैव माहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद ।
लिखा है कि गुरु का अमृतमय उपदेश भी शिष्य को रुच मस्तक मेरे कर धरिया देख्या अगम अगाध ॥ १. लोहि मोहिउ ताम तु( विसयह सुक्ख मुणेहि । दादू, गुरुदेव को अंग, पहली साखी, संतसुधासार, पृ०४४६.
गुरुहुँ पसाएं जाम ण वि अविचल बोहि लहेहि ।। ४. दिन दिन महोत्सव प्रतिघणा, श्री संघ भगति सुहाइ । मन शुद्धि थी गुरु सेवीयइ, जिणि सेव्यइ शिव सुख पाइ॥
पाहुड़-दोहा ८१ वां दोहा, पृष्ठ २४ । जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह, पूज्यवाहण गीतम्, ५३ २. ताम कुतित्थई परिभम धुत्तिम ताम करति । वां पद, पृ० ११५।
गुरुहुँ पसाएं जाम ण वि देहहं देउ मुणंति ॥ ५. लहहि मुकति दुति-दुति तिर,
वही, व० वां दोहा, पृ० २४ । पंच परम गुरु त्रिभुवन सारु ॥ चतरुमल, नेमीश्वरगीत, आमेरशास्त्रभण्डार की हस्त
३. छुडु अन्तरु परियाणियइ, बाहिरि तुट्टइ नेहु । लिखित प्रति, मंगलाचरण ।
गुरुहं पसाइं परम पउ, लन्भइ निस्संदेह ।। ६. तेह गुण में जाणीया ए, सद्गुरु तणो पसावतो, महीचन्द, पाहुड दोहा, हस्तलिखित प्रति, ७१वां दोहा भवि-भवि स्वामी सेवसुंए, लागुं सद्गुरु पाय तो।
४. सिक्ख सुणइ सद्गुरु भणइ परमाणंद सहाउ । ब्रह्म जिनदास, आदिपुराण, पामेरशास्त्र भण्डार
परम जोति तसु उल्हसई पाणंदा कीजइ णिम्मलुभाउ । जयपुर की हस्त लिखित प्रति, प्रशस्ति । ७. सोते सोते जागिया, ते नर चतुर सुजानि ।
देखिए 'पाणंदा' की हस्तलिखित प्रति, २६ वां दोहा । गुरु चरणायुध बोलियो, समकित भयउ विहान । ५. सतगुरु बपुरा क्या करे, जे सिषही माहै चूक । कालरयन तब बीतई, ऊगा ज्ञान सुभानु ।
भाव त्यूँ प्रमोधि ले, ज्यूं बंसि बजाई फूक ।। भ्राति तिमिर जब नाशियो, प्रगटत अविचल थान ।। पाण्डे रूपचन्द, खटोलनागीत,अनेकांत, वर्ष १०, किरण
गुरुदेव को अंग, २१ वां दोहा, कबीर-साखी-सुधा, २०७६।
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वर्ष १५ नहीं सकता, यदि उसका ज्ञानी पात्मा मिथ्यात्व से भावृत कुलित बना डालता है । सुगुरु के वचन केवल प्राकहै।' बनारसी दास का कथन है, "सहज मोह जब उपसमै. षेक ही होते तो बनावट की सम्भावना भी की जा सकती रुचे सुगुरु उपदेश । तब विभाव भव-थिति घट जग ज्ञान-गुण ।
थी, किन्तु 'शक्तिशाली' ने 'वचन' के पीछे छिपी ठोस
भूमिका को स्पष्ट कर दिया है। वचन तभी शक्तिशाली लेश ॥"
हो सकते हैं जबकि वक्ता ने अपने जीवन को तदनुरूप भारतीय धरती सद्गुरुषों की महिमा से सदैव महकती ढाल लिया हो। तात्पर्य यह है कि जिनदत्तसूरि ने कोरे उपरही। उसका प्राचीन-साहित्य, पुरातत्त्व और इतिहास देष्टा को 'गुरु' संज्ञा नहीं दी। मुनि महचन्द ने निरञ्जन इसका साक्षी है। किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि शनैः को प्राप्त कराने की सामर्थ्य गुरु में स्वीकार की, किन्तु शनैः वह महिमा निःशेष प्राय हो गई। कुगुरु बढ़ते गये उसी गुरु में जो निम्रन्थ हो, जिसने प्रात्म और अनात्म की और साथ ही साथ अपयश भी। सद्गुरु के साथ कुगुरुत्रों गांठ को खोल दिया हो। महात्मा मानन्द तिलक ने जीव की कभी कमी नहीं थी, किन्तु उस समय के संत दोनों के को सावधान करते हुए कहा-कुगुरुपों की पूजा कर-करके अन्तर को स्पष्ट घोषित करते रहे, जिससे जन-साधारण अपना सिर क्यों धुनते हो, उस गुरु की पाराधना करो जो को उनकी पहचान बनी रहती थी। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सच्चा तत्त्व दिखलाता है। कबीर ने कुगुरु की अन्धे से कुगुरु से सुगुरु को पृथक करते हुए लिखा कि जिसने अपनी उपमा दी है और शिष्य तो ज्ञान-हीन होने से अन्धा होता शुद्ध, निरञ्जन और अविकार प्रात्मा को पा लिया वह ही ही है, अन्धा अन्धे को जब ठेलता है तो दोनों ही कुयें में सच्चा गुरु है । वह ही भयंकर कानन रूप इस संसार में जा गिरते हैं । कबीर ने कहा सतगुरु पूरा होता है, पूरे का पथ-भ्रष्ट मानवों को प्रकाश प्रदान करता है। उन्हें ही तात्पर्य है सब प्रकार से समर्थ, उससे जब शिष्य का परिऐसा करने का अधिकार है अन्य को नहीं। श्री योगीन्द्र ने ४. दुद्ध होइ गो-यक्किहि धवलउ, मन और इन्द्रियों से छुटकारा पाने वाले को सद्गुरु कहा
पर पेजंतइ अंतर बहलउ । है । जिसने वह छुटकारा प्राप्त नहीं किया और जो केवल एक्कु सरीरि सुक्ख संपाडइ, वेश-भूषा के प्राधार पर गुरु का पद सुशोभित करता रहा, अवरु पियउ पुणू मंसु वि साडइ ॥१०॥ वह अवश्य ही कुगुरु था। उससे सावधान रहने की बात कुगुरु सुगुरु सम दीसहि बाहिरि योगीन्द्र ने लिखी है। श्री जिनदत्तसूरि ने 'काल स्वरूप परि जो कुगुरु सु अंतरु बाहिरि । कुलक' में गुरु के दो भेद किये हैं-सुगुरु और कुगुरु । जो तसु अंतरु करइ वियक्खणु उन्होंने लिखा है कि सुगुरु वह है जो आकर्षक और शक्ति- सो परमप्पउ लहइ सुलक्खणु ॥११॥ शाली वचनों से सोते हुए भी मानव को जगा देता है ।
कालस्वरूपकुलक, अपभ्रंश काव्यत्रयी, ओरिइसके विपरीत कुगुरु अपने विषमय निर्देशन से उन्हें भ्रमा
यन्टल इंस्टिट्यूट, बड़ौदा, सन् १९२७ ई०,
५. दय धम्मु वि निग्गंथु गुरु, संतुणिरंजणु देउ॥ ६. देखिए परमार्थजकड़ी सग्रह, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रथम पद्य ।
पाहुड दोहा, हस्तलिखित प्रति, २३८ वाँ दोहा ।
६. कुगुरुह पूजि म सिर धुणह तीरथ काई भमेह । ७. बनारसीदास, अध्यात्म-बत्तीसी, २७ वां पद्य, बनारसी
देउ सचेयणु संघ गुरु पाणंदा जो दरिसायहि भेउ ।। विलास, जयपुर, पृ० १४६ ।
'पाणंदा' की हस्तलिखित प्रति, ३७ वाँ पद्य । १. देखिए मोक्षपाहुड, १०४ वीं गाथा ।
७. जाका गुरु भी अंधला, चेला खड़ा निरंध । २. पंचगुरुभक्ति, चौथा पद्य, दशभक्त्यादि संग्रह,
अंधै अंधा ठेलिया, दोन्यूं कूप पड़त ॥१५॥ ३. देखिए, योगसार, पद्य ५३-५४, पृ० ३८३ ।
गुरुदेव की अंग, , कबीर-साखी-सुधा, पृष्ठ ७ ।
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मंगलोत्तमशरण पाठ
रतनलाल कटारिया
णमो अरहताणं, णमो मिद्धाणं, णमो पाइरियाणं, अर्थ-यह पंचनमस्कार मन्त्र सब पापों का नाश करन णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥' वाला है और सब मंगलों में प्रथम मंगल है। श्वे. संप्रदाय
यह जैनसंस्कृति का प्रति प्रसिद्ध मूलमन्त्र है । यह में इस गाथा के ४ पद और नमस्कारमंत्र के ५ पदों को नमस्कार महामंत्र, अपगजित मंत्र, ओंकार, प्रणव (प्रणम) मिलाकर ६ पद वाला नवकारमंत्र भी माना है। मंत्र, पंचनमस्कार मंत्र, पंचमंगल, महाश्रुतस्कंध, अनादिसिद्ध- गुरुपंचनमस्कारलक्षणं मंत्रमूर्जितम् । मन्त्र, पंचपरमेष्ठी मन्त्र-आदि अनेक नामों से पुकारा विचिन्तयेज्जगज्जतुपवित्रीकरणक्षमं ॥३८॥ जाता है।
श्रियमात्यंतिकी प्राप्ता योगिनो येऽत्र केचन। यह एक ही मंत्र सब सम्पदामों-अभ्युदय एवं निश्रेयस अमुमेव महामंत्र ते समाराध्य केवलं ॥४॥ का दाता है। इसमें का एक प्रारम्भिक 'अहम्, पद ही ऐसा प्रभावमस्य निश्शेषं योगिनामप्यगोचरं । है कि उसमें प्रकार से लेकर हकार तक सब स्वर और अनभिज्ञो जनो ब्रूते य. स मन्येऽनिलादितः ॥४२॥ व्यंजन आ जाते हैं। अनेक नवीन-नवीन मन्त्रों का जो अनेनैव विशुद्ध्यंति जन्तवः पापपंकिताः । निर्माण हुआ है, वे सब इसीके रूपान्तर हैं, अत: नवीन- अनेनैव विमुच्यते भवक्लेशान्मनीषिणः ॥४३॥ नवीन मन्त्रों को सिद्ध करने के झमेले में न पड़कर एकाग्र- असावेव जगत्यरिमन्भव्यव्यसनबांधवः । मन से एक मात्र इसी का सदैव आराधन करना चाहिए। अमुं विहाय सत्त्वानां नान्यः कश्चित्कृपाकरः ॥४४॥ इस मंत्र के विषय में बताया है कि
--ज्ञानार्णव, (शुभचन्द्र कृत) अध्याय ३८ । 'एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो ।
अर्थ--यह पचनमस्कार मंत्र सर्वोत्कृष्ट है और संसार मंगलेसु य सन्वेसु पढमं हवदि मंगलं ॥१३॥
के प्राणियों को पवित्र करने में समर्थ है अतः इसका ध्यान 'मूलाचार, अधिकार ७'
करना चाहिए । ३८ । जिन ऋषियों ने मोक्ष प्राप्त किया १. काऊण णमोक्कारं अरहताणं तहेव सिद्धाणं ।
है वह सिर्फ इस मन्त्र का पागधन करके ही प्राप्त किया पाइरियउवज्झाए लोगम्मि य सव्वसाहूणं ॥१॥
है।४। इसका प्रभाव योगियों के भी अगोचर है। —'मूलाचार, अधिकार ७
अजानीजन जो इसके विषय में कुछ भी कहने का दावा २. अपराजितमंत्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशन. । मंगलेप य सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ।।
करते हैं वह पागल का प्रलाप समझना चाहिए ।।२। एकAmmammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मात्र इसी के द्वारा पापी अपने पापों से शुद्ध होते हैं और चय हो जाता है तो सब दुख दूर हो जाते हैं और प्रात्मा इसीके द्वारा ज्ञानी संसार के दुःखों से विमुक्त होते हैं ।४३१ निर्मल होकर प्रभु की सेवा में लीन रह उठती है। कबीर इस समार में भव्यजीवों का संकट में यही एक बंधु है का 'सब प्रकार से समर्थ' और जिनदत्त सूरि का 'शक्ति- इसको छोडकर संसारी प्राणियों का और कोई सहायक शाली' एक ही अर्थ के प्रकाशक है। इस प्रकार कबीर नहीं है।४॥ मादि सन्त कवियों का सतगुरु जैन अपभ्रंश में पूर्ण रूप से
इस पंचनमस्कार महामन्त्र के माथवर्तमान था।
क्रमशः चत्तारि मंगलं-परिहंता मंगलं, मिद्धा मंगलं, साहू ८. पूरे सूं परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि ।
मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । निर्मल कीन्हीं प्रात्मा, ताथै सदा हरि ॥
चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंता लोगृतमा, सिद्धा लोगुवही, ३५ वां दोहा, पृष्ठ १४ । तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो।
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१३२
अनेकान्त
वर्ष १५
चत्तारि सरणं पवज्जामि-अरिहंते सरणं पवज्जामि, पर्व ४०-प्ररहंतसिद्धसाहूधम्मो तुह मंगलं होउ ॥१७॥ सिद्ध सरणं पवज्जामि, साहु सरणं पवज्जामि, केवलि (५) पप्रचरित (रविषेणाचार्य कृत) पर्व ८६ पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ॥
अहंद्भ्योऽथ विमुक्तेभ्य आचार्येभ्यस्तथा विधा। यह 'चत्तारिदंडक पाठ' भी बोला जाता है । इस मंग- उपाध्यायगुरुभ्यश्च साधुभ्यश्च नमो नमः ॥१०४॥ लोत्तम शरण पाठ का सम्बन्ध नमस्कार मंत्र के साथ शुरू से अर्हन्तोऽथ विमुक्ताश्च साधवः केवलीरितः । ही बहुत प्राचीन समय से आज तक चला आ रहा है । नीचे धर्मश्च मंगलं शश्वदुत्तमं मे चतुष्टयं ।।१०५ । एतद्विषयक कुछ प्राचीन प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं :- पर्व ४८-ग्रहन्तो मंगलं संतु तव मिझाश्च मंगलं । (१) सामायिक दंडक (गौतम महर्षिकृत) में नमस्कार मंगलं साधवः सर्वे मंगलं जिनशासनम् ॥२१२।।
मंत्र मंगलोत्तमशरणपाठ पूर्वक दिया हुआ है इस (६) वरांगचरित (जटासिंहनंदि कृत) सर्ग १५ पर प्रभाचन्द्राचार्य कृत प्राचीन संस्कृत टीका भी है शरणोतममांगल्यं नमस्कारपुरस्सरम् । देखो"क्रियाकलाप" पृ० १४२ से १४४ ।
ग्रतवृद्ध्यं हृदि ध्येयं सध्ययोरुभयोः सदा ॥१२१।। (२) पाक्षिकादिप्रतिक्रमण (गौतम कृत) देखो "क्रिया- (७) हरिवसपुगण (जिनसेनाचार्यकृत) सर्ग २२ कलाप पृ० १०५
पुण्यपंचनमस्कारादपाठपनित्रितो। इच्छामि भंते ! पडिक्कमणमिदं सुत्तस्स मूलपदाणं
चतुगत्तपमागल्यशरणप्रतिपादिनौ ॥२६॥ उत्तरपदाणमच्चासणदाए त जहा–णमोक्कारपदे अर
महापुराण (जिनमेनाचार्य कृत) पर्व २५ हंतपदे सिद्धपदे पाइरियपदे उवज्झायपदे साहुपदे मंगल
चतु गणमांगल्यमूर्तिस्त्वं चतुरनधीः । पदे, लोगोत्तमपदे सरणपदे...अंगगेसु पुवंगेसु पाहुडेसु ..
पंचब्रह्ममयो देव पावनरत्वं पुनीहि माम् ॥७७।। से अक्सरहीणं वा पदहीणं वा सरहीणं वा वंजणहीणं वा प्रत्यहीणं वा......तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।
अनेकार्थनाममाला (धनंजय कृत) इसमें नमस्कारमंत्र को मंगलोत्तमशरणपाठ पूर्वक अर्हत्मिहमिति द्वावप्यहत्गिदाभिधायिनी । उल्लेखित किया है और अंग पूर्वांग पाहादि से पूर्व स्थान अहंदादीनपि प्राहुः शरणोत्तनमंगलान् ।।४।। दिया है इसमे इसकी महत्ता और अतिप्राचीनता का परि- (१०) जानार्णव (शुभचन्द्राचार्य कृत) अध्याय ३८ चय मिलता है।
गुरुपंचनमस्कारलक्षणं मंत्रमूजितं । (३) भावपाहुड (कुन्दकुन्दाचार्यकृत) (षट् पाहुड,-श्रुत- विचिन्तयेज्जगज्जन्तुपवित्रीकरणक्षमं ॥३८॥ ___ सागरी टीकायुक्त पृ० २७३)
मगलगरणोत्तमपदनिकुरंब यस्तु संयमी स्मरति । झायहि पंच वि गुरवे चउमंगलशरणलोयपरियरिए। अविकलमे काग्रधिया म चापवर्गश्रियं श्रयति ।।५७।। णरसुरखेचरमहिए. पाराहणणायगे वीरे ॥१२२॥ (११) सुभाषितरत्नसंदोह (अमितगति कृत) अध्याय ३१ (टीका-ध्याय त्वं हे मुने ! पंचापि गुरून् पंचपरमेष्ठिनः नमस्कारादिकं ध्येयं शरणोत्तममंगलं । चतु:मंगललोकोत्तमशरणभूतानित्यर्थः । )
संध्यानत्रितये शश्वदेकाग्रकृतचेतमा ।।८०५।। (४) पउमचरिय (विमलसूरि कृत) पर्व ८६ (१२) चारित्रमार (चामुंडराय कृत) के प्रारम्भ मे इणमो परहंताणं सिद्धाण णमो सिवं उवगयाणं ।
अरिहननरजोहननरहस्यहरं पूजनार्ह महन्तम् । पायरियउवउझायाणं णमो सया सव्वसाहूणं ॥६॥ सिद्धान् सिद्धाष्टगुणान् रलत्रयमाधकान् स्तुवे साधून् ।। अरहंतो सिद्धो वि य साहू तह केवलीण धम्मो य ।
श्रीमज्जिनेन्द्रकथिताय सुमंगलाय, एए हवंति निययं, चत्तारि वि मंगलं मझ ॥६४॥ लोकोत्तमाय शरणाय विनयजतोः । जावद्दया परहंता माणुमखित्तादि होति जयनाहा । धर्माय कायवचनाशयशुद्धितोऽहं, तिविहेण पणमिऊणं ताणं सरणं पवण्णोऽहं ॥६॥ स्वर्गापवर्गफलदाय नमस्करोमि ॥
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किरण ३
मंगलोत्तमशरण पाठ (१३) सागारधर्मामृत (प्राशाधर कृत) अध्याय २
चतुः समाश्रयाण्येव स्मरन्मोक्षं प्रपद्यते ॥४२॥ जिनानिव यजन्मिद्धान माधन धर्म च नंदति । नोट-श्लोक ४२ की स्वोपज्ञटीका में पूरा और शुद्ध
तेऽपि लोकोत्तमास्तद्वच्छरणं मंगलं च यत् ।।४२ । पत्तारिदण्डक पाठ दिया हुआ है जैसा कि हम ऊपर लिख (१४) जिनयज्ञकल्प (पाशाधर कृत) अध्याय ५
माये हैं। ये मंगललोकोतमशरणात्मानः समृद्ध महिमानः ।
अब इस पाठ के कुछ पदों पर नीचे किंचित् ज्ञातव्य पांतु जगत्यर्हत्मिद्धमाधुकेवल्युपज्ञधर्मास्ते ।।६।।
प्रस्तुत किया जाता है :
१. आइरियाणं की जगह पायरियाणं, लोगुत्तमा की (१५) जिनयज्ञकला (आशाधर कृत) अध्याय २
जगह लोगोत्तमा और पवज्जामि की जगह पव्वज्जामि तेऽमी पंच जिनेन्द्रसिद्धगणभत्सिद्धांतदिक्माधवो ।
पाठ भी पाया जाता है। मांगल्यं भुवनोत्तमाश्च शरणं तद्वज्जिनोक्तो वृपः ।। अस्माभि. परिपूज्य भक्तिभरतः पूर्णाऱ्यामापादिताः ।
२. 'साहु, एकवचन है' और 'साहू' बहुवचन है (प्राकृत में)।
३. चत्तारि सरणं पवज्जामि में पवज्जामि का संस्कृत संघस्य क्षितिपस्य देशपुरयोरग्यासतां शांतये ।।२१।।
रूपान्तर प्रायः विद्वान् 'प्रपद्ये करते हैं और अर्थ इस इन सब प्रमाणों से यह भलीभॉति स्पष्ट होजाता हैं
प्रकार करते है :कि-नमस्कारमन्त्र के साथ प्राचीन समय से ही चनारि
मैं चारों की शरण को प्राप्त होता हूँ-चारों की शरण मंगलोतम शरण पाठ प्रचलित रहा है । इस तथ्य को किस अंगीकार करता हूँ किन्तु प्रभाचन्द्र ने अपनी संस्कृत टीका खबी के माथ प्रत्येक प्रमाण में ग्रथित किया गया है यह मे इसका अर्थ इस प्रकार किया है :इन प्रमाणो को ध्यान पूर्वक अध्ययन करने पर प्रत्येक
अहंदादीन् चतुर. शरणं प्रवजामि । इममे 'पन्चज्जामि पाठक को स्वय अनुभव हो जायगा ।
का अर्थ 'प्रपद्ये' न करके 'प्रव्रजामि' किया है। गमनार्थक इस विषय में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अभिमत भी।
'ब्रज' धातु से पहिले उत्कृष्टार्थक 'प्र' उपसर्ग लगाकर दिगम्बरवत् ही है इसके लिए ग्रथाभाव से सिर्फ एक ही
सम्भवतः यह धोतिन किया गया है कि- अन्य सबकी प्रमाण नीचे प्रस्तुत किया जाता है।
शरण में जाना छोड़कर इन चारों की ही शरण में जाता (१) योगशास्त्र (हेमवन्द्राचार्य कृत) प्रकाश ८ हूँ। वैसे 'प्रव्रजन' का अर्थ संन्यास, दीक्षा होता है। किन्तु
तथा पुण्यतम मन्त्रं जगत्रितयपावनम् । प्राकृत में गमन और संन्यास दोनों होते है देखो 'प्राकृत योगी पचपरमप्ठिनमरकारं विचिन्तयेत् ।।३।। शब्द महार्णव' और 'जैनागमशब्दसंग्रह' में -पव्वज्जा मगलोत्तमारणपदान्यव्यग्रमानम ।
(प्रव्रज्या) तथा पव्वय (प्रव्रज) शब्द ।
पद मूरति श्री जिनदेव की।
मेरे नैनन माझि वसी जी ॥टेक।। अदभुत रूप अनोपम है छवि ।
राग दोष न तनक सी ॥१॥ कोटि मदन वारूँ या छवि पर ।
निरखि निरखि आनन्द झर वरसी। जगजीवन प्रभु की सुनि वाणी ।
सुरति मुकति मगदरसी ॥२॥
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काष्ठासंघ के लाटबागड़ गण की गुर्वावली
ले०-श्री परमानन्द शास्त्री
काष्ठासंघ के उद्गम के समय-सम्बन्ध में विवाद हो उसके आस-पास के स्थानों में और मध्यभारत में ग्वालियर सकता है, परन्तु काष्ठासघ 'काष्ठा' नामक स्थान से के पासवर्ती इलाकों में भी रहा है । इस संघ का सम्बन्ध निकला, इमके मानने में किसी को विवाद नहीं हो सकता पुन्नाटसंघ से भी रहा प्रतीत होता है। पर उसके संबन्ध यह 'काप्ठा' स्थान दिल्ली के समीपवर्ती है।' काष्ठासंघ में विशेप जानकारी नहीं हो सकी। का नामोल्लेख करने वाली अनेक ग्रंथ-प्रशस्तियां, लिपि- प्रस्तुत गुर्वावली में ६८३ वर्ष की श्रुतपरम्परा की प्रशस्तियाँ और मूर्तिलेख मेरी नोट-बुक में दर्ज है। उनमें गणना के अनन्तर चार भारतीय प्राचार्यों के नामों का सबसे पुराना उल्लेख सं० ११५२ का दूब-कुण्ड के स्तम्भ- उल्लेख किया गया है। जिनका नाम श्रुतपरम्परा के विद्वानों लेख में मिलता है। इससे पूर्व का कोई लेख मेरे देखने में में विशेष ख्याति प्राप्त था, और वे अपनी खास विशेनहीं पाया। मूति-लेखों का संकलन हो जाने पर प्राचीन षताओं को लिए हए होने के कारण पारातीय कहलाते थे' लेख मिलना संभव है। इस संव की चार शाखाओं का इनके पश्चात् अर्हबली, भद्रबाह, धरसेन, भूतबली प्रार उल्लेख प्रथम लेख में (अनेकान्त की गत दूसरी किरण में)
पुष्पदन्त का नाम दिया है। और उसके बाद अन्य प्राचार्यों किया गया है, जिसका सम्बन्ध माथुरगच्छ से था, इस के नामों का उल्लेख हुआ है। गर्वावली का सम्बन्ध लाडबागड़ गण से है। बागड़संघ यहाँ यह बात खास तौर से विचारणीय है कि प्रस्तुत लाडबागड़ और बागड़ इन दो भेदों में विभक्त रहा है। गुर्वावली जब लाडबागड गण की है तब उसमें मुख्यता से लाडबागडसंघ के विद्वान जयसेन ने अपने धर्मरत्नाकर उन्हीं संघ वालों का ग्रहण होना चाहिए था। परन्तु इसके (सं० १०५५) में अपने संघ का सम्बन्ध भगवान महावीर रचयिता प्रतापकीति ने लाडबागड़सघ के कई सुप्रसिद्ध के गणधर मेतार्य के गाथ जोड़ा है। कुछ भी हो पर विद्वानो को छोड़ दिया है और अन्य विशिष्ट प्राचार्यों के यह संघ पुराना अवश्य है। इसका संस्कृत रूप लाटवर्गट ममल्लेख के माध पनाdis है। कवि श्रीचन्द ने सं० १०७७ और सं० १०८० में अपने का और देवसघ के विद्वान समन्तभद्र अकलंकदेव आदि ग्रंथों में इसका उल्लेख किया है। इससे यह सघ १० वीं विभिन्न सघों के प्राचार्यों का उल्लेख किया है । जिसका शताब्दी से भी पूर्व का जान पड़ता है। पहले इस संघ में कारण या तो उनके प्रति बहुमान प्रदर्शन करना है या अनेक विद्वान प्राचार्य हुए है। उनसे इस संघ का प्रभाव अपने गण में गौरव लाने की भावना अन्तर्निहित रही है। अच्छा रहा प्रतीत होता है । इसका सम्बन्ध गुजरात राज- इन्ही प्रतापकीर्ति की एक गद्य गुर्वावली (पट्टावली) भी स्थान में तो रहा ही है किन्तु बाद में मालवा में धारा और उपलब्ध है जिसका फुटनोट में उल्लेख किया गया है, उसमें
और इसमें साम्य भी अधिक पाया जाता है । गुर्वावली में १. दिल्ली के उत्तर में जमुना नदी के किनारे 'काष्ठा
निम्न प्राचार्यों के नाम दिये हुए है : नाम की एक नगरी थी, जिस पर टांकवंश के राजा मदन
१. अहंबली, भद्रबाहु, धरसेन, भूतबली, पुष्पदन्त, समंत पाल की आम्नाय में पेदिभट्ट के पुत्र विश्वेश्वर ने 'मदन
भद्र, सिद्धसेन, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, पारिजात' नामका निबन्ध १४ वीं शताब्दी के शेषभाग
प्रभाचन्द्र, अकलंक, वीरसेन, अमितसेन । में लिखा था। ऐतिहासिक विद्वान अोझा जी के अनुसार ... वहाँ नाग वंशियों की एक छोटी शाखा का राज्य था। ३. विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽहंदत्तनामैते ।
२. देखो जैन ग्रंथप्रशस्ति संग्रह में श्रीचन्द के पुराणसार पारातीया यतयस्ततोऽभवन्नङ्गपूर्वदेशधराः ।।८४॥ और पद्मचरितटिप्पण की प्रशस्ति ।
इन्द्रनन्दिश्रुतावतार
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काष्ठासंघ के लालबागड़ गण गुर्वावली
जिनसेन, वामवसेन, रामसेन, माधवसेन, धर्मसेन, विजयसेन के नियुक्तिकार भद्रबाहु का समय विक्रम की छठी शताब्दी जयसेन, सिद्धसेन, संभवसेनमूरि, केशवसेन, चारित्रसेन, है और उन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहर का भाई बतमहेन्द्रसेन, अनन्तकीति, जयसेन, पद्मसेन, धर्मकीर्ति, मलय लाया जाता है। कीर्ति, नरेन्द्रकीति और प्रतापकीति ।
घरसेन-यह सौराष्ट्र देश के गिरिनगर (वर्तमान ___ इन सब प्राचार्यो में से जिनका परिचय ज्ञात हो सका
जूनागढ़) में स्थित चन्द्रगुहा के निवासी थे। और अग्राहै उसे यहाँ देने का उपक्रम किया जाता है
यणी पूर्व के पंचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अहंबलो-यह अङ्ग-पूर्वो के पाठी आरातीय प्राचार्यों
ज्ञाता थे, वे उस समय के साधुओं में बहुश्रुत विद्वान् तथा के बाद हुए हैं । ये पूर्वदेश में स्थित पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन-वात्सल्य एक अग के पाठी विद्वान, अष्टांग महानिमित्तज्ञ, मंघ. एवं श्रुत-विच्छेद के भय से एक पत्र वेण्यातट नगर के मुनिनायक और शिप्यों का निग्रह-अनुग्रह करने में समर्थ सम्मेलन में दक्षिणापथ के प्राचार्यों के पास भेजा और पत्र आचार्य थे।' इनके समय तक मूल दिगम्बर परम्परा मे में देश कुल और जाति से विशुद्ध, शब्द अर्थ के ग्रहणप्राय मंघ-भेद प्रकट रूपमें नहीं हुआ था; किन्तु वह अव्यक्त धारण में समर्थ, विनयी दो विद्वान साधुओं को भेजने की रूप में प्रस्फुटित हो रहा था. उस समय आन्ध्रदेश वेण्या प्रेरणा की। उन्होंने पत्र पढ़कर दो योग्य साधनों को उनके नदी के किनारे बसे हुए वेण्यानगर में पंचवर्षीय युग प्रति- पास भेजा। उन विद्वानों के आने पर प्राचार्य धरसेन ने क्रमण के समय एक बड़ा यति सम्मेलन हुआ था जिसमें उनकी परीक्षा कर 'महाकर्म प्रकृति प्राभूत' नाम के ग्रंथ सौ योजन तक के मुनिगण ससंघ सम्मिलित हुए थे । उसमे को पढ़ाकर उन्हें चातुर्मास से पूर्व ही विदा कर दिया और प्राचार्य अहंदबली ने समागत साधुओं की भावनाओं से स्वयं ने संन्यास विधि से प्रात्म-साधना करते हुए भौतिक पक्षपात एव याग्रह की नीति जानकर 'नन्दि' 'वीर' 'अप- शरीर का परित्याग किया। राजित' 'देव' पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों में भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये। जिससे
आन्ध्रदेशीय 'वेणातटपुर' एक इतिहासप्रसिद्ध नगर उनमें एकता तथा अपनत्व की भावना, धर्मवात्मल्य और
रहा जो वेणा नदी के किनारे बसा हुआ था, इसीसे प्रभावना की अभिवृद्धि बनी रहे।
वह वेणातटपुर नाम से उल्लेखित किया जाता रहा । प्राकृतपट्टावली के अनुसार इनका समय वीर नि इसका उल्लेख धवलाटीका, हरिषेण-कथाकोष और इन्द्रसं० ५.६५ (वि० सं० ६५) है। और पट्टकाल २८ वर्ष
३. सोरट्ठ-विसय-गिरिणयर-पट्टण-चंदगुहा-ठिएण अरुंगबतलाया है।
महाणिमित्तपारएण गंथ-वोच्छेदो होहदि ति जाद-भएण भद्रबाह (द्वितीय)-प्राकृत-पट्टावली में अहबली के पवयणवच्छलेण दक्षिणावहाइरियाण महिमाए मिलियाण बाद मा यनन्दि का नाम दिया है। किन्तु इस गुर्वावली में
लेहो पेसिदो। लेहट्ठिय-धरसेणवयणमवधारिय तेहि वि भद्रबाहु का नाम दिया है, जो दिगम्बर मम्प्रदाय में द्वितीय
पाइरिएहि वे साहू गहणधारण-समत्था धवलाऽमल-बहु भद्रबाहु के नाम से प्रसिद्ध हैं इनका समय विक्रम की
क्रम को विहविणयविहूसियंगा सील-मालाहरा गुरुपेसणासण-तित्ता पहली शताब्दी भाना जाता है जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय देस कल-जाड-सदा सयल-कला-पारया तिक्खत्तावच्छियाह१. सर्वांगपूर्वदेशकदेशवित्पूर्वदेशमध्यगने ।
रिया अंधविसय-वेण्णायडादो पेसिदा।' श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽर्हद्बल्याख्य ॥८॥
(धवला पु० १ पृ०६७) स च तत्प्रसारणाधारणाविशुद्धातिसस्क्रियोद्युक्तः। (क) इन्द्रनन्दि श्रुतावतार १०३ से १०६ तक के पद्य । अष्टांगनिमित्तज्ञः संघानुग्रहनिग्रहसमर्थः ॥८६॥
(ख) अन्ध्रदेशकदेशस्थकर्मराष्ट्रजनान्तके । देखो--इन्द्रनन्दिश्रुतावतार ८७ से १११ के पद्य
वेण्यातटपुरं रम्यं विद्यते जनसंकुलम् ।। १. धवला पुस्तक १ प्रस्तावना पृ० २६ ।
हरिषेणकथा० ४६, पृ० ६७
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नन्दि के श्रुतावतार में मिलता है। उक्त मुनि- सम्मेलन नहीं हुआ था, यह सुनिश्चित है। अतः घवला टीका में प्रयुक्त 'महिमाए' शब्द का जो अर्थ 'महिमा नाम की नगरी' किया गया है वह संगत नही जान पड़ता । पूर्वापर कथन क्रम को देखते हुए वैसा अर्थ फलित भी नहीं होता । वहाँ नगरी अर्थ करने पर वीरसेनाचार्य द्वारा नीचे दिये हुएअन्धविसय-वेणायडादो' वाक्यों के साथ सामंजस्य ठीक नही बैठता, और उसका जो अर्थ भापाटीका में किया गया है कि - 'मान्ध्र देश में बहने वाली वेणा नदी के तट से वह संगत नहीं है। क्योंकि उसमें 'अन्धविसय' वाक्य साफ तौर पर बतला रहा है कि वेणातटपुर एक नगर का नाम था । श्रद्धेय मुख्तार साहब ने धवला टीका के उस वाक्य का अर्थ अपने 'बुतावतारकथा' नामक तेल मे 'अन्ध्रदेश के वेणातट नगर से' किया है, जो संगत है ।
अनेकान्त
अनेक विद्वानों ने 'महिमाए' का महिमा नगरी घ किया है । उन विद्वानों में डा० हीरालाल जी, पं० जुगलकिशोर जी और डा ज्योतिप्रसाद जी आदि है डा० हीरालाल जी ने धवला के अतिरिक्त 'गिरिनगर की चन्द्रगुफा' नाम के लेख में 'महिमा नगरी' अर्थ किया है। (देखो, अनेकात वर्ष ५, किरण १, २) और मुख्तार साहब ने 'थुतावतार कथा' नाम के लेख मे महिमा नगरी धर्म किया है" जो उस समय महिमा नगरी में सम्मिलित हुए", यहाँ उन्होंने महिमा शब्द पर टिप्पण देते हुए स्थलकोष के बाधार पर 'महिमानगढ़' नामक गाव को महिमा नगरी होने की सम्भावना भी व्यक्त की है, जिसे उक्त कोष में सतारा जिले का एक गाँव बतलाया गया है ।"
१५
दक्षिण भारत में ऐसे कई नगर थे, जो उस काल में नदियों के किनारे बसे हुए थे। प्राचार्य हरिषेण ने ( वि० सं० २८९ ) अपने बृहत्कथाकोश में इस नगर का 'वेणातटपुर' नाम से ही उल्लेख किया है—
दक्षिणापथदेशेऽस्ति विण्या नाम महानदी ।
तत्त लोकविख्यातं विम्यातटपुरं पुरम् ।। (पृष्ठ १५० )
डा० ज्योतिप्रसादजी ने भी अपने 'भारतीय इतिहास; एक दृष्टि' नामके ग्रंथ में भी पृष्ठ ११७ में महिमा नगरी लिखा है जो अभी-अभी भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रका शित हुआ है जैसा कि उनके निम्न वाक्य से प्रकट है :
" सन् ६६ ई० में उन्होंने महिमा नगरी में एक महान मुनिसम्मेलन किया था ।" इससे स्पष्ट है कि विद्वान लोग अब भी उक्त गलत अर्थ को बराबर दुहरा रहे हैं । उस पर जरा भी गहराई से विचार नहीं करते ।
१. देखो, जैन सिद्धान्त भास्कर भा० ३ किरण ४ ।
उदाहरण के लिये 'रम्यातटपुर' को ही ले लीजिए, इस नगर का उल्लेख ईसा की ७वी शताब्दी के आचार्य जटासिनन्दि ने अपने वरांगचरित के प्रथम सर्ग के ३२वें - ३३वें पदों में किया है।
"तस्यास्तु दक्षिणतटे समभूमिभागे
रम्यातटं पुरमभूद् भुवि विश्रुतं तत् ॥ ३२ "रम्यानदीतटसमीपसमुद्भवत्वात्
रम्यातटं जगति तस्य हि नाम रूढम् ।। " ३३
इसी तरह खान देश मे प्रसिद्ध 'नन्दीतट' नाम का नगर है जो वर्तमान में 'नांदेड़' कहलाता है । श्राज भी भन्डी होने के कारण वह व्यापार का स्थल बना हुआ है । इमी ग्यान से काष्ठाराम के 'नन्दीतट गच्छ का उद्गम हुआ है।
२
धवला के अनुवादकों और सम्पादकों ने इन्द्रनंदी के श्रुतावतार के वाक्यों को पाद-टिप्पण में उद्धृत करके भी वीरसेनाचार्य के वाक्यों का गलत किया है इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के श्लोक नं० १०६ का पाठ तत्त्वा नुशासनादिसंग्रह मे देशेन्द्र (अ) देशनामनि वेगाकतटीपुरे महामहिमा । समुदितमुनीन्" इस प्रकार छपा है । यहाँ महामहिमा के आगे पूर्णविराम चिन्ह (1) न देकर समास द्योतक चिन्ह (-) हाईफन देना चाहिये था, तब उक्त वाक्य का अर्थ प्रारभ देश के वेणातटपुर में हो रही महा पूजा में सम्मिलित हुए मुनियों के पास लेख भेजा – ऐसा होगा और यही अर्थ वहाँ विवक्षित है। टीकाकारों को अर्थ करते समय पूर्वापर की संगति का ध्यान रखना जरूरी है उससे फिर ऐसी भूल-भ्रांतियों को स्थान नहीं मिलता ।
-
२. यह नगर बम्बई प्रान्त में भी रहा है ।
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काष्ठासंघ के लालबागर की गण गुर्वावली
१३७ इस विवेचन पर से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि द्वात्रिशिकाओं के रचयिता थे। और सिद्धसेन दिवाकर अहंबली धरसेन पुष्पदन्त और भूतबली ये चारों मान्य के नाम से लोक में प्रसिद्ध थे। इनका समय विक्रम की प्राचार्य सम-सामयिक थे। भले ही इनमें पायु-गत ज्येष्ठत्व- पांचवीं शताब्दी माना जाता है। कनिष्ठत्व रहा हो। पुष्पदन्त और भूतबली के दीक्षागुरु बजरि-वे ही ज्ञात होते हैं, जो दर्शनशास्त्र के अर्हवली थे और विद्यागुरु धरसेन । जिसका समर्थन अच्छे विद्वान थे इनका लिखा हुमा प्रमाण ग्रन्थ प्रसिद्ध था। 'जनशिलालेखसंग्रह' के लेख नं० १०५ से होता है। जो अब उपलब्ध नहीं है। अनेक ग्रन्थकारों ने इनका
प्राकृत पट्टावली के अनुसार धरसेन का समय विक्रम उल्लेख किया है । भ० प्रतापकीति ने अपनी दूसरी गद्यपट्टा की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध होता है। परन्तु यह भी वली में लिखा है कि इन्होंने सौराष्ट्रदेश में प्रसिद्ध चण्डिका अर्हद्बल्याचार्य के समकालीन होने से विक्रम की पहली के मन्दिर में पांच सौ भैसों की बलि को रोका था।' दूसरी शताब्दी के विद्वान होने चाहिए। इनका पट्टकाल इससे ये एक प्रभावक विद्वान हुए जान पड़ते हैं। १६ वर्ष बतलाया गया है । (देखो, धवला पु० १ पृ० २६ ~ महासेन-ये मुनि लाडबागड संघ के पूर्णचन्द्र थे, जो में प्रकाशित प्रा० पट्टावली)
प्राचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेन सूरि के शिष्य ___ भतवली पुष्पदन्त-गुर्वावली में भूतबली का नाम थे, सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि थे। परमार पहले और पुष्पदन्त का नाम बाद में दिया है किन्तु इनमें वंशी राजा मुज के द्वारा पूजित थे। इन्होंने हरिहर भद्र पुष्पदन्त ज्येष्ठ और भूतबली कनिष्ठ ज्ञात होते है। पुष्पदन्त आदि वादियों को जीता था।' इनका समय १०२५ से ने ही सबसे पहले पटखण्डागम के द्रव्यप्रमाणानगम से पहले १०५५ के मध्य में होना चाहिये, क्योंकि १०५० और के सूत्र रचे और जिनपालित को दीक्षित कर एवं मत्रों को १०५५ के मध्यवर्ती किसी ममय तेलपदेव ने राजा मज का पढ़ाकर भूतबली के पाम भेजा । और भूतबली ने पूरे छह वध किया था। इसलिए इनका समय विकी ११वीं खण्डों की रचना कर उसे पुष्पदन्त के पास पुनः भेजा शताब्दी का मध्य काल है। इनकी एकमात्र कृति प्रद्यम्नथा । ये दोनों ही उम युग के प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान थे। चरित उपलब्ध है, जो माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला में इनका समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी है। ये दोनो ही छप गया है । महासेन नाम के दो विद्वान और भी हुए है। आचार्य अहंबली के शिष्य थे, और उनके द्वारा प्रेषित रविषेण-अर्हन्मुनि के प्रशिष्य और लक्ष्मणसेन के होकर ही वे आचार्य धरसेन के पास आये थे। धरसेन ने शिष्य थे। अर्हन्मुनि के गुरु दिवाकर और उनके गुरु इन्द्र उन्हें महाकर्मप्रकृति प्राभृत पढ़ा कर विदा किया था। थे। इन्होने अपना पद्मचरित वीर नि० स० १२०७ (वि. इनके सम्बन्ध में फिर किसी समय विशेष प्रकाश डाला सं० ७३३) मे अनुत्तरवादि-कीर्तिधरानुमोदित लेख के जायगा ।
प्राधार से बनाया था। यह वि० की ८ वीं शताब्दी के समन्तभद्र-योगीन्द्र, महावादि, आज्ञासिद्ध, वचन
विद्वान थे। सिद्ध और उस काल के सबसे वरिष्ठ विद्वान थे। बड़े २. तदन्वये (सिद्धसेनाचार्यन्वये) सौराष्ट्र देश प्रसिद्ध तपस्वी, जितेन्द्रिय, दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित और चण्डिकायतने पंचशतमहिषमरगनिवारण श्रीवञसेनाप्राद्यस्तुतिकार रूप से लोक में प्रसिद्ध थे। इनका समय चार्याणाम् ।
गुच्छक नं०६ विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी माना जाता है।
३. देखो, गद्य पट्टावली पंचायती मन्दिर दिल्ली। सिद्धसेन- इस नाम के अनेक विद्वान हो गए है,
गुच्छ नं०६ परन्तु प्रस्तुत सिद्धसेन वे ही ज्ञात होते हैं, जो दर्शनशास्त्र ४. प्रथम कुमारसेन वे हैं, जिनका उल्लेख पुन्नाटमंघीय के प्रकाण्ड पंडित थे। मम्मनितकं और कुछ विशिष्ट जिनसेन ने किया है और उनके यश को प्रभाचन्द्र के
१. देखो जैनलेखसंग्रह भा० १ लेख नं० १०५ । समान उज्ज्वल और समुद्र पर्यन्त विस्तृत बतलाया है।
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१३०
अनेकान्त
वर्ष १५
कुमारसेन-इस नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। उनमें थे।' प्रस्तुत प्रभाचन्द्र कौन थे और उनकी गुरु परम्परा से गुर्वावलीकार को कौनसे कुमारसेन अभिप्रेत हैं। यह और समय क्या है ? यह विचारणीय है। कुछ ज्ञात नहीं होता।
प्रकलंकदेव-यह देवसंघ के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान माऽपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् ।
थे, इनका समय विक्रम की ८वीं-6वीं शताब्दी बतलाया गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥ जाता है। इस नाम के अनेक विद्वान हुए है, पर उनकी
अतः इनका समय उक्त हरिवंशपुराण कर्ता जिनसेन से यहाँ विवक्षा नहीं है।। पूर्ववर्ती है। जिनसेन ने अपना हरिवंशपुराण शक संवत्
वीरसेनवहीं हैं जिनका परिचय अन्यत्र प्रकाशित ७०५ (वि० सं० ८४०) में बनाया है। अतः कुमारसेन
है और जो घवला जयधवला टीका तथा सिद्धभूपद्धति का समय पाठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए।
जैसे ग्रन्थों के टीकाकार हैं। . दूसरे कुमारसेन वे हैं, जो कुमारसेन भट्टारक के नाम
अमितसेनगुर्वावलीकारने वीरसेन के बाद इनका से प्रसिद्ध थे, शक सं० ८२२ (वि० सं० ९५७) में
स्मरण किया है, यह पुन्नाटसंघीय विद्वान थे और सत्यवाक्य कोङ्गणिवर्मधर्म महाराजाधिराज ने जो कुवलाल
जयसेनाचार्य के शिष्य थे। शतवर्ष-जीवी, जिनशासन में नगर के स्वामी थे, और श्रीमत्पेय॑नाडि ऐरेयप्परस ने
वात्सल्य रखने वाले तपस्वी, शास्त्रदान-दाता, और वाणी सफेद चावल, मुक्तश्रम, और घी सदा के लिए चुंगी कर से
से ज्ञान के प्रकाशक थे। इनका समय विक्रम की ८वीं मुक्त कर पेय॑नाडिवाडि के लिए दिया था, इससे इनका
शताब्दी जान पड़ता है। समय १०वी शताब्दी जान पड़ता है (जैन लेख संग्रह भा० २ प० १६०)
जिनसेन-गुर्वावलीकारने दोनों जिनसेनों को एक तीसरे कुमारसेन वे हैं, जो जिनसेन के शिष्य विनयसेन समझकर उल्लेख किया जान पड़ता है और उसे ही दूसरी द्वारा दीक्षित थे और जो काष्ठासंबी थे, जिनका उल्लेख पट्टावली में हरिवंश (पुराण) का कर्ता भी लिखा है । जो दर्शनसार ग्रंथ में भी किया गया है, सम्भवतः गुर्वावली में
विचारणीय है। दोनों जिनसेन सम सामयिक होते हुये भी प्रतापकीर्ति ने इन्हीं का उल्लेख किया हो।।
भिन्न-भिन्न थे और उनकी रचनाएँ भी जुदी-जुदी
उपलब्ध है। 'चौथे कुमारसेन वे हैं, जो द्रविलमंघ नन्दिगण के विद्वान अजितसेन के सहधर्मा कुमारसेन मुनीन्द्र थे । जो दुरितकुल वासवसेन–यह बागडान्वय के विद्वान थे। इनकी का नाश करने वाले थे, और स्मर रूपी मत हस्ती के एक कृति 'यशोधर चरित' उपलब्ध है। जो अभी अप्रकाकुंभस्थल को विदारने वाले सिंह थे। इनकी प्रसिद्धि शित है । इसमें कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवि प्रभंजन और प्राधुनिक गणधर के रूप में थी। इनका समय शक सं० हरिषेणका उल्लेख किया है । इनसे इनका समय उत्तरवर्ती REE (वि० सं० ११३४) है, अर्थात् ये १२ वी शताब्दी है। एक वासवसेन मुनि का उल्लेख मुनि श्रीचन्द्र ने अपने के विद्वान थे। देखो, जैन ले० सं० भा० २ लेख नं० २५८ 'रयण करंडसावयायार' की प्रशस्ति में किया है। जिनका प्रभाचन्द्र-नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु
१. "चित्रकूटदुर्गे राजा नरवाहनसभायां विकटदुर्जययहाँ गर्वावलीकार को उन प्रभाचन्द्र की विवक्षा है, जिन्होंने शैववादिवन्दवनदहनदावानल विविधाचार ग्रन्थकर्ता श्रीमत् चित्रकट दुर्ग में राजा नरवाहन की सभा में विकट दुर्जय प्रभाचन्द्रदेवानाम्।" (गद्य पट्टावली, प्रतापकीति, पंचायती विवादिवन्द को जीता था और जो आचार ग्रन्थों के कर्ता
मन्दिर दिल्ली गु० ६) १. प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनुत्तरवाग्मिनं ।
२. "क्रमयमलकमलमधुकर धवल-महाधवलवृन्दपुराण लिखितं तस्य संप्राप्यः रवेर्यत्नोयमुद्गतः । पद्म चरित सर्ग४२ हरिवंशप्रभृतिकोटित्रयग्रंथकर्ता तत्पट्टालंकार श्री जिनसेनाकित्तिहरेण अनुत्तरवाएं-स्वयंभू पउम चरिउ ।
चार्याणाम् । (देखो वही पट्टावली गु० नं०६)
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काष्ठासंघ के लाटबागड गएको र्याली
रिल
समय वि० सं० १९२३ है और वासवमुनि को वहाँ सहस्रकीर्ति के पांच शिष्यों में से एक प्रकट किया है। यदि ये । वही वासवसेन हों तो इनका समय वि० की ११वी शताब्दी हो सकता है ।
यशोधरचरित की एक प्रति वि० सं० १५८१ की लिखी हुई धारा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद है, जो रामसेनान्वयी भ० रनकीति के प्रपट्टधर भ० लखमसेन के पट्टधर भ० धर्मसेन के समय लिखी गई है । कवि प्रभंजन से हरिषेण बाद के विद्वान हैं । यदि प्रस्तुत हरिषेण कथाकोश के कर्त्ता हों, जिसका रचनाकाल शक सं० ८५३ (वि० ६-६ ) है तो वासवसेन का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है।
रामसेन - यह काष्ठासंघ नन्दीतटगण के विद्वान थे । दर्शनसार के अनुसार इन्होंने सं. ६५३ में माथुर संघ की स्थापना की थी । परन्तु स० १०५० के आचार्य अमितगति ने इनका कोई उल्लेख नहीं किया । रामसेन नाम के अनेक विद्वान विविध संपो या गणन् गच्छादि में हुए हैं। उन सबके सम्बन्ध में यहाँ प्रकाश डालना सम्भव नहीं है ।
माधवसेन -इस नाम के भी कई विद्वान हो गए हैं। उनमें एक माधवसेन प्रतापसेन के पट्टवर थे और दूसरे भावुर सच के जो नेमिपेण के शिष्य थे और अमितगति के गुरु थे। इनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी का पूर्वार्ध है ।"
जयसेन - इस नाम के सात विद्वानों का पता चला है, उनमें एक जयसेन नागडसंघ के विद्वान मुनि पूर्णचंद्र के शिष्य थे। दूसरे जयसेन इसी संघ के विद्वान भावसेन के शिष्य थे, जो धर्मरत्नाकर के कर्त्ता हैं। जिनका समय वि०सं० १०५५ है । " शेप जयसेन लाडबागड़ संघ के नहीं ज्ञात होते ।
धर्मसेन का परिचय गत किरण में दिया जा चुका है। धर्मसेन नाम के कई विद्वान हो चुके है। एक दशपूर्व के पाठी विद्वान थे, दूसरे धर्मसेन शान्तिषेण के तीसरे गुरु, विमलसेन के शिष्य और चौथे भ० लक्ष्मीसेन के शिष्य
१. देखो, सुभाषितरत्नसन्दोह प्रशस्ति । २. वागेन्द्रव्योमसोम-मिते संवत्सरे शुभे । (१०४५) ग्रंथोंऽयं सिद्धतां यातः सवलीकरहाट के धर्मरत्नाकर
१३९
और पाँचवें धर्मसेनाचार्य चन्द्रिकाबाट वंश के थे। यहाँ गुर्वावलीकार को कौन से धर्मसेन विवक्षित हैं। उपरोक्त हैं । या अन्य यह विचारणीय हैं।
संभवसेन सूरि, बामसेन, केशवसेन, चारित्रसेन और महेन्द्रसेन इन पांच विद्वानों का नामोल्लेख गुर्वावली में किया गया है। इनमें से लाडबागड गण के विद्वान मलयकीर्ति ने अपनी मूलाचार की प्रशस्ति में केशवसेन सूरि को नय प्रमाणनिक्षेप और हेत्वाभासादि के द्वारा वादियों का विजेता प्रकट किया है। इससे वे बड़े विद्वान जान पड़ते हैं ।
भट्टारक सम्प्रदाय में संभवसेन दामसेन और केशवसेन का नामोल्लेख नहीं है । और चारित्रसेन को 'चित्रसेन' लिखा है जो किसी भूल का परिणाम जान पड़ता है। दिल्ली पंचायती मंदिर के गुच्छक नं०६ में स्थित गद्य पट्टावली में चारित्रसेन का नाम अंकित है । जैसा कि उसके निम्न वाक्यों से प्रकट है
"तदन्वये श्रीमल्लाट वर्गटगच्छवंशप्रतापप्रकटन याव जीव बोधोपवास कातरनी रसाहारेणा तापनयोगसमुद्ध रणधीरश्रीचारित्रसेन देवानां यश्च लाटवर्गटदेशे प्रतिबोधं विधाय मिध्यात्वमतनिरसनं पर्क। ततः पुन्नागच्छ इति भाडागारे स्थितं लोके लाटवर्गट नामाभिधानं पृथिव्यां प्रथित प्रकटीबभूव ।"
'भट्टारक सम्प्रदाय' में पृष्ठ २५२ पर पट्टावली के लेखांक ६३१ में जो अंश छपा है । उसमें 'चित्रसेन' छपने के साथ ही ४ अशुद्धियां और भी है।
प्रस्तुत चारिवमेन की मलयकीति ने मुनाचार प्रशस्ति में खूब प्रशंसा की है । यथा
चारित्रसेनः कुशलो मीमांसावनितापतिः । वेदवेदांगतत्त्वज्ञ योगी योगविदाम्बरः ॥
अनेकान् वर्ष १२ ०४ अनन्तकीर्ति - यह भी उस काल के कड़े विद्वान थे । इनका समय और गुरुपरम्परा का ठीक निश्चय नहीं हो
सका ।
३. देखो, जैनिज्म इन माउस इन्द्रिया ०११४-१३८ । ४. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह पृ० ३१ ।
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१४.
धमेकान्त
1
विजयसेन – इस नाम के तीन विद्वानों का उल्लेख मेरे इतिहास - रजिस्टर में दर्ज है। उनमें एक विजयसेन माधवसेन के शिष्य थे । दूसरे विजयसेन भट्टारक सोमकीर्ति के पट्टधर थे जो काष्ठासंच स्थित नन्दीतर गच्छके रामसेना न्वयी भट्टारक भीमसेन के शिष्य और लक्ष्मीसेन के प्रशिष्य थे। जिनके तीन ग्रंथों की प्रशस्तियों का परिचय जैन ग्रंथ प्रशस्तिसंग्रह में दिया गया है। इनका समय वि० की १६ वीं शताब्दी है। तीसरे लाडवागढ संघ के विद्वान विजयसेन भट्टारक अनन्तकीर्ति के शिष्य थे। गुर्वावलीकार को यही विवक्षित जान पड़ते हैं; क्योंकि गद्यपट्टावली में उन्होंने विजयसेन को वाराणसी में पांगुल हरिचन्द की राजसभा में चन्द्रतपस्वी को पराजित करने वाला सूचित किया है।
पद्मसेन चारित्रसेन के शिष्य थे। इनके शिष्य त्रिभुवनकीर्ति ने एक मूर्ति प्रतिष्ठा वि० सं० १३६० में कराई थी उससे जान पड़ता है कि इनका समय विक्रम सं० १३६५ के लगभग होना चाहिए ।
त्रिभुवनकीति — यह काष्ठासंघ लाट बाग गण के विद्वान और पद्मसेन के शिष्य थे। सं० १३६० मे माघ सुदी १३ सोमवार के दिन इनके उपदेश से किसी हूमड़ वंशी धावक धाविका ने पात्मकल्याणार्थ प्रतिष्ठा कराई थी। उससे इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है ।
१. प्रमाण नम निक्षेपेत्वाभासादिभिः परैः । विजेता वादिवृन्दस्य मेनः केशवपूर्वकः ॥
- मूलाचार प्रशस्ति अनेकान्त, वर्ष १३ कि. ४ । २. तत्पट्टे विजयसेनभट्टारक: वाराणस्यां पांगुल हरिचन्द्रराजान प्रबोध्य तस्यैव सभायामनेकशिष्य समूहसमन्वित चंद्रतपस्विन विजित्य महावादीति नाम प्रकटीचकार ।
वर्ष १५
धर्मकीति इन्होंने वि० सं० १४३१ में वैशाख हुनला अक्षय तृतीया बुधवार के दिन केशरियाजी तीर्थक्षेत्र पर विमलनाथ का मन्दिर निर्माण कराया था। इनका समय १५वीं शताब्दी है । 'इनके तीन शिष्य हुए हेमकीर्ति, मलयकीर्ति और सहस्रकीति । इन तीनों का गुजरात प्रदेश में विहार होता था। दिल्ली के शाह फेरू ने सं० १४९३ में घृतपंचमी व्रत के उद्यापन के निमित्त मूलाचार को प्रति लिखवाई थी। वे उसे धर्मकीर्ति को भेंट करना चाहने थे, परन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण बाद में यह भ० मलकीति को भेंट की गई ।
मलयकौति इनका समय विक्रम को १२वी शताब्दी का उत्तरार्ध है।
नरेन्द्रकीर्ति - यह मलयकीर्ति के पट्टशिष्य थे । 'भट्टारक सम्प्रदाय' के अनुसार इन्होंने कलबुर्गा के फिरोजशाह की सभा में समस्यापूर्ति कर जिनमंदिर के जीर्णोद्धार करने अनुज्ञा प्राप्त की थी ।
की
पट्टावली दिल्ली पंचायती मंदिर गुच्छक ६ ३. सं० १३९० वर्षे माघ सुदी १३ सोमे श्री काष्ठा संघे श्री लाटबागडगणे श्रीमत् त्रिभुवनकीर्ति गुरूपदेशेन बड़ज्ञातीय व्या० बाहड भा० लाछी सुत व्या० खीमा भार्या राजू देवी श्रेयोर्थ सुत दिवा भा० सम्भवदेवी नित्यं प्रणम ति । जैन लेख सं० भा० १ले० नं० ११३५
-
प्रतापकति नरेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य थे। इन्होंने [रा १८६० में देवचन्द्र के पार्श्वनाथरिन की प्रतिनि वाई थी । ये बड़े विद्वान थे, इन्होंने पाथरी नगर के केदारभट्ट की याद में पराजित किया था। इनकी प्रशंसा सूचक एक प्रशस्ति परिशिष्ट में दी गई है। जिससे इनके सम्बन्ध में विशेष बातें ज्ञात हो सकेंगी। इस गद्य पट्टावलि के कर्ता प्रस्तुत प्रतापकीति ही है।
गुर्वावली
वृषभादिवरपर्यन्तान्न वा तीर्थकृतस्त्रिग । सगणेशानहं वक्ष्ये गुरुनामावली मुदा ।। १ त्रयः केवलिन पञ्च चतुर्दशविण । क्रमेणैकादश प्राज्ञा विज्ञेया दशपूर्विणः ॥ २ पञ्च चैकादशाङ्गानां धारकाः परिकीर्तिता । प्राचाराङ्गस्य चत्वारः पञ्चधेति युगस्थित १३ मानजिनेन्द्रस्बेन्द्र भूतिः श्रुत दधौ । ततः सुधर्मा तस्माच्च जम्बूनामात्यवनी ४ १. देखो, अनेकान्त वर्ष १३ कि० ४ । २. देखो, भट्टारकसम्प्रदाय पृ० २५६ । ३. पारवनाथ चरित लिपि प्रशस्ति ।
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काष्ठासंघ के लाटबागड़ गण को गुर्वावली तस्माद्विष्णुः क्रमात्तस्मानन्विमित्रो ऽपराजितः । सिद्धान्तपायोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः । ततो गोवर्षनो दधे भद्रबाहु श्रुतं ततः । ५ आसीद् वृतो येन चरित्रभारः शश्वज्जितो येन रणेषु मार.२२ दशपूर्वी विशाखाख्यः प्रोष्ठिलः क्षत्रियो जयः। बभूव सेनो विजयादिनामा तत्पट्टरत्नाकररत्नधामा। नाग-सिद्धार्थनामानौ तिषेणगुरुस्ततः । ६ ततोऽभवत् सम्भवसेनसूरिः स्तोत्रत्रयं सैप चकार भूरि २३ विजयो बुद्धिल्लाभिख्यो गंगदेवयतिस्ततः ।
अभिजितमुनिमुख्यामादिवृत्त महात्मा (?) दशपूर्वधरोऽन्यस्तु धर्मसेनमुनीश्वरः ।
दमितकरण-सप्तिमसेनो जितात्मा । नक्षत्राख्यो यशपालः पाण्डुरेकादशाङ्गत् । कलिकलुपविमुक्तः केशवादिस्तु सेनो। ध्र बसेनमुनिस्तस्मात् कंसाचार्यस्तु पञ्चमः ।।
जयतु भुवि महेन्द्रो यस्य चारित्रसेनः ।। २४ सुभद्रोऽथय शोभद्रो भद्रबाहुरनन्तरः ।
महेन्द्र सेनो महनीयवृत्तः संस्थापितस्तेन पदे निजे च । लोहाचार्यस्तुरीयोऽभूदाचाराङ्गधृतस्ततः । ६ महेन्द्रमुख्यामहिमानमुच्चमहन्त मा अपि कि तदीयम् ? देशे बागडसझके परिलसद्रव्यावलीसंकुले अनन्तकीतिः पृथुपुण्यमूर्तिः स्तुतिगुणानामपहारितातिः । ख्यात धीवटपद्रके पुरवरे श्री शान्तिनाथालये । कीर्तिप्रभापूरितविष्टपोऽयमिनो त्यजन्तं पदमाप्य तस्थौ। यस्याश्चर्यकरी महद्धिरभवत्पादानुससारिणी
नीहार-कुन्द-कलिकाऽमलचन्द्रतारयत्सिहासनमस्ति भूधरगुहान्तस्थं सदा व्योमनि । १० हारोज्ज्वलस्फटिकशुभ्रयशोविशारः । विहृत्य पूर्वामपरां म याम्या तथोत्तरां भव्यजनान्प्रबोध्य । आसीत्ततो विजयसेनमुनिः कुमारः श्री बागडाख्यातियुतं स्वसघ भूमी प्रशस्त प्रथयांचकार ।११ सिद्धान्तमूत्ररचनानवसूत्रधारः । २७ तस्य वंशे गणेशा ये तागा मूर्यवर्चसः ।
घुर्योधीनान्यो जयादिस्तु सेनो जिग्ये सेना मोहमल्लस्य तेन । सम्भूतास्तानह वक्ष्ये भनितभाववीकृतः । १२
उच्चैरामीत्तत्पदस्य प्रसनः सङ्घस्याले हन्तुकामः स्वमेनः ।२८ सघे सुकाष्ठाभिधया प्रसिद्ध श्रीवागडाख्ये च गणे मुगच्छे । कति न कति न वन्द्या. कारिता येन भव्याः । सत्पुकराए विमानान्मुनीशान् क्रमागतानत्र भुदाभिधास्ये । प्रति प्रतिकृतये वै पुण्यपूर्णा जनानाम् ।। विनयन्धरश्रीदत्तौ शिवदतोऽप्यरुहदतनामाख्यो ।
जगति विदितयात्रो दानसम्पूर्णपात्रः । पूर्वाङ्गाना देशधरा ऋपयो चे च चत्वारः । १८
स जयतु भुवि सेनो कोऽत्र वाद्यादिसेनः ॥२६॥ अरुहबलि भावाई बन्दामि यतीश्वरं व धरसेनम् । तदासनव्योमनि सौम्यमूर्तिोतिर्गणस्येव गणस्य कान्तिः । भूतबलिपुष्पदन्तौ पुग्पा जन्निना यजामि सुरपूज्यौ १५ पुण्यौवपीयूषमयप्रचारश्चारित्रसेनो धृतसह्यभारः ॥३०॥ समन्तभनं प्रणमामि सिद्धसेनं तथा देव-सुवज्रसूरिम् ।
यो भव्याजनिबोधनं प्रतिदिनं प्रह्लादयन्वाक्करैः मान्य नहासनमुनीश्वर त बन्दामि येणं रविपूर्वमीशम् सङ्कोच्याऽन्यमतानि करववनान्यो वादितेन्द्राचले (?) आरातीयानाचार्यानङ्गार्थस्योपदेशकान् ।
पट्टे पूर्वमुनीन्द्रगे पुरतया सङ्कीर्णचित्युत्कटकुमारसेनमाचार्यप्रभाचन्द्र प्रभान्वितम् । १७
स्तं भव्या नमत प्रदर्शनकृते श्रीपद्मसेनं मुनिम् ॥३१॥ अकलङ्कमथो स्तौमि कलंकरहितं विभुम् ।
भ्रमति भुवनमध्ये यस्य कीर्तिः स जीयात् वीरसेनं तथा वन्दे ऽमितसेनं मुनीश्वरम् । १८
त्रिभुवनगुतकीर्तिः सोमवत्सौम्यमूर्तिः जिनसेनं यजे भक्त्या सेनं वासवपूर्वकम् ।
वचनरचनज्योतिः पीतवन्तं घनौघं । रामसेनमथाप्यन्यानष्टधाऽर्चे सपर्यया । १६
हतभवदवधर्म धर्मकीर्तिः करोति ॥३२॥ ततोऽभवन्माववसेनसंज्ञो गणस्य नेता समवान्गुणज्ञः । गुरूणां पादपद्मे यो धत्ते सच्चञ्चरीकताम् ।
पट्टे बभूवाऽम्य च धर्मसेनस्तपोविजित्श्रीमदकामसेनः लभते रा यशो धर्म कीर्ति रूपं च सम्पदम् ॥३३॥ ततः कृतस्तेन गणे गणेनो जेता ऋषिः श्रीविजयाबिसेनः । एतेषामनवद्यचन्द्रचरितानां भाषितानां गणजीयात्सदावादिगणस्य वक्ता अयादिसेनो भुवि दत्त शास्ता । स्यैषा भक्तिवराऽभ्यधाय्यहरहः स्तोत्येकतानेन यः ।।
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अनेकान्त
वर्ष १५
तस्य श्रीविपुला यशोऽतिविमलं पापक्षयश्चान्वहं । कराणाम्, शरीर-कारागार-मोह-पाश-स्त्री-निगड-निबद्धजायेताऽऽशुकविप्रणीतविषयेऽभ्यासः कवित्वे सदा ॥२४॥ मूढत्व-तिमिर-व्याप्त-जन्तुमोचन-प्रबल-पराक्रमाणाम्, प्रास
नाऽऽहार-निद्रा-कषायेन्द्रियजय-लब्धकीर्ति-पताकानाम् । यः सर्वदा तनुभृतां जनितप्रमोदः ।
उद्दाम-कामिनी कटाक्ष-कौक्षेयक-प्रहाररखण्डितसन्नाहधरासद्वन्धुमानस समुद्भवतापनोदः ॥
णाम्, क्षमा-हरित-चन्दन-प्रलेपन प्रध्वस्त-क्रोध-पित्त-प्रसरासर्वज्ञभाषितसुवृत्तविकासनाय ।
णाम्, अपार-सारस्वत-प्रवाह-क्षालित-मूढत्व-जम्बालानाम्, जीयादसौ भुवि यतिर्मलयादिकीर्तिः ॥३५॥ सुशब्दजलसुधा-पाथोनिधि-कल्लोलमालानाम्, परवादिमत्तेपूर्व श्रीजगदीश्वरेण शुचितां मत्वाऽमनन्तं मुने । भनिर्भेदनप्रयुक्त्याऽयुक्त-तर्कोपन्यास-प्रसराणाम्, भारतीतुभ्यं ब्रह्मविदे चिदेशगुणिने दैगम्बरत्वं निजम् ॥ लक्ष्मीसंकेत-स्थान-भूत-देवताऽवसर-व्यापार-परम्पराणाम्, संसारार्णवमोहवारिपतितानुद्दत्य मेवाद्भुतं ।
यम-नियमाऽऽसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणाध्यान-समाधि जम्बूनामृषिराज सृष्टिकृपया नारेन्द्रकीतिर्ददे ॥३६॥ ध्वस्तपाप प्रसराणाम् विविध-तीर्थ-सत्पुरुष-स्थापनाकेलिमाबालकालाच्च दिगम्बरत्वं योगीश्वराणां प्रथमात्परेषाम् । दुर्ललितदक्षिणकरकमलानाम्, सद्देशना-नदी-क्षालित-भव्यनौमीह लोकेषुप्रतापकीति संसारकंदेन पदं तपोभिः ॥३७॥ जनान्तर्गतपापमलानाम्, श्रीलाटवर्गटगच्छ-विपुल-गगनपरिशिष्ट
मार्तण्ड-मण्डलानाम्, भट्टारक-श्रीमन्नरेन्द्रकीतिसद्गुरुदेवयस्य प्रताप-तपन-त्रासित-मिथ्यात्व-तिमिर-धन-पटलम् । चरणकमलाराधनकुशलानाम्, सकलविबुध-मुनिमण्डलीसोऽयं प्रतापकीतिर्जगदभिवन्द्यो चिरं जयतु ॥१॥
मण्डितचरणारविन्दानाम्, समुन्मूलितमिथ्यात्व-तरुकन्दानाम्, भों-अजन्य-सौजन्य-पुण्य-लावण्य-निःसामान्य-प्रावीण्य - श्रीमत्प्रतापकीतियतिचक्रचक्रवतिनाम, तेषां पट्टे दयावल्लीकारुण्य-दाक्षिण्य-च्छेक-प्रवेक-सद्विवेक-नय-विनय-विचारा - समुद्भूतनयविनयतपःशौचसंयमादिकुसुमपरिमलास्वादन
चार-चातुर्य-गाम्भीर्य-स्थैर्य-प्रभृति-वितत-सकल-विमल-गुण भव्यजन-मधुकरससेव्यमानानाम्, भट्टारकश्रीत्रिभुवनकीर्तिगण-मणि-गणा-ऽरोहण-भूधराणाम्, भव्य-जन मनः-कुमुद- महामुनीन्द्रान्तश्रीमद्गुरुणाम् । समुदय-द्वैतीकरण-कारण-पार्वण-शरन्निशीथकरप्रसर-निशा- गुच्छक ६ श्री दि० जैन, पंचायती मन्दिर दिल्ली ।
पद (राग उझाम) लागि गई ये अखियां
जिन बिन रह्यो हु न जाय ॥ टेक । जब देखे तब ही सुख उपजै
बिन देख्या अकुलाय । मिटत हृदे से सूर्य उदय ते
मिथ्या तिमिर मिटाय ॥ १॥ इन्द्र सरीमा तृप्त न हूवा
लोचन महस बनाय । चरम प्रांख ब है यह मेरै
बलं कहूँ बनाय ॥ २ ॥ अनुभव रस उपज्यो अब मेरे
मानन्द उर न समाय । दास किसन' ऐसे प्रभु पाये
लखि लखि ध्यान लगाय ॥ ३ ॥
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आदिकालीन 'चर्चरी' रचनाओं की परंपरा का उद्भव और विकास
लेखक-डाक्टर हरीश
हिन्दी साहित्य को आदिकालीन रचनाओं का अध्ययन रंजन करती है। इन उल्लेखों से "चर्चरी" के प्राचीनकाल करते समय चर्चरी संज्ञक रचनात्रों को नहीं भुलाया जा में अभिहित शिल्प पर प्रकाश पड़ता है। कुछ महत्वपूर्ण सकता। "चर्चरी" शब्द इतना अधिक प्रयुक्त हुआ है कि उल्लेख इस प्रकार हैं : प्राचीन काल से लेकर प्रद्यावधि इसके विभिन्न अर्थ तथा १. भगक्या भणित सुण एत्थ चेवाणन्तर जम्मे रूप देखने को मिल जाते हैं। "चर्चरी" नाम से अभिहित की पवत्तं मयण महसवे निग्गयासु विचित्तवेसासु नयर गई रचनाओं का साहित्यिक मूल्यांकन करते समय चर्चरी चच्चरीसु तरुण जणविंद परिगएण वसंतकील मणुहवंतेन शब्द के विभिन्न अर्थ, उसके उद्भव और विकास पर दिट्ठा समासन्नचारिणी वत्थ सोहग चच्चरि त्ति । दळूण य प्रकाश डालना भी आवश्यक प्रतीत होता है। यह शब्द अन्नाण दोण जाइ-कुलाइ गम्विएणं कहनीय चच्चरी ऐतिहासिक होने के साथ साथ साँस्कृतिक और अनुभूति अम्हाण चच्चरीए समासेन्नं परिवयइ त्ति कयत्थि या प्रधान साहित्यिक शब्द है और इसीलिए इसका सम्यक् वत्य सोहगा'विश्लेषण चर्चरी शब्द की परम्परा के विशेष प्रकाश में (भगवान ने कहा-सुनो। यहाँ अवान्तर जन्म में किया जा सकता है।
मदन महोत्सव करते हुए विचित्र वेश वाली नगर की गायक संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश और हिन्दी के कोश ग्रन्थों में टोलियों ने बाहर निकल कर तरुण जन समूहों से व्याप्त भी चर्चरी शब्द के विभिन्न अर्थ मिलते है। कुछ में एक हुई वसन्त क्रीड़ा देखकर पास में बैठी हुई भाग लेती दुई साम्य मिलता है तो कुछ में अर्थो मे पर्याप्त असाम्य । स्थिति घोबियों की गायक टोली को देखकर, अज्ञात दोष से,जातिइस शब्द के लिए मतैक्यवाली नही है। वास्तव में इस कुल आदि से गर्ववाणी में कहा कि किस लिए यह नीच शब्द की परम्परा का इसके विकाश के लिए विश्लेपण चर्चरी गायक टोली हमारी टोली के पास बैठकर फिरती आवश्यक प्रतीत होता है । इस सम्बन्ध में क्योंकि चच्चरी, है-और इन वचनों से धोबियों का अपमान किया). चर्चरी चर्चरिका, चांचरि, चांचरिका आदि शब्द एक ही उक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि लेखक ने 'चर्चरी' साथ प्रयुक्त हुए मिलते है। अतः 'चच्चरी' शब्द का शब्द का जिस रूप में प्रयोग किया है वह निम्न श्रेणी-वर्ग सम्यक् परिशीलन करना और अधिक आवश्यक प्रतीत द्वारा गाये जाने वाले गीत के लिए या संगीत के किसी होता है । सच तो यह है कि पर्याप्त प्राचीन काल से चर्चरी घटिया प्रकार के लिए प्रयुक्त हुया प्रतीत होता हैं । परन्तु शब्द इतना प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुआ कि विभिन्न कालों इसी ग्रंथ मे यही शब्द अन्य अर्थों में भी प्रयुक्त किया गया में इसके विभिन्न अर्थ प्रचलित होने लगे और इस प्रकार है, उदाहरणार्थ :अकेला चर्चरी शब्द कई अर्थो का द्योतक बना रहा।
२. तो तत्थेव चिट्ठमाणस्स प्रागो-वसन्तसमो विभिन्न प्रमाणों के आधार पर चर्चरिका शब्द का वियम्भो मलयमारुनो फुल्लियाई काणणुज्जाणाई विश्लेषण आगे किया जायगा। चचरी का जो प्राचीनतम उच्छलियो परहुयानो पयत्तानो नयरि चच्चरीमोउल्लेख है उसी से चर्चरी का उद्भव स्पष्ट हो सकता है। (फिर वहीं रहते वसन्त का समय आया मलयपवन चर्चरी का प्राचीनतम उल्लेख हरिभद्रसूरि की प्राकृत विस्तार को प्राप्त हुआ, कानन, अरण्यक, उद्यान तथा बाग कादंबरी नामक समराइच्चकहा (समरादित्यकथा) में प्रफुल्ल हुए, कोयल की आवाज उछलती और नगर की मिलता है। उसमे चर्चरी विषयक चार उल्लेख है जिनसे चर्चरियाँ प्रवर्ती।
क्रमशः उसका अर्थ यह स्पष्ट होता है कि यह गायकों की टोली
१. समराइच्च कहा : प्रो० हमने जेकोबी संपादित, है जो वसन्त के समय में खड़ी रहती है और चौक में वाद्य १० ५३ बजाती है, नाचती है, घोष करती है और लोगों का अनु- २. वही।
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साहित्य-समीक्षा
पात्मानुशासनम्
श्री आदिनाथ दि.जैन शेतवाल मन्दिर शोलापुर की है । जहाँ रचयिता-प्राचार्य गुणमड, संस्कृतटीकाकार
तक सम्पादन का सम्बन्ध है, उत्तम है । प्राचीन ग्रन्थों का प्राचार्य प्रभाचा, सम्पादक--प्रो० प्रा० ने० उपाध्ये, प्रो. एसा स
ऐसा सम्पादन सभी प्रकार स्वागत योग्य है। हीरालाल जैन तथा पं० बालचन्द्र शास्त्री, प्रस्तावना लेखक ग्रन्थ के मूल के साथ प्राचार्य प्रभाचन्द्र (वि० सं०
-सम्पादक मण्डल, प्रकाशक-गुलाबचन्द हीराचन्द दोशी १३ वीं शती का अन्तिम भाग) की संस्कृत टीका भी है। जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६१, पृष्ठ- साथ में विस्तृत हिन्दी अनुवाद है। इस ग्रन्थ पर सर्वप्रथम २४६, मूल्य-५ रुपया।
हिन्दी-टीका पं० टोडरमल की लिखी हुई पाई जाती है, प्रात्मानुशासन के कर्ता आचार्य गुणभद्र एक ख्याति किन्तु यह अपने समय की ढुंढारी भाषा में थी। दूसरा अनुप्राप्त विद्वान् थे। उन्होंने अपने गुरु प्राचार्य जिनसेन के वाद पं० बंशीधर जी का है। किन्तु प्रस्तुत अनुवाद जंसी अधूरे आदिपुराण को पूरा किया था। उसमें जिस सरसता विश्लेषणात्मकता उस में नहीं है। अनुवाद की विशेषता और लालित्य का निर्वाह हो सका, वह उनकी अपनी देन सरलता और विशदता में सन्निहित है वह यहाँ मौजूद थी। प्राचार्य ने उनकी सरस काव्यशैली देखकर ही आदि- है। अच्छा होता यदि 'विशेपार्थ में अन्य प्राचार्यो के तत्संपुराण उन्हें पूराकरने के लिए सौंपा था। गुणभद्र एक बन्धी कथनों के साथ तुलना भी कर दी जाती। जन्मजात कवि थे और उनका कवित्व उनकी सैद्धान्तिक सबसे अधिक महत्वपूर्ण है प्रस्तावना । वह लगभग कृतियों में भी मुखर बना रहा । यह ही कारण है कि १०० पृष्ठों में पूर्ण हुई है। उसे एक छोटा सा शोध प्रबध
आत्मानुशासन में वह शुष्कता न पा पाई जो आध्यात्मिक ही समझना चाहिए । वह दो भागों में विभक्त है--पहले अन्यों में पाई जाती है । आत्मा का विवेचन सिद्धान्त का में ग्रन्थ और ग्रन्थकार तथा टीका और टीकाकार का परिविषय हो सकता है किन्तु उसकी अनुभूति का भावोन्मेप चय एवं कालक्रम ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत भी सम्भव है यदि रचयिता कोरा चिद्वान् ही नहीं साधक किया गया है । दूसरे भाग में-मूल ग्रन्थ के विषय का भी है। प्रात्मानुशासन में विद्वत्ता और साधना का समन्वय तुलनात्मक अध्ययन दिया है। उसमें प्रात्मानुशासन पर है । प्राचार्य गुणभद्र शक सवत् ८ वीं शती के अन्त में हुए पूर्ववर्ती ग्रन्थों का प्रभाव और आत्मानुशासन का जैन वाङ्थे।
मय में स्थान दिखाया गया है ऐतिहासिक शोध और तुलप्रस्तुत ग्रन्थ जीवराज जैन ग्रन्थमाला का प्रकाशन है। नात्मक विवेचन दोनों ही सम्पादकों के परिथम और यह ग्रन्थमाला प्राचीन जैन ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन विद्वत्ता के परिचायक हैं। ग्रंथ विद्वानों के मध्य समादर के लिए प्रसिद्ध हो चुकी है। प्रात्मानुशासन इसका ११ वां पा सकेगा, ऐसा हमें विश्वास है।
इसका सम्पादन दो मुद्रित पोर तीन हस्तलिखित परम ज्योति महावीर प्रतियों के माधार पर किया गया है । मुद्रित प्रतियों में
रचयिता कवि-पन्यकुमार जैन 'सूघेश', प्रकाशकपहली का प्रकाशन सनातन जैन ग्रन्थमाला, निर्णय सागर प्रेस बम्बई से सन् १९०५ में और दूसरी का जैनग्रन्थ रत्ना
श्री फूल बन्द जवरचन्द गोधा जन प्रन्थमाला, हुकुमचन्द कर कार्यालय बम्बई से सन् १९१६ में हुआ था। पहली
मार्ग, इन्दौर, सन् १९६१, पृ०-६६६, मूल्य-७१०। केवल मूलमात्र थी और दूसरी पं०बंशीधर जी शास्त्री की 'परम ज्योति महावीर' एक महाकाव्य है। उसमें २३ हिन्दी टीका के साथ थी। हस्तलिखित में दो प्रतियाँ भंडार सर्ग और २४८६ पद्य हैं, जिनमें भगवान महावीर के समूचे कर मोरियण्टल रिसर्च इंस्टिटयूट पूना की और एक प्रति जीवन-गर्भावस्था से निर्वाण पर्यन्त का वर्णन है। कवि
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साहित्य-समीक्षा
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ने इसके निर्माण में महाकाव्य की शास्त्रीय और पाश्चात्य की भाँति करुण रस को चित्रित न कर सका। इसी तरह दोनों ही प्रकार की परिभाषामों का सहारा लिया है। इससे गर्भ और जन्मोत्सव वात्सल्य रस को साक्षात् करने में महाकाव्य केवल परम्परा-पालन की घोषणा भर करके नहीं अधूरे रहे । नायिका त्रिशला और उमका दाम्पत्य-जीवन रह गया, अपितु उसमें सौंदर्य और रोचकता का भी पाठक के हृदय को छ नहीं पाते। वैसे अधिकांश स्थल समावेश हो सका । वह समय बीत गया जबकि काव्य-शास्त्र ऐसे भी हैं जहाँ कवि की प्रतिभा और हृदय रमे हैं। उनमें के नियमों का रत्ती-रत्ती पालन ही विद्वानों के मध्य गौरव विभोर बना देने की ताकत है । प्रतीत होता है कि प्रकृति का विषय बनता था, भले ही उसमें काव्यत्त्व नाम को भी के अवलोकन में कवि को रुचि विशेप है। 'बसन्त' और न हो । शायद इसी कारण गुप्त जी के साकेत और प्रसाद हेमन्त' का मौन्दर्य देखते ही बनता है। इसके अतिरिक्त के कामायनी जैसे काव्य शास्त्रीयत्त्व की परिधि से निकल महावीर के उदात्त-गुणों का चित्रांकन सात्विकता से भर आने पर भी महाकाव्य कहे जाते हैं। 'परम ज्योति महावीर देता है। भक्त हृदय उससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह में भी महाकाव्योचित बाह्य और अन्तः प्रकृतियों को अंकित सकता । रानी मृगावती और चन्दना का विवेचन भी रसकिया गया है।
मय है। भगवान् महावीर के जीवन को लेकर सबसे पहला यद्यपि कवि ने "दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों का महाकाव्य हिन्दी भाषा में अनूप शर्मा ने 'वर्धमान' नाम गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है और फिर उसे जो सत्से रचा था। उसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ है शिव-सुन्दर प्राप्त हुमा उसे लिया है, किन्तु मेरी दृष्टि में उसमें १९६७ पद्य है । भले ही उसमें "महावीर सम्बन्धी भगवान महावीर से सम्बन्धित दिगम्बर और श्वेताम्बर घटनाओं का क्रमवार इतिहास" न हो और भले ही वह
परम्परागों के मूलस्वर में अन्तर नहीं है। एक कवि के "संस्कृत वृत्तों" में लिखा गया हो किन्नु जहाँ तक भाव,
लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि नीर्थकर की मां ने १६ विभाव और अनुभावों के चित्राङ्कन का सम्बन्ध है, वह एक
स्वप्न देखे या १८, अपितु यह विशेष है कि रवान अवलोकन अनूठी कृति है। काव्य की दृष्टि से इतिहास गौण होता के अनन्तर माँ की भावनाए कैमी बनी और जब उनका फल है और उसमें मन्निहित मार्मिक-स्थल मुख्य । मै यह भी।
विदित हुया कि तीर्थकर बालक उतान्न होगा तो मां की नहीं मानता कि संरकृत-वृत्तो मे लिखे जाने से ही किसी मयादित प्रफुल्लता किम दिशा में प्रभावित हुई। मुझे काव्य की प्रवाहमयता मर जाती है।
प्रसन्नता है कि कवि सुधेश ने कहावीर के विवाद ग्रस्त 'परमज्योति महावीर' की भाषा अपेक्षाकृत सरल है। पहनुमा
पहलुमों से काव्योचित स्थलों को तटम्ध होकर चुन लिया शब्दों का उपयुक्त स्थान पर चयन हुआ है और वाक्यो में है। उनका ५
में है। उनकी परख प्रशमनीय है। इससे उनके कवि-हृदय सरसता है। अर्थात् प्रसाद गुण की कहीं कमी नही है का उदात्त भावना प्रकट होता है। किन्तु साथ ही यह भी सच है कि महाकाव्य के कतिपय कवि की यह प्रतिज्ञा कि इस महाकाव्य को सर्वसाधामार्मिक स्थल भावुकता के साथ अकित न किये जा सके। रण पढ़ सकेंगे, समझ सकेंगे और रचि ले सकेंगे, पूरी हुई महावीर के गृह-त्याग का दृश्य 'यशोधरा' के बुद्ध-गृहत्याग है, इसके लिए बधाई के पात्र है।
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कान्त पर अभिमत
(२) 'अनेकान्त' के दो अंक मिले। बहुत सुन्दर प्रयास है । सब आपके प्रयत्नों का फल है। तो अच्छा है।
।
(१) 'अनेकान्त' मासिक पत्र के मैंने कई अंक देखे हैं। यह पत्र लगातार जैन सिद्धान्त-सम्बन्धी उच्चकोटि की सामग्री उपस्थित करता है जो भारतीय संस्कृति के मूल्यांकन में विशेष रूप से सहायक होती है। इस पत्र की मैं उत्तरोतर उन्नति चाहता हूँ। -डा० बाबूराम सक्सेना हिन्दी निदेशालय, दिल्ली । इसी तरह निकालते रहें -सेठ बीप्रसाद जी सरावगी, पटना (३) 'अनेकान्त' के अंक देखे अंक उत्तरोत्तर सुन्दर और उपनरोगी होते जा रहे हैं। विश्वास है वह समय दूर नहीं, जब अनेकान्त एक अच्छी शोध पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा । लक्ष्मीचन्द जैन एम० ए०, कलकत्ता (४) आपके भेजे अनेकान्त के अंक प्राप्त हुए। मैने उन्हें अक्षरशः पढ़ा है । लेख उत्तम हैं । पत्र आपका ख्याति प्राप्त है । अनेकान्त गवेषणापूर्ण लेखों के लिए प्रसिद्ध है । आप सतत् उन्नति कर रहे हैं । इससे मुझे प्रसन्नता है ! - पं० माणिकचन्द न्यायाचार्य, फिरोजाबाद (५) 'अनेकान्त' के दो अङ्क प्राप्त हुए। वर्षों से बन्द पड़े इस अनेकान्त के पुनः प्रकाशन की व्यवस्था कर आपने इतिहास और पुरातत्त्व प्रमियों का वस्तुतः उपकार किया है। प्रस्तुत दोनों ही अङ्क पठनीय सामग्री से परिपूर्ण हैं। इसके सभी सम्पादक अध्ययनशील एवं अन्वेषण प्रिय विद्वान् है ।
मुझे श्राशा है आपकी निगरानी में पत्र बराबर प्रगति करता हुआ नियमित रूप से प्रकाशित होता रहेगा । - पं० चैनसुखदास न्यावतीर्य वास्तव में इस युग में
(६) जून सन् १९६२ की दूसरी प्रति प्राप्त हुई । अनेकान्त अपने ढंग की अनूठी पत्रिका है। ऐसी पत्रिका की जैन समाज को आवश्यकता थी । छपाई, कागज, लेख सब उत्तम हैं । मैं इसका स्वागत करता हूँ । पत्रिका के सम्पादक तथा प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं। मेरी कामना पत्रिका सतत् उन्नति करती रहे । - पं० रामलाल जैन, वंद्य शास्त्री स्पेशल रेलवे मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, अलीगढ़
है
(७) 'अनेकान्त' का जून का श्रङ्क पढ़कर परम प्रसन्नता हुई। प्रमुख पृष्ठ का चित्र भी एक नवीनीकरण की भावना को
लिए पत्र के नाम के अनुरूप ही लगा सुयोग्य सम्पादकों द्वारा सुचारु रूप से सम्पादित होकर और नियमित रूप से समय पर प्रकाशित होकर अनेकान्त अपने धर्म तथा समाज साहित्य और संस्कृति की सेवा करने में उतना समर्थ हो जितना भी उसे शक्य और सम्भव हो । यही कामना है ।
-लक्ष्मीचन्द जैन सरोज' एम. ए. रतलाम (८) 'अनेकान्त' के प्रङ्क पढ़े । अतीव आनन्द मिला। जैन शोध के क्षेत्र में ऐसे एक पत्र की आवश्यकता थी । श्रापने अनेकान्त को पुनर्जीवन देकर पुण्य का ही कार्य किया है। इससे अनुसन्धित्सु और साधारण जन दोनों ही लाभान्वित होंगे। अनेकान्त से भारतीय संस्कृति के लुप्त पहलू प्रकाश में आ सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। मैं उसकी सतत उन्नति की कामना करता हूँ । - डा० ए० के० 50 दीक्षित, बड़ौत
(e) आपके सत्प्रयत्नों से अनेकान्त पत्रिका फिर से अपने पूरे वैभव के साथ प्रकाशित हो रही है, अत्यन्त प्रसन्नता हुई । परम पूज्य महाराज श्री समन्तभद्र स्वामी जी ने अतिशय आनन्द व्यक्त करते हुए आपके इस स्तुत्य उप क्रम को हृदय से अभिनन्दन एवं अनेक शुभाशीर्वाद लिखने को कहा है। हम सब गुरुकुलवासी आपके इस सत्प्रयत्न की सराहना करते हुए उसके लिए हृदय से सफलता चाहते हैं और पापको बधाई देते हैं। :- माणिकचन्द भिसीशर प्रिन्सिपल, बाहुबली विद्यापीठ
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तीन महत्वपूर्ण पत्र
(१) श्री महेन्द्र जी, प्रागरा
प्रिय बन्धु
आपका कृपा पत्र मिला । अनेकान्त ने अपने जीवन में जो सेवा साहित्य और समाज की की है वही मूल्यवान और प्रशंसनीय रही है। उसका प्रकाशन पुनः प्रारम्भ करके आपने बड़ी भारी आवश्यकता की पूर्ति की है। साहित्य के एक ऐसे अङ्ग की पूर्ति आप इसके द्वारा कर रहे हैं जो शताब्दियों से जन साधारण के सामने नहीं पाया और जिसके प्रकाश में लाने की महान् मावश्यकता है। आप अपने प्रयत्न में सफल हो रहे हैं और प्राशा है कि दिन पर दिन और अधिक सफल होते जाएंगे। (२) डा० दशरथ शर्मा एम० ए० डी० लिट् कृष्णनगर आदरणीय शास्त्री जी; _ 'अनेकान्त की जून १९६२ की प्रति के लिए अनेक धन्यवाद । अनेकान्त के खोजपूर्ण लेखों के लिए मैं सदा ही उत्सुक रहा हूँ। जून के अंक में भी आपने विविधरूप और ज्ञानवर्धक सामग्री प्रस्तुत की है। अनेकान्त के पुनः प्रकाशन के लिए सभी जैन समाज अभिनन्ध है। क्या हम आशा रख सकते है कि 'सर्वोदय तीर्य संरक्षण-व्रती' यह पत्र भविष्य में निगबाध गति से अपना कार्य सम्पन्न करता रहेगा। (३) पं० अमृतलाल दर्शनाचार्य वाराणसी
'अनेकान्त' की दूसरी किरण मिली । एक बार प्राद्योपान्त पढ़ गया । चित प्रसन्न हो उठा। रानी मृगावती की कहानी को कुछ जैनंतर विद्वानों ने भी चाव से पढ़ी। पापका अध्यवसाय इलाध्य है। अनेकान्त का प्रकाशन बहुत ही आवश्यक था। इसके प्रकाशन से पूरी जैन समाज को प्रसन्नता है।
वीर सेवा मन्दिर और "अनेकान्त” के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री गमजीवनदास जी मगवगी, कलकत्ता ५००) श्री गजगज जी मरावगी, कलकना ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५.००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झाझरी, कलकत्ता ०५१) ग. बा. हरवचन्द जी जैन, राँची २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता २५१) श्री म० सि धन्यकुमार जी जैन, कटनी ०५०) श्री बंशीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दिग्दाम जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री मिघई कु.दनलाल जी, कटनी, २५०) श्री महावीरप्रमाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी पार मी जैन, कलकत्ता
२५०) श्री रामस्वरूप जी नेभिचन्द, कलकत्ता १५०) श्री.बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल, कलकत्ता १५०) श्री कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) श्री पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री प्रतापमल जी मदनलाल जी पांड्या, कलकत्ता १५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता १५०) श्री शिखरचन्द जी सगवगी, कलकत्ता १५०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ, कलकत्ता १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता १००) श्री बद्रीप्रमाद जी प्रात्माराम, पटना
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वीर सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
(दशलक्षण पर्व तक सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में) (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची--प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल्य-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ 6८ टीकादिग्रन्थ में
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डाक्टर कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Forewod) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) मे भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज सजिल्द १५) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के
सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय,
समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का विश्लेषण करती हुई महत्त्व की गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ठ की प्रस्तावना मे सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों मे जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगल
किशोर मुस्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल्ल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद-महित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की १८ पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना मे भूषित।
. १॥) (६) युक्त्यनुशामन-तत्त्वज्ञान मे परिपूर्ण ममन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि मे अलंकृत, सजिल्द । ... ११) (७) श्रीपुरपाश्वनाथम्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ॥) (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीतिकी १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद-महित) (8) समीचीन धर्मशास्त्र--स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्यार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३) (१०) जनग्रंथ-प्रशस्ति सग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रंों की प्रशस्तियों का मगलाचरण महित
अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना से अलंकृत, मजिल्द । (११) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तारथी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महित ।) (१२) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)--मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ क्षेत्र । (१४) महावीर का सर्वोदय तीर्थ =), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका =)। (१६) महावीर पूजा। ।) (१७) जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रश के ११६ अप्रकाशित अर्थो की प्रगस्तियों का महत्वपूर्ण गग्रह इतिहास
७४ ग्रन्थकारों के परिचय और उनके परिशिष्टों सहित । सम्पादक पं० परमानन्द शास्त्री मूल्य मजिल्द १२) (१८) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर शासन संघ प्रकाशन ... ५) (१६) कसायपाहुड मुत-भून ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वपं पूर्व थी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चुणिसूत्र लिखे। मम्पादक पं० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी साईज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०) (२०) Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बड़े आकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू० ६)
प्रकाशक-प्रेमचन्द, वीर मेवा मन्दिर के लिए नया हिन्दुस्तान प्रेम, दिल्ली में मुद्रित
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अक्टूबर १९६२ .tमासिक.
চনকাল
सत्साहित्य का निर्माण उन्हों व्यक्तियों द्वारा संभव है, जिन्होंने अपने जीवन को संयम और साधना से पवित्र कर लिया है।
सम्पादक-मण्डल डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये श्री रतनलाल कटारिया डॉ. प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जन
Patradai.
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.
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मंदिर) का मुरवपत्र
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विषय-सूची
चित्र-परिचय
विषय
अनेकान्त के मुख पृष्ठ पर जो चित्र दिया गया है। चतुर्विंशति तीर्थकर जयमाला-ब्रह्मजीवंधर
उसका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है:
'हाथी के एक-एक अंग को स्पर्श करने वाला प्रत्येक सिद्धहेमचन्द्र-शब्दानुशासन- श्री कालिकाप्रसाद शुक्ल,
व्यक्ति अंश रूप से सच्चा है-पर उस एक अंग के वर्णन से ___ एम. ए. व्याकरणाचार्य १४६
पूरे हाथी का रूप ज्ञान नहीं हो सकता है। विभिन्न अंगों समय और हम -श्री जैनेन्द्र
१५५ को स्पर्श करने वाले सभी छहों व्यक्तियों के विचार मिला सप्त क्षेत्र-रास का वर्ण्य-विषय-श्री अगरचन्द नाहटा १६० लेने पर पूर्ण हाथी का रूप स्पष्ट हो जायगा। इस प्रकार कविवर बनारसीदास की सांस्कृतिक देन
पूर्ण सत्य को प्राप्त करने के लिए सभी प्रांशिक सत्यों को
सम्मिलित करना होगा, यही भाव इस चित्र से प्रकट -डा. रवीन्द्रकुमार जैन १६३ कार्तिकेय (कहानी) -श्री सत्याश्रय भारती १६७ भगवान् कश्यप : ऋषभदेव
-श्री वाबू जयभगवान एडवोकेट १७६१ पतियानदाई (एक भूला विसग जैन मन्दिर)
यारोग्य कामना -थी नीरज जैन १७७३ जैन मित्र की भूल
केकड़ी दि. जैन समाज के उत्साही विद्वान् और आदिकालीन चर्चरी रचनाओं की परम्परा का उद्भव
अनेकान्त के सम्पादक क्षयरोग मे प्रपीड़ित है। उनका
इलाज मीरशाली अस्पताल (अजमेर) में सावधानी और विकास -डा. हरीश १८०
से हो रहा है। अब उनका स्वास्थ्य अपेक्षाकृत सुधार राजस्थानी जैन वेलिसाहित्य-प्रो० नरेन्द्र भानावत १८६ पर है। आशा है वे बिल्कुल ठीक हो जायेंगे । अनेसाहित्य समीक्षा-मयण पराजय, भारतीय इतिहास कान्त परिवार उनके स्वास्थ्य की कामना करता है। एक दृष्टि -डा. प्रेमसागर
अनेकान्त परिवार,वीर-मेवा-मन्दिर, दिल्ली प्रमाण-प्रमेय-कलिका-श्री अवधेशकुमार शुक्ल १६३६
कड़ाककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककbhbsbshshraddhanaamanandbidesb.d.dhaddahauntactusbabsetteshabdshobbata
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य छः रुपया है । अतः प्रेमी पाठकों से निवेदन है कि वे छह रुपया ही मनीआर्डर से निम्न पते पर भेजें।
- पोकान में प्रस्थापित विचारों के लिये साम्पादक मंडल
मैनेजर 'अनेकान्त' वीर-सेवा-मंदिर
२१ दरियागज, दिल्ली
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिये सम्पादक मंडल उत्तरदायी नहीं है।
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मोम् अहम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिडजात्यन्धसिन्धरविषानम् ।
सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ wwwAARAAAAAAAAAAAAAAImmmmmmmmmmmmmmmmons वर्ष १५ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६
अक्टूबर किरण,४ प्राश्विन शुक्ला १२, वीर निर्वाण सं० २४८८, विक्रम सं० २०१६ ( सन् १९६२ HARIRImmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmAAAAAAAIIIIImmummmIIIIRamew
___चतुर्विंशति तीर्थकर-जयमाला
[इस तीर्थंकर-जयमाला स्तवन के कर्ता ब्रह्म जीवंधर हैं, जो माथुरसंघ विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक यशःकीति के शिष्य थे। आप संस्कृत और हिन्दी भाषा के योग्य विद्वान् थे । आपकी अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिन्हें अवलोकन करने से उन पर गुजराती भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। उनकी रचनाओं में गुणस्थानवेलि, खटोलारास, अॅबुक गीत श्रुतजयमाला, नेमिचरित, सतीगीत, तीन चौबीसी स्तुति, दर्शन स्त्रोत्र, ज्ञान-विराग-विनती, पालोचना, बीस तीर्थकर जयमाला और चौबीम तीर्थकर जयमाला प्रसिद्ध हैं । इनमें अन्तिम रचना संस्कृत पद्यबद्ध रचना है, जो चौबीस तीर्थकरों की स्तुति को लिये हुए है। पद्य सुन्दर और सरल हैं। यह मूल रचना पं० दीपचन्द जी पांड्या केकड़ी को टोंक राजस्थान शास्त्र भंडार से प्राप्त हुए एक जीर्ण गुच्छक पर से संगृहीत की गई है । ब्रह्म जीवंधर विक्रम की १६वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान् है। इन्होंने सं० १५६० में वैशाख वदी १३ सोमवार के दिन भट्टारक, विनयचन्द की स्वोपज्ञ चूनड़ी टीका की प्रति लिपि अपने ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। इससे वे १६वी शताब्दी के विद्वान् निश्चित होते हैं।
-परमानन्द जैन] त्रिशद्धिश्चतुरुत्तररतिशयः सत्प्रातिहार्याष्टभिइंष्टि-ज्ञानसुवीर्यसौख्यविशदरेतैरनन्तः परैः। ये रम्याष्टसहस्रलक्षणयुतैरेभिःसमस्तैर्गुणः
पूर्णा मय॑सुराऽसुरेन्द्रविनुतास्ताम्तीर्थनाथान् स्तुवे १ वृषभं वृषचक्राङ्कितदेहं नाशितवस्तुविषयसन्देहम् । अजितं जितमन्मथरिपुमानं कृतशाश्वतसौख्यामृतपानम् ॥
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१४६
अनेकान्त
शम्भवजिनममराधिपवन्द्यं निर्वस्त्राभरणादपि लब्धम् ?
अभिनन्दनमालो कित सर्वं देशितदशविधधर्ममपूर्वम् ॥ सुमति सन्मतिविधिदातारं प्राप्तसमस्तभवोदधिपारम् । पद्मप्रभदेवं कमलाऽऽभं सञ्चितमुक्तिमहाऽद्भुतलाभम् ॥ वन्दे तीर्थंकरं च सुपार्श्वं त्रिभुवनजनसमभीप्सित पार्श्वम् । चन्द्रनिभं चन्द्रप्रभदेवं सुरनरखगपतिकृत पदसेवम् ॥ पुष्पदन्तजिनमुज्ज्वलकायं क्रन्दितदुर्जय दुष्टकषायम् । निष्टप्ताऽर्जुनवमनिन्द्यं शीतलजिनममलं निरवद्यम् ॥ श्रेयस्करमभिवन्दे धीरं श्रेयांसं हतमनसिज वीरम् । विगताऽष्टादश दुर्धर दोषं वासुपूज्य जिनमुपगततोषम् ॥ विमलं शिवपदसुखसम्पन्नं नवकेवलवर- कमलाऽऽपन्नम् । लब्धाऽनन्तचतुष्टय राज्यं देवमनन्तं सुरपतिपूज्यम् ॥ धर्ममहारथधरणसमर्थं धर्म स्वीकृतमोक्षपदार्थम् । शान्तिकरं सततं सभयानां शान्तिजिनेन्द्रं भक्तिमयानाम् ॥ कुन्थुं सर्वोत्तमगुणनिलयं विहितजननमरणाऽऽमयविलयम् । मिथ्यामतगजवारणसिंहं प्रणमाम्यर जिन मुज्झितमोहम् ॥ पञ्चेन्द्रियवन दहन हुताशं मल्लि छेदिनसंसृतिपाशम् । मुनिसुव्रतमुपमानगिरीन्द्रं भव्यकुमुदवनबोधनचन्द्रम् ।। नमिनिमुपहतकर्मविपक्षं लोकत्रयपरिबोधनदक्षम् । नेमि समलङ्कृत दृढ़शीलं सेवितसिद्धिवधूसुख लीलम् ॥ विधुरितविघ्नं पार्श्वजिनेशं दुरिततिमिरभरहन नदिनेशम् । ज्ञानद्रुमतीव्रकुठारं वाञ्छित सुखदं करुरणाधारम् ॥ "जीवन्धर" नुत- चरणसरोजं विकसित निर्मल कीर्तिपयोजम् । कल्याणोदयकदलीकन्दं वन्दे वीरं
परमानन्दम् ॥
विविधगुणविचित्रा पुष्पमालेव रम्या नृसुरमुनिपवृन्दाराधितानां जिनानाम् । प्रपठति जयमालां योऽनिशं तां सुभक्त्या जिनपतिपदलक्ष्मीस्तं समभ्येति शीघ्रम् ॥ इति चतुर्विंशतितीर्थङ्करजयमाला ॥
वर्ष १५
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सिद्धहेमचन्द्र-शब्दानुशासन
श्री कालिकाप्रसाद शुक्ल, एम० ए०, व्याकरणाचार्य
यह तो सबको विदित ही है कि अनेक प्रतिभासम्पन्न ग्रन्थ के अनुसार सिद्धराज मालव देश को जीतकर अपनी वैयाकरणों ने शताब्दियों तक अत्यन्त सुव्यवस्थित पद्धति से राजधानी पाटन लौटते समय धारा नगरी की सारी सम्पत्ति अनेक संस्कृत व्याकरण शास्त्रों का निर्माण किया । उन के साथ ही भोजराज के ग्रन्थ रत्नों को ले पाए। उसी व्याकरण शास्त्रों के बल से संस्कृत भाषा आज भी अमर समय श्री हेमचन्द्राचार्य ने महाराज को बड़ा ही उदात्त एवं है। केवक इस देश के ही नहीं, विदेश के विद्वानों ने भी भावपूर्ण आशीर्वाद दिया।' उस आशीर्वाद को भादर पूर्वक आज के अपने भाषाशास्त्रों मे उन व्याकरणों का उपयोग स्वीकार करते हुए महाराज सिद्धराज ने प्राचार्य से पुनः किया है, यह किसी से छिपा नहीं है । व्यवस्थित व्याकरण पधारने की प्रार्थना की। शास्त्र के अभाव से ही अनेक भाषायें नष्ट हो गईं अथवा
एक समय अवन्ती से लाई हुई पुस्तकों का निरीक्षण वे आज भी दुर्बोध बनी हुई हैं। उन व्याकरणों की ही
करते हुए एक पुस्तक के सम्बन्ध में महाराज ने पूछा-यह कृपा से, संस्कृत वाङ्मय सैकड़ों आघात-प्रत्याघातों को
कौनसी पुस्तक है। ग्रन्थपाल ने उत्तर में कहा कि यह भोज सहन करते हुए भी, आज भी सुगठित एवं स्थिर करने के
निर्मित व्याकरण की पुस्तक है, विशेष रूप से यह भी कहा के लिए आजकल उपलब्ध व्यवस्थित व्याकरणों में एक
कि मालवाधीश परिनिष्ठित विद्वान.थे तथा उन्होंने व्याकरण सिद्ध हेम चन्द्र शब्दानुशासन' भी है, जिसके सम्बन्ध में यहां
तर्क आदि अनेक शास्त्रों की पुस्तकें लिखी हैं। यह सुन कुछ विचार किया जाता है।
कर सिद्धराज दुखी हुए और वोले-क्या हमारे यहां शास्त्रनिर्माण का उद्देश्य
निर्माण-पद्धति नहीं है? क्या सम्पूर्ण गुजरात देश में कोई सर्वाङ्गपूर्ण पाणिनीय व्याकरण के रहने पर भी विद्या- पण्डित नहीं है ? तद सभी राजपण्डितों ने हेमचन्द्राचार्य नुरागी श्री भोजराजा की सी प्रख्यात कीति प्राप्त करने की ओर देखा। महाराज ने इस अवसर को हाथ से नही जाने रूप गुर्जर नरेश श्री सिद्धराज की महत्वाकांक्षा की पूर्ति ही दिया और प्राचार्य से ससम्मान प्रार्थना की कि "मुनिवर ! इस ग्रन्थ के निर्माण का उद्देश्य है, यह इतिहास के पर्यालोचन एक नवीन व्याकरणशास्त्र रचकर हमारी इच्छा पूरी से स्पष्ट है । इस तथ्य को प्रकट करने वाले, जैनाचार्यों के कीजिए । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई भी इस कार्य में अनेक ग्रन्थ है। जिनमें ऐतिहासिक दृष्टि से थी प्रभाचन्द्र समर्थ नही है । इस समय हमारे राज्य में प्रति संक्षिप्त सूरि विरचित 'प्रभावक चरित्र,' अत्यन्त प्रामाणिक है इस कलाप-व्याकरण ही का प्रचार है। उसके बार-बार परि१-प्रभावक चरित्र के सम्बन्ध में इसके सम्पादक ने
शीलन से भी यथोचित शब्द-व्युत्पत्ति नहीं होती। पाणिलिखा है--"रचना की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ बड़ा महत्त्व- नीय व्याकरण वेदाङ्ग है । अतः ब्राह्मण लोग इसे औरों को पूर्ण है। इसकी भाषा प्रवाहपूर्ण तथा प्रभावशाली है। नही पढ़ाते । अतः सबके कल्याण के लिए नवीन व्याकरण वर्णन सुसम्बद्ध तथा परिमित है । कही भी अत्युक्ति एव का निर्माण कीजिए । इससे मेरी तथा प्रापकी ख्याति असम्भवोक्ति नहीं है। समग्र संस्कृत साहित्य में महाकवियों एवं प्रभावशाली धर्माचार्यो का ऐतिहासिक तथ्यपूर्ण ग्रन्थ .
होगी।" दूसरा नहीं है।" इस प्रकार का अपना प्राशय प्रकट करते
१-"भूमि काम गवि ! स्वगोमयरसैरासिञ्च रलाकराः । हुए सम्पादक ने प्रभावक चरित्र' को इतिहास ग्रन्थ स्वीकार
मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप ! स्त्वं पूर्ण कुम्भोभव ॥ किया है । [रचना काल-वि० सं० १३३४ । सिन्धी जन ग्रन्थमाला ग्रंथाङ्क १३, प्रभावक चरित्र की प्रस्तावना धृत्वा कल्पतरोदलानिसरलैदिग्वारणास्तोरणा
न्याधत्त स्वकरविजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः ।
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अनेकान्त
भोजराज की ग्रन्थ राशि तथा भोज नामाङ्कित व्या- अध्ययन अध्यापन होना चाहिए।" करण को देखकर और उनकी रची हुई व्याकरण के प्रति- मालव राज्य वैभव के साथ विद्वानों तथा उनकी रिक्त शास्त्रों की भी पुस्तकें हैं, ऐसा सुनकर सिद्धराज ने रचनामों से पूर्ण है; किन्तु मेरे राज्य में विविध वैभव होते सोचा होगा कि मेरे राज्य (गुजरात) में ऐश्वर्य है उत्तम
हुए भी साहित्य एवं साहित्य निर्माता क्यों न हों, इस अभिविलास स्थान भी हैं, सम्पत्ति की सरितायें भी प्रवाहित हैं। लाषा से भी सिद्धराज क्षुब्ध हुए होंगे। विद्यालय भी हैं और बड़े-बड़े विद्या-व्यसनी विद्वान् भी हैं,
अध्ययन काल में अति विस्तृत होते हुए भी अपर्याप्त सब कुछ है, किन्तु स्वकीय (अपना) साहित्य नहीं है। हम
एवं प्रति परिश्रम करने पर भी सम्यग्ज्ञान कराने में असलोगों को परकीय (पराये) साहित्य पर ही निर्भर रहना
मर्थ, अन्य व्याकरणों से भयभीत गुर्जरदेश के छात्रों के पड़ता है। अत: कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे
भय को समूल उन्मूलन करने के प्रयत्न ने भी राजा को परकीय साहित्य की परवशता दूर होकर अपने स्वतन्त्र
व्यग्र किया होगा। यह सारा रहस्य 'कथितेन' इस पद से साहित्यसे हमारा देश प्राणवान् हो । राजा पायेंगे और
विभाबित हो रहा है । इतना ही नहीं, नवीन साहित्य के जायेंगे उनका अधिकार समाप्त हो जाएगा राज्याधिकारी भी
निर्माण की नरेश प्रेरणा से समृद्ध राज्य को साहित्य से समृद्ध इस नियम के अपवाद न होंगे, राज्य-नियम बदलेंगे, राज
बनाने की भावना के साथ ही गुर्जरदेशवासियों के गौरववैभव विलीन हो जायेगा । सम्पूर्ण संहारक वस्तुयें भी नष्ट
पूर्ण जीवन निर्वाह करने की अनेक तथ्यात्मक भावनायें भी हो जायेंगी, परन्तु संस्कृति और साहित्य ही अमर होंगे।
पूर्वोक्त प्रस्तावना-पद्य से प्रकट होती है । अतएव राजा को ये ही प्रतीतकाल के भव्य इतिहास की सूचना देते हुए
जितना धन्यवाद दिया जाय, स्वल्प है। इस प्रसङ्ग रमणीय रचना को प्रेरणा देकर गुजरात का गौरव बढ़ा
के सम्यक् आलोचन से, पूर्वोक्त पद्य के अनुसन्धान येंगे। इतना ही नहीं, गुजरात का यश, सूर्य और चन्द्र के
से तथा इस महान् ग्रंथ के परिशीलन से अनेक अन्य सदश दिगन्त-व्यापी होगा। सिद्धराज की इस महत्वाकांक्षा तथ्य भी अभिव्यक्त होते है। तथापि प्रशस्ति में कहे ने ही हेमचन्द्राचार्य के हृदय में रचना का भाव अंकुरित
हुए तीन दोषों को व्याकरण शास्त्र से दूर करने के लिए किया । वही रचना "सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नाम से ही इस शब्दानशासन की रचना हुई, यह बात तो स्पष्ट ही प्रसिद्ध हुई। इसी प्राशय को आचार्य ने ग्रंथ की प्रशस्ति में
प्रकट होती है। प्रकट किया है:
___'पाजकल जितने भी व्याकरण प्रचलित हैं, ये सब प्रति तेनाति विस्तृतदुरागभविप्रकीर्ण
विस्तृत, अन्यस्थित तथा दुर्गम है, परिणामत. बोध कराने शब्दानुशासनसमूहकदथितेन ।
में अपर्याप्त हैं, यह यदि सिद्ध हो जाय तो यही व्याकरण अभ्यथितो निरूपमं विधिवद् व्यधत्त
सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता शब्दानुशासनमिदं मुनिहेमचन्द्रः ॥३५॥
है । गुणग्राही विद्वानों ने इस व्याकरणकार को 'कलिकालइसका तात्पर्य यह है कि "मालवराज भोज व्याकरण
सर्वज्ञ' को उपाधि दी है। निर्माता थे । अपने राज्य में अपना ही व्याकरण चलाते थे। विद्याभूमि गुजरात में भी कलाप-व्याकरण की तुलना
इस शब्दानुसान की 'दोषत्रय से विमुक्ति की चर्चा में भोज-व्याकरण की अधिक प्रतिष्ठा थी। अतएव सम्भवतः .
सम्भवतः अमरचन्द्र सूरि ने अपनी बृहत्प्रवचूणि में की है। सिद्धराज अपने देश में अपना व्याकरण न होने से दुखी शब्दानुशासनजातमस्ति, तस्माश्च कथमिदं प्रशस्यतमहुए होंगे तथा उनको अपने पुस्तकालय में इस प्रकार की मिति ? उच्यते, तद्धि अतिविस्तीर्ण विप्रकीर्ण च । कातन्त्रं शास्त्र रचना का अभाव खला होगा। प्रत्येक राज्य में वहीं तर्हि साधु भविष्यतीति चेन् न, तस्य सङ्कीर्णत्वात् । इदं तु के पण्डितों के रचे व्याकरणों का प्रचार है अतः मेरे राज्य सिद्धहेमचन्द्राभिधानं नातिविस्तीर्ण न च सङ्कीर्ण इति में भी यहीं के विद्वानों द्वारा निर्मित सर्वाङ्गपूर्ण शास्त्रों का भने व शब्द-व्युत्पत्तिर्भवति ।
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सिडहेमचना-समानुशासन अन्य व्याकरणों में तीन दोष
कर सकें, सूत्रों के उद्देश्य की मीमा का निर्धारण करने वाले जहाँ दो तीन सूत्रों से विवक्षित विपय स्पष्ट हो जाता
प्रत्युदाहरण यह निश्चित रूप से बता सकें कि इस सूत्र के
इतने ही उदाहरण होंगे, अधिक नहीं; उदाहरणों एवं प्रत्युहो वहाँ अधिक सूत्र बनाना बुद्धिमानी नहीं है । हेमचन्द्र
दाहरणों के ज्ञान के साथ ही ऐतिहासिक, सामाजिक, शब्दानुशासन को छोड़कर अन्य व्याकरणों में विषय विभाग
सांस्कृतिक आदि विषयों का ज्ञानोपार्जन भी साक्षात् या की दृष्टि से यह दोष स्पष्ट है । व्याकरणों के विषय में यह
परम्परा से हो सके; इतना ही नहीं अपितु, पढ़ते-पढ़ाते प्रसिद्धि है "अर्धमात्रा लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैया
समय यदि अनायास ही विषय स्पष्ट हो तथा जितना अपेकरणाः ।" अतः प्रत्येक व्याकरण अपना विवक्षित अर्थ सक्षेप
क्षित हो, उतने ही अंश का ज्ञान प्राप्त कर सन्तोष हो जाय में कहना चाहता है। किन्तु इस कार्य में हेमचन्द्राचार्य
तभी व्याकरण, व्याकरण है । इसमें सन्देह नही कि इस सर्वाधिक सफल हुए है । अल्प वाक्यों वाले प्रकरण से तथा अल्प अक्षरों वाले सूत्र से यदि प्रतिपाद्य विषय एवं विवक्षित
व्याकरण में व्यापक रूप से ये सभी तथ्य प्रस्तुत हुए हैं। अर्थ प्रकट हो जाय तो वही रचना सुन्दर तथा विस्तार-दोष यदि एक विषय के प्रतिपादन के समय अन्य विषय का प्रतिसे विमुक्त समझी जाती है । किन्तु विस्तार दोप को हटाने पादन होने लगे, सन्धि के प्रकरण में समास विधायक सूत्र के लिए यदि भापा कठिन अथवा भाव दुरूह हो जाय, तो
पा जायं; नाम के प्रकरण में कारक सूत्रों की चर्चा हो ऐसा संक्षेप तो "प्रजा (बकरी) निकालने के प्रयत्न में ऊँट
तथा कारक के प्रकरण में पत्व-णत्व एवं समास-विधायक प्रविष्ट हो गया ।" इस लोकोक्ति की भाँति हास्यास्पद ही
सूत्रो को पढ़ दिया जाय तो विद्यार्थियों को बहुत बड़ी कठिहोता है। सूत्रो की रचना कठिन शब्दों में हो, उनकी व्याख्या
नाई का सामना करना पड़ेगा। भी कठिन शब्दों एवं दुर्गम शैली में हो, बार-बार विचार
ये उपर्युक्त दोप न्यूनाधिक रूप से प्रत्येक व्याकरण में करने पर भी अर्थ सहज ही समझ में न पाता हो, सूत्रों के
पाये जाते है । इसकी थोड़ी चर्चा यहाँ कर देना प्रावश्यक अथं ज्ञान के लिए वृत्ति लिखी जाय, उस वृत्ति को समझने में अनेक संशय खड़े हो, जिस सूत्र का बोध सरलता से हो
प्रतीत होता है। सकता हो उसके लिए कठिन मार्ग का अवलम्बन किया
पारिणनीय व्याकरण में प्रतिविस्तृतत्व दोष जाय और कठिन विषय का स्पर्श ही न किया जाय-पादि ऐमी अव्यवस्थाएँ है । जिनसे व्याकरण सर्वथा दुष्ट हो जाता पाणिनि ने जिम कार्य के लिए चार सूत्र' पढ़े है उसी है। इस दोष के निगकरण के लिए ऐसे व्याकरण की
कार्य को हेमचन्द्र ने अयोगीत ११११३७ इस एक सूत्र से रचना होनी चाहिए. जिसमें ऐसी शैली अपनाई जाय, पढ़ने
सम्पादित किया है। के साथ ही विषय का सम्यक् ज्ञान हो तथा कठिन विषय भी सरलता से वणित हों।
प्रागे चलकर कारक प्रकरण मे पाणिनि ने 'ध्रुवमपाये प्रत्येक विषय को स्पष्ट करने के लिए शृखला की पादनम्" (पा० १।४।२८) इस सूत्र से अपादान कारक कड़ियों की भॉति सूत्र आपस मे सुव्यवस्थित एवं सुसम्बद्ध ___ को व्यवस्था की है, किन्तु वह व्यवस्था भी अपूर्ण रह गई, हों, सूत्रों का समन्वय करते समय पूर्व सूत्रो से अनुवृत्त या
अतः उन्होने अन्य सूत्र भी लिखे है। तथापि उसकी पूर्ति न अधिकार द्वारा प्राप्त पद बिना किसी बुद्धि-व्यायाम के स्वयं उपस्थित हो सकें, सूत्रों में पाने वाले पदों के विवरण १. "उपदेशे ऽजनुनासिक इत्" (पा. १२३४२), 'हलके सम्पादक उदाहरण भी गंगा के निरवच्छिन्न प्रवाह की न्त्यम्" (पा० ११३।३) "प्रदर्शनं लोप:' (पा० १।१।६०) भांति निरायास उपस्थित होकर विषय को अधिक सुस्पष्ट तथा "तस्य लोपः” (पा० १।३।६)।
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ने
देख वार्तिककार ने वार्तिक बनाकर उसे पूरा किया है। किंतु उक्त प्रकरणों के देखने से यह स्पष्ट है कि हेमचन्द्र इन सब सूत्रों एवं वार्तिकों के लिए हेमचन्द्र ने एक ही सूत्र ने महाभाष्य का सम्यक् पालोचन किया था, क्योंकि पढ़ा है । अपायेऽवधिरपादानम् । सिद्ध हैम० २।२।१६। पूर्वोक्त सूत्रों एवं वार्तिकों के प्रत्याख्यान में महाभाष्यकार उन्होंने अपाय के दो भेद किये हैं
ने जिस पद्धति का अवलम्बन किया है, हेमचन्द्र ने सूत्रों के १-काय संसर्ग पूर्वक और २-बुद्धिसंसर्गपूर्वक । लाघवीकरण में ठीक उसी पद्धति का आश्रय लिया है।
इस प्रकार अधर्माज्जुगुप्सते, अधर्माद्विरमति, धर्मात्प्र- यदि हेमचन्द्र ने महाभाष्य न देखा होता, तो सम्भवतः यह माचति इत्यादि स्थलों में विवेकशील व्यक्ति बुद्धि से ही लाघव दुष्कर ही होता । उस समय पाणिनि व्याकरण की अधर्म को दुःख का हेतु समझकर उससे निवृत्त हो जाता महतो प्रतिष्ठा थी एवं उसका बहुत प्रचार था। इसमें है। नास्तिक व्यक्ति तो बुद्धि से ही धर्म को जानकर 'मैं ऐसा सन्देह नहीं कि परवर्ती प्राचार्यों नेपूर्ववर्ती प्राचार्यों का अनुनहीं करूंगा' यह निश्चय कर उससे निवृत्त होता है। सरण किया है। अतः हेमचन्द्र का ऐसा करना उचित ही निवृत्ति-गर्भ जुगुप्सा, विराम, प्रमाद अर्थ में उक्त धातुएं था। किंतु पूर्वोक्त स्थल में भाष्यकार का अनुसरण करनेपर
भी कई स्थलों पर हेमचन्द्र की स्वतन्त्र नूतन उद्भावनायें भाष्यकार पतञ्जलि ने घ्र वमपायेऽपादानम्" (पा०
भी हैं। उदाहरणार्थ-'माख्यातोपयोगे' (पा० १।४।२६) १।४।२४) इस एक सूत्र से ही पूर्वोक्त सूत्रों एवं वार्तिकों के
इस सूत्र के भाष्य का प्राचार्य ने अनुसरण नही किया है, उदाहरणों की व्याख्या करके उनका प्रत्याख्यान कर दिया
अपितु "पाख्यातर्युपयोगे” (हेम० २।२।७३) इस सूत्र का
उल्लेख कर उसकी वृत्ति भी लिख दी है। १.(क)"जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्" (का. सम्भवतः प्राचार्य का यह अभिप्राय हो कि 'नटस्य वा.)-पापाज्जुगुप्सते, पापाद्विरमति धर्मात्प्रमाद्यति । शृणोति' यहां पर उपयोग की अविवक्षा रहने पर भी
(ख)"भीत्रार्थानां भयहेतुः" (पा०११४१२५)-चौरा- बुद्धिकृत अपाय की विवक्षा में पञ्चमी न हो सकेगी, इसदबिभेति, चौरात्भायते । (ग) “पराजेरसोढः” (पा० ११४ लिए यह सूत्र आवश्यक है। किन्तु अनभिधान से ही वैसी २६)-अध्ययनात्पराजयते। (घ) “वारणार्थानामीप्सितः विवक्षा नहीं हो सकती। अतः इस सूत्र का कोई विशेष (पा०१।४।२७)-य वेभ्यो वारयति । (ङ)"अन्तधौं येना- प्रयोजन नहीं ज्ञात होता । अन्यथा पूर्वोक्त सूत्रों में भी इसी दर्शनमिच्छति" (पा. १।४।२८)-मातुनिलीयते कृष्णः प्रकार की कोई कल्पना की जा सकती थी, जो प्राचार्य ने (च) जनिकर्तुः प्रकृतिः (पा० १।४।३०)-ब्रह्मणः प्रजाः नहीं की। इस पर विद्वान् लोग ही विचार करें। प्रजायन्ते । (छ) “भुवः प्रभवः” (पा० २४।३१)-हिम-
हैम शब्दानुशासन का उपजीव्य बतो गङ्गा प्रभवति (ज) पञ्चमी विभक्ते (पा० २।३।४२)
व्याकरण भाषा का नियामक होता है । यदि एक. -माथरा: पाटलिपुत्रकेभ्यः पाढ्यतराः । (झ) यतश्चाध्व- भाषा के अनेक व्याकरण हैं, तो पूर्ववर्ती व्याकरण की काल निर्माणं तत्र पञ्चमी (का० वा०)-कार्तिक्या भांति परवर्ती व्याकरणों में भी शब्दसिद्धि समान ही होती प्राग्राहयणी मासे वनाद् ग्रामो योजनं योजने वा। है। उनमें कोई नवीनता तो होती नहीं, केवल रचना पद्धति
२. अपायश्च कायसंसर्गपूर्वको बुद्धिसंसर्गपूर्वको विभाग में सरलता या कठिनता, सर्वदेशीयता या एकदेशीयता उच्यते, तेन
होती है, जो प्रत्येक व्याकरण में पूर्णतः या अंशतः पाई "बुद्धया समीहितैकत्वान् पञ्चालान् कुरुभिर्यदा।
जाती है । यद्यपि सूत्र और वृत्ति आदि के पर्यालोचन से बुद्धया विभजते वक्ता तदापायः प्रतीयते ॥" -इत्यत्रापादनत्वं भवति ।......देखो हैम० स०२।२।१९ यह प्रतीत होता है कि' शाकटायन व्याकरण ही इसका
३. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् कर्तव्यम्... १. शाकटायन अपरनाम पाल्यकीर्ति नामक दि. जैन [देखो, महाभाष्य १।४।२४ (पा.सू.) से ११४३१ (पाणिनि प्राचार्य का चार अध्यायों में विभक्त यह व्याकरण ग्रन्थ सू.)तक]
अनेक टीका वृत्तियों से युक्त पाया जाता है।
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फिरल ४
उपजीव्य रहा है, तथापि सूत्रों में जैनेन्द्र व्याकरण का प्रभाव भी यत्र-तत्र परिलक्षित होता ही है । शाकटायन व्याकरण किस व्याकरण से प्रभावित है, इसका विचार स्वतन्त्र लेख में किया जायेगा । शाकटायन व्याकरण को उपजीव्य बनाकर प्रवृत्त हेमचन्द्र ने महाभाष्य और शाकटायन के विस्तृत विषयों का थोड़े ही शब्दों में इस कौशल के साथ अपने सूत्रों एवं वृत्तियों में समाविष्ट किया है कि उनको समझने के लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं है। किं बहुना, गहन विषयों के तत्त्वों को थोड़े शब्दों में ही निबद्ध करते हुए तथा सूत्रों एवं वृत्तियों की रचना अतिविस्तृतपन के दोष का परिहार करते हुए इस नूतन रचना से आचार्य ने महती प्रतिष्ठा प्राप्त की है शाकटा यन व्याकरण के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के २० सूत्र अविकल इस शब्दानुशासन में संग्रहीत हैं। जिनकी तालिका इस प्रकार है
में
।
सिद्धमचानुशासन
हैं और दूसरे सिद्धहेम के सूत्रां है—
o
(१) प्रयोग १।११५ ११३७
इस तालिका में प्रथम ध शाकटायन के सूत्रांक (शा० सू० प्रमोधवृत्ति २०१०५ )
(२) आसन्न १।१७, ७४१२०
(३) सम्बन्धिनां सम्बन्ध ११७१२१ (४) बहुगणं भेदे १|१|१०, ११४० (२) क समाध्यर्थः १०१११, २०१०४१ (६) कियार्थी धातुः १।१।२२, ३३३३ (७) गत्यर्थ वदोच्छ: १११।३०, ३१८ (८) तिरोऽन्तम १११०३१, २०१ (९) स्वाम्येऽथि: ११३४ २०१११३ (१०) प्राध्वं बन्धे १११३८, ३|१|१६ (११) पर ११११४४ ७७४११० (१२) स्पर्धे २१४६७४११ (१३) नं क्ये (१४) मनुनंभोऽङ्गिरोति १४१०६७, (१५) स्वंरस्वक्षौहिण्याम् १११४८५ (१६) वोष्ठौती समासे
१।१।६३,
११११८८
(१७) इ (१८) सम्राट्
१।१।२२
१।१।२४ १।२।१५ १२।१७
१।१४६७, ११२।३० १।१।११३,
१।३।१६
२।३।१०
(१९) सुचो वा १।१।१७०, (२०) समासे ऽसमस्तस्य १|१|१७३,
२।३।१३
यदि कुछ मात्रा और अक्षरों के हेर-फेर से सूत्रों की तुलना की जाय तो शाकटायन व्याकरण के प्रथमाध्यायगत द्वितीय पाद के अनेक सूत्र इसमें संगृहीत मिलेंगे। यदि शाकटायन व्याकरण के ४ अध्यायों एवं १६ पादों को देखा जाय, तो एक स्वतन्त्र तुलनात्मक ग्रन्थ तैयार हो जायेगा । अतः कुछ ही उदाहरण यहां दिये गये हैं ।
सूत्र
की समता के साथ-साथ वृत्ति की समता भी निश्चित रूप से देखी जाती है। यह सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन की तत्त्वप्रकाशिकावृत्ति और शाकटायन की अमोघवृत्ति की परस्पर तुलना से स्पष्ट है । '
१५३
१- दह शास्त्र उपदिश्यमानो वर्ण: स्वीत्समुदायो वा लौकिकशब्दप्रयोगे न स इत्संज्ञो भवति । अतएव चास्य प्रयोगाभावः सिद्धः । उपदेशस्तु कार्यार्थः । एधि - एधते । "
"दह शास्त्रे उपदिश्यमानो वर्णस्तत्समुदायो वा मो लौकिके शब्द प्रयोगे न दृश्यते स एति अपगच्छतीति इत्संज्ञो भवति । श्रप्रयोगित्वानुवादेनेत्संज्ञा विधानाच्चास्य प्रयोगाभावः । उपदेशस्तु धातु-नाम-प्रत्यय-विकारागमेषु कार्यार्थः । पाती एच एचते।" (है० सूत्र तत्व० वृत्ति१।११३७ )
२ - बहुगण इत्येतौ शब्दो भेदे वर्तमानो संख्यावद् भवतः । भेदो नानात्वम् एकत्वप्रतियोगि बहुकः बहुधा, बहुकृत्वः । भेदे किम् ? वैपुल्ये संधे च सङख्या कार्य मा भूत् । बहुगणनाऽत्यन्ताय संचक्षते इति वचनम् । अतएव भूर्यादीति निवृत्ति ।” (शा० सू० श्रमो० १।१।१० )
-
,
" बहुगण इत्येती शब्दो भेदे वर्तमानो संख्यावद् भवतः । भेदो नानात्वमेकत्वप्रतियोगि बहुक, बहुषा, बहुकृत्वः भेद इति किम् ? वैपुल्य संघे च संख्याकायं मा भूत् । बहुगणी न नियतावधिभेदाभिधायकाधिति संख्याप्रसिद्धे रभावाद् वचनम् । अतएव भूर्यादिनिवृत्तिः ।"
तत्व० वृत्ति १|१|४० )
इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने पूर्वाचार्यों के श्रविकल वचनों को लेकर भी, परिष्कार करके इस प्रकार लिखा है
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अनेकान्त
कि वे सर्वथा नवीन से प्रतीत होते हैं। अनायास अर्थावबोध के लिए कुछ शाकटायन के सूत्र भी थोड़े से परिवर्तन के साथ इन्होंने ले लिए हैं ।
१- शा० सू०
प्रादिर्ना प्रत्यये
कर्ण मनः श्रच्छेदे
नित्यं हस्ते पाणी स्वीकृती
ह्रस्वो वाऽपदे
प्रस्योढोये
एवेऽनियोगे
चादेरचोsनाङ:
सौ वेती
ग्रन्थ चोदन्यान्
१।१।२४
१।१।२८
१|१|३६
११११७४
PIRINK
११११८७
१|१|१०१
१।१।१०३
शरा
ferat
सू०
न प्रादिरप्रत्ययः
३|३|४
कणे मनस्तृप्ती
३।११६
३|१|१५
नित्य हस्ते पाणावुद्वाहे ह्रस्वोऽपदे वा
१२२२
प्रस्यैषष्योढोढ्यूहे स्वरेण
११२१४
अनियोगे लुगे
११२।१६
चादि: स्वरोज्नाक
१२/३६
सौन बेसी
११२३८
उदन्वानब्धौ च
२ १/६७
किन्तु अक्षर परिवर्तन या स्थान परिवर्तन से अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। यही याचार्य का कौशल है।
क्रमशः
तक्षशिला के निकट मण्डन नामक एक जैन मुनि से सिकन्दर ने साक्षात्कार चाहा। मुनि ने उसके निमन्त्रण का तिरस्कार कर दिया, इस पर सम्राट् स्वयं मुनि के पास गया प्रश्न करने पर मुनि ने कहा कि यदि हम से कुछ पूंछना श्रौर लेना चाहता है तो पहले हमारी ही तरह अन्तर-बाह्य से नग्न हो जा । और फिर उन्होंने राज्यतृष्णा एवं भोगलिप्सा का त्याग करके ग्रात्मा की चिता करने का उसे उपदेश दिया। एक दूसरा साधु जिसका नाम कल्याण था सिकन्दर के साथ ही बाल चला गया। बाबुल में आकर उसने समाधिमरणपूर्वक चितारोहण किया । अपनी तथा स्वयं सिकन्दर की निकट मृत्यु की सूचना इस मुनि ने सम्राट् को पहले ही दे दी थी। उसकी मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य की क्या दशा होगी, यह भी बता दिया था ।
- डा० ज्योतिप्रसाद जैन
रागविलावल
दूलह नारितु बड़ी बावरी, पिया जागे तूं सोवे । पिया बतुर हम निपट यानी न जानुं क्य होते ।। दुम || 'मानवन' पिया दरस पियारों, खोल घूंघट गुस जोने ॥ दुल० ॥
१४
- श्रानन्दघन
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समय और हम
लेखक-श्री जैनेन्द्र
थी जैनेन्द्र जी हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार हैं। श्री प्रेमचन्द जी के उपरान्त उपन्यास और कहानियों के क्षेत्र में उन्हें सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। किन्तु 'जनेन्द्र के विचार'का अध्येता उन्हें उत्तम दार्शनिक माने बिना भी नहीं रहता। उत्तम इसलिए कि उनका वर्शन उनका मस्तिष्क-विलास नहीं, अपितु उनका अपना जीवन ही है। यह ही कारण है कि वे उसे सहजता के साथ रम्य शैली में अभिव्यक्त कर सके हैं।
'समय और हम' नामके अन्य में श्री वीरेन्द्रकुमार गुप्त के द्वारा पूछे गये ४५० प्रश्नों के उत्तर हैं। श्री जनेन्द्रजी ने उनमें से कतिपये मुझे सुनाए। मन रमा और रुचि तहीन हुई। यद्यपि जैनेन्द्र जी का अपना कोई पक्ष नहीं, किन्तु मुझे ऐसा लगा कि वे 'भनेकांत' से प्रभावित है-जाने या अनजाने । यह प्रस्थाभाविक भी नहीं । उनका किशोरावस्था का वातावरण ऐसा ही था।
यह ग्रन्थ 'सर्वोदय ग्रन्थमाला' से प्रकाशित होने वाला है। बादा धर्माधिकारी भूमिका लिखेंगे। जैनेन्द्र जी ने कुछ अंश 'अनेकान्त' के लिए दिया है, एतदर्ष हम उनके मामारी हैं।
-सम्पादक
प्रश्न-आत्मा और परमात्मा के बीच अद्वैत के विषय क्या यह सच नहीं है कि दुश्मन मानकर हम किसी से लड़ में आपका क्या मत है?
भी तभी सकते हैं, जब दोनों एक धरती पर हों। गाली उत्तर-अद्वैत हर दो के सर्वथा दो-पन का इन्कार तभी दी जा सकती और लगती है जब भाषा बीच में एक है। किन्हीं खास के आपसी दो-पन का नहीं। जिस तरह हो । लड़ते वक्त दुश्मनी से हम इतने भर जाते हैं कि एक जड़ और चेतन उसी तरह जीवात्मा और परमात्मा, उसी जमीन पर खड़े हैं, एक स्वार्थ पर अड़े है, यह याद नहीं तरह सत्य और असत्य, रूप-अरूप, साकार-निराकार रहता। अगर याद रहे तो दुश्मनी में भी अर्थ मिल जाए
आदि जितनी द्वैत की कल्पनीय अवस्थाएँ है, अद्वैत में उन और बिल्कुल सम्भव है कि दुश्मनी रहने पर उसका दोस्ती सबका समाहार है । आपके प्रश्न को देखते हुए कहा जा से मेल हो जाए। अद्वैत की श्रद्धा से यदि हम द्वैतात्मक सकता है कि परम अद्वैत (परमेश्वर) जीव के साथ जिस जगत से निबटना सीखेंगे तो इसी संस्कारिता का उदय तरह एक है, उस तरह ही एक है जड़ के भी साथ । ईश्वर होगा। केवल द्वैत को ही मानकर उससे उलझेगे तो मूर्खता की परमता में द्वैत को अवकाश नहीं । द्वैत का स्थान हमसे से पार नहीं जा सकेंगे। न संस्कारों का उदय अपने बीच है । लेकिन वह सब चर्चा से अगम जो है सो उस तट से कर पाएंगे । कुत्ते को क्या इसीलिए कुत्ता नही कहा जाता इधर ही हमें बात को रखना चाहिए । आगे जाना डूब कि वह देखते ही दूसरे कुत्ते को गैर व दुश्मन समझता है। जाना है, वह बात से सम्भव नहीं है।
यह दो-पन और परायापन देही को अनायास अनुभव होता प्रश्न-जीवन के व्यवहार में कदम कदम पर हमें है। किन्तु मनुष्य को यह प्राप्त है कि वह भिन्न में अभिद्वैत का सामना करना पड़ता है । ऐसी स्थिति में आपके न्नता भी मान सके । इसी दर्शन और साधना को, विकास अद्वैत का इस संसार में क्या स्थान है ?
का मूल और मन्त्र मानना चाहिए । इस तरह अद्वैत से उत्तर - समझ के संसार में तो सचमुच कोई स्थान द्वित्वपूर्ण जगत के प्रति शक्ति ही कुछ प्राप्त होती है, बाधा नहीं है । अद्वैत के सम्बन्ध में जिसको 'समझना' कहा, वह नहीं। तो सम्भव ही नहीं है। पर अनुभूति और प्रतीति में, द्वत प्रश्न-क्या आस्तिकता का प्रचार करने की आवश्यसे जूझते हुए भी, भदैत अवश्य हमारे भीतर रह सकता है। कता है?
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अनेकान्त
वर्ष १५
उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रचार द्वारा हम अपनी मान्यता प्रश्न-इतिहास साक्षी है कि मातताइयों ने सदा का प्रचार कर रहे हैं, जो दूसरों की मान्यता से टक्कर में सशक्त और हिंसा के बल से अपने धर्म का प्रचार किया । पाती है लेकिन आस्तिक्य चरितार्थ प्रेम में होता है । प्रेम इसे आप क्या कहेगे, आस्तिकता की अधिकता या न्यूनता? में व्यक्ति अनायास विस्तार पाता है। यह विस्तार उसमें उत्तर-न्यूनता, बल्कि अभाव । मैं समझता हूँ कि अपने को खोने की तैयारी में से मिलता है। मैं अपने स्व- आदमी अत्याचार जिस पर करता है वह उपलक्ष्य नहीं त्व को पर में खो देने को आतुर होता हूँ, तभी प्रेम की होता है, लक्ष्य वह स्वयं होता है। क्रोध में मां बच्चे को अनुभूति पाता हूँ। अर्थात् प्रेम के माध्यम से ही आस्तिक्य मारती है तो वह असल में अपने को मार रही होती है। का प्रचार जिस मात्रा मे हो उतना ही इष्ट है । प्रेम से ऐसे ही वे मास्तिक जन जो सत्ता और शस्त्र लेकर उसकी अन्यत्र एवं अन्यथा उपाय से प्रचार प्रास्तिक्य का नहीं; प्रतिष्ठा में लगे, असल में कहीं अपने भीतर की शंका से ही आग्रह का होता है, मतवाद का होता हैं, और उसमें से लड़ना चाह रहे थे । अतः मैं मानता हूँ कि आततायी मूलतः प्रतिवाद, विवाद या वितंडा फलित होता है।
दयनीय होता हैं । अातंक के द्वारा वह अपने अहम् की तुष्टि प्रश्न-एक प्रास्तिक के ऊपर, आपकी दृष्टि में क्या चाहता है। अस्त्र शस्त्र के योग से वह जिस आतंक की और कितनी जिम्मेदारी आती है ?
सृष्टि करता है, उससे उसे कुछ अपने महत्त्व का आभास उत्तर-प्रेम उस परम दायित्वशीलता का ही नाम है मिलता है। आतंक यदि वह न डाल सके तो उसे ही गहरी प्रेम को सेवा विना तृप्ति नहीं । प्रेम के सम्बन्ध में एक विफलता का बोध होता है । आतंक यदि लोग स्वीकार अपने को दूसरे से श्रेष्ठ नहीं मान पाता । जब जानबूझ कर न करें ती अत्याचारी और आततायी देख पाये कि वह दूसरे को ज्ञान देने, उसका सुधार करने, कल्याण करने का भीतर से रुग्ण पुरुष है, महापुरुष नहीं है। इतिहास के दायित्व प्रोढ़ते हैं, तो इससे हमारे अहंकार को स्वाद और जिन कतिपय उदाहरणों को आप याद करके पूछते है कि आधार मिलता है। दुनिया को प्रकाश और सद्ज्ञान देने क्या जोर के माथ हित का और मत् का प्रचार नहीं किया के दावे में अपने अहंकार का मद यत्किचित् समाया ही जा सकता, तो हाँ, मुझे कहना होता है कि जोर का प्रेम रहता है। ऐसे उपकारीजन अत्याचारी बनगए देखे जाते के साथ मेल नही है । हित और सत्य के साथ भी उसका हैं। जान-मानकर जब दूसरों के प्रति हम कोई दायित्व मेल नही है अच्छाई और सच्चाई के लिए हिमक बल का उठाते है तो जैसे उस दूसरे के अहम् का सही सम्मान नहीं जिन्होंने उपयोग किया, उनमें कही आस्तिक्य की न्यूनता करते है। प्रेम में यह पर-पना पूरी तरह भरा रहता है। अवश्य रही, यह मेरे लिए स्पष्ट है । सत्य के साथ बल के प्रेम से चलकर व्यक्ति अपने को नेता, गुरु अथवा उद्धारक रूप मे हिसा का ही योग हो सकता है । मूक्ष्म में अहिंमान नहीं पाता। वह सेवक बनता है। इससे अनायास सक बल ही सच्चा बल है। जिसमें किसी का सत्व संकुचित दूसरे के प्रहं को संस्कार मिलता है, धार नहीं मिलती। नही होता, परस्परता मे मिलकर गुणानुगुणित ही होता इसलिए मेरा मानना है कि जिसने सचमुच पास्तिक्य पाया जाता है : अहिसा के युद्ध में भी सर्वोदय है। हो वह विनम्र और प्रादरशील ही हो सकता है, प्रचार प्रश्न—यह सृष्टि कैसे सृष्टि में आई ? और इसका और उद्धार का दावा उसमें नही दीख सकता । इस आदर फैलाव किस प्रकार हुग्रा? शीलता में दायित्व-शीलता सहज ही देखी जा सकती है। उत्तर-विज्ञान इसकी खोज में है। उसने कुछ कल्पअर्थात् ऐसा व्यक्ति अपने में लीन व मग्न नहीं रह पाता नाएं भी इस बारे में हमें दी है। मैं समझता हूँ कि विज्ञान उसे अपनी मग्नता सब पोर लुटानी और बांटनी होती है। की बात को हमें स्वीकार करना चाहिए । ब्रह्मांड के और मानन्द वही है जो अपने में घिरा-सिमटा बन्द नहीं रह सृष्टि के बारे में विज्ञान क्या व्याख्या देता है, यह शायद सकता, सब पोर मानों बाहें पसार कर फैलना चाहता है। आप मुझसे सुनना नहीं चाहते । मेरा उधर बहुत अधिक मानन्द और दायित्व में कोई विरोध नहीं देखता हूँ। ध्यान भी नहीं है । पर विज्ञान की अंतिम से अंतिम खोज
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किरण ४
समय और हम इस मेरे विश्वास से उल्टी न होगी कि सृष्टि सब ईश्वर में लगी रहेगी और मभीप्सा चिरंतन होकर हमें सदा उन्मुख से है। मेरा काम उस श्रद्धा से चल जाता है और मैं उसे बनाये रखेगी। अटूट भी मानता हूँ।
प्रश्न-'ईश्वर ने बनाई' को न मानकर क्या हम इसीको दूसरे शब्दों में कहें तो अधिक से अधिक वैज्ञा- आस्तिकता को क्षुब्ध-कुठित नहीं करते ? निक ज्ञान रखकर भी रहस्य जैसा कुछ रह ही जाएगा।
उत्तर-नहीं, बिल्कुल कुठित नहीं करते। बल्कि भगइस तरह श्रद्धा और भक्ति विज्ञान की परक ही है, विरोधी वन्निष्ठा को, उसकी मास्तिकता को ज्वलन्त और प्रखण्ड नही है।
करने के प्रयास में हम देखेंगे कि यह 'ने' की भाषा, कर्तृत्व
की धारणा, सहज पार होती जाती है। सृष्टि समक्ष है । जिस गर्भ में से उसका उद्भव हुआ,
____ अभी हाल के इतिहास के महात्मा गांधी को लें। उसके तल को पाना हमारे लिए असम्भव है। असम्भव
उनसे बड़ा आस्तिक कौन होगा ? लेकिन अन्त में "ईश्वर इसलिए कि हम सृष्टि के अंग है, यानी जन्म पा गये हैं और गर्भ के बारे में अनुमान ही रख सकते है, प्रत्यक्ष ज्ञान
सत्य है" की जगह "सत्य ईश्वर है" कहना उन्हें अधिक
मान्य और प्रिय हुआ। जवाहरलाल नेहरू जैसे उनके नहीं पा सकते । फिर भी जो प्रत्यक्ष और निःसंशय है वह
साथी इसका प्राशय नहीं समझ पाये । कैसे समझते ? फिर यह कि सृष्टि स्रष्टा की लीला है। वैसा न होता तो हममें
भी वक्तव्य में गहरा सार है वह यह कि सत्य में 'कर्त त्व' जीवन के प्रानन्द की अनुभूति न होती।
का आरोप नहीं रहता, 'ईश्वर' शब्द में जाने-अनजाने कर्ता प्रश्न--सृष्टि ईश्वर से उत्पन्न हुई, या उसे ईश्वर ने
का भाव आ जाता है । लेकिन ईश्वर की जगह सत्य को बनाया, या वह स्वयम्भूत है ?
रखने से गांधी जी में क्या तनिक भी शिथिलता पाई ? उत्तर-'उसने बनाई', 'उससे बनी', ये दोनों बातें आस्तिकता क्या ढीली होती मालूम हुई ? नहीं, बैसा नहीं हमारे मन में दो अलग चित्र पैदा करती है। यह हम पर हुआ । बल्कि सत्येश्वर के प्रति उनका समर्पण अमोघ और है कि चित्र हमे कौन सा भाता है । लेकिन उस चित्र की अनन्य होता ही चला गया । सच्चाई हम तक है, स्रष्टा तक वह नही पहुँचती। प्राशय कि सत्य निर्वैयक्तिक है। इसलिए खतरा यह रहता है कि लीलामय और लीला से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। उसके साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध, रागात्मक सम्बन्ध, भावालीला में कर्तृत्व का भाव है भी, और नहीं भी। उसने त्मक सम्बन्ध नही बन पाता। सम्भव यह भी रह जाता बनाई इसमें कर्तृत्व है और हेतु की अपेक्षा है। 'उससे बनी' है कि सत्य के नाम पर हममें स्वार्पण-भाव, भक्ति-भाव न यह स्वभावज है, इसमें जैसे अपेक्षा की आवश्यकता नहीं। हो, बल्कि एक स्वत्व और अहंभाव हो; यानी वह माना स्वयंभूत भाव भी इसमे समा सकता है, सृष्टि और स्रष्टा हुआ सत्य हमारे ही अहं का प्रक्षिप्त रूप हो, यह खतरा मे हम इतना अभेद क्यों न माने कि बीच में क्यों "कसे" ईश्वर कहने से एकदम बच जाता है। उसमें अनिवार्य एक आदि प्रश्न सम्भव न रह जाएं । सृष्टि समक्ष है, क्यों न दास्यभाव प्राप्त होता है। अहं की सीमा उसमें गल जाती मानें कि सृष्टा ही उस रूप में समक्ष है । कठिनाई इतनी है और सिर झुक जाता है। यह आर्जव (नम्र) भाव होती है कि सृष्टि दीखती अनन्त है । अनन्त, उसकी विचि- जीवन को सम्पन्न व स्वस्थ करता देखा गया है । इसलिए त्रता और विविधता है। असंख्य रूप-रसमय इस नानात्व में सत्य में ईश्वरत्व को मिटा देने का मैं हामी नहीं हूँ। काम स्रष्टा की एकता और अखंडता दीख नहीं पाती तो यह काज में लगे सामान्य मनुष्य के लिए ईश्वर बहुत उपयोगी कि एक अनेक कैसे हुआ? और अनेक एक क्योंकर है? इसको और आवश्यक होता है, उस संज्ञा के सहारे परम से उसका हम विस्मय-प्रश्न के रूप में ही क्यों न अपने में धारें और निजी व रागात्मक सम्बन्ध बना रहता है । वे दर्शन पूजा कहें कि उसके रहस्य-मूलक का सदा स्पन्दन पाते रहें। द्वारा अनन्तानन्त समष्टि से अपना नाता जोड़ पाते हैं और जीवन ऐसे प्रसन्न और प्राणवन्त रहेगा। उसमें जिज्ञासा इस तरह अपनी निजता से ऊँचे उठने और पार जाने की
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राह पा जाते हैं। कारण अनन्तानन्त को एक में, प्रखण्ड ईश्वर का निर्णय करते हैं, उन्हें भाप क्या कहेंगे आस्तिक को खण्ड में, मूर्त और व्यक्त देख पाते हैं।
या नास्तिक ? जैसे-जैसे उस व्यक्त, मूर्त और सगुण से एकात्मता पाने उपासना में स्वसेवन की जगह स्वार्पण की वृत्ति हो की कोशिश होगी, वैसे ही वैसे व्यक्त अव्यक्त मूर्त अमूर्त तो प्रास्तिक । लेकिन अधिकांश ऐसा हो नहीं पाता। सिर और सगुण,निर्गुण बनता जायेगा। साधना साधक को आकार नहीं झुकता । प्रार्थना नहीं होती, भक्ति नहीं फूटती। इस का सहारा देकर फिर निराकार में उठाती ही जायेगी। नमन से भावनामों को जो एक सहजता, एक आर्द्रता प्राप्त इस प्रकार साधना-शील आस्तिक अनायास वैज्ञानिक होता होती है, हृदय को जो संस्कारिता प्राप्त होती हैं, जाता है । पूजा-प्रार्थना से आगे अपने प्रत्येक आचरण में निरे बौद्धिक अनुसन्धान में व्यक्ति को उससे वंचित रह वह जो परमेश्वर का दर्शन और अवधारण चाहता है, तो जाना पड़ता है। यों कहिये कि उस उपासना से दिमाग को जान पड़ता है कि उसके दर्शन-ज्ञान में अनायास सत्य का खुराक मिलती है। मस्तिष्क पुष्ट-प्रखर होता है, दिल स्वरूप उत्तरोत्तर व्याप्ति में उद्घाटित और आविष्कृत होता सूखा रह जाता है, अर्थात् मूल 'अहं' को संस्कार नहीं जाता है । सत्य की उस भांति भारती नहीं उतारी जा मिलता । व्यक्तित्व को दाक्षिण्य नही प्राप्त होता है । प्रेम सकती जैसे मूर्ति की उतारी जाती है। सत्य अमूर्त रहता मुरझाता है और ज्ञान-विज्ञान का सहारा लेकर भीतर ही है, इसलिए मंदिर में मूर्ति-पूजा से जो सहज सन्तोष सम्भव भीतर अहं और कस जाता है। मस्तिष्क की तीक्ष्णता के है, वह सत्य-पूजा में अनुपलब्ध रह जाता है। यहाँ गहरी साथ तब व्यक्तित्व को धार मिलती है और सामाजिक तितिक्षा की आवश्यकता होती है। कारण, अगर मन्दिर सम्बन्धों में स्पर्धा अधिक काम करने लग जाती है। उन्नति या मूर्तिकलाका ईश्वर उपस्थिति से उठ जाता है, सारे बढ़ती है, संस्कृति घटती है। आज की मानव सभ्यता का विश्व में फैल जाता है। तब उसको पाना व पकड़ना मुश्किल दृश्य कुछ यही है। विज्ञान के जोर से हम ग्रहों, उपग्रहों होता है । उसकी माराधना भी मुश्किल होती है। यह के पास पहुंच गए हो सकते हैं, पर पड़ोसी से दूर हो गये ध्यानियों-ज्ञानियों का काम है । गृहस्थ उस राह दिशा को हैं। विज्ञान के विस्तार ने पड़ोसी को उड़ा दिया है, उसकी भी भूल जा सकता है। इतना कि श्रद्धा उससे खो जाए और आवश्यकता को जैसे खत्म कर दिया है। परिणाम क्या मार्ग तक उसकी दृष्टि से लुप्त हो जाए ।
है ? परिणाम यह है कि मानसिक रोग और विकार बढ़ती मुझे लगता है कि आज यही हो रहा है । सगुण रूप पर हैं। एक सूनापन और अकेलापन सभ्य, व्यक्ति को घेरे में हम उसे मान्य कर नहीं पाते । इस तरह अभ्यंतर रहने लगा है, जिससे छूटने के लिए वह नशे रोमांच और की वेदी पर से जब कि ईश्वर खंडित होता है तब सत्य अपराध ( Crime ) में शरण लेता है। सभ्यता ने उसकी जगह प्रतिष्ठित नहीं हो पाता । कारण, सत्य के तीखा नशा देने के नाना आविष्कार किये हैं। रोज-रोज प्रति सर्वस्वार्पण का भाव पाना अत्यन्त दुःसाध्य है । इसी नई विधियां सामने आती हैं। मानों सभ्य आदमी अपने से एक प्रकार की नास्तिकता फैली दीखती है और बौद्धि- को जैसे भी हो कुछ देर के लिए भुला डालना चाहता है । कता जैसे बौखलाई हुई है।
उधर पैसे की दुनिया है, जिससे हर क्षण वह अपने को इसलिए संस्था तक के रूप में धर्म को मैं अनुचित नहीं याद रखने को मजबूर है, होश जरा भी खो नहीं सकता। मानता । विशुद्ध अथवा सघन होकर संस्था, संगठन, सम्प्र- तो फिर दूसरी तरफ उसे क्षण चाहिए जब वह अपने को दाय से धर्म अनायास उत्तीर्ण होता है । व्यवहार में उसके खो डाले, होश से बेहोश हो जाए। अपने को एकदम छोड़ संस्थागत रूप को बाहर से तोड़ने की आवश्यकता नही है। दे और कहीं तनिक संभाले न रखे। यह जो पादमी तरेड़ वह स्पर्धा अहंजन्य और प्रतिक्रियात्मक है।
खाकर दो बन गया है, दिमाग से तेज, दिल से सूना, ऊपर प्रश्न-विद्वान, यन्त्र अथवा ज्ञान को ही जो अन्तिम से मर्यादित, भीतर से निरंकुश, व्यवहार से सभ्य, आकांक्षा मानकर चलते हैं, उसी की उपासना में दत्तचित्त रहते और से जंगली-यह माज के उत्कर्ष का विद्रूप क्या इसी वजह
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समय और हम
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से नहीं है कि मन के भुलावों में उड़कर हमने अपने को और उन्हें लौटने की-सोचने की ताव नहीं है। अन्यथा ऊंचा मान लिया है और उस मन को वहीं समर्पित करने सिद्ध है कि उन्नति का रूप एकांगी रहा है और व्यक्ति की जरूरत से बेखबर हो रहे हैं । ईश्वर से प्रात्मार्पण की के प्राधे मंश को छोड़ गया है। मस्तिष्क प्रखर बना है, उसी गहरी अावश्यकता की पूर्ति होती है। मानव की वह हृदय सूखने को अलग रह गया है। धर्म हृदय का विषय आवश्यकता आज अधूरी है, अतृप्त है और उन्नति के मद है और ईश्वर उस हृदय की मांग को भरता है। में उसको सहसा और हठात् भुलाया जाता है। यन्त्र घुमा- प्रास्तिक का मावश्यक लक्षण नम्रता और निरहंकारता धार पैदा कर रहा है और इस तरह उत्पन्न धन की है। विज्ञान प्रथवा यन्त्र-ज्ञान की उपासना ने जिनको बहुतायत हमारे सम्पन्न वर्ग को बहाये लिये जा रही है, यह ऋजुता दी, स्वार्पण-भाव दिया, उन्हें तो प्रास्तिक फुर्सत नहीं है कि अपने भीतर के गहरे प्रभाव पर निगाह ही कहना चाहिए । क्योंकि उपासना की वेदी वहां शून्य डाल सके, शायद यह करते डर भी लगता है। इस बाढ़ नहीं है, उस पर कुछ अवश्य विराजमान है, जिसके समक्ष में उन्नति अपने को उन्नत करती हुई अन्त में युद्ध में या वे नत-मस्तक हैं। नत-मस्तकता का यह प्रसाद उस क्षेत्र फूटी है और लोग घबरा गये हैं । संशय शायद मन में उठ में विरले ही पाते हैं। जो उस प्रसाद से वंचित हैं, और गया है, लेकिन उन्नति का वेग अब भी है और शस्त्रास्त्र अधिकांश वंचित हैं, उन्हें मास्तिक कहने से शब्द पर जोर की धड़ाधड़ तैयारियां हो रही हैं, किन्तु विज्ञान के उत्कर्ष पड़ता है। ईश्वर का एक रूप नहीं है, सब रूप उसी के के सहारे हम वहां आ गये है, जहाँ आगे राह बन्द दिखाई हैं। वृक्ष में, पत्थर में, जब उसे पूजा जाता है तो ज्ञानदेती है। उस वेग में एक कदम बढ़ा कि सर्वनाश स्पष्ट विज्ञान के निर्मित से क्यों नहीं पूजा जा सकता? प्रश्न है। इससे सोचने वालों के मन डिग गये हैं और वहां नमन का, प्रत्यर्पण का है । बौद्धिक उपासना में से वह गम्भीर मंथन मचा है । सिर्फ 'करने-धरने' वाले व्यस्त हैं आवश्यकता पूरी नहीं होती, ऐसा देखने में आता है।
पद
चेतन सुमति सखी मिल । दोनों खेलो प्रीतम होरी जी ॥टेक।। समकित व्रत को चौक वणावी। समता नीर भरावो जी॥ क्रोध मान को शीघ्र हटाभो। मिय्या दोष भगावो जी ॥१॥ म्यान ध्यान की ल्यो पिचकारी । तो खोटा भाव छुड़ावो जी।। पाठ करम को चूरण करि के। तो कुमति गुलाल उड़ावो जी ॥२॥ जीवदया का गीत राग सुणि। संजम भाव बधावो जी ।। वाजा सत्य वचन थे बोलो । तो केवल वाणी गावो जी ॥३॥ दीन सील तो मेवा कीज्यो । तपस्या करो मिठाई जी। 'देवा ब्रह्म' या रति पाई छ । तौ मन वच काया जोड़ी जी ॥४॥
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'सप्तक्षेत्र-रास' का वर्ण्य विषय
श्री अगरचन्द नाहटा
अपभ्रंश भाषा और प्राचीन राजस्थानी में हिन्दी की १२वीं शताब्दी से लेकर अब तक छोटे-बड़े सैकड़ों रास जैन रचनाएं प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। हिन्दी साहित्य जैन कवियों के रचे हुये उपलब्ध हैं। यही नही श्वेताम्बर के आदिकाल में रची हुई जैनेतर रचनाएँ बहुत ही कम जैन समाज में रासों के रचे जाने और गाये जाने की परउपलब्ध हैं। जो थोड़ी सी उपलब्ध है वे भी अपने मूल म्परा आज भी विद्यमान है । फलतः 'रास और रासान्वयी रूप में नहीं रहीं। इसलिए इस समय की जैन रचनाओं काव्य' में सबसे अधिक जैन रास ही संगृहीत किये गये हैं। का उपयोग हिन्दी, राजस्थानी व गुजराती तीनों भाषाओं इस ग्रन्थ की भूमिका में डा० अोझा ने 'जैन रास का के साहित्यिक इतिहास-ग्रंथों में समान रूप से किया जा विकास' शीर्षक स्वतन्त्र अध्याय लिखा है, उसमें १२वीं रहा है। एक ही रचना को राजस्थानवालों ने प्राचीन शताब्दी से १५वी शताब्दी तक के जैन रासों का संक्षिप्त राजस्थानी, गुजरात वालों ने पुरानी गुजराती और हिन्दी परिचय और उल्लेख पाया जाता है। यही अध्याय अभी वालों ने पुरानी हिन्दी के रूप में उल्लिखित किया है। एक स्वतन्त्र निबन्ध के रूप में 'आचार्य श्री तुलसी अभिवस्तुतः प्रान्तीय भाषाओं के प्रारम्भिक विकास काल में नन्दन ग्रंथ' के चतुर्थ अध्याय के पृष्ठ १०८ से ११५ में उतना अन्तर नहीं होता। फिर भी प्रादेशिक विशेषताएँ भी प्रकाशित हुआ है। सम्भव है डा. ओझा को नये तो रहती ही हैं। जैन विद्वान राजस्थान व गुजरात में निबन्ध लिखने का अवकाश मिला न हो और अभिनन्दन समान रूप से घूमते रहे हैं, इसलिए दोनों प्रान्तों में रचित ग्रंथ के सम्पादकों का विशेष अनुरोध व तकाजा रहा हो प्रारम्भिक काल की रचनाओं में भापा की समानता होना इसलिए 'रास और रासान्वयी काव्य की भूमिका वाले स्वाभाविक ही है। हिन्दी प्रदेश में रचे हुये जैन ग्रन्थ भी अध्याय को ही उन्होंने इस ग्रंथ में पुनः प्रकाशनार्थ दे थोड़े ही मिलते हैं और बहुत से ग्रन्थों का विषय जैनधर्म दिया हो । से सम्बन्धित होने के कारण हिन्दी के विद्वान उन रचनाओं दो वर्ष पहले रास और रासान्वयी काव्य की एक को ठीक से समझ नहीं पाते । यही नहीं, उनको समझने के प्रति मुझे डा० अोझा ने भेजी थी। उसी समय मैने उन्हे लिए जितनी गहराई से उनका अध्ययन करना चाहिये, सूचित कर दिया था कि आपके इस ग्रन्थ में कई महत्त्व उतना श्रम वे प्रायः नही कर पाते। इसलिए कई बार की भूल-भ्रान्तियाँ रह गई है और उनका संशोधन किया उन रचनाओं के सम्बन्ध में वे असंभव भी भूल-भ्रान्तियाँ जाना अत्यावश्यक है । इतना ही नहीं, मैंने बहुत सी अशुकर बैठते हैं । बहुत से शब्दों का तो अर्थ ही उनकी समझ द्धियों की ओर उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए एक में नहीं आता, अतः मनमाना तोड़-मरोड कर अर्थ कर संशोधनात्मक लेख भी उन्हें लिख भेजा था। पर प्रा० डालते हैं। ग्रन्थ के विषय को भी ठीक से न समझने के तुलसी अभिनन्दन ग्रंथ में 'जैन रास का विकास' नामक कारण कुछ का कुछ लिख डालते हैं । यहाँ ऐसा ही एक उनका जो लेख छपा है उसमें मेरी दी हुई सूचनामो का उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है :
कुछ भी उपयोग न कर, अपने ग्रंथ के उक्त अध्ययन को दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्राध्यापक डा. कुछ उद्धरणादि को छोड़कर प्रायः ज्यो का त्यों प्रकाशित दशरथ मोझा ने नागरीप्रचारिणी सभा से "रास और करा दिया है। इसीलिये उन भूलों की पुनरावृत्ति हो गई रासान्वयी काव्य" नामक एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यहां उसी का एक उदाहरण दिया जा रहा है। सम्पादित करके प्रकाशित करवाया है। रास की परम्परा संवत् १३२७ माघ वदी १० गुरुवार को रचित 'सप्तको जैन विद्वानों ने ही सबसे अधिक अपनाया है और क्षेत्र रास' का प्रकाशन सन् १९२० में प्रकाशित 'प्राचीन
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किरण ४
गुर्जर-काव्य-संग्रह में हुआ था। स्व० चिमनलाल दलाल के द्वारा सम्पादित यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ गायकवाड़ घोरिय न्टल सिरीज, बड़ौदा से ( ग्रंथांक १३ में) निकला था ।
१४वीं शताब्दी के प्रमुख जैन रासों का विवरण देते हुये डा० श्रोझा ने इस सप्तक्षेत्र रास का विवरण इस प्रकार दिया है
सप्तक्षेत्र रास का व विषय
"इस युग की एक निराली कृति 'सप्तक्षेत्र रास है। जैनधर्म में विश्व ( ह्याण्ड) की रचना, सप्तक्षेत्रों की सृष्टि एवं भरतखण्ड के निर्माण की विशेष प्रणाली गाई जाती है। 'सप्तशेष राम' में ऐसे नीरस विषय का वर्णन सरस-संगीतमय भाषा में पाया जाना कवि के चातुर्य एवं रास माहात्म्य के परिचायक हैं। इस गस में सप्तक्षेत्रों के वर्णन के पश्चात् श्रात्रक के बारह मुख्य व्रतों का उल्लेख भी किया है।"
"११६ श्लोकों वाले इस राम में व्रत, उपवास, चारित्र आदि का स्थान-स्थान पर विवेचन होने से यह रास पाठ्य सा प्रतीत होने लगता है किन्तु सम्भव है, जैनधर्म की प्रमुख शिक्षाओं की ओर ध्यान प्राकर्षित करने के लिए नृत्यों द्वारा इस गम के सरम एवं चित्ताकर्षक बनाने का प्रयास किया गया हो। यह तो निस्संदेह मानना पड़ेगा कि
का इतना विस्तृत विवेचन एकत्रित किया हुआ एक राख में मिलना कठिन है कवि इसके लिए भूरि-भूरि प्रशंसा प्राप्त करने का भाजन है। कवि ने विविध गेय छंदों का प्रयोग किया है; अत. यह रास काव्य अभिनेय माहित्य की कोटि मे भी आ सकता है ।"
"गणितानुयोग के आधार पर निरचित रामों में भूगोल और सोल के वर्णन को महत्व दिया जाता है। इस पद्धति पर विरचित रास सृष्टि की रचना, तारा- ग्रहों के निर्माण, सप्त क्षेत्रों, महाद्वीपों, देश-देशान्तरों की स्थिति आदि का परिचय देते है। ऐसे रासों में विश्व के प्रमुख पर्वतों, नदी-सरोवरो, वन-उपवनों, उपत्यकाओं और म स्थलों का वर्णन एव प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा का वर्णन ही प्रिय विषय रहा है । किन्तु गणितानुयोग पर निर्मित रामों में प्राकृतिक छटा की अपेक्षा प्रकृति में पाये जाने वाले पदार्थों को नामावली पर अधिक बल दिया जाता है। ऐसे रासों में 'सप्तक्षेत्री रास' बहुत अधिक प्रसिद्ध है।"
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- वास्तव में डा० श्रोझा, सप्तक्षेत्र क्या है ? जिसका कि इस रास में विवेचन है, बिल्कुल समझ ही नहीं पाये । केवल पचांक ६-७ में भरतक्षेत्र -६, वैताय ३ खण्ड, मध्य खण्ड यह सब देखकर ही यह मान लिया कि इसमें गणितानुयोग व सप्तक्षेत्रों की सृष्टि आदि का वर्णन है । डा० प्रोझा ने इस रास में सप्तक्षेत्रों के वर्णन के पश्चात् श्रावक के १२ मुख्य व्रतों का उल्लेख किया जाना लिखा है इससे तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने प्रारम्भिक भरत क्षेत्र में आदि के नामों को देखकर उन्हें ही ७ क्षेत्र समझ लिया है, जबकि ७ क्षेत्रों का वर्णन मूल रचना में १२ व्रतों के नाम बतलाने के बाद ही प्रारम्भ होता है । उन ७ क्षेत्रों में अपना धन खर्च करने के लिए वहाँ प्रेरणा दी गई है यथा
रामति मूल तु बारद, गहिव-धरम पालेवउ । सप्तमेत्रि जिन भणिया, तिह वित्तु वावेव ॥१७॥ सप्तक्षेत्र जिन कहिया महामुनि, वितु वावेजिउ विवपरे । जिन वचन भागधी अवकमु साधिउ लहद्दपारू संसारूसरे ॥ १८ ॥ सप्तक्षेत जिन सासणिहि, सघली कहीजई । अथिरू रिथि धनु द्रव्यु, बीजउ तहि जि वावीजइ । तेहि क्षेत्रि वावेषणा धानकि, लाभइ देवनोको कणनी थाहरू मुक्तिफ्लो, पामउ निसंदेहो ॥१२॥
इसके बाद पद्मांक २० से पहले क्षेत्र, पद्याँक २८ से दूसरे क्षेत्र, पद्याक ५५ से तीसरे क्षेत्र, फिर पद्यांक ७० से माधु-साध्वी, धावक, धाविका इन चारों क्षेत्रों का वर्णन किया गया है या
१. पहिलउ क्षेत्र सु 'जिगह भुवण' करावउ चंगू । २. बीजउ 'मु जिनह विबु' ते यहा विचारो । ३. श्रीजउ क्षेत्र सु संभलउ ए वर लोणे, जं भणिउ वीयराइ | गुण गंभीर सो 'जिणइ वयणु' मृगलोयणे, ज तमु नवि उपम काइ ॥ ५६ ॥
6 से ७- पद्यांक ७१ से श्रमण क्षेत्र, पद्यांक ७६ से श्रमणी, पद्याक ९६ से श्रावक क्षेत्र और पद्मांक १०० से श्राविका । पद्यांक १०८ से श्रावक श्राविका कारित पौषधशाला का वर्णन प्रारम्भ होता है और पद्यांक ११३ में उपसंहार करते हुए कवि कहता है
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प्रकान्त
वर्ष १५
आदि का कवि ने विस्तार से वर्णन किया है । तदनन्तर भारती उतारने, जल-नमक उतारने, घण्टा बजाने का उल्लेख करके हर्ष के साथ उत्सव मनाने का उल्लेख करते हुए विषय का उपसंहार किया है।
तीसरे क्षेष—जिन बचन को अमूल्प बतलाते हुए गणधर पूर्वपर, केवली, दसपूर्वघर द्वारा सिद्धान्तों के कहे जाने का उल्लेख किया है। पूर्व और ११ अङ्ग इन आगम ग्रन्थों में भवनों के पदार्थों का वर्णन होना लिखा है। गौतम गणधर ने महावीर से त्रिपदी का सूत्र-रूप ज्ञान पाकर विस्तार से आगमों की रचना की । काल प्रभाव से केवल ज्ञानी धौर पूर्वपर की परम्परा विच्छिन्न हो जाने के बाद इतने बड़े श्रुतज्ञान को कंठस्थ रखना कठिन हो गया तो | पुस्तक के रूप में लिखा गया। इसलिए इन सिद्धान्तों को लिखाने में अपने द्रव्य को लगाकर ज्ञान भक्ति करनी चाहिए ।
चौथा क्षेत्र - श्रमण- साधु को बतलाया है । उनको वस्त्र पात्रादि १४ उपकरण देना चाहिये । उन्हें ४२ दोष रहित श्राहार कराना चाहिये, जिससे मुनिजनों के संयम तथा चरित्र पालन में सुविधा रहे ।
'सात क्षेत्र' इस बोलिया, मागम धणुसारे । पुण तुम्हें वानीयं मनीवपरि विस भाषणरे ॥११३॥ अर्थात् १. जिन भवन के निर्माण, २. जिन बिन याने मूर्ति के निर्माण प्रतिष्ठा और ३. जिन वचन रूप सिद्धांत शास्त्र को लिखने लिखाने तथा ४. साधु, ५. साध्वी, ६. श्रावक, ७. श्राविका की सेवा भक्ति में अपना द्रव्य खर्च करने का विधान इस रास में किया गया है। श्वेताम्बर जैन समाज में ये सात क्षेत्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं । 'पाइन सद्दमहष्णवो' नामक प्राकृत कोष के पृष्ठ १०७६ में भी सातों क्षेत्रों का उल्लेख हुआ है। सत्त ( स तन् ) सात संख्या वाला, खात [सत्त] किती खेती (सप्त क्षेत्री) १. जन-२ निविम्ब, ३. जैन धाराम, ४. साधू ५. साध्वी, ६. श्रावक और, श्राविका, ये सात धन-व्यय स्थान । वस्तुत: उक्त रास में केवल इन सात क्षेत्रों का ही विवरण पाया जाता है। इसमें गणितानुयोग या विश्व ब्रह्माण्ड की रचना सप्तक्षेत्रों की सृष्टि, भरतक्षेत्र के निर्माण प्राकृतिक छटा की पपेक्षा प्रकृति में पाये जाने वाले पदार्थों की नामावली यादि का वर्णन, जैसा कि डाक्टर प्रोझा ने समझा है, बिल्कुल नहीं हैं।
"
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प्रथम क्षेत्र जिन-मन्दिर के निर्माण के प्रसंग में मूल गुंभारा, गूढ़ भंडप, ६ चौकी, रंग-मंडप, बलाय उतंग तोरण, कनक-कलश, दण्डध्वज, कपाट, तालाकूची, प्रष्ट प्रातिहा भादि छोटी-छोटी बातों का उल्लेख ही कवि से किया हैं। इसके बाद जोर्णोद्धार अर्थात् मंदिर की मरम्मत कराने में अपार पुण्य होने की सूचना दी गई है ।
"
दूसरे क्षेत्र — जिन-बिम्ब के विवरण में मणि, रत्न, स्वर्ण, रौप्यमय मूर्तियों, गृहचैत्य, पाषाण और पीतल की मूर्तियां, सुगंधित जल से स्नान कराने, अंगलूहन से पूछने धूप, बालाकुंची, कस्तूरी, कुंकुंमादि द्वारा पूजा और सोने, हीरे, माणिक, मोती के ग्राभरण (आभूषण) कुण्डल, मुकुट माला, हार, बहरखा, श्रीवत्स, बीजौरा, श्रादि द्वारा मूर्ति को आभूषित करने और विविध प्रकार के पुष्पों द्वारा पूजा करने के कार्य में द्रव्य-व्यय करने का उल्लेख किया है । इसी प्रसंग में उत्सव के समय जिन भवन में तालारस, लकुटारस, खेलने और नाचने का उल्लेख है । मधुर स्वरों से जिनेश्वर के दुगों का वायन बाओं सहित किये जाने
पांचवें क्षेत्र - श्रमणी -साध्वी को बतलाया है। उन्हें २५ प्रकार के उपकरण देने का उल्लेख करके यह कहा गया है कि अच्छे स्थानों में धन को खर्च किये बिना भवांतर में द्रव्य प्राप्त कैसे होगी। अच्छे क्षेत्र में धन का व्यय करने से अनंत गुना फल प्राप्त होता है, (पाक ३-४) (पद्यांक इसलिए साधु-साध्वी को आहार, पानी, घोष और विद्यादान में श्रावक को अपने धन का उदारता से खर्च करना चाहिये । वंदन, विनय, वैयावच्च, द्वारा उनकी सेवा करनी चाहिये । इसके बाद जिन लोगों ने मुनियों को दान दिया और उनका उन्हें सुफल मिला, उनका उल्लेख पद्यांक ६१ से ९४ में किया गया गया है।
छठा और सातवां क्षेत्र श्राविका का बतलाया है जो वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखने वाले और व्रतों को धारण करने वाले होते हैं। उनकी भोजन, वस्त्र धादि से भक्ति करनी चाहिये। स्वधर्मी की भक्ति से बड़ा लाभ होता है । तदनन्तर धर्मानुष्ठान करने के लिए पौषधशाला के निर्माण और धर्म प्राराधन के काम में धाने वाली वस्तुओं को वहाँ रखने का विधान किया गया है। इस तरह आवक श्राविका इन ७ क्षेत्रों में अपने धन का सद् व्यय करके पुण्यलाभ करें, यही इस रास के रचे जाने का उद्देश्य है।
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कविवर बनारसी दास की सांस्कृतिक देन
डा. रवीनाकुमार जैन, तिरुपति विश्वविद्यालय (मांध्र) . अध्यात्म-सन्त बनारसीदास जी समर्थ विचारक अपमानित होना। बनारसीदास ने भी इस धार्मिक संकीसाहित्य-मनीषी एवं सुकवि होने के साथ-साथ अदम्य र्णता से अभिव्याप्त घुटन का तीन अनुभव किया। धर्म उत्साही तथा सामाजिक एवं राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी थे। को इतना विकृत एवं दुराचारित होते देख उनकी प्रात्मा जहाँ भी सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय चेतना को विकृत, कान्ति के लिए विचलित हो उठी। उन्हें स्पष्ट प्रतीत विगलित एवं मूच्छित होते देखा कि समस्त प्रापत्तियों और हुआ कि इस देश की एकात्म संकृति में कटुता, भिन्नता कटु मालोचनामों की चिन्ता न कर उन्होंने अपनी पूर्ण और वैमनस्य के बीज इसी निःसार माडम्बर युक्त धार्मिक शक्ति से उसकी शल्य क्रिया की। कवि ने धर्म और कट्टरता के कारण पनप रहे हैं। प्रध्यात्म मूलक धर्म जो संस्कृति के उदात्त-जीवन्त तत्त्वों से जन-मानस को उद्वे- इस वसुन्धरा की संस्कृति का प्राण है। धीरे-धीरे कुछ लित किया।
भवसन्न एवं मूच्छित सा हो रहा है । क्रान्तद्रष्टा बनारसी मापके समय (१७वीं शती) में समाज में प्राचार- दासजी ने अपनी पूर्ण शक्ति से निर्भीकतापूर्वक धर्म की विचार सम्बन्धी संकीर्णता इतनी बढ़ चुकी थी कि सामान्य शुद्ध अध्यात्म मूलक व्याख्या की और उन्होंने 'जो प्राचार जनता ने धर्म का मूलरूप बनारसीदास निश्चिन्त होकर छ-सात महीने तक दोनों
तथा क्रियाकाण्ड मानव की उसी को मान लिया था।
वक्त एक कचौड़ी वाले से कचौड़ियां लेकर भरपेट खाते अध्यात्मदृष्टि में सहायक धर्म की व्याख्या करने वाले रहे, और फिर जब पैसे पास हुए तो चौदह रुपये देकर हो वही श्रेयस्कर है-ऐसा स्वार्थान्ध भट्टारक एवं पाण्डे | हिसाब भी साफ कर दिया। कि हम भीमागरे जिले के। घोषित किया । कुछ समय उसे अधिकाधिक विकृत, ही रहने वाले हैं, इसलिए हमें इस बात पर गर्व होना
पश्चात् उनका यह प्रान्दोस्वाभाविक है कि हमारे यहाँ ऐसे दूरदर्शी बवालु कचौड़ी अव्यवहार्य एवं बोझिल बना वाले विद्यमान थे जो साहित्य सेवियों को छ-सात महीने
लन अध्यात्ममत के रूप में रहे थे। उन्होंने तब मन- तक निर्भयतापूर्वक उबार दे सकते थे। कैसे परिताप का बड़ी लोकप्रियता के साथ मानी कठोर प्राचार परक । विषय है कि कचौड़ी वालों को वह परम्परा प्रब विद्यमान | प्रचलित हो गया। यही व्याख्या करके धर्म को प्रतिनहीं, नहीं तो पाजकल के महंगो के दिनों में वह मागरे के
अध्यात्म मत और मागे चल साहित्यिकों के लिए बड़ी लाभदायक सिद्ध होती। व्ययसाध्य, जटिल एवं इतना
-बनारसीदास चतुर्वेदी
कर तेरहपन्य के नाम से कृत्रिम कर दिया था कि].
जैनों के सुप्रसिद्ध दोनों ही सामान्य जन के अन्तत् में क्रान्ति की लहरें उठने लगी, सम्प्रदायों (दिग० श्वेताम्बर) में प्रचलित एवं मान्य हो उसका मस्तिष्क इस धर्मान्धता की कटु मालोचना गया । धर्म में इस नये परिवर्तन के कारण उनका प्रारम्भ (मूक रूपेण) करने लगा। यह क्रम एक लम्बे समय में विरोध भी पर्याप्त मात्रा में हुमा; विरोध मूलक ग्रन्थ तक चलता रहा। खुलकर विरोध करने की सामर्थ्य भी रचे गए, परन्तु मागे चलकर जनता के हृदय में उनकी अभी जनता में न थी। पांडे,पंडे (पुजारियों) और भट्टा- वास्तविक दृष्टि घर कर गई और उनका यह अध्यात्ममत रकों का मंदिरों और धर्म पर इतना गहरा प्राधिपत्य था सम्पूर्ण समाज में प्रतिष्ठित हो गया जो आज तक उसी कि उनका विरोध करने अथवा उनके प्रति अविश्वास मान्यता से प्रचलित है। प्रकट करने का सीधा अर्थ था मनुष्य का 'प्रभार्मिक', अध्यात्म संत बनारसीदास जी के जीवन और साहित्य 'नास्तिक', 'शिथिलाचारी' एवं 'मिथ्यादृष्टि प्रादि उपा- का अध्ययन उनके सांस्कृतिक उदात्त कार्यों के अध्ययनधियों से विभूषित' होना, तथा भाए दिन भनेक रूपों में मनन के प्रभाव में अपूर्ण ही कहा जायगा। किसी जाति
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अनेकान्त
और सम्प्रदाय विशेष के धर्म में करके न सीमित हम उनक वास्तविक अध्ययन नहीं कर सकते वे सम्प्रदायगत संकी । र्णता, समाजगत कुरीतियों तथा खण्डन-मण्डल के अन्तः सार शून्य झंझटों से पृथक् एक ऐसे जाज्वल्यमान प्रकाश स्तम्भ थे, जिन्होंने मानव मात्र में एक जीवन स्पन्दित होते देखा । कुछ समय के पश्चात् समष्टि ने भी आपके उदात्त भावों से स्वयं में सुखी और सम्मान्य जीवन के चिन्ह अनुभव किए।
'संस्कृति' राज्य के विद्वानों द्वारा अनेक अर्थ किए गए हैं। यहां उन सब की चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। यहां 'संस्कृति' शब्द के आधार पर जो उसकी सर्वमान्य परिभाषा बन सकती है उसी को लेकर हम कविवर बनारसीदास की सांस्कृतिक देन का अध्ययन कर रहे हैं।
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'सब्' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु में 'सुट' का आगम करके 'क्तिम् ' प्रत्यय लगाकर संस्कृति शब्द बनता है इसका अर्थ है सम् अर्थात् समभाव और सदाचारपूर्वक किए गए कृति अर्थात् कार्य ।
वर्ष १५
होती है अन्तिम रूप में विश्व मानव की संस्कृति एक ही । कहीं जायगी, फिर भी हम विश्लेषण की दृष्टि से और विभिन्न देशों की प्राचार-विचार की पद्धति की भिन्न २ दृष्टियों से सम्पूर्ण विश्व की संस्कृति को ६ वर्गों में विभक्त कर सकते हैं
"माक्सफोर्ड डिक्शनरी में संस्कृति (कल्चर) शब्द की यह व्याख्या है मस्तिष्क, रुचि और भाचार-व्यवहार की शिक्षा और बुद्धि इस रीति से शिक्षित और शुद्धीकरण की अवस्था, सभ्यता का बौद्धिक पक्ष, विश्व की सर्वोत्कृष्ट ज्ञात और निर्दिष्ट कथित वस्तुओं से स्वयं को परिचित करना ।
संस्कृति शब्द के उल्लिखित इन अर्थों से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जीवन को शुद्ध और परिमार्जित ( प्रन्तः वाह्य से) करना ही संस्कृति का आशय है। वेशभूषा और बाह्याचार आदि की अपेक्षा संस्कृति मानव जीवन के आत्म-शोधन की ओर ही अधिक मतसर १. To adorn, grace, decorate, (2) to refine, polish, (3) to Conserate bly repeating mantras, (4) to purify a person by seriptual ceremonies, to perform purificatory apre many over a person, (5) to cultivate, educate, train, (6) make ready," proper, equip, fitout (7) to cook (8) to purify cleanse (9) to collect, to heap togatfior.
1
१-कार्य (भारतीय) संस्कृति । २-अनार्य (अफ्रीकी),
"7
३- मंगोल (चीनी, जापानी,, ४- इसी (रूस की साम्यवादी)
५- इस्लामी (अरबी, फारसी)
"
१. २."
19
६ - ईसाई ( यूरो- अमरीकी)
"
जहाँ तक भारतीय संस्कृति की बात है वह एक है। फिर भी सूक्ष्म दृष्टि से प्रान्त, नगर, ग्राम, माति, कुटुम्ब और व्यक्ति की संस्कृति अपनी कुछ मौलिक विशेषताओं के साथ अलग-अलग है इस महान देश की विभिन्न प्रकार की संस्कृति का मूलाधार अध्यात्म ही है। यह इसी प्रकार ""है जैसे एक सूत्र में गुंथे हुए अनेक पुष्प अपनी अनेकता लिए हुए भी माला के रूप में एक अद्वितीय ऐक्य का प्रादर्श प्रस्तुत करते हैं" संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओंों की मर्वोत्तम परिणति है। धर्म के समान मह भी प्रविरोधी वस्तु है। वह समस्त दृश्यमान विरोधों में सामंजस्य स्थापित करती है। भारतीय जनता की विविध साधनाओं की सबसे सुन्दर परिणति को ही भारतीय संस्कृति कहा जा सकता है ।" संस्कृति के सम्बन्ध में इतना सभी विद्वान मानते हैं कि मानव समाज की श्रेष्ठ सामनाएं ही उस देश की संस्कृति हैं। श्रेष्ठ सामनाएं क्या है ? इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों की पृथक् २ मान्यताएँ हो सकती हैं 1. पाश्चात्य संस्कृति भोग-प्रधान है। भौतिक विकास को उसमें सर्वाधिक मान्यता है। पूर्वीय और विशेषतः भारतीय संस्कृति त्याग-प्रधान है। इसमें माध्यात्मिक विकास को ही सर्वाधिक मान्यता दी गई है। पाश्चात्य संस्कृति स्म है। सभ्यता ( वरचा विकास) के अधिक कि है । सभ्यता की जहाँ तक बात है वह "मनुष्य कि प्रयोजनों को सहज सभ्य बनने का विधान है और
के फूल०८ डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी "० ०३. बा० हजारीप्रसाद द्विवेदी
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कविवर बनारसी दासायास्कृतिक देन
संस्कृति प्रयोवनातीत अन्तर माननद की अभिव्यक्ति है।" (प्रसंग्रह) अनेकान्त-दर्शन और महिमा द्वारा मिलता.रहा __ कविवर बनारसीदास के सम्पूर्ण साहित्य में मध्यात्म है। भारतीय सन्तों का मनोराज्य बस्तुतः अनुपम है-- प्रधान भारतीय . संस्कृति का उज्ज्वल रूप मिलता है।
"रे मन कर सदा सन्तोष । उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सन्तों से. इस देश की जो संस्कृति
ब्रात मिटत सब दुःख दोष ॥ निधि प्राप्त की थी, उसे अत्यन्त विकसित, परिमार्जित बढ़त. परिग्रह मोहः बाढ़त, अधिक तृसना होति । एवं जमग्राह्य रूप में प्रस्तुत किया। सन्तों की उच्च-भाव बहुत ईधन जरत जैसे, भगिनि ऊँची जोति ।। भूमि पर पहुंचकर कविवर के साहित्य ने वही दशा ग्रहण लोभ लालचि मूढजन सो कहत कंचन दान । की जो सम्प्रदायगत, रूढ़िात एवं जातिगत नाचार-विचारों फिरत भारत नहिं विचारत, धरम-धन की हान ॥ की तंग गली की उपेक्षा कर सम्पूर्ण मानव जगत का दिव्या- नार किन के पाइ सेवत, सकुच मानत संक। . दर्श बन सकती है। बनारसीदास ने मानव-विकास ज्ञान करि बूझे "बनारसि" को नृपति को रक ॥" (मात्मोन्नति) में बाधक जिन तत्त्वो का अनुभव किया
भारतीय संस्कृति का मूर्तरूप समन्वय की चिरन्तन उनका भी निराकरण किया। अनेक मौलिक विवेचनाओं
भावना है। बनारसीदास ने अपने साहित्य में ऊर्ध्वबाहु द्वारा सांस्कृतिक इतिहास में नवीन जीवन का संचार होकर इसकी उदघोषणा की है। पूर्ण सत्य
होकर इसकी उद्घोषणा की है। पूर्ण सत्य का साक्षात्कार किया। शुद्ध ज्ञान की चर्चा करते हुए कविवर उसे ही
॥ करते हुए कविवर उस हा और पूर्ण मुखानुभव सर्व समभाव में ही सम्भव है।" अध्यात्म का प्राधार बताते है
"समन्वयात्मक भारतीय संस्कृति की भावना को जनता में "ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर,
बद्धमूल करने और मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक है कि ज्योति जगी मति होति न मैली ।
हम विभिन्न सम्प्रदायों के उत्कृष्ट साहित्य को भारतीय बाहिज दृष्टि मिटी जिनके हिय,
संस्कृति की अविच्छिन्न धारा से सम्बद्ध मानते हुए उसे प्रातम ध्यान कला विधि फैली ।
अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति और अपना दाय समझे और उससे जे जड़ चेतन भिन्न लिखें,
लाभ उठाएँ। उनके अपने-अपने महापुरुषों को सब का सुविवेक लिए परखें गुन थैली।
पूज्य और मान्य समझे और अपने विचारों को साम्प्रते जग में परमारथ जानि,
दायिक परिभाषा से निकालकर उनके वास्तविक अभिगहें रुचि मानि अध्यातम सैली ॥"
प्राय को समझने का यत्न करें। दूसरे शब्दों में प्राचीन वास्तव में जिनके अन्तरंग में सम्यग्ज्ञान का उदय ग्रन्थों के वचनों के शब्दानुवाद के स्थान पर भावानुवाद हो गया है। जिनकी ज्योति जागृत है; जो शरीर में
की आवश्यकता है।" हमारे भाराध्य क्रान्तद्रष्टा सन्तो ने प्रात्म-बुद्धि नहीं रखते और जो जड़-चेतन को पृथक्-पृथक्
इसी दिशा में सुदीर्घ काल से हमें भव्य सन्देश दिए है। जानते हैं वे ही शुद्ध प्रात्मानुभव करते है ।।
कविवर बनारसीदास ने आज से साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति समभाव प्रधान है। उसमें थम, ही सम्प्रदाय, जाति एवं रूढ़ियों की दल-दल से ऊपर उठ शम और सम ये तीन मूल-तत्त्व हैं। जिस श्रमण संस्कृति कर मानवैक्य की प्रादर्श घोषणा की थीका उज्ज्वल ध्वज बनारसीदास ने फहराया और देश की "एक रूप हिन्दू तुरक दूजी दसा न कोय । गहरी तन्द्रा भङ्ग की वह वरेण्य है-उसी के श्रम आदि मन की दुविधा मानकर भये एक सों दोय ।। ये तीन माघार स्तम्भ है। भारतीय समाजवाद अहिंसा---
१. 'बनारसी विलास' (अध्यात्म पद पंक्ति) २२८ त्मक क्रान्ति' में विश्वास करता पाया है। यही स्वर
२. “भारतीय संस्कृति का विकास (वैद्यक द्वारा)" प्राचार्यों और सन्तों द्वारा हमें बड़ी तीव्रता से अपरिग्रह
ले०-डा. मङ्गलदेव शास्त्री, पृष्ठ ४५ १. “नाटक समय सार" (निर्जराद्वार) छन्द २५ ३. "बनारसी विलास" (फुटकर पद)
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दोऊ भूने भरम में करें वचन की टेक। कवियों के प्रति बनारसीदास का यह उद्घोष आज भी "राम राम" हिन्दू कहें, तुरक "सलामालेक" । वरेण्य हैइनके पुस्तक बांधिए, बेहू प कितेव ।
"मांस' की गरंथि कुच कंचनकलस कहें, एक वस्तु के नाम है, जैसें शोभा-जेब ॥ कहें मुख चंद जो सलेसमा को घरु है। जिनकों दुविधा सो लखें, रंग बिरंगी चाम ।
हाड़ के दसन माहि हीरा-मोती कहें ताहि, मेरे नैनन देखिए, घट घट मन्तर राम ॥"
मांस के अधर मोंठ, कहँ बिम्बफरु है । उल्लिखित पंक्तियाँ कवि के निर्भीक, राष्ट्रीय, सम
हाड़ दण्ड भुजा कहें कोलनाल कामधुजा,
हाड़ ही के थंभा जंघा कहें रम्भातरु है; भाव परक एवं सुलझे हुए दृष्टिकोण की स्पष्ट सूचना देती हैं। अपने पश्चात् वर्ती हिन्दी कवियों (विशेषतः जन
योंही झूठी जुगति बनावें श्री कहावें कवि, कवियों) के लिए तो काव्य-दशा-निर्देशन में बनारसीदास
एते पर कह हमें सारदा को वरु है।
सौंदर्य की यथार्थवादी विवेचना कवि ने प्राज से साढ़े जी का साहित्य एक प्रकाश स्तम्भ ही बन गया है। भैया भगवतीदास, सन्त मानन्दघन, भूधरदास, द्यानतराय एवं
तीन सौ वर्ष पूर्व ही कर दी थी। जो कवि समाज एवं राष्ट्र
के चरित्र का निर्माता एवं नियन्ता कहा जाता है उसके दौलतराम मादि कवियों पर बनारसीदास की माध्यात्मिक
द्वारा उक्तकोटि का स्थूल-अश्लील वर्णन कहां तक उचित एवं राष्ट्रीय भावना की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है।
है? माश्चर्य तो बनारसीदास जी को तब होता है जबकि परवर्ती हिन्दी काव्य जगत को बनारसीदास जी की यह
ऐसे कवि भी स्वयं को सरस्वती का वरद पुत्र मानते हैं अनुपम देन है।
"एते पर कहें हमें सारदा को वरु है।" बनारसीदास जी बनारसीदास जी ने संस्कृति के क्षेत्र में एक और कविता में सरसता और चिन्तानुरञ्जन का विरोध नहीं महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस देश की संस्कृति भोगप्रधान करते । हां, जिन कवियों को सरसता और मनोरंजन निम्न नहीं है फिर भी कवियों में इंद्रियों के भोगों से परिपूर्ण कोटि के अश्लील वर्णनों में ही दृष्टिगोचर होते हैं उनका साहित्य-सृजन की प्रवृत्ति (उस समय) बढ़ रही थी। ही कवि ने विरोध किया है तथा उन्हें ही असमर्थ एवं 'सुन्दरी' सुरा और स्वर्णमय रीति युग में कवि अपनी कुत्सित कवि माना है। समर्थ एवं प्रतिभावान कवि जो कविता का स्वर और मिलाने लगे थे। 'कवि' वह जो देश सरस्वती का सच्चा उपासक है ऐसी धारणा को कभी के चारित्र और संस्कृति को अपनी कविता से सुदृढ़ बनाता प्रश्रय न देगा। स्पष्ट है कि बनारसीदास जी ने कविता है,- इस अपने उदात्त कर्म को कवि समुदाय विस्तृत कर के क्षेत्र में भी एक उज्ज्वल मर्यादा और व्यवस्था के लिए चुका था। सुन्दरियों के अंग-प्रत्यंगों और हाव-भावों क्रान्तिकारी एवं प्रादर्श सांस्कृतिक अभ्युत्थान का सुधाका कामुकतापूर्ण वर्णन कविगण राजामों के दरबारों में सन्देश दिया है। करने लगे थे। कविता प्रायः भौतिक मांसल हो चुकी थी। अंत में निष्कर्ष में हम कह सकते है कि कविवर बनारसीदास जी ने कवि-समुदाय की इस मार्गभ्रष्टता और बनारसीदास का सम्पूर्ण चिन्तन समाजवादी धरातल उत्तरदायित्व-हीन प्रवृत्ति की कटु-पालोचना की तथा का था, समन्वयात्मक था, “वसुधैव कुटुम्बकम्'-का वास्तविक कवि-कर्म (ज्ञातव्य) का मादर्श स्वयं प्रस्तुत था। वे किसी वर्ग, सम्प्रदाय या जाति-विशेष के न होकर किया। बनारसीदास जी ने कवि को सत्य का ही प्रचा- मानव मात्र के अपने थे। उनकी कृतियों में भारतीय रक एवं व्याख्याता माना है। सच्ची प्रतिभा द्वारा सत्य संस्कृति के पुनर्जागरण और नवनिर्माण का जो स्वर हैका चित्रण अत्यन्त रोचक एवं लालित्यमय सर्वथा सम्भव सन्देश है, वह हमें अस्थिरता के विषम क्षणों में सदैव बल है। असमर्थ पौर निम्नकोटि के कवि ही सरसता को ' देता रहेगा। इन्द्रिय भोगों और अश्लील वर्णनों में खोजते हैं। ऐसे
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कार्तिकेय
लेखक - श्री सत्याश्रय भारती
[१]
उस दिन राज सभा में बड़े-बड़े विद्वानों का जमघट था । महाराज ने निमन्त्रण देकर दूर-दूर के विद्वानों को बुलाया था। बड़े-बड़े वेदपाठी ब्राह्मण, और सिद्धांतरहसन विद्वान् एकत्रित हुए थे। खबर थी कि आज महाराज सब विद्वानों के सामने एक गम्भीर प्रश्न रखेंगे, और उस पर विद्वानों का तर्क-वितर्क होगा।
महाराज प्राये । सबने उठकर उनका अभिवादन किया महाराज की उमर क़रीब बत्तीस तेतीस वर्ष की थी। चेहरा गौर और भरा हुआ था छाती विशाल थी। मस्तिष्क से बुद्धिमत्तामलक रही थी माँखों में भी तेज था परन्तु वह ऐसा शुद्ध न था जैसा कि चाहिए ।
1
महाराज के एक तरफ प्रधान मंत्री बैठे थे। उनकी नजर महाराज की तरफ़ थी। ऐसा मालूम होता था कि वे महाराज के किसी इशारे की बाट देख रहे हैं। सभा में शान्ति थी। सभी सोच रहे थे कि, न मालूम कौन सा प्रश्न है ? विद्वानों को मन ही मन यह चिन्ता सता रही थी कि प्राज कहीं विद्वत्ता में दाग़ न लग जाय ।
जब सभी लोग उत्सुकता के साथ आँखें फाड़-फाड़कर महाराज की ओर देख रहे थे तब महाराज ने प्रधान मंत्री को इशारा किया। इशारा पाते ही मन्त्री महोदय उठे धौर धीरे-धीरे किन्तु गंभीर स्वर में बोलने लगे-
"आज महाराज ने एक गम्भीर प्रश्न पर विचार करने के लिए आप लोगों को कष्ट दिया है। यद्यपि महाराज साहिब ने और मैं ने इस प्रश्न पर खूब विचार कर लिया है, फिर भी आप लोग विद्वान है, आप लोगों के तर्क-वितर्क से जो बात तय होगी वह बिल्कुल सत्य होगी। जो प्रश्न महाराज को और मुझे बहुत विकट मालूम होता है, संभव है वह भारको बहुत सरल मालूम हो, क्योंकि भाप लोग विद्या-बुद्धि में बड़े बड़े है जिसका कि हमें सदा भरोसा है।"
पंडितों ने जब अपनी प्रशंसा सुनी तो फूलकर कुप्पा हो गये। भापस में कहने लगे- वाह ! कैसी विनय है। मजी
फूल झड़ते हैं । बड़े पद पर पहुँचकर भी लेश-मात्र घमण्ड नहीं है। जब इस प्रकार फुसफुसाहट फैली तो मंत्री महोदय एक मिनिट को चप हो गये और उसने पूर्ण दृष्टि से महाराज की तरफ देखा । महाराज ने अपनी प्राखें और मुंह इस तरह मटकाया जैसे कोई किसी को शाबासी दे रहा हो। बाद में मंत्री महोदय ने फिर बोलना शुरू किया। "महाराज भाप लोगों से पहिले यह पूछना चाहते हैं कि कोई मनुष्य अगर किसी चीज को पैदा करता है तो उस चीज का पूरा मालिक वह मनुष्य है कि नही ?"
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प्रश्न सुनते ही प्रायः सभी विद्वानों के मुंह पर ईषद्धास्य की रेखा बिजली की तरह चमक गई। एक वृद्ध विद्वान् ने उठकर जरा मुसकराते हुए गम्भीरता से कहा – महाराज ! साप सरीले विद्या-प्रेमी नरेश को पाकर हम लोग सौभाग्यशाली हुए हैं । यद्यपि प्रश्न साधारण है लेकिन साधारण से साधारण बात भी आप विद्वानों की सलाह लेकर मानते हैं, -यह बात असाधारण है। महाराज इसमें सन्देह नहीं कि उत्पन्न हुई वस्तु पर उत्पादक का पूर्ण अधिकार है। हम सब लोग इस बात को मानते हैं ।
वृद्ध विद्वान् की बात सुनकर मन्त्री और महाराज ने इस तरह मुसकरा दिया जैसे कोई व्याथ चिडियों को अपने जाल में फँसा हुआ देखकर मुसकुराता है। इसके बाद महाराज ने मन्त्री से कहा - प्रधानजी, आगे बढ़ो, ! मन्त्री फिर कुछ कहने को तैयार ही हुए थे कि एक तरफ़ से भावाज आई - "ठहरिये मुझे कुछ कहना है।"
अथ से इति तक सभी लोग चौंक पड़े। सबकी नजर एक पतले और लम्बे कद के युवक की तरफ़ पड़ी । महाराज ने कहा- विद्वन्! क्या कहना चाहते हो ? युवक विद्वान् बोला- महाराज उत्पादक होने से ही कोई किसी पीज का मालिक नहीं कहला सकता। यह नियम जड़ या जड़ तुल्य पदार्थों के लिए ही बनाया जा सकता है, न कि चेतन पदार्थों के लिए मनुष्य वेतन पदार्थों का संरक्षक हो सकता है न कि मालिक
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एक छोटी-सी बालिका भो तालियां पीटकर बोल उठी 'नहीं रे ! उनके नाना हैं ही नहीं' 'मजा, मजा। परन्तु गेंदवाले लड़के को यह बात रुचिकर 'बाह ! बिना नाना के भी क्या कोई हो सकता है ?' न हुई। वह बोला, हूँ ! खराब हो जायगी।
'क्यों नहीं हो सकता?' 'तो क्या देखने के लिए है ?'
'उनके बाप ही नाना है। 'खेलना नहीं था तो लाये ही क्यों ?'
'तुम्हें नाना के साथ खेलना है या गेंद के साथ ?-यह 'गेंद वाले लड़के ने सोचा, कहीं मेरी गेंद छिन न जावे कह कर उस बड़े लड़के ने एक लड़के को गेंद दे मारी। इसलिए उसने गेंद पाकिट में रख ली और पाकिट को उसने उठाकर तीसरे पर गोला छोड़ दिया। बस, उस समरहाथ में पकड़कर बोला-'नहीं दूंगा'। अभी तक देने लेने क्षेत्र में नाना की जगह गेंद ने ले ली। गेंद-युद्ध मध्यान्ह की बात ही न थी। लेकिन बात जब निकली तो सभी पर जा पहुंचा, परन्तु कुंवर वहां से टस से मस न हुए। वे लड़के चिल्ला उठे-'क्यों न दोगे ?' परन्तु इसी समय इस मांखें फाड़कर जमीन की तरफ़ देखते हुए इस तरह खड़े समर-क्षेत्र में एक नए सैनिक का प्रवेश हुआ। रहे जैसे कोई पत्थर की मूर्ति हो।
एक पन्द्रह वर्ष का बालक जिसमें सुन्दरता के साथ हष्ट-पुष्टता और चञ्चलता के साथ गाम्भीर्य था, वहां रानी ने अपने बाल्य-जीवन पर पर्दा डाल रक्खा था। पाया । उसे देखकर सब लड़के शांत हो गए। जिसकी गेंद राज-महल में किसी की ताकत नहीं थी जो उसके छड़ाई जा रही थी वह लड़का बोल उठा कुंवर जी, ये बाल्यजीवन की चर्चा मुंह पर ला सके । बड़ी-बड़ी दासियां हमारी गेद छीनते हैं । कुंवर जी कुछ बोलें, इसके पहिले भी जिस ने रानी को इसी घर में अपनी गोद में खिलाया ही एक लड़का बोल उठा-हम तो खेलनेके लिए गंद मांग था, कुछ न कह सकती थीं। श्रावण के दिन थे युवती रहे थे, छुड़ाते थोड़े ही थे। कुंवर ने कुछ न कहकर चुपचाप दासियों को अपने पीहर के दिन याद पाते थे। कदम की अपने पाकिट से एक सुन्दर गेंद निकाली और कहा कि- डाल पर झूला बांधकर झूलने की इच्छा होती थी । मापस लो, इससे खेलो!
में यह चर्चा भी करती थीं, परन्तु छिपकर बाल्यकाल की 'महा ! क्या बढ़िया गेंद है !'
प्रत्येक बात पर्दे में ही होती थी । यह पर्दा-प्रथा रानी को 'उससे सौ गुणी अच्छी है।'
ऐसी ही मालूम होती थी जैसे कि कुरूपा स्त्री को बूंघट एक छोटा लड़का सोच रहा था कि मच्छी गेंदें सबके की प्रथा । नाना ही दिया करते हैं, इसलिए वह उस लड़के से बोला ऐसी कौन माता होगी जिसे अपरी सन्तान से प्रेम न जिसकी गेंद छड़ाई जा रही थी-'लो! कुंवर जी के नाना हो ? फिर माताओं को पुत्रियों से तो ज्यादा प्रेम होता तुम्हारे नाना से भी अच्छे हैं । उनकी गेंद तेरी गेंद से सौ- है। परन्तु रानी को अपनी पुत्री से विशेष प्रेम न था। गनी अच्छी है।' फिर उसने कुवर की तरफ मुड़कर कहा यदि होगा भी तो किसी कारण से उसने प्रकट नहीं किया क्या कुंवर जी ! तुम्हारे नाना ने दी है न यह गेंद ? था। लड़की का कोई भी खेल रानी को अच्छा न लगता
लड़कों में जो सबसे बड़ा और समझदार था उसने था। वह चाहती थी कि मेरी बेटी खेले और हंसे, परन्तु उस छोटे लड़के को धमकाकर वहा-'चुप ऐसी बात मत परन्तु उसे हंसते-खेलते देखकर रानी की मांखों में प्रांस
आ जाते थे। बालिका इसका रहस्य न समझती थी, 'क्यों, इसमें क्या बुराई है ?
परन्तु या तो वह स्वयं रोने लगती थी या हँसना खेलना उसका यह प्रश्न सुनकर सब लड़के अपने अपने मन की बन्द कर देती थी। बात कहने लगे । एक बोला-'जब कुंवर जी के नाना नहीं लड़की के बाद रानी के एक लड़का भी हुमा । रानी हैं तब उनसे नाना की बात क्यों पूछना ?'
के हृदय का सन्तान प्रेम, जो कि हृदय में किसी तरह बंधा 'क्यों ? क्ण रहे नहीं हैं ?'
हुमा था, प्रवाह के जल की तरह बांध फोड़कर बह निकला
कहना।
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कहा-'मां! मैं तुम्हारा भाई है। रानी का माथा ठनका उसने कहा इसका क्या मतलब ?
'मतलब यह कि हमारे तुम्हारे पिता एक ही हैं।'
अब रानी से न सहा गया। उसे चक्कर मा गया । वह जमीन पर गिर पड़ी । लाज का जो पर्दा रानी ने बड़े यत्न से डाल रक्खा था, प्राज सहसा खुल गया।
रानी की कुछ न चली। वह भी उसी प्रेम के प्रवाह में बह चली । वह माता बन गयी । उसे पुत्र, प्राणों से भी प्यारा मालूम होने लगा। लड़के को खिलाने हंसाने में उसका दिन बीतने लगा।
लड़की को भी वह ऐसा ही चाहती थी परन्तु उसे देखते ही उसके हृदय में चिन्ता शोक और पश्चाताप का दौरा हो जाता था। उसे अपने बाल्यकाल की घटनाएं याद माने लगती थीं। पांखों से आंसू निकल पड़ते थे। अब यह कौन कहे कि उसका जी-वात्सल्य प्रांसुओं के रूप में ही बाहर निकलता था ।
पुत्री ज्यों ही चौदह वर्ष की हुई कि उसका विवाह कर दिया गया । अपनी निश्चिन्तता के लिए उसने इस बाल-विवाह की कुछ भी पर्वाह न की। सचमुच इससे रानी को बहुत निश्चन्तता हो गई । अब वह पुत्र प्रेम में अपनी अतीत घटनाएं भूलने लगी। वह पुत्र को जरा भी चितत
और दुःखी न देखना चाहती थी। उसकी प्रसन्नता की एक एक अदा पर वह न्यौछावर होने को तैयार थी।
उस दिन उसका लाल बड़ी देर तक न पाया। भोजन का समय हुआ, वह भी निकल गया, परन्तु रानी का लाल न पाया, रानी को खाना पीना हराम हो गया। दासियों से चिल्लाकर कहने लगी-'मेरे लाल को देखो !' बाहर भी खबर भेजी गई । परन्तु यहाँ से खबर पाई की बड़ी देर हुई कुंवर जी अन्दर पहुँचे हैं । रानी ने बिगड़कर कहाअरे तो कहां गया ? सभी दासियाँ भौंचक्की सी रह गई। इतने में एक दासी ने कहा-अभी तो उस तरफ जाते हुए हमने देखा था। रानी उसी तरफ झपटी। उस तरफ कई कमरे थे। सभी पर बाहर से साँकल चढ़ी थी। सिर्फ एक कमरा जिसकी तरफ लोगों का माना जाना बहुत कम होता था-लटका था । रानी ने जल्दी जाकर उसी को थपथपाया! जोर लगाने पर मालूम हुआ कि भीतर से बन्द है । रानी ने घबराई आवाज में कहा-'भीतर कौन है ?' परन्तु कुछ उत्तर न मिला। सब लोगों ने द्वार पर जोर लगाया। रानी ने कुछ रुंधे गले से कहा-'भैया कार्तिक' ।
अबकी बार मावाज आई 'भाई से क्या कहती हो मां मावाज के साथ ही द्वार खुल गया। कुंवर ने रानी से
दासियों ने इस समय वहाँ खड़े रहना मुनासिब न समझा। कमरे में माँ और बेटे के सिवाय कोई न रहा। रानी होश में थी। रानी ने बड़े करुण स्वर में कहा-बेटा जो हुमा अब वह वापिस नहीं हो सकता। अब इस दुखिया मॉ को और क्यों दुखी करते हो ?'
परन्तु कुंवर ने कुछ उत्तर न दिया । रानी न बड़ी दीनता से कहा-भूल जामो मेरे लाल ! पुरानी बातें भूल जामो ! मैं पापिनी हूँ तो तुम्हारी माँ हूँ और पिशाचिनी हूँ तो तुम्हारी मां हूँ। माता का नाता अमिट और अपरिवर्तनीय होता है।'
कुंवर ने फिर भी मौन रखा । किसी अज्ञात भय से रानी का दिल दहल गया । उसे मालूम पड़ा कि कोई उसके लाल को छीन कर ले जाना चाहता है। उसने झपट कर कुवर को छाती से लगा लिया और अपनी कोमल भुजाओं से इतने जोर से जकड़ लिया मानों किसी छीनने वाले के हाथ से कुंवर की रक्षा कर रही हो।
कुवर को जकड़ कर रानी खूब रोई। कुंवर भी रो रहा था। घृणा से उसका हृदय जल रहा था। साथ ही करुणा की वेदना मी असह्य थी। थोड़ी देर में जब दोनों के मांसू रुके तब रानी ने कहा-'बेटा !'
'मां!'
'तेरा क्या विचार है ? यह कहकर रानी फिर हिलक हिलककर रोने लगी। कुंबर ने कहा
'मां ! तुम रोमो मत ! मैं तुम्हारा रोना नहीं देख सकता। तुम कैसी भी रहो, तुम्हारे विषय में मालोचना करने का मैं अपने को अधिकारी नहीं समझता । तुम मेरी मां हो। फिर भी मैं इस घर में तो क्या, इस राज्य में भी नहीं रह सकता।'
फिर मैं कैसे जीऊँगी? यह कहकर रानी फिर जोर
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१७२
अनेकान्त
जोर से रोने लगी। उसने दोनों हाथों से कुंवर को पकड़ का भी स्वामी होगा। जिम राज्य में नारी जाति सम्पत्ति लिया कुंवर ने कहा
मानी जाती हो उसका दान किया जाता हो, उस राज्य में 'मा ! इस राज्य में हमारा तुम्हारा पवित्र सम्बन्ध भी अन्धेर न हो वही थोड़ा है। मां! ऐसे अन्धेर राज्य में कायम नहीं रह सकता।
कैसे रहूँ ?' 'क्यों ?'
कुंवर की बात सुनकर रानी का हृदय तिलमिला क्योंकि इस राज्य में नारी-जाति सम्पत्ति समझी जाती गया। परन्तु कुंवर का कहना अप्रिय होने पर भी सत्य है। इस राज्य में पिता रक्षक नहीं स्वामी है। यहां पर था। उसने नारी जाति के पददलित हृदय को उत्तेजित पुरुष भोक्ता है, स्त्री भोज्य है । ऐसी हालत में पुरुष नारी किया था, उसे दासता की निद्रा से जगाया था। उसके के साथ जैसा चाहे बर्ताव कर सकता है, वह उसे दान में कठोर शब्द में महिलामों के महत्व का संगीत प्रवाहित हो दे सकता है, बेंच सकता है । इस राज्य में पुत्रियों का विवाह रहा था। नहीं होता, वे दान में दी जाती हैं। अगर दान देने के रानी को अपने ही ऊपर घृणा होने लगी। इसलिए भाव न हों तो वे काम में लाई जाती हैं । जहाँ कन्या-दान नहीं कि वह अपने ही पिता की पत्नी है, किन्तु इसलिए की प्रथा है, वहाँ ऐसा करना गैरकानूनी नहीं कहा जा कि वह पुरुषों की सम्पत्ति है। वह गाय, भैस, की तरह सकता। मां, तुम्हारे साथ जो व्यवहार हुआ सो हुमा इसके किसी एक पुरुष का धन है। अब उसे भी इस राज्य में पीछे मेरी बहिन का भी दान ही किया गया-उसका रहना पाप मालूम होने लगा। उसने कहा-बेटा, जो तुम विवाह नहीं हुआ।
करोगे वही मैं करूंगी। यह राजमहल तो मुझ कारागार रानी ने कहा-विवाह क्यों नहीं हुमा?
ही नहीं वरन् नरक मालूम होता है। कुंवर ने कहा-मां बिना इच्छा के चाहे जिसके साथ बांध देना क्या विवाह है ? जब कोई किसी को गोदान नदी से थोड़ी दूर एक छोटी-सी पहाड़ी थी। उसके करता है तब क्या गाय का विवाह कहलाता है ? ऊपर एक मैदान था । मैदान लम्बा-चौड़ा था परन्तु भूतल
रानी इसका कुछ उत्तर न दे सकी । वह चुपचाप से बहुत ऊँचा न था। पहिले ये मैदान यों ही पड़ा रहता पैर के अंगूठे से जमीन खोदती रही। कुछ देर बाद कुंवर था, परन्तु अब इसकी हालत बदल गई थी। पहिले जो ने फिर कहा
यहाँ पर एक कुंपा था वह बिल्कुल अव्यवस्थित-सा पड़ा ___'मैं गत वर्ष बहिन के यहां गया था । वह रानी है था। अब उसके चारों तरफ ऊँचा चबूतरा-सा बन गया परन्तु क्या भिखारिन के बराबर भी उसे सुख है ? क्या था। उस पर छोटी-छोटी शिलाएं बिछ गई थीं। उसके उसका जरा भी अधिकार है ? यह दुख चुपचाप इसीलिए चारों तरफ एक नाली बना दी गयी थी। कुएं से पानी सहना पड़ता है कि वह पिताजी की सम्पत्ति थी। उन्हें निकालते समय जो पानी इधर-उधर गिरता था वह इस अधिकार था कि वे चाहे जिसको सौंप दें। जब नारियां नाली में से बहकर पास के पौधों में चला जाता था। दान की जा सकती हैं अपने काम में लाई जा सकती हैं, लाइनवार कुछ पौधे लगे थे, जिससे वहाँ का दृश्य एक तब बेची और खरीदी भी जा सकती हैं, पर्थात् नारी एक वाटिका सरीखा हो गया था। उस वाटिका के किनारे एक पशु है।
झोंपड़ी थी। झोंपड़ी में तीन कमरे थे। पहला कमरा रानी ने फिर भी कुछ उत्तर न दिया। कुंवर कहता रसोई घर मालूम होता था; क्योंकि उसमें एक तरफ चूल्हा ही गया-मां ! जब नारी सम्पत्ति है 'उसका कोई न रक्खा था, कुछ मिट्टी के बर्तन थे जिसमें शायद कुछ अनाज कोई स्वामी है तब जिस प्रकार पिता के मरने पर उसका होगा, मिट्टी के दो घड़ों में पानी भी था। कुछ धातु के पुत्र पिता की अन्य सम्पत्ति का स्वामी होता है उसी प्रकार बर्तन एक तरफ रक्खे थे। दूसरे कमरे में रानी रहती थी। पिता की सम्पत्ति रूप उनकी स्त्री का प्रति अपनी माता कमरे में एक तरफ दीवास से लगा हुमा एक मिट्टी का
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१७॥
चबूतरा था जो पत्थरों से सटा था। दिन में यह बैठने के हलका बोझ डालकर शरीर निर्वाह कर लेना चाहता है। काम पाता था और रात्रि में शय्या बन जाता था। थोड़े अथवा जिस मनुष्य ने विशेष स्वार्थ त्याग करके युवावस्था से कपड़े, एक तलवार, दो तीन ताल-पत्र की पुस्तकों के के प्रारम्भ में ही काफी समाज-सेवा कर ली है; अथवा सिवाय इस कमरे में और कुछ न था। तीसरा कमरा भी जिस मनुष्य ने ज्ञान पोर चरित्र में प्रसाधारणता प्राप्त कर इसी तरह का था। इसमें एक धनुष और एक तूणीर ली है। और उसके बल पर जो अपनी प्रात्मोन्नति के साथ बाणों से भरा हुमा टॅगा था । ये तीनों कमरे एक ही लाइन समाजोन्नति का कुछ ठोस काम करता रह सकता है। में थे इसलिए दूसरा कमरा बीच में आ जाता था। इन अगर कोई मनुष्य इन तीन श्रेणियों में से किसी श्रेणी में कमरों के द्वार के पागे एक दालान था, जिसमें तीनों दर- नहीं आता तो समाज पर बोझ डाल कर उसका साधु वाजों के बीच में दीवाल में लगे हुये दो चबूतरे बने हुए थे, बनना अन्याय है । कुंवर ने सोचा-मैं अभी किसी भी जो बैठने के काम माते थे।
श्रेणी में नहीं पाता । इसलिए दूसरी और तीसरी श्रेणी की घर से निकल कर कई मास तक घूमकर कुंवरने अपने योग्यता प्राप्त करने के लिए वे प्रयत्न करने लगे थे। इन रहने के लिए यही स्थान चुना था। अपनी माता के साथ भाठ वर्षों के भीतर कुंवर ने अच्छी समाज-सेवा की थी। रहते-रहते उन्हें यहाँ पाठ वर्ष हो गये थे। आस-पास के माता की सेवा करके गुरुयों का ऋण भी चुकाया था, ग्रामों के कृषक इन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ देखते थे। कुंवर शास्त्र-ज्ञान और अनुभव के बल पर पर्याप्त ज्ञान प्राप्त ने भी यहां पर खेती करना शुरू कर दिया था सबेरे किया था और साधु बनने के योग्य संयम का अभ्यास भी स्नानादि से निवृत्त होकर वे अपने खेत में जाते, वहाँ से कर लिया था। पास-पास के ग्रामों में चक्कर लगाते। किसी को सहायता
[६] की जरूरत होती तो सहायता करते। सबसे क्षेम-कुशल के रानी का जीवन निरुद्देश था । अगर उसका कुछ उद्देश समाचार पूछकर लौट आते । भोजन करने के बाद माता था भी, तो इतना ही कि अपने पुत्र के साथ प्रेम से रहना, के साथ बैठकर कुछ वार्तालाप या तत्त्वचर्चा करते, फिर यहाँ जीवन उसे इतना अच्छा मालूम होता था कि वह अपने खेत पर चले जाते । शाम को लौटकर भोजन करते । इस राज्य-वैभव को बिलकुल भूल गई थी। उसे रानी कहलाने समय दो-चार कृषक आकर उनसे गप-शप करते । प्रास- की अपेक्षा एक कृषक माता कहलाना अच्छा मालूम होता पास ग्रामों में कही कोई छोटा-मोटा झगड़ा होता तो उसे था । वह नहीं चाहती थी कि उसका बेटा राजा बनें, परन्तु ये ही निपटा देते । आज तक किसी ने इनका फैसला यह जरूर चाहती थी कि वह विवाह करले । परन्तु इस अमान्य नहीं किया। सब इनके वचनों को प्रमाण मानते विषय का प्रस्ताव वह पुत्र के सामने कभी रख न सकी। थे। नौ-दस बजे रात तक यही चहल-पहल रहती। रानी अपनी पुत्री से उसने मनभर प्रेम न कर पाया था। भी इसमें भाग लेती थी। इस तरह शान्ति के साथ मां- अब वह उसकी कसर पुत्रवधू से निकालना चाहती थी। बेटे के दिन कट रहे थे।
परन्तु पुत्रवधू मिले कैसे ? एक दिन अवसर पाकर उसने जिस समय कुंवर घर से निकले थे, उस समय एक कुंवर से कहाबार उनके मन में साधु बनने के विचार पैदा हुए थे। 'कुंवर ! जब तुम बाहर चले जाते हो तब मैं यहाँ लेकिन पीछे बहत विचारने पर उनने यही निश्चय किया बैठी-बैठी ऊब जाती हैं। कि इस छोटी-सी अवस्था से ही समाज के ऊपर अपना तो चलो मां! गांव में रहने लगें। वहाँ पड़ोस की निरर्थक बोझ डालना अच्छा नहीं। कुंवर के विचारों के स्त्रियाँ तुम्हारे पास बैठा-उठा करेंगी। अनुसार उसी मनुष्य को साधु बनने का अधिकार था- 'परन्तु यह स्थान छोड़ने को जी नहीं चाहता। घर जिसने युवावस्था में समाज की सेवा की है, भौर वृद्धा- में कोई एकाप लड़की होती तो सब सुविधा हो जाती। वस्था में पेन्शन के तौर पर समाज के ऊपर हलके से माँ! अपन गरीब हैं, एक झोंपड़ी में रहते हैं इसलिए
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बहिन को लाना तो ठीक नहीं हो सकता। जीजा का दिन उसने कुंवर से कहास्वभाव भी बहुत स्खा है इसलिए वहाँ जाने को जी भी 'कुंवर ! मेरे लिये क्यों इतना कष्ट उठाते हो?' नहीं चाहता। अगर गया भी तो वे बहिन को इस झोंपड़ी कुंवर ने हँसते-हंसते कहा-'माँ ! इसमें कौनसा कष्ट में कभी न भेजेंगे। उनका इसमें अपमान है। चौथी बात है? दिनचर्या बदल देने में भी क्या कुछ कष्ट है ?' फिर यह है कि किसी भी बड़े मादमी से नातेदारी लगाना मुझे जरा विचार कर कुछ हंसते हुए कहा-'माँ ! अगर बिलकुल पसंद नहीं है। अब तुम्हीं बतायो मां, मैं किसे तुम्हारा थोड़ा-बहुत ऋण चुकाऊँ तो तुम्हें क्या बुरा लगता बुला हूँ?
'बेटा ! तू अपना विवाह क्यों नहीं कर लेता?' 'कैसा ऋण?'
कुंवर हंसे ! परन्तु हंसी में न तो कोई उल्हास था, 'वाह ! क्या यह भी कोई पूछने की बात है ? पुत्र न शोक ! केवल उपेक्षा थी। कुंवर ने कहा
के ऊपर माता का कितना ऋण है, यह तो सभी जानते हैं। ___ 'मां ! आजकल इतने बच्चे पैदा होते हैं, कि उन्हें लेकिन तुम तो ऐसी मा हो जिसने पुत्र के लिये सर्वस्व पालने वाले और पाल-पोसकर सच्चा मनुष्य बना देने वाले खोया। राजपद को लात मारकर कृषक जीवन व्यतीत नहीं मिलते। इसलिए अब और बच्चे पैदा करने की क्या किया । मैं तुम्हारा ऋण तो क्या, उसका व्याज भी नहीं जरूरत है ? रही सांसारिक सुख की बात, सो जब तक चुका सकता हूँ।' मुझ से इंद्रिय-दमन हो सकता है तब तक मैं विवाह करने कवर ! माता के हृदय की ये स्वाभाविक वृत्तियाँ की कोई जरूरत नहीं समझता। माँ, इस विषय में तुम हैं। माताएँ साहुकारी नहीं किया करतीं।' से माफी मांगता हूँ।'
कुंवर लज्जित हो गये। उनने सोचा-मैं जो कुछ रानी ने हंसते हुए कहा-हर बात में तुम तर्क ही
करता हूँ ऋण या व्याज चुकाने के लिये । परन्तु माता के चलाया करते हो । मच्छी बात है । जिस तरह तुम सुखी
उपकार में ब्याज या ऋण का हिसाब नहीं है । वह उसकी रहो मुझे उसी में सुख है।
स्वाभाविक वृत्ति है । कहाँ माँ और कहाँ मैं ? कुंवर के हृदय में कोई स्थायी चिन्ता न बैठ जाय इसलिए रानी ने हंसते-हँसते ये बातें कही थीं । परन्तु वास्तव में उसका मुंह ही हंसा था, हृदय नहीं हँसा था।
सन्ध्या का समय था। रसोई बन चुकी थी, परन्तु दूसरे दिन से कुंवर ने अपनी दिनचर्या में परिवर्तन किसी कारण से कुंवर अभी तक नहीं पाये थे। रानी की कर डाला। वे सबेरे से उठकर काम पर तथा लोगों की चिन्ता बढ़ रही थी। यद्यपि रानी जानती थी कि कुंवर खबर लेने चले जाते थे और ग्यारह बजे लौटकर भोजन किसी दुःखी के काम मे ही लगे होंगे परन्तु वह माता थी करते थे। रानौ इस समय स्वाध्याय, ध्यान और रोटी- वह निश्चिन्त नहीं रह सकती थी। सूर्य अस्त हो गया, पानी करती थी। भोजन के बाद दोनों ही बैठकर कुछ बादलों की ललाई भी मिट गई, परन्तु कुंवर न पाये । धर्म-चर्चा करते थे। कुंवर इधर-उधर के समाचार भी हलका-सा अन्धकार चारों ओर फैल गया। इसी समय थोड़ी सुनाते थे। दो-तीन बजे के बाद रानी फिर काम में लग दूर पर एक आतध्वनि सुनाई दी। रानी चौंक उठी। जाती थी। इस समय कुंवर फिर काम कर पाते थे। इसका उसने देखा कि थोड़ी दूर पर एक लकड़हारिन चिल्ला रही फल यह हुमा था कि रानी को फालतू समय में अकेला न है। लकड़ी का गट्ठा जमीन पर पड़ा है, उसका पाठ-नव बैठना पड़ता था।
वर्ष का बालक उसके पैरों से लिपट गया है और थोड़ी ___रानी को इससे सुविधा तो हुई परन्तु हृदय की अशांति दूर पर एक चीता उनकी तरफ घूर रहा है। रानी को बढ़ गई। मेरे लिये ही कुंवर को इतनी तकलीफ उठानी समझने में देर न लगी। परन्तु हाय ! कुंवर इस समय पड़ती है, इस विचार से उसका हृदय धिक्कारने लगा। एक घर पर नहीं थे।
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किरण ४
कार्तिकेय
रानी ने ज्यादः सोच-विचार नहीं किया। वह झपटकर कमरे के भीतर गई और तलवार उठाकर नीचे उतरी । चीता पास आ गया था । लकड़हारिन ने अपने लड़के को छाती के नीचे वा । अपनी सूखी हड्डियों के शरीर का लड़के तरफ वितानसा तान दिया था। पीता लकड़हारिन के ऊपर पटने वाला ही था कि रानी ने एक लम्बी छलाँग मारकर चीते के ऊपर तलवार का वार कर दिया। परन्तु वार पूरा न बैठा और रानी छलांग मारने से गिर पड़ी ।
चीने लकड़हारिन को छोड़ा परन्तु रानी के ऊपर आक्रमण किया । रानी की गर्दन पर चीते का पजा जम
कर बैठा। फिर भी रानी उठी, उठकर बैठ भी गई परन्तु उसी समय चीते ने पञ्जा वक्षःस्थल पर जमाया, जिसने वक्षःस्थल और पेट को चीर दिया। खून का प्रवाह छूटा । इसी अवस्था में चीते ने रानी को शिकार की तरह उठाया । परन्तु वह उठा ही न पाया था कि एक तीर ने उसे ढेर कर दिया ।
कुँवर ने चीते को ढेर कर दिया, परंतु माता की अवस्था देखकर घबरा गये। लकड़हारिन रो रही थी, परन्तु कुँवर के हृदय में इतना उत्ताप था कि बहने के लिये उनके हृदय में मांसू बचे ही न थे।
[ 5 ]
रानी, अर्धमृतक अवस्था में पड़ी थी। कोठरी मे कुँवर, दो-तीन पुरुष और तीन-चार स्त्रियाँ थी । कुटी के बाहर सैकड़ों स्त्री-पुरुष बैठे-बैठे रो रहे थे। अभी तक रानी के मुंह से एक शब्द भी न निकला था। भाषी रात के समय रानी ने प्रांखें खोलीं। कुछ देर तक कुंवर की
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तरफ देखती रही, फिर धीरे से बोली- 'कुंवर तुम मेरे पीछे राजा से भिखारी हुए मुझे क्षमा करना और पर लौटकर राज्य सम्हालना ।'
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कुँवर का गला रुंध गया था। उनकी भांखें धाँसू बहा रही थीं। बड़ी मुश्किल से उनने कहा माँ ! मैं भिखारी बना, परन्तु अपनी इच्छा से बना । मुझे इसी में सुख मालूम हुआ, परन्तु तुम्हें भिखारी की मां बनने में कौनसा सुख था ? तुम्हें तो मेरे पीछे ही रानी से भिखारी की माँ बनना पड़ा ।
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'कुँवर ! पुत्र होकर के भी तुमने गुरु का काम किया है । तुमने मुझे दासता की नींद से जगाया है । तुमने जो मेरी सेवा की वह तो अलग, परन्तु तुम्हारे इसी काम से तुम उऋण हो गये हो ।'
रानी ने ये बातें बड़ी मुश्किल से एक-एक शब्द पर ठहरकर कह पाई थीं। इसके बाद रानी फिर प्रचेत हो गई और सदा के लिये सो गई । उस भीषण रात्रि में सैकड़ों कण्ठों से निकले हुए करुण क्रन्दन से ग्राकाश गूंज गया ।
दूसरे दिन हजारों श्रादमियों ने मिलकर रानी का अग्नि संस्कार किया। उसी दिन शाम को कुंवर शौच को गये थे। परन्तु फिर वे नहीं लौटे किसानों ने बहुत खोज की, परन्तु वे सफल न हुए।
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अब उस टेकरी पर एक मन्दिर बन गया है, जिसे लोग 'माँ बेटे का मन्दिर' कहते हैं। साल में वहाँ एक बार मेला भी लगता है । कहा जाता है कि अनेक लोगों को माताजी अब भी दर्शन दिया करती है और उस टेकरी के आस-पास कोई जंगली जानवर नहीं आ पाता । क्रमश:
अनेकान्त की पुरानी फाइलें
प्रकान्त की कुछ पुरानी फाइलें अवशिष्ट है जिनमें इतिहास पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं। जो पठनीय तथा संग्रहणीय है । फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जायेंगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा ।
फाइलें वर्ष ४, ५, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४ की हैं अगर आपने अभी तक नहीं मंगाई है तो शीघ्र ही मंगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियाँ घोड़ी ही भवशिष्ट है। मैनेजर 'अनेकान्त' वोर सेवामन्दिर, २१ बरियागंज, बिल्ली
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भगवान कश्यप : ऋषभदेव
श्री बाबू जयभगवान एडवोकेट
बावजयभगवान जैन एम्बोकेट, पानीपत का यह लेख उनकी गहन विद्वत्ता का परिचायक है। जन होते हुए भी वेदों के उत्तम माता माने जाते हैं । इस लेख से ऐसा स्पष्ट है। किंतु मोहन-जोबड़ो को मूति के सम्बन्ध में उन्होंने तीसरे पैराग्राफ में जो लिखा है, वह भारतीय पुरातत्वों के मत से भिन्न है। मतवभिन्न विद्वानों का गुण है। बायोटेलाल जैन एम. प्रार० ए० एस० (जैन पुरातत्व के विशेषज्ञ) ने इस विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे इस प्रकार है, "यह मूर्ति हार कंकरणादि प्राभूषण और कवं लिंग-युक्त है। शिव जी की ई०पू०को तथा बाद की मूर्तियों में इसी प्रकार ऊवलिंग प्रचलित रहा है। जबकि एक मी जैनमूर्ति इस प्रकार उलिंग सहित प्राण तक न प्राप्त हुई है और न कोई प्रमाण ही उपलब्ध है। अतः यह मूर्ति शिवमूति ही है और सब पुरातत्वों ने इसे शिवमूर्ति ही माना है।"-सम्पावक]
वृषभ भगवान् का एक नाम 'कश्यप' भी है। इनका सम्भवतः यह कश्यप पर्वत हिमालय का ही कोई भाग यह नाम सम्भवत: मानव जाति की उस शाखा के कारण मालूम होता है, जहाँ भगवान् वृषभ ने तप किया था। है, जिसमें भगवान का प्रादुर्भाव हुमा और जो विद्वानों के भगवान् की उक्त प्रकार की घोर तपस्या का परिचय विचारानुसार कर्मभूमि की प्रादि में कश्यप (Caspian) हमें शिव, रुद्र, वृषभ व महादेव की ३००० वर्ष ईसा पूर्व क्षेत्र से चलकर ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते भारत के पूर्वी भाग की उस प्राचीन मूति से भी मिलता है जो सिन्धु-उपत्यका मगध देश में पाकर पाबाद हुई । प्रस्तु; भगवान् का नाम के पुराने ध्वस्त नगर मोहन-जो-दड़ो की खुदाई से मिली कश्यप था। इनकी स्तुति करते हुए' जैन मागम में कहा है वह शिर पर त्रिशूल धारण किये हुए त्रिमुखी मूर्ति है, गया है कि "जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है, वैसे ही धर्म- वह सिंह, हाथी, गेंडा आदि अनेक जंगली पशुओं से घिरे प्रवर्तकों में कश्यप श्रेष्ठ हैं। यजुर्वेद में भी तत्सम्बन्धी ऐसा वन में पचासन मुद्रा में ध्यानस्थ बैठी हुई है। ही बखान किया गया है "जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा (इन्द्र)
(इन्द्र) इन्हीं भगवान् वृषभ की तथा इनके परम्परागत मार्ग श्रेष्ठ है, वैसे ही धर्म-प्रवर्तकों में वृषभ श्रेष्ठ है। अमृतदेव (अमृत के चाहने वाले) योगीजन शुद्ध और हर्षित मन से १. उत्तराध्ययन सूत्र २५-२६ नक्खणाणं मुह चंदो पाह्वान करते हुए उसका अभिनन्दन करते हैं।
धम्माणं कासवो मुहं । इन कश्यप भगवान् की दुर्धर तपस्या की एक झांकी २. स्तोकानामिन्दुं प्रति शूर इन्द्रो वृषायमाणो वृषभहमें गोपथ ब्राह्मण' में मिलती है। इसमें वशिष्ठ, स्तुराबाट । विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, भारद्वाज, गंगु, तपस्वी और
धृतघुषा मनसा मोहदाना स्वाहा देवा अमृता भगस्त्य मादि अनेक ऋषियों के तथा उनके तप-पूत गिरि
मादयन्ताम् ।
-"यजु० २०.४६" खंडों का उल्लेख करते हुए कहा है कि, "स्वयम्भू कश्यप
३. गोपथ ब्राह्मण (पूर्व) २.८ । ने कश्यप पर्वत पर तप किया।"
4. mohanjodaro and Indus civilisation-by कश्यप ने यह तप भेड़िया, रीछ, बाघ, लकड़बग्धा,
John marshall-Vol 1 Plate 12 Figure वराह, सर्प, नेवला मादि अनेक क्रूर मौर हिंसक जन्तुओं
N. 17Further excavation at mohanjodaro से घिरे हुए क्षेत्र में किया है । इस कश्यपतुङ्ग के दर्शनमात्र by J. H. Mackay Vol II folate N, XCW से अथवा इसकी प्रदक्षिणा करने से सिद्धि मिलती है। Figure N, 420
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अनेकान्त
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पतियान बाई मन्दिर का द्वार, द्वार पर तोरण में तीन तीर्थकर-मूर्तियां नीचे दाहिनी भोर मकर-वाहिनी गंगा और यक्ष, बाई मोर कूर्मवाहिनी यमुना और यक्ष।
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पतियान दाई (एक भूला बिसरा जैन मन्दिर)
नीरज जैन
मध्य प्रदेश के सतना जिले में सतना नगर से दक्षिण- बार अनमोल मूर्तियां ढोकर ले जाने वाले तथा कथित पुरापश्चिम लगभग ६ मील पर सिन्दुरिया पहाड़ नाम से एक तत्व ज्ञाता अन्वेषकों ने अद्यावधि न केवल इस महत्वपूर्ण सुन्दर पहाड़ी है जिसका विस्तार पूर्व-पश्चिम है। स्थान की घोर उपेक्षा की है वरन् इस मन्दिर की एकमात्र ___उसी पहाड़ी के एक सधारण ऊँचे टीले पर एक भग्न सुन्दर देवी-मूर्ति भी स्थानांतरित करके इस स्थान को मंदिर का छोटा परन्तु पुर्ण सुरक्षित और सुन्दर गर्भालय अस्तित्व-विहीन बना देने के प्रयास में भी संकोच नहीं खड़ा है जिसे पास पास के लोग 'डुबरी की मढ़िया' या किया। 'पतियान दाई' के नाम से जानते हैं।
यह तो इस गर्भग्रह की निर्माण शैली का प्रभाव है कि पुरातत्त्व की चर्चा में इस मन्दिर का उल्लेख शक्ति अपना सर्वस्व खोकर भी आज तक यह खण्डहर अपनी मंदिर के नाम से किया गया है और इस क्षेत्र से एकाधिक गौरव गरिमा से मस्तक उठाए खड़ा हुआ है, और यद्यपि awwwmamannmaan amummmmmmmsww के अनुयायी यतियों की तपश्चर्या की ओर संकेत करते हुए।
यहाँ से जो देवी-मूर्ति उठाकर ले जाई गई है, वह देख पाने ईस्वी प्रथम शती के सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य वट्टकेरिने अपने
का सौभाग्य मुझे अभी तक बात नहीं हुआ परन्तु फिर 'मूलाचार' ग्रन्थ में कहा है, "गिरि गुफामों और वनों में ।
भी इन्हीं अवशेषों में मुझे ऐसे प्रमाण प्राप्त हो गए हैं रहते हुए ये यतिजन यद्यपि भेड़िया, रीछ, बाघ, चीता, मग ।
जिनके आधार पर मैं इसे जैन मन्दिर कहने का साहस कर भैसा, वराह, सिंह, हाथी आदि जंगली पशुओं से घिरे रहते
पा रहा हूँ। हैं; उनकी भयानक चीख-चिंघाड़ों को भी सुनते रहते हैं। यह समूचा मन्दिर बाहर से ६॥ फुट लम्बा, ६॥ फुट परन्तु ये निर्भय बने हुए कभी भी अपने स्वरूप से विच- चौड़ा भोर ७॥ फुट ऊँचा है। यह ऊंचाई सीढ़ी के ऊपर लित नहीं होते :" योगियों के तपस्वी जीवन का यही से लेकर छत की ऊपरी कोर तक की है । भीतर से इस वर्णन 'महाभारत' में दिया हया है। यही कारण है कि गर्भालय की लम्बाई साढ़े चार फुट चौड़ाई पांच फुट, एवं ३ ब्राह्मण ग्रंथों में समस्त जीवों के प्रति मंत्री भाव रखने ऊचाई ६ फुट रह जाता है। चारो दीवारों को के कारण ये 'भूतपति', और पशुओं के मध्य में रहने के इंच मोठे चौकोर शिला खण्ड से ढक कर छत का निर्माण कारण 'पशुपति' नाम से प्रसिद्ध थे।
किया गया है जिसने इस बनावट को बहुत अधिक मजबूत
कर दिया है । इस स्थान को इसी दशा में अब तक सुर१. एयंतम्मि वसंता वय-वग्ध-तरच्छ (च्छु) अच्छ
क्षित रखने में सचमुच इस छत के शिला खण्ड का योग भल्लाणं ।
महत्त्वपूर्ण है। आगुंजिय मासरियं सुणंति सदं गिरिगुहासु । मूलाचार अनगारभावनाधिकार गाथा २४ ।
मंदिर का सामना उत्तर की ओर है और उसी भोर २. महाभारत शान्तिपर्व अध्याय १६२ ।
उसका एक मात्र द्वार है जो केवल दो फुट चौड़ा और ३. ऋषभो व पशूनामधिपतिःताण्ड्यब्राह्मण
साढ़े तीन फुट ऊँचा है। द्वार के दोनों ओर सवा फुट ऊंची १६-१२-३
गंगा यमुना की मूर्तियां कलश लिए हुए-भावपूर्ण मुद्रा में -ऋषभो व पशूनां प्रजापतिः-शतपथ ब्राह्मण
अंकित हैं । दोनों देवियों के वाहन के रूप में मकर और ५-२-५-१७
कूर्म का स्पष्ट अंकन है। इन मूर्तियों के एक हाथ में कलश
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अनेकान्त
तथा दूसरे हाथ में चमर अंकित किया गया है जो इस मंदिर की विशेषता है। देवियों के बड़े होने की मुद्रा विशेष कला-पूर्ण है और शरीर के त्रिभंग को इस संयम के साथ उभारती है कि उसकी प्रतिकृति करने में खजुराहो का कलाकार भी असफल रहा प्रतीत होता है ।
इन दोनों प्रतिमाओं के मुकुट, कुण्डल, रत्नहार, किंकणी, कंगन तथा वस्त्र बड़े सुन्दर बन पड़े हैं, प्रत्येक अङ्गोपाङ्ग, अलंकार, एवं मुद्रा बड़े सुन्दर संयोजन के साथ प्रस्तुत किए गए हैं।
द्वार के दाहिनी घोर, मकर वाहिनी गंगा के पार्श्व में एक चतुर्भुज यक्ष- मूर्ति भामण्डल सहित अंकित है । इस प्रतिमा का एक हाथ खण्डित है शेष तीन हाथों में क्रमश: गदा, नाग, और श्वान अंकित किए गए है।
बायीं ओर कूर्म वाहिनी यमुना के पार्श्व में भी इसी प्रकार चतुर्भुज यक्ष-मूर्ति भामण्डल सहित दिखाई गई है । इसका भी एक हाथ खंडित है जिसमें किसी चतुष्पद प्राणी की रस्सी रही है, जिसके पैर और पूंछ का आकार अभी भी दिखाई देता है । शेष तीनों हाथों में गदा, कमल और नाग दिखलाये गए हैं।
गंगा यमुना के शिरोभाग से द्वार की बराबरी तक सीधे पाषाण पर साधारण बेलि का अंकन है, और द्वार के ऊपर के तोरण पर तीन दिगम्बर जैन तीर्थकरों का स्पष्ट अंकन किया गया है, जो इस मन्दिर को जैन मन्दिर सिद्ध करता है ।
वर्ष १५
यह मंदिर 'जैन शासन देवियों के स्वतंत्र मंदिरों की श्रृंखला में' सेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की यक्षी 'पद्मावती' का मन्दिर होना चाहिए। इस स्थान का अपभ्रंश नाम 'पतियान दाई भी इस स्थान को 'पद्मावती मंदिर मानने की मेरी धारणा की पुष्टि करता है। द्वार के तोरण पर उत्कीणित पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाओं का अस्तित्व भी इस विश्वास का एक कारण है। जहां तक तोरण पर मध्य में स्थित आदिनाथ की मूर्ति का प्रश्न है, परम मंगल-कर्त्ता प्रादीश्वर के रूप में ऐसे स्थानों पर उनका अंकन साधारणतः पाया जाता है, परन्तु दोनों ओर पार्श्वनाथ का चित्रण साभिप्राय ही हुआ है।
द्वार पर के इस तोरण में दोनों छोरों पर तथा मध्य में, दो-दो स्तम्भों की सहायता से तीन प्रतीव सुन्दर कोष्ठकों का निर्माण हुआ है। इनमें से मध्य के कोष्ठक में वृषभ चिह्नांकित युगादि देव भगवान भादिनाथ की सुन्दर प्रतिमा उत्कीर्णित है तथा दोनों धोर के कोष्ठकों में भगवान पार्श्वनाथ की फणावति सहित प्रतिमाएँ बनी हैं। ये तीनों मूर्तियां ५ इन्च ऊंची पचासन विराजमान हैं सौम्यता, । मनोजता और शारीरिक अनुपात की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ सुन्दर हैं ।
इस मंदिर के भीतर एक सुन्दर और सुसज्जित देवी प्रतिमा विराजमान थी जो सभी लगभग बीस वर्ष पूर्व यहां से हटाई गई है, अस्तु इस आधार पर मेरा अनुमान है कि
गुप्तकाल में सतना के आस पास भुमरा के एक मुख शिव, नचना के चतुर्मुख शिव और पार्वती मंदिर तथा सौरा पहाड़ के जिनबिम्बों के निर्माण के काल में धर्मायतनों के माध्यम से कला के प्रदर्शन की सत्यं शिवम् के साथ सुन्दरम् के सविशेष प्रदर्शन की होड़ सी लग गई थी। नचना का अति सुन्दर पार्वती मंदिर एवं उसके भग्नावशेष भी इसके प्रमाण हैं । यदि उसी समय जैन- वास्तु निर्माताओं में भी इस भावना ने जोर मारा हो तो इसे स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए। जैन मूर्ति विधान में उपास्य देव की गृहस्थ अवस्था का अंकन या उनके माता-पिता की मूर्तियों का निर्माण कभी प्रचलित नही रहा, केवल भित्ति चित्रों में दक्षिण के तिरुपत्तिकुनरम जिन कांची-प्रादि कुछ स्थानों में ऐसे चित्रण मध्य युग के प्राप्त हुए हैं ऐसी अवस्था में सम्भवतः कला की अभिव्यक्ति की लौकिक एषणा पूरी करने के अभिप्राय से ही जैनवास्तु-निर्माताओं ने जैन शासन देवियों के स्वतन्त्र मंदिरों के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया होगा ।
सतना से लगभग सत्तर मील दूर कटनी के पास बिलहरी नामक स्थान में भादिनाथ की शासन देवी च स्वरी' का एक स्वतन्त्र मन्दिर स्थित है जिसका उल्लेख प्रसिद्ध पर्यटक मुनि कांतिसागर जी ने अपनी पुस्तक खण्डहरों का वैभव' में किया है। विलहरी का प्राचीन नाम 'पुष्पावती' भी कहा जाता है और वहाँ का उपरोक्त मंदिर पूर्व मध्यकाल की कलचुरी कला की देन है।
सम्भवतः सतना का यह पद्मावती मंदिर उक्त चक्रे
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किरण ४ पतियान बाई
१७६ श्वरी मंदिर से पूर्व का बना है। मेरी इस घोषणा के दो की सीमा का उद्घोषक होने के कारण गंगा-यमुना का कारण हैं। एक तो यह कि यहां पास-पास गुप्तकालीन अनिवार्य-प्रडून करके ही मानों कलाकार ने छेनी को कृत अवशेष अधिक पाये जाते हैं और मध्यकाल में यहाँ बहुत कृत्य मान लिया है। तोरण के नीचे स्तम्भों पर मिथुनकम निर्माण हुआ है, दूसरे उस पद्मावती मंदिर की निर्माण युगल, या भक्ति के व्याज से अप्सरानों का सौन्दर्याकन पद्धति भी उस धारणा को पुष्ट करती है।
उसे तब अभीष्ट नहीं था। गर्भालय भी जितना भीतर गुप्तकाल के उपरान्त कलाकार की दृष्टि कला की अलंकार विहीन है। बाहर भी उतना ही सादा होकर मात्मा से उठकर उत्तरोत्तर कला के शरीर की ओर वीतरागता का उद्घोष कर रहा है। आकृष्ट होती चली गई है। जैन, शैव, वैष्णव और शाक्त इस प्रकार प्राप्त प्राधारों पर और साधारण सभी प्रकार के मंदिरों के निर्माण में इस भावना का असर से मेंरी धारणा है कि यह स्थान पद्मावती-मन्दिर ही है स्पष्ट दिखाई देता है। मध्य युग में दसवीं ग्यारहवीं और इसका निर्माण उत्तर गुप्तकाल अथवा पूर्व मध्यकाल शताब्दी में--खजुराहो तक पाते तो ऐसा लगता है कि में हुआ होगा। वहां भ्रमण करते हुए एक दिन कोटर की सांसारिकता और स्थूल मांसलता ही जैसे कला का ध्येय एक झाड़ी में मेरे साथी श्री पन्नालाल को एक पाम्ररह गया हो। कलाकार के मानसिक धरातल की अभि- मन्जरी का अवशेष प्राप्त हुआ है जिसका पालेखन बाईसवें व्यक्ति के उस जन-मानस-समर्थित आधार की पृष्ठ भूमि
तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी देवी अम्बिका के परिकर में में यदि पद्मावती-मन्दिर का निरीक्षण किया जाय तो उसके निर्माण काल का अनुमान करना आसान हो जायगा।
किया जाता है, अतः मुझे आशा है कि इस स्थान पर शोध ऐसा लगता है जैसे सौन्दर्य के पुजारी कलाकार की किये जाने पर संभवतः कुष्ठ और भी सामग्री मिल सकेगी छेनी पर यहाँ संयम का पहरा था । तत्कालीन साम्राज्य और कालान्तर में इस स्थान की महत्ता सिद्ध हो सकेगी।
जैन मित्र की भूल मैं प्रेमचन्द जैन, जनसमाज को सूचित करता हूँ कि जैन मित्र के दिनांक २७-६-६२ के अङ्क में 'वीरसेवामन्दिर देहनी सम्बन्धी सूचना' के अन्तर्गत मेरे नाम से जो कुछ छापा गया है, वह भ्रमात्मक है। जैनमित्र के सम्पादक ने मेरे पत्र के आशय को बिना समझे, उसे काट-छाँटकर छाप दिया है । मैंने यह नहीं लिखा कि 'ट्रस्ट की ओर से हमने किसी को चन्दा मांगने के लिए नहीं भेजा है।' यह वाक्य सम्पादक ने अपनी भोर से ही जोड़ा है।
जैन मित्र के दिनांक .-१०-६२ के अङ्क में 'खेद-प्रकाशन' शीर्षक के अन्तर्गत जो यह लिखा गया है कि"पं० बलभद्र जी वीरसेवा मन्दिर में महीनो मे काम कर रहे हैं", बिल्कुल गलत है। वीर सेवामन्दिर ने पं० बलभद्र जी को कभी नियुक्त नहीं किया, न वह वीरसेवामन्दिर में काम कर रहे हैं और न वीरसेवामन्दिर ने उन्हें चन्दा के लिए कही भेजा था।
जैन मित्र ने इसी अङ्क में आगे चलकर लिखा है, "लेकिन प्रेमचन्द जी वीरसेवामग्दिर के सदस्य नहीं हैं।" इस विषय में इतना बताना पर्याप्त है कि मैं वीरसेवामन्दिर का आजीवन सदस्य हूँ और उसका मन्त्री हूँ। मैंने जो सूचना जैनमित्र मे भेजी थी, वह वीरसेवामन्दिर की मोर से भेजी थी, ट्रस्ट की ओर से नहीं। अच्छा हो यदि जैनमित्र के सम्पादक सूचनाओं का ठीक सारांश दिया करें। उन्हें शायद यह विदित नहीं है कि वीर-सेबा-मन्दिर एक पब्लिक संस्था है और वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट एक व्यक्तिगत ट्रस्ट है।
मन्त्री वीरसेवामन्दिर, दिल्ली
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आदिकालीन 'चर्चरी' रचनाओं की परंपरा का उद्भव और विकास
लेखक-डा. हरीश
[गतांक से मागे)
इस उद्धरण में चर्चरी शब्द गायक टोलियों या में चर्चरी को वसन्त गान बताया है। वे टोलियाँ जो उत्सव मंडलियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार शेष वसन्त में चर्चरी प्रस्तुत करती हैं जिनके साथ तूर्य आदि दो उद्धरण देखे जा सकते है :
वाद्य बजाये जाते थे। पर ये टोलियां किकर जेसे निम्नस्थ ३: अन्नयायं समागमो वसन्त समयो।-सुइ सुह वर्ग की होती थी। सुवन्तचच्चरीतूरमहुरनिग्योसो।
चर्चरी सम्बन्धी अन्य प्रमाण, जो प्राचीन ग्रन्थों में (इसके बाद वसन्त समय मा पहँचा ।-कैसा? उपलब्ध होते हैं, संक्षेप में इस प्रकार हैं। इन उल्लेखों अनेक विशेषणों में से एक विशेषण प्राप्त करता है जो में चर्चरी सम्बन्धी अर्थों में परिवर्तन मिलते है । पर्चरी का चर्चरी और तूर्य वाद्य को सुन कर मधुर निर्घोष श्रुति दूसरा अर्थ एक प्रकार का गीतविशेष है। सुख देने वाला होता है ऐसा'।
श्री हेमचन्द्र प्राचार्य अभिधान चितामणि' में लिखते ४: एवं गुणाहिगमे य पवत्ते वसन्त समए सो सेण हैं :-शुभाकल्या चर्चरी चमरी समे ये वस्त्र प्राप्त कर कुमारी किलानिमित्तमेव विसेसज्जलनेवच्छेण संगयो उसकी वृत्ति में चारुमयते अनया--(जो बड़े चार थे, ऐसे परियणेणं पयट्टो अमरनन्दणं उज्जाणं । दिवो य-पवज्ज- सुन्दर बोलों वाली शुभ वाणी चर्चरी ।। माणेयाँ वसन्तचच्चरीतूरेणं नच्चमाणेहि किकरगणेहिं १. अभिधानचितामणि (२-१८७) हेमचंद्राचार्य । एरावणगो विय तिय सकुमार परियरिमो देवरायोक्ति
२. प्राकृतापभ्रंशादिभाषायां चच्चरी, चार्चार, इति(इस प्रकार के गुणों से सुन्दर वसन्त समय के आने नाम्ना संस्कृतभापायां च चर्चरी इति सशया प्रसिद्धाया पर वे सेनकुमार क्रीड़ा के लिए ही विशेप उज्ज्वल नैपथ्य गीतेनत्य पूर्वगान क्रीडन गुम्फनादिपद्धतिः प्राचीना परिज्ञायते वाले परिजनों सहित अमरनन्दन उद्यान में प्रवृत्त हुए और यतः कविकालिदासो विक्रमोर्वश्याश्चतुर्थे ग्रंके प्रभूतानि चर्चरी उन्होंने देखा (क्या? माने) वसन्त की चर्चरी गायक पदान्यपभ्रंशभाषायां व्यरचयत् । हरिभद्रसूरिः समरा टोलियों के बजते हुए तूर्य वाद्यों पर नाचते हुए किंकर दित्यकथाऽदो दाक्षिण्यचिह्रोद्योतनाचार्यः कुवलयमाला कथागण के साथ ऐरावत हाथी पर बैठा हुमा त्रिदशकुमारों दौ, शीलांकाचार्यश्चतुष्पंचाशन्महापुरुषचरिते, कविः श्री अर्थात् देवकुमारों के परिकर वाला देवराज अर्थात् इन्द्र हर्षो रत्नावलीनाटिकायाः प्रारंभे चान्यत्र स्मरंति स्म चर्चरी हो, ऐसा
मा। पिंगलनागहेमचन्द्रादयः प्रतिपादयन्ति स्म चर्चरीइस प्रकार इस विवेचन में तृतीय उद्धरण में चर्चरी लक्षणानि निजच्छन्द. शास्त्रच्छन्दोनुशासनादौ । का अर्थ सुन्दर वाद्यगान करके उसे मधुर निर्घोष श्रुति प्रसिद्धं यत् खलु कवि सोलणकृता चर्चरी इत एव प्रकासुख देने वाला कहा गया हैं । अन्तिम या चतुर्थ उद्धरण शितप्राचीनगूर्जरवाव्यसंग्रहे। उपलभ्यते चान्या पत्तनीय
जैन भाण्डागारादी वेलाउली (विलावल) रागेण गीयमाना १. समराइच्च कहा : प्रो० हर्मनजैकोबी संपादित
शत्रुञ्जय माउनादि जिनस्तुतिरूपा पंचत्रिशगाथाप्रमाणापृ० ६३६ ।
प्रायो विक्रमीयचतुर्दशशताब्दीसम्भवा, इतरा च गूर्जरी २. समराइच्च कहा : प्रो० जेकोबी, पृ० ६३८ । रागण गीयमाना गुरु-स्तुति रूपा संक्षिप्ता पंचदशगाथा
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किरण माविकालीन 'परी' रचनामों की परम्पराका पदभव और विकास
११ अपभ्रंश काव्यत्रयी में चर्चरी पर बहत विस्तार से शब्दों आदि के रूप में मिल जाते हैं। वस्तुतः ये नाम विचार किया गया है तथा उसमें जिन-जिन विभिन्न विद्वानों अत्यन्त प्रसिद्धि-प्राप्त गीत, नृत्ययुक्त गान-क्रीड़ा गुदनादि द्वारा चर्चरी का प्रयोग किया गया है उनका भी उल्लेख पद्धति की भांति प्राचीन हैं। महाकवि कालिदास ने है। अपभ्रंश काव्यत्रयी के साथ-साथ कुवलय माला कथायाम् 'विक्रमोर्वशीय' के चौथे अंक में बहुत से चर्चरी-पद्यों की में भी चर्चरी को सम्बोधित करते हुए उल्लेख मिल जाता रचना अपभ्रंश भाषा में की है। हरिभद्र सूरि ने भी
'समराइच्च-कहा' के प्रारंभ में, उद्योतन प्राचार्य ने 'कुवलयइस प्रकार प्राचीनकाल में चर्चरी का स्वरूप जिस माला-कथा' के पूर्वार्द्ध में, शोलंकाचार्य ने 'चउप्पान्न महाप्रकार का गीतिशिल्प लिए था, उसकी प्राचीनता और पुरिसचरिय' में, सर्वश्री हर्ष ने रत्नावली-नाटिका के प्रारंभ चच्चरी-चांचरि इस नाम की सार्थकता के प्रमाण प्राकृत में और भी अन्य कइयों ने चर्चरी का वर्णन किया है। और अपभ्रंश में चच्चरी-चाचरि और संस्कृत में चर्चरी हेमचंद्राचार्य के पहले के प्राकृत और अपभ्रंश ग्रन्थ कर्तामों
ने भी चर्चरी का वर्णन किया है । वस्तुत. यह चर्चरी गीत परिमिता।
बहुत ही प्रसिद्ध गीत रहा है। विक्रम की दशवी शताब्दी यमकालंकाराद्यलंकृता प्रस्तुता चर्चरी तु सप्तचत्वारिं- में धनपाल विरचित भविसयत्तकहा में भी इस गीत का शत्पद्यप्रमिता जिनवल्लभसूरिस्तुतिरूपा चैत्यविधि उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त और भी प्रधाना संस्कृतवृत्तिसमन्विता वृत्ति कृत्सूचनानुसारेण पढ़ कई तथ्य, जो चर्चरी शब्द की महत्ता विभिन्न रूपों में (ट) मंजरीभाषया नृत्यद्भिर्गीयमाना च ज्ञायते । पट- स्पष्ट करते हैं, व्यवहृत हुए हैं। मंजरीरागो ऽसूचि खलु नारदकृते इत एवं प्रकाशिते संगीतमकरंदादी दृश्यन्ते प्रभूतानि पटमंजरी पद्यानि विक्र. २. घरि घरि मंगलई पघोसियाई, घरि घरि मिहणई मीय सप्तमशताब्दीसम्भूतं लईपाद प्रभृतिभिवरचितेषु
परिमोसि प्राई चर्चचर्यविनिश्चयादिपु श्रीयुत महामहोपाध्याय हरिप्रसाद धरि धरि तोरणई पमाहियाई, घरि घरि सयण शास्त्री महाशयः सम्पादिते बगीय साहित्य परिषदा
अप्पाहियाई। प्रकाशिते बौद्धगाने प्रौ दोहा संज्ञके पुस्तके वि० सं० १३५८ घरि घरि बहुचंदनच्छडय दिन्न, मरू कुदवणयदवणाय वर्षे पटमंजरी भापया रचितं गौतम चरित कुलक मुपालभ्यते पत्तनीय जैन भाण्डागारे । अनेन पट (ढ) मंजरीरागस्य घरि घरि सरेणुरइ पिंजरीउ, सोहंति चूयतरूमंजरीउ चिरात् प्रतिष्ठाऽवसीयते । (अपभ्रंश काव्यत्रयी पृ० ११४
घरि घरि चच्चरि कोहलाइ, सी० डी० दलाल, भूमिका भाग)।
घरि घरि अंदोलय सोहलाहिं । १. जहातेण केवलिया अरणं पएसिऊण पंचचोरसयाई
घर परि कयवत्या हरण सोह, रासणच्चणच्छलेण महामोहगहगहिपाइं अक्खिविऊण
धरि धरि पाइद्ध महाजसोह । इमाए चच्चरीए संबोहियाई । प्रविय
घता-घरि घरि जस मंगल कलस किय घरि घरि घर संबुज्झह किण्ण बुज्झह एति लएवि मा किचि मुज्झह
देवय अवयरिय। करिउ जं करियव्वयं पुण दुक्कइ तं भरिमव्वयं ॥ घरि घरि सिंगार वेसु धरिणि नच्चउ बरजुवइहिं उत्थरिवि कसिणकमलदललोयण चलोह तउ पीण-पिहुलथण
(भविसयत्तकहा-८-६। कडिमल भार । किलंतउ (घर-घर मंगलों का प्रघोष था, घर-घर वर वधू की तालयलि रयलयावलिकलयलसद्दउ रासयम्मि जइ- जोड़ी परितुष्ट थी। घर घर तोरण बंधे थे, घर-घर लन्भइ जुप्रतीसत्थउ संबुज्झह किण्ण बुज्झह,पुणोधुवयं मनुष्य आत्महित साधते थे, घर पर चंदन का छिड़काव (कुवलयमाला कथायाम्)
होता था। और मरवे के वृक्ष कुंदवन में होने वाले
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१८२
अपभ्रंश के चर्चरी-ग्रन्थों के भाष्यों में चर्चरी शब्द का अर्थ स्पष्ट होते है। ' हिन्दी शब्द सागर ने भी इन्हीं कोष अर्थ खल बताया गया है। जिनदत्तसूरि की एक चर्चरी ग्रन्थों के अर्थों का समर्थन किया है। में उसके टीकाकार श्री जिनपाल उपाध्याय ने लिखा है कि
वास्तव में इन पर्थो से यह स्पष्ट होता है कि चर्चरी यह भाषा-निबद्ध-गान नाच-नाच कर गाया जाता है । इस
एक प्रकार का गीत विशेष था जो समूह में गाया जाता पर्चरी का प्रथम पद इस प्रकार है
था। यह ज्ञान इतना अधिक लोक प्रचलित था कि इसे कवव प्रउववु जुविरबइ नवरसभरसहिउ लोकगीत की संज्ञा सरलता से दी जा सकती है। वास्तव लद्ध पसिद्धिहि सुकइहि सायर जो महिउ
में इसकी पुष्टि १३वीं शताब्दी के जिनदत्त सूरि नामक जैन सुकह माहुति पसंसहि जे तसु सुहगुरूह
संत कवि ने लोक प्रचलित चर्चरी और रासक जाति के साहु न मुणइ भयाणुय मइजिय सुरगुरुहु । गीतों का सहारा लिया था, इस तथ्य से होती है ।चर्चरी
उन दिनों जनता में बड़े चाव से गाई जाती रही होगी। चर्चरी शब्द की व्युत्पत्ति का अनुमान (पा० चच्चर)
श्री हर्षदेव की रलावली तथा बाणभट्ट की रचनाओं से भी चोरट्टा-चौटुं, चौक से भी किया जा सकता है, (जहां
चर्चरी गीत की सूचना प्राप्त होती है । १२ वी शताब्दी लोग इकट्ठे होकर नृत्य सहित गान करते हैं)। नृत्य
में सोमप्रभ ने वसन्त काल में चर्चरी का गान सुना था। सहित गाने वालों के समूह को भी चर्चरी कहते है। संस्कृत में चर्चरी का अर्थ है हाथ की ताल की आवाज १३वीं शताब्दी के लवखण नामक कवि ने यमुना नदी
और इस कारण भी उसका यह नाम पड़ा हो यह असम्भव के आस-पास बसे रायवड्डिय नगर का वर्णन किया है। नहीं है संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में चर्चरी के कई अर्थ दिए हुए हैं।' पाइयसद्दमहण्णवो' में चर्चरी के अनेक प्राचीन १-देखिये पाइयसद्दमहण्णवो-पं. हरगोबिंददास
सेठ कृत-पृ० ३६७ । चच्चरिया (स्त्री०) (चर्चरिका) दवणा जैसे फूल फूल रहे थे। घर घर रेणु (रज) नृत्य विशेष (रंभा) सहित रति पिंजरित (व्याप्त) रहने वाली) पाम्रतरू की चच्चरी-स्त्री [चर्चरी] १. गीत विशेष, एकप्रकार मंजरी शोभा पाती थी, घर-घर चर्चरी कौतूहल थे। का गान-"वित्थरिय चच्चरीरव मुहरिय उजाण घर-घर हिंडोले खाते हुए झूलते हुए सोहला गाते थे, भु भागे" (सुर ३,५४) । "पारंभिय चच्चरीगीया" (सुपा घर-घर वस्त्र-आभूषणों की शोभा की गई थी। घर-घर ५५) । २. गाने वाली टोली, गाने वालों का यूथ "पवत्ते महान यश के पोधभरे थे। घर-घर रूप से रंजित मनवाली मयण महसवे निग्गयासु विचित्तवेसासु नयर चच्चरीसु कह युवतियाँ दर्पण सहित देखती थी, घर-घर यश के मंगल नीय चच्चरी अम्हाणा चच्चरीये समासन्नं परिव्याइ" (स० कलश सजाए हुए थे। घर-घर देवता अवतरित थे और ४२) । ३. छन्द विशेष (पिंग)। ४. हाथ की ताली की घर-घर श्रृंगार वेश धारण करती हुई उत्तम युवतियों आवाज । ने नाच प्रारंभ किए थे। (भविसयत्तकहाधनपालकृत ८-६) २-चच्चरी संज्ञा (स्त्री) सं० १-भ्रमरा, भंवरी,
१. देखिए अपभ्रंश काव्यत्रयी-श्री सी० डी० २-चांचरि होली में गाने का यह गीत, ३-हरिप्रिया दलाल---प्रस्तावना भाग।
छंद ४-एक वर्णवृत्त । चचरा । चंनली। विबुध प्रिया २. संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ-संग्राहक द्वारका प्रसाद ५-छब्बीस मात्रामों का एक छन्द-संक्षिप्त हिन्दी शब्द शर्मा चतुर्वेदी चर्चरिका (स्त्री०) १-गीत विशेष, सागर-रामचन्द्र वर्मा पृ० ३४७ । २-ताल देना । चर्चरी-पंडितों का पाठ ३-उत्सव के ३. पसरन्त चार चच्चरिय भालु । जनपद-वर्ष १, समय का खेल ४-उत्सव का उल्लास ५-उत्सव ६- अंक ३, पृ०५-८ चापलूसी, ७-धुंघराले बाल ।
५. जउणा गइ उत्तर तडित्य रायवड्डिय-वही ।
नागा
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माविकालीन 'चरी' रचनामों की परम्परा का उदमन और तिकास
११ प्रागरे के पास स्थित सम्भवतः इस पुर में कवि ने नगर के (२) सं० ११६९ में लक्ष्मणगणि द्वारा विरचित चौराहे का वर्णन किया है, जो चर्चर ध्वनि से उद्दाम था। सुपासनाहचरिय में भी चच्चरी का उल्लेख मिलता हैश्री अगरचन्द नाहटा का मत है कि रास की भांति तवल तवणीय-दंड-ऊसिय-चीणांसुय-धय-सहस्स-रमणीया। एवं नृत्य के साथ विशेषतः उत्सव आदि में गाई जाने वाली रमणीय-रमणि-सहरिस-पारंभिय चच्चरी-गीया ॥२३,५५ रचना को चर्चरी संज्ञा दी गई है।
तपाकर शुद्ध किए हुए सोने के दंड ऊपर ऊंचे किए इन सब उल्लेखों के अतिरिक्त चर्चरी का एक छन्द हुए चिनाइ कपड़ क सहस्रा रमणाय धय (ध्वज
न हुए चिनाई कपड़े के सहस्रों रमणीय धय (ध्वज) और विशेष के रूप में भी वर्णन मिलता है। यह वणिक छन्दों
सहर्ष चर्चरी गीतों को प्रारम्भ करने वाली रमणीक रम
सह में समवृत्त का एक भेद है। मानु के छन्द प्रभाकर में इस
णियों वाली (वाराणसी नगरी)। चर्चरिका छंद का लक्षण रस जब भरगण के योग से बनता
(३) सं० १२११ मां जिनदत्तसूरि ने अपने गुरु श्री है जिसका रूप (15, 15, 11, 151, 51, 5Is) है। प्राकृत
जिनवल्लभसूरि के लिए गुरु स्तुति अपभ्रंश और तत्कालीन पिंगल में (देखो २:१८४) इस छन्द का नाम चर्चरी मिलता
देशी भाषा मे की है। है। छंदोनुशासन (देखो हेमचन्द कृत २:३१२, ३१२) में
उस पर संस्कृत में सं० १२९४ में जिनपाल उपाध्याय उज्जवल, छन्द : सूत्र (८-१६) में विबुध प्रिया आदि नाम
ने एक भाष्य लिखा है । उन्होंने उस स्तुति का नाम चर्चरी मिलते है। आलोचकों ने इस चर्चरी छन्द का शिल्प इस
रक्खा है । यह प्रथम मंजरी भाषा' में तथा नृत्य के सहित प्रकार माना है। इस छन्द में १०,८ वर्गों पर यति होती
गाई जाती हैं। उन्ही जिनपाल उपाध्याय ने जिनदत्तसूरि है पर पिंगल में ८,१० वर्णो पर यति मानी है। इसका
के अपभ्रंश काव्य नाम से 'उपदेश धर्म-रसायन-रास' नामक मात्रिक रूप गीतिका छन्द है।
संस्कृत टीका रची है उसके प्रारम्भ में बताया गया है
चर्चरी-रासक-प्रख्ये प्रबन्धे प्राकृते किल । उक्त प्रमाणों के अतिरिक्त प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध
वृत्ति प्रवृत्ति-माधत्ते प्रायः कोऽपि विचक्षणः ।। चर्चरी सम्बन्धी और भी जितने प्रमाण तथा विभिन्न अर्थ
(४) 'प्राकृत-पिंगल' में चर्चरी नामक एक छन्द सूचक विवरण एवं वर्णन मिलते हैं वे इस प्रकार है ।
विशेप है। प्राकृत पिगल सूत्र तथा हेमचन्द्र अपने ग्रन्थ (१) सं० १०६४ में चन्द्रावती में धनेश्वर सूरि द्वारा छन्दोनुशासन में २३१ वें पद्य में चर्चरी का लक्षण इस विरचित प्राकृत सुरसुन्दरीचरिय ग्रन्थ में चच्चरी का
प्रकार स्पष्ट करते हैं-आदि में रगण (गालगा) फिर उल्लेख देखिए
सगण (ललगा) फिर एक लघु फिर ताल आदि गुरु विकल तो एरिसे वसंते दिसि-दिसि पसरंतपरयासद्दे।
मध्य में हो । फिर एक गुरु । फिर एक लघु और एक गुरु, वित्थरिय-चच्चरी-रव मुहरिय-उज्जाण-भूभागे ॥३,५४ दो लघु एक गुरु, एक लघु और एक गुरु-उद्धृत पद
इस प्रकार की वसंत ऋतु में दिशा-दिशा में कोयल के को देखिए - शब्द प्रसारित हैं और विस्तार को प्राप्त हुए चर्चरी के रव .
१. पटमंजरी नामक राग नारद कृत संगीत मकरंद में से मुखरित उद्यान के उस भूभाग में-(आवाज करते थे)
बताई गई है। वि. की ७वीं शताब्दी में हुए अनेक कोलंत कामिणी-यण रणंत-नेउर रवेण तक
पटमंजरी काव्य यथा लूइपाद विरचित चर्याचर्य नियरो (तरुणी-नियरो)
मादि काव्य महामहो० हरप्रसाद शास्त्री द्वारा सम्पामयण-महसव-तुट्ठो गायइ इव चचरि जत्थ ॥३,१०८
दित तथा बंगीय-परिषद् द्वारा प्रकाशित बौद्ध गान 'चच्चरी-सद्द जच्चंत बहु-वामणं' ॥३,३१५
और दोहा अन्य में मिल जाते हैं। पदमंजरी भाषा १. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक में सं० १३५८ में रचा हुमा एक अपभ्रंश का काव्य ४ सं० २०१०, पृ० ४३२ पर श्री अगरचन्द नाहटा लिखित है उससे स्पष्ट होता है कि पट-मंजरी भाषा में प्रणीत प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संज्ञाएं-लेख ।
रागों की प्रतिष्ठा अवश्य रही होगी।
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वर्ष १५
'माइ रग्गण रत्य काहल ताल दिज्जहु मल्हहा, पिभपच्चासह महवा किन्तिउ रत्थावरूणण करिसह निश्चह सद्दहार पसन्त विष्णचि सव्व लोम विबुज्झिमा । मरिसहुँ (राइ) तुहु जसु नासइ (४६) वेवि का हल हार पूरहु संख कंकण सोहणा।
(विरह के सुख से वह न तो देखती न हंसती है परन्तु णामराम भणन्त सुन्दरि चच्चरी मणमोहणा ।।२३२॥ केवल प्रियतम की प्रत्याशा का ध्यान करती या कितना
उक्त पद्य की संस्कृत टीका भूषण में प्रकारान्तर से रथ्यावर्णन करूं वह तो शून्य वर्णन होगा, वह निश्चय ही इस प्रकार मिलती है।
मरेणी और उसका यश नाश को प्राप्त होगा)। हारयुक्त सुवर्णकुण्डल पाणि शंख विराजिता,
चर्चरी छन्द का उदाहरण देखिएपाद नूपुर संगता सुपयोधरद्वय भूषिता ।
चचरि चाच्चवहिं अच्छर किवि रासउ पेस्सहि शोभिता वलयेन पन्नगराज पिंगलवर्णिता,
किवि-किवि गायहिं वर धवलु. चर्चरी तरुणीव चेतसि-चाकसीति सुसंगता ॥
रचहि रचण-सत्थिन कि वि दहि अक्खय गिण(५) प्राकृत पिंगल सूत्र में चर्चरी छंद का उदाहरण
हहि किवि भूमूसवि तुह जिणधवलह (४६) इस प्रकार दिया हुमा है
(जिन वृषभ जन्मोत्सव में कोई अप्सरा सुन्दर चर्चरी पामणेउर झंझणकइ हंस-सद्द-सुसोहिरा,
बोलती है, कोई रास खेलती है, कोई उत्तम धवल मंगल थोव-थोव थणग्ग णच्चद मोत्तिदाम मणोहरा।
गाती है, कोई रत्न के साथ रचती है, कोई दही अक्षत वाम-दाहिण बाण धावइ तिक्ख चक्खु कडक्खिा ,
लेती है)। काहि पूरिस नेह-मंडलि खेह सुंदरि पक्खिा ॥२३२
(८) सं० १२४१ में सोमप्रभ सूरि रचित कुमारपाल (जिसके पैरों में नूपुर हंस शब्द जैसा सुशोभन झन
प्रतिबोध में' भी चर्चरी का उल्लेख मिलता हैकार करता है, जिसके थोड़े-थोड़े नवीन उभरे हुए स्तनों के
ग्रह पत्तु कयाइ वसंतसमउ जो,संजणिय सयलजण चित्तपमयो ऊपर मनोहर मुक्ताहार नाचता है जिसके दाहिनी बाई
उल्लासिय रूक्ख-पवाल-जसु पसरंत चारू चच्चरि च मासु भोर तीक्ष्ण अांख के कटाक्ष वाण की भांति दौड़ते है ऐसी
(फिर एक बार वसंत समय आया। वह समस्त सुन्दरी किस पुरुप के घर की शोभा बढ़ाती है सो तू देख)।
शोकों से मन को मुक्त करने (प्रमुदित) वाला, तथा वृक्षों (६) हेमचन्द्राचार्य ने अपने छन्दोनुशासन के अध्याय
के पल्लव समूह को प्रफुल्लित करने वाला था जिसमें वेल (७,४६) में रथ्या वर्णक छन्द का एक सूत्र दिया है कि
(लता) समान सुन्दर चर्चरी गीत प्रसारित होते थे)। "षचता रथ्या वर्णकं ठजे रितिषण-मात्रमेकं, चतुर्मात्रंस.
(8) मंदेश रासक नाम अपभ्रंश काव्य में चर्चरी पूतकं त्रिमात्रश्च रथ्यावर्ण कं ठजरिति द्वादशभिरष्टभिश्च
संज्ञक कड़ी देखिएयतिः । इस प्रकार एक ६ मात्रा, सात-चार मात्रा और एक
चारहि गेउ मुणि करिवि तालु त्रिमात्र अर्थात् कुल ३७ मात्राओं का रथ्यावर्णक है कि
नरिचयह खउव्व वसंत कालु जिसमें १२वीं और फिर पाठवीं और २०वी मात्रा पर
घणनिविड़हार परिखिल्लरीहि, यति माती है। इसके पश्चात् (७,४७) में चच्चरी ठज:
रूणझुण रउ मेहल किंकिरगीहि जैरिति चतुर्दशभिरष्ठभिश्च यतिश्चेत् तदा तदैव रथ्यावर्णकं बच्चरी। जिसमें १४वीं और २२वीं मात्रा पर यति
(चर्चरी गाकर ताल सहित नृत्य करके अपूर्व वसन्त माती है वह रय्यावर्णक चच्चरी कहलाती है।
काल नृत्य करता पाता है वन निविड़ हारवाली खेतली (७) स्वयंभूछन्दः (४,१६५ तथा १९६) में भी रथ्या
स्त्रियों से उनके मेखला की किंकिणी बड़ी रूणझुण शब्द वर्णक का उदाहरण मिलता है। निम्नांकित उदाहरण में
करती थी)। दोनों का मन्तर देखिए
१. देखिए कुमारपाल प्रतिबोध : सोमप्रभ सूरि, पृ.५४४ विरह रहक्कइ सुहय न जंपहन हसह भावह केवलु २. जैन गुर्जर कवियो-प्रस्तावना, पृ० ५६
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माविकालीन 'पर्चरी' रचनामों की परम्परा का उदजय और विकास
(१०) ढोला मारू रा दोहा में भी चर्चरी का चत्वर (संस्कृत, प्राकृत चंच्चर और पुरानी हिन्दी मेंप्रसंग मिलता है
चाचर)। फागुण मासि वसंत रूत पायउ जइन सुणकि
सं० १२८६ वसंत में रचे हुए पाबूरास की कुछ चाचरिउइ मिस खेलती होली भंपावरू (१४५) पंक्तियाँ देखिए:
(वसंत ऋतु के फागुन मास में यदि तुम्हारा माना। गूजर देसह मज्झि पहतणं, चंद्रावती नयरि वक्खाणं मुझे न सुनाई दे, तो चर्चरी के बहाने मैं होली में खेलूंगा)। त्रिग्चाचरि चउहह थाग पढमंदिर धवल हर पगारा इसमें सम्पादक चर्चरी सम्बन्धी टिप्पणी लिखते है कि
मैं उक्त पद में गुर्जर देश के मध्य में 'चंद्रावती' नामक फागुण में होलिकोत्सव के उपलक्ष्य में होने वाले गीत
नगरी का वर्णन प्रस्तुत करता हूँ। उसमें तीन रास्ते जहां नृत्य आदि से चाचरि चर्चरी होली में गाये जाने वाले
मिलते हों ऐसा त्रिक, चाचर-चार रास्ते मिलें, ऐसा चौक, एक राग विशेष को कहते है ।।
चउहट्ट-चौहटों का तथा विद्या-मंदिरों का विस्तार हो,
महल तथा बड़ी-बड़ी हवेलियां हों। (११) हिन्दी साहित्य में कबीरदास की रचनाओं में
एक अन्य कोष में चाचर शब्द का अर्थ पु. (सं० बीजकमें चांचर नामक एक अध्याय है। इस चांचर में चर्चरी
चत्वर) मण्डप के बाहर जो खुला चौक होता है वह, के प्राचीन शिल्प के अंकुर विद्यमान हैं । इसका एक उदा
चकलो अर्थ भी दिया है जो अनेक प्रमाणों से अक्षरशः हरण इस प्रकार दिया जा सकता है :
गुजराती शब्द कोष में भी मिलता है-वह चाचर के खेलती माया मोहनी जिन जो कियो मंसार
आधार से बना-चाचरियां शब्द का मूल रूप चर्चरी गीत रच्यो रंगते चूनरी कोई सुन्दरि पहिरे पाय
ही है । यह चाचर में बोला जाने वाला, गाया जाने वाला नारद को मुग्व मांडिके लीन्हो वमत छिनाय
गीत ही है । फिर ना० कोश में इसका अर्थ कर्ता को जैसा गरब गहली गरब ते उलटि चली मुसकाय
भी लगा विस्तार से उदाहरण प्रस्तृत करके ऐमा स्पष्ट एक अोर सुर नर मुनि ठाढ़े एक अकेली प्राय
किया है-चकलाकी-देवी के गण लग्न के चौथे पाठवें दिष्टि परे उन काहु न छाड़े के लीन्हो एक धाय दिन चकला की रक्षा करने वाली देवी का पूजन कर बलि
(१०) जायसी और तुलसी ने भी चर्चरी के रामगुण दान करते थे फिर उसके गणों की पूजा करते थे चारों ग्रामका उल्लेख किया है
दिशाओं को चार उपहार रखे जाते थे और फिर एक के १. खिनहि चलहि खिन चांचरि होइ
पीछे एक पानी की धार करके पूछते थे-चाचरियो । नाच कृद भूला सब कोइ-(जायसी) चाचरियाँ । तुम कौन सी बात कहने के लिए आये हो तो २. तुलसीदाम चाचरि मिस, कहे रामगुण ग्राम (तुलसी) पास में खड़ा कोई गणों का प्रनिनिधि बोल उठता था
(१३) हिन्दी भाषा कोश में चाचर, और चांचर कि अमुक व्यक्ति के लिए-उनमे कोई सम्बन्धी का नाम चांचरी-वसंत ऋतु के एक राग होली में गावंतु गीत, ही होता था। फिर उनसे पूछा जाता था कि इस प्रमुक ने चर्चरी राग, होली के खेल-तमाशे, धमाल, उपद्रव, हलचल, क्या किया है ? तो उत्तर होता था कि इगने सारी जाति हल्लागल्ला, शोर आदि प्रथमाक्षर अनुस्वार बिना व को तो खब भोजन कगया पर धर के अनुसार दक्षिणा अनुस्वार सहित रूप वाले शब्द हैं।
नहीं दी । हमो रे भाई हा हा । इस प्रकार के चार प्रश्न यह तो हई चच्चरी शब्द के विविध प्रर्थों में प्रयुक्त होते है । इस प्रकार चांचरियों में अधिकतर उपहास व हुए स्वरूप के पारंपरिक प्रमाण सम्बन्धी बात । अब आदि- हास्य होता है। कालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रयुक्त चर्चरी की भी थोड़ी चाचर- चौक में गाने वाले चर्चरी गायकों की टोली सी चर्चा करली जाए। गुजराती साहित्य में चर्चरी के लिए या उनका प्रमुख गायक-चाचरीया कहलाता था। उसके कहा जाता है कि जहां दो या दो से अधिक मार्ग मिलते है। सम्बन्ध में पुरातन प्रबन्ध संग्रह तथा वस्तुपाल प्रबंध के क्रमशः
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पृ० ७६, १६९ और पृ० ७८ तथा १७६ में प्रयुक्त हुए हैं'। उनका सारांश इस प्रकार है :
(१) एक वक्त एक रात्रि में पाठशाला में रहनेवाले श्री विजयसेनसूरि को नमस्कार करके मंत्री वस्तुपाल दूसरे भाग में रहते श्री उदयप्रभसूरि को वंदन करने गये परन्तु वे वहां नहीं थे। इस प्रकार तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा करके चौथे दिन विनय पूर्वक बड़े गुरू जी से पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया मंत्री। आजकल इस नगर में एक चाचरीयक महाविद्वान् प्राया है। उसके विशेष वचनों को सुनने के लिए प्रतिदिन वेश परिवर्तन करके सूरि जाते थे । यह जानकर मंत्री वस्तुपाल वहां गये और सूरि को प्रच्छन्न रूप में देखा । प्रातः मंत्री ने उस चर्चरीयक को बुलाकर २०००) रुपया देकर कहा तुम्हारे पौधशाला के द्वार के पास के चच्चर ( चौक) में चच्चर मांडो। इस प्रकार ६ महीने तक वह मांडता रहा, फिर उसका उचित सत्कार करके उसको विदाई दी।
अनेकान्त
(२) वीरधवल राजा के ना दउदी (नांदोद) नगर में रहने वाला मठारहीयो बहुप्रा हरदेव था । वह बहुधा जिन चाचर याचक का शिष्य था । वह एक बार प्रशापल्ली में आ गये सात दिन बाद उनके परिवार का खाना समाप्त हो गया । हमें चाचर प्रदान करो। उसने कहा पेयं धारण करो मैं सदैव मनुष्यों का मनोभिप्राय देखता रहता हूँ। इतने में ही महाराष्ट्र का गोविंद चाचरीयाक भ्रा पहुँचा । उसे अठारह पुराण ६० व्याकरण चौपाई छंद में कंठस्थ थे । उसने उसको चच्चर दी तो फिर हरदेव ने चाचरीयाक को अपने साथियों द्वारा प्रोत्साहन होने पर साथ-साथ चलते स्वाभाविक रूप से बातें करते सीताराम प्रबंध को कथा-रूप में कहना प्रारंभ किया । पहले १० हजार मनुष्य इकट्ठे हुए धीरे-धीरे और अधिक हुए। मध्य रात्रि में सुखासन में स्थित मन्त्री यादि भी सुनते थे। यहां से उठकर श्रोताओं को ज्ञात न हो ऐसा प्रयास करता हुआ वह साबरमती नदी के किनारे गया । फिर विशेष गान छेड़ा। ठंड से प्राक्रान्त मनुष्यों ने उसे कहा कि भाप सबके सुख के लिए नगर में चलिए फिर उसने पुनः उत्तर
मुनिजिन विजय, पृ०
१. देखिए पुरातन प्रबंध संग्रह ७६ और वस्तुपाल प्रबंध पू० १५९
१५
रामचरित का गान प्रारम्भ किया । फिर सर्व रस में निमग्न श्रोताओं को लेकर चौक में प्राया । लोगों ने अंगूठी कर्णफूल मादि के दान से ३ लाख ६० दिया " ।
उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि गुजरात में काव्य में कथा प्रबंध कहने वाले बार रास्ते जहाँ मिलें ऐसे पौरास्ते या चौक में बैठकर जनता के मन का अनुरंजन करते थे । उनको द्रव्य मिलता था और वे संस्कृति की उन्नति में पर्याप्त सहायता करते थे। अतः इससे चर्मरीयाक और चर्चरी शब्द के तत्कालीन रूप और महत्व पर प्रकाश पड़ता है। सं० १४८१ में जयसागर विरचित जिनकुशल सूरि चतुष्पदिका में मुनिजी की दीक्षा समय के वर्णन में चर्चरी का उल्लेख आता है
नारि दिवह तब चाचरी ए
गुरू गरुप्राडिंग दहादिसि संचरी ए । सरल मनोहर रूपिनरिए फिर
कठिहि कोइल अवतरीए ॥ अतः इसका सम्बन्ध किसी राग विशेष से स्पष्ट होता है ।
उक्त वर्णनों तथा प्रसंगों द्वारा चर्चरी के विविध प्रसंगों में विविध ग्रयों की सूचना मिलती है। वास्तव में चर्चरी क्या थी यह इन्हीं उद्धहरणों के आधार पर जाना जा सकता है । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि चर्चरी छोटी जाति की टोली का एक वासन्तिक गीत विशेष था, जो प्राचीनकाल से चौहट्टों आदि पर गाया जाता था । यह चर्चरी स्त्री और पुरुष दोनों गाते थे ।
इन तथ्यों के आधार पर चर्चरी के शिल्प सम्बन्धी निष्कर्षो या आवश्यक तथ्यों पर इस प्रकार विचार किया जा सकता है
१. यह एक गीत विशेष है जो उल्लास प्रधान क्षणों की अनुभूति है ।
२. यह निम्न वर्ग को गायक टोलियों और उनके गीतों के लिए भी प्रयुक्त है ।
३. ताली बजाकर विशेष ध्वनि उत्पन्न करने वाले वाद्य को भी चर्चरी कहते हैं।
४. चर्चरी एक प्रकार का गान विशेष है, फिल्में २. वही, पृ० ७८, वही पृ० १७६
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मादिकालीन 'वर्चरी रचनामों की परम्परा का उद्भव और विकास
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गान ।
नृत्य, ताल समन्वित फागुन की वासन्ती सुषमा का समा- हो हो गया हो, क्योंकि जिनदत्तसूरि ने चच्चरी का प्रयोग वेश होता है।
किया है। शास्त्रीय दृष्टि से इस छन्द के लक्षणों का वर्णन ५. प्रानन्द प्रधान मनमोहक नगर के स्थानों पर मिलता है, जो विविध नामों के रूप में प्रचलित रहा होगा उत्पन्न होने वाली चर्चर ध्वनि ।
___ परन्तु फिर भी चर्चरी को हम कोई निश्चित छन्द विशेष ६. वसंत में गाया जाने वाला विशुद्ध वसंत गीत। नहीं कह सकते। हाँ, लोक प्रचलित रूपों में भागरा पौर ७. मंगल पर्वो पर भानंदोत्पत्ति करने वाला मनोहारी उसके पास-पास यह लोक गान खूब गाया जाता रहा होगा,
ऐसा प्रतीत होता है। यों कोई भी सहृदय इस बात का ८. चर्चरी एक प्रकार का खेल विशेष होता है। भी अनुमान लगा सकता है कि यह गीत कबीर के बीजक
है. एक भाषा निबद्ध गान, जो नृत्य विशेष के साथ में चाँचर बन बैठा है, साथ ही जायसी में भी फागुन और गाया जाता है।
होली के प्रसंग में चाचरि या चांचर का उल्लेख मिलता १०. यह एक प्रकार का छन्द विशेष है, जो विभिन्न है। कालिदास और हर्ष के नाटकों में इस गीत का शिल्प ग्रंथों में शास्त्रीय छन्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अधिक स्पष्ट तो नहीं है, परन्तु उनमें चर्चरी का वर्णन
११. यह एक लोक गीत का प्रकार विशेष था। अवश्य मिलता है । अतः इतने प्रसिद्ध गीत से यह निर्धान्त
१२. चर्चरी एक प्रकार का राग था, जिसको परवर्ती रूप से कहा जा सकता है कि चर्चरी लोकप्रिय गेयता. साहित्य में चर्चरी राग नाम से अभिहित किया गया। प्रधान है। यह चांचर से भिन्न, किसी सामूहिक उत्सव तुलसीदास ने भी चर्चरी राग को अपनाया था। या क्रीड़ा या खेल नही होकर सरल सम्मोहन पूर्ण वसन्त ___इस प्रकार चर्चरी के शिल्प का अनुमान हो सकता है। में नाच-नाच कर उल्लास के द्वारा प्रकट की हुई आकर्षक वस्तुतः डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में चर्चरी में गीत शैली विशेष है। यह भी संभव है कि लोक साहित्य केवल गान का रूप नहीं लिया है। आध्यात्मिक उपदेश की सरल तथा मोहक लोकप्रिय गीत शैली या गान शैली में चर्चरी जैसे लोकप्रिय गान के प्रिय विषय शृङ्गार रस होने के कारण ही जैन कवि श्री जिनदत्तमूरि ने इसको का आभास देने का भी प्रयत्न है। बीजक से यह आभास अपने ग्रन्थों में अपनाया हो। एक विशिष्ट बात यह भी हो जाता है कि चांचर फगुना से सम्बद्ध है फिर बीजक' है कि जनरुचि का कण्ठहार बनने और लोकप्रिय होने के में दो पद चांचर के हैं दोनों के छन्द अलग-अलग हैं इमसे कारण इस चर्चरी गीत की ध्वन्यात्मकता ने सबका मन भी सूचित होता है कि इसके लिए कोई एक ही छंद नियत मुग्ध कर दिया हो और यह छन्द या गीत प्रत्येक मनुष्य नहीं था । अत: वह तो स्पष्ट है कि चर्चगे का प्रचलन का लोकप्रिय गीत या छन्द बन गया, यही बात इसके मूल लोकगीतों के विशिष्ट प्रकार के रूप में १२ वीं शताब्दी में
नाया था। स्वयं तुलसी ने चर्चरी गग को अपनाया था।
- १. जनपद-वर्ष १, अंक ३, पूष्ठ ५-८ देखिए-डा.
जनपद : वर्ष १, अङ्क ३, पृ० ५-८ हजारी प्रसाद द्विवेदी का “लोक साहित्य का अध्ययन" दूसरी चांचर के कुछ शब्द इस प्रकार हैं :शीर्षक लेख।
जारहु जग के नेहरा, मन बौरा हो। २. बीजक की दूसरी चांचर ठीक इस पद में तो नही जामें सोग संताप, समुझ मन बौरा हो। है पर मिलते-जुलते छंद में अवश्य है। जान पड़ता है कि तन धन सौं का गर्वसी, मन बौरा हो, चर्चरी या चांचर की दीर्घ परम्परा रही होगी। इन दो भसम किरिभि जाकी साज' समुझ मन बौरा हो। चार उदाहरणों से यह प्रमाणित हो जाता है कि बीजक में बिना नीव का देवधरा मन बोरा हो, जिन काव्य रूपों का प्रयोग किया गया है उनकी परंपरा बिनु कहगिल की इंट, समुझ मन बौरा हो । बहुत पुरानी है और पालोचना काल में विभिन्न संप्रदायों काल बंत की हस्तिनी, मन बौरा हो, के गुरुमों ने धर्म प्रचार के लिए इन काव्यरूपों को भप- चित्र रच्यो जगदीश समुझ मन बौरा हो।
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________________ 180 भनेकान्त में रही हो और शिल्प अनेक बार सफलता से प्रयुक्त होने है कि इस शब्द के अर्थ में थोड़ा अन्तर परिलक्षित होता के कारण ही इसे विभिन्न प्रकार का विषय बनाया गया है। चांचर इन दिनों राजस्थान की नत्य, वाद्य प्रधान, होगा। उल्लासमय अभिव्यक्ति को तो कहते ही हैं, पर विवाह में इस प्रकार उक्त चर्चरी संज्ञक प्रमाणों शब्दों अर्थो नृत्य करती हैं। यह एक प्रकार का उल्लास प्रधान टोना तथा अन्य बातों के आधार पर चर्चरी की परम्परा तथा या क्रिया विशेष होती है, जिसे वे हाथों की उंगलियों के उसका शिल्प पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है। चर्चरी की यह दूल्हे पर सिर.से लेकर पैर तक और पैर से सिर तक पूजा परम्परा संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश से अक्षण्य रूप से के सामान का प्रयोग करती हैं शेष स्त्रियां वाद्यों पर नृत्य चली आ रही है। जिसके प्रमुख स्थलों का विवेचन ऊपर करती तथा गाती रहती हैं। इस क्रिया को चांचर करना किया जा चुका है। कहते हैं। इसके मूल में क्या बात है? यह तो निश्चित वस्तुतः अद्यावधि प्राचीन प्राप्त साहित्य में चर्चरी नहीं कही जा सकता; क्योंकि पूछने पर वे बतलाती हैं, कि सम्बन्धी जितने उल्लेख तथा प्रमाण उपलब्ध हो सके हैं यह रूढ़ि है पुरातन नियम है, अतः अांख मींच कर इसे उनका परिचय यहां दिया गया है। चर्चरी का इस समय पूरा करना ही पड़ता है ऐसा उनका दृष्टिकोण है परन्तु मैं राजस्थान में जो स्वरूप है, वह अाज भी भली भांति देखने वर वधू के उल्लासपूर्ण सुखी जीवन और भविष्य की शुभको मिल जाता है। चर्चरी गान यहां उल्लास प्रधान लोक- कामना करने के लिए ही यह सब कुछ किया जाता होगा गीत के रूप में आज भी गाया जाता है। इसका सही व एसा लखक का अनुमान है। यथार्थ स्वरूप फाल्गुन के दिनों में गाए जाने वाले चंग-के जो भी हो, चर्चरी या चांचर के राजस्थान में प्रद्यागीतों में देखा जा सकता है / चंग के गीत जिस तरह आदि विधि जो भी रूप देखने को मिलते हैं, उन पर प्रकाश काल के साहित्य काव्य रूप (फाग) का प्रतिनिधित्व करते डालने का प्रयास किया गया है। बहुत संभव है कि लोक हैं ठीक इसी प्रकार इसमें चर्चरी का रूप भी देखा जा प्रथा या रिवाज होने से इस चर्चरी ने अब तक सबसे सकता है / चंग के गीत फागुन में ही गाये जाते हैं मधुमास अधिक लोकप्रियता पाई हो / चर्चरी के शिल्प पर विस्तार के उल्लास प्रधान वातावरण को मुखरित करने वाले ये में और भी विद्वानों के विचार मिलते हैं' जिनसे चर्चरी लोक गान शत शत रूपों में राशि राशि की संगीत मधुर के शिल्प को समझने में सहायता मिलती है। वस्तुतः इस ध्वनियों में फूट पड़ता है / ये चर्चरी गीत चंग बाजे पर सम्बन्ध में अवधि चर्चरी की जो भी परंपरा तथा स्वरूप गाये जाते हैं, जो वसन्त की शोभा कही जा सकती हैं। की स्थिति है, उसे स्पष्ट कर दिया है। यह भी बहुत प्राचीन काल की भांति चर्चरी गान की इन टोलियों में सम्भव है कि शोध होने पर इसके शिल्प पर और भी मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग की ही टोलियां रहती हैं जो नये ज्ञातव्य प्राप्त हों। नाच कर अपने दवे अथव अबोले उल्लास को वाणी प्रदान ---- करती हैं / अतः चंग के इन गीतों में इस समय चर्चरी का१. विशेष विस्तार के लिए देखिए जैन सत्यप्रकाश सम्यक तथा क्रमिक विकास देखा जा सकता है। वर्ष 12, अङ्क 6 में प्रकाशित श्री हीरालाल कापडिया का जहां तक चांचर शब्द का प्रश्न है यह कहा जा सकता 'चर्चरी' शीर्षक लेख / अकबर जैन धर्म से स्नेह करता था, इसका कारण उसकी भणिक उत्तेजना नहीं थी। उसके जीवन का अन्तिम भाग जन उपदेशकों के प्रभाव में उनको शिक्षानुसार ही बीता था। -एम. एस. रामस्वामी मापंगर
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राजस्थानी जैन वेलि साहित्य : एक परिचय
प्रो० नरेन्द्र भानावत, एम० ए० साहित्यरत्न वेलि साहित्य की पम्परा संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रंश वेलि साहित्य का वर्गीकरण-राजस्थानी वेलि से होती हुई पागे चलकर राजस्थानी, गुजराती और ब्रज- साहित्य विभिन्न जैन भंडारों और पुस्तकालयों में लिखित भाषा में विकसित हुई। इस वेलि साहित्य का अधिकांश प्रतियों के रूप में बिखरा पड़ा है। अब तक पृथ्वीराज कृत भाग जैन संतों द्वारा लिखा गया है। प्रस्तुत निबन्ध में 'कृष्ण रुक्मणी की वेलि' ही प्रकाशित होकर विद्वानों के * नि माहित्य' का सामान्य परिचय प्रस्तत किया जा सामने आई है। उसके प्राधार पर सामान्यतः यह धारणा रहा है।
बना ली गई है कि वेलि-साहित्य शृङ्गारपरक होता है और 'वेलि' का नामकरण-पहले अपभ्रंश से उद्भत हो उसमें विवाह अथवा विलास की ही प्रधानता रहती है पर कर हिन्दी और राजस्थानी साहित्य में कई काव्य-रूप
CG वास्तव में ऐसी बात नही है। वेलि साहित्य विषय की प्रचलित हुए । रास, पवाड़ा, ढाल, फागु, चर्चरी, विवाहलो,
विविधता को लिए हुए है। विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण मंगल, धवल प्रादि के नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं ।
राजस्थानी वेलि साहित्य को स्थूल रूप से तीन भागों में 'वेलि' नाम भी इसी प्रकार है। वाङमय को उद्यान मान
बांटा जा सकता है--(१) चारणी वेलि साहित्य, (२) कर ग्रंथों को वृक्ष और वृक्षांगवाची नाम से पुकारने की
जैन वेलि साहित्य, (३) लौकिक वेलि साहित्य । परिपाटी प्राचीन रही है। कुछ उपनिषदों में अध्यायों या
'चारणी वेलि साहित्य' में एक पोर राजकुल तथा अध्यायों के विभाग का नाम 'वल्ली' मिलता है।' काल
सामन्त कुल के विभिन्न वीरों का यशोगान किया गया है, प्रवाह के साथ 'वल्ली' शब्द अध्याय या सर्ग का वाचक न ता दूसरा भार विष्णु और शिव के प्रति अपनी भी रहकर एक स्वतन्त्र काव्य-विधा का ही प्रतीक बन गया।
भावना भी प्रकट की गई है। 'लौकिक वेलि साहित्य' में
रामदेव जी, आईमाता तथा उनके भक्तो का जीवन चरित 'वेलि' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में प्रधा
वर्णित है। नतः दो मत प्रचलित हैं। पहले मत के अनुसार 'वैलि'
जैन-वेलि-साहित्य; विषय और शैली की दृष्टि शब्द का विकास संस्कृत 'बल्ली' और प्राकृत 'वेल्ली' से
विशिष्टता को लिए हुए है। इसके तीन प्रधान भेद हैहुमा । संयुक्त वर्ण के पूर्व का जब लघु वर्ण दीर्घ होता
१. ऐतिहासिक स्तवनात्मक, २. कथानक और ३. उपहै तब मागे के वर्ण दीर्घ होने पर लघु होने लगते हैं।
देशात्मक । वल्ली का 'व' दीर्घ हुआ अर्थात् 'वे' हुआ तो 'ली' ह्रस्व
(१) ऐतिहासिक जनलि साहित्य-इसमें वेलिकारों हो गई । दूसरे मत के अनुसार 'वेलि' शब्द संस्कृत विलास'
द्वारा अपने गुरुओं (धर्माचार्यों) का ऐतिहासिक जीवनसे बना है। इसकी विकास रेखा यों है-विलास>विलास
वृत्त प्रस्तुत किया गया है। भट्टारक धर्मदास ने भट्टारक >विल्ल>वेल्लि>वेलि ।
गुणकीत्ति की (गुरुवेलि), कांतिविजय की (सुजस वेलि), इनमें अन्तःसाक्ष्य के आधार पर पहला मत अधिक
सकलचन्द्र ने हीरविजयसूरि की (हीरविजयसूरि देश संगत प्रतीत होता है।
ना वेलि), वीरविजय ने शुभविजय की (शुभवेलि), १. कठोपनिषद् में दो अध्याय और छ: वल्लियां हैं। तथा माधुकीत्ति ने जिनभद्र सूरि से लेकर जिनचन्द्र सूरि
तैत्तिरीय उपनिषद् के सातवें, पाठवें और नवमें तक की खरतरगच्छीय पाट-परम्परा का वर्णन करते हुए प्रपाठक को क्रमशः 'शिक्षावल्ली', 'ब्रह्मान्द्र वल्ली' युग्प्रधान जिनचन्द्र सूरि की (सब्वत्थ वेलि प्रबन्ध) जीवनऔर 'भृगुवल्ली' कहा गया है।
गाथा को अपने-अपने काव्य का विषय बनाया है। समय
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अनेकान्त
सुन्दर ने श्रमण होकर भी 'सोमजी निर्वाण वेलि' में संघ- हटाकर प्रात्म-ज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है और पति श्रावक सोमजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। ('प्रतिमाधिकार वेलि' में जिन प्रतिमा के पूजने की देशना कनकसोम ने 'जइतपद वेलि' में खरतरगच्छ और तपा- दी गई है। गच्छ के बीच हुई ऐतिहासिक पौषध चर्चा (वि० सं० वेलि काव्य को सामान्य विशेषताएं- अन्तःसाक्ष्य के १६२५ मिगसर वदी १२, प्रागरा) का वर्णन किया है। प्राधार पर वेलि काव्य की सामान्य विशेषतामों का निर्देश
(२) कथानक जैन वेलि साहित्य-इसमें जैन कथानों इस प्रकार किया जा सकता हैको काव्य का विषय बनाया गया है। कथाएं विशेषकर (१) बेलि काव्य की परम्परा काफी पुरानी और तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, सती तथा अन्य महापुरुषों से प्रसिद्ध रही है। यही कारण है कि कवि लोगों ने अपनी सम्बन्धित हैं। तीर्थकरों में ऋषभदेव (ऋषभगुण वेलि, रचनाओं के प्रारम्भ में या अन्त में संज्ञा के रूप में वेलिं या प्रादिनाथ वेलि) नेमिनाथ (नेमिपरमानन्द वेलि, नेमीश्वर 'वेल' शब्द का प्रयोग किया है। की वेलि. नेमीश्वर स्नेह वेलि. नेमिनाथ रसवेलि, नेमि- (२) वेलि काव्य का वर्ण्य-विषय प्रमुख रूप से देव राजुल बारहमासा वेलि-प्रबन्ध, नेम राजुल वेलि) पार्श्व- तुल्य श्रद्धेय पुरुषों का गुणगान करना रहा है। ये पुरुष नाथ (पाश्र्वनाथ गुण वेलि) और वर्धमान महावीर (वीर राजा महाराजा तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, सती, धर्माचार्य वर्द्धमान जिन वेलि, वीर जिनचरित्र वेलि)का पाख्यान और लौकिक देवता आदि रहे हैं । जैन वेलियों में जहां गाया गया है और चक्रवतियों में भरत (भरत की वेलि) केवल 'भव सम्बोधन काजै' उपदेश दिया गया है वहां भी बलदेवों में बलभद्र (बलभद्र वेलि) तथा सतियों में चन्दन प्रारम्भ मे तथा अन्त में तीर्थकरों, धर्माचार्यादि का प्रायः बाला (चन्द्रन-बाला वेलि) और राजमती का वृत्त अप- स्तवन कर लिया गया है। नाया गया है। अन्य महापुरुषों में जम्बूस्वामी (जम्बस्वामी (३) इस वेलि साहित्य का प्रमुख तत्व गेयता है। वेलि, प्रभवजम्बू स्वामी वेलि) बाहुबली (लघु बाहुबली जैन साधु इसकी रचना कर बहुधा गाते रहे हैं। पाठ करने वेलि) स्थूलिभद्र (स्थूलिभद्र मोहन वैलि, स्थूलीभद्रनी की परम्परा भी रही है । पृथ्वीराज ने अपनी वेलि में शीयल वेलि, स्थूलिभद्र कोश्या रस वेलि) रहनेमि (रह- १-पालोचकों ने पृथ्वीराज कृत 'किसन रुक्मणी री नेमि वेल) वल्कलचारी (वल्कलचीर ऋषिवेलि) सुदर्शन वेलि' को सबसे प्राचीन बतलाया है जो ठीक नहीं है
न स्वामीनी बेलि) मल्लिदासनी वलि) प्रादि को (क) डिगल में लिखित वेलियों में सबसे प्राचीन कथा को काव्यबद्ध किया। तीर्थव्रतादि के महात्म्य को पृथ्वीराज की किसन रुक्मणी की वेलि है- नरोत्तमदास बतलाने के लिए 'सिद्धाचल-सिद्ध वेलि' तथा 'कर्मचूर- स्वामीः वेलिः प्रस्तावना-
पृ० २३ व्रतकथा वेलि' की रचना की गई है।
(ख) पृथ्वीराज का यह ग्रन्थ (वेलि) एक परम्परा (३) उपदेशात्मक जैन वेलि साहित्य-इसमें प्राध्या- की स्थापना करता है जिसे राजस्थान तथा व्रजमण्डल के स्मिक उपदेश दिया गया है। संसार की सुखद दशा और भक्त कवियों ने आगे तक निवाहने का प्रयत्न किया हैमसारता का वर्णन कर जीव को जन्म-मरण से मुक्त होने डा० ग्रानन्द प्रकाश दीक्षित: वेलिः भूमिका पृ०४७ के लिए प्रेरित किया गया है । यह उपदेश इंद्रिय (पंचेन्द्रिय २-१८वीं शदी के कवि जयचन्द ने एक स्थल पर वेलि) गति (चिहुगति वेलि, पंचगति वेलि, वृहद् गर्भ लिखा है कि माधु लोग पृथ्वीराज रासो, वेलि, नागदमण वेलि, जीव वेलड़ी) लेश्या (षदलेश्या वेलि) गुणस्थान पंचार मान, हरिरस मादि का वाचन क्यों नहीं करते? (गुणगणा वलि) कषाय (चार कषाय वेलि, क्रोध वेलि) पृथ्वीराज रासो, 'वेलि' वचनिका, पंचास्यान न बांचे । भावना (बारह भावना वेलि) मादि का तात्त्विक विश्ले- नागदमणि, हरिरस, अंग, सुकन सामुद्रिक सांचे ॥ षण कर दिया गया है । 'अमृत वेलिनी सज्झाय' तथा छीहल दम काक विचार अंग फरिक, जै सारक पारे । कृत 'वेलि' में सामान्य रूप से मन को विषय-वासना से विसहरा पल्लिभेद, दिपूछि त्रिपुच्छि से भेद फार्षे ॥
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राजस्थानी न बेलि साहित्य : एक परिचय
१९१ पाठ विधि तक दी है' । माई-पंथ में लोक-वेलियां अब भी (६) वेलि काव्य में दो प्रकार की भाषा के दर्शन गाई जाती हैं।
होते हैं । एक साहित्यिक डिंगल-अलंकारों से लदी हुई और (४) वेसि-काव्य स्तोत्रों का ही एक रूप प्रतीत होता दूसरी बोलचाल की सरल राजस्थानी, अलंकार विरल पर है, जिसमें दिव्य पुरुषों के साथ साथ लौकिक पुरुषों का वीर- मधुर और सरस । पहले प्रकार की भाषा चारणी वेलियों व्यक्तित्व भी समा गया है। वेलिकारों ने रचना के प्रारम्भ का प्रतिनिधित्व करती है तो दूसरे प्रकार की भाषा जैन या अन्त में वेलि माहात्म्य बतलाया है । ऐतिहासिक तथा लोकिक वलियों का। चारिणी वेलियां प्रशस्ति बनकर रह गई हैं। उनमें कही
वेलि काव्य की प्रबन्धात्मकता एक सामान्य विशेषता पन्त: माध्य के रूप में 'बेलि' शब्द नहीं पाया है। है । गीत शैली होते हुए भी प्रबन्ध धारा की रक्षा हुई है। वहां 'वलियों' छन्द में रचित होने के कारण ही उन्हे 'वलि' मुक्तक के शरीर में भी प्रबन्ध की आत्मा है। नाम दे दिया गया प्रतीत होता है।
(6) प्रारम्भ में मंगलाचरण और अन्त में स्वस्ति
वाचन भी वेलि काव्य की एक सामान्य विशेषता है। (५) वेलि काव्य विविध छन्दों में लिखा गया है। जैन वेलियों में ढालों की प्रधानता है। मात्रिक छन्द
उपर्युक्त सामान्य परिचय से यह स्पष्ट है कि जैन वेलि दोहा कुंडलियाँ, सार, सखी, सरसी, हरिपद भी अपनाये
___ काव्य-परम्परा ने हिन्दी साहित्य के विशिष्ट काव्य-रूप की गए हैं । लौकिक वेलियां लोक-धुन प्रधान है।
लुप्त कड़ी को संयोजित किया है ! यह वेलि-काव्य छोटे
छोटे गुटको के रूप में विभिन्न दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन घुग्घु कल्प चोर काढ़णी स्वेतोक गणेस, विधि जैकहे।
मन्दिरों के शास्त्र भण्डारी में बिखरा पड़ा हैं। मुझे शोष
मन्टिों साल गाइ उगाल पर मंझारिनी पूजि जै-जै चन्द भागे लहि ।। प्रबंध लिखते समय राजस्थान के विभिन्न भंडारों को देखने -मुनि कांतिसागर जी का 'यति जयचन्द और उन का सौभाग्य मि
का सौभाग्य मिला। इधर महावीर भवन, जयपुर के डा. की रचनायें शीर्षक लेख ।
कस्तूरचन्द जी कासलीवाल ने राजस्थान के छोटे-बड़े कई १. महि सुइई खटमास, प्रात जलि मजे, भण्डारों में घूमकर वहां के प्राप्य हस्तलिखित ग्रन्थों का ४
अपसपरस हरू, जित-इंद्री (२८०) भागों में सूची-ग्रन्थ तैयार किया है। इससे कई अलभ्य एवं (छ मास तक पृथ्वी पर सोवे, प्रातः काल उठकर जल अज्ञात ग्रन्थ सामने आए है । इस प्रकार के भारत-व्यापी से स्नान कर और सबका स्पर्श त्याग कर-एकाकी मौन प्रयत्न की नितान्त आवश्यकता है ! इससे अन्य काव्य-रूपों धारण कर-तथा जितेन्द्रिय होकर नित्य वेलि का पाठ करे) की विलुप्त परम्परा भी जुड़ सकेगी।
पद
मूरति देखि सुख पायो । मैं प्रभु तेरी मूरति देखि सुख पायो। एक हजार पाठ गुन सोहत । लक्षण सहस सुहायोटिक।। जनम जनम के अशुभ करम को। रिनु सब तुरत चुकायो । परमानन्द भयो परि पूरित । ज्ञान घटाघट छायो ।।।। अति गम्भीर गुणानुवाद तुम । मुख करि जात न. गायो ।। जाके सुनत सरदहे प्राणी। क फन्द सुरझायो ।। विकलपता सुगई अब मेरी । निज गुण रतन भजायो ।। जात हतो कोड़ी के बदले । जब लगि परख न पायो ॥३॥
(देवीवास)
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साहित्य-समीक्षा
मयरण पराजय चरिउ
सम्पादक - डा० हीरालाल जैन एम० ए०, डी० लिट० प्रधान सम्पादकीयवक्तव्य डा० प्रा० मे० उपाध्ये अंग्रेजी हिन्दी प्रस्तावना लेखक- डा० हीरालाल जैन, प्रकाशक -- भारतीयज्ञानपीठ, काशी, श्री मूर्तिबेबी ग्रन्थमाला- अपभ्रंश धन्यनं० सन् १९६२, पृष्ठ संस्था - १७४, मूल्य--८ रुपये ।
'मयण पराजय चरिउ' अपभ्रंश का ललित काव्य है । इसमें सिद्धि रूपी वधू को प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र श्रौर कामदेव का युद्ध दिखाया गया है । जिनेन्द्र चरित्रपुरी के राजा हैं और कामदेव भावनगर का, जिनेन्द्र का मुख्य सेनापति सम्यक्त्व है और कामदेव का मोह । दर्शन और ज्ञान सम्यक्त्व के तथा राग और द्वेष काम देव के उपसेनापति हैं। पांच महाव्रत, सात तत्त्व, दशविध धर्म- शुक्ल ध्यान और निर्वेद आदि जिनेन्द्र के प्रमुख भट है । कामदेव के साथ भी मिथ्यात्व पाँच आस्रव, पांच इन्द्रियां, आर्त-रौद्र ध्यान, अठारह दोष और तीन शल्य आदि बलशाली योद्धा है जिनेन्द्र नायक दर्शन हाथी पर सवार है और मोह चित्तरूपी हाथी पर चढ़ा है। जिनेन्द्र के कोई पत्नी नहीं है, मोह के रति और प्रीति नाम की दो पत्नियां हैं। विश्वभर में केवल सिद्धि एक ऐसी रमणी है, जो कामदेव का वरण नहीं करना चाहती, इसी कारण कामदेव ने उसके साथ विवाह करने की हठ ठानी है। सिद्धि जिनेन्द्र से प्रेम करती है; किन्तु उसकी प्रतिज्ञा है कि जब तक कामदेव का समूल नाश न कर लेंगे, मेरे साथ विवाह न कर सकेंगे। जिनेन्द्र ने ऐसा ही किया और वे सिद्धि के साथ विवाह करने में समर्थ हो सके ।
'मयण पराजय चरिउ' की इस प्रतीकात्मक शैली के पीछे एक लम्बी परम्परा है। उत्तराध्ययन सूत्र में बिखरी । कथायें, छठा भूताङ्ग गाय धम्महामो, प्राकृतकथा वसुदेव हिण्डी (छठी शताब्दी ), हरिभद्र सूरिकृत समरादित्य कथा ( ८ वीं शती), उद्योतन सूरि की कुवलयमाला कहा ( शक सं० ७००) सिद्धधिकृत उपमिति भवप्रपंचकथा (वि०
सं०६२) और सोमप्रभाचार्य की 'मनः करण संलापकथा (वि० सं० १२४१) वे पूर्व-चिह्न हैं, जिनकी माने की कड़ी 'मयण पराजय चरित' है। दो जैन प्रतीकात्मक नाटक भी हैं जो 'मयण पराजय चरिउ' के पहले लिखे गए । यशः पाल मोढ़ का मोह पराजय' (१२२६-३२ ई०) गुजरात के सम्राट् कुमारपाल द्वारा बनवाये गए कुमार बिहार में महावीरोत्सव के समय खेला गया था। 'ज्ञान सूर्योदय' अध्यात्म का एक सुन्दर प्रतीकात्मक नाटक है। उसके रचयिता एक जैन साधु वादिचन्द्र सूरि थे।
तुलनात्मक परीक्षण से सिद्ध है कि प्रतीकात्मक शैली के सभी काव्यों और नाटकों में 'मयण पराजय चरिउ' का अपना एक विशिष्ट स्थान है । उसके रचयिता श्री हरदेव एक मंजे हुए कवि तथा जैन सिद्धान्त के ज्ञाता थे । आगे चलकर उन्हीं के वंशज श्री नागदेव ने संस्कृत में मदन पराजय चरित का निर्माण किया था किन्तु उसमें भी वैसा काव्य सौष्ठव नहीं है। मध्कालीन हिन्दी के जैन कवियों ने अनेक रूपक काव्यों का निर्माण किया। उनमें अध्यात्म परकता है और लालित्य भी । मयणपराजय चरिउ का उन पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
डा० हीरालाल जैन ने तीन हस्तलिखित प्रतियों के प्राधार पर इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है । सम्पादन उत्तम और सभी दृष्टियों से पूर्ण है प्राकृत और अपभ्रंश के ग्रन्थों के सम्पादन में डा० हीरालाल को प्रामाणिक माना जाता है। मूल का हिन्दी अनुवाद अत्यावश्यक था, उसके बिना हिन्दी पाठक ग्रन्थ के रसास्वादन से बन्चित ही रह जाते । सरलभाषा में होने से अनुवाद उपयोगी प्रमाणित होगा । प्रस्तावना अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही. भाषाओं में लिखी गई है। उसका अपना एक पृथक महत्व है । उसे यदि हम एक शोध निबन्ध कहें तो प्रत्युक्ति न होगी। उसमें मयण पराजय चरिउ से सम्बन्धित सभी पह तुपों पर विचार किया गया है परिशिष्ट सात भागों में विभक्त है। उसमें प्रस्तावना की प्राधारभूत मूल सामग्री का संकलन है । इसके अतिरिक्त श्रयं बोधक टिप्पण और राज्य कोष प्रत्य के अध्ययन की कुञ्जी हैं। ऐसे आकर्षक,
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किरण
साहित्य-समीक्षा
महत्त्वपूर्ण और उपयोगी प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ बन्द करवा दी। मकबर पर जैन धर्म के प्रभाव की बात काशी धन्यवाद का पात्र है।
मन्य इतिहासज्ञ भी बता चुके थे, किन्तु उसका समूचा भारतीय इतिहास : एक दृष्टि
वृतांत प्रामाणिक रूप से इस गन्थ में उपस्थित किया गया लेखक-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, प्रकाशक-भारतीय है। ऐसे ही ऐसे अनेक तथ्य इस ग्रन्थ में सञ्चित हैं। ज्ञानपीठ, काशी, लोकोवय ग्रन्थमाला : हिन्दी प्रन्यांक- इतिहास के जिज्ञासु पाठक उनका निष्पक्षभाव से सन्मान १४५, ग्रन्थमाला सम्पादक-श्री लक्ष्मीचन्द जैन, पृष्ठ करेंगे, ऐसा हमें विश्वास है । भाषा और वाक्यविन्यास की संख्या-७१४, मूल्य-पाठ रुपये।
सरलता से अध्ययन सुगम ही है। जैन पुरातत्त्व और साहित्य का भारतीय इतिहास के ग्रन्थ में दो कमियां भी हैं-पहली तो यह कि अन्त निर्माण में महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस बात को सभी बड़े में शब्द संकेत नहीं है, जिसके आधार पर ग्रन्थ का अभीष्ट इतिहासज्ञ स्वीकार कर चुके हैं । किन्तु अभी तक उसका स्थल सुगमता से प्राप्त कर लिया जाता । और दूसरी यह विधिवत् और क्रमिक रूप में अध्ययन नहीं हुआ था। उसके कि ग्रन्थ में लिये गए उद्धरणों के अपने मूल ग्रन्थ और दो मुख्य कारण थे-एक तो जैनों की अपने साहित्य को पष्ठ आदि का कहीं हवाला नही है। यदि दे दिया जाता गोपनीय रखने की प्रवृत्ति और दूसरे लगनशील व्यक्ति का तो अनुसन्धित्सुत्रों को पर्याप्त महायता मिलती। वैसे ग्रन्थ अभाव । ममय की गति ने 'गोपनीयता' की पादत को ढीला उत्तम हैं। उसके लोक-प्रसिद्ध होने की कामना करता हूँ। किया और समय ने ही डा. ज्योतिप्रसाद जैसे लगनशील
-डाप्रेमसागर जैन व्यक्ति को जन्म दिया । डा० साहब का समूचा जीवन
प्रमारण प्रमेय कलिका जैन इतिहास के अनुसन्धान में बीता है । यह ग्रन्थ उसका प्रतीक है । 'एक दृष्टि' की मौलिकता अमंदिग्ध है। उसमें
मारिणकचन्द्र दिगम्बर जैन-प्रन्थ मालायाः सप्त चत्वापाठक नवीनता पायेंगे और इतिहासज्ञ अपने स्थापित तथ्यों
रिशो ग्रन्थः । मूल लेखक-नरेन्द्रसेन, सम्पादक-दरबारी में परिवर्तन का विचार करेगे।
लाल जैन कोठिया, प्राक्कथन-श्री हीरावल्लभ शास्त्री, नये तथ्य आकर्षक हैं । बिम्बसार और कुणिक तथा
प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी पृ० ३६, ६०, ८,५३ । चाणक्य और चन्द्रगुप्त को प्राचीन इतिहास के सभी मूल्य १-२० । विद्यार्थी जानते होगे, किन्तु उन्हें यह विदित न होगा कि समीक्ष्य ग्रन्थ 'प्रमाण प्रमेय कलिका' का प्रथम प्रकाबिम्बसार भगवान् महावीर के मौसा थे और उनके जीवन शित संस्करण है और जैन-भण्डारों से उपलब्ध दो प्रतियों के का उत्तरार्ध जैनधर्म के प्रचार में ही खप गया था। उन्हें माधार पर सम्पादित किया गया है। प्राचीन लिपिकारों के यह भी विदित न होगा कि सम्राट् चन्द्रगुप्त २५ वर्ष स्खलनों का संशोधन सजगता से किया गया है और सर्वथा निर्वाध शासन करने के उपरान्त जैन साधू होकर दक्षिण समीचीन है। विद्वान सम्पादक ने समग्र पाठ को विषय चले गए थे। वहा जिस पर्वत पर समाधि मरणपूर्वक की दृष्टि से अवतरणों में विभक्त किया है और उसका उनका स्वर्गवास हुआ, वह आज भी चन्द्रगिरि के नाम से क्रमिक एवं मूक्ष्मतर संकेत विषय-मूची में दिया है। मूलप्रसिद्ध है। डा. ज्योतिप्रसाद ने सिद्ध किया है कि यूनानी पाठ में उद्धृत अवतरणों के स्रोत, लोकन्याय, निदर्शनसम्राट सिकन्दर ने पंजाब में फैले दिगम्बर निर्ग्रन्थ साधुनों वाक्य और विशिष्ट तथा लाक्षणिक शब्दों के महत्वपूर्ण से भेंट की थी। कुछ साधु उसके साथ यूनान गए थे। वहां संग्रह परिशिष्ट में दिए गए हैं। 'प्रमाण प्रमेय कलिका' वे जनविधि का पालन करते हुए दिवंगत हुए। ग्रन्थ में प्रमा- तुलनात्मक महत्व की कृति है प्रतः सम्पादक ने पाद टिप्पणित किया गया है कि अशोक बौद्ध नहीं, अपितु जैन था। णियों में पाठ भेद उल्लेख के अतिरिक्त अन्य दार्शनिक मध्यकाल में सम्राट अकबर पर जैनधर्म का विशेष प्रभाव परम्परामों के ग्रन्थों के तुलनीय प्रसङ्गों के पथा स्थान पड़ा और उसने अपने राज्य में ईद जैसे त्योहार पर कुर्वानी उतरण भी दिए हैं। कहीं कहीं संस्कृत-व्याख्या मूल पाठ
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अनेकान्त
वर्ष १५
को स्पष्ट करने के लिए काफी उपयोगी हैं । (पुष्ठ ६, के 'अन्य' भाग में जैनत्व की विशद समीक्षा है-विशेषतः १४ भादि।)
'प्रमाण प्रमेय कलिका' के प्रसंग में । संस्कृत न जानने वाले विषय प्रवेश करने वालों के लिए श्री हीरावल्लभ पाठकों के लिए मूल-ग्रंथ गत विषय का बोष प्रस्तावना के शास्त्री का प्राक्कथन कुछ उपयोगी है और पाठ सम्पादन इस भाग में हो जाता है। किन्तु मूल-पाठ न समझ पाने को समझने के लिए सम्पादकीय द्रष्टव्य है किन्तु इस वाले जिज्ञासुओं के लिए हिन्दी-अनुवाद उपयोगी होता ! संस्करण का विशेष उल्लेखनीय अंश इसकी प्रस्तावना है जो 'ग्रन्थ' और 'ग्रन्थकार' दो भागों में लिखित है। 'ग्रन्थ
संस्कृत-ग्रन्थों के सम्पादन की कठिनाइयों और उत्प्रेकार' काफी संक्षिप्त है किन्तु इसमें नरेन्द्रसेन के विषय में क्षामों को ध्यान में रखते हुइ, 'प्रमाण प्रमेय कलिका' का ज्ञात और ज्ञातव्य सामग्री का प्रमाण सङ्कलन है । प्रस्तावना यह संस्करण अपने में प्रायः पूर्ण है। अवधेशकुमार शुक्ल
प्रात्म-विश्वास मात्म-विश्वास एक विशिष्ट गुण है। जिनका पात्मा में विश्वास नहीं वे मनुष्य धर्म के उच्चतम शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं हैं।
मुझसे क्या हो सकता है ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं असमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ, ऐसे कुत्सित विचार वाले मनुष्य आत्म-विश्वास के अभाव में कदापि सफल नहीं हो सकते ।
सती सीता में यही वह प्रशस्त गुण (मात्म-विश्वास) था जिसके प्रभाव से रावण जैसे पराक्रमी का सर्वस्व स्वाहा हो गया। सती द्रोपदी में वह चिनगारी थी, जिसने एक क्षण में ज्वलन्त-ज्वाला बनकर चीर खीचने वाले दुःशासन के दुरभिमान-द्रुपद (अहंकाररूपी विष वृक्ष) को दग्ध करके ही छोड़ा। सती मैना सुन्दरी में यही तेज था जिससे वजमयी फाटक फटाक से खुल गये। सती कमलश्री और मीराबाई के पास यही विषहारी अमोघ मन्त्र था, जिससे विष शरवत हो गया और फुकारता हुआ भयंकर सर्प सुगन्धित सुमनहार बन गया ।
अस्सी वर्ष की बुढ़िया प्रात्मबल से धीरे-धीरे पैदल चलकर दुर्गम तीर्थराज के दर्शन कर जो पुण्य संचित करती है वह अविश्वासी-जनो को, जो डोली पर चढ़कर यात्रा करने वालों को कदापि सम्भव नहीं है। बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार्य जिनपर संसार पाश्चर्य करता है आत्म-विश्वास के बिना सम्पन्न नही हो सकते।
-वर्णी वाणी womewomeramananewwwwwwwmarwanamamawwamanawwwwwwwwwARALIAMALINImaawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww www
अागामी साहित्य विविध जैन प्रकाशन संस्थानों से निवेदन है कि वे अपने 'पागामी प्रकाशनों का पूर्ण परिचय 'अनेकान्त' में भेजने की कृपा करें। इससे यह लाभ होगा कि एक ही ग्रंय के प्रकाशन में दो संस्थाओं की शक्ति और धन एक साथ व्यय नहीं होंगे। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक दूसरे की गतिविधियों को न जानने के कारण दो संस्थाएं एक ही ग्रंथ के प्रकाशन में जुट पड़ती हैं । यदि वे पृथक्-पृथक् ग्रंथों को प्रकाशित करें तो विपुल अप्रकाशित जैन साहित्य प्रकाश में आ सकेगा।
व्यवस्थापक
अनेकान्त wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwaam
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वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवनदाम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी मरावगी, कलकत्ता ५०० ) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी भाकरी, कलकत्ता २५१) ग० वा० हरम्बचन्द जी जैन, राँची २५१) श्री समरचन्द जी जैन ( पहाड़या), कलकत्ता २५१) श्री स० मि धन्यकुमार जी जैन, कटनी २५१) मेट मोहनलाल जी जन
कलकत्ता
मै मुन्नालाल द्वारकादाम, कलकत्ता २५०) श्री वीर जो गोजी कलकला २५०) श्री मन्दिरदान जी जैन कता २१) श्री मपई कु· दननान जी कटनी २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी० प्रा० सी० जैन, कलकत्ता
२५०) श्री रामस्वरूप जो नेमिचन्द, कलकत्ता १५० ) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकता १५०) श्री कस्तूरचन्द जी श्रानन्दीलाल, कलकत्ता १५०) श्री कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) श्री पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री प्रतापमल जी मदनलाल जी पांड्या, कलकत्ता १५०) श्री भागचन्द्र जी पाटनी, कलकत्ता
१५०) श्री शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता १०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ, कनकला १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता १००) श्री बद्रीप्रसाद जी श्रात्माराम, पटना १०१) थी मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर १०१) श्री दिगम्बर जैन समाज, केकडी
'नेकान्त' के ग्राहक बनें
'कान' पुराना स्थानि प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिव्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक सन्या का बढ़ना अनिवार्य है । हम विद्वानो, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेटियों, शिक्षा-प्रेमियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों कालेजों और धन में प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि ही अनेकान्त के प्राय इससे समूची जैन समाज में एक शोध-पत्र प्रतिष्ठा और गौरव के साथ चल सकेगा। भारत के अन्य शोध पत्रों की तुलना में उसका समुन्नत होना यावश्यक है |
व्यवस्थापक श्रनेकान्त
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वीर सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
दीपावलि तक सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची- प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल्य-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ में
उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डाक्टर कालीदाम नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Forewod) और डा. ए एन उपाध्ये एम. ए डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) मे भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज सजिल्द १५) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के
सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युवंत, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भस्तोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय,
ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का विश्लेषण करती हई महत्त्व की गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ठ की प्रस्तावना मे मुशोभित । (6) स्तुतिविद्या-स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों से जीतने की कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।।
१) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि गजमल्ल की मुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद-महित
और मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की ५८ पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना मे भूषित। (६) युक्त्यनुशामन-तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र को असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुअा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि में अलकृत, मजिन्द। ... (७) श्रीपुरपार्श्वनाथम्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द चित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महिन । ... ) (८) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकी तिकी १३वी शताब्दी की रचना. हिन्दी अनुवाद-महित ।।) (६) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ. मुख्यार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, मजिल्द । ... (१०) जैनग्रंथ-प्रशस्ति मग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित अर्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण सहित
अपूर्व मंग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहाम-विषयक माहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना मे अलंकृत, मजिल्द । (११) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तारी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महित ।) (१२) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारधी के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र। (१४) महावीर का मर्वोदय तीर्थ =), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका = ) । (१६) महावीर पूजा। ।) (१७) जैन ग्रथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंश के ११६ अप्रकाशित ग्रों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण मंग्रह इतिहास
७८ ग्रन्थकारों के परिचय और उनके परिशिष्टो सहित । मम्पादक पं० परमानन्द शास्त्री मूल्य मजिल्द १) (१८) जैन माहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ मख्या ७८० मजिल्द (वीर शासन मघ प्रकाशन ... ५) (१६) कमायपाहुड मुत्त-मून ग्रन्थ की रचना प्राज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधगचार्य ने की, जिम पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्र लिखे। मम्पादक पं० हीरालाल जी मिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के माथ बडी माईज के १००० मे भी अधिक पृष्ठो में । पुष्ट कागज, और कपड़े की. पक्की जिल्द ।
२०) (२०) Reality प्रा. पूज्यपाद की सर्वार्थमिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बडे प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू० ६)
प्रकाशक-प्रेमचन्द, वीर मेवा मन्दिर के लिए नया हिन्दुस्तान प्रेम, दिल्ली में मुद्रिन
2)
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द्वैमासिक
अनेकान्त
श्रादर्श एवं यथार्थ का समन्वय ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है । प्राज के युग कुछ है यथार्थ कुछ ।
में प्रदर्श
- अमरेश
समन्तभद्राश्रम (वीर - सेवा - मन्दिर) का मुखपत्र
दिसम्बर १९६२
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पष्ठ
3
MANN
विषय-सूची
चित्र-परिचय विषय
मुख पृष्ठ का चित्र-सित्तन्नवासल (पदश्री वीर-जिन-शासन-स्तवन
१९५ १ कोट्ट, दक्षिण भारत) के जैन गुफा-मन्दिर का प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की बिम्ब योजना रंगीन भित्तिचित्र है। इसकी रचना 8वीं शती
-डा० नेमिचन्द्र जैन एम. ए. पी. एच. डी. १६६ १ में हई। सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन -श्री कालिकाप्रसाद कककककककककककककककककककककककककककका शुक्ल एम. ए. व्याकरणाचार्य २०६
सूचना बारडोली के जैन सन्त कुमुदचन्द्र-डा० कस्तूरचन्द्र
अनेकान्त के प्रेमी पाठकों से निवेदन है, कि उनके कासलीवाल एम. ए. पी. एच. डी. २१.१
पास अनेकांत की चारकिरणें भेजी जा चुकी हैं, यह पांचवी कार्तिकेय (कहानी)-श्री सत्याश्रय भारती २१६
किरण हैं । जिनका वार्षिक मूल्य अभी तक भी प्राप्त नहीं सीरा पहाड़ के प्राचीन जैन गुफा-मन्दिर
हुमा, उन्हें भनेकांत की आगामी किरण वी० पी० से भेजी -श्री नीरज जैन २२२
जावेगी। यदि किसी कारण से आप अनेकांत के ग्राहक गोधकण (१ तीन विलक्षण जिन बिम्ब, २ पतियानदाई) ई
ई नहीं बनना चाहते हों, तो तुरन्त ही सूचना देने की कृपा ३ भगवान महावीर ज्ञात पुत्रथे या नाग पुत्र ?
इकरें। ताकि अनेकांत कार्यालय को वी० पी० भेजने का -श्री बाबुछोटेलाल जैन २२४,
है व्यर्थ नुकसान न उठाना पड़े। दण्डनायक गंगराज -श्री पं० के० भुजबली शास्त्री २२५
व्यवस्थापक चर्चरी का प्राचीनतम उल्लेख - डा० दशरथ शर्मा २२८
'प्रनेकान्त' रसिक अनन्यमाल में एक सरावगी जैनी का विवरण
वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। -श्री अगरचन्द नाहटा २२६६ प्राचीन पट अभिलेख -श्री गोपीलाल 'अमर'
एम. ए. २३११ राष्ट्रीय सुरक्षा में जैन समाज का योगदान २३४
१. अनेकान्त वीर सेवा-मन्दिर का ख्याति प्राप्त शोधगुर्वावली नन्दितट गच्छ -परमानन्द जैन २३५ १ पत्र है। जनसमाज को चाहिए कि वह विवाह, पर्व और जैन मूर्तिलेख नया मन्दिर धर्मपुरा
महोत्सवों आदि पर अच्छी सहायता प्रदान करे।। -सं० परमानन्द जैन २३७१ २. पाँच सौ, दो सौ इक्यावन और एक सौ एक प्रदान साहित्य-समीक्षा -डा०प्रेमसागर जैन २३६ कर संरक्षक, सहायक, और स्थायी सदस्य बनकर अनेकात १ की प्राथिक समस्या दूर कर उसे गौरवास्पद बनाएं।
-व्यवस्थापक सम्पादक-मण्डल डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य छ: रुपया है। श्री रतनलाल कटारिया
प्रतः प्रेमी पाठकों से निवेदन है कि वे छह रुपया डॉ० प्रेमसागर जैन
ही मनीआर्डर से निम्न पते पर भेजें। श्री यशपाल जैन
मैनेजर अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिये सम्पादक मंडल
'अनेकान्त' वीर-सेवा-मंदिर उत्तरदायी नहीं है।
२१ दरियागंज,दिली
अनेकान्त की सहायता के मार्ग
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मोम् अहम्
अनकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धनात्यबसिन्धरविधानम् ।
सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ amwmomsammommonommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmI AAAAAAAAAAAAAAm monwer वर्ष १५
वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६ दिसम्बर किरण, ५ ) मगसिर शुक्ला १२, वीर निर्वाण सं० २४८६, विक्रम सं० २०१६ ( सन् १९६२
MARWAIMAAmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws
श्री वीर-जिन-शासन-स्तवन तव जिन ! शासन-विभवो जयति कलावपि गुणाऽनुशासन-विभवः । दोष-कशासनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा-कृशासन विभवः ॥
-समन्तभद्राचार्य हे वीर जिन ! प्रापका शासन-माहात्म्य-आपके प्रवचन का यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादनस्वरूप गौरव-कलिकाल में भी जय को प्राप्त है-सर्वोत्कृष्ट रूप से वर्त रहा है-उसके प्रभाव से गुरणों में अनुशासन-प्राप्त शिष्यजनों का भव विनष्ट हुआ है-संसार परिभ्रमण सदा के लिए छूटा है-इतना ही नहीं; किन्तु जो दोष रूप चावकों का निराकरण करने में समर्थ हैं-चावुकों के समान पीड़ाकारी कामक्रोधादि दोषों को अपने पास फटकने नहीं देते-और अपने ज्ञानादि तेज से जिन्होंने प्रासन विभुषों कोलोक के प्रसिद्ध नायकों को-निस्तेज किया है वे गणधर देवादिक भी आपके इस शासन-माहात्म्य की स्तुति करते हैं।
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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती की बिम्ब योजना
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, एम० ए०, पी-एच० डी०, पारा प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त ग्रंथों के रचयिता के रूप में forms of human expression." अर्थात् साहित्य जीवन प्रसिद्ध हैं। इनके गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, और मानवीय व्यवहारों पर प्रकाश डालता है । अतएव पौर द्रव्यसंग्रह प्रादि सैद्धान्तिक ग्रंथ उपलब्ध हैं। इन ग्रंथों स्पष्ट है कि सैद्धांतिक ग्रन्थों में भी काव्य सौन्दर्य का पाया में जीव और कर्म की विभिन्न अवस्थाओं का विस्तृत और जाना सम्भव है। सुन्दर निरूपण किया गया है । इन ग्रंथों की विशेषता यह काव्य और शास्त्रकार अपनी अनुभूति को बिम्बों के भी है कि सैद्धान्तिक ग्रन्थ होने पर भी इनमें काव्यात्मक माध्यम से ही पाठकों के समक्ष उपस्थित करते हैं । यह सौष्ठव पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। प्रस्तुत निबन्ध में सत्य है कि जितना स्पष्ट और स्वच्छ बिम्ब रहता है, अनुकाव्य-सौन्दर्य के स्पष्टीकरण के हेतु इनकी बिम्बयोजना भूति भी उतनी ही स्पष्ट और स्वच्छ होती है । पर विचार किया जायगा ।
___B. Day Lewis ने अपनी 'The Poetic Image' ___ मनीषियों का अभिमत है कि विशुद्ध रसात्मक काव्य पुस्तक में बिम्ब की परिभाषा देते हुए लिखा है-"The साहित्य के अतिरिक्त प्राचार, सिद्धांत, दर्शन और नीति- poetic image is a picture in words touched मूलक ग्रंथों में भी काव्य-सौन्दर्य यथेष्ट मात्रा में वर्तमान with some sensuous quality."'अर्थात् बिम्ब के शब्द है। जीवन और जगत् का विस्तार एवं रूपमाधुर्य की अनु- मित्र हैं, जो भावनाओं के स्पष्टीकरण हेतु या उन्हें मूर्तरूप भूति इस कोटि के साहित्य में कम नहीं है । लेखक अपनी प्रदान करने के लिए कवि या शास्त्रकार के मानस में भावनाओं और सिद्धान्तों के स्फोटन के निमित्त बिम्बों, मंकित होते हैं। काव्यात्मक भावनाओं की वास्तविक अभिकल्पनामों एवं अलंकारों की योजना करते हैं, जिससे व्यञ्जना बिम्बों द्वारा संभव है। सैद्धांतिक रचनाओं में भी काव्यात्मक चमत्कार उत्पन्न हो बिम्ब शब्द कवि की उन मानस प्रतिमाओं का पर्याय जाता है। इसी कारण पाश्चात्य विचारक वेन्सन सिमण्ड, है जो काव्यात्मक संवेदनों को स्पष्ट करने के लिए मूत्तिक गोथे, रस्किन और मैथ्यू आर्नल्ड ने धर्म और सदाचार को रूप में साकार होते हैं । कवि या शास्त्रकार अपनी अनुभूति काव्य का भावश्यक अंग माना है । स्कॉट जेम्स ने अपनी को पाठकों की अनुभूति बनाने के लिए बिम्ब विधान की "The making of Literature" नामक पुस्तक में बत- योजना करता है । वास्तविकता यह है कि जहाँ शब्द अर्थलाया है "The feeling of the beautiful accord- ग्रहण के अलावा और कुछ कहने में समर्थ हो, वहाँ शब्द ing to Ruskin, does not depend on the senses, बिम्ब बन जाता है । दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि nor on the intellect, but on the heart, and is विशेष प्रकार के अर्थवान शब्द ही बिम्ब हैं। due to the sense of reverence, gratitude and मनोवैज्ञानिकों ने विषयों की दृष्टि से बिम्बों का joyfulness that arises from recognition of the अध्ययन किया है । ऐसी वस्तु, जो विषयी में बार-बार एक handwork of God in the object of nature." ही प्रकार के मनोवेगों को जाग्रत करे, उसे उस भाव का मर्थात् रस्किन के अनुसार सौन्दर्यानुभूति इन्द्रियों और बुद्धि बिम्ब कहा है । प्रक्रिया यों है कि विषयी के मन में जबपर अवलम्बित न होकर हृदय पर माधारित रहती है। जब एक विशेष प्रकार का भाव उठेगा, तब-तब उसके इसकी उत्पत्ति कला के प्रति श्रद्धा कृतज्ञता और प्रसन्नता के सामने उससे तुल्यार्थता रखने वाली वैसी ही वस्तु हो कारण होती है। वेन्शन ने कहा है-"All literature जायगी । जैसे डरपोक व्यक्ति जब भी अन्धकार में जायगा answers to something in life, some habitual 1. The Poetic Image. p. 19,
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किरण ५
उसके सामने ठूंठ भी भूत बन जायगा। इसी तरह किसी वस्तु विशेष को अपनी भावनाओं के प्रक्षेपण से उस रूप में ग्रहण कर लेना, जो उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है, विम्ब -विधान है। विम्ब-विधान उपमान से भिन्न है। इसका क्षेत्र भी उपमान की अपेक्षा अधिक व्यापक है।
प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तों को बिम्ब योजना
आलोचकों का मत है कि उपमान अपने मीतर जितना अर्थ ग्रहण करता है, उससे कहीं अधिक प्रर्थं बिम्बविधान के पेट में पैठ जाता है । उपमान शब्द यह प्रकट करता है कि जहाँ तुलना हो, वहीं इसका प्रयोग उचित है और उन्हीं अलंकारों में इसका प्रयोग पाया जाता है जो, औपम्यगर्भ है, किन्तु विम्ब-विधान व्यापक है। इसका प्रयोग सभी अलंकारों में पाया जाता है । कवि या शास्त्रकार किसी विशेष प्रतिमा या विम्ब के द्वारा किसी भी मूर्ति भाव को चमत्कारी ढंग से अभिव्यक्त करता है। यही कारण है कि एक शब्द, एक वाक्य, एक सन्दर्भ और एक ग्रंथ का समस्त विषय भी बिम्ब का कार्य करता है । बिम्ब के विषय जीवन के सभी क्षेत्रों से लिये जा सकते है पर इस बात का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि बिम्बों के माध्यम से वस्तुनों के रूप और गुण का अनुभव तीव्र हो सके ।
भावों का उत्कर्ष दिखलाने, उन्हें तीव्र करने, व्यञ्जित करने, सुबोध तथा प्राञ्जल बनाने के लिए बिम्बों की आवश्यकता होती है। अमूर्त से अमूर्त भावनाएं भी विम्बों के माध्यम से साकार रूप धारण कर प्रस्फुटित हो जाती हैं । प्रस्तुत योजना और वाक्यवक्रता के कार्यों का भी सम्पादन बिम्बविधान द्वारा सम्पन्न होता है। भाषा और चिन्तन के मूल उपादान बिम्ब ही हैं।
बिम्ब या प्रतिमाओं का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है । उद्भव के आधार पर बिम्ब दो प्रकार के होते है-स्मृतिजन्य और स्वरचित ज्ञानप्राप्ति के साधनों के । अनुसार भी बिम्ब दो प्रकार के माने गये हैं-ऐन्द्रिक और अतीन्द्रिय ऐन्द्रिक विग्धों के पांच भेद हैं- (१) स्पाशिक या शीतोष्ण बोषक विम्य, (२) रासनिक बिम्ब, (३) घाणिक बिम्ब, (४) चाक्षुष बिम्ब और (५) श्रावण बिम्ब ।
प्राचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटहार में सादृश्यमूलक
१५७
विम्बों का प्रयोग अधिक किया है। उपमा, उत्प्रेक्षा धौर रूपक अलंकारों में यथातथ्य और स्वच्छ बिम्बों का प्रचुर परिमाण में प्रयोग हुआ है।
स्पाशिक बिम्ब इस कोटि के बिम्ब पर्याप्त मात्रा में आये हैं। इस प्रकार के बिम्बों का प्रधान कार्य स्पर्शनइन्द्रिय द्वारा बाह्य पदार्थ की प्रतिमा विम्ब से किसी विशेष भाव प्रथवा सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करना है ।
यथा
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सम्मत रमरणपम्ययसिहरायो 'सासादन गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए एक बिम्ब उपस्थित किया है कि पर्वत से गिरकर भूमि को प्राप्त न होने की स्थिति अर्थात् मध्यवर्ती अवस्था —सासादन है । बात यह हैं कि जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, तब तक मध्यवर्ती स्थिति सासादनगुण-स्थान की है । प्रतः सासादनगुणस्थान को हृदयंगम करने के लिए प्राचार्य ने 'पर्वत से च्युत और भूमि को प्रप्राप्त' इस अव्यक्त अवस्था रूप मानस प्रतिमा द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ में से किसी भी कषाय के उदय से सम्यक्त्व की विराधना और मिथ्यात्व की अप्राप्ति की सूचना दी है। पर्वत को रत्न पर्वत कहा है, जो स्पष्टतः सम्यक्त्व का द्योतक है और पर्वत तथा भूमि की मध्य स्थिति अव्यक्त प्रतत्व श्रद्धान की अभिव्यञ्जक है बिम्ब पर्याप्त स्वच्छ है, मध्य स्थिति का सादृश्य लेकर । अव्यक्त अतत्त्वश्रद्धान को स्पष्ट किया है । पर्वत की चोटी से कोई भी व्यक्ति अपनी किसी भूल से ही गिरता हैपैर लड़खड़ाने या अन्य किसी कारण से अपने को न संभाल सकने से पतन होता है, इसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्व या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के प्रन्तर्मुहूर्तकाल में से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः भावली शेष रहने पर धनन्तामुबन्धी कथाय का उदय भाने से सम्यक्त्व से पतन होता है। यहां मध्यवर्ती अवस्था का बिम्ब अव्यक्त प्रतत्त्व श्रद्धानरूप सासादन के स्वरूप को स्पष्ट कर रहा है ।
विमलयर कारण हुयवहसिहाहिं' - निर्मल ध्यानाग्नि की शिखा लपटों से । यहाँ कर्म बन्धन के कारण होने वाले
१. गोम्मटसार- जीवकाण्ड गामा २०
२. गोम्मटसार जीवकाण्ड गा० ५७
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क्लेश, दुःख और सन्ताप का भूतिमान रूप दिखलाने के वाही बतलाने के लिए कावड़ी का बिम्ब उपस्थित किया लिए बन बिम्ब की योजना की है। वन जैसे विराट, गया है जिस प्रकार कावड़ी द्वारा मजदूर निरन्तर बोझा विशाल और भयंकर होता है तथा इसमें नाना तरह के ढोता रहता है, और उससे रहित होने पर सुखी होता है; हिंसक पशु व्याप्त रहते हैं, उसी प्रकार कर्मबन्धन भी उसी प्रकार यह संसारी जीव काय के द्वारा कर्मरूपी बोझा स्थिति और अनुभागबन्ध की अपेक्षा सघन और भयंकर को नाना गतियों में लिये चलता है तथा काय और कर्म है। नाना प्रकार के कष्ट, जन्म-मरण आदि कर्मों के कारण के प्रभाव में परम सुखी होता है । यद्यपि गाथा में कावड़ी ही होते हैं। अत: बन बिम्ब कर्मों का साङ्गोपाङ्ग स्वरूप का दृष्टान्त दिया गया प्रतीत होता है, पर यह वास्तव में उपस्थित करता है।
बिम्ब है। कावड़ी शब्द हमारे मानस पटल में एक ऐसी वन को भस्म कर मैदान तैयार किया जाता है। प्रतिमा अंकित कर देता है, जो भारवाहक की भावभूमि भस्म करने के लिए अग्नि की पावश्यकता होती है । अतः का पूर्ण चित्र है; उसकी बाह्योन्मुखी स्वाभाविक प्रति. यहाँ ध्यान को अग्नि की लपटों का बिम्ब दिया गया है। क्रियों का बिम्ब है। इस बिम्ब द्वारा काय-शरीर का कर्मों का विनाश, उनकी गुणश्रेणी निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्वभाव, क्रिया-प्रक्रियाएं और उसकी बाहोपाधि स्पष्ट स्थितिखण्डन और अनुभागकाण्डकखण्डन प्रादि कार्य हो जाती है। अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्नि की शिखामों की सहा- तिणकारिसिट्टपागग्गि'-तृण-कारीष-इष्टपाक-अग्नि । यता से सम्पन्न होता है। अतएव ध्यान को अग्निशिखा पुरुषवेद स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में होने वाले कषाय परिपौर कर्म को वन का बिम्ब दिया गया है।
णामों की तीव्रता और मन्दता व्यक्त करने के लिए उक्त कम्मरय'-कर्मरज । कर्मों का स्वरूप और स्वभाव बिम्ब पाये हैं । पुरुषवेद में होने वाले कषायभावों का बतलाने के लिए रज-धूलि का बिम्ब उपस्थित किया गया __ स्वरूप प्रकट करने के लिए तण-अग्नि का बिम्ब उपस्थित है। लि का कार्य किसी भी स्वच्छ वस्तु को मलिन करना किया है। तृणाग्नि कुछ समय तक प्रज्वलित रहती है, है। यदि वस्तु चिकनी होगी तो उस पर धूलि और अधिक पुनः शान्ति हो जाती है । एक क्षण के लिए ही प्रकाशित चिपकेगी तथा उस वस्तु को अधिक समय तक मलिन होती है, साथ ही यह एक विशेषता भी है कि थोड़ी सी बनाये रखेगी। इसी प्रकार राग-द्वेष रूपी तैल से लिप्त हवा के चलने या किसी अन्य निमित्त के मिलने से तृणाग्नि मात्मा में कर्म-रज चिपकती है और मात्मा को मलिन बना प्रज्वलित हो जाती है। इसी प्रकार पुरुषवेद में थोड़े से उसके ज्ञान, दर्शन और सुखादि को आच्छादित कर देती निमित्त के मिलने से राग उत्पन्न हो जाता है। पर यह है। प्राचार्य ने प्रयोगकेवली का स्वरूप बतलाते हुए कर्मों रागभाव टिकाऊ नहीं होता; क्षणविध्वंशी होता है। की निर्जरा प्रदर्शित करने के लिए 'कम्मरयविप्पमुक्को- तृणाग्नि के समान क्षण भर में प्रज्वलित और क्षणभर में कर्म रज से रहित कहा है। रज का बिम्ब कमों के सम्बन्ध शान्त होने वाला होता है । स्त्रीवेद में होने वाले कषाय परिमें पूर्ण स्वच्छ और साङ्गोपाङ्ग चित्र उपस्थित करता है। णाम कारीष अग्नि के समान हैं। कारीष भग्नि-अंगारे रज-धूलि जिस प्रकार किसी स्वच्छ वस्तु को पाच्छादित की अग्नि राक्ष से दबी रहने पर भी दहकती रहती है और कर मलिन बना देती है, उसी प्रकार कर्म भी प्रात्मा को पर्याप्त समय के पश्चात् शान्त होती है। इसी प्रकार स्त्रीमलिन बनाते हैं । रज द्वारा कर्मों का स्पर्श, रस, वेद में रागभाव भीतर ही भीतर प्रज्वलित रहता है। गन्ध और वर्णयुक्त होना भी सिद्ध होता है। रज विम्ब पर्याप्त समय के पश्चात् राग शान्त होता है। कारीष यथार्थ है।
अग्नि की विशेषता यह है कि यह कुछ अधिक या महत् कावलियं-कावटिका । शरीर को प्रात्मा का भार
निमित्त मिलने पर उद्दीप्त होती है तथा इसका उपशमन
भी कुछ अधिक समय के बाद होता है । यह मग्नि पषिक १. वही गाथा ६५ २. वही गाथा २०१
३. गोम्मटसार जीवकाण्ड गा० २७५
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भाचार्य नेमिचन्ना सिवान्तावती की बिम्ब योजना
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समय तक रहनेवाली होती है। इसी प्रकार स्त्रीवेद में का ही सूचक नहीं, अपितु उसके स्थायित्व का द्योतक है। कषाय परिणाम अधिक समय तक आत्मा को कलुषित पत्थररेखा जितनी स्थायी और अमिट होती है, क्रोध का करते रहते हैं।
उतना ही उग्र एवं अधिक समय तक रहना अनन्तानुबन्धी नपुंसकवेद में होने वाले कषाय परिणामों की कलुषिता रूप है। पत्थररेखा हमारे समक्ष तीन चित्र उपस्थित को प्रवा-भट्टा में पकती हुई ईंट की अग्नि के समान करती है-(१) कठोरता (२) गहनता पार (३) बताया है। ईंट की अग्नि को हवा आदि के निमित्त की स्थायित्व का । अनन्तानुबन्धी क्रोध कषाय में भी ये तीनों आवश्यकता नहीं; यह बिना किसी निमित्त के ही प्रज्ज्व- बातें वर्तमान हैं। इस कोटि का कोष कठोर होता है, गहरा लित रहती है। इसी प्रकार नपुंसकवेद को कषायोद्रेक के होता है और अधिक समय तक रहने वाला होता है। इसी लिए निमित्त की आवश्यकता नहीं। इस वेद वाले प्राणी कारण यह क्रोध सम्यक्त्व की उत्पत्ति में बाधक होता है। के परिणाम यों ही प्रतिक्षण कलुषित रहते हैं। यद्यपि पृथ्वीरेखा का बिम्ब भी तीन चित्र प्रस्तुत करता है। उक्त तीनों प्रकार की अग्नियां यहाँ उपमान हैं और इन १. अल्प काठिन्य-स्पर्शन इन्द्रिय जन्य अनुभूति से परिचित मूर्तिक उपमानों द्वारा वेदों में होने वाले कषाय अवगत होता है कि पृथ्वी रेखा में कठोरता अल्प परिमाण भावों का विश्लेषण किया है; तो भी इन तीनों को हम में रहती है। पत्थररेखा का स्पर्श कठोर होता है; पर बिम्ब मानते है । यतः ये तीनों उपमान पाठकों के समक्ष पृथ्वीरेखा का स्पर्श कुछ मृदु । भावों को परखने के लिए एक नया दृष्टिकोण उपस्थित (२) गाम्भीर्य-पृथ्वीरेखा भी गहरी हो सकती है, करते हैं । ये तीनों बिम्ब इतने स्वच्छ और गम्भीर हैं कि पर इस गहराई में कठोरता अल्प परिमाण में रहने से आधुनिक मनोविज्ञान के समान पुलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और स्थायित्व नहीं रहता। गहराई तभी अपना महत्व रखती नपुंसकलिङ्ग में होने वाले परिणामोद्रेक को स्पष्ट करते है। है जब उसमें कठोरता रहे। कठोरता के अभाव में गहराई
कम्प्रवेत्तं'-कषाय के स्पष्टीकरण के लिए कर्म को शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। खेत-क्षेत्र का बिम्ब दिया है। खेत को उपजाऊ बनाने (३) स्थायित्व के लिए काठिन्य का रहना आवश्यक के लिए जोता जाता है, उसमें खाद भी दी जाती है तथा है। पृथ्वीरेखा में अमिट होने की शक्ति नहीं है। अतः उसे चौरस किया जाता है। इसी प्रकार कषायकर्म को पृथ्वीरेखा का बिम्ब अप्रत्याख्यानावरण क्रोध की सम्यक् अधिक अनुभागशक्ति और स्थितिबन्धवाला बनाती है। अभिव्यञ्जना करने में सक्षम है। यह कषाय देशचारित्र यह एक प्रकार से हल का कार्य करती है; हल द्वारा की उत्पत्ति में रुकावट डालती है। जोतने पर ही खेत में अच्छी फसल उत्पन्न होती है, इसी धूलि रेखा का बिम्ब तीन बातें प्रकट करता है - प्रकार सुख-दुःख की भावनाओं की उत्पत्ति कर्मक्षेत्र के
१. मृदुता-पृथ्वीरेखा की अपेक्षा धूलिरेखा मृदु कर्षण से होती है । क्षेत्रबिम्ब खेत की मात्र लम्बाई-चोड़ाई होती है। का ही चित्र सामने उपस्थित नहीं करता; बल्कि खेत के
२. अधिक गहनता का प्रभाव-धूलिरेखा में अधिक उपजाऊ होने और उसे उर्वरा शक्ति युक्त बनाने या होने गहनता नहीं पाई जाती। यह रेखा अधिक गहरी नहीं हो का भी चित्र प्रस्तुत करता है।
सकती। सिलपुतविभेद'...."। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान
३. स्थायित्व की अल्पता-धूलि रेखा में कठोरता प्रत्याख्यान और संज्वलनक्रोध की शक्ति को स्पष्ट करने के
और गहराई इन दोनों गुणों के नाममात्र रहने से स्थायित्व हेतु-पत्थररेखा पृथ्वीरेखा धूलिरेखा और जलरेखा के बिम्ब सकसी
की कमी रहती है। अतः इस कोटि का प्रत्याख्यान क्रोध प्रस्तुत किये गये हैं। पत्थररेखा का बिम्ब मात्र कठोरता
होता है । यह क्रोध भी शीघ्र ही दूर होने वाला होता है । १. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८१
यह सकल चारित्र की उत्पत्ति में बाधक होता है । २. वही गाथा २८३-२८५
जलरेखा का बिम्ब भी तीन बातें उपस्थित करता है
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२०.
१. पूर्ण मृदुता-जलरेखा अत्यन्त मृदु होती है।
३. लेप स्वयं भौतिक एवं लिप्त करने की योग्यता २. गहनता का प्रायः प्रभाव-जल रेखा गहरी नहीं सम्पग्न होता है। होती।
इस बिम्ब के उक्त तीनों चित्रों से स्पष्ट है कि लेश्या ३. मस्थायित्व-जलरेखा अस्थायी होती है, जल में कर्मपरिणति से युक्त प्रशुद्ध मात्मा में ही पायी जाती है। रेखा खींचते जाइये और वह नष्ट होती जायगी। अतः शुद्धात्मा में लेश्या का प्रभाव है। कषाय और योग के क्रोध की ऐसी परिणति, जिसमें परिणाम उग्र न हों तथा उदय से अनुरंजित पात्म प्रवृत्ति में इस प्रकार की योग्यता तत्काल ही परिणामों में शांति उत्पन्न हो जाय । इस विद्यमान है, जिससे प्रात्मा पुण्य-पाप से लिप्त हो जाती है। प्रकार का क्रोष मन्द और क्षणभंगुर होता है। यह संज्व- प्रशुद्ध आत्मा में ही कर्मबन्धापेक्षया स्निग्ध, रूक्षत्वादि गुण लनक्रोष यथास्यात चारित्र की उत्पत्ति में बाधक होता है।
पाये जाते हैं, अतएव विकारों और मनोरागों की उत्पत्ति पत्थर, हड्डी, काठ और वेंत अपनी कठोरता की
होती है । ये विकार और मनोराग मात्मा को पुण्य-पापमय हीनाधिकता के कारण क्रमशः अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान,
कर्मों से लिप्त करते हैं। अतएव "लिंपई' शब्द बिम्ब है प्रत्याख्यान और संज्वलन मान का यथार्थ स्वरूप उपस्थित
और यह हमारे मूल मनोभावों के रागात्मक स्तरों का
सफल आकलन करता है। करते है । बांस की जड़, मेढ़े का सींग, गोमूत्र और खुरपा
करणमोवलाण-भवसिद्ध का स्वरूप स्पष्ट करने के अपनी वक्रता के परिणामानुसार माया के चारों रूपों की अभिव्यंजना करते हैं। यहां उपमानों का अवलम्बन लेकर
लिए उपमान के रूप में इस शब्द बिम्ब को प्रस्तुत किया
गया है। कनकोपल में निमित्त मिलने पर शुद्ध स्वर्णरूप बिम्बों को उपस्थित किया गया है। इन बिम्बों द्वारा
होने की योग्यता है, पर निमित्त के प्रभाव में इस योग्यता उपमान की अपेक्षा भावों का उत्कर्ष एवं कषायों का
की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है। इसी प्रकार जिन जीवों स्वरूपानुभव और गुणानुभव अधिक स्पष्ट रूप में होता
में अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता तो है, पर है। यदि उक्त चारों को उपमान मान लिया जाय तो कषायों के रूपानुभव को तीव्रता तो प्राप्त हो सकती है, पर क्रिया
जो इस योग्यता को निमित्ताभाव के कारण कभी प्राप्त
नहीं कर सकते, भवसिद्ध हैं। इस बिम्ब द्वारा निम्न चित्र व्यापारों की व्यापकता एवं विविधता मूर्तिमान होकर
उपस्थित होते हैंसामने उपस्थित नहीं हो सकती। अतः प्राचार्य नेमिचन्द्र के उक्त उपमान बिम्ब का कार्य कर रहे हैं, इनके द्वारा
१. अशुद्धता है। मनोवेगों की गहनता और स्थायित्व का स्पष्ट बोध होता
२. अशुद्धता का दूर होना सम्भव है।
३. अशुद्धता को दूर करने के लिए कारण-कलाप
सम्भव है, पर इस प्रकार के निमित्त ही नहीं मिल पाते, लिप -लेश्या के स्वरूप के स्पष्टीकरण के हेतु जिसमे व प्रशद
हतु जिससे वह अशुद्धता दूर हो सके। 'लिपह' शब्द द्वारा एक सुन्दर और स्पष्ट बिम्ब उपस्थित
४. कनकोपल का मैल साफ करने के लिए रासायनिक हमा है। दीवाल धरातल या अन्य किसी लम्बाई-चौड़ाई पदार्थों का उपयोग किया जाता है, इसी तरह प्रात्मा के यक्त रूपाकृतिवाली वस्तु को लिप्त किया जाता है । अतः मैल दूर करने के लिए रत्नत्रय को धारण किया जाता है। इस बिम्ब द्वारा निम्न बातें उपस्थित होती हैं:
मुहकमल.--मुख की मृदुता और सुषमा का भाव १. किसी मूत्तिक वस्तु को लिप्त किया जाता है-- व्यक्त करने के लिए साहित्यकार कमल का बिम्ब उपलिप्त करने के लिए किसी माधार का होना आवश्यक है। स्थित करते हैं । कमल में कोमलता, सुषमा, सुगन्धि, मादि
२. लेप को ग्रहण करने की योग्यता-रूक्षादि गुणों गुण पाये जाते हैं; तीर्थंकर महावीर के मुख में भी इन सद्भाव।
२. वही गाथा ५५७ १. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाया।
३. वही गाथा ७२७
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किरा
माचार्य नेमियन सिद्वान्त-
भर्ती की बिम्ब योजना गुणों का सद्भाव दिखलाया गया है सन्ध्या समय कमल अभिव्यक्ति है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने इस कोटि के थोड़े के संकुचित हो जाने से भ्रमर कमल में ही बंध जाते हैं; ही बिम्न उपस्थित किये हैं। पर प्रातःकाल सूर्योदय के होते ही निकल पड़ते हैं। तीर्थ- महुरंतु रसं जहा जरिदो'-मिथ्यात्व प्रकृति के उदय कर महावीर के मुख से भी दिव्यध्वनि निकली है और से व्यक्ति को धर्म स्वरूप, पित्तज्वर से प्राकान्त व्यक्ति द्वादशांगवाणी का संकलन उन्हीं की दिव्यध्वनि से हुआ को मधुररस के समान अरुचिकर प्रतीत होता है। यहां है। कमल की "केन मस्तकेन मल्यते धार्यत कमलम्"' 'महुरं खु रसं जहा जरिदो' बिम्ब द्वारा निम्न अनुभूतियों व्युत्पत्ति के अनुसार कमल मस्तक पर धारण किया जाता पर प्रकाश पड़नाहै; तीर्थकर का लावण्य पूर्व तेजस्वी मुख भी वन्दनीय १. बाह्म रूप में स्वस्थ और भीतर से अस्वस्थ दिखहोता है। प्रतएव प्राचार्य नेमिचन्द्र ने स्पर्शन इन्द्रियजन्य लायी पड़ना। अनुभूति के आधार पर कमल का सादृश्य लेकर तीर्थकर २. अन्तरंग अस्वस्थता के कारण यथार्थानुभव की महावीर के मुख में कमल-बिम्ब का आयोजन किया है। कमी।
सुबसायर'द्वादशाजवाणी की विशालता और ३. अस्वस्थता के कारण रसनेन्द्रिय सम्बन्धी अनुभूति गम्भीरता प्रकट करने के लिए सागर की बिम्ब योजना को विपरीतता। की गयी है। इस बिम्ब द्वारा निम्न तथ्य स्पष्ट होने हैं- ४, ज्वर के कारण अन्तरंग ज्ञानानुभूति की प्रक्रिया १. समुद्र विशाल होता है, द्वादशाङ्गवाणी भी विशाल है। में विशृङ्खलता। जितने पदार्थों का निरूपण केवलज्ञान करता है, श्रुतज्ञान ५. ज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक मनोवृत्तियों भी उतने ही विषयों का निरूपण करता है।
का प्रभावहीन होना; परिणामस्वरूप सहजक्रियाओं में भी २. सागर में अमृत निकलता है, द्वादशाङ्गवाणी अजर- उपाधियुक्त परिवर्तन का पा जाना। अमर बनाती है। जिस प्रकार समुद्र से उत्पन्न अमृत को ६. मूल प्रवृत्तियों के धिकृत होने से स्थायी भावों के प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है, उसी प्रकार श्रुत- संस्कारों में विपरीतता और संवेगजन्य अनुभूतियों में ज्ञान के अध्ययन के अनन्तर भी जब तक प्रात्मानुभूति की क्षीणता । फलस्वरूप संवेदन शक्ति की अपूर्णता के कारण प्राप्ति नहीं होती, तब तक अजर-अमरपद-निर्वाण प्राप्त अपूर्ण या अधूरे व्यक्तित्व का निर्माण होना। नहीं किया जा सकता है।
बिम्बगत उक्त अनुभूतियों के प्रकाश में कहा जा ३. सागर रत्नाकर कहलाता है, श्रुतज्ञान-द्वादशांग- सकता है कि मिथ्यात्व-प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाणी भी रत्नत्रय रूपी मणि-माणक्यों का भण्डार है। वाले मिथ्यापरिणामों का अनुभव करने वाले व्यक्ति को
४. सागर विशाल होने के साथ गम्भीर भी होता है। अन्तरंग अस्वस्थता के कारण धर्म अच्छा नहीं लगता। द्वादशांगवाणी भी ग्रंथ परिमाण की दृष्टि से जितनी मिथ्यात्व-प्रकृति मानसिक ग्रन्थि है, इसके कारण ऊपर से विशाल है, उतनी ही गम्भीर भी है। एक-एक ग्रन्थ के स्वस्थ रहने पर भी अन्तरंग में धर्मवृत्ति रुचिकर प्रतीत अध्ययन में जीवन की समाप्ति की जा सकती है। नहीं होती। बिम्ब सम्यग्दृष्टि के समान पाचरण करने
रासनिक बिम्ब-इस श्रेणी के बिम्बों में रसना वाले व्यक्ति की अन्तरंग परिणति की यथार्थता प्रकट कर इन्द्रियजन्य अनुभूति के आधार पर भावों की अभिव्यंजना रहा है। यहाँ अभिधेय अर्थ को मास्वादनानुभूति द्वारा की जाती है। इस कोटि के बिम्ब भी उपमा, उत्प्रेक्षा स्पष्ट किया गया है। और रूपक मूलक होते हैं। बिम्बों का उपादान तत्त्व दहिगुडमिव वामिस्स-दही गुड़ के मिश्रित खट-मिट्ठ
या वसादृश्य द्वारा भावा का साकार मार सघन स्वाद की अनुभूति द्वारा तृतीय गुणस्थान में जात्यातर १. नाममाला का प्रमरकीर्ति का भाष्य पृष्ठ १०
३. जीवकाण्ड गाथा १७ २. कर्मकाण्ड गाथा ७८५
४. जीवकाण्ड गाथा २२
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२०२
सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व ४. दृष्टान्त जब बिम्ब बनते हैं, उस समय उनकी रूप में होने वाली मिथ परिणति का चित्र उपस्थित किया मावेग कोटियाँ प्रौदात्य की मोर झुकी रहती हैं। अन्तरंग गया है । यह बिम्ब निम्न तथ्यों पर प्रकाश डालता है- धारणाएं, जिनका सम्बन्ध प्रस्तुतों के साथ है, अप्रस्तुत १. मिश्रण रहनेसे पृथक्करण असम्भव ।
दृष्टान्त बिम्ब द्वारा सहज में प्रयोग स्थान, परिस्थिति, रीति २. जात्यन्तर स्वाद-विचित्रानुभूति ।
एवं उद्देश्यानुकूल अभिव्यक्त होती है। अतएव गुगादि की ३. एक ही समय में दो विभिन्न प्रकार की विपरीत रसानुभूतिजन्य शक्ति कर्मप्रकृतियों की शुभाशुभ फलानुअनुभूतियों का मिश्रित रूप में रहना।
भूति को व्यक्त करती है। .. ४. व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होने वाले चाक्षुष बिम्ब-चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण की जाने वाली विचित्र एवं मिश्रित स्थायी भावों का संयोग-तृतीय प्रतिमानों की समानता से भावों के स्पष्टीकरण में चाक्षुष गुणस्थान में मिश्रित परिणति रहने से जात्यन्तर संवेग बिम्बों की योजना की जाती है। जो रूप व्यापार हमें और अनुभूतियों द्वारा मिश्रित प्रभाव ।
तनिक भी आकृष्ट नहीं करते, वे ही सौन्दर्य एवं अनेक गुडलंग्सकरामिय'-मघातिया कर्मों में प्रशस्त- मनोवैज्ञानिक मसालों के मिश्रण से प्रत्यक्ष जगत् के पदार्थों पुण्य प्रकृतियों की शुभफलदायक शक्तियों का विवेचन के सौन्दर्य में कई गुनी वृद्धि कर देते हैं। अभिप्राय यह है करते हुए गुड, खांड, मिश्री और अमृत के स्वाद का बिम्ब कि बाहिरी जगत् के जो पदार्थ हमें साधारणतः प्राकृष्ट प्रस्तुत किया गया है । गुड, खांड, मिश्री एवं अमृत जिस नहीं करते, वे ही कल्पना के माध्यम से बिम्ब का रूप प्रकार स्वाद-मधुरिमा में उत्तरोत्तर श्रेष्ट हैं, उसी प्रकार धारण कर एक विचित्र मोहिनी उत्पन्न कर देते हैं । सूक्ष्म पुण्य प्रकृतियों के मनुभाग में भी उत्तरोत्तर सुखाधिक्य एवं मानसिक सौन्दर्यानुभूति को आचार्य नेमिचन्द्र ने भी पाया जाता है। पाप प्रकृतियों के दुःखाधिक्य के विश्लेषण चाक्षुषबिम्बों द्वारा अभिव्यक्त किया है। यद्यपि इनके के लिए निम्ब, कांजीर, विष और हलाहल के स्वाद की बिम्ब साधारण पदार्थों के ही हैं, तो भी कलागत चमत्कार कटुता की हीनाधिकता का बिम्ब उपस्थित किया है। एवं सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण समुचित रूप में हुमा है। इन बिम्बों द्वारा निम्न तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है- पाठक देखेंगे कि एक सिद्धान्त निरूपक दार्शनिक प्राचार्य
१. अच्छी वस्तुओं के स्वाद में उत्तरोत्तर माधुर्य एवं की साहित्य के क्षेत्र में कितनी गहरी सूक्ष्म पैठ है। कटु वस्तुओं के स्वाद में उत्तरोत्तर कटुता की अनुभूति गुणरयरणभूमणक्यं'-रत्न मूल्यवान् और भस्वर होती है।
पदार्थ है। यह पत्थर का टुकड़ा होते हुए भी साधारण २. सापेक्ष अनुभूति की स्थापना । समस्त सृष्टि की वस्तुओं की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखता है। जब सत्ता के मूल में राग तत्त्व व्याप्त है और इसके मूलतः किसी वस्तु की मूल्यगत विशिष्टता, उपादेयता और अनुपचार भेद हैं-सामान्य, तीव तीव्रतर और तीव्रतम् । गुह, लब्धता दिखलायी जाती है, तब इसका बिम्ब उपस्थित खांड, प्रादि चारों पदार्थ सामान्य, तीव्र, तीव्रतर और किया जाता है । कलाकार या शास्त्रकार के मानस में रत्न तीव्रतम इन चारों शुभरागात्मक अनुभूतियों की पभि- की प्राकृतिमात्र जड़ नहीं है और न चर्म चक्षुषों से दिखव्यंजना करते हैं। इसी प्रकार निम्ब, कांजीर, विष और लायी पड़ने वाली ही। उसके मानस में उसका ऐसा बिम्ब हालाहल अशुभराग की स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। है, जो पाठक या श्रोता के भावना-पटल पर प्रतिबिम्बित
३. मूर्तिक पदार्थों का प्रास्वादन भी मूर्तिक रूप में ही होकर उसको भावमग्न करने की पूर्ण क्षमता रखता है। होता है। गुड़, खांड़ प्रादि मूर्तिक पदार्थ हैं, ये कर्म प्रकृ- रल सम्यक्त्वादि गुणों के सम्बन्ध में सांगोपांग चित्र उपतियों की अनुभागशक्ति का मूर्तिक रूप में विश्लेषण उप- स्थित करता है। यह गुणों में प्रतीयमान अर्थ के समस्त स्थित करते हैं।
कार्य-व्यापारों की कलागत-सौन्दर्यानुभूति को उपस्थित कर १. कर्मकाण्ड गाया १८४
२. जीवकाण्ड गापा ।
गृह, खांड़ प्रादि मूत्तिक
षण उप- स्थित करता है।
पति को उपस्थित कर
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किरह
प्राचार्य मेमियन सिद्धान्त-मावती की बिम्बयोगमा
रहा है । अतः निम्न तथ्य दृष्टिगत होते हैं।
है, जब लालिमा का सर्वथा प्रभाव हो जाता है और वस्त्र १. सम्यक्त्वादि गुण महनीय हैं ।
• पूर्ण श्वेत निकल पाता है। इसी प्रकार लोभकषाय का २. इन गुणों की अनुपलब्धता-सम्यक्त्वादि गुण सूक्ष्म अस्तित्व दसवें गुण-स्थान में है, पर बारहवें गुणस्थान सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते।
में लोभ का प्रभाव हो जाता है और पात्मा पूर्ण स्वच्छ ३. सम्यक्त्वादि गुण अन्तरंग और बहिरंग को उज्ज्वल निकल आती है। बनाते हैं तथा इनके प्रकाश से रागात्मिक वृत्ति का मनो- कवककलजुबजलं -ग्यारहवें उपशान्त कषाय नामक वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रदान, विलियन, मार्गान्तरीकरण और गुणस्थान में होने वाले भावों की निर्मलता को स्पष्ट करने शोष द्वारा परिष्करण होता है।
के लिए कतकफलयुक्त जल अथवा शरत्कालीन सरोवर के ४.मात्मा के वास्तविक उपादेय गुण ये सम्यक्त्वादि जल में बिम्ब की योजना की गयी है। निर्मली डालकर ही हैं और ये ही प्रात्मा के भूषण हैं।
स्वच्छ किया गया जल ऊपर से स्वच्छ दिखलायी पड़ता गलियतिमिरेहि'-तिमिर अन्धकार सघन और है, पर गन्दगी उसके नीचे दबी रह जाती है । इसी प्रकार कृष्णवर्ण का होता है, जब इसके कई परत एकत्र हो जाते शरत्कालीन तालाब का जल ऊपर से निर्मल दिखलायी हैं और इसकी सघनता बढ़ जाती है, तो रूपदर्शन का पड़ता है, पर थोड़ा ही बाह्य निमित्त मिलते ही गन्दा हो प्रभाव हो जाता है । अज्ञान के इसी स्वरूप की अभिव्यंजना जाता है, नीचे दबी हुई गन्दगी ऊपर आ जाती है। यह के निमित्त तिमिर बिम्ब की योजना की गयी है। प्रज्ञान बिम्ब शुद्धपरिणामों की तह में स्थित कषाय प्रवृत्तिके पूर्णतः नष्ट होने पर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है उपशान्त कषाय का स्पष्टीकरण करता है। और उस समय दिव्य मालोक छा जाता है। अन्धकार के फलिहामलमायणबयसमचित्तो'-'स्फटिक के पात्र में नष्ट होने पर भी प्रखण्ड प्रकाश व्याप्त हो जाता है। रखा हुमा निर्मल जल' प्रत्यधिक या पूर्णत: निर्मलता का तिमिर बिम्ब अज्ञान के समस्त स्वरूप की पूर्णतया अभि- बिम्ब उपस्थित करता है। क्षीणकषाय गुणस्थान में समस्त व्यञ्जना करता है।
विकारों के निकल जाने से प्रात्मप्रवृत्ति बिल्कुल निर्मल हो धुदको भयवत्वं सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुण- जाती है। समस्त मोहनीय कर्म का विनाश होने से प्रत्यंत स्थान में सूक्ष्मलोभ के रहने से होने वाली भात्मवृत्ति को शुद्ध परिणति उत्पन्न होती है। इस बिम्ब द्वारा निम्न चित्र धुले लाल वस्त्र के बिम्ब द्वारा उद्घाटित किया गया है। उपस्थित होते हैं। लाल रंग से रंगे वस्त्र के धुलवा देने पर भी उसमें हल्की १. निर्मल वस्तु निर्मल पात्र में अत्यधिक निर्मल सी लालिमा लगी रह जाती है । इसी प्रकार संज्वलन लोभ प्रतीत होती है । प्रात्मा स्वभावतः निर्मल है। मोहनीय कर्म के अवशेष रहने पर दसवें गुण-स्थान में यञ्चित् राग- के विनाश से प्रात्मा के भोपाधिक विकार भी नष्ट हो जाते वृत्ति लगी रह जाती है। इस बिम्ब द्वारा निम्न तथ्य हैं। जिससे प्रात्मा पूर्णतः निर्मल प्रतीत होने लगती है। दृष्टिगत होते हैं।
२. निर्मल जल के समान चित्त को निर्मल कहने से १. लाल रंग के पक्के होने के समान लोभकषाय का हमारे नेत्रों के समक्ष दो दृश्य उपस्थित होते हैं। पहला स्थायित्व ।
दृश्य तो यह है कि प्रतीन्द्रिय संवेदन के अतिरिक्त अन्य २. लाल घुले वस्त्र की हल्की लालिमा के समान दसवें किसी ब्यापार की अवस्थिति नहीं है । मूलवृत्तियाँ-क्षुषादि गुण-स्थान में संज्वलनलोभ का अस्तित्व ।
की वृत्ति, जिनकी उत्पत्ति से चित्त में विकार उत्पन्न होता ३. उत्तरोत्तर लाल वस्त्र के धुलवाने पर भी उसकी है, समाप्त हो चुकी है। सहज क्रियामों द्वारा होने वाली लालिमा कम होती जाती है और एक ऐसी स्थिति माती मानसिक प्रतिक्रियाएं भी नहीं रही हैं। दूसरा चित्र यह १.जीवकाण्ड गा० ५४
३. वही गाथा ६१ २. वही गाथा ५९
४. वही गाथा ६२
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२०४
।
सामने आता है कि नाड़ीमण्डल की नैसर्गिक प्रवृत्तियां चलना, उठना बैठना यादि भी इतने परिष्कृत और वित क्षण है कि इनके कारण भी चित्त में कोई विकृति संभव नहीं । फलतः प्रसाधारण प्रवृत्तियों के कारण पित्त पूर्णतः निर्मल है। संसार के समस्त प्राणियों का हित साधन होता है। शरीर में इतनी शक्ति उत्पन्न हो गयी है, जिससे किसी भी प्राणी को तनिक भी कष्ट नहीं होता । फलतः पूर्ण अहिंसक होने के कारण चित्त में स्थायी निर्मलता निवास करती है।
३. यह बिम्ब अन्वीक्षावृत्ति (लॉजिकल फैकल्टी) द्वारा एक नवीन जातीय दृष्टि का उन्मेष करता है । चर्मचक्षुत्रों से हम जल की निर्मलता को देखते हैं तथा अन्तबिलास द्वारा उसके सौन्दर्य का निरीक्षण करते हैं; फलतः यह बिम्ब हमारे नेत्रों के समक्ष प्रयोजन विहीन चित्त की स्थिति को उपस्थित करता है । यतः प्रकार - प्रकारीगत विशिष्टताओं से मुक्त होने पर ही चित्त में स्थायी निर्मलता भाती है ।
ध
गिपश्वत्यादियाई 'घर और वस्त्रादि पदार्थों की पूर्णता अपूर्णता के बिम्ब द्वारा जीवों की पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था का स्वरूप व्यञ्जित किया गया है। गृहीत माहारवर्गणा को खसरस भागादिरूप परिमित करने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को पर्याप्ति और यह पर्याप्ति जिनके पाई जाये, उनको पर्याप्त तथा जिनकी शक्ति पूर्ण नहीं हुई है, उन जीवों को अपर्याप्त कहते हैं। गृह और वस्त्र पदार्थों का बिम्ब हमारे सम्मुख एक ऐसी प्राकृति प्रस्तुत करता है, जिसमें भौतिक पदार्थों का समवाय है। यह रामनाम पूर्ण और अपूर्ण इन दोनों अवस्थाओं के चित्र खींचता है । मसूरंकुविन्दु पृथ्वी, अप्, तेज और वायु काय के जीवों की शरीराकृति को अवगत कराने के लिए उपमान रूप में मसूर, जल-बून्द, सूचिका - समूह श्रौर ध्वजा की योजना की गई है । ये उपमान बिम्ब हैं; इनके द्वारा हमें उन चारों काय के जीवों का स्वरूप स्पष्ट अवगत हो जाता है । मसूर के समान पृथ्वीकाय के जीव की प्राकृति, जल
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१. वही गाथा ११७ २. वही गाथा २००
१४.
बिन्दु के समान जंतकाय के जीव की प्राकृति मुद्दयों के समूह के समान धनिकाय के जीव की प्राकृति और ध्वजा के समान वायुकाय के जीव की प्राकृति होती है। यहां पर ये उपमान विम्बों का कार्य करते हैं।
।
कंचणमग्गियं - शुद्ध स्वर्ण के बिम्ब द्वारा सिद्धों की शुद्धता की भावाव्यक्ति की गई है। अग्नि में तपाये जाने पर स्वर्ण के बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही भाग शुद्ध हो जाते हैं, उसका उभय प्रकार का मल जलकर भस्म हो जाता है। इसी प्रकार शुक्लध्यानाग्नि द्वारा म्रात्मा अपने कर्ममल को भरम कर शरीर और कर्म से रहित हो सिद्ध पदवी को प्राप्त कर लेती है । काय और कर्म बन्धन से मुक्ता मारमा की स्थिति का भवबोध 'अग्निगत कंचन' के बिम्ब द्वारा किया है।
8- -
किमिरायचक्क मल धनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान आदि लोभ के स्वरूपों को अवगत करने के लिए फिमिराग, चक्रमल, शरीरमल और हरिद्वारंग के उपमानों का प्रयोग किया है। ये उपमान लोभकषाय की शक्ति के स्पष्टीकरणार्थ विम्वरूप में प्रयुक्त हैं। क्रिमिराग आदि के वर्णों की गहराई और स्थायित्व की उत्तरोत्तर हीनता द्वारा लोभकवाय में होने वाली हिसक या रागात्मकवृत्ति का विश्लेषण किया गया है । अन तानुबन्धी लोभ की अपेक्षा प्रत्याख्यानलोभ की वृत्ति कम गहरी और स्थायी होती है, श्रग्रत्याख्यान से प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान से संज्वलन की वृत्ति कम गहरी और स्थायी होती है । प्राचार्य ने भौतिक पदार्थों के वर्णों द्वारा आन्तरिक रहस्य का उद्घाटन किया है। इस बिम्ब से निम्न स्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है।
१. क्रिमिराग आदि के वर्णों के समान लोभकषाय की रागात्मिका वृत्ति द्वारा श्रात्मा अनुरंजित होती है । रागवृत्ति आत्मा को भी रंग देती है, यही रागवृत्ति कर्मास्रव में कारण बनती है ।
२. चेतन अचेतन -- व्यक्त-अव्यक्त आकांक्षाओं एवं कामनाओं में लोभ अवश्य वर्तमान रहता है। पौद्गलिक
३. वही गाथा २०२ ४. वही गाथा २८६
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प्राचार्य नेमिचन सिवान्त-बक्रवर्ती की विम्ब योजना
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समस्त पदार्थों में जिस प्रकार कोई न कोई वर्ण रहता है, सुबवरपबसंत'-वसन्तश्री किसी भी उद्यान की उसी प्रकार समस्त माकांक्षामों और कामनामों के मूल में शोभा में चार-चांद लगा देती है। यन प्रफुल्लित हो जाते हैं लोभ वर्तमान रहता है । लोभ के विभिन्न रूपों का निश्चय और अपने लावण्य से सभी को मुग्ध कर देते हैं। उनकी रंगों के संयोजन के समान पृथक् रूप में संभव नहीं। नव-चेतना जड़-चेतन सभी में नवोल्लास भर देती है । इस
गंगामहारणइस्स पवाहोव्व'जघन्य देशावधि से लेकर अप्रस्तुत द्वारा प्रस्तुत श्रुतज्ञान के विकास में भंग-प्रपंच के सर्वावधिज्ञान पर्यत अवधिज्ञान के द्रव्यप्रमाण के आनयन वैशिष्ट्य का निरूपण किया है। भंग-प्रपंच श्रुतज्ञान के हेतु प्रवृत्त होने वाला भागहार गङ्गा नदी के प्रवाह के सौन्दर्य और वृद्धि में सहायक होता है । अतएव यहां भंगसमान सातत्यरूप से प्रवृत्त होता है। यहां पर 'गंगा नदी प्रपंच को वसन्त का बिम्ब दिया गया है और श्रुतज्ञान को
अनि का प्रवाह' एक देशीय बिम्ब है। मात्र प्रवाह की गति-
वन का।
वन शीलता का ही चित्राङ्कन करता है, शीतस्पर्शजन्य अनन्दा
बावरण बिम्ब-श्रवण इन्द्रिय-जन्य अनुभूति के नुभूति की अभिव्यञ्जना नहीं। यतः प्रस्तुत भागहार में
आधार पर की गयी अप्रस्तुत योजना उक्त कोटि के एक ही धर्म पाया जाता है, दूमरा नहीं । अतः यह बिम्ब
बिम्बों के अंतर्गत पाती है। इस कोटि के बिम्बों का एक देशीय है, मन के आवेगों को जागृत करने की क्षमता
आचार्य नेमिचन्द्र की रचना में प्रायः प्रभाव है। इसमें नहीं है।
अतीन्द्रिय बिम्ब-प्रतीन्द्रिय विषयों की अप्रस्तुत
योजना द्वारा उच्चकोटि के बिम्बों की योजना की गई सुमोवही-आगम की विशालता और गम्भीरता ।
है। यहाँ सिर्फ एक बिम्ब का विश्लेषण किया जाता है। प्रकट करने के लिए इस बिम्ब की योजना की गई है।
भावकलंक सुपउरा"-इस स्थल पर विशेषण ही जिस प्रकार गीत में स्वरलहरी और उसके सामञ्जस्य
बिम्ब बन गया है । भावों के अत्यधिक कलुषित होने रूप को एक साथ प्रकट किया जाता है । उसी प्रकार इस बिंब ।
बिम्ब से निगोद पर्याय का सातत्य दिखलाया गया है । इस में विशालता और गहराई को एक साथ रखा गया है।
बिम्ब द्वारा हमारे मन में दृश्य जगत् के नाना रूपों तथा समुद्र जितना विशाल होता है, उतना ही गहरा भी,
व्यापारों में भावात्मक कलंक-पाप की प्रचुरता या मनोमागम भी समुद्र के समान विशाल और गम्भीर होता है।
रागों का घनत्व प्रतिबिम्बित होता है। अतीन्द्रियानुभूति ___ पावमलं-पाप की पूर्ण अवधारणा प्रस्तुत करने के
के समक्ष ऐसा चित्र साकार रूप में उपस्थित होता है, लिए मल का बिम्ब दिया गया है। मेल कृष्णवणं एवं जिसमें क्लेश. पाप, वासना एवं अनन्तानुबन्धी कषाय क घृणोत्पादक है, पाप भी इसी प्रकार का है। किसी स्वच्छ
उत्कृष्ट शक्ति अंश का आलेखन किया गया है। वस्तु में भी लगकर मैल वस्तु को दूषित और गन्दा बनाती
इस प्रकार प्राचार्य नेमिचन्द्र ने बिम्बयोजना या है, इसी प्रकार पाप निर्मल और ज्ञान-दर्शन गुण से युक्त
अप्रस्तुत योजना द्वारा सिद्धान्तों एवं भावों की अभिव्यंजना प्रात्मा को मलिन बनाता है, उसके वास्तविक स्वभाव को
में तीव्रता, स्पष्टता, एवं चमत्कार उत्पन्न किया है। जिस माच्छादित कर देता है । मल और वस्तु दोनों का अस्तित्व
सिद्धान्त या भाव को प्राचार्य पाटकों के हृदय में पहुंचना स्वतन्त्र रूप से पृथक्-पृथक् रहता है, इमी प्रकार प्रात्मा
चाहते हैं, उसे बिम्ब द्वारा ही उन्होंने पहुंचाया है जिन बिंबों और पाप ये दोनों भी पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र अस्तित्व
का ऊपर उल्लेख किया गया है, उनके अतिरिक्त अन्य रखते हैं।
बिम्ब भी मिलने हैं । अवसर मिलने पर विशुद्ध सैद्धान्तिक - -- --- - - १. वही गाथा ४१४;
बिम्बों पर भी प्रकाश डालने का प्रायास किया जायगा । २. कर्म काण्ड गाथा ४०८
४. कर्मकाण्ड गाथा ७८४ ३. वही गाथा ४०८ उत्तरार्ध
५. जीवकाण्ड गाथा १६८
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सिद्धहमचन्द्र-शब्दानुशासन श्री कालिकाप्रसाद शुक्ल, एम० ए०, व्याकरणाचार्य
(गतांक से मागे)
नियम
प्रकरण विभाग
अध्याय पाद सूत्र सं० प्रकरण विभाग
प्रथम प्रथम ४२ संज्ञा इस व्याकरण में माठ अध्याय हैं। उनमें उणादि
द्वितीय ४१ स्वरादि सन्धि प्रभाग सहित प्रथम सात अध्याय संस्कृत भाषा की व्यवस्था के
तृतीय ६५ व्यंजन सन्धि लिए हैं तथा पाठवां अध्याय प्राकृत एवं अपभ्रंश के नियम
चतुर्थ ६३ नाम प्रकरण
दि०भाग को बताता है। सात अध्यायों के सूत्रों पर दो स्वोपज्ञ द्वितीय प्रथम ११८७ वृत्तियाँ हैं । (१) लघुवृत्ति, (२) वृहद्वृत्ति (तत्त्वप्रका- द्वि० १२४ } कारक } तृ० भाग शिका)। इन दोनों की पद्धतियों में पर्याप्त साम्य है ।
तृ० १०५ } षत्त्व, णत्व संस्कृत प्राकृत आदि भाषामों का व्याकरण साथ ही लिखने
च० ११३
स्त्रीप्रत्यय की परिपाटी हेमचन्द्राचार्य ने ही चलाई। वररुचि, भामह
प्र० १६३ समास सामान्य च० भाग प्रभूति वैयाकरणों द्वारा रचित प्राकृत व्याकरण एवं हेम
, द्वि० १५६ } समास विशेष नि.) चन्द्राचार्य विरचित व्याकरण की रचना में महान् भेद परिलक्षित होता है। प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के निरूपण से प्राचार्य का विशिष्ट स्थान सर्वविदित है। लघुवृत्ति और (२) माल्यात बत्ति बृहवृति में इतना ही भेद है कि लघुवृत्ति में मतान्तरों की
पाख्यातवृत्ति में १० प्रकार के प्रत्यय, भावकर्म चर्चा का अवकाश नहीं है, प्राकृतिगण का उल्लेख नहीं हैं। प्रक्रिया, प्यन्त, सन्नन्त, यङन्त, नामधातु, सेट् तथा अनिट् विस्तार से सूत्रों की वृत्ति का निरूपण नहीं है, किन्तु
है। एक धातुमों का विमर्श प्रादि विषय वणित हैं। इस विभाग में परिगणित उदाहरण और प्रत्युदाहरण और तदुपयोगी
याणा निम्नांकित सूत्र, अध्याय और पाद हैंवृत्तियां निरूपित हैं। वहद्वत्ति में तो सूत्रों की विस्तृत व्याख्या, पूर्वापरसम्बन्ध, बहुवचनादि पदों का प्रयोजन,
६४ मतान्तरों का उल्लेख, सूत्रघटक प्रत्येक पद की यथार्थता
१२१ के सूचक उदाहरण एवं प्रत्युवाहरण अर्थात् संस्कृत भाषा को समझने के लिए सभी अपेक्षित सामग्री संगृहीत है ।
१२३
११५
१२२
इस व्याकरण के प्रथम सात अध्याय ४ भागों में विभक्त हैं-(१) चतुष्कवृत्ति, (२) पाल्यातवृत्ति (३) कद्वत्ति (४) तद्धितवृत्ति । (१) चतुष्कवृत्ति
चतुष्कवृत्ति में सन्धि, नाम, कारक एवं समास इन चारों का विवरण है। इसके निम्नलिखित ४ विभाग हैं-
६८३ (३) कृवृत्ति
इसमें कृत्य प्रत्यय सम्बन्धी नियम निर्दिष्ट हैं। पञ्चम अध्याय के द्वि० पाद में अन्तिम सूत्र "उणादयः ५।२।६३" इसकी पूर्ति के लिए वृत्ति सहित १०९६ उणादि सूत्र पृथक
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६.
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प्र०
१४५
सप्तम
सिडहेमान-सम्मानुशासन
२०७ निर्मित हैं। इस तीसरे विभाग में निम्नांकित सूत्र, पाद मतः स्यादाद का माश्रयण करके', यह अर्थ होगा; शब्दामादि है
नुशासन का प्रकरण होने से सूत्र में 'शब्दानाम्' इसका १७४ अध्याहार होगा; तथा सिद्धि शब्द का अर्थ शब्दानित्यत्व१३
बादी के मत में "निष्पत्ति" एवं शब्दनित्यत्ववादीके मत १४१
में 'शप्ति; स्याडादमत में निष्पत्ति एवं ज्ञप्ति दोनों अर्थ
मानने में कोई आपत्ति नहीं है। इस प्रकार स्याद्वाद का ४९८
प्राश्रयण करके शब्दों की निष्पत्ति या ज्ञप्ति होती है, ऐसा (४) तद्धित वृत्ति
सूत्रार्थ समझना चाहिए। स्याद्वाद शब्द का अर्थ यह हैइस विभाग में तद्धित प्रत्यय, समासान्त, प्लुत विवे- "स्याद् रूपो वादः स्याद्वादः" ऐसा समास करने पर वाद चन, न्यायसूत्र तथा उनका विस्तृत विवेचन सम्यक् निरू- शब्द अनेकान्त का द्योतक है। 'स्यादित्येतस्य वादः' ऐसा पित है। विवरण निम्नांकित है:
समास करने पर 'स्यात्' यह अव्यय वाचक रूप से षष्ठ
अनेकान्त का द्योतक है। इस तरह दो प्रकार से स्याद्वाद
पदार्थ का निरूपण उन उन ग्रन्थों में किया गया है। २१६
'स्यात्' इस अव्यय को वादक माना जाय तो उसी से १८५
सभी अर्थ का बोध हो जायेगा। "स्यादस्त्येव" इत्यादि १७२
प्रयोगों में 'प्रस्त्येव' आदि प्रयोग व्यर्थ अथवा पुनरुक्त हो १८२
जायेगा; इसलिए 'स्यात्' इस अव्यय को भनेकान्त द्योतक १२२
ही स्वीकार करना चाहिये । यदि निपातों के द्योतकत्व
पक्ष के अभिप्राय से 'स्यात्' इस अव्यय को गुणभावं से १३६५
अनेकान्त का द्योतक मानें, तो अनेकान्त वाचक पद का भी इस व्याकरण का आठवां अध्याय द्वितीय महाविभाग के
गुणभाव से ही वाचकत्व स्वीकार करना पड़ेगा। क्योकि, रूप में प्रसिद्ध है। इसके चार पाद हैं। चारों पादों में
ऐसा सिद्धान्त है कि जिस रूप से वाचक पद कहता है, १११६ सूत्र है । इस अध्याय में केवल प्राकृतादि भाषाओं का व्याकरण है। शौरसेनी भाषा के लिए २७, मागधी
उसी रूप से निपात-द्योतन करता है। यदि 'स्यात्' यह
अव्यय किसी से भी अनुक्त अनेकान्त अर्थ का द्योतन भाषा के लिए १६, पैशाची भाषा के लिए २२, चूलिका
करता है, ऐसा मानें तो स्यात् शब्द के प्रयोग बल से ही पैशाची भाषा के लिए ४, अपभ्रंश भाषा के लिए १२०,
अनेकान्त अर्थ की प्रतीति होने से स्यात् शब्द को वाचक प्राकृत भाषा के लिए ६३० सूत्र हैं। संस्कृत भाषा एवं
ही मानना पड़ेगा, गौणरूपेण उसको अनेकान्त घोतक प्राकृतादि ६ भाषाओं के परिज्ञान के लिए यह एक ही
मानना असंभव है। इसी तरह प्रधान रूप से स्यात् इस शब्दानुशासन सर्वतोभावेन पर्याप्त है।
अव्यय को अनेकान्त का द्योतक मानना भी सामञ्जस्यपूर्ण स्याद्वाद और हेमशब्दानुशासन
नहीं है, क्योंकि प्रधान रूपेण अस्ति इत्यादि शब्दों से इस व्याकरण के किसी भी विभाग और प्रयोग का
अस्तित्वादि अर्थ के बोध होने पर 'स्यात्' पद से प्राधान्येन विचार करते समय "सिद्धिः स्याद्वादात्"', यह अधिकार
उसी अर्थ का द्योतन, व्यर्थ है। स्यात् शब्द को नास्तिसूत्र उपस्थित ही रहता है। क्योंकि समग्र शब्दानुशासन में
त्वादि पर्थ का द्योतक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यापकरूप से इस सूत्र का अधिकार है । 'स्याद्वादात्' इस
अनभिहित अर्थ का द्योतन, नहीं देखा गया है। अस्ति पद पद में "गम्यपः कर्माधारे"" इस सूत्र से पञ्चमी होती है।
प्रधानतया अस्तित्व को कहता है और 'स्यात्' पद गौण१. हेम० १३११२ । २. हैम० २।२।७४ ।
तया नास्तिकत्व को कहता है। इस प्रकार 'स्यात्' पद प्रधान
०००००
मातही
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२००
रूप से और गौण रूप से अनेकान्त का द्योतक है, यह भी विशेष्य-विशेषणभाव, स्थान्यादेशभाव, प्रकृति-विकृतिभाव, कहना पसिद्धान्त ही है, क्योंकि जैसे 'स्यात्' इस पद से कार्यकारणभाव प्रादि नहीं उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि मनुक्त नास्तित्वादि अर्थ का बोष होता है, उसी प्रकार वर्णों के नित्यत्व पक्ष में जिस वर्ण का ह्रस्व विधान होगा, उससे अनुक्त सभी अर्थों का भभिधान होने लगेगा। उसी पक्ष में दीर्घ विधान कैसे हो सकता है? कारण, 'स्यादस्त्येव' यहां पर अन्य योग के व्यावर्तक 'एवं' शब्द ह्रस्वत्वादि अपने पूर्व धर्म की निवृत्ति करके ही होते हैं। से सब प्रयों का व्यावर्तन होने से, 'स्यात्' शब्द उन वर्गों के प्रनित्यत्व पक्ष में उनका नाश हो जायेगा, अतः व्यावृत्त अर्थों का घोतक नहीं हो सकता । इस तुल्य युक्ति एक ही का ह्रस्वत्वादि विधान व्यर्थ होगा। स्याद्वाद से जिस प्रकार एव से सब अर्थों का व्यावर्तन होता है, सिद्धान्त स्वीकार कर लेने पर वर्ण रूप से शब्दों की उसी प्रकार सब अर्थों के ही अन्तर्गत आने वाले नास्ति- नित्यता तथा ह्रस्वादि रूप से अनित्यता होने से ह्रस्वादि स्वादि का भी व्यावर्तन होगा और इस तरह 'स्यात्' शब्द के विधान की उपपत्ति हो जाती है । इस प्रकार "पीयमानं भनेकान्त का द्योतक नहीं होगा, ऐसा यदि कहें, तो यह मधु मदयति" यहां 'पा' धात्वर्थ की अपेक्षा मधु को कर्मअनुचित है, क्योंकि ऐसा सिद्धान्त है कि 'अस्ति' प्रादि पद कारकत्व तथा 'मद' धात्वर्थ की अपेक्षा कर्तृत्व एक ही में प्राधान्येन तथा गौणतया जिस प्रकार अस्तित्व आदि अर्थ अनेक कारक होते हैं। भिन्न प्रवृत्ति निमित्तक शब्दों की को कहते हैं, उसी प्रकार 'स्यात्' शब्द भी प्रधानतया तथा एक अर्थ में वृत्ति होना सामानाधिकरण्य है । वह सामानागौणतया उन-उन अर्थों का द्योतन करता है।
धिकरण्य, जहां सर्वथा भेद रहेगा, वहां नहीं हो सकता अभिप्राय यह है कि द्रव्य रूप से अस्तित्व तथा पर्याय तथा जहां सर्वथा अभेद रहेगा वहां भी नहीं हो सकता। रूप से नारितत्व है। अतः द्रव्याथिकनय की दृष्टि से इसलिए 'नीलमुत्पलम्' यहाँ भेद रूप एकान्त पक्ष में अथवा अस्तित्व को मुख्यता तथा नास्तित्व को गौणता है; क्योंकि अभेद रूप एकान्त पक्ष में सामानाधिकरण्य एकान्तवादियों नास्तित्वादि की अपेक्षा रखने वाले अस्तित्य को ही भव- के मत में नहीं बन सकता। अतः अपेक्षाकृत भेद एवं स्थिति संभव है। इसी प्रकार पर्यायाथिकनय की दृष्टि से अपेक्षाकृत प्रभेद, यह मानना ही पड़ेगा। इसी प्रकार नास्तित्व को मुख्यता तथा अस्तित्व को गौणता है। एकान्तवादी के मत में विशेष्य विशेषणभाव भी नहीं बन क्योंकि अस्तित्वादि की अपेक्षा रखने वाले नास्तित्व की ही सकता । प्रतः स्याद्वाद का अनुसरण करना ही चाहिये। अवस्थिति संभव है। अतः द्रव्यार्थिक एवं पर्यायाथिक नय
इस प्रकार सकल ग्राह्य न होने से, न तो एकान्ततः की अपेक्षा रखने वाले प्रधानभाव एवं गुणभाव से 'स्यात्'
शब्द नित्यतावादी के मत से, न शब्दानित्यतावादी के मत शब्द अनेकान्त का द्योतक तथा तदितर का वाचक
से यह शब्दानुशासन सर्वसाधारण होगा; अपितु केवल सिद्ध होता है। एक को ही अनेक रूप में समझना
स्याद्वाद सिद्धान्त से ही सर्वसाधारण हो सकता है ऐसा अनेकान्त कहलाता है। सभी वस्तु द्रव्यरूप से नित्य
ग्रंथकार ने भी स्वयं कहा है।'तथा पर्यायरूप से अनित्य; स्वरूप से सत्य तथा अन्य रूप से असत् हैं । इस प्रकार अश्वत्व, जो सकल प्रश्व १. "स्यादित्य व्ययमनेकान्तद्योतकम्, ततः स्याद्वामें सामान्य है, सत्ता की अपेक्षा विशेष है। शर्करादि दोऽनेकान्तवाद:, नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलक वस्त्वका माषुर्य शब्द द्वारा कहा जा सकता है, अतः भ्युपगम इति यावत् । ततः सिद्धिनिष्पत्तिर्जप्तिर्वा वह मभिलाप्य है, किन्तु उसका न्यूनाधिक्य शब्द द्वारा प्रकृतानां शब्दानां वेदितव्या। एकस्यैव हि ह्रस्वदीर्धादि नहीं कहा जा सकता, मतः वही अनभिलाप्प भी है। इसी विषयोऽनेककारक सन्निपातः, सामानाधिकरण्यं, विशेषण प्रकार एक ही वर्ण में ह्रस्वत्व, दीर्घत्वादि, स्याद्वाद के विशेष्यभावादयश्च स्याद्वादमन्तरेण नोपपद्यन्ते। सर्व बिना उत्पन्न नहीं हो सकता तथा एक ही वस्तु में अनेक पार्षदत्वाच्च शब्दानुशासनस्य सकलदर्शनसएडात्मककारक का प्रतिपादन, सामानाधिकरण्य, वैयधिकरण्य, स्याद्वाद समाधयमतिरमणीयम् । यक्वोचाम् स्तुतिष
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किर
जो लोग स्याद्वाद को नहीं मानते उनका ऐसा अभि-, प्राय है कि जो वस्तुतः सत्य है, वह सर्वथा । सर्वत्र सर्वतो भावेन निर्वचनीय रूप से है ही नही है, ऐसा नहीं, जैसेप्रत्यगात्मा । और जो कहीं, किसी प्रकार, कभी, किसी रूप से है, यह कहते हैं, जैसे— प्रपञ्च, वह तो व्यवहारतः है, न कि परमार्थतः; क्योंकि वह विचार की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । केवल किसी वस्तु का ज्ञानमात्र उसकी वास्तविकता का व्यवस्थापक नहीं हो सकता, अन्यथा शुक्तिम मरीचिकादि में रजततोयादि की वास्तविकता सिद्ध होने लगेगी । लौकिक जनों के विचार के आधार पर यदि पदार्थों की वास्तविकता की व्यवस्था मानें, तब तो देह में आत्माभिमान की वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ेगी । विद्वानों के मत में, देहात्माभिमान, विचार से सर्वथा बाधित होता ही है।
२०६
श्रतः 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस संशय स्थल की तरह सत्त्व एवं प्रसत्व के सन्देह स्थल के लिए स्याद्वाद सिद्धान्त मानने वाले को कोई अन्य उपाय ढूंढना पड़ेगा ।
यद्यपि जैन सम्प्रदाय में हमचन्द्राचार्य के पहले भी श्री गौतमस्वामी, श्री सुषमंस्वामी प्रभृति अनेक गणधर, श्री भद्रबाहु प्रभूति श्रुतकेवली, श्रीसिद्धसेन दिवाकर, १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता हरिभद्रसूरि तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के प्रणेता उमास्वाति, देवधिगणिक्षमाश्रमणादि अनेक पूर्वधर, प्रौढ़गीता महाप्रभावक हुये हैं; तथापि जैनेतर दर्शनों में इनका एवं इनके साहित्य का जैसा विशिष्ट स्थान है, वैसा अन्य लोगों का नहीं है । जैनेतर दर्शनाचार्यों का किसी भी हेतु यदि जैनदर्शन के साथ कुछ भी सम्बन्ध होता है, तो सर्वप्रथम इसी महामहिमशाली विद्वान् के साहित्य पर दृष्टि पड़ती है । १२वीं शती से लेकर प्राज तक के सभी श्रेष्ठ साहित्यकारो के गणनाप्रसङ्ग में इस महान् विद्वान् का नाम आदरपूर्वक लिया जायेगा, इसमें दो मत नहीं ।
ऐसे महान् पुरुष द्वारा विरचित व्याकरण किसी भी विद्वान् को प्रभावित करने में समर्थ है । अतएव सोमेश्वर कवि ने कहा है
"वैदुष्यं विगताश्रयं श्रितवति श्री हेमचन्द्रे दिवम् ।"
अन्त में यह आशा एवं पूर्ण विश्वास है कि अपेक्षित यावत् सामग्री से संभूषित इस व्याकरण का विद्वान् लोग अवश्य अवगाहन करेंगे ।
ग्रन्थकार के इलोक में 'पदलांखिता इमे' की जगह 'स्यात्पदसत्यलांधिता' पद पाया जाता है। -सम्पादक
सिद्धमचा शब्दानुशासन
अपि च सत्त्व और असत्त्व के परस्पर विरोधी होने से उनका समुच्चय नहीं होता है, ऐसा मानने पर विकल्प होगा । किन्तु वस्तु में विकल्प की संभावना होती नहीं । अन्योन्यपक्ष प्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन्न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥
स्तुतिकारोप्याह-
नयास्तवस्यात्पदलाञ्छिता इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितोषिणः ।"
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अनेकान्त की पुरानी फाइलें
अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें अवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं। जो पठनीय तथा संग्रहणीय है । फाइलें प्रनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जायेंगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा ।
फाइलें वर्ष ४, ५, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४ की हैं अगर आपने अभी तक नहीं मंगाई हैं तो शीघ्र ही मंगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियाँ थोड़ी ही भवशिष्ट हैं । मैनेजर 'अनेकान्त' बोर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली
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बारडोली के जैन सन्त कुमुदचन्द्र
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० पी-एच० डी० बारडोली गुजरात का प्रसिद्ध नगर है। सन् १९२१ ने उनकी निम्न शब्दों में प्रशंसा की है :में यहां स्व० सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारत की स्वत- कला बहोत्तर अंग रे, सीयले जीत्यो अनंग, न्त्रता के लिये सत्याग्रह का बिगुल बजाया था और बाद
माहंत मुनी मूलसंघ के सेवो सुरतरू जी। में वहीं की जनता द्वारा उन्हें 'सरदार' की उपाधि दी सेवो सज्जन प्रानंद धनि कुमुदचन्द मुणिद, गई थी। माज से ३५० वर्ष पूर्व यह नगर अध्यात्म का __रतनकीरति पाटि चंद के गछपति गुणनिलो जी। केन्द्र था । यहाँ पर ही सन्त कुमुदचन्द्र अपने गुरु भ० रत्न
जीवों की रक्षा करने के कारण लोग उन्हें दया का कीति एवं जनता द्वारा भट्टारक के पद पर मभिषिक्त किये
वृक्ष कहते थे। विद्यावल से उन्होंने अनेक विद्वानों को गए थे। इन्होंने वहां के निवासियों की धार्मिक चेतना
अपने वश में कर लिया था। उनकी कीर्ति चारों ओर फैल जाग्रत की एवं उन्हें सच्चरित्रता, त्याग तथा संयम अपनाने
गयी थी तथा राजा-महाराजा एवं नवाब उनके प्रशंसक के लिए बल दिया।
बन गये थे। ___ सन्त कुमुदचन्द्र वाणी से मधुर, शरीर से सुन्दर तथा
कुमुदचन्द्र का जन्म गोपुर ग्राम में हमा था। पिता मन से स्वच्छ थे। जहाँ भी उनका विहार होता जनता
का नाम सदाफल एवं माता का नाम पद्माबाई था । इन्होंने पीछे हो जाती। उनके शिष्यों ने अपने गुरू की प्रशंसा में
मोढ वंश में जन्म लिया था। इनका जन्म का नाम क्या विभिन्न पद लिखे हैं। संयमसागर ने उनके शरीर को
था, इसके विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन वे बत्तीस लक्षणों से सुशोभित, गम्भीर बुद्धि के धारक तथा
धारक तथा जन्म से होनहार थे। वादियों के पहाड़ को तोड़ने वाले वज़ के समान कहा है
बचपन से ही ये उदासीन रहने लगे और युवावस्था से ते बहु कूखि उपनो वीर रे, बत्तीस लक्षण सहित शरीर रे।
पूर्व ही इन्होंने संयम धारण कर लिया। इन्द्रियों के ग्राम बुद्धि बहोत्तरिछे गंभीर रे, वादी नग खंडन व सम धीर रे॥
को उजाड़ दिया तथा कामदेवरूपी सर्प को जीत लिया। उनके दर्शनमात्र से ही प्रसन्नता होती थी। वे पांच
अध्ययन की पोर इनका विशेष ध्यान था। ये रात-दिन महाबत तेरह प्रकार के चारित्र को धारण करने वाले एवं
व्याकरण, नाटक, न्याय, मागम एवं छन्द अलंकार शास्त्र बाईस परीषह को सहने वाले थे। एक दूसरे शिष्य धर्म
प्रादि का अध्ययन किया करते थे। गोम्मटसार आदि सागर ने उनकी पात्रकेशरी जंबुकुमार, भद्रबाहु एवं गौतम ... गणघर से तुलना की है। उनके विहार के समय कुंकम ४. मोढ वंश शृंगार शिरोमणि, साह सदाफल तात रे । छिड़कने तथा मोतियों का चौक पूरने एवं बघावा-गाने के जायो यतिवर जुग जयवंतो, पद्माबाई सोहात रें। लिए भी कहा जाता था। उनके एक और शिष्य गणेश ५. बालपणे पिणे संयम लीघो, घरीयो वेराग । १. पंचा महावत पाले चंग रे, त्रयोदश चरित्र के अभंग रे।
इन्द्रिय गाम उजारया हेला, जीत्यो मद नाग रे ॥ बावीस परीसा सहे मंगि रे, दरशन दीठे रंग रे॥ X
६. महनिशि छंद व्याकर्ण नाटिक भणे, ..
. २. पात्रकेशरी सम जाणियेरे, जाणों वे जंबुकुमार। न्याय मागम अलंकार। ___ भद्रबाहु यतिवर जयो, कलिकाले रे गोयम अवतार वे ॥
वादी गज केसरी विरुद बार वहे, X X
X ३. सुंदरि रे सहु भावो, तो कंकम छडो देवगवो।
सरस्वती गच्छ सिणगारर ।। वारू मोतिये चोक पूरावो, रूडा सह गुरुकुमुदचंद नेबषावे
-गीत धर्मसागर कृत
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बारडोली के बैन, सन्त कुमुवचन्द्र
२११ अन्थों का इन्होंने विशेषरूप से अध्ययन किया था। विद्यार्थी के अवसर पर ही कुमुदचन्द्र संघ सहित घोषानगर पाये, अवस्था में ही ये भ० रत्नकीर्ति के शिष्य बन गये । इनकी जो उनके गुरु रत्नकीति का जन्म-स्थल था। बारडोली विद्वत्ता वाक्चातुर्यता एवं अगाध ज्ञान को देखकर भ० रत्न- वापस लौटने पर श्रावकों ने अपनी अपार सम्पत्ति का कीति इन पर मुग्ध होते गये और इन्हें अपना प्रमुख शिष्य दान दिया। बना लिया । धीरे-धीरे इनकी कीर्ति बढ़ने लगी। रत्नकीर्ति
कुमुदचन्द प्राध्यात्मिक एवं धार्मिक सन्त होने के साथ ने बारडोली नगर में अपना पद स्थापित किया । और संवत् साथ साहित्य के परम पाराधब थे। पब तक इनकी छोटी १६५६ (सन् १५६६) वैशाख मास में इनका जनो के बड़ी २८ रचनाएँ एवं ३० से भी अधिक पद प्राप्त हो प्रमुख सन्त (भट्टारक) के पद पर अभिषेक कर दिया। चके हैं। इनकी सभी रचनाएं.राजस्थानी भाषा में हैं, जिन यह सारा कार्य संघपति कान्ह जा, सघ बाहन जावाद, पर गुजराती का प्रभाव है । ऐसा ज्ञात होता है कि ये सहस्त्रकरण एवं उनकी धर्मपत्नी तेजलदे, भाई मल्लदास ।
चिन्तन, मनन एवं धर्मोपदेश के अतिरिक्त अपना सारा एवं बहिन मोहनदे, गोपाल प्रादि की उपस्थिति में हुआ था
महुआ था समय साहित्य-सृजन में लगाते थे । इनकी रचनाओं में तथा श्रावकों ने कठिन परिश्रम करके महोत्सव को सफल
गीत अधिक है, जिन्हें ये अपने प्रवचन के समय श्रोताओं बनाया था। तभी से कुमुदचन्द्र बारडोली के सन्त कह- के माथ गाते थे'• नेमिनाथ के तोरण द्वार पर आकर लाने लगे।
वैराग्य धारण करने की अद्भुत घटना से ये बहुत प्रभाबारडोली नगर एक लंबे समय तक आध्यात्मिक, साहि- ६. संघपति कहांन जी संघ वेग जीवादेनो कन्त । त्यिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। सन्त
सहेसकरण सोहे रे तरुणी तेजलदे जयवंत ॥ कुमुदचन्द्र के उपदेशामृत के सुनने के लिये यहाँ धर्म प्रेमी
मलदास मनहरू रे नारी मोहनदे प्रति संत । सज्जनों का हमेशा ही पाना-जाना रहता। कभी तीर्थ- रमादे वीर भाई रे गोपाल वेजलदे मन मोहन्त ।।६।। यात्रा करने वालों का संघ उनका आशीर्वाद लेने पाता तो
-गुरु गीत कभी अपने-अपने निवास-स्थान के रजकणों को संत के
xx पैरों से पवित्र कराने के लिये उन्हें निमन्त्रण देने वाले वहां
___ संघवी कहान जी भाइया वीर भाई रे।। माते । संवत् १६८२ में इन्होंने गिरिनार जाने वाले एक
मल्लिदास जमला गोपाल रे॥ संघ का नेतृत्व किया। इस संघ के संघपति नागजी भाई
छपने संवत्सरे उछव अति करयो रे। थे, जिनकी कीर्ति चन्द्र-सूर्य-लोक तक पहुंच चुकी थी। यात्रा संघ मेली बाल गोपाल रे॥ ७. संवत् सोल छपन्ने वैशाखे प्रगट पटोधर थाप्या रे ।
गीत गणेशकृत । रत्नकी ति गोर बारडोली वर सूर मंत्र शुभ प्राप्या रे॥ १०. इणि परि उछव करता माव्या घोघा नगर मझारि। माई रे मन मोहन मुनिवर सरस्वती गच्छ सोहंत ।
नेमि जिनेश्वर नाम जपंता उता जलनिधि पार ॥ कुमुदचन्द भट्टारक उदयो भवियण मन मोहंत रे॥
गाजते बाजते साहमा करीने भाव्या बारडोली ग्रान । गुरु स्तुति गणेशकृत याचक जन संतोष्या पोष्या भतलि राख्यो नाम ॥१०॥
- X
X
X 1. बारडोली मध्ये रे पाट प्रतिष्ठा कीष मनोहार । संवत सोल व्यासीये संवच्छर गिरिनारि यात्रा कीधा । एक शत पाठ कुंभ रे, ढाल्या निर्मल जल अतिसार ॥ श्री कुमुदचन्द्र गुरु नामि संधपति तिलक कहवा ॥१३॥ सूर मंत्र प्रापयो रे, सकल संघ सानिध्य जयकार ।
गीत-धर्मसागर कृत 'कुमुदचन्द्र' नाम कह्यरे, संघवि कुटंब प्रतपो उदार॥ १. देश विदेश विहार करे गुरु प्रतिबोधे प्राणी।
गुरु गीत गणेशकृत धर्मकथा रसने वरसन्ती, मीठी छ वाणी रे भाय ।
x
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२१२
प्रनेका
वित हुए थे, इसीलिए उन्होंने नेमिनाथ एवं राजुल के
ब्रह्म सुता सम मतिदाता, जीवन पर कई रचनायें लिखीं हैं। उनमें नेमिनाथ
गुणगण मंडित जग विख्याता । बारह मासा नेमीश्वर गीत, नेमिजिन गीत आदि के नाम
वंदवि गुरु विद्यानंदि सूरी, उल्लेखनीय हैं राजुल का सौन्दर्य वर्णन करते हुए इन्होंने
जेहनी कीर्ति रही भर पूरी। लिखा है
तस पट्ट कमल दिवाकर जाण, रूपे फटडी मिटे जूठडी बोले मोठडी वाली।
मल्लिभूषरण गुरु गुरण वक्ता । विडम उठडी पल्लव गोठग रसनी कोटरी बलाली रे
तस पट्टे पट्टोपर पंडित, सारंग बयणी सारंग नपणी सारंग मनी श्यामा हरी।
लक्मीचन्द महा जश मंडित । लंबी कटि भमरी बंकी शंकी हरिनी मारि रे।
अभयचन्द गुरु शीतल वायक,
सेहेर वंश मंडन कवि ने अधिकांश छोटी रचनायें लिखी हैं। उन्हें
सुखदायक ।
अभयनंदि समरूं मन माहि, कण्ठस्थ भी किया जा सकता है । बड़ी रचनामों में आदि
मव भूला बस गाडे बांहि । नाथविवाहलो नेमीश्वरहमची एवं भरतबाहुबलि छन्द
तेह तरिण पट्टे गुणभूषण, हैं। शेष रचनाएं गीत एवं विनतियों के रूप में हैं । यद्यपि
बंबवि रत्नकोरति गत दूषण । सभी रचनायें सुन्दर एवं भावपूर्ण हैं लेकिन भरतबाहुवलि
भरत महीपति कृत मही रक्षणछन्द, आदिनाथविवाहलो एवं नेमीश्वरहमची इनकी
बाहुबलि बलवंत विचक्षण ॥ उत्कृष्ट रचनायें हैं। भरतबाहुबलि एक खण्ड काव्य है,
बाहुबलि पोदनपुर के राजा थे । पोदनपुर धन-धान्य, जिसमें मुख्यतः भरत और बाहुबलि के युद्ध का वर्णन किया
बाग-बगीचा तथा झीलों का नगर था । भरत का दूत जब गया है। भरत चक्रवत्ति को सारा भूमण्डल विजय करने
पोदनपुर पहुंचता है तो उसे चारों ओर विविध प्रकार के के पश्चात् मालूम होता है कि अभी तक उसके छोटे भाई
सरोवर, वृक्ष, लतायें, दिखलाई देती हैं। नगर के पास ही बाहुबलि ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की है तो
गंगा के समान निर्मल जल वाली नदी बहती है। सात-सात सम्राट् भरत बाहुवलि को समझाने के लिये दूत भेजते हैं।
मंजिल वाले सुन्दर महल नगर की शोभा बढ़ा रहे थे। दूत और बाहुबलि का उत्तर-प्रत्युत्तर बहुत सुन्दर हुआ है।
कुमुदचन्द्र ने नगर की सुन्दरता का इस रूप में जो वर्णन अन्त में दोनों भाइयों में युद्ध होता है, जिसमें विजय किया है उसे पढिये-. बाहुबलि की होती है। लेकिन विजयश्री मिलने पर भी
चाल्यो दूत पयाणे रे हेतो, बाहुबलि जगत से उदासीन हो जाते हैं और वैराग्य धारण
पोडो दिन पोयणपुरी पोहोतो। कर लेते हैं । घोर तपश्चर्या करने पर भी मैं भरत की
वीठी सीम सघन करण साजित, भुमि पर खड़ा हुमा हूँ, यह शल्य उनके मन से नहीं हटती
वापी कूप तमग विराजित । और जब स्वयं भरत सम्राट् उनके चरणों में जाकर गिरते
कलकारं जो नल जल कुंडी, हैं और वास्तविक स्थिति को प्रगट करते हैं तो उन्हें
निर्मल नीर नदी प्रति ऊंडी। तत्काल केवल ज्ञान प्राप्त होकर मुक्तिश्री मिल जाती है।
विकसित कमल अमल बलपंती, पूरा का पूरा खण्ड-काव्य मनोहर शब्दों में गंथित है।
कोमल कुमुद समुज्जल कंती। रचना के प्रारम्भ में कुमुदचन्द्र ने जो अपनी गुरु परम्परा
बन वारी पाराम सुरंगा, दी है वह निम्न प्रकार है
अंब कब उबंवर तुंगा। परराविवि पद मावीश्वर केरा,
करणा केतकी कमरख केली, बह मामें लूटें भव-केरा।
नव पारंगी नागर बेली।
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किरण
बारडोलीकेसन्त कुमुवचन
अगर तगर तर तिदुक ताला, सरल सोपारी तरल तमाला ॥ बदरी वकुल मदाड बोजोरी, जाई दुई जंबु जंभीरी। चंदन चंपक चाउ रउली, वर वासंती वटवर सोली। रायणरा जंबु सुविशाला, वाडिम बमणो द्वाष रसाला। फूला सुगुल्ल अमूल्ल गुलाबा, नीपनी बाली निबुक निवा। करणपर कोमल संत सुरंगी, नालीपरी दोशे प्रति चंगी। पाडल पनश पलाश महाधन,
लवली लोन लवंग लताधन ।। बाहुबलि के द्वारा अधीनता स्वीकार न किये जाने पर दोनों पोर की विशाल सेनायें एक दूसरे के सामने प्रा डटीं। लेकिन जब देवों एवं राजाओं ने दोनों भाइयों को ही चरम शरीरी जानकर यह निश्चय किया कि दोनों ओर की सेनामों में युद्ध न होकर दोनों भाइयों में ही जलयुद्ध मल्लयुद्ध एवं नेत्रयुद्ध हो जावे और उनमें जो भी जीत जावे उसे ही चक्रवति मान लिया जावे। इस वर्णन को कवि के शब्दों में पढ़िये:
अन्य युद्ध त्यारे सहु वेढा, नोर नेत्र मल्लाह व परंढ्या । जो जीते ते राजा कहिये, तेहनी प्राण बिनय सुं वहीये । एह विचार करीन नरवर, चल्या सहु साथे महर भर ।
हो हो कार करिते पाया, वछो बच्छ पख्या ले राया। हरकारे पधारे पाडे बलगा बलग करी ते पारे। पग पडघा पोहोदी-तल बाजे, करकडता तरुवर से माने । नाठा बनचर प्राठा कायर, छूटा मपगल फूटा सापर । गह गडता गिरिवर ते पडीमां, फूत फरंता फरिणपति उरीमा। गढ गडगडीमा मंदिर पगेमा, बिग बंतीव मक्या चल चलीग्रा। जन खलभली प्रावाल कछलीमा, भय-भीर अवला कलमलीग्रा। तोपण ले घरणी धवईके,
लड पडता पडता नदि चूकें। उक्त रचना आमेर शास्त्र भंडार के गुटका सं० ५२ में पत्र संख्या ४० से ४८ पर है।
इसका दूसरा नाम ऋषभ विवाहलो भी। यह छोटा सा खण्ड-काव्य है, जिसमें ११ ढालें हैं। प्रारम्भ में ऋषभदेव की माता को १६ स्वप्नों का आना, ऋपभदेव का जन्म होना तथा नगर में विभिन्न उत्सवों का प्रायोजन किया गया है । फिर ऋषभ के विवाह का वर्णन है । अंत की ढाल में उनका वैराग्य धारण करके निर्वाण प्राप्त करना भी बतला दिया गया है।
कुमुदचन्द्र ने इसे भी संवत् १६७८ में घोषानगर में रचा था। रचना का एक वर्णन देखिए:
कछ महाकछ रायरे, जेहन जग जश गायरे। तस कुंपरी रूपं सोहेरे, जोतां जनमन मोहे रे। सुन्दर वेणी विशाल रे, अरष शशी सम भाल रे। नयन कमलदल छाजे रे, मुख पूरणचन्द्र राजे रे। नाक सोहे तिलनु फूल रे, घर सुरंग तणु नहि भूल रे।
ऋषभदेव के विवाह में कौन-कौन सी मिठाइयां बनी थीं, उसका भी रसास्वादन कीजिये:
चाल्या मल्ल प्रसाडे बलीमा, सुर नर किन्नर जोवा मलीना। काछया काछ कशी कड तारणी, बोले बांगर बोली वाणी । भुजा दंड मन खंड समाना, तातावंखारे
नाना।
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रहि लागे वरने दोन, कोल्हापाक पतासां मीठा। भक्ति एवं मध्यात्म-पदों के अतिरिक्त नेमिराजुल सम्बन्धी दूध पाक पणा साकरीमा, सारा सकरपारा कर करीमा। भी पद हैं, जिन में नेमिनाथ के प्रति राजुल की सच्ची मोटा मोती प्रामोद कलाचे, बलीमा कसमतोमा भावे। पुकार मिलती है । नेमिनाथ के बिना राजुल को न प्यास प्रति सुरवर सेवईमा सुंदर, पारोगे भोग पुरंदर। लगती है और न भूख सताती है। नींद नहीं पाती है और प्रोसे पापड मोटा तलोमा, पुरी माला प्रति मजलीमा। बार-बार उठकर गृह का प्रांगन देखती रहती है। यहाँ
नेमिनाथ के विरह में राजुल किस प्रकार तड़फती थी पाठकों के पठनार्थ दो पद दिये जा रहे हैं। तथा उसके प्रथम बारह महीने किस प्रकार व्यतीत हुए, इसका नेमिनाथ बारह मासा में सजीव वर्णन हुआ है। इसी
राग धनश्री तरह का वर्णन कवि ने प्रणय-गीत एवं हिंडोलना-गीत में भी किया है।
मैं तो नरभव वादि गमायो। फागुण केसू फूलीयो, नर नारी रमे वर फाग जो।
न कियो तप जप व्रत विधि सुन्दर । हस विनोद करे घणा, किम नाहे धर्यो बैराग जी।
काम भलो न कमायो । मैं तो०॥॥ नेमिनाथ बारह मासा
विकट लोभ तें कपट कूट करो।
निपट विषय लपटायो॥ सीयालो सगलो गयो परिण नावियो यदुराय ।
विटल कुटिल शठ संगति बैठो। तेह बिना मुमने झूरतां एह दोहा रे वरसा सो थापके॥
साधु निकट विघटायो । मैं० ॥२॥ प्रणय-गीत
कृपण मयो कछु दान न दोनों। वणजागगीत में कवि ने संसार का सुन्दर चित्र उतारा
दिन दिन दान निलायो। है। यह मनुष्य वणजारे के रूप में यों ही संसार में भट
जब जोवन जंजाल पड्यो तत्र । कता रहता है। वह दिनरात पाप कमाता है और संसार
परत्रिया तनु चितलायो । मैं ॥३॥ बन्धन से कभी भी नहीं छूटता।
अन्त सगय कोउ संग न पावत पाप कर्या ते अनंत, जीववया पाली नहीं।
झूठहि पाप लगायो। सांचो न बोलियो बोल, मरम मो साबह बोलिया। कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही। शील गीत में कवि ने चरित्र प्रधान जीवन पर प्रत्य
प्रभु पद जस नहीं गायो मैं० ॥४॥ धिक जोर दिया है। मानव को किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिए चारित्र बल की आवश्यकता है । साधु-संतों
पद राग-सारंग एवं संयमी जनों को स्त्रियों से अलग ही रहना चाहिए मादि का अच्छा वर्णन मिलता है इसी प्रकार कवि की सभी
सखी री प्रब तो रह्यो नहि जात । रचनायें सुन्दर हैं।
प्राणनाथ की प्रीत न विसरत छण छरण छीजत गात । पदों के रूप में कुमुदचन्द्र ने जो साहित्य सृजन किया
सखी० ॥१॥ है वह और भी उच्च कोटि का है। भाषा, शैली एवं भाव नहि न भूख नहीं सिसु लागत, घरहि घरहि मुरझात । सभी दृष्टियों से ये पद सुन्दर हैं । 'मैं तो नर भव वादि
हामि मन तो उरझी रह्यो मोहन सुं सेवन ही सुरभात ॥ गमायो' पद में कवि ने उन प्राणियों की सच्ची प्रात्म-पुकार
सखी० ॥२॥ प्रस्तुत की है, जो जीवन में कोई भी शुभकार्य नहीं करते नाहिने नींद परती निसि बासर, होत बिसुरत प्रात । हैं। अंत में हाथ मलते ही चले जाते हैं । जो तुम दीन चन्दन चन्द्र सजल मिलिनीदल, मन्द मायतन सुहात । दयाल कहावत' पद भी भक्ति रस की सुन्दर रचना है।
सखी० ॥३॥
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बारडोली में जैन सन्तकुमुवचन्द
गृह प्रांगनु बेल्या नहीं भावत, बोन भई विललात ।
१. रचनाएंविरही वारी, किवत गिरि-गिरि, लोकन तेन लजात ॥
१.पन क्रिया विनती सखी०॥४॥
२. प्रादिनाथ विवाहलो पोउ विन पलक कल नहीं जीउकू, न रचित रसिक गुबात । ३. नेमिनाथ द्वादशमासा कुमुवचन्द्र प्रभु सरस बरस कू, नयन चपल ललचात ॥ ४. नेमीश्वर हमची
सखी०॥॥ ५. पण्य रति गीत व्यक्तित्व
६. हिंदोला गीत
७. वणजारा गीत संत कुमुदचन्द्र संवत् १६५६ से १६८७ तक भट्टारक पद पर रहे। इतने लम्बे समय में इन्होंने देश में अनेक
८. दशलक्षण धर्मवत गीत
६. शील गीत स्थानों पर विहार किया और जन-साधरण को धर्म एवं अध्यात्म का पाठ पढ़ाया । ये अपने समय के असाधारण
१०. सप्तव्यसन गीत सन्त थे। उनकी गुजरात तथा राजस्थान में अच्छी प्रतिष्ठा
११. अठाई गीत थी। जैन साहित्य एवं सिद्धान्त का उन्हें अप्रतिम ज्ञान था।
१२. भरतेश्वर गीत वे संभवतः पाशु कवि भी थे, इसलिए श्रावकों एवं जन
१३. पार्श्वनाथ गीत साधारण को पद्य रूप में ही कभी-कभी उपदेश दिया करते
१४. अन्धोलडी गीत थे। इनके शिष्यों ने जो कुछ इनके जीवन एवं गतिविधियों
१५. आरती गीत के बारे में लिखा है, वह इनके अभूतपूर्व व्यक्तित्व की एक
१६. जन्म कल्याणक गीत
१७. चितामणि पार्श्वनाथ गीत झलक प्रस्तुत करता है।
१८. दीपावली गीत शिय परिवार
१६. नेमि जिन गीत वैसे तो गट्टारकों के बहुत से शिष्य हुआ करते थे। २०. चौबीस तीर्थकर देह प्रमाण चौपई जिनमें प्राचार्य, मुनि, ब्रह्मचारी, आर्यिका आदि भी होते २१. गौतम स्वामी चौपई थे । अभी जो रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं, उनमें अभयचंद्र, २२. पाश्वनाथ की विनती ब्रह्मसागर, धर्मसागर, संयमसागर, जयसागर एवं गणेश २३. लोडण पार्श्वनाथ जी सागर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ये सभी शिष्य हिन्दी २४. प्रादीश्वर विनती एवं संस्कृत के भारी विद्वान् थे और इनकी बहुत-सी रच
२५. मुनिसुव्रत गीत नाएं उपलब्ध हो चुकी हैं । अभयचन्द्र इनके पश्चात् भट्टा- २६. गीत रक बने । इनके एवं इनके शिष्य परिवार के विषय में
२७. जीवडा गीत आगे प्रकाश डाला जावेगा।
२८. भरत बाहुबलि छन्द कुमुदचन्द्र को अब तक २८ रचनाएँ एवं पद उपलब्ध इनके अतिरिक्त उनके रचे हुये ३१ पद और मिले हो चुके हैं उनके नाम निम्न प्रकार हैं ।
हैं । वे भी सरस और हृदयग्राही हैं।
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कात्तिकेय श्री सत्याश्रय भारती
(गतांक से मागे)
गये।
व्यभिचारजातता पाप नहीं है। बेटी, बहिन से सम्भोग 'वत्स ! तुम सरीखा सत्पात्र पाकर मुझे बहुत प्रस- करना पाप है, परन्तु ऐसे सम्बन्ध से पैदा होना पाप नहीं न्नता होती है। तुमने किस वंश को सौभाग्यशाली बनाया है। धर्म तो मनुष्यमात्र का नहीं, प्राणिमात्र का है।'
'गुरुवर्य । क्या धर्म में पात्र-अपात्र का विचार नहीं 'महाराज! मेरे पिता ने अपनी ही कन्या के साथ किया जाता?' शादी कर ली थी। उसी का फल मेरा यह शरीर है।' किया जाता है। कीड़े-मकोड़े आदि तुच्छ प्राणी धर्म
'हाय! हाय!! तब तो मैं तुम्हें दीक्षा नहीं दे सकता।' नहीं धारण कर सकते, इसलिये अपात्र हैं। परन्तु पशु, 'परन्तु यह कुकर्म मेरे पिता ने किया है। मैंने नहीं।' पक्षी और मनुष्य (स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच, संकर-प्रसंकर 'कुछ भी हो । तुम्हारे दीक्षा लेने से धर्म डूब जायगा। सभी) धर्म धारण करने के लिये पात्र हैं। समझदार कुंवर ने कुछ न कहा, और दूसरी जगह प्रस्थान कर प्राणियों में वे ही अपात्र हैं जो धर्म के मार्ग में स्वयं चलना
नहीं चाहते या अपनी शक्ति लगाना नहीं चाहते।'
'क्या दुराचारी अपात्र नहीं है ?' 'वत्स ! तुम्हारा कहना ठीक है। अपराध तुम्हारे 'दुराचारी तभी तक अपात्र है जब तक वह दुराचारों पिता का ही है । परन्तु लोग इस बात को नहीं समझते।' में लीन है। दुराचार का त्याग करने वाला व्यक्ति, या
'तो उन्हें समझाना चाहिये । यदि उनका यह अज्ञान दुराचार से पैदा होने वाला व्यक्ति, अपात्र नहीं है।' है तो उसके दूर करने में ही समाज का कल्याण है। क्या ऐसे लोगों के पास धर्म के चले जाने से धर्म की शानियों को प्रज्ञानियों का अनुसरण नहीं करना चाहिये।' हंसी न होगी?' ___ 'यह ठीक है परन्तु अज्ञानियों का विरोध कौन सिर 'यदि नीच से नीच व्यक्ति के ऊपर सूर्य की किरणे पर ले।'
पड़ने पर भी सूर्य की हंसी नहीं होती तो महासूर्य के ___'तब जाने दीजिये ! मुझे तो ऐसे गुरु की जरूरत है जो समान धर्म की हँसी क्यों होगी ?' सत्य के लिये अकेले दम पर दुनिया के सामने खड़ा रह 'कुंबर मन ही मन खुश हुए । जिस रत्न की खोज में सके, अन्तरात्मा की आवाज से जो यश-अपयश का निर्णय वे प्राज तक फिर रहे थे, वह उन्हें मिल गया। माता के करता हो, जो दुनिया का पथप्रदर्शक नेता हो, उसे खुश अवसान के बाद उनने सैकड़ों साधुवेषियों की खोज की करने वाला गुलाम नहीं। मुझे वैद्य चाहिये-न कि नट।' थी। उनने वीतरागता का ढोंग करने वाले, अनेक जीव प्राचार्य ने भैप कर मुंह फेर लिया।
देखे थे। शिष्यों और भवतों का ठाठ लगाने वाले, नाम के (११)
पीछे मरने वाले, दम्भी भी उन्हें मिले थे। अज्ञानता से या 'वत्स! तुम्हारे माता-पिता कैसे भी हों, मुझे इससे यश की इच्छा से, भूखों मरने वाले या अनेक तरह के कुछ मतलब नहीं । धर्म का निवास पात्मा में है, हाड़, मांस कायक्लेश सहने वाले पशु भी उनकी नजर में पाये थे। पौर चमड़े में नहीं। फिर हाड़ मांस किस का शुद्ध होता दुराचार के पुतले घोर व्यभिचारी बगुलों को उनने लोगों है, जो उस पर विचार किया जाय ! व्यभिचार पाप है, के द्वारा पूजते देखा था। साधु-वेष से ढके हुए कई भोले-भाले
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मूर्ख जन्तु भी उन्हें मिले थे। सभी जनता के गुलाम थे। 'गुरुवयं ! मैं ऐसे गुरु की खोज में था। सौभाग्य से कोई पेटायूं थे तो कोई नाम के भूखे थे। सत्य को ग्रहण मुझे पाप सरीखे सत्गुरु की प्राप्ति हुई है। अब मैं मोक्ष करने की, या उसको प्रकाश में लाने की हिम्मत किसी में मार्ग में चलना चाहता है। यदि आप मुझे साधु-दीक्षा दें नहीं थी। परन्तु कुंवर को माज एक ऐसा गुरु मिला था तो बड़ी कृपा हो । क्या मैं इस दीक्षा के योग्य हूँ। जो सत्य का पुजारी था। संसार की भलाई करने वाला गुरुवर्य कुछ चिन्ता में पड़े। फिर बोले-'तुम योग्य या उसकी भलाई चाहने वाला था। वह संसार का गुलाम हो, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु यह खयाल रखो कि अपने नहीं था। उसे सत्य की परवाह थी। लोगों के बकवाद जीवन को दूसरों के सिर का बोझ बना देने से कोई साथ की परवाह न थी।
नहीं बनता । साघु प्रात्मोसार और परोपकार की प्रतिम कंवर ने पूछा-गुरुवर्य ! मैंने ऐसा क्या किया था मूर्ति होता है?' जिससे इस जन्म में मुझे पापी होना पड़ा ?'
'गुरुवर्य ! आप जो प्राज्ञा करेंगे उसका पालन मैं तन 'वत्स ! मैं समझता हूँ इस जन्म में तुम पापी नहीं और वचन से ही नहीं, मन से भी करूंगा। माप बताइये बनें । पाप करने वाला पापी कहलाता है-पाप का फल कि मुझे साधु बनने के लिये क्या करना चाहिये और किस भोगने वाला पापी नहीं कहलाता। कष्ट और आपत्तियाँ वेष में रहना चाहिये ?' पाप का ही फल है और सच्चे से सच्चे महात्मा के ऊपर 'साधु होने के लिये सबसे बड़ी प्रावश्यकता इस बात भी पाती हैं। क्या इसलिये वे पापी कहलाते हैं ? अगर की है कि वह किसी से द्वेष और मोह न रक्खे और उसके तुम्हारा जन्म तुम्हारे लिये कष्टप्रद हुआ तो वह पाप का हृदय में किसी भी कषाय की वासना एक मुहूर्त से अधिक फल कहा जायगा, न कि पाप ।'
न ठहरे। कपाय का प्रावेग कभी तीव्र न हो। रही वेष हर्ष के मारे कुंवर के शरीर पर कांटे मा गये। उनने की बात, सो वेष कोई भी हो, चिन्ता नहीं। हां! वह जिज्ञासा के भाव से पूछा-'गुरुवर्य ! मैंने ऐसा क्या पाप अल्पारम्भी होना चाहिए । वास्तव में वेष का धर्म से कोई किया था कि मुझे ऐसा जन्म मिला?'
सम्बन्ध नहीं है । वेष तो इसलिये रक्खा जाता है कि लोग 'वत्स ! प्रकृति का नियम है कि जो जैसा करता है साधारण पहिचान कर सकें। साधुता तो निःकषाय, उदार, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। इसलिये यह बात परोपकारमय, अप्रमत्त जीवन में है।' नश्चित है कि तुमने अवश्य ही पूर्व जन्म में, जन्म का कुंवर ने भक्ति से गद्गद् होकर साधु जी के चरणों बहाना निकाल कर किसी मनुष्य के धार्मिक अधिकारों पर में नमस्कार किया, ऐसा नमस्कार करने का कुंवर के जीवन डाका डाला होगा । इसलिये तुम्हें इस जन्म में उसका फल में यह पहिला ही अवसर था। भोगना पड़ा। जो लोग जन्म के बहाने ऊंच-नीच छूत
(१२) अछुत, पात्र-अपात्र की कल्पना करते हैं उन्हें अनेक तरह दो-तीन दिन में ही रोहेड नगर की कायापलट हो के बुरे जन्म मिलते हैं। तुम पूर्वजन्म में बहुत धर्मात्मा गई । लोगों में धर्म के नाम पर जो अन्ध श्रद्धा थी, समाजव्यक्ति थे किन्तु आवेश में आकर तुम्हारे मुंह से एकाध हित के नाम पर जो रूढ़ि-प्रेम था, उच्चता के नाम पर बार ऐसे शब्द निकल गये होंगे इसलिये तुम्हें ऐसा जन्म जो जाति मद था, वह सब नष्ट हो गया। लोगों ने मनमिला। जो लोग बगुला-भक्त और छिपे हुए दुराचारी हैं ष्यत्व का सन्मान करना सीखा। हर एक कार्य में बखि फिर भी जन्म का महंकार रखते हैं या जो दूसरों को और विवेक को स्थान मिला। अमावस्या के स्थान पर जन्म से नीचा गिनते रहते हैं और ऐसी ही बातों का प्रचार शरत्-पूर्णिमा हो गई। यह सब कार्तिकेय मुनि का प्रभाव करते हैं, उनके पाप का क्या ठिकाना?'
था। मुनिराज के आने के पहले यहाँ स्त्रियों की और शूद्रों कंबर की प्रांखों में मांसू भागये। यह कौन कह सकता की बड़ी दुर्दशा थी। शूद्रों का सम्पर्क करना, उन्हें धर्माहै कि हर्ष के थे कि शोक के ? उनने प्रार्थना की- यतनों में पाने-जाने देना, स्त्रियों से सलाह लेना, पाप
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धनेशान्त
समय जाता था। जिस दिन शाम को मुनिराज पधारे, उस दिन बाग में सैकड़ों प्रादमी थे। बाग के किनारे एक पक्का मण्डप सा बना था, जहाँ पर कि लोग बैठा करते थे। वहीं पर कार्तिकेय मुनि पहुँचे। इससे बाग में घूमने बालों का ध्यान आकर्षित हो गया। एक मुनि को देखकर जनता ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के लिये मुनिराज तमाशा बन गये ।
।
बाग में कुछ पण्डित मी विहार कर रहे थे। उनने जब मंडप को भीड़ से भरा हुआ देखा तो वे भी पहुंचे। वहाँ बिलकुल शांति थी। पण्डितों के पहुँचते ही जनता ने रास्ता दे दिया । पण्डित लोग मुनिराज के समीप पहुँचे । और पूछा
पण्डित - आपका परिचय ?
मुनि मैं एक मुनि है, यह तो आप देख ही रहे हैं। मेरा नाम कार्तिकेय है।
१५
इस उत्तर से पहेली और जटिल हो गई। एक पवित ने कुछ रूक्षता के साथ कहा- एक ही जन्म में क्या जाति भी बदल सकती है ?
पण्डित - आपकी जाति ?
मुनि मुनियों के तो कोई व्यवहारिक जाति नहीं होती है। वे तो मनुष्य जाति के होते हैं। मेरी जाति भी मनुष्य है।
पण्डित - फिर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य में से कोई तो होंगे ?
मुनि - कोई नहीं ।
पण्डित - तो क्या शूद्र ? मुनि- शूद्र भी नहीं।
पण्डित लोग एक-दूसरे के मुंह की ओर ताकने लगे । उनकी घांसें एक-दूसरे से पूछ रही थीं कि यह कैसी विचित्र बात है ! मुनिराज ने उनके प्राश्चर्य को समझकर कहाजो लोग अध्यापन आदि कार्यों से अपनी आजीविका चलाते हैं वे ब्राह्मण हैं । जो लोग संनिकवृत्ति से या प्रजा रक्षण से भाजीविका चलाते हैं वे क्षत्रिय हैं। जो लोग कृषि वाणिज्य भादि से धाजीविका करते हैं वे वैश्य हैं, धौर जो लोग सेवा चाकरी करके ब्राजीविका करते हैं वे सूद्र है। मैं अब जीविका के क्षेत्र से बाहर निकल गया हूँ, इस लिये अब मनुष्य सिवाय ग्रन्थ किसी भी जाति का नहीं रहा हूँ हाँ मुनि होने के पहले मैं कृषक वैश्य बना था परन्तु मेरे मां-बाप क्षत्रिय थे ।
मुनि महाराज ने कहा- जब आजीविका का उपाय बदल सकता है तब जाति क्यों नहीं बदल सकती ? घरीराधित, मनुष्यत्व घश्वस्व मादि जातियां एक ही जन्म में नहीं बदल सकतीं, परन्तु प्राचाराचित भावाधित भाजीविकाश्रित जातियों का जीवन के साथ क्या संबंध ! ब्राह्मणादि प्राजीविकाश्रित जातियाँ हैं। भाजीविका के बदल जाने पर इनका बदल जाना अनिवार्य है ।
पण्डित लोग कुछ खिसयाकर बोले- तब तो आपकी दृष्टि में शूद्र भी ब्राह्मण बन सकता है ? इस तरह तो सब एकाकार हो जायगा ?
मुनिराज ने गम्भीरता से कहा—मान लो, एकाकार हो गया तो आप दूसरे की उन्नति में दुःखी क्यों होते हैं ? पण्डित परन्तु इसमें उन्नति क्या है? ब्राह्मण में और शूद्र में फिर भेद ही क्या रह जायगा ?
मुनि - हाथ, पैर, कान, नाक आदि सभी बातें ब्राह्मण और शूद्र के समान पाई जाती हैं। फिर दोनों में अभी क्या भेद है ?
-
पण्डित - सदाचार दुराचार का ।
मुनि-सो तो तब भी होगा। दुनिया से दुराचार का नाश न होगा। अगर हो भी जाय तो क्या बुरा है ?
पण्डित - परन्तु दुराचारी सदाचारी को एक-सा कर देना तो अच्छा नहीं कहा जा सकता ।
मुनि-यह ठीक है परन्तु मगर दुराचारी सदाचारी बन जाय तो क्या हानि है ? शूद्र भी हिंसा के त्यागी होते हैं, सत्य भी बोलते हैं, अचौर्य पालन करते हैं, ब्रह्मचर्य से रहते हैं, त्याग करते हैं। क्या तब भी वे उच्च नहीं हैं ? उच्चता का सम्बन्ध अगर आप शरीर की पवित्रता से मानते हो तो पृथ्वी जल सन्नि वायु वनस्पति भादि भी उच्च कहलायेंगे । हाड, मांस से बना हुधा मनुष्य शरीर उच्च न कहलायगा । अगर ग्रात्मा की पवित्रता से उच्चता का सम्बन्ध है तब तो सूत्र भी उच्च हो सकता है। जब तुम ब्राह्मण कुलोत्पन्न दुराचारी को भी उच्च कहते हो मोर शूद्रकुलो
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किरण
कातिब
त्पन्न सदाचारी को भी नीच कहते हो तब क्या तुम सदा- की बात कही थी? क्या वह राजविद्रोह की तैयारी करा चार का अपमान और दुराचार का सम्मान नहीं करते रहा है ?' हो ? सदाचार को सरलता से प्राप्त करने के लिए कुल एक पंडित ने कहा-महाराज ! वह जोर देकर एक साधन है। परन्तु अगर किसी ने किसी तरह सदाचार कहता है कि अगर कोई शूद्र पाज क्षत्रिय बनना चाहता प्राप्त कर लिया है तब किसी एक साधन के न रहने पर है या कोई मनुष्य राजा बनना चाहता है तो बनने दो। भी क्या हानि है ?
राजा बनने के लिये राजकुल में जन्म लेने की कोई जरूपंडित लोग पसीने से भीग गये, अनेक लोगों के हृदय रत नहीं है । फल इसका यह हमा है कि लोगों के हृदय में में तूफान-सा मच गया, बहुत से लोगों का बुखारसा उतर अापके ऊपर भक्ति ही नहीं रही है। यह बहुत भयंकर गया । बड़ी मुश्किल से एक पंडित जी बोले-पाप बिल- प्रचारक है, महाराज! कुल शास्त्र-विरुद्ध बोलते हैं।
__ महाराज ने मोंठ चबाकर कहा-हुँ। बीजाक्षरी ___मुनिराज मुस्कराये, फिर कुछ गम्भीरता से बोले- संहारक मंत्र के समान इस 'हूं' में अपरिमित क्रूरता भरी जो बात तर्क से सिद्ध होती है, जिससे समाज का कल्याण थी। है, जिससे गिरे हुये लोगों का उद्धार होता है, जिससे मद
(१४) रूपी ज्वर शांत होता है, जो हर तरह सत्य है, क्या वह मुनि कार्तिकेय का लोकोपकार भी पात्मोद्धार के लिए शास्त्र या धर्म से विरुद्ध हो सकती है ? सत्यता ही शास्त्र था, आत्मोद्धार लोकोपकार के लिए। परोपकार के लिए की और धर्म की कसौटी है। शास्त्र के विरुद्ध जाने से वे जितना बाहरी कार्यों पर जोर देते थे उससे ज्यादा सत्य, असत्य नहीं होता, किन्तु सत्य के विरुद्ध जाने से प्रात्मशुद्धि पर जोर देते थे। प्रावश्यक कार्यों के सिवाय शास्त्र कुशास्त्र, धर्म कुधर्म हो जाता है । अगर कोई सच्ची वे सदा मौन रखते थे, और रात्रि में तो मौन निश्चित बात धर्मशास्त्रों में नहीं लिखी है तो यह उस बात का था। जिस समय राजा के सिपाही मुनिराज के पास पहुंचे दुर्भाग्य नहीं है किन्तु यह धर्मशास्त्र का दुर्भाग्य है। उस समय वे ध्यान में बैठे थे। पास-पास दो-चार नागरिक
इस वार्तालाप से जनता की प्रांखें खुल गई बह थे जो कि भक्तिवश अभी तक घर नही गये थे। राज प्रसन्नता से नाचने लगी। परन्तु पंडितों को तो ऐसा पुरुष ने पूछा-वह नया साधु कहां है । नागरिकों को यह मुक्का लगा कि उनके पांडित्य का और अभिमान का कचू- एकवचन खटका। वे ताज्जुब से राजपुरुष की तरफ देखने मर निकल पाया।
लगे। राजपुरुष ने एक क्रूर-दृष्टि नागरिकों पर डाली। दूसरे दिन सुधार का पवन ऐसा प्रबल हो गया कि फिर इधर-उधर नजर डाल कर और पास ही बैठे हुए उसने पुराने से पुराने घूरे भी उड़ाकर साफ दिए । पंडितों कार्तिकेय को देखकर बड़े मिजाज से उनके पास पहुंचा। की तो मानों थाली छिन गई। उन्हें मालूम हया कि मुक्के 'तुम को महाराज ने गिरफ्तार करने का हुक्म दिया है। की चोट, पेट पर भी जमकर बैठी है। वे मन ही मन ये शब्द उसने अधिकारपूर्ण स्वर में कहे परन्तु उत्तर कुछ कराहने लगे।
न मिला । 'क्या सुन नहीं पड़ता ? 'तुम को अभी चलना (१३)
पड़ेगा' प्रादि का भी कुछ उत्तर न मिला। तब एक रात्रि के पाठ बजे थे। सजा हुमा कमरा था। महा- सिपाही ने हाथ पकड़ कर उठाना चाहा परन्तु उठा न राज ने सब सुन करके धीरे-धीरे दांत पीसे मौर कहा- सका। नागरिकों ने कहा-'आप इस तरह अन्याय क्यों 'ठीक ! मैं अभी देखता हूँ।' इसके बाद वे फिर चिन्ता में करते हो? पाप सबेरे तक शान्त रहिए'। राजकर्मचारी पड़ गये। पागंतुकों के दिल इस समय धुक-धुक हो रहे ने तमक कहा-'चुप रहो। एक सिपाही ने एक नागरिक थे। थोड़ी देर बाद महाराज ने कहा-क्या सचमुच उस को धक्का देकर गिरा दिया। साधु ने ऊंच नीच, राजा प्रजा के भेद-भाव को नष्ट करने जब कुछ बस न चला, तो एक ने सिर, एक ने कमर,
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एक ने पैर पकड़ कर उठा लिया और इस तरह लादकर चारों तरफ से घिरा था। राजा को समझने में देर न लमी, वे राजमहल में पहुँचे। राजा ने कहा-यह क्या ! वह रानी के कमरे की ओर भागा।
'महाराज! न तो यह बोलता है, न हिलता-जुलता रानी अभी तक बिस्तर पर पड़ी थी। राजा ने उसे है। 'राजा ने क्रूरतापूर्वक हँसते हुए कहा-अच्छा जरा आवाज देकर जगाया परन्तु रानी ने कुछ भी उत्तर न इसकी मरम्मत कर दो।'
दिया। राजा ने भर्राई हुई आवाज में कहा-'यह रिझाने सिपाही, भूखे, भेड़िए की तरह ट पड़े। शोर होने का समय नहीं है । मैं मौत के मुंह में फंस गया है। सिर्फ लगा । रानी के कानों तक भी यह समाचार पहुँचा । उसका अन्तिम भेंट करने पाया हूँ। अबकी बार भी रानी न बोली। कोमल हृदय पिघल उठा। वह दौड़ कर नीचे आई।
'अच्छा ! इतना क्रोध !' 'इतना अभिमान ।' यह कार्तिकेय का शरीर खून से लथपथ हो रहा था। रानी ने कहकर वह कमरे से बाहर हो गया परन्तु कमरे से चिल्लाकर कहा-परे यह क्या करते हो। यह तो मेरा बाहर कोई दूसरा आदमी था ही नहीं। नीचे बहुत से भाई कार्तिकेय है। राजा एक क्षण के लिए चौंका, परन्तु आदमियों की मावाज पा रही थी। राजा ने दौड़कर बीच दूसरे ही क्षण उसने कहा-कोई भी हो। जो राज-द्रोही के दो तीन दरवाजे बन्द कर दिये। फिर मन ही मन है उसकी यही दशा होना चाहिये रानी ने कुछ न सुना। गुनगुनाया-रानी, मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है । खन से स्नान किए हये अपने भाई से लिपट कर रोने परन्तु अन्तिम समय में तुम मुझसे बात भी न करो, यह लगी।
तो समस्त अपमानों का बहुत अधिक प्रतिशोध है। उसकी राजा ने कठोरता से कहा-राज शासन में आड़े पाने भाँखों से प्रांसू बहने लगे। उमने एक बार रानी को का तुझे कुछ अधिकार नहीं है। गुलाम की तरह रहना तो हाथ पकड़कर उठाने का विचार किया। इसलिए कमरे में रह। इसके बाद राजा ने रानी का हाथ पकड़कर दूसरी पहुँचा । रानी का हाथ पकड़ा परन्तु वह बिलकुल ठंडा था, तरफ ढकेल दिया, और चिल्लाकर कहा- हटामो इसको ! नाड़ी बन्द थी। गनी तो कभी की स्वर्ग चली गई थी। पांसू बरसाती हुई दासियों ने रानी को अपने हाथों पर राजा रानी का मिर अपनी गोद में रखकर आँसू बहाने रक्खा और भीतर ले गई।
लगा इतने में एक जोर के धक्के से कमरे के किवाड़ टूटकर गिर पड़े और पाँच सात प्रादमियों ने कमरे में प्रवेश किया।
बाकी लोग बाहर खडे रहे । राजा ने ग्रामू भरी आँखों से राजमहल के बाहर कार्तिकेय का अर्धमृतक शरीर एक कम्बल से ढक कर डाल दिया गया था जिसे कि तुरन्त
उनकी तरफ देखा और नजर फेंककर फिर रानी का मुह
देखने लगा। प्रागन्तुकों में से एक ने कहा-रोहेड राज्य ही कुछ लोग उठा ले आये थे। रात्रि भर खूब परिचर्या
की प्रजा की तरफ से तुम को गिरफ्तार करता हूँ। होती रही परन्तु सफलता के चिन्ह न थे। दूसरी तरफ रात्रि भर लोकसभा की बैठक होती रही थी। सब काम
राजा ने कुछ उत्तर न दिया।
दूसरा बोला-तुमने प्रजा के पूज्य व्यक्ति का वध चुपचाप हो रहा था। रोहेड़नगर एक तरह से शान्त था
किया है। परन्तु यह शान्ति ऐसी थी जैसे तूफान आने के पहले समुद्र
तीसरा बोला-तुमको मृत्युदण्ड दिया जायगा । में होती है।
राजा ने कुछ उत्तर न दिया । वह उठा और उसने
हथकड़ी पहिनने के लिए अपने हाथ बढ़ा दिये। प्रात:काल जब राजा सोकर उठा तब उसे राजमहल बिलकुल शान्त मालूम हुआ । नौकरों को पुकारा परन्तु कार्तिकेय की अवस्था बहत खराब थी बीच-बीच में कोई उत्तर नही । राजा पहिले क्रुद्ध हुआ, फिर चिन्तातुर। वे वेहोश हो जाते थे । जिस समय प्रजा के मुग्वियों ने वह उठा। विड़की में से बाहर नजर डाली। राजमहल राजा को लाकर वहाँ खड़ा किया उस समय वे बेहोश थे।
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किरण ५
चिकित्सक लोग कह रहे थे — थोड़ी देर में इन्हें होश मा
जायगा ।
उनकी बात सच हुई । कार्तिकेय को होश आया । उनने श्राखें खोली और पैरों की तरफ थोड़ी दूर पर हथकड़ियों से जकड़े हुए राजा की तरफ उनकी दृष्टि पड़ी । राजा ने शरम से सिर झुका लिया। एक नागरिक ने कहा - आपके ऊपर अत्याचार करने के कारण प्रजा ने इसे क़ैद किया है । इसे मृत्युदंड दिया जायगा । आपकी प्राज्ञा भर की देर है ।
कार्तिकेय
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उसे अपने कृत्य का तीव्र पश्चाताप हुआ उसने कहामहाराज ! मैं क्षमा नहीं चाहता हूँ। प्रायश्चित्त चाहता हूँ ।
असह्य वेदना के रहने पर भी कार्तिकेय के मुँह पर हलकी हँसी दिखाई देने लगी। वे बोले - इनने जो कुछ किया, अज्ञान से या किसी के सिखाने से किया । मैं इन्हें क्षमा करता हूँ । इन्हें छोड़ दो ।
सब ने बड़े प्राश्चर्य से यह प्रज्ञा सुनी। राजा के आश्चर्य का कुछ ठिकाना न रहा। उसका हृदय जो अभी तक विवशता से सब सह रहा था, गलकर पानी हो गया ।
कार्तिकेय ने कहा - प्रायश्चित्त तप है। वह कराया नहीं जा सकता, किया जा सकता है। इसके बाद उनकी अवस्था बिगड़ने लगी । अन्त में लड़खड़ाते हुए शब्दों में कहा - इन्हें छोड़... दो...
इसके बाद महात्मा ने महायात्रा की । सबको प्रसह्य दुःख हुआ । परन्तु जो दुःख राजा को हुआ वह अप्रतिम था ।
मध्याह्न के बाद महात्मा की स्मशान यात्रा का बड़ा भारी जुलूस निकला । सारा नगर उमड़ आया। महात्मा के शरीर के लिए जो विमान बनाया गया था उसके अगले भाग में जो एक आदमी था उसके धांसू सबसे ज्यादा बह रहे थे। वह राजा था ।
इस समय नगर में कोई न बचा था । प्रकाश के भय से उल्लू की तरह सिर्फ वही पंडित घर के किसी अँधेरे भाग में छिपे पड़े थे ।
'अनेकान्त' के ग्राहक बनें
'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है । अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिfood व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ना अनिवार्य है । हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-प्रेमियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनश्रुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे शीघ्र ही अनेकान्त के ग्राहक बनें। इससे समूचे जैन समाज में एक शोध-पत्र प्रतिष्ठा और गौरव के साथ चल सकेगा। भारत के अन्य शोध-पत्रों की तुलना में उसका समुन्नत होना आवश्यक है ।
व्यवस्थापक
प्रनेकान्त
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सीरा पहाड़ के प्राचीन जैन गुफा मन्दिर
- श्री नीरज जैन -
नाग वंशीय शासक परम शेव थे, अपने अधिष्ठाता स्थान तक फैला हुमा है, जहां उसके दूसरे सिरे पर वाकादेव को मस्तक पर धारण करके उनके भारवाहक बनने टक काल के प्रति प्रसिद्ध चतुर्मुख शिव और पार्वती के कारण वे "भार शिव" भी कहलाए, भारशिवों का उत्तरा- मन्दिर अवस्थित हैं, यहां का चतुर्मुख शिव लिंग, जो धिकार उनकी पुत्री की संतति होने के कारण कालांतर में चम्बुकनाव के नाम से विख्यात है, मूर्तिकला का अपने वाकाटकों को प्राप्त हुमा, संक्षेप में यही भारतीय इतिहास ढंग का एक ही उदाहरण है। यहाँ के भी अनेक अनुपम के उस महत्वपूर्ण काल की कथा है जो कुषाण काल और कलावशेष तथा शिलालेख प्रयाग और रामवन में सुरगुप्त काल के बीच की ऐतिहासिक लड़ी के रूप में जाना क्षित हैं । जाता है वाकाटकों के शासनकाल में भारतीय मूर्तिकला में
पहिली बार इन स्थानों का भ्रमण करते हुए सहज ही
यह प्रश्न मेरे मन में उठा कि जिस काल में भूमरा तथा बड़े महत्त्वपूर्ण पौर कतिपय विस्मयकारी विकास हुए हैं,
नचना के उन अद्भुत मंदिरों का निर्माण हो रहा था उस युग तक मूर्तिकला मनुष्य की धार्मिक श्रद्धा का केन्द्र
उस समय इन स्थानों पर जैन मूर्तियों एवं मंदिरों का होने के अतिरिक्त मानव-मन के सौंदर्य-बोध की अभि
निर्माण अपने क्रमिक विकास की किस स्थिति में था ? व्यक्ति का एक प्रमुख साधन भी बन चुकी थी। उसके
मेरी इस जिज्ञासा का सप्रमाण, विस्तृत और सटीक समापूर्व, यद्यपि बौद्धों में भगवान बुद्ध की मूर्ति बनाने का निषेध
धान मुझे नचना के पास ही सीरा पहाड़ और सिद्धनाथ था, तो भी भिन्न-भिन्न जातकों का प्रश्रय लेकर बौद्ध मठों
में प्राप्त भी हो गया । सिद्धनाथ का जैन स्थापत्य एक पौर विहारों को अलंकृत करने का मार्ग दृढ़ निकाला गया
प्रथक् लेख का विषय था जो "तीन विलक्षण जिन बिम्ब" था। ऐसी स्थिति में शव कैसे सन्तोष करते ? अतः उन्होंने
शीर्षक से अनेकांत के जुलाई ६२ के अङ्क में जा चुका है, शिव लिंग में शिव मुख की प्राकृति उत्कीर्ण करने की प्रथा
प्रस्तुत लेख में केवल सीरा पहाड़ पर प्रकाश डालना ही का प्रारम्भ किया। सतना के पास नकटी की खोह का
मेरा अभीष्ट है। एक मुख शिव लिंग-जो प्रयाग के संग्रहालय में वर्तमान है-इस काल का उत्कृष्ट उदाहरण है, उससे भी अधिक नचना के चतुर्मुख शिव एवं पार्वती मंदिरों के कोटर उत्कृष्ट और मनोरम एकमुख शिवलिंग भूमरा के मंदिर से लगा हुवा, कमल पुष्पाच्छादित एक सुन्दर सरोवर है, में प्रवस्थित है। स्व. श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने भार जिसकी दक्षिण मोर विन्ध्य की एक सुन्दर शाखा पूर्वकुल बाबा नाम से उस मंदिर का वृहत् अनुसंधान किया पश्चिम खड़ी हुई है, यही सीरा पहाड़ है, तालाब के उस था, यह मंदिर परसमनियां पहाड़ पर सतना से पेंतीस मील मोर सामने से ही ऊपर जाने के लिए मार्ग है और कुछ दूर जंगल में स्थित है । इसके भी अधिकांश अवशेष प्रयाग दूर तक सीढ़ियां भी बनी हुई हैं पर चढ़ाई सुगम नहीं है, संग्रहालय में तथा रामवन (सतना) के तुलसी संग्रहालय पर जाने पर एक प्रति विशाल शिला खंड के नीचे प्रकृति में सुरक्षित हैं। शिवमुख की ये प्राकृतियां इतनी सुन्दर, निर्मित दो गुफाएं मिलती हैं, उन दोनों गुफामों में जैन 'सजीव प्रौर कलापूर्ण असित हुई हैं कि समूची और बड़ी- प्रतिमाएं विराजमान हैं, पहिली गुफा में एक मूर्ति है और बड़ी देव प्रतिमाएं भी उनकी तुलना में उन्नीस ही प्रतीत दूसरी में पाठ, दोनों गुफाएं पहिले सामने की ओर से खुली होती हैं।
थीं पर बाद में उनमें दरवाजा छोड़कर ईंटों की दीवार भूमरा का यही पहाड़ सीधा नागोद के नचना नामक उठा दी गई है।
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अनेकान्त
सीरा पहाड़ की दूसरी गुफा की प्रतिमाएँ
प
"विशाल पद्मासन प्रतिमा का केश-संयोजन और पीठिका में धर्मचक्र दर्शनीय है।"
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सौरा पहार के प्राचीन जैन गुफा मन्दिर पहली गुफा
के पार्वती मंदिर के अवशेषों में तथा समीप ही उपलब्ध बीस फुट लम्बी और चौदह फुट चौड़ी इस उत्तर-मुख राम-कथा के शिलापट्टों में राम-लक्ष्मण के पहिनावे से गुफा के पश्चिमी सिरे पर एक विशाल शिला के तीन फुट इन इन्द्रों के पहिनावे में अद्भुत साम्य है, इन्द्रों के कर्णचौड़े, पांच फुट ऊंचे फलक पर अंतिम तीर्थकर भगवान कुण्डल एवं केश-विन्यास भी सुन्दर बन पड़े हैं, मुकुट से महावीर की अति सुन्दर पद्मासन प्रतिमा पूर्व की ओर मुख झूलती हुई मणिमालाएं बुद्ध सज्जा के कीति-मुख का किए विराजमान हैं, नीचे सिंहपीठ में दोनों ओर दो बहि- स्मरण दिलाती हैं। इसी प्रकार ऊपर एक हाथ में पुष्प मुख, सुन्दर पायाल से गज्जित सिंहों का अंकन है, उनकी गुच्छक और दूसरे में माला लेकर गगन विहारी विद्याधर पूंछ का घुमाव सुन्दर है, पीठिका के बीचों बीच अंकित युगल चित्रित किए गए हैं, इन्द्र की तरह दाहिनी भोर का धर्मचक्र की अर्चना करते हुए मूर्ति प्रतिष्ठापक श्रावक युगल भी खंडित है पर वायीं भोर की जोड़ी सुरक्षित है, सकुटुम्ब दिखाए गए हैं, बायीं ओर पुष्पमाल लिए और इस युगल का केश-विन्यास भी इस मूर्ति को पूर्व गुप्तकाल और करबद्ध दो पुरुष हैं और दाहिनी ओर भारती करता की निधि घोषित करता है, विद्याधर के शरीर पर कुण्डल हुमा एक पुरुष और.पाभरण अलंकृता एक सौभाग्यवती मणिमाला, भुजबंध और कंगन यथा स्थान शोभित हैं, इस नारी अंकित है।
गगन चारी की सहचरी इसी की पीठ पर मालम्बित पीठिका के ऊपर अत्यंत मनोहारी, मनोज्ञ और मनो- आसन में मुग्ध-मुद्रा और नाना पाभरण अलंकारों से रम मुद्रा मे, स्मितवदन, नासाग्रदृष्टि, सन्मतिनाथ की सज्जित अंकित की गई है विद्याधरी के हाथों की स्थिति ३० इंच ऊंची पद्मासन मूर्ति प्रतिष्ठित है जो साधारण दर्शनीय है, जैसे इस जीवन का ही नहीं, आगामी भवों मानवाकार से डेवढ़ी अवगाहना की प्रतीत होती है, मूर्ति का भी, भार, उसने अपने जीवन धन पर निश्चित होकर पूर्णतः अखंडित है और उस पर किए हुए अन्य पालिश ने सौंप रखा हो । विद्याधर ने तो मानो जिनेन्द्र के पूजन में ही प्रतिमा को सजीवता और अनन्त आकर्षण प्रदान कर दिया जीवन की सार्थकता मान रखी है। है, गुप्तकाल के पुरातत्व में भी इतना बढ़िया पालिश बहुत सरीफा कम देखने में आता है। प्रतिमा का अंकन करने में इतनी बारीक छनी का
इस गुफा में भी मूल नायक भगवान महावीर ही हैं। प्रयोग किया गया है कि पैरों की अंगुलियों में तथा पगतल
पर उनके अतिरिक्त सात अन्य प्रतिमाएं भी यहां अवस्थित में विभिन्न रेखाएं और हाथ की अंगुलियों में मंगल चिन्ह
हैं । इस गुफा की लम्बाई इक्कीस फुट एवं चौड़ाई तेरह तथा हथेली की रेखाएं तक सुस्पष्ट परिलक्षित होती हैं।
। फुट है। इसे भी कालान्तर में सामने से एक द्वार छोड़कर गले का उतार तथा हाथों की ढाल अति स्वाभाविक
ईटों से बन्द कर दिया गया है। बन पड़ी है, केशावलि को छल्लों के माध्यम से सुरुचि पूर्ण द्वार के सामने ही गुफा के बीचो बीच, सन्मतिनाथ की व्यवस्था में संयोजित किया गया है, प्रतिमा के प्रासन में पद्मासन प्रतिमा उत्तर मुख विराजमान है। यह शिला फलक भव्यता एवं निर्दोष मुख-मुद्रा पर खेलते हुए वीतरागता के पौने चार फुट चौड़ा और पांच फुट ऊंचा है। पीठिका स्पष्ट-भाव दर्शक का मन अनायास मोह लेते हैं। में दो बहिर्मुख सिंह और मध्य में धर्मचक्र अंकित है, जल
पासन के समानान्तर ही चामरधारी सौधर्म और पुष्प वी पंखुरियों से सज्जित वेदिका पर सवातीन फुट ऊंची ऐशान इन्द्र सेवा रत दिखाये गए हैं, दाहिनी मोर का इन्द्र प्रतिमा शोभित है । इस मूर्ति का केश संयोजन-विलक्षण खंडित है परन्तु वायीं ओर का अंकन मनोहर है, केवल है। सम्पूर्ण केशों को जैसे कंघी से ही संवारकर व्यवस्थित जांघ तक की धोती का बुन्देलखंड का यह विशिष्ट पहि- ढंग से अंकित किया गया है। दोनों पार्श्व में चामर धारी नावा गुप्त पूर्व की (वाकाटकों एवं भार शिवों की) कला इन्द्र विशेष सुन्दर मुकुट मौर मलकावलि से सज्जित है। में तथा गुप्तकाल की कला में ही पाया जाता है, नचना ऊपर दोनों मोर दो विद्याधर युगल एक हाथ में पुष्प गुच्छक
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शोध-कशा
श्री छोटेलाल जैन, कलकत्ता
प्रांत की गत तृतीय और चतुर्थ किरणों में उपरोक्त शीर्षक से दो तेल भीनीरजजी के प्रकाशित हुए थे। लेखक ने जैनपुरातत्व के कई नूतन निदर्शनों पर अच्छा प्रकाश डाला है । इन लेखों के सम्बन्ध में कुछ और ज्ञातव्य बातों का उल्लेख करना आवश्यक है ।
१. तीन विलक्षरण जिनबिम्ब - इस लेख में आदिनाथ की प्रतिमा का विवरण लिखते हुए लेखक ने "दो सिंहाँ के बीच में धर्मचक्र के अंकम" को बुद्ध शिल्प की प्रतिकृति बताई है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'धर्मचक्र' का अङ्कन दोनों—जैन और बौद्ध सम्प्रदायों में प्रचलित था। बहि
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ख दो सिंहों के बीच में धर्मचक्र होते हुए भी, वहां दो सिंहों से सिहासन सूचित होता है और धर्मचक्र के साथ उनका कोई संबंध नहीं है। हां, जहां दो मृगों के मध्य में धर्मचक्र का अडुन होता है, वहाँ बुद्ध के मृगन्यान (सारनाथ) में पहिले-पहल धर्मचक्र प्रवर्तन को सूचित करना विद्वान लोग मानते है पर इस प्रकार दो मुगों सहित । धर्मचक्र, जैन प्रतिमाओं में भी उपलब्ध है। लेखक ने जो
श्रीर दूसरे में सुरक्षित जल का पात्र लिए हुए अंकित है । विद्याधरी का चित्रण भी पूर्वोगत मुद्रा में आभरण सहित किया गया है ।
इस प्रतिमा के अतिरिक्त इस गुफा मे भगवान यादि नाथ की दो, पार्श्वनाथ की तीन तथा अन्य तीर्थंकरों की तीन, इस प्रकार सात लड़गासन तथा पद्मासन प्रतिमाएँ और हैं ये डेढ़ फुट से लेकर पौने चार फुट तक ऊँची है जिन में से दो सिरोभाग से खंडित हैं । इनमें से दो तीन मूर्तियां मध्यकालीन प्रतीत होती है जो सम्भवत: इन गुफा के जीर्णोद्वार के समय अन्यत्र कही से उठाकर यहाँ रख दी गई होंगी ।
जैन गुफा मन्दिरों की श्रृंखला में सीरा पहाड़ का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है और यहाँ मास-पास विशेष अनुसंधान की आवश्यकता है ।
यह लिखा है कि "तीर्थकर प्रतिमाओं में इस प्रकार के केशराशि - संयोजन ( जटाजूट) निश्चित ही अद्यावधि अनुपलब्ध हैं।" यह ठीक नहीं है। मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि आदिनाथ (ऋषभदेव ) की जितनी प्राचीन मूर्तियाँ बाज तक उपलब्ध हुई हैं, वे सब जटाजूट सहित है। पौर उनकी संख्या कई सौ है जिस प्रकार पार्श्वनाथ की मूर्ति सर्पकों सहित होती है उसी प्रकार प्रादिनाथ की जटाजूट सहित इन दोनों तीर्थकरों के जीवन की ये विशेष घटनाओं को सूचित करती हैं । श्रादिपुराण पर्व १ श्लोक १ मे लिखा है
।
'चिरं तपस्यतो यस्य जटामूनि वभुस्तराम् । ध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनिर्मद् धूमशिखाइव ॥६॥ अर्थात् चिरकाल तक तपश्चरण करने के कारण जिनकी बढ़ी हुई जटाएँ ऐसी शोभायमान होने लगी मानों शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जलाये हुए कर्मरूपी ईंधन से निकली हुई घूम की शिला ही है।
२. पतियान दाई - इस मंदिर के द्वार के दोनों प्रोर गंगा-यमुना का जो अङ्कन किया गया है, वैसा हिन्दु मंदिरों में ही उपलब्ध होता है, पर जैन मंदिरों में ऐसे न विरल ही उपलब्ध होते है । वास्तव में नीरज जी ने एक दुर्लभ जैन कलाकृति प्रस्तुत की है। गंगा-जमुना के पार्श्व में जिन दो चतुर्भुज मूर्तियों का उल्लेख किया है वे यह न होकर द्वारपाल है और ऐसे द्वारपाल अन्यत्र भी उपलब्ध हैं किन्तु इनके हाथों में गदा, नाग और पाश हैं पर कोई चतुष्पद प्राणी नहीं है यह भ्रम हुआ है।
३. भगवान महावीर ज्ञात पुत्र थे या नाग पुत्र ?जैनभारती के ता० १८ नवम्बर १९६२ के वर्ष १० अङ्क ४६ में तेरापंथी वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी के शिष्य मुनि श्रीनथमल जी का एक नोट प्रकाशित हुआ है जिसका सारांश यह है कि भगवान महावीर इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री क्षत्रिय थे और नागवंशी थे । नागवंश की उत्पत्ति इक्ष्वाकुवंश से हुई है। भगवान महावीर को
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दण्डनायक गंगराज की वृत्ति में नाय का अर्थ ज्ञात अथवा नाग ( नाग वंशी) किया है इतिहास में ज्ञात नाम का कोई प्रसिद्ध वंश नहीं है। नागवंश बहुत प्रसिद्ध है। महाभारत के अनुसार नागों की उत्पत्ति कश्यप मुनि की पत्नी कद्र से मानी जाती है। महाभारत और विष्णुपुराण में जहां इनके वर्तमान वंश का उल्लेख मिलता है, वहाँ इन्हें नागवंशी मोर जहाँ इनके मूल वंश और गोत्र का उल्लेख होता है, वहाँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कश्यप गोत्री कहा गया है।
जैनधर्म से नाग जाति का सम्बन्ध बहुत पुराना है। कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि को नागराज ने विद्याएँ दीं और वैताढ्य पर्वत पर उनके लिये नगर बनाये थे । जैन परम्परा में नाग पूजा का इतिहास की लगभग उसी समय का है ।
किरण ५
अनेक प्रसंगों में नाथपुत कहा गया है। बौद्ध पिटकों में भी उनका उल्लेख 'निग्गंठ नासपुत्त' के नाम से हुआ है नाम और नाव का संस्कृत रूप 'ज्ञात' होता है। इसलिये भगवान को ज्ञात पुत्र माना जाता है। नाय कुल का नाम है। भगवान महावीर का कुल नाय या नात था इसलिये वे ज्ञात पुत्र या ज्ञान सुत्र कहलाते थे । कुछ प्राधुनिक विद्वान 'नाथ' का संस्कृत रूप शातू मानते हैं। इस ज्ञात शब्द के आधार पर ही ने ज्ञातृ का सम्बन्ध बिहार के भूमिहारों की जयरिया जाति से जोड़ते हैं। किंतु प्रतीत होता है कि ज्ञात और ज्ञातृ ये दोनों यथार्थ नहीं हैं । भगवान का कुल नाग होना चाहिये । णाय-पुत्त की संस्कृत छाया 'नाग पुत्र' भी हो सकती है। चूर्णियां प्राकृत में है और उनमें गाय या णात ही मिलता है । क्वचित् ज्ञात भी मिलता है। टीकाकाल में यह भ्रम पुष्ट हुआ है। प्रभवदेवसूरि पहले टीकाकार हैं, जिन्होंने भोपपातिक सूत्र १४
दण्डनायक गंगराज
भगवान सुव्रत और अरिष्ट नेमि गौतम गोत्री हरिवंशी ये और शेष २२ तीर्थकर काश्यप गोत्री इवाकुवंशी मे
लेखक - विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री
महाप्रचंड दण्डनायक गंगराज उन गंग नरेशो का वशज था, जो पूर्व में गंगवाडि ९६००० प्रदेशों को स्वतंत्रता से मत्त हाथियों की तरह शासन करने वाले थे । इसका श्रद्धेय पिता दण्डनायक एच नरेश नृप काम का प्राप्त मित्र था । विमणि मुल्लूर के प्राचार्य कनकनन्दी ही एच के गुरु थे । इसके एच, राज, एचिज, एचिगांक एवं एचिराज आदि अनेक नाम थे। एच को 'बुधमित्र' उपाधि भी रही। दण्डनायक एचवीर हो नहीं था, धर्मात्मा भी था और इसने देवालयों को दान भी दिया था ।
एच की धर्म पत्नी एवं गंगराज की पूज्य माता पोचिकब्बे के द्वारा भी अनेक धर्म - कार्य संपन्न हुए थे । इसके द्वारा श्रवणबेलगोल में कई जिनालय निर्माणित हुए थे। पोचिये अंत में सलेखनापूर्वक पवित्र श्रवणबेलगोल महा क्षेत्र में स्वर्गासीन हुई। उसकी स्मृति में पुत्र दंड नायक गंगराज ने शक सं० २०४७ (वि० सं० १९७८ ) में एक निषिधिका का निर्माण कराया था ।
गंगराज की समाधि गत पञ्च महाश, महासामताधिपति, महाप्रचण्ड दण्डनायक, वैरिभयदायक, गोत्र पवित्र, बुधजनमित्र श्रीजैनधर्मामुताम्बुधि प्रवर्धनसुधाकर सम्यकुवरत्नाकर माहाराभय भैषज्यशास्त्रदानविनोद भव्य जनहृदयप्रमोद, विष्णुवर्धन भूवाल होयसलमहाराज राज्याभिषेक पूर्णकभ, धर्महम्यद्धरण मूलस्तंभ और द्रोहघरट्ट आदि उपाधियां थीं। इसने चालुक्य नरेश त्रिभुवनमल्ल पेर्माडिदेव की विशाल सेना को जीत कर प्रत्यधिक प्रताप दिखलाया था। इसी प्रकार तलका कोंगु, गिरि आदि जीतने एवं भावियम नरसिंह, दामोदर और तिगलों को परास्त करने में अपने असीम शौर्य को व्यक्त किया था ।
जिस प्रकार इंद्र को वज्ज, बलराम को हलायुध, विष्णु को चक्र, शक्तिधर को शक्ति और अर्जुन को गांडीव सहायक था। उसी प्रकार राजा विष्णुवर्धन को गंगराज सहायक था । यह जितना पराक्रमी या उतना हीं धर्मात्मा
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भी था गंगराज ने भवणबेलगोलस्य विध्यगिरि में विराज मान गोम्मटेश्वर के चारों ओर परकोटा निर्माण कराया, गंगवाडि के सभी जिनालयों का जीर्णोद्वार कराया और अनेकत्र नवीन जिन मंदिरों को बनवाया। यह प्राचीन कुंदकुंदान्यय का उद्धारक था । इसीलिए गंगराज चायुण्डराय से भी शतशः घन्य कहा गया है । धर्म के बल से इसमें अलौकिक एवं अतुल शक्ति विद्यमान थी, इसी से वह अपने कर्तव्य में सफलता प्राप्त करता था ।
जिस प्रकार जिनधर्मं प्रभाविका अत्तिमब्बे के प्रभाव से गोदावरी नदी का प्रवाह एक दम रुक गया था, उसी प्रकार कावेरी नदी का प्रदम्य एवं अपार प्रवाह जिनभक्ति के कारण गंगराज को तिलमात्र भी हानि नहीं पहुँचा सका। कन्नेगल में चालुक्यों को जीतकर गंगरान जब लौटा तब विष्णुवर्धन ने इसकी विजय से संतुष्ट होकर कोई वर मांगने के लिए इसे विवश किया। इसने राजा से 'परम' नामक ग्राम को मांगकर उसे अपनी पूज्या माता एवं धर्मपत्नी के द्वारा निर्माण कराये गये जिन मन्दिर को सहर्ष दान किया । इसी प्रकार 'गोविंदवाडि' नामक ग्राम को प्राप्तकर गोम्मटेश्वर को समर्पित किया। गंगराज शुभचंद्र सिद्धांतदेव' का शिष्य था ।
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धमेकान्त
वर्ष १५
पत्नी सभी जिनधर्म के बड़े भक्त रहे। गंगराज का लड़का दण्डनायक बोप्पदेव भी पिता की ही तरह वीर तथा धर्मिष्ठ था। गंगराज के सम्बन्ध में ऊपर कही गई सभी बातें अन्यान्य प्रामाणिक प्राचीन शिलालेखों के प्राधार पर ही लिखी गई है।
गंगराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति भी बड़ी धर्मनिष्ठा रही। इसने वणबेलगोल में अपने अन्यान्य बन्धुओं के स्वर्गबास के स्मृतिरूप में कतिपय शिलालेखों को खुदवाया है। शुभचंद्रदेव की शिष्या यह लक्ष्मीमति विदुषी, पतिपरा यणा, रूपवती, विनयशीला, विनेयजन भक्ता, चतुरा, जिन भक्ता, सौभाग्यवती स्वनामधन्या, साक्षात् लक्ष्मी एवं दान सूरा थी। इसने श्रवणबेलगोल में 'एण्ड कट्टे बस्ति' के नाम से एक भव्य जिनालय निर्माण कराया है ।
श्रवणबेलगोलस्थ 'कसले बस्ति को गंगराज ने अपनी पूज्या माता पोचिकब्बे के वास्ते निर्माण कराया था। यहां के 'शासन बस्ति' के नाम से प्रसिद्ध, जिनालय को भी इसी ने बनवाया था। जिननामपुर को भी इसी ने बसाया । दण्डनायक गंगराज से श्रवणबेलगोल में गुरु शुभचंद्र मेघचंद्र विद्य, माता पोचिकब्बे एवं पत्नी लक्ष्मीमति के नाम से कई सुन्दर स्मारक बनवाए गये हैं। इसी की तरह बड़े भाई, भाई की पत्नी, मामा, मामा का लड़का, उसकी
दण्डनायक गंगराज होय्सल सेना की सेवा में ही अपनी धायु को बिताने वाला वयोवृद्ध सेनानायक था। इसका पिता दण्डनायक एच भी पूर्वोक्त प्रकार, राजा नृप काम का प्राप्तमित्र था। उसी समय से गंगराज राजमहल, सचिव वर्ग और परिवार सबका परिचित बनकर कार्य साहस एवं धर्मनिष्ठा आदि से सबके विश्वास तथा प्रीति का पात्र बन गया था । विष्णुवर्धन के लिये तो गंगराज पितृवत् गौरव का एवं अप्रजवत् प्रीति का पात्र बन गया था। राजा विष्णुवर्धन का विश्वास था कि सेनानायक गंगराज अपना सुदृढ़ वज्र कवच है । इसीलिए गगराज को राजा एवं सचित्रों के साथ निःसन्देह और निर्भय बोलने का अधिकार था। गंगराज को विश्वास था कि विश्वास द्रोही तथा धर्मघातक के लिए पुण्य का बल नहीं है ।
अपने पूर्वजों की राजधानी में फहराते हुए वोलों के ध्वज को देखकर मातृभूमि का भक्त और अभिमानी गंगराज का हृदय दुःखी होकर गंगवाडि के भयंकर युद्ध के लिए तैयार हुआ । गंगनरेश अपने शासनकाल में जैनधर्म के अनुयायी ही नहीं थे, उस धर्म के प्रोत्साहक भी रहे। उनके शासनकाल में गंगवाडि जैनधर्म की मातृभमि रहा । श्रवणबेलगोल में विश्व को आश्चर्य में डालने वाली बाहुबलि मूर्ति का निर्माण गंगराजा राजमहल के सेनानायक वीरमार्तण्ड चामुण्डराय ने कराया था। उस मूर्ति की प्रतिष्ठा के उपरान्त श्रवणबेलगोल की महत्ता बहुत बढ़ गई श्रवणबेलगोल हनसोगे, कलेसवादि आदि कुछ स्थान नहीं हैं, गंगों के शासनकाल में प्रत्येक ग्राम जिन मंदिरों से सुशोभित हो, गंगवादि जिनवादि बन गया था।
दुर्भाग्यवश गंगनरेश चोल नरेशों से पराजित हुए मौर जब गंग सिहासन उलट गया तब उन्हीं के द्वारा उन्नति को प्राप्त जैनधर्म ने भी अपनी प्रतिष्ठा को एक दम खो दिया। वहां पर शैव-वैष्णव धर्म प्रबल हो गया और क्रमशः जैन मंदिर नष्ट होने लगे । जैन मंदिरों की संपत्ति को
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किरण ५ बडनायक गंगराज
२२७ चोल सेनानायक उपयोग करने लगे। वंश की अपेक्षा अपने किसी भी प्रकार बाधक नहीं बन सकती है, इस उत्तम पाठ धर्म की हानि को गंगराज का मन न सह सका, माचंदार्क को अनायास सीख सकते हैं । यद्यपि जैनधर्म महिंसावादी स्थायी रहने वाले देवालय जिनालयों की हानि को देखकर है। फिर भी उसने अपने क्षात्र-धर्म को कभी विस्मरण परम मास्तिक गंगराज को असीम दु.ख होना स्वाभाविक नहीं किया । गृहस्थों की बात जाने दीजिये । सर्वसंग परिही है । सबों में धर्मबुद्धि पंदा कर परमानन्द एवं शांति त्यागी मुनियों ने भी राज्य स्थापना में सहर्ष भाग लिया को देने वाली देवमूर्तियों को तोड़कर अपने अंध धर्मप्रेम है। होयसल राज्य को स्थापित करने वाले सुदत्त मुनि को प्रकट करने वाले धर्मान्धों को पूर्णत. नाश करने का और गंगराज्य को स्थापित करने वाले सिंहनन्दी ये दोनों मन गंगराज में पैदा होना अलौकिक नहीं है। गंगवाडि मुनि थे । राष्ट्रकूट नरेश नृपतुंग अथवा अमोघवर्ष के को जीत कर वहां पर चोलों के अत्याचार से जीर्ण जिना- श्रद्धेय गुरु आचार्य जिनसेन थे। तात्पर्य यह है कि कर्णाटक लयों का उद्धार कर फिर गंगवाडि की कीर्ति को फैलाने के शासकों के प्रास्थानों में जैन साधुओं का विशेष आदर की शपथ गंगराज ने ली वह यथार्थ थी। इस शपथ ने ही था। कर्णाटक के शासकों को सदा जैन साधुनों की मदद गंगराज को चोलों पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित रहने से उन्होंने धर्म को न भूल कर उसी की नींव पर किया। यह जैनधर्म के परम भक्त पूणिसमय्य, मरियण्ण, राज्य स्थापित कर धर्म से राज्य किया। जैनशासकों के भरत आदि सेनानायकों को भी सम्मत हुआ। दण्डनायक द्वारा जैनेतर धर्मों को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का भरत गण्डविमुक्त सिद्धांतदेव का शिष्य था। दण्डनायक उदाहरण इतिहास में हमें कहीं भी नहीं मिलता है । जैनेमरियण्ण भरत का बड़ा भाई था। भरत ने अनेक धर्म- तर शासकों के द्वारा जैनधर्म को हानि पहुँचाने के उदाकार्यों को किया था। इसने गंगवाडि में दो जिन मन्दिरों हरण हमें एक-दो नहीं, अनेक मिलते हैं। खैर, यह विषका जीर्णोद्धार कराया और ८० नवीन मन्दिरों को यांतर है । वस्तुतः सम्राट चंद्रगुप्त, खारवेल, कुमारपाल, बनवाया।
मासिह, नृपतुंग, वस्तुपाल, तेजपाल, आदि जैन शासकों
ने संघर्षमय भयंकर युद्धो में विक्रमपूर्वक भाग लेकर प्रस्तु, गंगराज की तलकाड की विजय प्राचंद्रार्क
हमारे भारतवर्ष के गौरव को बढ़ाया है। जैन शासकों के अमर रहेगी। गंगराज ने धर्म-सेवा एवं देश-सेवा दोनों
शासनकाल में भारतवर्ष पराधीन नहीं हुआ था। इसलिए को एकनिष्ठा से करके राष्ट्र के सामने अपना प्रादर्श उप- बौद्ध एवं जैनों की अहिंसा से भारतवर्ष पराधीन हुआ, यह स्थित किया है। इससे वह, धर्मभक्ति, देशभक्ति में कहना सर्वथा निराधार है।
"मिथ्यात्व के उदय से प्राणियों को यहां तक दृष्टिभ्रम हुमा करता है कि वे अपनी पराजय को जय समझते हैं। वे कवायों को जीतने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु खुब कवायों से जीते जाते है और फिर भी समझते हैं कि हम कवायों को जीत रहे हैं।"
सहायता वीर सेवा मन्दिर के संयुक्त मंत्री बाबू प्रेमचन्दजी के सुपुत्र बा० हरिश्चन्द्रजी का विवाह संस्कार सुश्री संतोष कुमारी के साथ सानन्द सम्पन्न एमा। विवाहोपलक्ष में निकाले एबान में से ३१) रुपया अनेकान्त की सहायता प्राप्त हमा, इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं।
-व्यवस्थापक अनेकान्त
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'चर्चरी' का प्राचीनतम उल्लेख
श्री डा० दशरथ शर्मा
अगस्त १९६२ के 'अनेकान्त' में डा. हरीश ने 'सम- मदनिका-दुवदीखंड क्खु एदं। (प्रथमाङ्कः) । इनमें राइच्च-कहां के कुछ अवतरणों को देकर, उन्हें चर्चरी के पहले अवतरण से स्पष्ट है कि चर्चरी के साथ मृदुमृदङ्ग की प्राचीनतम उल्लेख मानते हुए, चर्चरी के स्वरूप को सम- ध्वनि भी रहती है। दूसरे अवतरण में स्वच्छन्द मर्दल झाने का प्रयत्न किया है। प्रयत्न प्रशस्य है। किन्तु ये (मृदङ्ग-विशेष) की ध्वनिसे उद्दाम चर्चरी के शब्दसे रथ्याओं अवतरण 'चर्चरी' के प्राचीनतम उल्लेख नहीं हैं। श्री के मुखरित होने का वर्णन है । तीसरे अवतरण में नृत्य के हरिभद्रका समय सुपुष्ट प्रमाणों के आधार पर लगभग साथ 'द्विपदीखण्ड' के गायन को विदूपक 'चर्चरी' समझ सन् ७०० से ७७० ई. तक रखा जा सकता है। 'समरा- बैठता है। इसमें गाने वाली केवल दो चेटियां हैं, कोई इच्चकहा' की रचना शायद श्री हरिभद्र ने सन् ७४० या बड़ी टोली नहीं। ७५० के मासपास की हो । इससे लगभग एक सौ वर्ष पूर्व
कुवलयमाला में वर्णित 'चर्चरी' पर हम अन्यत्र लिख कान्यकुब्जाधीश्वर श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका लिखी
चुके हैं। अमरकोश में चर्चरी शब्द विद्यमान है। कर्पूरजा चुकी थी। उसके कुछ अवतरण हम नीचे दे रहे हैं।
मञ्जरी में चर्चरी का खूब विशद वर्णन है। समराइच्च इनसे चर्चरी का वास्तविक रूप और स्पष्ट हो सकेगा।
कहा के दो अवतरणों का डा. हरीश ने निर्देश किया ही अवतरण
है। किन्तु 'उनके हिन्दी अनुवाद से हम सर्वथा सहमत नहीं (क) यौगन्धरायण:-'अये मधुरमभिहन्यमान-मदु- हैं। 'समासन्नचारिणी' का अर्थ "पास में बैठी हुई भाग मृदङ्गाऽनुगतसङ्गीतमधुरः पुरः पोराणामुच्चरति 'चर्चरी' लेती हुई" न करके "पास से निकलती हुई" करना चाहिए। ध्वनिः । (प्रथमाङ्क)
यही अर्थ "अम्हाण चच्चरीए समासन्नं परिव्वयइ" से स्पष्ट (ब) विदूषक:–पेक्ख पेक्ख दाव महुमत्तकामिणी
है। इसमे भी डा. हरीश का अर्थ 'चर्चरी गायक टोली जषास अंगोह-गहिद-सिंगकजलप्पहास्णच्चन्त-णाभरजण
हमारी टोली के पास बैठकर फिरती हैं। ठीक प्रतीत नहीं जणिदकोदहलस्स समन्तदो सुच्छन्द-मद्दलोदाम-चच्चरी
होता है। शायद हरीश जी ने समासन्न को समासीनं में सह-मुहर-रत्थामुह-सोहिणो पइण्णपडवास-पुंज-पिंजरिद
परिवर्तित कर लिया है। दूसरे अवतरण में 'नगरकी चर्चदहमुहस्स सस्सिरीप्रदं मप्रण-महूस्सवस्स । (प्रथमाङ्क)
रियां प्रवर्ती के स्थान में 'नगर में चर्चरियां प्रवृत्त हुई'
कर दिया जाए तो शायद ठीक हो । कथा के अन्य दो अव(ग) (ततः प्रविशतोमदनलीला नाटयन्त्यो द्विपदी
तरणों में चर्चरी के तूर्यों का निर्देश है जिससे स्पष्ट है कि खणं गायन्त्यो चेट्यौ ।)......
चर्चरी सदा मर्दलमृदङ्ग आदि के शब्द से अनुगत रहती। विदूषक-भो वपस्स! अहं वि एदाणं बज्मपरिप्रराणं
जैन ग्रन्थों में चर्चरी के अनेक अन्य उल्लेख भी हैं। मझ णच्चन्तो गामन्तो मअणमहूस्सवं सम्माणइस्सं ।
राजा-(सस्मितम्) एवं क्रियताम् ।
विदूषक-जं भवं माणवेदि। (इत्युत्थाय चेट्योमध्ये नृत्यन्) भोदि ममणिए । भोदि चूदलदिए, एदं 'चच्चरि' में सिक्खावेहि। उभे-(विहस्य) हदास ण होदि एसा चन्चरी।
१. देखिये 'मरुभारती', ८.१, पृ. ३-४; मरुभारती, विदूषक-ता किं मखु एवं ?
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"रसिक अनन्य माल" में एक सरावगी जैनी का विवरण
श्री प्रगरचन्द नाहटा जैन इतिहास की सामग्री बहुत ही बिखरी हुई है के अत्याचार एवं अपने स्वार्थवश कुछ जैनी अन्य धर्मावउसको एकत्रित करके प्रकाशित करने का प्रयत्न इधर बहुत लम्बी भी बनते रहे हैं। जिस प्रकार प्रोसवाल जाति या ही कम हो पा रहा है। अब से ३०-४० वर्ष पूर्व श्वे. जैन वंश मूलतः जैनी ही था पर कई मोसवाल जो राजामों के शिलालेखों, प्रशस्तियों और ऐतिहासिक रास, तीर्थ यात्रा अधिक सम्पर्क में रहे, वे राजमान्य-वैष्णव भादि धर्मप्रादि से ग्रन्थों का प्रकाशन जिस रूप में हुआ था, उससे सम्प्रदायों के अनुयायी बन गये। फलतः जोधपुर मादि में इन १०-१२ वर्षों में जैन ऐतिहासिक साधनों के संग्रह एवं सैकड़ों ऐसे पोसवाल कुटम्ब हैं जो अब वैष्णव धर्मानुयायी प्रकाशन का प्रयत्न पूर्वापेक्षा कम ही हुमा है। दिगम्बर हैं। इसी तरह अन्य जातियों में भी खोजने पर मिलेंगे। सम्प्रदाय के साहित्य और इतिहास के साधन इधर फिर वर्तमान में भी पत्रों में कभी-कभी ऐसे समाचार पढ़ने को भी कुछ ठीक रूप में प्रकाशित हो रहे है, पर ऐसे प्रका- मिलते हैं कि समाज से बहिष्कृत होने अथवा उचित स्थान शनों की विक्री अधिक नही हो पाती इसलिए काम आगे या सहायता न मिलने के कारण अमुक व्यक्ति या अमुक नही बढ़ता। यद्यपि डाक्टरेट के लिए शोध-प्रबन्ध लिखे कुटुम्ब अन्य धर्मावलम्बी हो गया है बीच में दो-चार बार जाने का प्रयत्न इधर काफी तेजी पर है पर ऐतिहासिक तो ऐसे भी समाचार छपे थे कि कोई जैनी मुसलमान हो साधन जहां तक अप्रकाशित अवस्था में रहेंगे, शोध-प्रबन्धों गया है। एक जन्मजात अहिंसक का इस प्रकार हिंसक में उतनी ही कमी रहेगी, वे ठोस नहीं हो पायेंगे। समाज में चला जाना, अवश्य ही उल्लेखनीय घटना है।
जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त जैनेतर ग्रन्थों में भी कभी- जैनेतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों को पढ़ने से ऐसी कई कभी कुछ ऐसे महत्व के उल्लेख मिल जाते हैं यद्यपि अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है कि अमुक व्यक्ति पहले बार विरोधी दृष्टि के कारण उन ग्रन्थों में तथ्यों को तोड़- जैन था फिर उस सम्प्रदाय के धर्माचार्य के सम्पर्क में मरोड़ दिया जाता है फिर भी कुछ नई जानकारी मिलने पाकर जैनधर्म छोड़कर उनका अनुयायी बन गया । वल्लभ के कारण उनका भी अपना महत्व है।
सम्प्रदाय के ८४ या २५२ वैष्णवन की वार्ता ग्रंथ में
ऐसा उल्लेख देखने में माया था पर अभी उसे ढूढ़ने में जैन ग्रन्थों के अनुसार समय-समय पर जैनाचार्यों के
समय लगेगा, इसलिए फिर उसे कभी प्रकाशित किया उपदेश से हजारो-लाखों जनेतर व्यक्ति जैनी बने। जैन
जायेगा। इस लेख में तो "रसिक अनन्य माल" के एक ऐसे जातियों के इतिहास को देखने पर प्रापको यही प्रतीत
प्रसंग का विवरण प्रकाशित किया जा रहा हैहोगा कि उस जाति की स्थापना से पूर्व उनके पूर्वज अन्य । धर्मावलम्बी थे और कई जैनाचार्यो ने अमुक समय में इतने गौडीय या चैतन्य सम्प्रदायके कवि भगवत् मुदित रचित हजार या लाख जैनी बनाये-उनको मांसाहार, पशु बलि "रसिक अनन्य माल" ग्रन्थ राधा वल्लभ सम्प्रदाय के ३६ आदि हिंसक प्रवृत्तियों से विरत करके अहिंसा धर्म का भक्तजनों के परिचयी के रूप में है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन अनुयायी बनाया । पर ऐमे उल्लेख प्रायः नहीं मिलते कि गत वसन्त पंचमी को वेणु प्रकाशन, वृन्दावन में हुआ है। अमुक समय में अमुक कारण से अमुक जैनी ने जैनधर्म गत २० अगस्त को मेरा लश्कर (ग्वालियर) जाना हुआ छोड़कर अन्य धर्म, सम्प्रदाय को अपनाया । यद्यपि यह तो तो इस ग्रन्थ के सम्पादक श्री ललिताप्रसाद पुरोहित ने निश्चित ही है कि संख्या में चाहे कम ही हों, पर ऐसी मुझे इसकी एक प्रति भेंट की। इसमें प्रथम परिचयी नरघटना भी हुई अवश्य है कि राजकीय कारणों से या समाज वाहन जी की है । नरवाहन, भोगांव निवासी लुटे था।
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वर्ष १५
बड़े-बड़े राजा भी उससे भयभीत थे, उसका बड़ा मातंक प्रायो एक बड़ो व्यापारी, लादै नाव सौज बहुभारी । था। पर संयोगवश वृन्दावन आने पर राधा वल्लभ सम्प्र- देहि जगात न सबसों परै, तुपक जमूरन सौं बहु लरै ॥ दाय के हित हरिवंश का दर्शन उसे हो गया और उनसे येहू मागन लगे जगात, वह मद अन्ध सुनें क्यों बात । बातचीत करने पर वह उनका अनुयायी हो गया। अपने हौ सरावगी धर्म विरोधी, हरि भक्तनिसों लर्यो किरोधी।। रास्ते की लूट-पाट करने का काम उनके उपदेश से बंद तुपक सातसै वाके संग, दुई दिसि लागे लरन अभंग । कर दिया । इसके बाद एक प्रसंग में यह बतलाया गया है तीन लाख मुद्रा को वितनि, लाये लूटि निवेद्यौ भृत्तनि ।। कि एक बड़ा सरावगी व्यापारी बहुत सा सामान लेकर वाको बांधि गांव में लाये, तुपक हथयार सबै घरवाये । उसके गांव से निकला और उसने नरवाहन से जगात कोठे मधि सौंज सब रखाई, गर तौक पग बेरी नाई ।। मांगने पर नहीं दी। यही नहीं उसके पास भी अस्त्र-शस्त्र इतनौई धन अवर मगावै, तब यह ह्यां तें छूटनि पावै । थे, इसलिए उसने लड़ाई भी की पर अन्त में नरवाहन ने वाकों बंधे बहुत दिन बीते, धन न मगाव मारौं जीते ॥ उसका सब सामान जब्त कर लिया और उसे बंधन में बैठि सभा में यह ठहराई, सो घर की चेरी मुनि पाई। डाल दिया। नरवाहन ने उससे और भी धन अपने घर से सुघर तरुण सुन्दर वह साह, देखन कौं चेरिय उमाह ।। मंगाने के लिए दबाव डाला और नहीं मंगाने पर उसे मारने दासी के जिय दया जुआई, सुनी जु त्यों ही ताहि सुनाई। का भी विचार किया । दासी ने दया करके उस सरावगी काल्हि तोहि मारेंगे राव, जीवन को नहिं कोउ उपाव ।। व्यापारी को जीने का उपाय बताया कि श्री राधावल्लभ तुहीं बचाइ ज्याइ जिय मेरौ, जन्म जन्म गुन मानौं तेरौ । हरिवंश का स्मरण करो, नरवाहन उनका भक्त है इस- एक मंत्र हों तोहि बताऊँ, तात नेरौ प्राण बचाऊँ ।। लिए वह अपना धर्म भाई समझकर तुम्हें छोड़ देगा। अपुनौ दर्व फेरि सब पहै, आदर सौं अपने घर जैहै। उसने मरने के भय से वैसा ही किया तब नरवान ने कहा माल तिलक धरि कंठी माला, मो पै मुनि लै नाउं रसाला ॥ कि मैंने तुम्हें जैनी जान कर लूटा था पर तुम मेरे गुरु का (श्री) राधावल्लभ श्री हरिवश', सुमिरत कटै पाप जम फंस । नाम ले रहे हो तो मेरे गुरु भाई हो गए, इसलिए तुम्हें जो पिछली राति पुकारि पुकारि, कहियौ ऐसी भांति सुधारि ।। कष्ट दिया है उसके लिए क्षमा करना । इतना ही नहीं नरवा- इतनी सुनत आपु चलि पावे, बेरी काटि तोहि बतराव । हन ने उसे वस्त्राभूषण दिये और उसका सब सामान वापस तब कहियो मैं उनको सेवक, भव तरिव कों बेई खेवक ।। देकर उसे गांव पहुँचा दिया। राधावल्लभ श्री हरिवंश के यह सिखाइ रावर में पाई, लागी टहल न काह जनाई । नामोच्चारण के कारण अपनी जान बची, इसलिए उनका भई प्रतीति बात मन मानी, पिछली रैनि वही धुनि ठानी। उपकार मानकर वह व्यापारी वृन्दावन जाकर उनका भक्त धुनि सुनि उठि नरवाहन पायौ, गुरु भाई लखि पद लपटायो। हो गया । व्यापारी का नाम नहीं दिया है पर उसे “सरा- महादीन ह वचन सुनाये, बार बार अपराध छिमाये ॥ वगी" और "जैनी" बतलाया गया है इसलिए वह दिग- जैनी जानि लूटि हम लीन्ही, यह गुरु भेद न किनहूँ चीन्हीं। म्बर जैनी ही होगा। दिगम्बर साहित्य में इसका कुछ भी गुरू को नाम लेत मैं जानी, दासी नै तब रीति बखानी ।। विवरण मिल सके तो खोज की जानी चाहिए।
मेटौ चूक जु मोते भई, कछु इच्छा प्रभु यों ही ठई। नरवाहन परिचयी में उक्त प्रसंग के जो पद्य हैं उन्हें भोर होत स्नान कराय, उज्ज्वल पट भूषण पहिराये ॥ यहां उद्धृत किया जा रहा है
सिगरी दर्व फेरि कर दियौ, रती न मन में लालच कियो। "नरवाहन भैगांऊ निवासी, वार पार में एक मवासी। श्री गुरू को विश्वास सुहायौ, सेवा करि चरणनि सिर नायी जाकी आज्ञा कोउ न टार, जो टारै तिहिं चढ़ि करि मारै॥ करि दण्डवत बिदा जब कीने, पहुँचावन सेवक बहु दीने । बस करि लियौ सकल व्रज देश, तासौं डरपैं बड़े नरेश। देखि साह के भक्ति जुमाई, सिष्य हौन कौ मति ललचाई ।। पातशाह के वचननि टार, मन आवै तो दगरौ मार ॥ जिनको छलसौं नाम उचारचौ, तान तन धन प्राण उबारचौ ।
अब तो उनको दरशन करौं, सर्वसु उनके मागे धरौं ।
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एक प्राचीन पट-अभिलेख
पं. गोपीलाल 'प्रमर' एम० ए० परिचय
तीर्थकर की माता का स्वप्न-दर्शन, पति से उनका सागर जिले की बण्डा तहसील में एक 'पड़वार' नामक फल पूछना, सोलह स्वप्न, तीर्थकर का जन्माभिषेक, राज ग्राम है। यहाँ के एक जैन बन्धु के पास एक १७'x' दरबार, दीक्षा के लिए पालकी में वन को जाना, वन में का पट-अभिलेख प्राप्त हुआ है। अभिलेख के अक्षर दीक्षा ग्रहण करना, केवलज्ञान, समवशरण, सिद्धशिला, तो सुन्दर हैं ही, जिस कपड़े पर वह लिखा गया है वह पञ्च अनुत्तर विमान, नव अनुदिशविमान, सोलह स्वगों कपड़ा भी अच्छी किस्म का है।
के पाठ पटल, चौबीस तीर्थकर और जैन मुनि द्वारा उपइस पट पर सुन्दर एवं रंगीन चित्रकारी है। चित्र- देश दान । कारी के नीचे संस्कृत भाषा में लेख है। पट की लम्बाई अभिलेख का विषय चौड़ाई से ही लेख के विस्तृत होने का अनुमान लगाया जा
अभिलेख २६ पंक्तियो में हैं। प्रति पंक्ति में ४५ से सकता हैं।
४८ तक अक्षर है। अनुष्टुप, उपजाति, शार्दूलविक्रीड़ित चित्रों का विषय
आदि २५ श्लोक और अठारहवें तथा चौवीसवें श्लोक के चित्र बहुत सुन्दर बन पड़े हैं। उनकी संख्या लगभग बाद कुछ गद्यांश हैं। चौवीसवें श्लोक का उत्तरार्ध जीर्ण १५ है। शैली प्रौढ़ न होकर भी युगानुकल प्रतीत होती (अस्पष्ट) हो गया है। ततीय श्लोक प्रसिद्ध मङ्गलाष्टक है । सम्पूर्ण चित्रो का विषय तीर्थकर भगवान के पञ्च- से उद्धृत किया गया है। कल्याणकों से सम्बन्धित हैं। चित्रों के विषयों को हम प्रारम्भ के ग्यारह श्लोकों में मंगलाचरण और फिर मुख्यतः ये नाम दे सकते हैं
तीन श्लोकों में, अपने धन का पुण्यकार्य में सदुपयोग करने यो कहि वनिक वृन्दावन पायौ, पसरि दंडवत करि सिर नायौ वाले गृहस्थों की प्रशंमा है। पन्द्रह से अठारहवे श्लोक अपनी सकल पिवस्था कही, तातें प्राइ शरण में गही ॥ तथा उसके बाद के गद्यांश में छुल्लक सुमतिदास का बंशा. सरत जिगमो तस्तरी या समधन नही भया। नुक्रम से परिचय है जिनके उपदेश से शान्तियज्ञ किया साठ बासनी मुहरन भरी, लै हित जू के आगे धरी॥ गया। गुमनि कही धन तुमही राखौ, हरि-हरिजन भजि के रस चाखौ। उन्नीसवें श्लोक मे लिखा है कि उन छुल्लक महाराज श्रद्धालखि कै नाम सुनायौ, रीति धर्म सब कहि समुझायो॥ के उपदेश मे 'वृषभूमि मंज्ञ पुरे' अर्थात् धर्मावनि नगर में वह धन हाथन हुँ नहि छियौ, यों कहि वनिक विदा कर दियो। जिन्होने शांतिक्रम नामक विधान कगया वे सुखी रहें।
जन-पत्रों में भी ऐतिहामिक लेख बहुत ही कम प्रका- बीमवें और इक्कीसवें श्लोकों में शान्तियज्ञ के प्रारम्भ की शित होते है । कुछ वर्ष पहले ऐसी कई पत्रिकाएं प्रकाशित तिथि भाद्रपदकृष्णा तृतीया शुक्रवार वि० सं० १७१६ दी हुई थीं जिनमें जैन-माहित्य एवं इतिहास सम्बन्धी नई हुई है। बाईमवें से चौवीस तक श्लोकों में लिखा है कि जानकारी प्रकाशित होती रहती थी। जैन-सिद्धान्त भास्कर शूद्रवर्णी सुलतान राजा के राज्य में 'धर्मावनि', घामोनी अनेकान्त, जनयुग, जैन साहित्य-संशोधक, जैन सत्य- में चन्द्रप्रभजिन मन्दिर में महान् शान्तियन किया जा रहा प्रकाश, जन हितैषी आदि से सभी पत्र अब बन्द हो गए है। इसके पश्चात् एक लम्बा गद्य है जिसमें शान्तियज्ञ के हैं, अतः अनेकान्त और जैन-सिद्धान्त भास्कर को तो शीघ्र यजमानों का वंशानुक्रम से परिचय है। यह परिचय संक्षेप ही चालू करने का प्रयत्न करना चाहिए।
में दिया जाता है।
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अनेकान्त
वैश्य वर्ण गोलापूर्व जाति के सनकुटा गोत्र में संघपति (संघवई, संपई, सिंघई) प्रासकरण थे। उनकी पत्नी का नाम मोहनदे था । उनके दो पुत्र हुये। बड़े पुत्र का नाम संघपति रतनाई और उसकी पत्नी का नाम साहिबा था। उनके पाँच पुत्र हुये, नरोत्तम, मंडन, राघव, भागीरव भौर नन्दी घासकरण के द्वितीय पुत्र संघपति हीरामणि थे । उनकी दो स्त्रियां थीं, कमला और वसन्ती । उनके बलभद्र नाम का पुत्र था।
गद्य के अन्त में इन सभी यजमानों को भाशीर्वाद दिया गया है । अन्तिम श्लोक में जिनेन्द्रदेव की पूजादि का महत्त्व बतलाया गया है ।
१४
विशेषता का द्योतक है। श्लोकों की भाषा भावपूर्ण एवं प्रौढ़ है।
इस अभिलेख के रचनाकार कौन हैं यह ज्ञात नहीं होता बहुत कुछ सम्भव है कि स्वयं इल्लक सुमतिदास ने ही उसे रचा हो ।
।
लेखक के हस्ताक्षर आदि जैसी कोई चीज भी इस अभिलेख में नहीं है।
निवेदन
इस पट के चित्र बड़े ही आकर्षक एवं प्रेरक हैं । विविध रंगों का प्रयोग अवश्य ही चित्रकार के चुनाव की
इस अभिलेख का सम्पूर्ण पाठ वहां दिया जा रहा है। विद्वद्वगं से सादर निवेदन है कि वे इस पर से अन्य तथ्यों की भी खोज करें और यदि अनुचित न मानें तो मुझे भी सूचित करने की कृपा करें। विभिन्न स्थानों पर लिखे हुए इस अभिलेख वाले यजमानों के वंशजों से भी निवेदन है कि वे अपने इस गौरवपूर्ण इतिहास की विशेष खोज करें। और आज तक का अपना समूचा इतिहास तैयार करें । मूल पाठ
महत्व
इस पर अभिलेख का कई दृष्टियों से बड़ा महत्व है । धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और कला एवं साहित्य की दृष्टि से इस अभिलेख का विस्तृत अध्ययन किया जा कता है।
अभिलेख का 'शान्तिक्रम नामक विधान' कौनसा विधान था, उसका समीकरण और अन्वेषण विद्वर्ग का कार्य है।
॥ श्रीं नमो जिनाय ॥
वि० सं० १७.६ में धामोनी पर किस सुलतान का शासन था और फिर यह नगर क्यों और कैसे भाजजैसा अजड़ हो गया, यह सब इतिहासवेत्ताओं के विशेष अध्ययन की वस्तु है। वर्तमान में इस नगर के अवशेष सागर शहर से लगभग ४० मील पर प्राप्त होते हैं । प्रवशेषों से इसके अतीत वैभव का स्पष्ट बोध होता है। शान्तियज्ञ के यजमानों के वंशज भाज बहुत बड़ी संख्या में पड़वार ग्राम तथा सागर शहर में विद्यमान हैं। कुछ लोग कुछ अन्य स्थानों पर भी जा बसे हैं। सागर में रहने वाले ये लोग पढ़वार से ही सभी के २०-२५ वर्षों में आये हैं। पड़वार में इन लोगों का बड़ा वैभव रहा है। वहां इनका मनवाया जैन मन्दिर दर्शनीय है। वहां लगभग ६५ वर्ष मानन्ददश्री रभिनन्दितेशः सतां समर्थः सुमतिः सुखान्धिः
स्वस्ति श्री जिनमानम्य पंचकल्याण नायकम् । लिखामि टिप्पिकां रम्यां सर्वकल्याणसिद्धये ॥ १॥ अर्हन्तो मङ्गलं सन्तु तव सिद्धाश्च मङ्गलम् । मङ्गलं साधवः सर्वे मङ्गलं जिनशासनम् ॥२॥ नाभेयादिजिनाः प्रशस्तवदनाः ख्याताश्चतुविशतिः । श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश ॥ ये विष्णु प्रतिविष्णुलाङ्गलधराः सप्ताधिका विंशतिम् । वैलोक्याभयदास्त्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ||३|| सप्रेरितां दर्शन कर्णधारे यंन्नामनावं परिरम्य भव्याः । भवाम्बुधिदुःखजलं तरन्ति स त्रायतां वो वृषभोजिनेन्द्रः ||४|| जिनोऽजितोयाज्जित दुःखराणि भंग्यान् सुखी संभवनाथ ईड्यः ॥
॥५॥
पूर्व इन्होंने गजरथ भी चलवाये थे। भाज भी इस वंश में बहुत से उच्च कोटि के त्यागी विद्वान् श्रीमान् विद्य मान हैं।
पद्मप्रभः पद्मदलाभनेत्रः शुभाय भूयाच्च सुपार्श्वदेवः । चन्द्रप्रभश्चन्द्रसमानकान्तिः सतां सुबुद्धिः सुविधिः प्रबुद्धः ॥ ६ ॥ श्री शीतलेशोऽवतु भव्यसंधं श्रेयोजिनश्चाक्षयसौख्यराशिः । श्रीवासुपूज्यः पुरुहूतपूज्यो मलापहारी विमलेश्वरश्च ||७
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एक प्राचीन पट अभिलेख अनन्तनाथोऽन्तविहीनकीति र्धमाम्बुधिर्धर्मजिनोजिताक्षः । रक श्री६ ललितकीतिदेवास्तच्छिष्य छल्लकव्रतधर ब्रह्मश्री शिवायशान्तीश्वरनामधेयःकुन्थुर्बुधानामनघोऽस्तु पूज्यः ॥८॥ सुमतदासः ॥ विभुः सतां स्यादरनाथदेवो मल्लिः सुखापत्य जितमोहमल्लः। तस्योपदेश (शाद ?) वृषभूमिसंज्ञे पुरेऽभवत्यत्र (पुण्य?) व्रताङ्कितधीमुनिसुव्रतेशो नमितानेक विनेयवर्गः ॥६॥
महः समीड्यः। श्री नेमिनाथो यदुवंशभूषः पार्श्वप्रभो देशितमुक्तिपावः । शान्तिक्रमो 'नाम' विधानसारं कुर्वन्ति ते स्युः सुखिनो वीरेश्वरोऽव्याज्जिनवर्धमानः संसारकृच्छ्राद्वरभव्यवृन्दम्।।१०।।
नितान्तम् ॥१९॥ दोषाष्टादशवजिता अतिशयरिद्धाः परा संश्रय
इन्दुतत्त्वेन्दुषड्वर्ग लिखिते सुमनोहरे । रष्टप्रोतसहस्रलक्षणधराः सत्प्रातिहार्यान्विताः ।। संवत्सरे विक्रमर्कात् गते मासि सुभाद्रके ॥२०॥ दृष्टिज्ञानसुवीर्यसौल्यसुगुणरन्तातिगै बन्धुरा ।
कृष्णपक्ष तृतीयायां तिथौ श्रीशुक्रवासरे। भूतानागतवर्तमानविषया वः पान्तु तीर्थङ्कराः ॥११॥ शान्तिकर्म सतां शान्तिप्रदमारभ्यते शुभम् ॥२१॥ काले दुःषमसंज्ञके जिनपते धर्म गते क्षीणताम् ।
अन्त्यवर्णसमुद्भूतः सुलितानसुभूमिपः । ये कुर्वन्ति सुधर्मसाधनरता गेहस्थिताः साम्प्रतम् ।। तस्मिन् राजनि सद्राज्ये प्रजाक्षेमकरे शुभे ॥२२॥ धर्मश्रीजिनभापितं शुभतरं क्षेत्रेषु चोप्तं यक
पुण्यां धर्मावनौ शुम्भच्चन्द्रप्रभजिनालये । द्रव्यं कष्टशतरूपाजितमतो धन्याहि ते भूतले ॥१२॥ जिनशान्तिक्रियायज्ञविधिश्चष विरच्यते ॥२३॥ गेहिनां दानपूजाथै विना धर्मस्य सम्भवः ।
महोत्सव शताकीर्णे पुण्यापन्यपणे परे। कदाचिन्न भवेत्तस्मात्कार्य धीमता सदा ॥१३॥
..........||२४|| गुर्वाज्ञया प्राप्य धनेन सिद्धिः सहायतो धर्मवतां नराणाम् ।
तत्र शुद्धसम्यक्त्वालङ्कारभारोद्धरणधीरान् षट्प्रतिकार्योमहान् (महः? ) श्रीजिनयज्ञनामा स्वर्गापवर्गादि
माधारकद्वादशवतगात्राहारभयभैषज्यशास्त्रदान वितरणकविभूतिदायी ॥१४॥
श्रेयोनृपतितुल्यजीर्णनूतनजिनप्रासादकरणकारापणसमर्थपा - श्रीमूलसंघे वाग्गच्छे बलात्कारगणे तथा ।
त्रदानजिनपूजामान्यमाननजिनस्मरणजनितपुण्यः पवित्रीपट्टमालानुक्रमोऽयं मङ्गलं कुरुते सदा ॥३५॥
कृतबाह्याभ्यन्तरप्रवृत्तिः वैश्यवर्णे सनकुटागोत्रे गोलापूर्ववंशे कुन्दकुन्दमुनेर्वशेऽभूभट्टारकसत्तमः ।
संघ-पति आसकरण भार्या मोहनदे, तयोः पुत्री हो जाती। पचनन्दिश्च तत्पट्टे यशस्कीतिर्यशोनिधिः ॥१६॥
तयोर्मध्येज्येष्ठः सं० रतनाई भार्या साहिवा, तयोः पुत्राः तत्प? ललितादिकीतिरभवत् स्याद्वादविद्यानिधिम्
पंच, ज्येष्ठो नरोत्तमः, द्वितीयोः मंडनः, तृतीयो राघवतस्मात् श्रीवृषकीर्तिवाग्वरमतिवाताचितोऽभूत्ततः ।।
श्चतुर्थो भागीरथः, पञ्चमो नन्दीति । द्वितीयः पुत्रः सं० शुम्भद्भाग्यवतां वरिष्ठ इति सद्भट्टारको भासुरो।
हीरामणिः भार्या कमला तथा बसन्ती, पुत्रो वलभद्रश्चते योगीशः शुभपद्मकीतिरमलः सेव्यः सदा श्रीश्रितः ॥१७॥
सगोत्रा सकुटुम्बा नित्यं जिनधर्मप्रसादाच्चिरजीवाबुद्धितदनुपट्टधरो धरणीपति-प्रवरपूजितपादपयोरुहः :
युक्ता जिनभक्तिकाः भवन्तु । सकलकीर्तिरिहास्ति सतां सदाऽद्भुत सुखोख्यकरः करुणा
लयः ॥१८॥ ये जिनेन्द्रं नमस्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति च । तत्र संघे श्रीपण्डितद्वारिकादासः ॥छ। पूर्वोक्त भट्टा- तेषां सर्वाणि भद्राणि गृहे वसन्ति निश्चितम् ।।२।।
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राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में जैन समाज का योगदान
प्राज हमारा राष्ट्र संकटकाल से गुजर रहा है। विश्वासघाती चीन ने हमारी मातृभूमि पर हमला किया है। जिसका हमें मुंहतोड़ उत्तर देना है और अपनी स्वाधीनता की रक्षा करनी है। सारा देश जाग गया है। देश के नेतानों ने अपने सभी मतभेद भुला दिये हैं और राष्ट्रीयरक्षा के कार्य में जुट गए है। अन्य समाजों के साय जैन समाज ने भी राष्ट्रीय संरक्षण कोष खोला है। यद्यपि जैन समाज को अन्य अनेक समा सोसाइटियों को पोर से सुरक्षा कोष में धन देना पड़ता है। फिर भी दिल्ली और बाहर की जैन समाज के बान की जो सूची पब तक प्राप्त हुई है उसको नीचे दिया जा रहा है। समाज को चाहिए कि प्रयत्न और उत्साह के साथ इस कार्य में पूरा योग देकर देश को प्राजादी को अक्षुण्य बनाने का प्रयत्न करें और जगत को यह दिखला दें
कि हिंसक जैन समाज अपने कर्तव्य पालन में कभी पीछे नहीं रही है। ५०.०००) साहू शान्तिप्रसाद जी, साहू जैन उद्योग कल- १००१) जैन संस्कृत कमशियल स्कूल, सेठ का कूचा, कत्ता ।
दिल्ली। २०० तोला सोने के आभूषण श्रीमती रमा- १३५१) जैनसमाज सागवाड़ा, राजस्थान । रानी जन कलकत्ता।
७३ तोला सोना शाह केशरीमल जी । १०००००) सेठ छिदामीलाल जी जैन, ग्लासवर्क्स, फिरो- ११००) दि. जैनसमाज जसवन्त नगर (इटावा)।
जाबाद । १००१) जनसमाज, मगरौनी । ५१०००) खेलशंकर भाई दुर्लभ जी जौहरी, जयपुर । १००१) श्रीमती विदुषी कृष्णाबाईजी, श्री महावीरजी ५०.००) सेठ सोहनलाल जी दूगड़, कलकत्ता।
२१३) जैनसमाज दरियागंज, दिल्ली दूसरी किश्त । २५०००) श्वेताम्बर जैन समाज, दुर्ग ।
१४८०) जैनसमाज तिजारा, नाटकों के टिकटों द्वारा। १५०००) जैनसमाज, बालाघाट ।
२१००) गनपतराय जी सेठी, लाडनू । ११०००) स्वस्तिकमेंटलवर्स, जगाधरी।
२१ तोला सोना सागरमल जी, लाडनू । ९५०१) जैन बादर्स, राजनांद गांव ।
५००) जनसमाज, अबागढ़ (एटा)। ६३००) जैन महिला संघ सदर बाजार दिल्ली और २१००) राजेन्द्रप्रसाद उर्फ कम्मोजी मानस्तम्भ प्रतिष्ठा ३६ तोला सोना
के अवसर पर धर्मपुरा, दिल्ली । ५००१) दि जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी । १००१) श्रीकृष्णलाल जैन, इटावा अध्यक्ष नगरपालिका ५०००) भाऊ साहब कुन्दनमल जी फिरोदिया परिवार ११००) दि. जैनमन्दिर भीलवाड़ा और अहमदनगर और ३१ तोला सोना ।
१२१ तोला चांदी के वर्तन । ५००६) हंसराज जी सुराणा चूरू, तथा १०००)
३०००) जैन युवक संघ, रामपुर । मासिक।
११००) श्रीमती मोमप्रभा जैन उपशिक्षामंत्राणी
पंजाब, और ६ तोला सोना । २९५१) हीरालाल जैन हायरसेकेण्डरी स्कूल, सदर
८००) दि. जैन डिगरी कालेज, बड़ौत (मेरठ) और बाजार दिल्ली।
१६०००) के रक्षा सार्टीफिकेट । २२१०) जैन हायरसेकेण्डरी स्कूल दरियागंज, दिल्ली। २००) सेठ अचलसिंह जी आगरा प्रारम्भिक भेंट तथा २ दो सोने की अंगूठी ।
और १००) मासिक संकट काल तक । ११००) जनसभा दरियागंज दिल्ली, पहली किश्त ।
(शेष पृष्ठ २४२ पर)
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गुर्वावली नन्दीतट गच्छ लेखक-पं० परमानन्द शास्त्री, बिल्ली
गुर्वावली
प्रस्तुत गुर्वावली काष्ठासंघ के नन्दीतटगच्छ की है। विजयसेन, स्वर्णकीति, भानुकीति, संभसेन, विख्यातकीति, इस गच्छ का उदय 'नन्दीतट ग्राम' से हुआ है। भाचार्य लघुराजकीति, नंदकीति, चारुकीर्ति, विश्वसेन, देवकीर्ति, देवसेन के अनुसार भ० कुमारसेन ने काष्ठासंघ की स्थापना ललितकीति, श्रुतकीति, जयसेन, उदयसेन, गुणदेवसूरि, की थी। इस गच्छ का दूसरा नाम 'विद्यागण' भी मिलता जिनसेन, सूर्यकीर्ति, अश्वसेन, श्रीकीति, चारुसेन, शुभकीति, है, जो सरस्वती गच्छ का ही अनुकरण मात्र है। इसका कीर्तिदेव, भवांतसेन, लोककीति, त्रिलोककीर्ति, अमरकीति, तीसरा नाम 'रामसेनान्वय' भी है। नांदेड से ही नन्दीतट कमलसेन, सुरसेन, विजयकीर्ति, रामकीर्ति, उदयकीर्ति, राज गच्छ का उदय हमा है। यह गुर्वावली इसी नन्दीतटगच्छ कीति, कुमारसेन, पप्रकीति, पनसेन, भुवनकीति, विख्यातकी है । इसका उदय कब और कैसे हुआ? यह विचारणीय कीति भावसेन, रत्नकीर्ति, लक्ष्मसेन, धर्मसेन भीमसेन, है। भट्टारक सम्प्रदाय में इम गच्छ के कुछ विद्वान् भट्टा- विजयसेन, कमलकीति, रत्नकीति, महेन्द्रसेन, विशालकीर्ति, रकों का परिचय दिया गया है, पर उसमें भी यह नहीं और विश्वभूषण । बतलाया जा सका कि उक्त 'नन्दीतटगच्छ' का उदय और
जान पड़ता है कि ऊपर के नामों में से कितने ही नाम अभ्युदय एवं ह्रास कब हुआ है ? गुर्वावली में बतलाया
अन्य पट्टावलियों के गण-गच्छादि के होंगे, पर उनका गया है कि रामसेन से इस गच्छ की परम्परा चली है जो यथार्थ परिचय न होने से उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश नरसिंहपुरा जाति के संस्थापक थे। पर वे कब हुए, प्ररि डालना सम्भव नहीं है। उनका जन्म स्थान कहाँ है, उनके गुरु कौन थे, और उन्होंने नरसिंहपुरा जाति की स्थापना कहां और कब की, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। इसके जानने का भी कोई वृषभादिवीरपयंतान् नत्वा तीर्थकृतस्त्रिधा । साधन प्राप्त नहीं है । नन्दीतटगच्छ की सूचक प्रशस्तियाँ स-गणेशानहं वक्ष्ये गुरुणामावली मुदा ॥१॥ और मूर्तिलेख प्रादि सभी अर्वाचीन हैं, उनका समय १६वीं वृष वृषभसेनाद्याः सिंहसेनादयोऽजितं । १७वीं शताब्दी है । अतः उपलब्ध सामग्री भी उसके इति- संभवं चारुषेणाद्याः वजनाभि पुरस्सरां ॥२॥ वृत्त पर ठीक प्रकाश नहीं डालती।
कपिध्वजं चामराद्याः सुमति पद लांच्छनं । ___ इस गुर्वावली के कुछ पद्य प्रतिष्ठासार और अन्य ये बच चमरस्पृष्टाः मुपावं बलिपूर्वकं ॥३॥ गुर्वावलियों में भी पाये जाते हैं। महावीर की अङ्गश्रुत चंद्रप्रभं दत्तमुत्क्षी पुष्पदन्तं समाश्रिता । परम्परा के बाद जिन विद्वानों और प्राचार्यों तथा भट्टारकों विदर्भाद्या शीतलेशं मुनिगार पुरस्मरा ॥४॥ का उल्लेख किया गया है। उनके नाम इस प्रकार है
कंथु प्रधानाः श्रेयान्सं धर्माद्या द्वादशं जिनं । रामसेन (नरसिंहपुरा जाति के संस्थापक) नेमसेन, विमलं मेरू पौलस्त्या जयाद्याश्चतुर्दशम् ॥५॥ नरेन्द्रसेन, वासवसेन, महेन्द्रसेन, आदित्यसेन, सहस्रकीर्ति श्रुति धर्म त्वरिष्टसेनाद्या शांति चक्रा युधादयः । कीर्ति, देवकीति, मारसेन, विजयकीर्ति, केशवसेन, महासेन, स्वयंभू प्रमुखा कुंथु कू भार्याद्यास्तरप्रभुं ॥६॥ मेघसेन, वणसेन, विजयसेन, हरिसेन, चरित्रसेन, वीरसेन, मल्लि विशाखप्रमुखा मल्याद्या मुनिसुव्रतं । मेरुसेन, शुभंकरसेन,जयकीति, चन्द्रसेन,सोमकीर्ति, लघुसहस्र- नमीशं सुप्रसन्नात्मा वरदत्त पुरस्सरा ॥७॥ कीति, महाकीति, यशःकीति' गुणकीर्ति पद्मकीर्ति, भुवन- नेमि पाश्वं स्वयंभूवा-द्या गौतमांद्याश्च सन्मति । कीति, मल्लकीति, मदनकीति, मेरूकीर्ति, गुणसेन, रत्नकीर्ति, तेभ्यो गणघरेशेभ्यो दत्तो?यं पुनः पुनः ॥८॥
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त्रयः केवलिनः पंच ते चतुईशपूर्विणः । क्रमेणैकादशप्राज्ञो विज्ञेया दशपूर्विणः ॥६॥ पंचकेकं दशांगाना धारका परिकीर्तिता । पाचाराङ्गास्य चत्वारः पंचषेति युगस्थितिः ॥१०॥ वर्षमान जिनेन्द्रस्य इन्द्रभूतिः श्रुतं दधौ । ततः सुधर्मस्तस्मात् च जंबू नामांत्य केवली ॥११॥ तस्माद्विष्णु क्रमात् तस्मात् नंदिमित्रोपराजितः। ततो गोवर्धनो दः भद्रबाहुः श्रुतं ततः ॥१२॥ दशपूर्वी विशाखाख्यः प्रोष्ठिलः भत्रियो जयः । नाम-सिद्धार्थ नामानी पत्तिषेण गुरुस्ततः ॥१३॥ विजयो बुद्धिल्लाल्यो' गंगदेवो यतिस्त: दशपूर्वीपरोंत्यस्तु धर्मसेनो मुनीश्वरः ॥१४॥ नक्षत्राख्यो यशःपालः पांडुरेकादशांगभूत् । ध्र वसेनमुनिस्तस्मात् कंसाचार्यस्तु पंचमः ॥१५॥ सुभद्रौ तौ यशोभद्रो भद्रबाहुरनंतरं । लोहाचार्यस्तुरीयोभूदाचारांगधृतां ततः ॥१६॥ प्रहंदल्लभसूरिभि विरचितः प्रागेव संघोमहान् । श्रीनंदीतट संज्ञया त्रिभुवने गंगाप्रवाहोज्ज्वलः ॥ न्यस्तेनः प्रसरोव नम्रन्सुरैरासेव्यते यः सदा । धर्मस्थैक निधिविधिवश्च तपसांवृद्धि परां गच्छतु१७॥ प्रणम्य वीतरागस्य पादपपं भवच्छिदं। वक्ष्ये बुद्धधनुसारेण गुरू नामावलीं मुदा ॥१८॥ काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानंति नृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुता क्षितौ ॥१६॥ श्रीनंदीतट संशश्च माथुरा बागडाभिषः । लालबागड इत्येते विख्यातो क्षितिमंडले ॥२०॥ तत्र नंदीतटे गच्छे श्रीमनाद्यनुसार तं। क्रमेण मुनयो वक्ष्ये ये रत्नत्रयमंडिता ॥२१॥ प्रविल्लभसूरिश्च श्रीपंचगुरु संशकः । गंगसेनो ततो जातो नाग-सिद्धान्त-सेनको ॥२२॥ गोपसेनो गुणांभोषिः श्रीमन्नो य गुरुस्ततः । तत्पट्टमंडने दक्षो ज्ञान-विज्ञान-भूषितः ॥२३॥ रामसेनोऽतिविदिता प्रतिबोधन पंडितः । । स्थापिता येन सज्जाति नरिसिंहाभिषा भुवि ॥२४॥ १. बुदिलाभाल्यो इत्यपि पाठः ।
यस्तपोभिः समासाच पावत्या परं बरं। पंचतीर्थ चान्ते चर्या चकार नेमसेनकः ॥२५॥ नरेन्द्रसेनश्च तत्पट्टे पट्टे वासवसेनकः । महेन्द्रादित्य सेनौ च सहस्रकीत्तिस्ततः परं ॥२६॥ श्रुतकीत्ति देवकीति ततः श्रीमारसेनकः । विजयकीति मुनेः पट्टे केशवसेन प्रसिद्धवाक् ॥२७॥ महासेन मेघसेनोऽसौ वणसेनो मुनीन्द्रकेः । विजयसेनो हरिश्चैव सेनश्चारित्रसेनकः ॥२८॥ वीरसेन कुलस्यैव भूषणे मेल्सेनकः । ततः शुभंकरसेनश्च जयकीत्तिश्च कीतिभूत् ॥२६॥ चन्द्रसेन सोमकीति ल्लंघुसहस्त्रकीतिकः ।
महाकत्ति यश:कोत्तिगुणकीत्तिर्गुणां बुधीः ॥३०॥ श्रीपप्रकीतिर्भुवनादिकीत्ति वै मल्लकीतिमदनश्चकीति । श्री मेरूकीतिर्गुणसेननामा ततः परं श्री गुरु रत्नकीति ३१॥ विजयादिसेनोऽथ सुवर्णकीर्ति श्रीभानुकीतिकविभूषणोऽभूत् । ततः परं संयमसेनदक्षो विख्यातमूतिर्लधुराजकीतिः॥३२॥ श्रीनंदकीतिगरुचारुकीतिर्वादी प्रसिद्धो भुवि विश्वसेनः । श्रीदेवकीतिललितादिकीतिः शास्त्रार्थचेताश्रुतकीर्तिदक्षः।३३॥ जयस्यसेनोदयसेननामा गुणः प्रसिद्धो गुणदेवसूति । विशालकीर्तिश्च अनन्तकीर्ति महेन्द्रसेनो विजयस्यकीतिः ॥३४॥ कवीश्वरोऽसौ जिनसेनसंज्ञः श्री सूर्यकोतिश्चवराश्वसेनः । श्री कीतिरम्योऽपि च चारुसेनः शुभस्यकीति विकीर्तिदेव ३५ भवांतसेनोपि लोककीतिस्त्रिलोककीतिरमरादिकोतिः । कर्मघ्नसेनो सुरसेनरम्यो विजयस्यकीतिगुरुरामकीतिः ॥३६॥ उदयादिकीर्तिश्च सुराजकीतिः कुमारसेनोऽथ सुपग्रकीतिः । श्री पग्रसेनो भुवनस्यकीर्तिविख्यातकीर्तिजितमारमूर्तिः ॥३७॥ श्री भावसेनोप्युदयकवास स्तत्पादसेवी तपसां निवासः । स्वतकनिर्वासितसर्वडंभ श्रीरत्नकीर्तिर्गणगेहस्तंभः ॥३८॥ श्रीमान (स्तू?)पट्टोधरणकधीरो व्याकरणवेता जिनमार बीर श्रीलक्ष्मसेनो गुणरत्नशैलो विराजते.........(?) ॥३६॥ तत्पश्रृंगार परंपराये परं प्रसिद्धी विदिती मुनीन्द्री। श्रीधर्मसेनोऽपि भीमसनो जातो पृथिव्यां प्रषिर्ता प्रधानौ ।। ताभ्यां मुनिम्यां स्वयमेव दत्तं पटटेचिरं पालय सोमकीति। तेभ्यो मुनिम्यो (पि) प्रसादमाया जमानिसंच जिनपावसेवी।। शास्त्रस्यसारं पठनेप्रवीणः धर्मामतांभोनिधि वर्षणीयं । श्रीभीमसेनस्य सुरम्यपट्टे श्रीसोमकीर्ति भुवि भानि नित्या २॥
(शेष पृष्ठ २३६ पर)
गुणगेहस्तंभः ।।
श्रीलम्मसेनापट्टोपरणकधी
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संयोजक वीर सेवा मन्दिर
संक० परमानन्द शास्त्री
नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूर्ति-लेख
(वेदी नं० एक-बायें से बाई श्रोर)
७. आदिनाथ पद्मासन ऊंचाई २२ इंच चौड़ाई १८ इंच, सफेद पाषाण ।
संवत् १७१४ माघ सुदी १३ मारोठ नगरे महाराजाधिराज महाराजा श्री प्रभर्यांसंह जी प्रसादात् मेड़त्यासाखे महाराज सावंतसिंह जी, श्री बम्बतसिंह जी, श्री स ( ख ) त्रसाल राज्ये श्री मूलसंधे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये मंडलाचार्य श्री जगत्कीर्तिदेवास्तत्पट्टे मं० श्री भूषणदेवास्तत्पट्टे मं० श्री धर्मचन्द्रदेवास्तत्पट्टे मंडलाचार्य श्री देवेन्द्रकीतिदेवास्तत्पट्टे मंडलाचार्य अमरेन्द्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे मंडलाचार्य रत्नकीतिदेवास्तत्पट्टे मं० श्री विद्यानन्दि तत्पट्टे मंडलाचार्य अनन्तकीर्तिदेवास्तदाम्नाये खंडेलवालान्वये पान्ड्यागोत्रे साह श्री गिरधर तत्पुत्र साधु भूधरदास तत्पुत्र सा० रामसिंह तद्भार्या रायवदे, तत्पुत्राः [पंच] सा० मनोहरदास, दौलतराम, बखतराम, सुरतराम, साहिबराम एतैः सह रामसिंहेन प्रतिष्ठा कारिता ।
८. बाहुबली खड्गासन, सफेद पाषाण साइज - ऊँचाई २४ इंच चौड़ाई १६ इंच
अथ स्वस्ति श्री वीर संवत् २४४६ विक्रम सं० २०१६ फाल्गुण शुक्लपक्षे भ्रष्टम्यां तिथी शुक्रवासरे श्री मूलसंधे दि० जैन कुंदकुंदाम्नाये श्रीमती सेवतीदेवी धर्मपत्नी बाबूमल जौहरी देहली नगरे प्रतिष्ठितं प्रतिष्ठाचार्य श्री नन्हेंलालेन प्रतिष्ठापिता, शुभं भवतु ।
९. सप्तफणी पार्श्वनाथ चिन्ह सर्प, साइज - ऊँचाई १५ ई० चौड़ाई ७ इंच, सफेद पाषाण
सं० १९३५ माघ शुक्ला ३ काष्ठासंघे लोहाचार्यान्वये भ० राजेन्द्र कीर्तिस्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्ग गोत्रे साधुईश्वरीप्रसाद सुपुत्र मेहरचन्द्रेण प्रतिष्ठा करापिता इन्द्रप्रस्थ नगरे ।
१०. नेमिनाथ कृष्ण पाषाण, चिन्ह शंख साइज - ऊँचाई १७ इंच, चौड़ाई ८ इंच
श्री वीरात् संवत् २४४६ वि० सं० १९७६ माघ सुदी १३ चन्द्रवासरे कुंदकुंदाम्नाये दिल्ली प्रतिष्ठितम् ।
वेदी नं० १ कटनी नं० २ (बायें से दायें)
१. नेमिनाथ चिन्ह शंख, पद्मासन सफेद पाषाण, साइज - ऊँचाई १०४ इंच चौड़ाई ५३ इंच । सं० १९३५ माघ शुक्ला ३ भ० राजेन्द्रकीर्ति दिल्ली नगरे प्रतिष्ठितम् ।
२. पार्श्वनाथ चिन्ह सर्प, पद्मासन सफेद पाषाण, साइज – ऊँचाई १३ इंच चौड़ाई ६ इंच ।
सं० १९३५ माघ शुक्ला ३ काष्ठासंघे लोहाचार्यान्वये भ० राजेन्द्रकीर्ति तदा० ( स्नाये ) प्रग्रोतकान्वये साधु ईश्वरीप्रसाद तत्पुत्र मेहरचन्देणप्रणम ( मि ) ति ।
३. चन्द्रप्रभ चिन्ह चन्द्रमा, पद्मासन, सफेदपाषाण, साइज – ऊँचाई १३३ इंच चौड़ाई ७३ इंच ।
संवत् १६२३ ज्येष्ठ सुदी १० शुक्रवारे काष्ठासंचे माथुरगच्छे पुष्करगणे भट्टारक राजेन्द्रकीति तवाम्नाये(मागे के अक्षर पढ़े नहीं जाते, पाषाण सिर गया है ।)
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४. शान्तिनाथ चिन्ह हिरन सफेद पाषाण, पचासन साइज-ऊंचाई १३ इंच, चौड़ाई ६ इंच, प्रासन लम्बाई ६ इंच।
___ संवत् १५४८ वैशाख सुदी ३ भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेव साह श्री जीवराज पापड़ीवाल प्रतिष्ठितं । ५. परप्रभ चिन्ह कमल, पपासन, सफेद पाषाण, साइज-ऊंचाई १२ इन्च, चौड़ाई ६३ इन्च ।
संवत् १५४८ वर्षे वैशाख सुदी ३ श्री मूलसंधे भट्टारक जिनचन्द्रदेव साह जीवराज पापड़ीवाल नित्यं प्रणमिति । ६. मादिनाथ चिन्ह बैल सफेद पाषाण, पपासन साइज-ऊंचाई १४ इन्च, चौड़ाई १० इन्च ।
मों नमः सिद्धेभ्यः । संवत् १४२८ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १२ द्वादश्यां सोमबासरे श्री काष्ठासंधे माथुरान्वये भट्टारक देवसेनदेवास्तत्पट्टे त्रयोदश-चारित्र रत्नालंकृता सकल विमल मुनि मंडली शिष्य शिखामणयः प्रतिष्ठाचार्य श्री भट्टारक श्री विमलसेनदेवाः तेषामुपदेशेन जाइसवालान्वये सा. बूइपति भार्या मदना पुत्र विजयदेव पत्नी पूजा द्वितीय पुत्र लालसिंह तत्पुत्र विजयदेव तत्पुत्र समस्त दातृधुरीण साधु श्री भोज भार्या ईसरी पुत्र हम्मीरदेवः द्वितीय भार्या कर्षी साह कर पूरा पुत्र शुभराज, कोल्हाको, हम्मीरदेव भार्या धर्मश्री तत्पुत्र धर्मसिंह एते स्वश्रेयोथं शिवं तत्पुत्रः श्री आदिनाथ चन्द्रदेव नेमिचन्द्राभ्यां प्रतिष्ठितम् । ७. नेमिनाथ चिन्ह शंख साइज-ऊंचाई ६ इंच, चौड़ाई ४ इंच ।
संवत् १९३५ माघ शुक्ला ३ काष्ठासंघे लोहा चा० (र्यान्वये) भट्टारक राजेन्द्रकीति स्तदाम्नाये अनोतकान्वये साधु ईश्वरीप्रसाद तत्पुत्र मेहरचन्द्रेण प्रतिष्ठा कारापिता इन्द्रप्रस्थनगरे । ८. सम्यक् चारित्र यन्त्र साइज नौ इंच गोल, पीतल।
संवत् १६७३ वर्षे प्राषाढ़ सुदी २ गुरुवारे अजमेरगढ़मध्ये श्री पातिशाह जहांगीर राज्ये श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भ. ज(य) शःकीर्ति तत्प. भ. खे (क्षे) मकीर्ति तत्प० भ० श्री त्रिभुवनकीर्ति तत्प० भ० सहस्रकीर्ति तदाम्नाये अग्रवाल (लान्वये) गर्गगोत्र (a) साहू पदारथ तत्पुत्राश्चत्वारः ४ प्र० अभराज द्वि०चेतन (तु.) वच्छा (च.) नाहर एतेषां मध्ये सा० अभैराज भार्या २ द्वौ, प्रथम भा. दुयो द्वि. भा. निहाले तत्पुत्र मलूकचन्द्र तत् भा० द्वौ परदन, मलूका पुत्र ३ प्रथम पुत्र तुलसीदास द्वितीय पदमसिंह तृतीय पु. सूरतसिंघेन यन्त्र प्रतिष्ठापितम् । ६. भ. महावीर चिन्ह सिंह कृष्ण पाषाण, साइज-ऊँचाई ८ इंच, चौड़ाई ४३ इंच।
वीर नि० सं० २४६८ वि० सं० २००० वैशाखमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमातियो देहलीनगरे दि. जैन कुन्दकुन्दाम्नाये प्रतिष्ठाप्य स्थापितमिदं बिम्बं । छज्जूमल । १०. भ. महावीर चिन्ह सिंह कृष्ण पाषाण साइज-ऊंचाई १८ इंच, चौड़ाई १० इंच।
वीर नि० सं० २४६८ वि० सं० २००० वैशाखमासे शुभे शुक्लपक्षे तिथौ १५ बुधवासरे दिल्लीनगरे दि. जैन कुन्दकुन्दाम्नाये प्रतिष्ठाप्य स्थापितमिदं (बिम्ब) कल्याणार्थं भवतु । ११. भ. नेमिनाथ चिन्ह शंख साइज-ऊंचाई १६ इंच चौड़ाई ८ इंच ।
वीर नि० स०२४४६ वि० सं० १९७६ माघशुक्ला त्रयोदशी चंद्रवासरे कुन्दकुन्दाम्नाये दिल्ली नगरे प्रतिष्ठितम् । १२.भ. नेमिनाथ चिन्ह शंख कृष्ण पाषाण साइज-ऊंचाई १४३ इंच चौड़ाई ८ इंच ।
वीर नि० सं० २४४६ वि० सं० १९७६ माष मासे शुक्ल (पक्षे त्रयोदश्यां) १३ चंद्रवासरे कुन्दकुन्दाम्नाये दिल्ली नगरे प्रतिष्ठतम् ।। १३. भ. मादिनाथ चिन्ह वृषभ, सफेद पाषाण, साइज ऊँचाई १४ इंच, पीडाई ७ इंच। सं०१५४८ वर्षे वैशाख सुदि ३ भ. श्री जिनचन्द्रदेव साहजीवराज पापड़ीवाल प्रतिष्ठितम्
(शेष पृष्ठ २४२ पर)
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साहित्य-समीक्षा
मात्म रहस्य
लेखक ने अन्य को तीन खण्डों में विभाजित किया लेखक-रतनलाल जैन, प्रकाशक-सस्ता साहित्य है-पात्म-अनुसन्धान, सत्यमार्ग और समन्वय या एकीमसल नई दिल्ली, सन् १९६१०, भूमिका लेखक- करण । प्रात्म-अनुसन्धान में मात्मा का पुद्गल से पृथक सम्पूर्णानन्द, पृष्ठ संख्या-२२८, मूल्य-३ रुपये ५० अस्तित्व दिखाते हुए, उसका वास्तविक स्वरूप, निवास नए पैसे।
स्थान और अमरत्व सिद्ध किया गया है। ऐसा करने में, यह 'मात्मरहस्य' का दूसरा संस्करण है । इससे स्पष्ट श्री रतनलालजी ने प्राधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के है कि इस प्रन्थ को पढ़ने में लोगों ने रस लिया है । निरा- तथ्य भी उपस्थित किये हैं, जिससे उनके निष्कर्षों में कार, अरूपी, अदृष्ट आत्मा का विवेचन एक शुष्क विषय सबलता और माकर्षण पा सका है। यथास्थान दृष्टान्तों है। किन्तु लेखक ने उसका गहरा अध्ययन किया, समझा को उपन्यस्तता ने विषय को सुगम मौर सुबोध बनाया और फिर प्रासान शैली, सरल भाषा में प्रकट किया। है । इसी खण्ड में कर्म-सिद्धान्त और जगत-निर्माण जैसी इसी कारण इस नीरस से माभासित विषय में प्रात्मानन्द कठिन और विवाद-ग्रस्त समस्याओं को भी उठाया गया झलक उठा है। मध्यम द्धि का पाठक उसे भली भांति है। प्रात्मा के स्वरूप पर विचार करने के लिए यह समझ लेता है । यह ही उसकी खूबी हैं।
स्वाभाविक था। यह सत्य है कि लेखक ने जिन तथ्यों पर
पहुँचना चाहा, वे जैन प्राचार्यों के द्वारा प्रतिपादित थे, (पृष्ठ २३६ का शेष) माशांबरेभ्यः कमनीयकीर्ति श्रीसोमकीर्तिः किल यो बभूव ।।
किन्तु अन्य प्राचार्यों के प्रतिपादित विषय का निराकरण तस्मात्परं श्रीविजयादिसेनः पट्टे तदीयं परमं बभार ।४३॥
करके नहीं। लेखक की यह शालीनता समूची पुस्तक में
__छाई हुई है। सच्छास्त्र रत्नाकर चंद्रतुल्यः शीलगुणभूषित दिव्यदेहः ।
दूसरे खण्ड में प्रात्मा के 'सच्चिदानन्द' रूप पर विचार पट्ट शुभं वैजयसेन मुग्रं पुण्याद्विभत्यंबुजकीर्ति रेषः ।।४४।।
किया गया है। प्रात्मा की सच्चिदानन्द अवस्था सदैव कंदर्प सोद्धत वैनतेयः साम्याग्नि निर्दग्धकषायवृक्षः ।
लक्ष्य ही बनी रहती है अथवा प्राप्त भी की जा सकती शुद्धपदे श्रीकमलादिकीर्तेः श्रीरत्नकीतिः किल संबभूव ॥४५॥
है ? एक महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर लेखक ने गम्भीरता चारित्रसंभार विभावितात्मा विद्वज्जनेष्वाथतमो गुणोधः ।
से विचार किया है। कर्म-बन्धन से मुक्त होते ही पात्मा सद्रलकीति प्रभुपट्टधारी सूर्यग्रमोऽभूत सुमहेन्द्रसेनः ।।४।।
अलौकिक दिव्य प्रानन्द में मग्न हो जाती है। लेखक का वादीभपंचास्य समानसत्त्वः पंचाक्षसौख्येषु विरक्तचित्तः ।
कथन है, "कर्म-परमाणुमों के समूह कर्माण शरीर के श्रीरामसेनस्य परंपराया मासीद्वरिष्ठस्तु विशालकीतिः ।४७।
सर्वथा नष्ट हो जाने से, संसार भ्रमण, रोग-व्याधि प्रादि तत्पट्ट पंकेरुहचित्रभानुश्चिद्रूपध्यानामृतपानपुष्टः ।
समस्त दुखों से सदा के लिए मुक्त हो जायगा ," मागे मान्यः सतां संयम शीलभाजां पायाज्जनान् विश्वविभू
षणाल्यः ॥४॥
इस सच्चिदानन्द को प्राप्त करने के उपायों का निरूपण शुद्ध द्वादशभावनानु भवतः प्राप्तश्चरित्रं परं।
करते हुए निवृत्ति और प्रवृत्ति-मार्गों की तुलना की गई है। ध्यायत् धर्ममघापहं सुमनसा रौद्रातभेदोज्झितः ॥
इसमें भी जैनस्वर प्रबल है। शायद दोनों का सूक्ष्म दार्श
निक भेद दिखाना न तो लेखक को अभीष्ट ही था और दिक संघोत्तम रामसेन कुलरवेजातोंशुमाली महान् । तत्पद्रेश्वरविश्वभूषणगुरु कुर्यात्सतां संपदा ॥४॥
न दिखाया ही गया है। यह भी सच है कि सांसारिक सुख यावन्मेरूविश्व महीयावत् यावत् चंद्राकतारका।
की पोर दुःख की अपेक्षा अधिक झुकाव प्रात्मा के मानन्द गुर्वावलि शुभार्चेषां तावन्नंदतु सास्वती ॥५०॥ रूप होने की पुष्टि नहीं करता। दोनों एक दूसरे के ॥ इति गुर्दावलि समाप्ता॥
उल्टे हैं।
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२४०
तीसरा खण्ड 'समन्वय या एकीकरण' शीर्षक से रखा हिन्दी-अनुवाद पं० बालचन्द्र जी शास्त्री का किया गया है । इसमें स्यावाद को समन्वय का प्रतीक माना है। हुमा है। जीवराजग्रन्थमाला के अन्य ग्रन्थों के हिन्दी-अनुभारतीय दर्शनों में जो भिन्नता पाई जाती है. वह वास्त- वाद भी उन्होंने किये है। मूल श्लोकों का भाव स्पष बिक नहीं है, अपेक्षाकृत दृष्टि से विचार करने पर वे और सरलता से वे अभिव्यक्त करना जानते हैं। मनुवाद सभी अपने-अपने स्थान पर ठीक है। उन सब में एकता में यह ही होना भी चाहिए। माज से १०० वर्ष पूर्व इस का प्रतिपादन करने वाला 'स्याद्वाद' जैन प्राचार्यों की ग्रन्थ का ढुंढारी हिन्दी में दो व्यक्तियों ने अनुवाद किया महत्वपूर्ण देन है। लेखक ने बड़े आसान ढंग से इसे दिखाने था, किन्तु उसमें अनेक त्रुटियां थीं। वि० सं० १९५५ में का प्रयास किया है अन्त में 'दर्शनों का समन्वय' अत्यधिक मराठी-अनुवाद और १९७१ में किए गये हिन्दी-अनुवाद प्राकर्षक और विद्वान् लेखक के मजे अध्ययन का प्रतीक भी 'प्रस्तुत' की तुलना नहीं कर पाते। आधुनिक पाठक हैं । सब से बड़ी विशेषता है कि कहीं उलझन नहीं है। इस अनुवाद के सहारे मूल विषय को पूर्णरूप से अवगम इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि लेखक ने सब कुछ भली कर लेता है। भांति समझा-देखा है। हम सस्ता साहित्य मण्डल के इस
प्रस्तावना पहले अंग्रेजी में है, फिर हिन्दी में। किन्तु प्रकाशन का हार्दिक स्वागत करते हैं। पाठक रुचि लेंगे,
हिन्दी की प्रस्तावना अंग्रेजी का अनुवाद नहीं है। दोनों ऐसा मुझे विश्वास है।
स्वतन्त्र लिखी गई हैं और एक-दूसरे की पूरक हैं। उनमें पदमनन्दि पंचविंशतिः
ग्रन्थ-ग्रन्थ का विषय, ग्रन्थकार, काल-निर्णय मादि छोटेलेखक-मुनि पचनन्धि, सम्पावक-डा. मा० ने० छोटे शोध परक निबन्ध हैं। यह आवश्यक नहीं है कि हम उपाध्ये और डा.हीरालाल जैन, प्रकाशक-अनसंस्कृति उनके द्वारा स्थापित तथ्यों से सहमत ही हों, किन्तु उन्हें संरक्षक संघ, सोलापुर, सन् १९६२, हिन्दी अनुवादक- पुष्ट करने का अच्छा प्रयास किया गया है। बालचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ-संख्या-६२, २८४, मूल्य १० इस ग्रन्थ के रचयिता मुनि पद्मनन्दी वि० सं० १०७३ रुपया।
से ११९३ के मध्य कभी हुए हैं। डा. ए. एन. उपाध्ये के इस संस्करण में मूल ग्रन्थ के साथ संस्कृत टीका, अनुसार इस ग्रन्थ के चौथे प्रकरण के कन्नड़-टीकाकार हिन्दी-अनुवाद, प्रस्तावना और प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य पद्मनन्दी ही मुनि पद्मनन्दी थे। यदि ऐसा सत्य है तो हैं । प्रूफ की कहीं अशुद्धि नहीं। छपाई उत्तम । बाह्य वे ११९३ के निकट कहीं पास-पास हुए हैं। किन्तु यह साज-सज्जा का पूर्ण ध्यान रखा गया है। यद्यपि ग्रन्थ दो केवल अनुमान पर भाधारित है। उसकी पुष्टि सपष्ट बार पहले भी प्रकाशित हो चुका है, किन्तु उनमें न तो तथ्यों पर निर्भर होनी चाहिए । ग्रन्थ और ग्रन्थकार का समीक्षात्मक विवेचन ही था और सम्पादकों का यह उहा-पोह कि जब ग्रन्थ का नाम न ऐसा अनुवाद । प्रत यह ग्रन्थ विद्वान् और जनसाधारण पंचविंशति है, फिर उसमें २६ प्रकरण क्यों हैं, निरर्थक-सा पाठक दोनों ही के लिए लाभकारी है।
ही है । सतसैया, शतक, छत्तीसी, बत्तीसी और पच्चीसियों ग्रन्थ का सम्पादन पाठ हस्तलिखित और दो मुद्रित के हिन्दी पाठक जानते हैं कि उनके रचयिता नाम के द्वारा प्रतियों के आधार पर किया गया है। प्राचीन ग्रन्यों की
निर्धारित सीमामों में कभी बंधे नहीं। सभी में दोहे, सम्पादन-कला का एक विशिष्ट ढंग होता है। जीवराज कवित्त या कोई अन्य छन्द दो-चार इधर-उधर बन ही प्रन्थमाला के सम्पादक उसमें निपुण हैं । वे भारत की जाते थे। इस पाधार पर खोज का कोई खास पहल या उस शैली से परिचित हैं और पश्चात्यशैली का अध्ययन
पालीकामायन मोड़ निर्भर नहीं करना चाहिए। किया है। दोनों का समन्वय उनके सम्पादन की विशे- यह ग्रंथ १००० वर्ष से जैन जनता के मध्य प्रसिद्ध है षता है।
इसकी लोकप्रियता के दो मुख्य कारण हो सकते हैं-प्रथम
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फिर
तो यह है कि इसमें अध्यात्म और भक्ति का समन्वय है । 'एकत्त्वसप्तति' में यदि चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का सैद्धां तिक विवेचन है, तो 'सिद्ध-स्तुति' में उसी की भाव-विभोर वन्दना है। ऋषभ स्त्रोत तो भक्ति का प्रतीक ही है। इस ग्रन्थ में गुरु भक्ति के निदर्शन पद-पद पर बिखरे हुए हैं। दूसरा कारण है भाषा की सरलता और प्रवाहमयता । यद्यपि दो प्रकरण प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु वह तो और भी आसान हैं। भावों का तारतम्य संस्कृत और प्राकृत दोनों ही में एक-सा है।
मैं इस ग्रन्थ के अधिकाधिक प्रचार की कामना करता
साहित्य-समीक्षा
जैन तीर्थ और उनकी यात्रा
लेखक - श्री कामताप्रसाद जैन, सम्पादक पण्डित परमानन्द शास्त्री, प्रकाशक- मा० वि० जन परिषद्, बेहली सन् १९६२, पृष्ठ १८१, मूल्य दो रुपये ।
इस पुस्तक का पहला प्रकाशन सन् १९४३ में हुआ था। अब यह तीसरा संस्करण है। इससे प्रमाणित है कि जनसाधारण के मध्य पुस्तक लोकप्रिय रही। इसकी रचना म० भा० द० जैन परिषद् की परीक्षाओं में बैठने वाले विद्यार्थियों को लेकर की गई थी। इसी दृष्टि से, "इसमें केवल तीर्थों का महत्व और उनका सामान्य परिचय कराया गया है।" इससे विद्यार्थियों को भारतवर्ष में फैले जैन तीर्थो का नाम, महत्त्व और साधारण परिचय प्राप्त हो जाता है। दूसरी धोर जैन भक्तों को इसके सहारे तीर्थयात्रा सुगम हो जाती है। विद्यार्थी भौर जैन भक्त इससे लाभान्वित हुए और होंगे।
इस संस्करण के परिशिष्ट २ में कतिपय तीर्थ क्षेत्रों का ऐतिहासिक परिचय भी दिया है। उसके रचयिता पं० परमानन्द शास्त्री हैं। जैन तीर्थ क्षेत्रों के ऐतिहासिक घर भौगोलिक परिचय की नितांत भावश्यकता है। उस पर एक प्रामाणिक ग्रन्थ अधिकारी विद्वानों के द्वारा लिखा जाना चाहिए। मैं जहाँ तक समझता है, उसके लिए जिस
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सामग्री की आवश्यकता है, उसके संकलन में ही वर्षों लग जायेंगे। भौगोलिक अध्ययन के लिए भारत-व्यापी भ्रमण और प्राचीन तीर्थयात्रा-वृत्तान्तों का अध्ययन और खोज करनी होगी । यह पुस्तक तो विद्यार्थी और परीक्षा की सीमा तक ही रहती तो अच्छा था ।
पुस्तक की भाषा आसान है भोर सर्वसाधारण की समझ में आ जाती है । कहीं-कहीं प्रूफ-सम्बन्धी अशुद्धियां वम रह गई है। वैसे पुस्तक में लोकप्रिय होने के सभी गुण मौजूद हैं।
श्री हनुमानचरित्र
लेखक- मास्टर सुखचन्द पदमशाह पोरवार, पद्यरचयिता कवि भी ब्रहाराय जी प्रकाशमूल किसनदास कापड़िया, सूरत, पृष्ठ- १४४, मूल्य-वो रुपये ।
हनूमान चरित्र के इस संस्करण में विशेषता केवल इतनी है कि इसके साथ 'ब्रह्मरायमल्ल' का पद्यबद्ध 'हनु मान चरित्र' भी प्रकाशित हुआ है । ब्रह्मरायमल्ल ने इसकी रचना वि० संवत् १६१६ में की थी। वे एक उच्चकोटि के कवि थे। उनकी अन्य रचनायें भी उपलब्ध हैं । ४०० वर्ष पुराने इस काव्य का प्रकाशन प्रसन्नता का विषय है । किन्तु साथ ही उसकी अशुद्धियों पर जब ध्यान जाता है, तो हृदय को दुःख होना स्वाभाविक ही है। अच्छा होता यदि उसे छापने के पूर्व किसी हिन्दी के विद्वान् को दिखा लिया होता ।
इस ग्रन्थ के 'प्राक्कथन' में, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित ११ ग्रंथों का उल्लेख किया गया है। दान देकर इस ग्रन्थ-मामा को समुन्नत बनाने की बात भी लिखी है। मैं उसका समर्थन करता हूँ किन्तु मेरा निवेदन है कि भले ही तीन वर्ष में एक ग्रन्थ निकले, सुसम्पादित धौर विशुद्ध होना चाहिए। इन ग्रंथों को जनमित्र के प्रचार का सहायक भार न बनाया जाये । -डा० प्रेमसागर
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नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूति-लेख
(पृष्ठ २३७ का शेष) १४. भ. पार्श्वनाथ सप्तफणी साइज-ऊँचाई भासन सहित १७ इंच, चौड़ाई ५ इंच, मासन ५ इंच ।
संवत् १९३५ माघ शुक्ला ३ काष्ठासंघे लोहाचार्यान्वये भ. राजेन्द्रकीर्तिस्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्ग गोत्रे साधु ईश्वरदास तत्पुत्र मेहरचन्द्रेण प्रतिष्ठितम् दिल्ली नगरे। १५. भ. पार्श्वनाथ सप्तफणी चिन्ह सर्प साइज-ऊँचाई १०३ इंच, चौड़ाई ४६ इंच। (लेख पूर्ववत् नं० १३ के समान) १६. भ. आदिनाथ चिन्ह वृषभ खड्गासन, देशीपाषाण यक्ष यक्षिणीसहित साइज-ऊंचाई १० इंच, ग्रासन सहित चौड़ाई ४३ इंच।
सं० १११२ चैत्र सु०१३ रवी । १७. दशलक्षण धर्म यन्त्र तांबे का सा० चौकोर ६ इंच ।
सं० १६८८ वर्षे फागुन सुदी ८ शनिबासरे श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भ० ज (य) शकीति देवाः, भ० खेमकीर्ति देवाः, भ. श्री त्रिभुवनकीर्ति देवाः, तत्पट्टे भ. श्री सहस्त्रकीर्ति देवाः तस्य शिष्यणी पजिका प्रतापश्री कुरुजांगलदेशे सयीदो नगरे अग्रोतकान्वये गगंगोत्रे चौधरी इन्द्रराज तस्य भार्या सुक्खो तस्य पुत्री दामोदरी द्वितीय नाम अर्जिका इदं यंत्रं करापितं कर्मक्षयनिमित्तं शुभं भवतु, मांगल्यं ददातु तस्या शिष्यणीवाई धर्मावती पांडे रामसिंह। १८. चिन्ह प्रस्पष्ट पद्मासन सफेद पाषाण साइज-ऊंचाई ७३ इंच, चौड़ाई ४ इंच ।
संवत् १९२३ का द्वितीय ज्येष्ठ सुदी १० शुक्रवारे काष्ठासंघे लोहाचार्यान्वये भ. राजेन्द्रकीति' (क्रमशः)
राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में जैन समाज का योगदान
(पृष्ठ २३४ का शेष)
१०००) उद्योग प्रदर्शनी सेठ प्रचलसिंह जी द्वारा। ५००) एस. एस. जैन विरादरी, लुधियाना । ५००) मात्माराम जैनसभा, लुधियाना । १५००) मात्मानन्द जैन हायरसेकण्डरी स्कूल, अम्बाला २१००) जैन गर्ल्स हा० से. स्कूल । ११००) जैन माडल हाई स्कूल ।
६ तोला सोना कुमारी वाला जैन छात्रा
फरीदकोट । मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने अपनी ८६वीं वर्षगांठ के अवसर पर घायल सैनिकों की मरहमपट्टी के लिये२५) रु. मासिक देने का निश्चय किया और चार महीने के १०) का चैक प्रधानमंत्री के पास भेजा।
५१०००) के लगभग जैन समाज दिल्ली द्वारा भेजा जाने
को है, जो प्रायः संकलित हो गया है। २०००) जयप्रसाद जी जैन जगाधरी प्रतिमास । ५ गिन्नी धर्मपत्नी सेठ श्री मानन्दराजजी सुराणा
दिल्ली। ५० तोले सोना स्थानकवासी जैन समाज प्रागरा । १०१) सतना नगर पालिका के सदस्य श्री नीरजजी
जैन द्वारा, आपके सुषमा प्रेस के कर्मचारियों
ने भी एक दिन का वेतन प्रदान किया है। २०८१) दि. जैन समाज लखनऊ द्वारा
(मुख्यमंत्री सुरक्षा कोष में)
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वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त” के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवनदास जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता २५१) रा. बा. हरखचन्द जी जैन, राँची २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता २५१) श्री स० सि धन्यकुमार जी जैन, कटनी २५१) सेठ सोहनलाल जी जैन
मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता २५०) श्री वंशीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी, २५०) श्री महावीरप्रमाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी०आर० सी०जैन, कलकत्ता
२५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्र कुमार, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल, कलकत्ता १५०) श्री कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) श्री पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री प्रतापमल जी मदनलाल जी पांड्या, कलकत्ता १५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता १५०) श्री शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी, कलकत्ता १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता १००) श्री बद्रीप्रसाद जी आत्माराम, पटना १०१) थी मारवाड़ी दि. जैन समाज, ब्यावर १०१) श्री दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी १०१) श्री सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी बम्बई नं०२
शोक समोचार
१. श्रीमान् धर्मप्रेमी सेठ बैजनाथजी सरावगी कलकत्ता दिल्ली जनसमाज को बडी क्षति पहुंची है। वे प्रभा०दि. का जयपुर में बीमारी के बाद स्वर्गवास हो गया है। आप जैन पदिषद् के कोषाध्यक्ष थे। अनेकान्त परिवार स्वर्गीय दलालु थे और दीन-दुखियों की सदा सहायता करते थे। आत्माको परलोक में सुख-शांति की प्राप्ति और कुटुम्बीजनों सामाजिक और धार्मिक कार्यों में उदारता से दान देते थे। को.वियोगजन्य दुःख सहने की क्षमता की कामना करता है। सराक जाति के उद्धार में भी आपने ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी के साथ योग दिया है। अनेकान्त को भी प्रापने
३. महात्मा भगवानदीन जी जनममाज और राष्ट्र के
सच्चे सेवक थे । अच्छे लेखक और वक्ता थे। आपने अनेक सहायता प्रदान की है। अनेकान्त परिवार की कामना हैं कि दिवंगत प्रात्मा परलोक में सुख-शान्ति प्राप्त करें और
पुस्तकें लिखी हैं। प्रापकी विचारधारा सुलझी हुई थी, कुटुम्बी जनों को धैर्य धारण करने की शक्ति प्राप्त हों।
पापको अपनी प्रतिष्ठा का कोई मोह न था। उनका अनु.
भब बढाचढ़ा था। वे गांधी जी के सिद्धान्तों पर निष्ठा २. जैन समाज दिल्ली के कर्मठ कार्यकत्ती, समाज- रखते थे। उनका ५ नवम्बर को स्वर्गवास हो गया है। सेवी देशभक्त लाला नन्हेंमलजी का ७ दिसम्बर को ६१ अनेकान्त परिवार की भावना है कि दिवंगत आत्मा परलोक वर्ष की उम्र में प्रातः ४ बजे स्वर्गवास हो गया है, इससे में सुख-शांति प्राप्त करें।
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वीर सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
सभी अन्य पौने मूल्य में १) पुरातन-जनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल्य-प्रन्यों की पचानुकमणी, जिसके साथ ४८ टीकाविन्य में
उड़त दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पय-वाक्यों की सूची। सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डाक्टर कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Forewod) मौर ग. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका
(Introduction) से भूषित है, शोष-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज सजिल्द १५) (२) माप्त-परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक पपूर्व कृति, पाप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के
सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व पन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय,
समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का विश्लेषण करती हुई महत्त्व की गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठ की प्रस्तावना से सुशोभित ।
. २) (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।
.. १॥) (५) मध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर माध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद-सहित पौर मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की १८ पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित।
.. १॥) (६) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण ममन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हुमा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द। ... १२) (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ॥) (4) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्तिकी १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद-सहित ) (९) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्यार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । (१०) जैनग्रंथ-प्रशस्ति संग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रंथों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित
अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । (११) प्रनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तारश्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१२) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र। (१४) महावीर का सर्वोदय तीर्थ =), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका =)। (१६) महावीर पूजा। ।) (१७) जैनग्रंथ-प्रशस्ति संग्रह भा०२ मपभ्रंशके ११६ अप्रकाशित प्रोंकी प्रशस्तियोंका महत्वपूर्ण संग्रह ७४ प्रन्थकारोंके
ऐतिहासिक प्रन्थ-परिचय और उनके परिशिष्टों सहित । सम्पादक पं. परमानन्द शास्त्री मूल्य सजिल्द १२) (१८) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ... ५) (१९) कसायपाहुड सुत-मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्रीगुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण यूणिसूत्र लिखें । सम्पादक पं.हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी साईज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मैं । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०) (२०) Reality पा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू. ६)
प्रकाशक-प्रेमचन्द, वीर सेवा मन्दिर के लिए नया हिन्दुस्तान प्रेस, दिल्ली में मुद्रित
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द्वैमासिक
अकात
आदर्श एवं यथार्थ का समन्वय ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है। आज के युग में प्रदर्श कुछ है यथार्थ कुछ | - अमरेश
एक अद्वितीय तोरण द्वार (संग्रहालय नवागढ़)
समन्तभद्राश्रम (वीर- सेवा - मन्दिर) का मुखपत्र
फरवरी १९६
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२४३
विषय-सूची
भूल-सुधार विषय
कार्तिकेयानुप्रेक्षा एक अध्ययन नामक लेख के
अनुवादक-प्रो० कुन्दनलाल जैन एम० ए० है, श्री भर-जिन-स्तवन
भूल से उनका नाम वहां रह गया है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन -डा. ए. एन उपाध्ये एम० ए० डीलिट्
अनेकान्त को सहायता अनुवादक-प्रो० कुन्दनलाल जैन, एम० ए० २४४ मराठी जैन साहित्य-डा. विद्याधर जोहरा पुरकर
११) श्रीमान् ला० सुमेरचन्द जी सुपुत्री चि० संतोप एम. ए. पी. एच. डी. २५३ ॥ वाला जैन के विवाहोपलक्ष में । मध्यकालीन जैन हिन्दी-काव्य में प्रेमभाव
७) चि० विनयकुमार जैन सुपुत्र ला० मनमोहनदास -डा. प्रेमसागर एम० ए० पी० एच० डी. २
जी के विवाहोपलक्ष में प्राप्त, मा० श्री महाराजप्रसाद जी धर्मस्थानों में व्याप्त सोरठ की कहानी
केशिल देहरादून द्वारा -महेन्द्र भनावत एम० ए०
६) श्रीमान् ला० श्यामलाल जी ठेकेदार देहली द्वारा दिग्विजय (ऐतिहासिक उपन्यास)
अपनी ध०प० श्री चम्पादेवी के स्वर्गवास पर निकाले -मानन्दप्रकाश जैन जम्बुप्रसाद जैन २६७ हुए १५००) के दान में से प्राप्त ।
दातारों को साभार धन्यवाद, नवागढ़ (एक महत्वपूर्ण मध्यकालीन जैन तीर्थ
मैनेजर अनेकान्त। -श्री नीरज जैन झालरापाटन का एक प्राचीन वैभव
अनेकान्त की सहायता के चार मार्ग -डा. कैलाशचन्द जैन एम० ए० पी० एच० डी० २७६ १. अनेकान्त वीर सेवा-मन्दिर का ख्याति प्राप्त शोधजैन परिवारों के वैष्णव बनने सम्बन्धी वृत्तान्त
पत्र है । जैन समाज को चाहिए कि वह विवाह, पर्व और -श्री अगरचन्द नाहटा २८२ महोत्सवों आदि पर अच्छी सहायता प्रदान करे। ज्ञात वंश -श्री पं० वेचरदास जी दोशी २८६ २. पाँच सौ, दो सौ इक्यावन और एक सौ एक प्रदान साहित्य-समीक्षा -डा. प्रेमसागर जैन २८८ कर संरक्षक, सहायक और स्थायी सदस्य बनकर अनेकांत
की आर्थिक समस्या दूर कर उसे गौरवास्पद बनाएं।
३. अनेकान्त को भारतीय विश्वविद्यालयों, जैन जैनेतर कालेजों, संस्कृत विद्यालयों, पाठशालाओं, हायर सेकेण्डरी । स्कूलों और लायबेरियों तथा पुस्तकालयों को पानी ओर से फ्री भिजवाएं।
४. जो सज्जन अनेकान्त के ५ सदस्य बनाकर उनका सम्पादक-मण्डल
३०) मूल्य भिजवाएंगे, उन्हें अनेकान्त एक वर्ष तक फ्री डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये
भेजा जावेगा।
-व्यवस्थापक श्री रतनलाल कटारिया
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य छः रुपया है। डॉ. प्रेमसागर जैन
अत: प्रेमी पाठकों से निवेदन है कि वे छह रुपया
ही मनीग्रार्डर से निम्न पते पर भेजें। श्री यशपाल जैन
मैनेजर अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिये सम्पादक मंडल
'अनेकान्त' वीर-सेवा-मंदिर उत्तरदायी नहीं है।
२१ दरियागंज,दिल्ली
-
'अनेकान्त' वीर-सेवा-मंदिर
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वर्ष १५ किरण, ६
धम्म
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धनात्यन्यसिन्धुरविधानम् । / सकलनयविलसितानां विरोधमधनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, बेहली-६ माघ शुक्ला १२, वीर निर्धारण सं० २४८६, विक्रम सं २०१६
फरवरी
सन् १९६३
श्री र-जिन -स्तवन
.मोहरूपो रिपुः पापः कषाय- भट- साधनः ।
दृष्टि-संविदुपेक्षाऽस्त्रैस्त्वयाधीर ! पराजितः ॥ ५॥
अर्थ :- कषाय-भटों की - क्रोध-मान- माया लोभादिक की --- सैन्य से युक्त जो मोह रूप-मोहनीय कर्मरूप
- पापी शत्रु है - म्रात्मा के गुणों का प्रधान रूप से बात करने वाला है—उसे हे धीर अर-जिन ! श्राप ने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा - परमोदासीन्य लक्षण सम्यक् चारित्र - रूप अस्त्र-शस्त्रों से पराजित कर दिया है।' कन्दर्पस्योद्धरो वस्त्रलोक्य-विजयाजितः ।
हे पयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६ ॥
धर्म : तीन लोक की विजय से उत्पन्न हुए कामदेव के उत्कट दर्पको महान् ग्रहंकारको धाप ने लज्जित किया है । ग्राप धीर वीर - प्रक्षुभितचित --मुनीन्द्र के सामने कामदेव हतोदय ( प्रभावहीन) हो गया उसकी एक भी कला न चली ।
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन
ग० ए० एन० उपाध्ये एम. ए. ग. लिट्
कार्तिकेयानुप्रेक्षा' का प्रकाशन सभी सन् १९६० में रायन शास्त्रमाला, प्रगास से हुमा है जिसके सम्पादक सामादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हैं। इस संस्करण में उनकी एक विस्तृत अंग्रेजी प्रस्तावना है। अनुवादक ने उसका सारांश यहाँ दिया है। विस्तृत अध्ययन के लिए मूल प्रस्तावना देखना चाहिए।
-सम्पादक
स्वामी कार्तिकेय की "बारस अनुवेक्खा", जो कार्ति- साम्यासः" अथवा "अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा" इस केयानप्रेक्षा के नाम से भी प्रसिद्ध है, एक ख्यात एवं श्रेष्ठ प्रकार अनुप्रेक्षा के लक्षणों पर मुख्यतया दो दृष्टियां प्राप्त रचना है, जिससे जैन श्रावकों वा साधुओं ने अधिक धार्मिक होती हैं पर प्रागे चलकर व्याख्याकारों ने इन प्रों को प्रेरणा प्राप्त की है, फल स्वरूप जैनग्रंथ-भंडारों में इस ग्रंथ मिश्रित कर दिया है। की अनेकों पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। इनमें से कुछमें भ.
अनुप्रेक्षा साधारणतया यात्मोद्धार का विषय है जिसमें शुभचन्द्र की संस्कृत टीका भी उपलब्ध होती है । इस ग्रंथ
प्रायः जैनदर्शन एवं सिद्धान्तों के सभी विषय सम्मिलित हो की तैयारी के लिए अनेकों हस्तलिखित प्रतियों का प्रयोग
जाते हैं । वे १२ होती हैं-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व किया गया है। उनमें सर्वाधिक प्राचीन प्रति सं० १६०३
अन्यत्व, अशुचि पाश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोषि दुर्लभ की भंडारकर प्रोरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की है।
और धर्मस्वास्यातत्व। जैन दर्शन में अनुप्रेक्षा का स्थान यह पांडुलिपि भ० शुभचन्द्र कृत इस ग्रंथ की संस्कृत टीका
बड़ा महत्वपूर्ण है । क्योंकि कर्मों की निर्जरा तप से होती है, से प्राचीन है।
जो दो प्रकार के हैं बाह्य और माभ्यंतर । प्राभ्यंतर तप संस्कृत का 'अनुप्रेक्षा' शब्द प्राकृत में अनुप्पेहा, अनुपेहा छः प्रकार का होता है, जिसमें से स्वाध्याय पांच प्रकार का भनवेहा, अनुप्पेक्खा, और अनुवेक्खा प्रादि अनेक प्रकार होता है-वाचना, प्रच्छना, आम्नाय (स्मृति परियट्टना) से लिखा जाता है। यह अनु और प्र उपसर्ग पूर्वक इक्ष धातु अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा ध्यान चार प्रकार का होता से बना है जिसका अर्थ है चिन्तन, मनन या प्रात्मनिरीक्षण। है-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल, धर्मध्यान के चारभेद हैं, पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में "शरीरादीनां स्वाभावानु- जिनके वाचना, पुच्छना, माम्नाय एवं धर्मकथा ये चार चिन्तनम् अनुप्रेक्षा" कहा है। स्वामीकुमार के अनुसार भालंबन हैं, जो किसी भनित्य, मशरण, एकत्व और संसार "सुतत्तचिंता अणुप्पेहा" है, सिद्धसेन ने भाष्यटीका में "अनु- इन चार अनुप्रेक्षामों पर प्रभाव डालते हैं। उसी प्रकार प्रेक्षणम् अनुचिन्तनम् अनुप्रेक्षा, अनुप्रेक्ष्यन्ते भाव्यन्तेइति वानु- शुवल ध्यान के चारभेदों के चार पालम्बन भाव हैं तथा प्रेक्षा, तादृशानुचिन्तनेन तादृशाभिर्वा वासनाभिःसंवरः सुलभो अवाय अशुभ प्रमंतवत्तीय और विपरिणाम ये चार सहयोगी भवति" अनुप्रेक्षा की परिभाषा दी है। नेमिचंद्र ने अनुप्रेक्षाएं हैं । इस प्रकार अनुप्रेक्षा का धर्म एवं शुक्ल"उत्तराध्ययन" में इसे चिन्तनिका कहा है । पं० माशाघर ध्यान से पूर्णतया निकट का संबंध है । शिवायं ने भगवती के अनुसार "अनुप्रेक्ष्यन्ते शरीराद्यनुगतत्वेन स्तिमित चेतसा आराधना में ऐसा ही माना है । उन्होंने अनुप्रेक्षा को धर्मदृश्यन्ते इत्युनुप्रेक्षा" है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार भ० ध्यान का अन्तिम पावलम्बन कहा है, जिसे वे 'संस्थान शुभचंद के अनुसार "अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरण- विचय' कहते हैं। पर शुक्लध्यान के विवरण में अनुप्रेक्षा, मनित्यादि स्वरूपाणामित्यनुप्रेक्षा निजनिज नामनुसारेण का कोई उल्लेख नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मप्रेक्षा तत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा इत्यर्थः" है। पूज्यपादने स्वाध्याय कर्मों का संवर करती है ऐसा ही प्रायः अन्य प्राचार्यों का को भी अनुप्रेक्षा कहा है, यथा “अनुप्रेक्षाग्रन्थार्थयोरेवमन- अभिमत है, पर जहां अनुप्रेक्षा का अर्थ स्वाध्याय है, वह
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कातिकेयानुप्रेणा : एक अध्ययन
२४५ सर्वथा भिन्न है, जिसे ध्यान के प्रकरण में सम्मिलित नहीं जैन साहित्य में अनुप्रेक्षा-जैन साहित्य का कुछ अंश किया जाता है। इस प्रकार जनसिांत में अनुप्रेक्षा का भगवान महावीर के निर्वाण के दो सौ वर्ष बाद से ही उपमहत्वपूर्ण स्थान है। वह कर्मों के संवर मौर निर्जरा में लष होने लगा था, जो पाटलिपुत्र की परिषद् में संग्रहीत सहायक होती हैं तथा ध्यानावस्थिति में योग प्रदान करती किया गया था, पर उसी का अन्तिम रूप, जो पाजकल है और पवित्र ज्ञानार्जन का साधन बनती है।
प्राप्य है, पांचवीं शती में तैयार किया गया था। यह अंश अनुप्रेक्षा का उद्देश्य और उसका प्रात्मा पर प्रभाव देवर्षिगणि की अध्यक्षता में वल्लभी-परिषद् में लिखा या संग्रडालने के संबंध में उत्तराध्ययन सूत्र में बड़े विस्तार से हीत किया गया था। मूलरूप से अनुप्रेक्षानों का संकेत ११ वर्णन दिया गया है। अनुप्रेक्षात्रों द्वारा आयुष्कर्म को भंग १२ उपांग १० प्रकीर्णक ६ छेदसूत्र ४ मूलसूत्र और पूर्वी छोड़कर शेष सभी कर्मों की स्थिति क्षीण हो जाती है और में से मिलता है । जिनका विशद विवेचन उपर्युक्त ग्रंथों से वे अन्तिम विकास का मूल साधन हैं। जब मनुष्य सांसारिक प्राप्त किया जा सकता है। अनुप्रेक्षामों का विवेचन तत्वार्थगतिविधियों से ऊब जाता है तो उसका सुझाव प्रात्मा की सूत्र के कर्ता उमास्वाति तथा उसके टीकाकार एवं भाष्यपोर होता है और धीरे-धीरे अपनी मात्मा को संसार से कार आदि ने भी विस्तार पूर्वक किया है। तत्वार्थाधिगम विमुख करता हुमा मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। भाष्य और सर्वार्थसिद्धि में अनुप्रेक्षाओं का विवरण अनादि काल से यह प्रात्मा कर्मों से संलग्न है अतः उनसे प्रायः समान है। राजवार्तिक के कर्ता प्रकलंकदेव जो छुटकारा पाने के लिए ये १२ अनुप्रेक्षाएं विशेष महत्वपूर्ण सातवीं सती के पूर्वार्ष के सर्व श्रेष्ठ नैयायिक एवं जैनधर्म हैं । व्यक्ति के धार्मिक जीवन एवं प्रात्मिक विकास के क्षेत्र के महापंडित थे, ने अनुप्रेक्षामों का विवरण सर्वार्थसिद्धि में इनका बहुमूल्य स्थान है ये अनुप्रेक्षाएं व्यक्ति का पुन- ही जैसा नहीं, अपितु और अधिक विशद विवेचन कर प्रस्तुत जन्म, कर्म, कर्मों के क्षय क्षयोपशम, स्थिति, प्रात्मनियंत्रण किया है। सिद्धसेन (७वीं से वीं सदी) ने तत्त्वार्थसूत्र यम, नियम की उपयोगिता तथा जीवन का अन्तिम लक्ष्य की टीका 'भाष्यानुसारिणी' में अनुप्रेक्षा का सूत्रानुसार आदि विषयों की ओर ध्यान प्राकर्षित करती हैं । योगियों विवेचन किया है पर जितना विवाद एवं विस्तृत विवेचन की ध्यानावस्थिति को विकसित करने के लिए ही इनका उन्होंने ध्यान का किया है उतना अनुप्रेक्षा का नहीं विद्यामाविष्कार हुआ था। विचारों की पवित्रता एवं धर्म के नंद (७५५-८४० सं०) के तत्वार्थ श्लोकवार्तिक में भी सक्रिय आचरण में भी इनका अपना विशेष महत्व है । अनु- अनुप्रेक्षा के सम्बन्ध में कुछ नवीनता नहीं मिलती। उन्होंने प्रेक्षामों के नामक्रम में दो मान्यतायें प्रमुखतया प्राप्त हैं- तो केवल अकलंकदेव के वार्तिकों की पुनरावृत्ति अथवा एक उमास्वाति की तत्त्वार्थसूत्र में, जिसे प्रायः परवर्ती साधारण ब्याख्या ही कर दी है अथवा सर्वार्थसिद्धि जैसे प्राचार्यों ने स्वीकार किया है। वह इस प्रकार है-अनित्य ही विचार प्रस्तुत किए हैं। श्रुतसागर (वि० सं० १६वीं मशरण, संसार एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, पाश्रव, संवर, सदी) ने तत्त्वार्थवृत्ति जो सर्वार्थसिद्धि की टीका है में १४ निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व। शिवायं ने शार्दूलविक्रीडित छंदों में १२ अनुप्रेक्षाओं का विवरण दिया मूलाराधना गाथा १७१५ में, वट्टकेर ने मूलाचार में तथा है, जो कुछ मौलिक एवं नवीन सा प्रतीत होता है। कुन्दकुन्द ने षट् प्राभूत संग्रह के 'वारस अनुप्रेक्षा' में पृथक् तत्त्वार्थ सूत्र से भी प्राचीन ग्रन्थों में अनुप्रेक्षामों का क्रम दिया है-अध्रुव, असरण, एकत्व, अन्यत्व, संसारलोक, विवरण मिलता है ।कुन्दकुन्दाचार्य की "वारस अनुप्पेला" मशुचि पाश्रव, संवर, निर्जरा धर्म और बोधि । 'मरण समाधि' प्राकृत भाषा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसमें ६१ गाथाएं का क्रम उमास्वाति से मिलता जुलता है। स्वामी कुमार हैं। वहां अनुप्रेक्षाओं का विवेचन प्राचीन परम्परावादी का क्रम भी उमास्वाति जैसा ही है पर अनित्य की जगह ढंग पर किया गया है। इसकी कुछ गाथाएं ठीक मूलाचार मध्रुव अनुप्रेक्षा को उन्होंने विशेष पसन्द किया है, जो में मिलती है, ५ गाथायें (२५ से २९) पूज्यपाद ने अपनी शिबाब मादि प्राचार्यों की मान्यता है।
सर्वार्थ सिद्धि में भी उल्लिखित की है। प्राचार्य बट्टकेर ने
१ गाया
विवेचन
किया गया
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-२४६
प्रका
भी मूलाचार के पाठवें अध्याय में ७४ गाथाओंों में बारह भावनाओं का वर्णन किया है। यह रचना भी कुन्दकुन्द की "वारस अनुवेक्खा" जैसी ही प्राचीन ठहरती है, दोनों की गाथायें कहीं अंशतः और कहीं पूर्णतया मिलती-जुलती सी हैं। शिवार्य ने "भगवती भाराधना" की लगभग १६० गाथानों में १२ भावनाओं का वर्णन किया है ।
उनमें उपमादि अलंकारों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। इसकी कुछ गाथायें वट्टकेर और कुन्दकुन्द से मिलती-जुलती हैं। इन तीनों प्राचार्यों के काल निर्णय का निश्चय भव तक निश्चित नहीं हो सका है। तीनों के अनुप्रेक्षा वर्णन के तुलनात्मक अध्ययन से तीनों समकालीन या थोड़े-बहुत अन्तर से आस-पास के ही प्रतीत होते हैं ।
शुभचन्द्राचार्य जो अपने समय के सर्वश्रेष्ठ योगी एवं कवि थे, ने ज्ञानार्णव (योग प्रदीपाधिकार) में भी १८८ श्लोकों में अनुप्रेक्षाग्रों का वर्णन किया है। शुभचंद्राचार्य का समय समंतभद्र' देवनन्दि अकलंक और जिनसेन (८३७ई०) तथा शायद यशस्तिलक के कर्ता सोमदेव के बाद का है। पर हेमचन्द्र ( ११७२ ई०) से पूर्व का है । भर्तृहरिशतक तथा श्रमितगति के सुभाषितों का शुभचंद पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इसीलिए संभवतः शुभचन्द्र और भर्तृहरि के भाई-भाई होने की किम्वदन्ती प्रचलित हो गई है। हेमचन्द्राचार्य (१०८९ से ११७२ ) गुजरात में सिद्ध राज और कुमारपाल के शासन काल में सर्वश्रेष्ठ विद्वान् थे । उन्होंने योगसार के चौथे प्रस्ताव में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है। वे शुभचंद्र के ज्ञानार्णव से विशेषतया प्रभावित थे । अभयदेव के शिष्य मलधारी हेमचन्द्र ( ११३१ ई०) ने अपने “ भाव भावना" की ५३१ गाथाओं में भी अनुप्रेक्षा का वर्णन किया है जिनमें से ३२२ गाथाओं में केवल संसार भावना का ही वर्णन है। इनकी रचना पर प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा में वर्णित अनुप्रेक्षात्रों का प्रभाव बहुलता से विद्यमान है। इन्होंने नेमि, बाल, नंद मेघकुमार सुकौशल भादि की कथानों का भी उल्लेख किया है।
कुछ जैन चरित प्रथवा पुराण ग्रन्थों में भी अनुप्रेक्षात्रों का वर्णन मिलता है वरांगचरित के कर्ता जटिल नन्दि (सातवीं सदी ई०) ने २८वें सर्ग में अनुप्रेक्षाओं का
१५
वर्णन किया है । उद्योतनसूरि (७७९ ई०) ने "कुवलयमाला" में ६२ गावाभों में धनुप्रेक्षा विवरण दिया है। महापुराण के कर्ता जिनसेन- गुणभद्र (हवीं ई०) ने १२ अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है । सोमदेव ( ९५६ ई०) ने अपने यशस्तिलक के ५२ वसन्ततिलका छन्दों में मनुप्रेक्षा वर्णन किया हैं । अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि पुष्पदन्त (९६५ ई०) ने अपने महापुराण की सातवीं सन्धि के १ से १८ कडवक में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है। कनकामर मुनि (१०६५ ई०) ने अपने करकं चरिउ के हवें परिच्छेद के ६-१७ कडवक में अनुप्रेक्षा वर्णन किया है। क्षत्रचूडामणि के कर्ता वादी सिंह (११वीं ई०) ने ५० अनुष्टुप श्लोकों में अनुप्रेक्षाओं पर लिखा है। उनका ३३वा श्लोक सोमदेव के यशस्तिलक के द्वि० अध्याय के ११२वें श्लोक जैसा ही है । गद्य चिन्तामणि और जीवंधर चंपू में भी अनुप्रेक्षा वर्णन है । सोमप्रभ (११८४ ई०) ने अपने 'कुमारपाल प्रतिबोध' नामक ग्रन्थ के ३६ प्रस्ताव के अन्त में कुमारपाल के जैनी बनने पर अपभ्रंश में १२ अनुप्रेक्षात्रों का वर्णन दिया है। वाचकमुख्य उमास्वाति के " प्रशमरति प्रकरण" १४६ से १६२ कारिकाभों में १२ अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। 'चारित्रसार' के कर्ता चामुण्डराय (१०वीं सदी ई०) ने अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है, जो सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के अनुप्रेक्षा प्रकरण से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। यहाँ गोम्मटसार की ५ गाथाओं का भी उल्लेख मिलता है। भ्रमित गति (९९४- १०१५ ई०) के उपासकाचार ( प्रमितगतिश्रावकाचार ) में ८४ उपजाति छन्दों में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन मिलता है जो ज्ञानार्णव के ढंग पर रचा गया था । वीरनन्दि (११५३ ई०) के "आचारसार" के १२ शार्दूलक्रीडित छन्दों (x ३२-४४) में अनुप्रेक्षा वर्णन विद्यमान है । नेमिचन्द्र के 'प्रवचन सारोद्वार की १५७७ प्राकृत गाथाओं की संस्कृत टीका सिद्धसेन ने ११७१ ई० में पूर्ण की थी। इसकी लगभग १३३ गाथाओं में अनुप्रेक्षा वर्णन मिलता है । प्राशाधार (१२२८-१२४३ ई०) के 'धर्मामृत' ६वें अध्याय ५७-८२ श्लोकों में अनुप्रेक्षा वर्णन किया गया है। नेमिचन्द्राचार्य का द्रव्य-संग्रह तथा ब्रह्मदेव (१३वीं सदी ई०) की परमात्मप्रकाश' टीका भी अनुप्रेक्षा वर्णन मिलता है। सिवदेव सूरि के
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कार्तिकेयानुनेका : एक अध्ययन
२४० शिष्य जयदेव मुनि ने अपने अपभ्रंश भाषा के 'भावना कुन्दकुन्द की निम्न माया से स्पष्ट प्रतीत होता है कि संधि प्रकरण' के ६ कडवकों में १२ अनुप्रेक्षाघों का वर्णन भावना शब्द अनुप्रेक्षा के लिए कैसे प्रयुक्त हुमा-"मावहि , किया है। जयदेव हेमचन्द्राचार्य के बाद के प्रतीत होते । अणुवेक्खामो प्रवरे पणवीस भावणा भावि । भावरहिएणहै। इस विवरण में दृष्टान्तों का प्रयोग बहुलता से मिलता किं पुण बाहिर लिंगेण कायव्वं"। कुन्दकुन्द ने भावना
शब्द को सीधे अनुप्रेक्षा का पर्यायवाची नहीं कहा है, पर भावना शब्द का प्रयोग-जैन शब्द कोष में "भावना" अशुचित्व को प्रकट करने के लिए सहसा प्रयुक्त किया है। शब्द का विभिन्न प्रों में प्रयोग किया गया है पर यह बट्टकेर ने भावना शब्द ही प्रयोग किया है। 'कत्तिगेयाबड़ा ही रोचक है कि यह शब्द माधुनिक हिन्दी-गुजराती. नपेक्खा' में दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है पर अनुसाहित्य में "अनुप्रेक्षा" रूप में कैसे परिवर्तित हुआ। प्रेक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया है। प्राचारांगा की तीसरी चूलिका का १५वां भाषण 'भावना" मरण समाधि में तो अनुप्रेक्षा का स्थान स्पष्टतया नाम से प्रसिद्ध है जिसे डा. जेकोबी पंचव्रतों का एक भावना ने ही ले लिया है । इस प्रकार धीरे-धीरे यह शब्द अंश मानते हैं। हर महाव्रत को पांच-पांच भावनायें होती भावी साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्ध होता गया। उपर्युक्त हैं जिनसे महावत की स्थिरता होती है ।कुन्दकुन्द ने अपने विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुप्रभा शब्द सर्व चरित पाहुड़ में भावना को महावत के साथ ही सम्मिलित प्रथम ध्यान का अंश था। बाद में धार्मिक अध्ययन के भाग किया है। बट्टकेरने मूलाचार में भावनाओं को व्रतों की रूप में प्रयुक्त होकर जैन साहित्य में अत्यधिक प्रसिद्धि दृढ़ता का मूल स्रोत माना है । तत्वार्थसूत्र में वे साधारण- पाता रहा है। इस प्रकार अनुप्रेक्षा शब्द प्राकृत, अपभ्रंश, तया द्रत की सहायक मानी गई हैं । जिनसेन ने ज्ञान, दर्शन संस्कृत कन्नड और अन्य आधुनिक भारतीय भाषामों के चरित और वैराग्य के रूप में भावना चार प्रकार की मानी साहित्य में जैनदर्शन एवं पादों के प्रसार, एवं उन्नति हैं । ज्ञान भावना में वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन में विशेष सहायक रहा जो कथानों, पुराणों, काव्यों, नीति
और धर्म देशना भादि सम्मिलत हैं, जो स्वाध्याय की शास्त्रों, साधु व गृहस्थों के उपदेशों आदि में प्रयुक्त किया विभिन्न प्रवृतियाँ कही जाती हैं दर्शन भावना में संवेग, जाता रहा है। प्रशम, स्थैर्य, प्रसम्मुधत्व, असाम्य, मास्तिक्य और अनु- जैन धर्म की तरह बौद्ध धर्म भी श्रमण संस्कृति का कम्पा आदि सम्मिलित हैं। इनमें से निर्वेद सहित चार तो प्रबल पोषक रहा है, अतः अनुप्रेक्षाओं की भावभूमि बौद्ध सम्यक्त्व के कारण हैं और शेष तीन सम्यक्त्व के अंग कहे दर्शन में प्राप्त होना स्वाभाविक ही है। धम्मपद २७७, जाते है (स्थैर्य - संशयरुचिः प्रसम्मुधत्वअनुधादृष्टि और बोधिचर्यावतार II २८६ इविदम (lbidem) II 62 असमय)। चरित भावना में पांच समिति तीन गुप्ति, VIII 33, Ibidem v62-3 VIII 52 आदि में अन्तिम परिषह, धर्म, अनुप्रेक्षा और चरित हैं जो संवर के कारण प्रशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व प्रादि भाव-गमों का वर्णन है । वैराग्य भावना में प्रानन्द की निरपेक्षता, शरीर की मिलता है। माधव संवर, निर्जरा भावनाएँ विशुद्ध तया प्रकृति का सतत चिन्तन और चरित्र संरक्षण की भोर जैनत्व से संबंधित है, परलोक बोधिदुर्लभ और धर्म भावना दृष्टि रहती है। इन भावनामों से मानसिक शांति प्राप्त के विचार जैन और बौद्ध साहित्य में समान रूप से प्राप्त होती है । तीर्थकर नाम-कर्म के १६ कारण भी भावनायें होते हैं । अनुप्रेक्षा शब्द बौद्ध साहित्य में १० अनुस्सति या षोडश कारण भावनायें कहलाती हैं । इस प्रकार धीरे- के नाम से प्रसिद्ध है जिनका विशुद्धि मग्ग में निरूपण है, धीरे अनुप्रेक्षा शब्द भी भावना रूप में प्रयुक्त होने लगा वे हैं बौद्ध, धम्म, संघ, शील चाग, देवल, मरण कायगत भले ही उसका प्रयोग किसी अन्य अर्थ में हों। अनुप्रेक्षा मान पान, और उपशम अनुस्सति । अनुस्सति शब्द का शब्द सर्व प्रथम ठाणांग पोर (abavaiya) मोववाइय अर्थ मनुस्मृति है जो अनुप्रेक्षा शब्द के बिल्कुल ही नजदीक में मिलता है, जो शिवार्य की भगवती पाराधना में भी है। है। इसका स्पष्ट अर्थ है ध्यान अथवा पात्म-दर्शन जैसा
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अनेकान्त
कि निम्न वाक्यों से स्पष्ट है "इति इमासु दससु अनुस्सतिसु प्रेक्षा का वर्णन है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा की कुछ गाथाएँ बुवानुस्सति तावभावेतु कामेन प्रवेच्चप्पसादसमन्नागतेन विभिन्न ग्रंथों की गाथामों से भाव, भाषा, विचार एवं योगिना पटिरूपे सेनासने रहोगतेन पटिसल्लीनेन "इति पि विषय की दृष्टि से मिलती जुलती हैं जिनका उल्लेख निम्न सो भगवा अरहं सम्मासंबुद्धो विज्जाचरण सम्पन्लो सुगतो प्रकार है। विभिन्न ग्रंथों के संकेत निम्नलिखित है : लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्या देवमनुस्सानं कुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा (का.) कुंद-कुन्द कृत बुद्धो-भगवा "इति (मं० ३/२८५) एवं बुद्धस्स भगवतो वारस अनुवेक्खा (वा.) भगवती आराधना शिवार्य कृत गुण अनुसरितम्बा"। इस प्रकार जैन व बौद्ध दर्शन में (भ. भा.) बट्टकेरकृत मूलाचार (मू.) मरण समाधि भावना द्वारा जिस लक्ष्य की प्राप्ति होती है, वह दोनों में (म. स.) पूर्णतया समान है।
का. ६-८-२१ वा. ४-५ =भा. मा. १७१७-१६, १७२५. कत्तिगेयानुप्पेक्वा-वर्तमान में स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा का. २६-२८ वा. ८,६-मू.७=भ. मा. १७४३ नाम से प्रसिद्ध ग्रंथ का प्राकृत भाषा में क्या शीर्षक होगा का. ३०-३१-वा.११,१३-म.भा. १७४६ यह खोजना प्रत्यधिक प्रावश्यक है। ग्रंथ के प्रादि में कर्ता का. ५६ =भ.पा. १८०१, ने "वोच्छ भणुपेमो' तथा अंत में "वारस अनु'पेक्खामो का. ६३ =मू.२७ =भ. आ.१८०२. भणिया" वाक्यों का प्रयोग किया है जिससे यह स्पष्ट का. ६४-६५=मू. २६ -भ.पा. १७६९-१८०० प्रतीत होता है कि प्राचार्य दूसरा नाम "वारस अनुप्सेक्खा" का. ६६ =वा. २४-२६ भ. पा. १७७३. रखना चाहते होंगे पर कुन्द-कुन्द के 'वारस अनुप्पेक्खा' ग्रंथ का. ६८ भ. मा. १७७५%=म. स. ५६४ से भिन्नता दिखाने के लिए ही बाद के प्राचार्यों ने दूसरा का. ७८ - भ. भा. १७५२ नाम कर्ता के नामोल्लेख सहित 'स्वामी कुमारानुप्रेक्षा" का. १२ वा. २३ । रखा । यह नाम सं० १६०३ की प्रति में उपलब्ध है, जो का. ८३ =वा. ४३ भंडार कर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना में १५०० नं० की है। का. ८९ =वा. ४७ =भ.पा. १८२५ यह प्रति इस ग्रंथ की शुभचंद कृत टीका से प्राचीन है। का. १०१ -भ. पा. १८२६ (१) पर इसके टीकाकार शुभचंद्र ने इसका नाम कार्तिकेया- का. १०४ वा. ६७. नुप्रेक्षा रखा, जिसे पं० जयचंद्र जी ने अपनी हिन्दी वच- का.३०५-६ - वा. ६६. निका में भी स्वीकार किया है। इस ग्रंथ को विधिवत् का. ३९३ =वा. ७० रूप से सजा-संभारने का श्रेय टीकाकार शुभचंद्र जी को उपर्युक्त तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है ही है। इसमें ४६१ गाथाएं है । जिनका तीन-चौथाई भाग कि स्वामी कुमार कुंद-कंद, शिवार्य और वट्टकेर आदि केवल लोक और धर्म अनुप्रेक्षा का ही वर्णन करता है शेष आचार्यों की रचनामों से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं, साथ
भाग में १० भावनाओं का विस्तृत वर्णन है। जिनका ही अपनी प्रतिभा शक्ति का प्रयोग कर अपने ग्रंथ को सर्व विशद अध्ययन एवं विवेचन मूल ग्रंथ से करना चाहिए। श्रेष्ठ बना दिया है। उन्होंने इस ग्रंथ में अनुप्रेक्षानों के प्रथम तीन गाथाएं प्रस्तावना सूचक हैं, ४-२२ (१६) तक अतिरिक्त और भी कई गुण, द्रव्य, पर्याय, कषाय, व्रत प्रघवानु० २३-३१(६) तक, प्रशरणानु० ३२-७३ (०२) सम्यक्त तप आदि धार्मिक विषयों का विवेचन किया है, तक संसारानु० ७४-७८ (६) एकत्वानु० ८०-८२ (३) जो जैन दर्शन की दृष्टि से अत्यधिक महत्व पूर्ण हैं। इसलिए अन्य त्वानु० ८३-८७ (५) अशुचित्वानु० ८८-६४ (७) कार्तिकेयानुप्रेक्षा जैन दर्शन का एक प्रत्यन्त उपयोगी संग्रह पाश्रवानु० ६५-१०१ (७) संवरानु० १०२-११४ (१३) बन पड़ा है। निर्जरानु०११५-२८३ (१७०) लोकानु० २८४-३०१(१८) स्वामी कुमार:-प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता स्वामी कार्तिकेय वोषि दुर्लभानु० ३०२-४९१ (१९१) गाथाओं तक धर्मानु हैं अतः इसका नाम स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रसिद्ध हमा।
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किरण ६
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन
ग्रंथ की अंतिम गाथाओं (४८९-९१) में उन्होंने पंच कुमारों ( वासूपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व और महावीर इन पांच बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकरों) की स्तुति की है और अपना नाम स्वामी कुमार लिखा है जिससे अनुमान होता है कि बे स्वयं सदा कुमार (बाल ब्रह्मचारी) ही रहे हों। स्वामी विशेषण तो सम्मानार्थ जोड़ा गया होगा। भंडार कर इंस्टीट्यूट पूना वाली सबसे प्राचीन प्रति के अन्त में स्वामी कुमार और आदि में कार्तिक का नामोल्लेख है। कुमार के लिए कार्तिकेय का प्रयोग सर्व प्रथम इसके टीकाकार शुभ चन्द ने ही किया है, जो कुमार और कार्तिकेय को समानार्थक समझते होंगे. इसीलिए इसके कर्ता का नाम कार्तिकेय प्रसिद्ध हो गया । पर शुभचन्द्र ने ऐसा कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उन्होंने कुमार को कार्तिकेय कैसे लिखा है । कार्तिकेय के संबंध में शुभचंद ने ३६४ वीं गाथा में लिखा है कि वे क्रौंचराज का उपसर्ग सह कर साम्यभाव से स्वर्ग सिधारे । कथा कोश में भी ऐसा उल्लेख है । भगवती प्राराधना की १५४६ वीं गाथा भी इसी श्राशय की द्योतक है। इसी प्रसंग में संथारंग (Samtharaga) की ६७ – ६६ गाथाएं विशेष महत्व की हैं ।
"जल्लमल पंकधारी आहारो सीलसंजमगुणाणं, अज्जीरणो य गीम्रो कत्तिय श्रज्जो सुरवरम्मि । रोहीडगम्मि नयरे आहारं फासूयं गवेसंतो कोवेण खत्तियेण य भिन्नो सत्तिप्पहारेणं । एगन्तमणावाए विस्थिपणे थंडिले चहय देहं सो वि तह भिन्नदेहो पडिवन्नो उत्तमं प्रट्ठ ।।” स्वामि कार्तिकेय का जीवन-परिचय हरिषेण, श्रीचन्द प्रभाचन्द्र नेमिदत्त आदि आचार्यों ने लिखा है पर किसी ने भी यह उल्लेख नहीं किया कि "वारस अनुवेक्खा" के कर्ता स्वामी कार्तिक या कार्तिकेय ही हैं और ना ही उनका कुमार से कोई सम्बंध स्थापित किया है। अतः यह सुनिश्चित है कि प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता स्वामी कुमार ही हैं भले ही टीकाकार शुभचन्द्र ने सामानार्थक समझ इसे कार्तिकेय का रूप दिया हो पर इस संबंध में कोई तथ्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं है ?
स्वामि कुमार का समय - स्वामिकुमार ने अपनी
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"वारसद्मनुप्रेक्षा" में अपने किसी समकालीन या उत्तराधिकारी का नामोल्लेख नहीं किया है जिससे हम उनका समय निश्चित कर सकें, फिर भी अन्तरंग या बाह्य साक्ष्यों के के आधार पर कुछ थोड़ा सा प्रयत्न उनके काल - निर्णय के बारे में करेंगे । I शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका सं० १६१३ में पूर्ण की। II कार्तिकेयानुप्रेक्षा की सबसे प्राचीन प्रति सं० १६०३ की उपलब्ध होती है। III श्रुतसागर जो १६वीं ई० सदी के प्रारम्भ में हुए थे, ने अपनी दंसणपाहुड 8 की टीका में कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ४७८वीं गाथा का उल्लेख किया है । IV ब्रह्मदेव, जो १३वीं ई० सदी में हुए थे, वे भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ४७ = वीं गाथा का प्रथमचरण "परमात्मप्रकाश" II ६८ की टीका में उद्धृत किया है। अतः निश्चित होता है कि स्वामिकुमार १३वीं ई० सदी से पूर्व तो हुए ही होंगे ।
I स्वामिकुमार के बारह अनुप्रेक्षाओं के वर्णन पर कुन्दकुन्द, शिवार्य, और बट्टकेर का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है । अतः स्वामिकुमार का समय उनके बाद ही ठहरता है । II पर अनुप्रेक्षाओं का नाम क्रम कुन्दकुन्द आदि प्राचार्यो के अनुरूप न रखकर तत्त्वार्थं सूत्र के अनुसार रखा है अतः तत्वार्थ सूत्र के कर्त्ता से भी विशेषतया प्रभावित प्रतीत होते हैं । III पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि के कुछ भाव स्वामी कुमार की गाथाओं में मिलते हैं। IV कार्ति केयानुप्रेक्षा की २७वीं गाथा योगसार के ६५वें दोहे से बिल्कुल ही मिलती-जुलती है। जिसे योगिन्दु ने छटी ई० सदी के लगभग लिखा था । कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ३०७वीं गाथा गोम्मटसार जीवकांड की ६५१वीं गाथा से मिलतीजुलती है । शुभचन्द ने अपनी टीका में भी गोम्मटसार की कई गाथाओं का उल्लेख किया है । अतः मेरी कल्पना है कि स्वामिकुमार गोम्मटसार के कर्त्ता नेमिचन्द्राचार्य के पश्चात् हुए हों, जो ईसा की १०वीं सदी के पश्चात् तथा ई० १३वीं सदी के पूर्व के आस-पास कहीं निश्चित होता है । सम्भव है भावी अनुसंधित्सु इस ३०० वर्ष लम्बी कालावधि को कुछ छोटा कर सकें। इसके अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य प्राप्त होते हैं पर सुनिश्चित प्रमाणों के प्रभाव में वे उपादेय नहीं गिने जा सकते ।
शुभचन्द और उनकी टीका – कार्तिकेयानुप्रेक्षा के
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अनेकान्त
वर्ष १५
टीकाकार शुभचन्द्र के पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ रासा ग्रंथ रचे तथा १४७० ई० में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा भी पता नहीं है। उनके स्वयं के बारे में जरूर ग्रन्थ के कराई। अन्त में उल्लिखित प्रशस्ति से कुछ ज्ञात होता है । वे मूल
शानभूषण-ये भुवनकीर्ति के उत्तराधिकारी थे और संघीय नन्दीसंघ के बलात्कार गणी प्राचार्य थे उनकी गुरु
इन्होंने १४७७ से १४६५ ई. तक अनेकों मूर्तियों की परम्परा में निम्न प्राचार्यों के नाम मिलते है :
प्रतिष्ठा कराई। यद्यपि वे गुजराती थे फिर भी अपने प्रतिभा कुन्दकुन्द, पद्मनन्दी, सकलकी ति, भुवनकीति, ज्ञान- बल से उन्होंने उत्तर भारत की भद्रारकीय गद्दी सम्भाली। भूषण, विजयकीति, शुभचन्द्र, कुन्दकुन्द । ऐसी जनश्रुति है पावली से विदित होता है कि उन्होंने भारत के विभिन्न कि कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुड़ों की रचना की थी परन्तु अब तीर्थ स्थानों की यात्रा की थी जहाँ इन्द्र भूपाल, देवार्य तक केवल एक दर्जन रचनाएं ही प्राप्त हो सकी हैं, जिनमें
मुदलियार, रामनाथार्य, वोम्मारासार्य, कल्पार्य, पांडुराय से प्रवचनसार श्रेष्ठ और सुन्दर ग्रंथ है। उनकी रचनाएं प्रादि दक्षिण के प्रमख श्रावकों द्वारा सम्मानित हये थे। प्राकृत (जैन शौर सेनी) भाषा में ईसा के कुछ वर्षों पूर्व उन्होंने तत्त्वज्ञानतरंगिणी, सिद्धान्तसारभाष्य, परमालिखी गई थीं।
थोपदेश, नेमिनिर्वाण पंजिका, पंचास्तिकाय टीका आदि पग्रनन्दी-पट्टावली से प्रतीत होता है कि पद्मनन्दी को ग्रंथों की रचना की थी। जानभषण नाम के कई विटन दिल्ली (प्रजमेर) की भट्टारकी गद्दी प्रभाचंद्र से उत्तरा- हुए हैं, अतः उपर्युक्त ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां ध्यान से धिकार में मिली थी, जो लगातार १३२८-१३६३ ई. का
निरीक्षण की जानी चाहिए । दो मूर्ति लेखों से स्पष्ट प्रतीत समया । वे ब्राह्मण थे तथा 'भावना पद्धति' के ३४ होता कि १५००ई० में उन्होंने विजयकीति के लिए अपनी संस्कृत श्लोकों के रचयिता थे, उन्होंने 'जीरापल्ली पाश्व- भट्रारकीय गद्दी खाली कर दी थी। उनकी तत्वज्ञान तरंनाथ स्तोत्र' तथा अन्य स्तोत्र भी रचे थे। उन्होंने १३६३ गिणी १५०३ ई० में पूर्ण हई थी। १५१८ ई० में लिपिई० में आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। इनके कृत ज्ञानार्णवकी प्रति उन्हें उपहार स्वरूप भेट की गई थी ही वे तीन शिष्य थे जिन्होंने दिल्ली, जयपुर, ईडर और अतः निश्चित है कि वे ई० १५१८ में जीवित थे। सूरत की भट्टारकीय गद्दियां सम्भाली थीं।
विजयकोति-ये ज्ञानभूषण के उत्तराधिकारी थे, सकलकीति-ये पद्मनंदी के शिष्य थे जिन्होंने बलाकारगण की ईडर शाखा प्रचलित की थी। वे २५ वर्ष
जिनका समय १५००-१५११ ई० निश्चित होता है । पट्टाकी आयु में दि० साधु बन गए थे और लगातार २२ वर्ष
वली से प्रतीत होता है कि वे 'गोम्मटसार' में बड़े प्रवीण तक दिगम्बरत्व धारण किये रहे। उन्होंने उत्तरी गुजरात
थे। कर्नाटक में प्रमुख व्यक्ति मल्लिराय, भैरवराय, देवे द्रके अनेकों मंदिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई थी
राय आदि के द्वारा वे सम्मानित हुए थे। जिनकी तिथि १४३३ से १४४२ ई० है। उन्होंने प्रश्नोत्त- शुमचन्द-ये विजयकीर्ति के उत्तराधिकारी थे। रोपासकाचार, पावपुराण, सुकुमालचरित्र, मूलाचारप्रदीप, (१५१६-१५५६ ई०) जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों का श्रीपालचरित्र, यशोधरचरित्र, तत्वार्थसार दीपिका प्रादि केवल उनकी विद्वता वश ही उल्लेख किया है 'जैन सिद्धांत श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना की। वे 'पुराण मुख्योत्तम शास्त्र- भास्कर, व० १ अंक ४ में १०३ प्राचार्यों की गुर्वावली कारी' और 'महाकवित्वादि कला प्रवीण' मादि विश्लेषणों प्रकाशित हुई थी, जिसका प्रारम्भ गुप्ति गुप्त और अन्त से विभूषित थे जैसा कि शुभचन्द्र ने पाण्डवपुराण में उनके पद्मनंदी से होता है। उनमें शुभचन्द का ६० वा नम्बर है विषय में लिखा है "कोतिः कृता येन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थ वे साकवाट (सागवाड़ा-राजस्थान) की गद्दी के भट्टारक की सकला पवित्रा।"
थे। पट्टावली से प्रतीत होता है कि वे तर्क, व्याकरण, भुवनकोति-ये संवत् १५०८-१५२७ (१४५१-१४७० साहित्य, प्राध्यात्म शास्त्र मादि विषयों के महान ज्ञाता ई०) में सकलकीति के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने कई थे। उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों की यात्रा की थी।
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन
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उनके भनेकों शिष्य थे, तथा उन्होंने विरोधियों को अनेकों तर के रूप में प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत पद्यों का विशेष बार परास्त किया था।
उरलेख किया है। उन्होंने गोम्मटसार, तस्वार्थ सूत्र, द्रव्यसन् १९५१ ई. में अपना पाण्डवपुराण समाप्त करते - संग्रह और ज्ञानार्णव से अनेक उद्धरण दिये हैं जिससे उनकी हुए शुभचन्द ने अपने लिखे २८ प्रन्यों का उल्लेख किया है। टीका बहुत विस्तृत और उपयोगी हो गई है। इसमें कुछ जैसे चन्द्रप्रभुचरित, पमनाभ चरित, प्रद्युम्न चरित, जीवंधर अंश लक्ष्मीचन्द द्वारा भी प्रक्षिप्त हुआ है। फिर भी एक चरित, चन्दनकथा, नन्दीश्वरकथा और पांडव पुराण आदि, धार्मिक पुरुष के लिए यह टीका वरदान स्वरूप है, ७ कथा ग्रंथ तथा त्रिशंच्चतुर्विशन्ति पूजा, सिद्धार्चनम्, क्योंकि इसमें विभिन्न विषयों का विवरण एक साथ मिल सरस्वती पूजा, चिन्तामणि पूजा, कर्मदहन विधान, गणधर- जाता है, जो विभिन्न प्राचार्यों के ग्रन्थों से शब्दशः उद्धृत वलय विधान, पल्योपम विधान, चरित्रशुद्धि विधान, चतु- किया है। जैसे वट्टकेर के मूलाचार की वसुनन्दी टीका. रिंशदाधिक द्वादशव्रतोद्यापन, सर्वतोभद्र विधान, मादि १० श्रीविजय की विजयोदया (भगवती आराधना) पूज्यपाद पूजा ग्रन्थ तथा पार्श्वनाथकाव्यपंजिका टीका, आशाधर की सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार की नेमिचन्द की टीका तथा पूजावृत्ति, स्वरूपसंबोधन वृत्ति, अध्यात्म पद्य टीका, आदि मूलगाथाएं देवसेन की पालाप पद्धति, द्रव्य संग्रह की ब्रह्म४ टीकायें तथा संशयवदनविदारण, अपशब्द खंडन, तत्त्व देव कृत टीका, चामुण्डराय का चारित्रसार, तत्वार्थ सूत्र पर निर्णय, १ स्याद्वाद, अंगपण्णत्ती, शब्द चिन्तामणि, और ३ श्रुतसागर की टीका , कर्म प्रकृति त्रैलोक्य सार आदि । स्तोत्र ग्रंथ रचे । उनका साहित्यिक कार्य १५५१ ई०के बाद
शुभचन्द ने कई विद्वानों और उनकी प्रकृतियों का भी भी चलता रहा जैसा कि उन्होंने पाश्विन सुदी ५ सं० १५७३
नामोल्लेख किया है। जैसे कर्म प्रकृति (पृष्ठ ३८६ पर) (१५१६ ई.) में अमृत चंद्रकृत समयसार की टीका पर
रविचन्द का आराधनासार (पृ० २३४, ३६१ पर) दोनों 'अध्यात्म तरंगिणी' टीका लिखी थी। सं० १६०८(१५५१
कृतियाँ अप्रकाशित हैं, गन्धर्वाराधना (पृ० ३६२ पर) ई.) में त्रिभुवनकीर्ति की प्रार्थना पर साकवाट में उन्होंने
जिसका उल्लेख ब्रह्मदेव ने भी अपनी द्रव्य संग्रह की अपना पांडवपुराण पूर्ण किया था जिसकी प्रति तैयार
संस्कृत टीका में किया है, नयचक्र (पृ. २०० पर) करने में श्रीपालवर्णी ने मदद की थी, १५५४ ई० में उन्होंने
यत्याचार वसुनंदी कृत (पृ० १०६, ३०६, ३३०) अष्टसंस्कृत में करकंडु चरित्र पूर्ण किया था। माघ सुदी १० से
सहस्री, प्राप्त मीमांसा (पृ० ११६, १५५, १६२) प्रमेय१६१३ (१५५६ ई.) में उन्होंने क्षेमचन्द और सुमति
कमलमार्तण्ड, परीक्षा (पृ० १७६ पर) आदि, उन्होंने पार्ष कीति के अनुरोध पर कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका समाप्त
मागम और सूत्र शब्दों का प्रयोग क्रमशः जिनसेन गुणभद्र की थी। उसके पश्चात भी उन्होंने समवशरण पूजा, सहस्र
कृत महापुराण, गोम्मटसार तथा तत्त्वार्थसूत्र के लिए किया नाम विमान शुद्धि विधान सम्यक्त्व कौमुदी, सुभाषितार्णव,
है । उन्होंने कल्पसूत्र के कुथ अंश तथा शुक्लयजुर्वेद संहिता सुभाषित रत्नावली, तर्कशास्त्र, प्रादि ग्रन्थ लिखे। इस
की कुछ समस्याओं का उल्लेख किया है जो सोमदेव के प्रकार शुभचन्द्र का साहित्यिक कार्य लगभगग ४० साल
यशस्तिलक चंपू में भी उपलब्ध है। तक चलता रहा।
शुभचन्द की कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका-शुभचन्दकृत इस टीका का मूल उद्देश्य स्वामि कुमार लिखित १२ कातिकेयानुप्रेक्षा संस्कृत टीका, वृत्ति भी कहलाती है जिस अनप्रेक्षामों की विशद व्याख्या करना ही था, पर शुभचन्द की ग्रन्थान संख्या ७२५६ एक पाण्डुलिपि में लिखी हुई ने अनुप्रेक्षाओं की व्याख्या के साथ-साथ इसे एक विशद है। इस टीका के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इससे संग्रह ग्रन्थ बना दिया है, जिससे कुमार की रचना का पूर्व ऐसी टीकारूप और कोई अन्य कृति रही होगी जिसे स्पष्टीकरण और भी अधिक अच्छी तरह से हो जाता है। ही शुभचन्द ने विकसित और विस्तृत किया हो। उन्होंने पं० जयचन्द जी की हिन्दी वचनिका ने भी स्वामिकुमार की प्राकृत से संस्कृत परिवर्तन साधारण ही किया है, पर प्रश्नो- कृति को अत्यधिक प्रसिद्धि प्रदान की।
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शुभचन्द:-शुभचन्द भट्टारक थे, उनका मुख्य कार्य प्रसिद्ध हुए तथा उनका साहित्य प्रत्यधिक मौलिक एवं धनी व धार्मिक व्यक्तियों द्वारा निर्मापित मूर्तियों व मंदिरों उच्चकोटि का माना जाता है। की प्रतिष्ठा करना, पूजा विधान उद्यापन कराना, तथा
अन्त में अनुवादक की हैसियत ने अनुसंधित्सु पाठकों धार्मिक और सामाजिक मामलों में लोगों को निर्देश देना
का ध्यान (Dr. K.L. Bruhn) जर्मनी बालों की निम्नथा। साहित्यिक भट्टारकों में शुभचन्द्र ही एक ऐसे थे
पंक्तियों की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ, जो उन्होंने जिन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक रचनाएं रचीं। वे
डा. उपाध्ये द्वारा संपादित "कार्तिकेयानु प्रेक्षा" की प्रतिभाशाली लेखक एवं अध्येता थे। उनकी टीका में
समीक्षा करते हुए ४ जून १९६२ के The Journal of उल्लिखित ग्रंथों से प्रतीत होता है कि उन्होंने दिगम्बर
Oriental Research, Baroda के ११ वे अंक में लिखी साहित्य का अच्छा गम्भीर अध्ययन किया था। संस्कृत भाषा पर उन्हें पूर्ण अधिकार था, अन्य भट्टारकों की तरह उन्होंने केवल संस्कृत में ही नहीं अपितु अपने आस-पास की
"The Jaina literature then unknown still जनभाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। मराठी, गुज
outweighs the known. It is only through such राती, हिन्दी, प्राकृत प्रादि इण्डो-आर्यन भाषामों के शब्द
patient work as that of Dr. Upadhey that the उनकी टीका में उपलब्ध होते हैं। शुभचन्द्र एक उच्चकोटि
balance can be changed. To achieve this end, के टीकाकार ही न थे अपितु श्रेष्ठ धर्म-प्रचारक थे, वे
text have not only to be analysed but must अपनी टीका को स्वामी कुमार जैसा ही विभिन्न धार्मिक
be projected as suggested above on the backविषयों का एक संग्रह ग्रन्थ बनाना चाहते थे। अतः उनकी
ground of contemporary and earlier literature. सारी टीका में उनकी धर्म-प्रचारकता का रूप स्पष्टतया
Dr. Upadhey has treated this and other problems मिलता है। विद्वत्ता की अपेक्षा धर्म-प्रचारक की भावना
with exceptional care, and we hope that simiने ही शुभचन्द्र से अनेकों पूजाग्रंथ लिखवाये । भट्टारक
Iar contributions will follow soon as a result होने के कारण उन्हें जैन समाज की तत्कालीन आवश्यकता
of his researches in Jaina literature." की पूर्ति करनी पड़ी। इस प्रकार भ० सकलकीर्ति की
The Journal of Oriental Research भांति भ. शुभचन्द्र जैन साहित्य के इतिहास में अत्यधिक
2 June 1962 Baroda (XI)
अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें प्रवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं। जो पठनीय तथा संग्रहणीय है। फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जावेंगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा।
फाइलें वर्ष ४, ५, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५ की हैं अगर आपने अभी तक नहीं मंगाई हैं तो शीघ्र ही मंगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियां थोड़ी ही अवशिष्ट हैं।
मैनेजर 'अनेकान्त' बोर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज, बिल्ली
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मराठी में जैन साहित्य
म० विद्याधर जोहरापुरकर, गवर्नमेंट डिग्री कालेज, जावरा १. प्रास्ताविक
३. गुरण कीर्ति जैन साहित्य कई भाषाओं में है। इनमें से प्राकृत, प्राचीनतम मराठी जैन लेखकों में एक गुणकीति हैं। संस्कृत, तमिल, कन्नड, हिन्दी तथा गुजराती भाषामों के ये मूलसंघ-बलात्कारगण के भट्टारक सकलकीति के शिष्य जैन साहित्य का काफ़ी विवरण प्रकाशित हुआ है। किन्तु भट्टारक भुवनकीति के शिष्य थे। इससे पन्द्रहवीं सदी का आधुनिक भारतीय भाषाओं में एक प्रमुख भाषा मराठी उत्तरार्ध उनका समय निश्चित होता है। इनका उल्लेखमें जो जैन साहित्य है उसका भी इधर पांच-छ: वर्षों में नीय ग्रन्थ धर्मामृत है। यह गद्य में है तथा इसमें गृहस्थों काफी अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन के परिणाम के प्राचारधर्म का वर्णन है। इसके विभिन्न सामाजिक, अब तक मराठी पत्रिकाओं में ही प्रसिद्ध हुए हैं । मराठी से साम्प्रदायिक, साहित्यिक, तथा पौराणिक उल्लेख बड़े ही अनभिज्ञ जैन विद्वानों को भी इसका कुछ परिचय हो इस महत्व पूर्ण हैं तथा महाराष्ट्र के जैन जन जीवन की अच्छी उद्देश्य से यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।
झांकी इसमें मिलती है। पद्मपुराण' यह गुणकीति का २. प्रारम्भ
विस्तृत ग्रन्थ रामकथा का वर्णन करता है। इसे वे पूर्ण __ महाराष्ट्र में जैन समाज का इतिहास काफी प्राचीन नहीं कर पाये । इसका द्वादशानुप्रेक्षा यह प्रकरण स्वतन्त्र है। स्वामी समन्तभद्र ने जिस बाद में विजय पाया था। रूप से भी प्रसिद्ध है । नेमिनाथ के जीवनकथा पर गुणवह करहाटक नगर (वर्तमान कराड, जिला सतारा), कीर्ति ने तीन गीत लिखे हैं तथा रुकमणि स्वयंबर नामक महबलि प्राचार्य ने यहां साधु संघ का सम्मेलन बुलाया एक अन्य गीत भी लिखा है। था वह महिमा नगर' (वर्तमान महिमान गढ़, जिला
४. गुरगदास सतारा), काष्ठा संघ की जहाँ शुरुवात हुई वह नन्दीतट नगर (वर्तमान नान्देड), तथा अपभ्रंश धर्म परीक्षा का
भट्टारक सकलकीति तथा भुवनकीति के शिष्य ब्रह्म
जिनदास ये गुणदास के गुरु थे । अतः ये भी पन्द्रहवीं सदी रचना स्थान प्रचलपुर ये सब महाराष्ट्र में ही हैं। महा
के उत्तरार्ध में हुए थे । इनका श्रेणिक चरित्र' काव्य की राष्ट्री प्राकृत तथा महाराष्ट्री अपभ्रंश में पर्याप्त जैन साहित्य है । तथापि मराठी भाषा में साहित्य रचना शुरू
दृष्टि से बड़ा रोचक तथा रस पूर्ण है । श्रेणिक तथा उनके होने से पहली तीन सदियों तक मराठी में किसी जैन
पुत्र अभयकुमार की चातुर्य कथायें इसमें बड़े सुन्दर रीति ग्रन्थ का अब तक पता नहीं चला है। उपलब्ध मराठी
से वर्णन की हैं। रामचन्द्र के विवाह पर एक छोटा-सा
गीत तथा जिनदेव से प्रार्थना के रूप में एक अन्य गीत जैन साहित्य पन्द्रहवीं सदी से प्रारम्भ होता है तथा इसके प्रारम्भिक ग्रन्थकार गुजरात के भट्टारकपीठों से सम्बद्ध
भी गुणदास ने लिखा है। ज्ञात हुए हैं।
१. जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर द्वारा १९६० १. महिमा नगर महिमानगढ़ है। यह बात अभी
में प्रकाशित । निश्चित नहीं है। धवला में उल्लिखित 'महिमाएं २. जयचन्द्र श्रावणे, वर्धा द्वारा १८०८ में प्रकाशित । मिलियाणं" का अर्थ महिमा नगर न होकर महो- ३. ये धर्मामृत के परिशिष्ट में प्रकाशित हैं। त्सव या महा पूजा में सम्मिलित हुए है, प्रतः
४. जीवराज ग्रन्थमाला में छप रहा है। उस पर से महिमा नगरी का अर्थ घोषित नहीं होता । महिमा नगरी का अन्वेषण होना चाहिये ।
५. ये दोनों गीत सन्मति मासिक वर्ष १९५६ में प्रका-सम्पादक
शित हुए हैं।
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२५४
अनेकात
५. जिनवास
कथा तथा शक १५३८ में अनन्त व्रत कथा' की रचना ये मूल संघ-बलात्कारगण के उज्जंतकीति भाचार्य की है। शिष्य थे। सकलकीर्ति तथा भुवनकीर्ति का इन्होंने भी ११. वीरवास गुरुरूप में उल्लेख किया है। अतः ये भी पन्द्रहवीं सदी के ये कारंजा के भट्टारक धर्मचन्द्र के शिष्य ये। इनका उत्तरार्ध के हैं। इन्होंने देवगिरि (वर्तमान दौलताबाद दीक्षा के बाद का नाम पार्श्वकीर्ति था । इन्होंने शक किला, जिला औरंगाबाद) में हरिवंशपुराण की रचना १५४६ में 'सुदर्शन चरित' लिखा । नेमिनाथ विषयक एक की। यह ग्रन्थ वे पूरा नहीं कर पाये।
गीत तथा अक्षर बावनी की शैली का बहुतरी यह छोटा ६. मेघराज
प्रकरण' ये इनकी अन्य रचनाएं हैं। ये ब्रह्म जिनदास के शिष्य ब्रह्म शान्ति दास के शिष्य थे। अतः सोलहवीं सदी के प्रारम्भ में इनका समय
ये भी कारंजा के भट्टारक धर्मचन्द्र (उपर्युक्त धर्मनिश्चित है । इन्होंने जसोधर रास' नाम का सुन्दर काव्य
चन्द्र के प्रशिष्य) के शिष्य थे। इन्होंने शक १६१२ में लिखा है। पार्श्वनाथ भवांतर यह इनकी अन्य छोटी
पार्श्वनाथ भवान्तर यह गीत लिखा है। इनकी गुजराती रचना है। इन्होंने गुजराती में एक तीर्थ वन्दना भी
रचना आदितवारखत कथा शक १६१५ की रचना है लिखी है। ७. सूरिजन
१३. महीचन्द्र ये मेघराज के गुरु बन्धु थे। इन्होंने परम हंस कथा ये मूलसंघ-बलात्कारगण के भट्रारक थे। इन्होंने नामक रूपक काव्य गद्य पद्य मिश्रित चम्पू शैली में लिखा
शक १६१८ में प्रादिनाथ पुराण की रचना की। नेमिनाथ है। दान शील तप भावना रास यह इनकी अन्य रचना
भवांतर, आदिनाथ भारती' अष्टान्हिका व्रत कथा आदि रचना है।
छोटी-छोटी कई रचनाएं भी महीचन्द्र ने लिखी हैं। ८.कामराज
१४. महाकोति ये भी मेघराज के गुरु बन्धु थे। इनका 'सुदर्शन चरित' ये महीचन्द्र भट्टारक के शिष्य थे । इन्होंने ज्ञीलसुन्दर काव्य है । साथ ही उसमें गृहस्थों के प्राचार धर्म पताका नामक काव्य लिखा है। पति द्वारा उपेक्षित एक का भी अच्छा वर्णन है। तन्य फाग' यह कामराज का तरुणी अपनी चतुराई, सौन्दर्य तथा पति भक्ति द्वारा पुनः छोटा-सा गीत है।
पति का स्नेह प्राप्त करती है ऐसी इसकी कथा है। ९. नागो प्राया
१५. पुण्य सागर ये कारंजा के भट्टारक माणिकसेन के शिष्य थे अतः ये भट्टारक अजितकीर्ति के शिष्य थे। सत्रहवीं सदी सोलहवीं सदी के मध्य में इनका समय निश्चित है। इन्होंने के उत्तरार्ध में इनका समय निश्चित है। गुणकीर्ति का यशोधर महाराज चरित्र लिखा है।
अपूर्ण ग्रन्थ पद्मपुराण तथा जिनदास का अपूर्ण ग्रन्थ हरि१०. प्रभयकोति
वंश पुराण इन्होंने पूर्ण किया। प्रादित्यव्रत कथा इनकी ये मूलसंघ-बलात्कारगण के अजितकीति प्राचार्य के शिष्य थे। इन्होंने शक १५३५ में आदित्य व्रत १६. गुणनंदि १. जीवराज ग्रन्थ माला में १९५८ में प्रकाशित ।
ये भी सहावीं सदी के लेखक हैं। इन्होंने यशोधर२. जीवराज ग्रन्थमाला, १९६१ में प्रकाशित ।
चरित की रचना की है। ३. सन्मति वर्ष १८५६ में प्रकाशित ।
१. सन्मति १९५८ में प्रकाशित। ४. जसोधर रास के परिशिष्ट में प्रकाशित ।
२. ३. सन्मति वर्ष १९५६-६० में प्रकाशित।
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मराठी में बैन साहित्य
२५५ १७. जिनसागर
में इन्होंने सम्यग्दर्शन के शिष्य में पाठ कथाएँ बतलाई हैं। __ये कारंजा के भट्टारक देवेन्द्रकीति के शिष्य थे। इन्होंने हनुमान पुराण इनकी दूसरी रचना है।' शक १६५६ में जीवंधर पुराण लिखा। इन छोटी रच- २१.माधुनिक समय नामों की संख्या ३० है जिनमें छः व्रत कथाएँ, तीन अन्य उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से मराठी साहित्य में कई कथाएं, चार पूजा पाठ, सात स्तोत्र, सात प्रारतियाँ और आधुनिक प्रवृत्तियां शुरू हुई। शोलापुर से सेठ हीराचन्द तीन स्फुट रचनाएं शामिल हैं। इन रचनाओं की ज्ञात नेमचन्द दोशी ने जैन बोधक मासिक पत्र शुरू किया तथा तिथियां शक १६४६ से शक १६६० तक हैं।
रत्न करण्ड आदि आदि ग्रंथों के मराठी रूपान्तर प्रकाशित १८. महतिसागर
किए। ये भी कारंजा के भट्टारक देवेन्द्रकीति (उपर्युक्त
जैन बोधक के अगले सम्पादक पं० कल्लप्पा निटवे देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य) के शिष्य थे। प्रादिनाथ पंच ने महापुराण, देवागम की वसुनन्दिवृत्ति, पंचास्तिकाय, कल्याणिक कथा, रविवार व्रत कथा आदि छोटी रचनाओं
द्वादशानुप्रेक्षा आदि कई ग्रन्थों के मराठी रूपान्तर प्रसिद्ध के अतिरिक्त इन्होंने कई पदों की रचना की है। इनका
किये । स्वतन्त्र मराठी रचनाओं में कवि रणदिवे का नाम समय अठारवीं सदी का अन्तिम तथा उन्नीसवीं सदी का
उल्लेखनीय है । इधर कुछ वर्षों से शोलापुर की जीवराज प्रारम्भिक भाग है।
ग्रन्थ माला ने मराठी जैन साहित्य के कुछ प्राचीन ग्रंथों
को प्रकाशित किया है तथा कई प्राचीन कथाओं के सुन्दर १९. रत्नकोति
माधुनिक मराठी रूपान्तर प्रकाशित किए हैं। ये कारंजा के भट्टारक सिद्धसेन के शिष्य थे। इन्होंने
२२. समारोप सन् १८१३ में उपदेश रत्नमाला की रचना की। भट्टारक
मराठी जैन साहित्य का उपर्यक्त विवरण दिग्दर्शन के सकल भूषण की संस्कृत रचना षट्कर्मोपदेश रत्नमाला का
तौर पर लिखा है । जिनकी एक या दो छोटी रचनायें ही यह रूपान्तर है।
प्राप्त हैं ऐसे कई कवियों का इसमें समावेश नहीं है। २०. दयासागर
आधुनिक समय के भी सभी अनुवादकों या लेखकों का ये भी उन्नीसवीं सदी के लेखक हैं। धर्मामृत पुराण वर्णन करना सम्भव नहीं हुआ। तथापि इस परिचय से १. सभी रचना में कामता मराठीतर भाषी जैन विद्वान् कुछ लाभ उठा सकेंगे ऐसी ग्रन्थमाला १९५६ शोलापुर ।
प्राशा है: २. महति काव्य कुंज नामक संग्रह में प्रकाशित। ३. जिनदास चवड़े, वर्धा द्वारा प्रकाशित ।
क्या तू महान् बनना चाहता है। यदि हाँ तो अपनी पाशा लतानों पर नियन्त्रण रख, उन्हें बेलगाम प्रश्व के समान मागे न बढ़ने दें। मानव की महत्ता इच्छामों के बमन में है, गुलाम बनने में नहीं। एक दिन मायेगा, जब तेरी इच्छाएं ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगी। हम सबको अपने हाथ की पाँचों अंगुलियों की तरह रहना चाहिए, हाथ की अंगुलियो सब एकसी नहीं होती, कोई छोटी, कोई बड़ी, किंतु जब हम हाथ से किसी वस्तु को उठाते हैं तब हमें पाँचों हो अगुलियां इकट्ठी होकर सहयोग देती
-विनोबा
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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में प्रेमभाव
डा० प्रेमसागर जैन एम. ए. पी-एच. डी.
भक्तिरस का स्थायीभाव भगवद्विषयक अनुराग है । इसी की शाण्डिल्य ने 'परानुरक्तिः' कहा है' । परानु रक्तिः गम्भीर अनुराग को कहते हैं । गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है । चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढ़े हो जाने को ही प्रेम कहा है" । भक्ति रसामृत सिन्धु में लिखा है, "सम्यङ मसृणित स्वान्तो ममत्वातिशयोक्तिः भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेम निगद्यते । "
।
प्रेम दो प्रकार का होता है-लौकिक और अलौकिक भगवद्विषयक अनुराग अलौकिक प्रेम के अन्तर्गत आता है । यद्यपि भगवान का श्रीतार मान कर उसके प्रति लौकिक प्रेम का भी प्रारोपण किया जाता है किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्व सदैव छिपा रहता है। इस प्रेम में समूचा आत्म समर्पण होता है। और प्रेम के प्रत्यागमन की भावना नहीं रहती । अलौकिक प्रेम जन्य तल्लीनता ऐसी विल क्षण होती है कि द्वेष भाव ही मृत हो जाता है । फिर प्रेम के प्रतीकार का भाव कहाँ रह सकता है ।
नारियाँ प्रेम की प्रतीक होती हैं। उनका हृदय एक ऐसा कोमल और सरस शाला है, जिसमें प्रेम भाव को लहलहाने में देर नहीं लगती । इसी कारण भक्त भी कांता भाव से भगवान की प्राराधना करने में अपना अहोभाग्य समझता है। भक्त 'तिया' बनता है और भगवान 'पिय' । यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियों की रचनाओं में भी उपलब्ध होता है । बनारसी दास ने अपने 'अध्यात्म गीत' आत्मा को नायक और 'सुमति' को उसकी पत्नी बनाया
१. शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, १२, पृ० १
२. चैतन्य चरितामृत, कल्याण, भक्ति श्रंक, वर्ष ३२, अङ्क १, पृ० ३३३.
३. श्री रूप गोस्वामी, हरि भक्ति रसामृत सिन्धु, गोस्वामी दामोदार शास्त्री सम्पादित ! अच्युत ग्रन्थमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण, १।४।१
है । पत्नी पति के वियोग में इस भांति तड़फ रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नाम की सखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह मग्न हो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है । मैं अपनपा खोकर पिय सूं मिलूंगी, जेसे भोला गिर कर पानी हो जाता है ' । अन्त में पति तो उसे अपने घर में ही मिल गया और वह उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गई कि द्विविधा तो रही ही नहीं । उसके एकत्व को कवि ने अनेक सुन्दर सुन्दर दृष्टान्तों से पुष्ट किया है। वह करतूति है और पिय कर्ता, वह सुख-सींव है और पिय सुखसागर, वह शिवनींव है और पिय शिवमंदिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है और पति शंकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र |
१.
२.
मैं विरहिन पिय के श्राधीन,
त्यौं तलफ ज्यों जल बिन मीन ||८|| होहु मगन मैं दरशन पाय,
ज्यों दरिया में बूंद समाय ||६|| पिय को मिलों अपनपो खोय,
श्रीला गल पाणी ज्यौं होय ॥१०॥ बनारसी विलास, अध्यात्मगीत, पृ० १६१. पिय मोरे घट मैं पिय माहि,
जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि । पिय मो करता मैं करतूति,
पिय ज्ञानी में ज्ञान विभूति । पिय सुख सागर में सुख सींव,
पिय शिव मन्दिर में शिवनींव । पिय ब्रह्मा में सरस्वति नाम,
पिय माधव मो कमला नाम ।
पिय शंकर मैं देवि भावनि,
पिय जिनवर मैं केवल वानि ।
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मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में प्रेमभाव
२५७
कवि ने सुमति रानी को 'राधिका' माना है । उसका बहुत दिन बाहर भटकने के बाद चेतन राजा माज सौन्दर्य और चातुर्य सब कुछ राधा के ही समान है । वह घर पा रहा है । सुमति के प्रानन्द का कोई ठिकाना नहीं रूप सी रसीली है और भ्रम रूपी ताले को खोलने के लिए है। वर्षों की प्रतीक्षा के बाद पिय के प्रागमन की बात कीली के समान है । ज्ञान-भानु को जन्म देने के लिए प्राची सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी। सुमति मालाहै और प्रात्म-स्थल में रखने वाली सच्ची विभूति है। दित होकर अपनी सखी से कहती है, "हे सखी देतो आज अपने धाम की खबरदार और राम की रमनहार है। ऐसी चेतन घर आ रहा है। वह अनादि काल तक दूसरों के वश सन्तों की मान्य, रस के पथ और ग्रन्थों में प्रतिष्ठित और में होकर घूमता फिरा, अब उसने हमारी सुध ली है । अब शोभा की प्रतीक राधिका सुमति रानी है।
तो वह भगवान जिन की आज्ञा को मानकर परमानन्द के समति अपने पति 'चेतन' से प्रेम करती जिसे अपने गुणों को गाता है। उसके जन्म जन्म के पाप भी पलायन पति के अनन्त ज्ञान, बल और वीर्य वाले पहलू पर एक
कर गए हैं। अब तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे निष्ठा है। किन्तु वह कर्मों की कुसंगत में पड़कर भटक गया
उसे संसार में फिर नहीं आना पड़ेगा। अब वह अपने मन है अत: बड़े ही मिठास भरे प्रेम से दुलराते हुए समति कहती भाये परम प्रखंडित सुख का विलास करेगा'। है, "ये लाल तुम किसके साथ कहाँ लगे फिरते हो । आज पति को देखते ही पत्नी के अन्दर से परापेपन का तुम ज्ञान के महल में क्यों नहीं पाते। तुम अपने हृदय-तल भाव दूर हो जाता है। वैधत्व हट जाती है और अद्वैधत में ज्ञानदृष्टि खोलकर देखो, दया, क्षमा, समता और उत्पन्न हो जाता है। ऐसा ही एक भाव बनारसीदास ने शांति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा में खडी हुई हैं। उपस्थित किया है। सुमति चेचन से कहती है, "हे प्यारे एक से एक अनुपम रूप वाली हैं । ऐसे मनोरम वातावरण चेतन ! तेरी ओर देखते ही परायेपन की गगरी फूट गई। को भूलकर और कहीं न जाइये । यह मेरी सहज प्रार्थना है।
दुविधा का अंचल हट गया और समूची लज्जा पलायन १. रूप की रसीली भ्रम कुलप की कीली,
कर गई। कुछ समय पूर्व तुम्हारी याद आते ही मैं तुम्हें शील सुधा के समुद्र झीलि सीलि सुखदाई है। खोजने के लिये अकेली ही राज पक्ष को छोड़कर भयावह प्राची ज्ञान मान की अजाची है निदान की,
कान्तार में घुस पड़ी थी। वहाँ काया नगरी के भीतर तुम सुराची निरवाची ठौर साँची ठकुराई है । धाम की खबरदार राम की रमनहार,
अनन्त बल और ज्योति वाले होते हुए भी कर्मों के प्रावरण राधा रस पंथनि में ग्रन्थनि में गाई है। में लिपटे पड़े थे। अब तो तुम्हें मोह की नींद छोड़ कर सन्तन की मानी निरवानी रूप की निसानी, सावधान हो जाना चाहिए"।
यात सुबुद्धि रानी राधिका कहाई है। नाटक समयसार, प्राचीन हिन्दी जैन कवि, दमोह,
१. देखो मेरी सखीये आज चेतन घर आवे । पृ० ७६.
काल अनादि फिरचो परवश ही, अब निज सुबहि चिताब, २. कहां कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल,
__ देखो ॥१॥ प्रावो क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में । नैकहू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि से ती, जनम जनम के पाप किये जे, ते छिन माहि बहावै । कसी कैसी नीकी नारी ठाढ़ी हैं टहल में ।
श्री जिन आज्ञा सिर पर धरतो, परमानंद गुण गावै ॥२॥ एक तें एक बनीं सुन्दर सुरूप घनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल में ।
देत जलाजुलि जगत फिरन को ऐसी जुगति बनावै । ऐसी विधि पाय कहूँ भूलि और काज कीजे, विलस सुख निज परम प्रखंडित, भैया सब मन भावै॥३॥
एतौ कह्यो मान लीजै वीनती सहल में। देखिये वही, परमार्थ पद पंक्ति, १४वां पर, पृ० ११४. 'भैया' भगवतीदास, ब्रह्मविलास, कार्यालय बंबई, द्वितीया वृत्ति, सन १९२६ ई०, शत प्रष्टोत्तरी,
२. बालम तुहु तन चितवन गागरि फूटि । २७ पद्य, पु.१४.
मंचरा गौ फहर
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२५८
अनेकान्त
एक सखी सुमति को लेकर, नायक चेतन के पास का वर्णन करने वाले कई रास 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में मिलाने के लिए गई। पहले दुतियां ऐसा किया करती थीं संकलित हैं। दूसरे प्रकार के विवाहों में सबसे प्राचीन वहां वह एक सखी अपनी बाला सुमति की प्रशंसा करते हुए जिनप्रभसूरि' का 'अन्तरंग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। चेतन से कहती है, "हे लालन ! मैं अमोलक वाल लाई हैं उपर्युक्त सुमति और चेतन दूसरे प्रकार के पति और पत्नी तुम देखो तो वह कैसी अनुपम सुन्दरी है। ऐसी नारी तो हैं। इसी के अन्तर्गत वह दृश्य भी प्राता है, जबकि पात्मा संसार में दूसरी नहीं है। और हे चेतन ! इसकी प्रीति भी रूपी नायक 'शिवरमणी के साथ विवाह करने जाता है। तुझ से ही सनी हुई है। तुम्हारी इस राधे की एक दूसरे प्रजयराज पाटणी के 'शिवरमणी विवाह' का उल्लेख हो पर अनन्त रीझ है । उसका वर्णन करने में मैं पूर्ण असमर्थ
चुका है। वह १७ पद्यों का एक सुन्दर रूपक काव्य है। उन्होंने जिन जी की रसोई में तो विवाहोपरान्त सुस्वादु
भोजन और वन विहार का भी उल्लेख किया है। माध्यात्मिक विवाह
बनारसीदास ने तीर्थकर शांतिनाथ का शिवरमणी इसी प्रेम के प्रसंग में आध्यात्मिक विवाहों को लिया
लपा से विवाह दिखाया है। शांतिनाथ विवाह मंडप में पाने
है जा सकता है। ये 'विवाहला', 'विवाह', 'विवाहलउ' और
वाले हैं। होने वाली बधू की उत्सुकता दबाये नहीं दबती।
न 'विवाहलो' आदि नामों से अभिहित हुए हैं। इनको दो
वह अभी से उनको अपना पति मान बैठी है । वह अपनी भागों में विभक्त किया जा सकता है-एक तो वह जब
सखी से कहती है, "हे सखी आज का दिन अत्यधिक दीक्षा ग्रहण के समय प्राचार्य का दीक्षाकुमारी अथवा संय
मनोहर है, किन्तु मेरा मन भाया अभी तक नहीं आया। मश्री के साथ विवाह संपन्न होता है, और दूसरा वह जब
वह मेरा पति सुख-कंद है और चन्द्र के समान देह को मात्मा रूपी नायक के साथ उसी के किसी गुण रूपी
धारण करने वाला है । तभी तो मेरा मन-उदधि प्रानन्द से कुमारी की गाँठे जुड़ती हैं। इनमें प्रथम प्रकार के विवाहों
आन्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र-चकोर पिउ सुधि पावत वन मैं पैसिउ वेलि ।
सुख का अनुभव कर रहे हैं। उसकी सुहावनी ज्योति की छाड़त राज डगरिया भयउ अकेलि बालम० ॥३॥ कीत्ति संसार में फैली हुई है । वह दुख रूपी अंधकार के काय नगरिया भीतर चेतन भूप ।
समूह को नष्ट करने वाली है। उनकी वाणी से अमृत करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम० ॥४॥ झरता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त चेतन बुझि विचार धरहु सन्तोष ।
हुए। राग दोष दुइ बंधन छूटत मोष, बालम० ।।१३॥ बनारसी विलास, अध्यात्म पद पंक्ति, पु० २२८,२२६.
१. देखिए 'हिन्दी के भक्ति काव्य में जैन साहित्य कारों १. लाई हों लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी
का योगदान बनी है।
छठा अध्याय' पृ० ६५६. ऐसी कहुँ तिहुँ लोक में सुन्दर, और न नारि अनेक २. सहि एरी! दिन आज सुहाया मुझ भाया पाया धनी हैं।
नहीं घरे। याहि ते तोहि कहूँ नित चेतन, याहू की प्रीति जु तो सौं सहि एरी ! मन उदधि अनन्दा सुख, कन्दा चन्दा सनी है।
देह धरे॥ तेरी और राधे की रीमि अनंत जु मो पै कहूँ यह जात चन्द जिवां मेरा वल्लभ सोहे, नैन चकोरहिं सुक्ख गनी है।
करै । भैय्या भगवतीदास, ब्रह्मविलास, बम्बई, १९२६ ई. जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमर वितान
शत प्रष्टोत्तरी, २८ वां पद्य, पृ० १४
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मध्यकालीन जन हिन्दी काम में प्रेमभाव
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तीर्थकर अथवा प्राचार्यों के संयम श्री के साथ विवाह है, किन्तु बसी सरस नहीं जैसी कि हेमविजय ने अंकित होने के वर्णन तो बहुत अधिक हैं। उनमें से 'जिनेश्वर को है। सूरि पौर जिनोदय सूरि विवाहला' एक सुन्दर काव्य है। कवि भूधरदास ने नेमीश्वर और राजुल को लेकर इसमें इन सूरियों का संयम श्री के साथ विवाह होने का अनेक पदों का निर्माण किया है। एक स्थान पर तोराजुल वर्णन है। इसकी रचना वि. स. १३३१ में हुई थी। हिन्दी ने अपनी मां से प्रार्थना की, "हे मां देर न करो। मुझे के कवि कुमुदचन्द्र का 'ऋषम विवाहला' भी ऐसी ही एक शीघ्र ही वहां भेज दो, जहां हमारा प्यारा पति रहता कृति है। इसमें भगवान् ऋषभनाथ का दीक्षा-कुमारी के है। यहां तो मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, चारों ओर साथ विवाह हुमा है। श्रावक ऋषभदास का 'मादीश्वर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता है । न जाने नेमि रूपी विवाहला' भी बहुत ही प्रसिद्ध है । विवाह के समय भग- दिवाकर का मुख कब दिखाई पड़ेगा। उनके विना हमारा वान ने जिस चनडी को प्रोढा था, वैसी चूड़नी छपाने के हृदय रूपी अरविन्द मरमाया पडा है।"" विय-मिलन की लिये न जाने कितनी पत्नियां अपने पतियों से प्रार्थना करती विकट चाह है, जिसके कारण लड़की मां से प्रार्थना करते रही हैं । १६ वीं शती के विनयचन्द्र की 'चूनड़ी' हिन्दी हुए भी नहीं लजाती । लौकिक प्रेम-प्रसंग में लज्जा माती साहित्य की प्रसिद्ध रचना है। साधुकीत्ति की चूनड़ी में है, क्योंकि उसमें काम की प्रधानता होती है, किन्तु यहाँ तो संगीतात्मक प्रवाह भी है।
तो अलौकिक और दिव्य प्रेम की बात है। अलौकिक की तीर्थकर नेमीश्वर और राजुल का प्रेम
तल्लीनता में व्यावहारिक उचित अनुचित का ध्यान नहीं नेमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर जैन रहता। हिन्दी के भक्त कवि दाम्पत्य भाव प्रकट करते रहे हैं। राजुल के वियोग में 'सम्वेदना' की प्रधानता है। राजशेखर सूरि ने विवाह के लिये राजुल को ऐसा सजाया भूधरदास ने राजुल के अन्तः स्थ विरह को सहज स्वाहै कि उसमें मृदुल काव्यत्व ही साक्षात् हो उठा है। भाविक ढंग से अभिव्यक्त किया है । राजुल अपनी सखी किन्तु वह वैसी ही उपास्य बुद्धि से संचालित है, जैसे राधा- से कहती है । "हे सखि । मुझे वहां ले चल, जहां प्यारे सुधानिधि में राधा का सौन्दर्य । राजुल की शील-सती जादौं पति रहते हैं । नेमि रूपी चन्द्र के बिना यह प्राकाश शोभा में कुछ ऐसी बात है कि उससे पवित्रता को प्रेरणा का चन्द्र मेरे सब तन-मन को जला रहा है । उसकी किरण मिलती है, वासना को नहीं। विवाह-मंडप में विराजी वधू नाविक के तीर की भांति अग्नि के स्फुलिंगों को बरसाती जिसके आने की प्रतीक्षा कर रही थी, वह मूक पशुओं के है। रात्रि के तारे तो अंगारे ही हो रहे हैं।" कहीं कहीं करुण क्रन्दन से प्रभावित होकर लौट गया । उस समय राजुल के विरह में 'रूहा' के दर्शन होते हैं, किन्तु उसमें वधू की तिलमिलाहट और पति को पा लेने की बेचैनी -
१. मां विलंब न लाब पठाव वहां री, जहां जगपति पिय का जो चित्र हेमविजय ने खींचा है। दूसरा नहीं खींच
प्यारो। सका । हर्षकीति-का ! 'नेमिनाथ राजुल गीत' भी एक और न मोहि सुहाय कछ अब, दीसे जगत अंधारो सुन्दर रचना है। इसमें भी नेमिनाथ को पा लेने की बेचैनी री ॥१॥
मैं श्री नेमि दिवाकर कौं प्रब, देखौं बदन उजारो। सहु काल विनानी अम्रतवानी, अरु मृग का लांछन
बिन पिय देख मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारो कहिये।
री ॥२॥ श्री शान्ति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, माज मिला मेरी मूधरदास, मूधर विलास, कलकत्ता, १३ वां पद,१०५ सहिये ।
२. तहाँ ले चल री, जहां जादौंपति प्यारो। बनारसी विलास, श्रीशान्ति जिन स्तुति, पद्य १
नेमि निशाकर बिन यह चन्दा, प्रथम पद्य, पृ० १८६.
तन मन दहत सकलरी ॥तहा० ॥१॥
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अमेकांत
वर्ष १५
नायिका के 'पेंडुलम' हो जाने की बात नहीं आ पाई है। रह रहा हो । तीर्थकर नेमीश्वर वीतरागी होकर निराकुयद्यपि राजुल का 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ लता पूर्वक गिरिनार पर तप कर रहे हैं। किन्तु राजुल उसके समीप नहीं ले जाया जा सकता, किन्तु ऐसा नहीं को शंका है, जब सावन में घनघोर घटायें जुड़ पायेंगी, कि उसकी गर्मी से जड़काले में लुयें चलनी लगी हों। चारों ओर से मोर शोर करेंगे, कोकिल कुहुक सुनावेगी, राजुल अपनी सखी से कहती है, "नेमिकुमार के बिना दामिनी दमकेगी और पुरवाई के झोंके चलेंगे, तो वह सुख जिय रहता नहीं है । हे सखी ! देख मेरा हृदय कैसा तच पूर्वक तप न कर सकेंगे। पौस के लगने पर तो राजुल रहा है। तू अपने हाथ को निकट लाकर देखती क्यों की चिन्ता और भी बढ़ गई है। उसे विश्वास है कि पति नहीं । मेरी विरह जन्य उष्णता कपूर और कमल के पत्तों का जाड़ां बिना रजाई के नहीं कटेगा । पत्तों की धुवनी से से दूर नहीं होगी। उनको दूर हटा दे। मुझे तो 'सियरा तो काम चलेगा नहीं। उस पर भी काम की फौजें इसी कलाधर' भी 'करूर' लगता है। प्रियतम प्रभु नेमिकुमार ऋतु में निकलती हैं, कोमल गात के नेमीश्वर उससे लड़ के बिना मेरा हियरा' शीतल नहीं हो सकता'।" पिय के न सकेंगें। वैसाख की गर्मी को देखकर राजुल और भी वियोग में राजुल भी पीली पड़ गई है। किन्तु ऐसा नहीं अधिक व्याकुल है; क्योंकि इस गर्मी में नेमीश्वर को प्यास उदय हुआ कि उसके शरीर में एक तोला मांस भी न रहा हो लगेगी, तो शीतल जल कहाँ मिलेगा, और तीव्र धूप से तचते विरह से भरी नदी में उसका हृदय भी बहा है, किन्तु पत्त्थरों से उनका शरीर दग जायेगा। उसकी आंखों से खून के मांसू कभी नहीं ढुलके । हरी तो वह भी भर्ता भेंट कर ही होगी, किन्तु उसके हाड़ सूख
___ कवि लक्ष्मी बल्लभ का 'नेमिराजुल बारहमासा' भी कर सारंगी कभी नहीं बने ।
एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य है । प्रकृति के
रमणीय सन्निधान में विरहणी के व्याकुल भावों का सरस बारह मासा
सम्मिश्रण हुमा है, "श्रावण का माह है, चारों भोर से नेमीश्वर और राजुल को लेकर जैन हिन्दी साहित्य में
विकट घटायें उमड़ रही हैं । मोर शोर मचा रहे हैं । आसबारहमासों की भी रचना हुई है। उन सब में कवि विनोदी
मान में दामिनी दमक रही है। यामिनी में कुम्भस्थल जैसे लाल का 'बारहमासा' उत्तम है। प्रिया को प्रिय के सुख के
स्तनों को धारण करने वाली भामिनियों को पिय का संग प्रनिश्चय की प्राशंका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुख से
भा रहा है। स्वाति नक्षत्र की बूंदों से चातक की पीड़ा किरन किधी नाविक-शर-तति के, ज्यों पायक की झलरी ।
१. पिया सावन में व्रत लीजे नहीं,
घनघोर घटा जुर आवंगी। तारे हैं अंगारे सजनी, रजनी राकस दल री॥तहां०॥२॥
चहुँ ओर ते मोर जु शोर करें, देखिए वही, ४५ वा पद, पृ० २५
वन कोकिल कुहक सुनावंगी। १. नेमि बिना न रहे मेरो जियरा।
पिय रैन अन्धेरी में सूझ नहीं, हेर री हेली तपत उर कैसो।
कछु दामिन दमक डरावंगी। लावत क्यों निज हाथ न नियरा ॥१॥ पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, करि करि दूर कमल दल,
छिन में तप तेज छुड़ावैगी॥ लगत करूर कलाधर सियरा ॥नेमि०॥२॥
कवि विनोदीलाल, बारहमासा नेमि राजुल का भूघर के प्रभु नेमि पिया बिन,
बारहमासा संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, शीतल होय न राखुल हियरा ॥नेमि।।३।।
कलकत्ता, ४२॥ पद्य, पृ० २४ । देखिए वही, २० वा पद, पृ० १२ २. देखिये वही, १४वां पद, पृ०६, और मिलाइये जायसी
२. देखिये वही, १४ वां पद्य, पृ० २७ । के नागमती विरह वर्णन से ।
३. देखिए वही, २२ वां पद्य, पृष्ठ २६ ।
लगन
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मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में प्रेममाव
फिरल ६
भी दूर हो गई है। शुष्क पृथ्वी की देह भी हरियाली को पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुल का न तो पिय श्राया और न पतियां " ठीक इसी भांति एक बार जायसी की नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी। "चातक के गुस में स्वाति नक्षत्र की बूंदें पड़ गई, और समुद्र की सब सीपें भी मोतियों से भर गईं। हंस स्मरण कर-कर के अपने तालाबों पर माये, सारस बोलने लगे और लंजन भी दिखाई पड़ने लगे । कांसों के फूलों से वन में प्रकाश हो गया, किंतु हमारे कन्त न फिरे, कहीं विदेश में ही भूल गये । " कवि भवानीदास ने भी नेमिनाथ बारहमासा लिखा था, जिसमें कुल १२ पद्य हैं । श्री जिनहर्ष का 'नेमि बारहमासा" भी भी एक प्रसिद्ध काव्य है। उसके १२ सर्वयों में सौंदर्य धीर श्राकर्षण व्याप्त है । श्रावण मास में राजुल की दशा को उपस्थित करते हुए कवि ने लिखा है । " श्रावण मास है, घनघोर घटायें उन्न भाई है। झलमलाती हुई बिजुरी चमक रही है, उसके मध्य से बज सी ध्वनि फूट रही है, जो राजुल को विष बेलि के समान लगती है । पपीहा पिउपिउ रट रहा है। दादुर धौर मोर बोल रहे हैं। ऐसे समय
१. उमटी विकट घनघोर घटा चिहुँ धोरनि मोरनि सोर मचायो । चमके दिवि दामिनि यामिनि कुंभय भामिनि कूं पिय को संग भायो । लिव चातक पीठ ही पीड़ सई भई राजहरी मुंद्र देह दिपायो । अली, श्रावण
पतियां पं न पाई री प्रीतम की आयो पं नेम न भायो ।
कवि लक्ष्मीवल्लभ, नेमिराजुल बारहमासा, पहला पद्य, इसी प्रबन्ध का छठा अध्याय, पृष्ठ ५६४ २. स्वाति बूद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे । सरवर संवरि हंस चलि आये । सारस कुरलहिं खंजन देखाये ॥ भा परगास कांस वन फूले कंत न फिरे विदेसहि भूले ॥ जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल संपादित, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, तृतीय संस्करण, वि० सं० २००३, ३०।७, पृष्ठ १५३
२६१
में यदि नेमीश्वर मिल जायें तो राजुन अत्यधिक सुखी हो।" प्राध्यात्मिक होलि
जैन साहित्यकार प्राध्यात्मिक होलियों की रचना करते रहे हैं। जिनमें होली के अंग उपांगों का आत्मा से रूपक मिलाया गया है। उनमें आकर्षण तो होता ही है । पावनता भी आ जाती है। ऐसी रचनाओं को 'फागु' कहते हैं । कवि बनारसीदास के 'फागु' में श्रात्मारूपी नायक ने शिवसुन्दरी से होली खेली है । कवि ने लिखा है, "सहज धानन्दरूपी बसन्त भा गया है और शुभ भावरूपी पत्ते लहलहाने लगे हैं । सुमतिरूपी कोकिला गहगही होकर गा उठी है, और मनरूपी मौरे मदोन्मत्त होकर गुंजार कर रहे हैं। सुरतिरूपी श्रग्नि ज्वाला प्रकट हुई है, जिससे भ्रष्ट कर्मरूपी वन जल गया है। मगोचर प्रमूत्तिक आत्मा धर्मरूपी फाग
खेल रहा है। इस भाँति श्रात्मध्यान के बल से परम ज्योति
प्रकट हुई, जिससे भ्रष्टकर्म रूपी होली जल गई है और आत्मा शांत रस में मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा ।"
जिनहर्ष, नेमि बारहमासा,
१. घन की घनघोर घटा उनही, बिजुली चमकंति झलाहलि सी । विधि गाज अगाज अवाज करंत सु, लागत मो विषवेति जिसी ॥ पपीया पिउ पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदै ऊलिसी । ऐसे श्रावण में यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी । इसी प्रबन्ध का छठा अध्याय, पृ० ५०२ । २. विषम विरष पूरो भयो हो, भायो सहज वसंत ॥ प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ॥ सुमति कोकिला गहगही हो, वही मपूरव बाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ताउ ॥ शुभ दल पल्लव लहलहे हो, होंहि अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेल विस्तार ॥ सुरति पनि ज्याना जगी हो, समकित भानु धमंद हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरंद ॥ परम ज्योति प्रगट भई हो, लागी होलिका भाग । आठ काठ सब जरि बुझे हो गई तलाई भाग ॥ बनारसीदास, बनारसीविलास ।
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५६२
प्रकांत
कवि धानत राय ने दो जत्थों के मध्य होली की रचना की है। एक ओर तो बुद्धि, दया, क्षमारूपी नारियां हैं और दूसरी ओर आत्मा के गुणरूपी पुरुष हैं । ज्ञान और ध्यानरूपी डफ तथा ताल बज रहे हैं, उनसे अनहद रूपी घनघोर निकल रहा है है । धर्मरूपी लाल रंग का गुलाल उड़ रहा है और समतारूपी रंग दोनों हीं पक्षो ने घोल रक्खा है। दोनों ही दल प्रश्न के उत्तर की भांति एक दूसरे पर पिचकारी भर-भर कर छोड़ते हैं। इधर से पुरुषवर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, तो उधर से स्त्रियां पूछती हैं कि तुम किसके छोरा हो । आठ कर्मरूपी काठ अनुभव रूपी अग्नि में जल-बुझ कर शांत हो गये । फिर तो सज्जनों के नेत्र रूपी चकोर, शिवरमणी के आनन्दकन्द की छति को टकटकी लगाकर देखते ही रहे'" भूधरदास की नायिका ने भी अपनी सखियों के साथ, श्रद्धा नगरी में आनन्द रूपी जल से रुचि रूपी केशर घोल कर और रंगे हुये नीर को उमंगरूपी पिचकारी में भर कर अपने प्रियतम के ऊपर छोड़ा। इस भांति उसने अत्यधिक आनन्द का अनुभव किया ।
१. भायो सहज बसंत सेलें सब होरी होरा। उत बुधि दया छिमा बहु ठाढ़ी,
इत जिय रतनसजे गुन जोरा ॥ १ ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल वजत हैं,
अनहद शब्द होत घनघोरा । गुलाल उड़त है,
धरम सुहाग समता रंग दुहू ने घोरा ॥२॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी,
छोरत दोनों करि करि जोरा । नारि तुम काकी,
इत तें कहे उत तं कहै कौन को छोरा ॥३॥ आठ काठ अनुभव पावक में, जल बुझ शान्त भई सब श्रोरा । द्यानत शिव श्रानन्द चन्द छवि,
देखहि सज्जन नैन चकोरा ||४|| द्यानतराय द्यानतपद संग्रह । कलकत्ता, ८६वाँ पद पृष्ठ १६,२७ २. सरध। गागर में रुचि रूपी, केसर घोरि तुरंत । श्रानन्द नीर उमंग पिचकारी, छोड़ो नीकी मंत ॥ होरी खेलोंगी, आये चिदानन्द कन्त ॥ भूधरदास, 'होरी खेलोंगी' पद, अध्यात्मपदावली, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृष्ठ ७५ ।
वर्ष १५
अनन्य प्रेम
प्रेम में अनन्यता का होना अत्यावश्यक है । प्रेमी को प्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है मां-बाप ने राजुल से दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया; क्योंकि राजुल की नेमीश्वर के साथ भांवरें नहीं
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पढ़ने पाई थीं। किन्तु प्रेम भांवरों की अपेक्षा नहीं करता । राहुल को तो शिवा नेमीश्वर के अन्य का नाम भी रुचि कारी नहीं था। इसी कारण उसने मां-बाप को फटकारते हुए कहा, "हे तात! तुम्हारी जीभ खूब चली है, जो अपनी लड़की के लिए भी गालियाँ निकालते हो। तुम्हें हर बात सम्हाल कर कहना चाहिए। सब स्त्रियों को एक सी न समझो । मेरे लिये तो इस संसार में केवल नेमि प्रभु ही एकमात्र पति है।"
महात्मा आनन्दघन अनन्य प्रेम को जिस भाँति प्रध्यात्मपक्ष में घटा सके, वैसा हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका । कबीर में दाम्पत्य भाव है और श्राध्यात्मिकता भी, किन्तु वैसा आकर्षण नहीं, जैसा कि मानन्दमन में है। जायसी के प्रबन्ध-काव्य में अलौकिक की ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लौकिक कथानक के कारण उसमें वह एकतानता नहीं निभ सकी है, जैसी कि श्रानन्दघन के मुक्तक पदों में पाई जाती है । सुजान वाले घनानन्द के बहुत से पद भगवद्भक्ति में जैसे नहीं रूप सके, जैसे कि सुजान के पक्ष में घटे हैं। महात्मा श्रानन्दघन जैनों के एक पहुँचे हुए साधु ये। उनके पदों में हृदय की तल्लीनता है । उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, "सुहागिन के हृदय में निर्गुण
२. काहे न बात सम्भाल कही तुम जानत हो यह बात भली है । गानियां काढ़त हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ चली है ॥ मैं सब को तुम तुल्य गिनी तुम जानत ना यह बात रली है। या भव में पति नेमि प्रभू वह लाल विनोदी को नाथ बली है । विनोदीलाल नेमि व्याह, जैन सिद्धान्त भवन धारा की हस्तलिखित प्रति ।
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किरण ६
मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में प्रेनभाव
ब्रह्म की अनुभूति से ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकाल से तो उसे लगातार एकतान में पिय रस का मानन्द उपलब्ध चली पाने वाली प्रज्ञान की नींद समाप्त हो गई। हृदय हो रहा है। के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज. ज्योति को ठीक उसी भांति बनारसीदास की नारी के पास भी प्रकाशित किया है, जिससे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और निरंजनदेव स्वयं प्रकट हुए हैं। वह इधर-उधर भटकी अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई। प्रेम एक ऐसा अचूक तीर है नहीं। उसने अपने हृदय में ध्यान लगाया और निरंजनदेव कि जिसके लगता है वह ढेर हो जाता है। वह एक ऐसा मा गये । अब वह अपने खंजन जैसे नेत्रों से उसे पुलकायवीणा का नाद है, जिसको सुनकर प्रात्मारूपी मृग तिनके मान होकर देख रही है और प्रसन्नता से भरे गीत गा तक चरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेम से मिलता है, रही है। उसके पाप और भय दूर भाग गये हैं। परमात्मा उसकी कहानी कही नहीं जा सकती।
जैसे साजन के रहते हुए पाप और भय कैसे रह सकते हैं। भक्त के पास भगवान स्वयं पाते हैं, भक्त नहीं जाता।
उसका साजन साधारण नहीं है, वह कामदेव जैसा सुन्दर जब भगवान पाता है, तो भक्त के आनन्द का पारावार
और सुधारस सा मधुर है। वह कर्मों का क्षय कर देने नहीं रहता। आनन्दघन की सुहागिन नारी के नाथ भी ।
___ से तुरन्न मिल जाता है। स्वयं पाये हैं और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार २. माज सुहागन नारी ॥प्रवधू पाज। किया है। लम्बी प्रतीक्षा के बाद आये नाथ की प्रसन्नता मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंगचारी॥ में, पत्नी ने भी विविध भांति के श्रृंगार किये हैं। उसने प्रेम,
अबघू०॥१॥ प्रतीति, राग और रुचि के रंग में रंगी साड़ी धारण की है,
प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जिनी सारी।
महिंदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी॥ भक्ति की महंदी रांची है और भाव का सुखकारी अंजन
अवधू•॥२॥ लगाया है। सहज स्वभाव की चूड़ियां पहनी हैं और शिखा सहज सुभाव चूरियां पेनी, थिरता कंगन भारी । का भारी कंगन धारण किया है । ध्यान रूपी उरवसी ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुन माल अधारी। गहना बक्षस्थल पर पड़ा है और पिय के गुण की माला को
अवधू० ॥३॥ गले में पहना है। सुरत के सिंदूर से मांग को सजाया है
सुख सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी संभारी।
उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन, पारसी केवल कारी और निरति की वेणी को आकर्षक ढंग से गूंथा है। उसके
अबघू० ॥४॥ घर त्रिभुवन की सबसे अधिक प्रकाशमान ज्योति का जन्म
उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी। हुआ है। वहाँ से अनहद का नाद भी उठने लगा है । अव ।
झड़ी सदा प्रानन्दघन बरावत, बिन भोरे इक तारी॥ १. सुहागण जागी अनुभव प्रीत, सुहा०॥
देखिये वही, २०वां पद । निन्द प्रसान अनादि की मिट गई निज नीति ।
१. म्हारे प्रगटे देव निरंजन । सुहा० ॥१॥
अटको कहा कहा सर मटकत कहा कहूँ जन रंजन ।। घट मन्दिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप ॥
म्हारे ॥२॥ पाप पराइ पाप ही, ठानत वस्तु अनूप। सुहा ॥२॥
खंजन दृग दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रंजन । कहा दिखावु और कू. कहा समझाडं मोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ठोर ।।
सजन घट अंतर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ।। सुहा० ॥३॥
म्हारे ॥२॥ नाद विलुह्वो प्राण फू, गिने न तृण मग लोय ।
वो ही कामदेव होय काम घट वो ही सुधारस मंजन । मानन्दघन प्रभु प्रेम का, अकथ कहानी वोय ।।
और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन । सुहा० ॥४॥
म्हारे ॥३॥ महात्मा मानन्दघन, प्रानन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म बनारसीदास, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, चौथा पद, पृष्ठ ७
'दो नये पर' पृ० २४० क ।
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धर्म स्थानों में व्याप्त सोरठ की कहानी
महेन्द्र भनावत, एम० ए० रात्रि को किसी धर्मस्थान में सामायिक आदि करते
नाम लेता तो बामण मरे जी काई समय धार्मिक महिलायें नाना स्तवन, भजन तथा
मुख देखंता उसका बाप । कहानी-किस्सों की झड़ी लगा देती हैं। कहानियों में उत्तर में राजा जी ने लिखाधार्मिक कथानक लिए कई कहानियां प्रत्यन्त लोकप्रिय हैं
राजा जी कागद मोकल्यो जी काई जिनमें पवित्र जीवन जीने की कला के साधन, संयम,
सुणो रागी जी मोरी बात। त्याग, तपस्या आदि मानवी गुणों के संकेत मिलते हैं।
खोटा नगतरां रा बाई जाया जी काई यहां सोरठ की सुप्रसिद्ध कहानी दी जा रही है जो मेवाड़
कांई होसी हवाल। प्रदेश की प्रोर धर्मस्थानों में अत्यन्त लोकप्रिय रही । है
सतरे सोनी ने तेड़जो जी काई सोरठ की कहानी
सोना रो पिंजरो घड़ाय । एक राजा था जिसके सात वधुयें। ६ मानेती तथा
ऐरे मेरे तो हीरा जड़े जी कांई एक कोमानेती परन्तु पुत्र किसी के भी नहीं। राजा
लाला माय लपेट । व्यापार के लिए गया था। कोमानेती को गर्भवास हमा, उस पिंजरे में कन्या को बिठाकर उलपुल नदी में महीने दो महीने, चार ६ महीने टले । नवम मास कन्या ने बहा देना।' सोनी को बुलाया पिंजरा बनवाया, हीरे पन्ने जन्म लिया। नाम निकालने ज्योतिषी पाया। मानेतियों जड़े और अन्दर लड़की को बिठाई, दासी को कहाने सोचा अपने किसी के पुत्र नहीं है, राजा पाते ही अपने 'इसे नदी में बहा दो, राजा जी का हुक्म है।' उलफूल को कोमानेती कर देगा, इसलिए ज्योतिषी को अपनी ओर नदी माई, दासी बहाने गई, बहाते-बहाते लड़की बोलीसे एक-एक थान दे दें और उसका नाम बदलवाने के लिए
उलल फूलल तो नदी बहै ए बाई कह दें। ऐसा ही हुमा । ज्योतिषी ने उनके कहे अनुसार
क्यूं बगाड़ी म्हारी मोत । बात मान ली और इस प्रकार नाम निकाला
जमना ने गंगा खड़े पड़ी ए बाई नाम लेतां तो बामण मरे जी काई
__ क्यू ए बगाड़े म्हारी मोत । मुख देखतां उसका बाप ।
दासी ने उसे बहा दी। पिंजरा बहता-बहता चंपावती चंवरी चढ़तां वर मरे जी काई
नगरी पाया जहाँ कुम्हार मिट्टी खोद रहा था तथा धोबी सोरठ जिसका नाम।
कपड़े धो रहा था। धोबी ने दूर से बहते हुए पिंजरे को ब्राह्मण ने कहा-'क्या नाम निकालू बाई जी ने तो
देख कुम्हार को आवाजदी-'मेरे भो, पाल कुम्हार ! भारी नक्षत्रों में जन्म पाया है।' ऐसा सुन कोमानेती ने
नदी में बहता हुमा पिंजरा पा रहा है, इसे अपन नदी में राजा को पत्र लिखा कि कन्या ने जन्म लिया है परन्तु
कूद कर निकालें परन्तु शर्त यह कि यदि अंदर का धन भारी नक्षत्रों में । ज्योतिषी ने नाम निकाला हैं ।
तुम लोगे तो बाहर का मैं, और यदि बाहर का तुम लोगे राणीजी कागद मोकल्यो जी कांई
तो भीतर का मैं।' दोनों ने नदी में गिरकर पिंजरा सुणो राणा जी मोरी बात।
निकाला । कन्या को बैठी देख उन्होंने कहा१. मेवाड़ में कही जाने वाली इस कहानी का हिन्दी 'तुम इतनी सुन्दर कौन हो।' रूपान्तर यहाँ दिया जा रहा है।
वह बोली-'राजा की कन्या ।'
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किर
पिंजरा धोबी ले गया और लड़की ( सोरठ) को कुम्हार । कुम्हार ने उसे अपने घर में रखी जहां वह बड़ी हुई, धर्म-ध्यान करती, कुम्हार के लिए भोजन पकाती और आनन्द से रहती ।
धर्म स्थानों में व्याप्त सोरठ की कहानी
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एक दिन वहाँ वनजारों की बालदें आई, वणजारे दोनों भाई थे। पहले छोटे भाई ने आकर कुम्हार के वहाँ बालद छोड़ी बाद में बड़े भाई ने दोनों भाइयों की निगाहें सोरठ पर पड़ीं। उन्होंने सोचा कि कुम्हार के घर ऐसी सुन्दर कन्या यह कौन है ? उन्होंने कुम्हार को कहा'कुम्हार भाई, जरा पानी तो पिलाओ, प्यास लगी है, तुम्हारे यहां यह कौन बाई है, जरा पानी तो मंगवा दो ।' कुम्हार ने सोरठ से पानी लाने को कहा। सोरठ पानी भर लाई । वणजारों ने जब पीने के लिए अपना धोबा (हाथ फैलाये) मांडा तो सोरठ ने कहाचांगल्यां तो धारी झणकारी रे, पाणी गयो रे पाताल |
तरसां तो थाने नहीं लागी रे बीर । जनजार्थ माय
राजी हो गया ।
वणवारों ने कुम्हार को सोरठ के साथ शादी करने के लिए कहा। कुम्हार इस बात पर सोरठ की शादी करा दी। सोरठ के लिए दोनों भाई आपस में झगड़ने लगे। दोनों उसे अपनी-अपनी बताने लगे। उन्हें लड़ते देख एक राहगीर ने कहा कि कुछ ही दूर एक नगरी है वहां का पटेल अच्छा न्याय करता है सो वहाँ चले जाओ ।
दोनों चले, कुछ ही धागे राजा मिला, उधर से पटेल की पुत्री मिली । वणजारों ने पटेल के लिए कहा -- इस पर लड़की ने कहा- 'उन्हें धंधे हुए बारह महीने होने आये हैं ।'
दूसरा दरवाजा मिला जिसमें पटेल की पत्नी घाती हुई मिली। पूछने पर उसने कहा- 'उन्हें मरे पूरा वर्ष होने आया है।' तीसरे दरवाजे पटेल का पुत्र मिलाउसने कहा- 'उन्हें बहरे हुए बारह वर्ष होने पाए हैं।' चौवे दरवाजे पर स्वयं पटेल हो मिल गए। बणजारों ने अपनी बात कह सुनाई, साथ ही दरवाजों पर घटित घटना
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भी कह सुनाई। कारण पूछते हुए उत्तर में पटेल ने कहा'लड़की ने मुझे अंधा कहा कारण कि उसकी मैंने अभी तक शादी नहीं की है, यद्यपि वह पूर्ण यौवना हो गई है। पत्नी से मेरी बोल बात नहीं है, इसलिए उसने मेरा मरना कहा । पुत्र की बात मैं सुनी अनसुनी कर देता हूँ इसलिए उसने मुझे बहरा कहा।' अन्त में पटेल ने वणजारों के न्याय के लिए नगरी के राजा का नाम बताया । वणजारे राजा के पास गये और सारी बात कह सुनाई। राजा ने कहा - 'तुम दोनों बेवकूफ हो इसके साथ तो मैं स्वयं शादी करूँगा ।' नौकर को आज्ञा दी गई। चंवरी बनाई गई । विवाह की तैयारी हो गई । सोरठ बोलीलांड जस्यो तो गौर नहीं जी कांई, गोर जसी नहीं खांड ।
नाम लेतां तो बामण मरे जी कांई, मुख देखता उसका बाप ।
नौकर ने राजा से अर्ज किया परन्तु राजा ने सोरठ की एक भी बात न सुनी। चंवरी की ओर राजा ने प्रस्थान किया ।
तब सोरठ ने कहा
-
गोर दे तो खांड नहीं जी कोई
खांड जस्यो गोर
एक कारण है देखियो जी कोई
बेटी परणे बाप |
यह सुन राजा ने नौकरों से कहा- 'निकालो ! निकालो !! इसे ।'
जाते समय सोरठ ने कहा
मलणो है तो भलो दादा जी,
नीतर मलणो आगे अवतार । नहीं पीयर भी सासरी जी कोई नहीं मांय मुख्यार |
वणजारे उसे ले गये और एक नवखंडी हवेली में उसे रख दी। वहाँ उसके लिए एक दासी की व्यवस्था कर दी ।
एक दिन राजा का भानजा 'वीज्या' उधर से निकला । सोरठ की घोर अचानक उसकी दृष्टि गई। उसने पर श्राकर मामा (राजा) से कहा कि यदि मैं एक प्रत्यन्त
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ही सुन्दर लड़की लाकर दूं तो तुम मुझे क्या दोगे ? राजा कहलवाया कि सोरठ को सूचना दो कि उसका मामा ने कहा-पाधी गद्दी यानी आधा राज्य ।।
पाया है। सोरठ ने कहलवाया कि मेरा कोई मामा नहीं वीज्या सोरठ को प्राप्त करने के लिए जोगी की है। वीज्या बाहर से चिल्लाया-'चल ! मेरे साथ चल । पोशाक धारण कर देवी के मंदिर में पहुंचा और सोरठ नही तो तुम्हारी दासी लीलावती को पीटूंगा और टुकड़ेकी प्राप्ति की प्रार्थना करने लगा। मंदिर में वोज्या के टुकड़े कर डालूंगा।' इस पर सोरठ बोली-'दासी को भजन इतनी मस्ती और भक्ति भरे लग रहे थे कि सुनने मत पीट, मैं ही तुम्हारे साथ चलने को तत्पर हूँ।' वालों की खासा भीड़ सी इकट्ठी हो गई। मंदिर के पास
xxx ही बावड़ी थी जहाँ सोरठ की दासी पानी भरने पाई,
प्रागे-मागे वीज्या, उसके पीछे-पीछे सोरठ विलाप उसने भी वीज्या के भजन सुने । हवेली पाकर सोरठ से सारी बात कह सुनाई। सोरठ ने उस जोगी को अपने
करती हुई धीरे-धीरे चल रही है। बीज्या तेज भागता
हुमा हर्ष के मारे फूला मामा के पास पहुंचा और शुभ यहां बुलाने के लिए कहा। दासी गई जोगी को बुला लाई। जोगी ने अच्छे-अच्छे भजन सुनाए । ज्यों ही सोरठ
संवाद कह सुनाया । सोरठ रास्ते में ही सखियों के ठिकाने उसे भिक्षा देने लगी कि उसने कहा
रुक गई। साध्वियों के दर्शन कर साध्वी बनने की भावना
आई। साध्वियों ने कहा-'तुम्हें दीक्षा दिलाने वाला अनधन लछमी म्हारे पन्त धणी पो बाई जी
कौन है ?' बोरा भरपा रे भंडार । थारा तो हि बड़ा रो हार देवो नी बाई जी,
सोरठ ने उत्तर दिया-पाज्ञा देने वाले भी पाप है दो दन पेरे म्हारी जोगड़ी।
मारने वाले भी पाप है सोरठ ने उसे खूब डांटा और वहाँ से भगा दिया ।
और तारने वाले भी आप हैं।' जोगी (वीज्या) ने नई तरकीव सोची। एक दिन वह ऊंट सोरठ ने दीक्षा धारण की। वीज्या महल में सोरठ पर सवार होकर सोरठ का मामा बनकर पाया । दासी से के पाने के स्वप्न देखता रह गया।
'अनेकान्त' के ग्राहक बनें
'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-प्रेमियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनश्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे शीघ्र ही अनेकान्त के ग्राहक बनें। इससे समूचे जैन-समाज में एक शोध-पत्र प्रतिष्ठा और गौरव के साथ चल सकेगा। भारत के अन्य शोध-पत्रों की तुलना में उसका समुन्नत होना आवश्यक है।
व्यवस्थापक अनेकान्त
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ऐतिहासिक उपन्यास
दिग्विजय
मानन्दप्रकाश जैन, बसूप्रसाद मैन [यह उपन्यास भगवान् ऋषमदेव के पुत्र सम्राट् मरत और बाहुबलि के प्रसिद्ध पुट को लेकर चला है। पुरानी कथा, किन्तु ऐसा नयापन कि पाठक रस विभोर हो उठे। इस विशा में पानम्बप्रकाश जैन की लेखनी से सभी हिन्दी पाठक अवगत हो चुके हैं। यह उनकी नवीनतम कृति है।] . -सम्पादक
उनका मोह सृष्टि की स्वच्छदन्ता के प्रति था । प्रकृतियां समृद्धि और वैभव की विशाल नगरी अयोध्या का
इतनी भिन्न होते हुए भी दोनों भाइयों का स्नेह एक ऐसे दैनिक जीवन क्रम उत्साह और उत्सव से उमडा चलता था, अटूट और दृढ़ बंधन से बंधा था, जो दो सहोदरों में ही इक्ष्वाकुवंश का सूर्य अपनी संपूर्ण कलाओं सहित अयोध्या संभव हो सकता है। के जन जीवन पर छाया हुआ था, क्या साधुसंतों का समा- अयोध्या में एक दिन प्रासाद और उत्सव का बाजार गम, क्या आकाश को चूमने वाले भवनों का निर्माण, सभी गरम हो गया। सूर्य का प्रखर प्रकाश गगनचुम्बी भट्टामें अयोध्या अनुपम थी।
लिकाओं से टकराता अयोध्या के राजमार्ग पर छा गया कलाविदों ने अपनी कला से अयोध्या का श्रृंगार किया था। जहां देखो, जिधर देखो, मानव प्राकृतियां जयनाद था नित्य ही एक न एक कला-प्रदर्शन होता था। युद्ध के करती दृष्टिगोचर हो रही थीं। छज्जे, अटारियां, छत और दिनों में लोग सामूहिक रूप से शस्त्र संभाल लेते थे । शांति राजमार्ग सभी, लोगों से अटे पड़े थे। अश्वारोही सैनिक काल में गायनवादन और संतों की वाणी समान भाव से व्यवस्था करते हुए इधर उधर दौड़ रहे थे। धर्म की प्रतीक सुनी जाती थी। बल, विभूति और कला, किसी में कोई पीली ध्वजाएं चारों मोर दृष्टि की झिलमिली दे रही थीं। अयोध्या का सामना नहीं कर सकता था।
राजमार्ग पर फूलों का बिस्तरा बिछा पड़ा था। ___ महाराज ऋषभदेव के स्वर्ग शासन में शेर और बकरी कुछ देर में ही राजमहल की भोर से एक भव्य रथ एक घाट पानी पीते थे, शौर्य का पुतला भरत, तेजस्विता चला माता दिखाई दिया। साथ में दोनों ओर उद्यत अंगका स्तूप बाहुबली, मानों किसी योद्धा की दो बाहों की रक्षकों का दल था। जनता ने अपनी उत्सुक दृष्टियां उस तरह अयोध्या के जीवन संघर्ष का संचालन कर रहे थे। वे ओर घुमाई और 'कुमार बाहुबली की जय' के निनाद से महाराज ऋषभदेव के सभी पुत्रों में अग्रणी थे । पाकाश गूंज उठा। रथ तीव्र गति से दोनों भोर की जन
समस्त भूमंडल पर एकछत्र राज्य की स्थापना महा. पंक्तियों के बीच से अयोध्या के परकोटे के मुख्य द्वार की बली भरत का दैनिक स्वप्न था। उसकी यह अभिलाषा ओर दौड़ता हुमा चला गया। उसकी अनवरत विजयों के साथ एकाकार हो कर बढ़ रही दक्षिण के एक छोटे से राज्य पोदनपुर को जीत कर थी। वह जिधर अपने अश्व का बागडार माड़ दता था, भरत सेनामों सहित अयोध्या वापस पा रहा था। यह स्वागराज्याधीश टूट पतंगों की नाई उसके चरणों पर मा गिरते
तोत्सव उसी की अगवानी करने के लिए हुआ था । बाहु
बली मुख्य द्वार पर उसका स्वागत करने के लिए गए थे। बाहुबली सौम्य, शांत और सुन्दर थे। इतने सुन्दर थे अब प्रजा की उत्सक निगाहें कोटद्वार की दिशा में कि सारी अयोध्या उन्हें कामदेव के नाम से पुकारती थी। लगी थीं। उनके हृदयों पर भरत का सिक्का था। उनकी जीवन को विभिन्न रूपों में देखकर उसमें रस लेना उनकी निगाहों में उसके शौर्य और पराक्रम का आदर था । भरत प्रवत्ति थी। स्वाभिमान उनमें कूट-कूट कर भरा था। उनके स्वप्नों का खिलौना था। भरत उनका प्रिय था,
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वर्ष १५
उनका कुटुम्बी था, उनका राजकुमार था। बाहुबली प्रजा इस स्फुरणदायक वातावरण से गुजरता हुमा रथ राजकी एक प्रांख थी, तो भरत दूसरी प्रांख थी। महल की मोर चला। राजपथ पुष्पों की सुरभि से महक
मुख्य द्वार के बाहर हाथियों की पंक्तियां शुभागमन रहा था। इस राज्योचित अभिवादन को सहर्ष ग्रहण करते में सजी खड़ी थीं । हर्ष की दुंदुभि ऊंची उठाये उद्घोषक हुए भरत बाहुबली की मुसकराहट में अपनी मुसकराहट खड़ा था। बाहुबली रथ से उतर कर घोड़े पर पा गए थे। मिला देता था। बारबार सूर्य के ताप को हथेलियों से रोक कर वह दूरक्षितिज राजमहल के द्वार पर महाराज ऋषभदेव अपनी आँखें की ओर देख लेते थे, जहां अब धूल के गोले उठते दिखाई पसारे खड़े थे। अभी-अभी चर ने उन्हें दोनों कुमारों के देने लगे थे।
पुन: अयोध्या प्रवेश का समाचार दिया था। रथारूढ़ भरत पास ही अश्व पर प्रारुढ़ खड़े सुमति मंत्री की मोर को देखते ही उनकी आंखों में स्नेह का स्फुलिंग चमक उठा देखकर बाहुबली ने उल्लसित स्वर में कहा, "मंत्री जी भैया भरत रथ से उतर कर उनके चरणों को छुने के लिए दौड़ा। मा गए !"
गद्गद् होकर महाराज ने भरत को अपनी सुदृढ़ बाहुओं सुमति मंत्री ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, "हाँ कुमार, अयोध्या से ऊँचे उठाया और छाती से लगा लिया। उनकी लम्बीका गौरव स्तंभ दिखाई दे रहा है।'
लम्बी अंगुलियां उसकी हारी थकी पीठ पर वात्सल्य की मानो स्वीकारोक्ति में दुंदुभी ने खिलखिला कर शोर थपकियां देने लगीं। उन थपकियों में स्नेह की मृदुता थी, मचाया। 'महाबली भरत की जय', 'युवराज भरत की जय' वंश का अभिमान था और मिलन का सुख था। भरत ने के नाद से वायुमंडल का रोमरोम नाच उठा । उत्तर में इस सुख का अनुभव किया और उसके अतिरेक से उसने पलपल निकट प्राती विजय वाहिनी की ओर से दुंदुभि पुकारा : "पिताजी !" बजी और एक श्वेत अश्व उसकी पंक्तियों से निकल कर महाराज ने एक क्षण की अपनी पलकें झपकाई। 'पुत्र, तेजी से मुख्य द्वार की ओर झपटा । कुछ पीछे और अश्व तूने अयोध्या को गौरव दिया है। जो अपने देश का मान भी पाते दिखाई दिए।
रखता है वह बड़ा हो जाता है। जब तक सूरज और चांद इधर से बाहुबली का प्रश्व वेग से उछला और तीव्र रहेंगे तेरी बड़ाई को धरती नहीं भूलेगी।" . गति से मागे बढ़ा। पास माने पर दोनों भ्रातृयोगी अश्वा बाहुबली पास ही खड़ा इस तमाशे को मुग्ध नयनों से रोही अपने अपने प्रश्वों से कूद पड़े और एक दूसरे के गले निहार रहा था। उसने प्रफुल्ल होते हुए कहा, "भैया के से लिपट गए। यह था दो अभिन्न भाइयों का प्रेम मिलन साथ धरती को मेरा नाम भी तो याद रखना पड़ेगा न, जिसे देखकर अयोध्यावासियों के हृदय की तरंगे उछल- पिताजी ?" उछल पड़ रही थीं।
अयोध्यापति ने कहा, "धरती सदा विजेताओं की ही विशाल परकोटे का मुख्य द्वार भी हर्ष से शोर मचाता याद रखती है। जब तुम विजय करोगे, तो तुम्हारा नाम हुआ खुल गया । हाथियों ने अपनी-अपनी सूड़ें ऊपर उठा भी धरती की छाती पर अंकित हो जाएगा । हम तुम्हें भी कर विजयी सेनानायक भरत का अभिवादन किया। प्रश्वों विजय का अवसर देंगे।" ने हिनहिना कर अपनी परिवर्तित चेतना प्रकट की।
एक बार फिर तुमुल जयघोष हुआ। दोनों पुत्रों के दोनों भाई रथ पर चढ़कर खड़े हो गए, ताकि उत्सुक कंधों पर हाथ रख कर महाराज ऋषभदेव राजमहल में जनता उन्हें भलीभांति देख सके । सवारी असंख्य स्वागत चले गए। कारिणी मेखला के साथ अयोध्या के विस्तीर्ण प्रवेश द्वार अभी इस उमड़े हुए उत्साह और उत्सव की धूल भली से भीतर घुसी। साथ ही अयोध्या का एक-एक जीता- प्रकार बैठी भी नहीं थी कि अयोध्या के राजपथ से, जो जागता ध्वनियंत्र जाग उठा। 'अयोध्या के तिलक की जय' अब लगभग अपनी सामान्य अवस्था पर आ गया था, एक 'युवराज भरत की जय।
अश्वारोही अपने प्रश्व को दौड़ाता हुमा राजमहल तक
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दिग्विजय
२६६ पाया और उसने महाराज के सामने उपस्थित होने की दिग्विजय कर डालिए। ये झगड़े हमेशा के लिये बन्द हो प्राज्ञा चाही। वह अयोध्या से लगते हुए एक छोटे से राज्य जाएंगे।" वैजयंती का राजदूत था।
इसी बीच बाहुबली बोल उठे, "भैया को तो सदा भरत का अभिनंदन करने के लिए राज दरबार दिग्विजय के स्वप्न पाते हैं।" सुसज्जित किया गया था। भाट और चारण विरदावलियाँ
भरत ने उलाहने से बाहुबली की मोर देखा। गा रहे थे। प्रतिहारी ने बीच ही में वैजयंती के राजदूत के
महाराज ऋषभदेव ने कहा, "भरत, प्रभी दिग्विजय पाने का समाचार सुनाया।
का समय नहीं पाया । यह वैजयन्ती का बढ़ाया हुमा हाथ ___ महाराज ने उसे उपस्थित करने की प्राज्ञा दी। कवि- थामने का समय है।" तामों का पाठ रोक दिया गया। राजदूत ने महाराज के "प्राज्ञा दीजिए, देव, "प्राज्ञाकारी भरत बोला।"भरत सामने आकर भूमि तक झुककर दंडवत् की। "राजामों में वैजयन्ती के सम्मान की रक्षा करेगा।" श्रेष्ठ, इक्ष्वाकुवंश दीपक, महामंडलेश्वर, महाराज ऋषभ- महाराज ऋषभदेव ने पुत्र को प्रशंसा की दृष्टि से देखा। देव की जय । यह दास वैजयंती की ओर से सैनिक शक्ति "अभी तो राह की धूल भी तुम्हारे शरीर से नहीं झरी, की सहायता की याचना करता है।"
भरत हम तुम्हारे उत्साह से प्रसन्न हैं । किन्तु एक अवसर "सैनिक सहायता !" महाराज ने आश्चर्य करते हुए अपने छोटे भाई को भी तो दो।" पूछा। 'दूत, तुम किसी संकट की सूचना दे रहे हो ?" महाराज ऋषभदेव की बात सुनकर बाहुवली जैसे चोंक
"हां, देव", राजदूत ने निवेदन किया। “रतनपुर के उठे । एक पूर्व स्मृति उनके मानस पटल पर चित्र की तरह मंडलेश्वर राजा वज्रबाहु ने वैजयंती पर अपने पंजे फैलाए खिंच गई। वाराणसी नगरी का महापुष्करिणी का मेला हैं । वैजयंती नरेश अयोध्यापति की सुनीति में अपना असीम था। जगह-जगह के नन्हें-नन्हें बालक बालिकामों, सजीली विश्वास प्रकट करते है, और इस बुरी घड़ी में अयोध्या की मूंछों वाले युवकों और श्वेत दाढ़ियों वाले वृद्धों का सम्मिप्रबल सेनाओं की सहायता की मांग करते हैं।" लन था । महागंगा अपने प्रबल वेग के साथ बही चली जा
"महाराज वनबाह ने पाक्रमण किया है ?" महाराज रही थी। उस महा मेले में स्थान-स्थान के राजकुमार और ऋषभदेव ने पूछा । "कारण ?"
राजकुमारियां पाई हुई थीं। उनके साथ पाए हुए रक्षकों "वैजयंती की प्रान इसका कारण है, देव । महाराज
की साज-सज्जा अनुपम थी। कुछ पुण्य लूटने के लिए पद्मसेन अपनी पुत्री का विवाह कोशांबी के युवराज से
तो पाए थे, तो कुछ उस मेले का एक वर्ष में आने वाले पानन्द करना चाहते हैं । यह विवाह महाराज वज्रबाहु को पसन्द
लूटने । उन्हीं में बाहुबली भी था। तब एक दिन उस मेले नहीं है । वह जबरदस्ती हमारी राजकुमारी का हरण करना
की भारी धकापेल में एक ओर से विकट शोर सुनाई चाहते हैं । हम मर मिटेंगे, देव, मगर ऐसा नहीं होने देंगे।"
दिया। एक लड़की डूब रही थी। उसके पीछे अपनी
जान की परवाह न करके एक लड़का कूदा था। फिर हल्का ऐसे ही अवसरों पर भरत के धर्य का बांध टूट पड़ता
सा स्फुरण लेकर बाहुबली स्वयं महागंगा में गोते लगा रहा था। राजदूत की बात सुनकर वह विहंस उठा ।
था, और सबके बाद में सैकड़ों अच्छे-अच्छे तैराक रक्षक महाराज ऋषभदेव ने पुत्र के मुंह की मोर देख कर कूद पड़े थे। महागंगा का उद्याम वेग उस लड़की, उस कहा, 'कुछ कहना चाहते हो, भरत ?"
लड़के और बाहुबली को उन रक्षकों की पहुँच के बाहर ले "हाँ, देव", भरत ने कहा।" मैं पहले भी कितनी ही गया था। जीवन-मरण की बाजी थी। उससे भी अधिक बार निवेदन कर चुका हूँ जिस दिन किसी बड़ी मछली दूसरे के जीवन को बचाने की बाजी थी। उस लड़के ने का जी चाहता है छोटी मछली को दबोच लेती है। इन उस लड़की को पकड़ लिया। किन्तु एक छोटे से भंवर ने मछलियों के सिर पर एक मगर की जरूरत है । एक बार उन दोनों को एक साथ अपनी लपेट में लिया और पानी
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अनेकान्त के भावरण के भीतर छिपा लिया । साथ ही बाहुबली भी पुत्री की मोर देख लेते, कभी महागंगा की हहराती, उछलती उसी लपेट के साथ अदृश्य हो गया और फिर तीनों कुछ चंचल और क्रूर लहरों को, जिन्होंने उनकी जीवन संगिनी समय बाद बहुत दूरी पर निकले। वह लड़का भौर वह को सदा के लिए उनसे छीन लिया था। लड़की मचेतन हो चुके थे। बाहुबली अतल पानी के तल से प्राज कितने दिनों के बाद उस टूटे हुए अध्याय का अपने बाहनों का बल लगाकर उन्हें खींच रहा था । वह पुनः भारंभ हुमा है। किस प्रकार अयोध्याधिपति की महागंगा के वेग से लड़ रहा था। कौन विजयी होगा यह महती राजसभा के पत्थर के स्तम्भों के ऊपर हथौड़े मौर भनिश्चित था । किनारा दूर था, रक्षक दूर थे, जीवन दूर छेनी से उभारे गये मनोरम चित्रों की पृष्ठभूमि पर बाहुथा। केवल काल का मुंह उन तीनों को निगल लेने के लिए बली के अतीत के वे छोटे से सजीव चित्र चलती-फिरती खुला हुमा अत्यंत निकट था। लेकिन बाहुबली जूझता ही छायामों की तरह उभर माये थे । उन कुछ क्षेत्रों में बहुत रहा, जूझता ही रहा । फिर भी वह महागंगा के वेग को सारा बीता हुमा इतिहास सप्राण हो उठा था और बाहुनहीं पछाड़ सका । किन्तु महागंगा भी उसके सामने हार बली की दृष्टि किसी पोर न जाकर भित्ति-चित्रों के ऊपर मान गई । बाहुबली अपने साथ उस लड़के और उस लड़की चित्रलिखित की नाई पटक गई थी। को लिए जहां था वहीं अचल बनकर तैरता रहा । थोड़ी आश्चर्य से बाहुबली की मोर देखकर महाराज ऋषभदेर में रक्षक मा गए और वे तीनों हाथों हाथों में उठा देव ने पछा. "किस चिन्ता में हैं अयोध्या के छोटे राजलिए गए। इस मानव और जड़ की लड़ाई में मानव विजयी कमार?" हुमा था, अचेतन हार गया था।
बाहुबली फिर चौक उठे "देव, क्षमा करें, मेरी विनय बाहर आकर उस लड़के को एक घंटे बाद होश आया है कि महाराज वजबाह मेरे बचपन के मित्र हैं, मैं सोच सैकड़ों दास दासियों के मुंह पर स्याही सी फिर रही थी। रहा है कि मित्र मित्र से किस प्रकार लड़ सकेगा।" बाहुबली को लोग कंधों पर उठाए हुए थे। जब उस लड़के महाराज ऋषभदेव मुसकरा उठे, "जब दूसरों से लड़ा को चेतना पाई और वह बात चीत करने के लायक हुमा जाता है, तब वीरता की परीक्षा होती है। जब अपनों से तो बाहुबली की पोर कृतज्ञता की दृष्टि से देखा था? लड़ने का प्रश्न आता है, तब धीरता की परीक्षा होती है। उसने पूछा था 'तुम...?' बाहुबली ने उतर दिया हमें विश्वास है कि बाहबली में, हमारे बेटे में, वीरता था, मैं अयोध्या का राजकुमार बाहुबली, तुम ?, और धीरता दोनों ही गुण हैं। अपने मित्र को प्रनीति से उसने उत्तर दिया था, 'मैं रतनपुर का राजकुमार रोको । पुत्र, इस समय तुम्हारा यही कर्तव्य है।" वजबाह । तुमने मेरी जान बचाई है । मैं तुम्हें नमस्कार बाहबली ने मस्तक नवाया, किन्तु उसकी आँखों ने करता है। बाहुबली हंस पड़ा था। तुमने वीरता का अपनी जिस लम्बी-चौड़ी छाती को निहारा उसमें अपूर्व मान रखा है। मैं तुम्हें बधाई देता हूँ। और दोनों सदा और अकथनीय संघर्ष की मांधी उठ रही थी। महाराज के लिए मानवीय, मानवोचित, मित्रत्व के अटूट बंधन में को यथाविधि प्रणाम करके बाहुबली ने राजसभा से बिदा बंध गए थे।
ले ली। मौर वह लड़की कौन थी ? अब याद पाया। वह वैजयंती के राजदूत की और तेजपूर्ण दृष्टि से देखकर थी वैजयन्ती की राजकुमारी। वह दुःख में भयंकर विलाप महाराज ऋषभदेव ने प्रोजमिश्रित स्वर में कहा, "जानो, कर रही थी । मपनी पुत्री के प्राण जाते देख उसकी मोह राजदूत, वैजयंती नरेश से कहना कि वैजयंती के मान को विह्वल माता भी उसके पीछे महागंगा में कूद पड़ी थी। हम अपना मान समझते हैं । उस मान के लिए हम अपने बेटी बच गई थी और मां ने अपने प्राण दे दिए थे। जैसे प्राण, अपना जोश, और अपनी वीरता वैयजंती के वीरों उसने अपने जीवन से काल देव का फाड़ा हुमा मुंह भर के साथ कांटे पर रख देंगे। और हमें यकीन है कि वह दिया हो। वैजयन्ती के महाराज एक टक कभी अपनी बजन काफी भारी होगा।"
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रि
राजदूत ने हर्ष से अपना सिर नवाया और उसने इकहरे स्वर में जय घोष किया "महामण्डलेश्वर, मनोध्यापति, महाराज ऋषभदेव की जय कुमार भरत कुमार बाहुबली की जय।"
महाराज ने श्राशीर्वाद का हाथ उठाया और सिर नीचा किए उसे ग्रहण करता हुआ वह राजसभा के मुखद्वार से बाहर निकल गया ।
विजय
२
एक विशाल सेनानी बनकर बाहुबली ने वैजयंती की मोर कूच किया।
परिस्थिति के झोंके मनुष्य को क्या क्या नाच नचाते हैं, बाहुबली यही सोचते चले जा रहे थे एक घोर वह अपार सेना के सेनापति थे, एक अथाह बल अपने साथ लिए वह चल रहे थे, जिसका अर्थ था कि यदि उनके मित्र ने उनकी नीति अनीति की परवाह न की तो वह अपने बल का, अपनी सेना का प्रयोग करेंगे यही सबसे पहला व्यव हार होगा, जो अपने मित्र के लिए करेगा । धिक्कार है ऐसी मित्रता पर बाहुबली ने सोचा क्या बचबाहु उनके समझाने से नीति को समझ जाएगा ! यह प्रश्न बार बार उनके मस्तिष्क में साकर उन्हें विचलित कर रहा था।
वैजयन्ती अभी दूर थी, बाहुबली की सेनाएं बिना उचित विधाम के ही निरन्तर कूप पर कूच करती जा रही थीं। दूर दूर तक प्रगाध वन दिखाई दे रहा था । हरियाली का नाम निशान नहीं था । बाहुबली के मन के आंदोलन से होड़ करता हुआ वनस्थली का झंझावात धूल और गुब्बार को अपने साथ उड़ाये लिये जा रहा था ।
सूर्य के ताप की अपनी हथेलियों की नोट करते हुए बाहुबली ने एकबार वन को दूर तक देखा। उनके पीछे साँप की तरह बल खाती हुई सेनाओं की पंक्तियाँ चली प्रा रही थीं। सहसा उन्हें बहुत दूर पर कुछ प्राकृतियां दिखा दीं । क्या ये आकृतियाँ मनुष्यों की ही हो सकती हैं ? उन्होंने अपने मुख्य अङ्गरक्षक वीरसिंह को मंगुली से दिखा कर पूछा, "देखते हो, वीरसिंह, मनुष्य ही तो लगते ३१"
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"कौन हो सकते हैं? वीरसिंह, देखो तो मागे
बढकर ।"
वीरसिंह का प्रश्व तेजी से श्रागे को झपटा । कुछ ही देर में वह पांखों से मोल होकर उन लोगों के पास जा पहुँचा। बीस पच्चीस अश्वारोहियों के बीच में चार-पांच पालकियां थीं। उसे देखते ही उन भश्वारोहियों ने अपनी अपनी म्यानों से तलवारें खींच ली । दल के नायक ने डॉट कर पूछा, "कौन हो तुम ?"
"यही मैं पूछना चाहता है, कौन हो तुम लोग ? धीर इन पालकियों में क्या है ? कहाँ जा रहे हो ? कहाँ से आये हो ?" वीरसिंह ने उतने ही तेज स्वर में नायक से प्रश्न पर प्रश्न किया ।
"युवक तेरे इतने सवालों का ही दे सकती हैं। भाग जा, नहीं तो ने कहा ।
जवाब लोहे की जबान वार सम्भाल, "नायक
"जो भी तुम लोग हो, तुम्हारा इरादा कुछ बुरा मालूम होता है। सुनो, में अयोध्या के राजकुमार महामान्य श्री बाहुबली का अङ्गरक्षक हूँ। हमारी सेनाएं वैजयन्ती की सहायता के लिये जा रही है, वह देखो । यदि तुमने मेरे प्रश्नों का उचित उत्तर नहीं दिया, तो तुम्हारी चमड़े की जबानें खींच ली जाएंगी और इन लोहे की जवानों के टुकड़े टुकड़े कर दिये जायेंगे 'बोलो, कौन हो तुम लोग ?"
किसकी जवान खिचेगी और किसकी जबानों के टुकड़े टुकड़े होंगे इसका निर्णय होने के लिए वीरों की प्रथा के अनुसार तलवारें एक दूसरे की ओर भी कि तभी बीच की कुछ अधिक सजी हुई पालकी में से एक तीव्र किंतु सुरीला स्वर सुनाई पड़ा;
"नायक, झगड़ा न करो, उनसे बता दो हम कौन हैं।" पलक मारते ही सब तलवारें म्यानों में चली गई, नायक ने अपने इस छोटे से दस का परिचय दिया;
वैजयंती का छोटा सा गढ़ चारों धोर से घिर गया या शत्रु का घेरा दिन पर दिन संकुचित होता जा रहा था, अन्न और पानी का अभाव सामने अपना कराल गाल
संकट अपने पंजे दिखा रहा था, कौशांबी और अयोध्या दोनों जगह सहायता का संदेश
"हाँ, कुमार, मनुष्य ही मालूम होते हैं," वीरसिंह ने फाड़े खड़ा था, माता हुआ भलीभांति दृष्टि दौड़ा कर कहा ।
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वर्ष १५
भेजा गया था, वैजयंती की राजकुमारी वैजयंती की मान की उचटती निगाह उसकी मोर देखकर फिर गई, फिर
और मान की प्रतीक थी, वीरों के प्राण रहे या जाएं, जैसे कोई अपूर्व और अद्भुत वस्तु नजर में प्राकर निकल किंतु वीरता की आन को वट्टा नहीं लगना चाहिए, किसी गई हो, बाहुबली ने एक बार एक क्षण के लिए फिर भी ओर से सहायता प्राई न देख कर सुरक्षा के विचार से जानबूझ कर उसकी ओर दृष्टि डाली, निमिष मात्र में वैजयंती नरेश ने राजनंदनी को वैजयंती से दूर करने का दोनों की नजरें मिली, राजनंदिनी की आंखों में बाहुबली निश्चय किया, एक दूर प्रदेश में उसके मामा का छोटा सा की वीरोचित वेशभूषा और सौम्य रूप की प्रशंसा थी दृढ़ पर्वत निवास था. कुछ विश्वसनीय व जान पर खेल और बाहुबली की प्रांखों में राजनंदिनी की कोमलता जाने वाले वीर अंगरक्षकों के साथ रात के समय राज- और श्री को देखते रहने का चाव था, किन्तु उनका चंचल नंदिनी को चुपके से गुप्त राह के द्वारा वैजयंती से निकाल __ अश्व उन्हें लेकर आगे बढ़ गया। दिया गया था, साथ में थीं मुंहवाला सखी सहेलियां, अब राजनंदिनी के पास ही बैठी उसकी मुखरा सखी ने वैजयंती यदि हार भी जाए, तो सुरक्षित थी।
हँसकर कहा, 'ये निगाहें तो बिजलियां गिराकर ही जब तक वीरसिह को पूरा समाचार ज्ञात हो बाहुबली रह गई। भी अपना अश्व कुदाते हुए उसी स्थान पर पहुँच गए. क्यों ?' राजनंदिनी ने उलाहने से पूछा, उन्होंने भी राजनंदिनी के अंगरक्षकों के नायक से कुछ 'और नहीं तो क्या, सखी ने कहा, 'न अश्व ने टिकने हाल सुन लिया और उनकी कुशाग्र बुद्धि ने क्षण मात्र में दिया और न निगाहों के तेज ने, टिक जाते, तो दिन सारा रहस्य जान लिया ।
में ही चांद को जी भर न देख लेते।' राजकुमारी की पालकी बाहुबली के पार्श्व पर थी राजनंदिनी हंसी, 'जी भर कर ही क्या करते ? तेरी और उस पर झीना सा परदा पड़ा हुआ था. वहीं से उसने तरह बैठकर बातें थोड़े ही बनाने लगते, जानती नहीं वह बाहुबली की मनोरम मूर्ति देखी, तो बस देखती ही रह गई। अयोध्या के राजकुमार हैं।' उच्छृङ्खल कितु सधे हुए घोड़े पर बाहुबली देवकुमार से तिरछी दृष्टि से देखकर मुखग ने कहा, 'हां जी प्रतीत हो रहे थे और वह उसकी रास कसते हुए कह जानती क्यों नहीं वह अयोध्या के राजकुमार हैं, और रहे थे।
मैं तो यह भी जानती हूं कि आप वैजयन्ती की ___ "कहीं माने जाने की आवश्यकता नहीं है. वापस लौट राजकुमारी हैं......... 'बस इतनी ही सी तो बात है।' चलो. जब तक अयोध्या का एक भी वीर जीवित रहेगा, "तू बड़ी वाचाल हो गई है,' राजकुमारी ने सलज्ज कोई वैजयंती की इंट तक को नहीं छू सकेगा।" हंसी हंसते हुए कहा,
मोह, कितना अमृत था उस देव वाणी में ! बाध्य राजकुमारी की आज्ञा से पालकियां फिर उठी और होकर कोई अपने घर, अपनी जन्मभूमि को त्यागता है, तो बाहुबली के अंगरक्षक वीरसिंह ने इस छोटे से दल को कितना दुःख होता है उसे राजनंदिनी वैजयंती में उत्पन्न विस्तृत वाहिनी के बीच में ले जा कर छोड़ दिया। हुई, वैजयंती में पली, और वैजयंती में बड़ी हुई. उसके राजनंदिनी को देखकर बाहुबली के मन में एक साथ कारण प्राज वैजयंती पर दुर्भाग्य की काली घटाएं घिर कितने ही विचार माए। आक्रमण त्रस्त अपनी जन्मभूमि
आई थीं, वैजयंती आज उसकी रक्षा करने में असमर्थ थी. से अपनी मर्यादा बचाने के लिए मांगी हुई इस राजकन्या कितने दारुण दुःख में डूबा हुआ था वह गृहत्याग. बाहुबली के प्रति उनके मन में दया का सागर उमड़ पड़ा। कन्या ने आकर तो मानों प्राण दान दिया था। सूखे खेतों में वर्षा की इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह किसी से हो, यह कृत्य का पानी झिलमिला उठा था।
स्वयं में बलात्कार से अधिक गौरव नहीं रखता। उन्हें ___एक नजर अपने त्रास दाता को देखने के लिए दुःख हुमा कि उनका अभिन्न मित्र ही इसमें प्राक्रमणराजनंदिनी ने अपनी पालकी का परदा उठाया, बावली कर्ता का रूप लिए खड़ा है।
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दिग्विजय
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दूसरी ओर उनके मन में राजनंदिनी के ऊपर डाली वैजयंती की राजकुमारी की रूपगरिमा प्रयोध्या तक भी हुई उस दूसरी सचेतन दृष्टि ने बाहुबली से भयानक जा पहुंची है, और अयोध्या के राजकुमार बाहुबली उस उथलपुथल मचा दी। इतना रूप और इतने निर्दोष अंग रूप गरिमा पर मुग्ध हो गए हैं।' विन्यास ! यह मानवी थी या स्वर्ग की देवी ? कौन 'नहीं, नहीं, यह बात नहीं, वचबाहु," बाहुबली ने मानव है, जो इस प्रकार के आकर्षण से बच सकता है ? जल्दी से इस आरोप का निराकरण करना चाहा। यदि वज्रबाहु ही इसके वशीभूत हो गया, तो इसमें क्या वज्रबाहु ने अपने संशय की पुष्टि की : "क्यों, हो पाश्चर्य है ?
सकता है राजनंदिनी के बिना अयोध्या के राजमहल सूने अयोध्या की अजेय सेनाओं का प्रागमन सुनकर एक ही रह जाएं।" बार तो वज्रबाहु के हाथों के तोते उड़ गए, किन्तु जब
बाहुबली इस व्यंग्य से गंभीर हो गए, उन्होंने तनिक उसे मालूम हुआ कि उसका परम मित्र बाहुबली ही उस
गुरु स्वर में कहा, "आप भूल रहे हैं, महाराज बज्रबाहु, सेना का संचालन कर रहा है, तो उसके पाश्चर्य का क्या आपको बाहुबली की आंखों में रूप की प्यास दिखाई पारावार न रहा।
देती है ? मैं फिर कहता हूँ कि आप भूल कर रहे हैं, क्या बाहुबली उससे युद्ध करेगा? क्या राजनंदिनी
महाराज वज्रबाहु, आपको भारी भ्रम हुआ है, बाहुबली की मनमोहिनी छवि ही उसे यहां खींच कर लाई है ?
कभी भी अपने मित्र का प्रतिद्वन्दी नहीं हो सकता।" ___ जब तक अयोध्या की सैनायें वैजयन्ती के गढ़ के
___ "यदि तुम मेरे प्रतिद्वन्दी नहीं हो, तो संसार की बाहर नहीं पहुंच गई, वज्रबाहु के मन में ये दो प्रश्न चक्कर
कोई शक्ति मुझसे राजनंदिनी को नहीं छीन सकती," काटते ही रहे। जब उसने निश्चय किया कि उसे एक
और वज्रबाहु ने बाहुबली के थामे हाथ अपने गले में डाल वार स्वयं अपने मित्र से भेंट करनी ही होगी।
लिए, उस प्रकाट्य मंत्री की निकटता उसकी आंखों में यशाविधि बाहुबली के पास महाराज वज्रबाहु की
कांध गई। भेंट की इच्छा की सूचना भेजी गई, सुनते ही बाहुबली के मन पर जैसे एक बोझ सा हट गया। उन्होंने सहर्ष इस
बाहुबली ने मित्र की प्रसन्ता से प्रसन्न होते हुए कहा, भेंट के लिए स्वीकृति दे दी।
"तुम्हें अपनी प्रेयसी मिले, मुझे इसकी खुशी होगी, किन्तु दोनों सेनानी के बीच में एक तंबू तना और बाहुबली
अनीति से मिले, इसका दु:ख होगा, दुःख ही नहीं मेरा अपने मित्र के स्वागत में प्रांखें पसार कर बैठ गए, कुछ अ
अपमान भी होगा, और तुम जानते हो, मित्र की नीति ही देर में वज्रबाहु के डेरे में आए, अपने विलग मित्र
और कर्तव्य मित्रता से बड़े है।" को सम्मुख देखते ही बाहुबली ने अपनी बाहें फैला दी। "तब हमारे मित्र को कुछ सोचना पड़ेगा। तुम्हें 'हम अपने प्रिय मित्र का स्वागत करते हैं।'
देखना होगा कि अनीति हमारी ओर से है या वैजयन्ती वज्रबाहु ने उन बढ़ी हुई बांहों को थामते हुए कहा, के उस बूढ़े नरेश की ओर से । वह कौसाम्बी के उस कायर 'इतनी सेनाएं, ये सब क्या हमारे ही स्वागत के लिए युवराज से उस हीरे का गठ बंधन करना चाहते हैं। वह आई हैं ?'
महलों को छोड़कर झोपड़ी के ऊपर कलश चढ़ाना चाहते बाहुबली की पलकें एक क्षण के लिए लज्जा से झुक हैं, "वज्रबाहु ने गंभीर बन कर कहा । गई, फिर कर्तव्य का तेज लेकर वे ऊपर उठीं, "महाराज "पिता का अधिकार है जहां चाहे अपनी पुत्री का वज्रबाहु का मित्र अयोध्या का राजकुमार भी है, ये सेनाएं विवाह करे, "बाहुबली ने उत्तर में कहा। अयोध्या की सेनाएं हैं, महाराज वज्रबाहु के मित्र की वज्रबाहु ने कटुता मिश्रित स्वर में कहा, "काश कि नहीं, मैं मजबूर हूँ, बन्धु, मेरे हाथ बंधे हुए हैं।" वह अपना यह निर्णय अपनी पुत्री पर छोड़ देते । तब वह
वजबाहु ने उपेक्षा से कहा, 'नहीं, मालूम होता है सोच सकती कि वह महलों रस्न बने या झोपड़ी का कंकर।
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२७४ अनेकान्त
वर्ष १५ इतना विश्वास ! तो क्या राजनन्दिनी भी वज्रबाहु की समय पर विधिवत् राजनन्दिनी का विराट् स्वयम्बर करेंगे, और उतनी ही पाकर्षित है? यदि यह भी वज्रबाहु को जिसमें राजकुमारी की अपनी इच्छानुसार अपना वर भाप प्रेम की दृष्टि से देखती है, तो वैजन्ती नरेश क्यों उन चुन लेने की सुविधा होगी। वजबाहु ने यह वचन लेकर की राह का कांटा बनना चाहते हैं ? क्यों राजनन्दिनी अपने मित्र से विदा ली और फिर कभी अपने प्रामन्त्रण बज्रबाहु से पीछा छुड़ाकर इस प्रकार अपने मामा के यहां पर बाहुबली से पाने का वचन लेकर उसने अपनी सेना चली जाना चाहती थी ? हो सकता है यह केवल पिताका सहित अपनी राजधानी रतनपुर की ओर कूच बोल दिया। प्रभाव हो । तभी तो वह तुरन्त वापस लौट चलने के लिए एक बार वञ्चबाहु ने राजनन्दिनी को बचाने के लिये तैयार हो गई। यदि यही बात है, तो समस्या का हल दूर महागंगा में अपने प्राण संकट काल में डाले थे। वैजयन्ती नहीं है। समझौते की आशा निकट है।
नरेश अपनी झूठी पान के अभिमान में प्राज इस तथ्य को वजबाहु के कन्धों पर अपनी बाहुमों को स्नेह से दबा भूल जा सकते हैं, किन्तु वजबाहु तो प्रयत्न करके भी उस कर बाहुबली ने कहा, "यदि तुम यही चाहते हो कि सारा दिन से आज तक राजनन्दिनी की छवि को नहीं भूल सकता निर्णय राजकुमारी पर छोड़ दिया जाए, तो यही होगा, बंधु था। उस पर एक मात्र वज्रबाहु का ही अधिकार है। वही किंतु तुम्हें अपनी सेनामों का घेरा उठा लेना होगा, और है, जिस पर राजनन्दिनी अपने तन मन को न्यौछावर मैं वैजयन्ती नरेश का हाथ तुम दोनों के बीच में से हटा कर सकती है यही वज्रबाहु का विश्वास था। स्वयम्बर दूंगा। किंतु किंतु.....
प्राये, तो वह देखेगा कि किस प्रकार राजनन्दिनी उसके वजबाहु, बाहुबली की इस किंतु परन्तु को समझ उस परोपकार की भावना से प्रोत-प्रोत उपकार को भूल गया । उसने बीच में ही बाहुदली को संकोच मुक्त करते सकती है । हुए कहा, "किन्तु यदि राजकुमारी ने मुझे फिर स्वीकार न आज दूसरी बार बाहुबली ने राजनन्दिनी की रक्षा की किया, तो मुझे आक्रमण का अधिकार न होगा, यही न ? मैं थी। इतनी सुगमता से मामले को निबटा कर उन्हें अयोध्या इस बन्धन को स्वीकार करता हूँ। मुझे राजकुमारी पर वापस नहीं लौट जाने दिया जा सकता था। बज्रबाहु के विश्वास है।
कूच करते ही जब बाहुबली की सेनाएं भी कूच करने लगी वज्रबाहु को राजकुमारी की बुद्धि पर विश्वास था। तो वैजन्ती नरेश का निमन्त्रण मिला। सेनाओं को विदा बाहुबली ने इसे इस रूप में लिया कि उसे राजनंदिनी के करके बाहुबली को कुछ दिनों वैजयन्ती का राज अतिथि हृदय पर, उसके प्रेम पर विश्वास है । और यात्रा के बीच बन कर रहना ही होगा यही उस निमन्त्रण का मूल उद्देश्य में राजनन्दिनी की ओर से उसके हृदय में जो क्षणिक एक था, जिसे राज्योचित भाषा के प्रावरण में छिपा कर नियंनन्हा सा स्फुलिंग जल उठा था वह अनुकूल हवा न पाकर त्रण में प्रकट किया गया था। जल के ऊपर बुलबुले की नाई तिरोहित हो गया।
वृद्ध वैजयन्ती नरेश तो बाहुबली के रूप गुण को देखते बाहुबबली की योग्यता पर यकीन करके वचबाह ने ही मुग्ध हो गए थे । अवसर सम्मुख ही पाया जानकर अपना घेरा उठा लिया । अगले दिन सुबह स्वयं बाहुबली के उनके मन में एक क्षीण सी भावना निरन्तर बलवती होती संरक्षण में राजकुमारी राजनन्दिनी ने वैजयन्ती के गढ़ में जा रही थी, यदि किसी प्रकार बाहुबली और राजनन्दिनी प्रवेश किया। यह गृह प्रवेश कितना सुखद था कि यह का संबंध हो जाए, तो साक्षात्कामदेव और रति की जोड़ी केवल वही जान सकता है, जो बलात् अपने देश से निर्वा- मिल जाए । किंतु कहां अयोध्या और कहां वैजयन्ती । बार सित होकर पुनः उसके द्वार पर माया हो।
बार यही विचार उनके मन में कौर के तिनके की तरह समझौता हो गया । वैजन्ती नरेश ने अपनी पुत्री राज अटक जाता था। नन्दिनी का विवाह कौशाम्बी के युवराज से करने का असीम अादर सहित महाराज पनसेन प्रयोध्या के कुमार विचार छोड़ दिया। उन्होंने पाश्वासन दिया कि वह उचित को अपने राजमहल में ले गये । वहां जिसने भी उन्हें देखा
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विग्विजय
२७५
वह ठक से रह गया। इतना रूप ! क्या कभी यह रूप बायु के झोंकों से पिरक-थिरक कर राजकुमारी के विस्तृत मनुष्य में भी स्वयं हो सकता है ? उसके साथ अपूर्व शारी- और उत्तप्त मस्तक पर थपकियां दे रहे थे । केले की गोभ रिक बल की मिलावट ने जैसे सोने में सुहागा भर दिया सी सुडौल बाहें लज्जा से परिधानों की चंचलता का व्यस्तता था। दास दासियां, सखी सहेलियां, सभी एक बार उन्हें से उपचार करती हुई नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गई थीं। देखकर दोबारा देखने का अवसर ढूंढने लगीं।
वह दैवी सौन्दर्य निश्चयतः इस पृथ्वी के ऊपर की वस्तु थी। __ मुखरा उछलती-कूदती राजनन्दिनी के पास पहुंची। वह बाहुबली, जिन्हें देख कर स्त्रियां कामबाण से "लो वह मा गए।"
दग्ध हो जाती थीं आज स्वयं एफ मल्हड़ नवयौवना के "कौन मा गए ?" राजकुमारी ने अचकचा कर पूछा। केशपाश में मानों एक क्षण के लिए उलझ से गए थे।
"मजी, वही, वन के देवता । अयोध्या के राजकुमार, उस क्षण में दोनों ने ही एक दूसरे की मांखों की मौन हमारी भोली भाली राजकुमारी की भावनाओं के हार । भाषा को पढ़ लिया और फिर तुरन्त अपनी-अपनी निगाह क्या नाम भी बताऊँ।"
नीची कर ली। रोष प्रकट करती हुई राजकुमारी ने मुखरा का मुंह इस अलभ्य मौन को महाराज ने तोड़ा, "कहीं राजपकड़कर भींच दिया और वह अपनी हंसी को जबरदस्ती कुमारों का अभिवादन ऐसे किया जाता है, बेटी? जाओ, नाक की राह निकालती रही। किंतु शीघ्र ही उसे इस प्रारती का प्रबन्ध करो। आज हमारे महलों में इक्ष्वाकु मुसीबत से छुट्टी मिल गई । इतनी देर में तो राजनन्दिनी वंश का सूर्य चमका है। मंगल गान हों, और हमारा की चञ्चल भावनायें उसे कहीं की कहीं बहा ले गई, और राजमहल प्राज दीपावली मनाए।" उनके हाथों की पकड़ कब छुट गई मालूम ही न हो पाया और यह सुनते ही राजनंदिनी के पैरों में मानों कल मुखरा छूटकर फिर द्वार पर पहुँच कर वापस मुड़ी और लग गई। पुत्री की विलीन होती हुई प्राकृति को देखते शीश नवाकर उसने अभिवादन के तौर पर कहा : हुए वैजयंती नरेश मुसकराते हुए बाहुबली को साथ लेकर
"राजकुमारी की बलिहारी जाऊँ, वह आ गए हैं।" अपना राजमहल दिखाने के लिए आगे चले । उन्होंने कहा,
और जब तक चौंक कर राजनन्दिनी अपनी दृष्टि उस "राजमाता के प्रकाल के गाल में चले जाने से सारी पोर करे मुखरा वहाँ से लोप हो गई थी और द्वार खाली था। वैजयंती इस मातृहीन दीपक से जगमगा रही है।"
चाह और चाव ने उन 'वह' को देखने के लिए राज "बड़ा चंचल दीपक है !" बाहुबली ने मुसकराकर कुमारी शीघ्रता से उठी, अपने वस्त्रों का मनोनुकूल परि- कहा, और इस बात को लेकर बहुत देर तक वैजयंती नरेश वर्तन किया और बाहर की ओर झपटी। किंतु द्वार पर ही हंसते रहे। वह किसी के कन्धों से टकरा गई । उच्छृखल मुखरा को मुखरा ने पहले ही प्रारती का प्रबंध करा लिया था। दण्ड देने के लिए ज्यों ही उसने ऊपर की ओर निहारा कुछ दूर आगे बढ़ते ही बाहुबली भारतियों से घिर गए। उसकी तसवीर बाहुबली की आंखों में खिंच गई। और इन प्रारतियों के प्रकाश में उन्होंने फिर एक चमकते
उस तस्वीर में लज्जा थी, भय था, क्रोध था, और था हए मुख को देखा। वह मुख वैजयंती की राजकुमारी संकोच । पीछे पिता की वयोवृद्ध मूर्ति दृष्टिगोचर हो रही राजनंदिनी का था। किंतु कुछ ही क्षणों में बाहुबली की थी। नमस्कार करने के लिए राजनन्दिनी के हाथ उठे और मखमुद्रा गंभीर हो गई। कुछ विचार पाए और उनक साथ दृष्टि भी उठी और चन्द्र किरणों से पाहत चकवीको मस्तिष्क में जमकर बैठ गए। तरह उसके मन का कोना कोना विध गया।
राजनन्दिनी वबाहु की है । वह अमानत है । उसकी बाहुबली ने उस अलभ्य क्षण में न जाने क्या क्या भोर मोह दष्टि से देखने से कुछ हाथ नहीं लगेगा। केवल दर्शन कर लिया। गौरवर्ण मुख पर कनपटी से गालों तक एक कलंक का टीका उनके माथे पर लग जाएगा। सोचतेलाली छा गई थी । श्यामकुंतल केश वातायन से पाते हुए सोचते उनकी दृष्टि उपेक्षा से भर उठी।
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अनेकान्त भारती समाप्त हो गई। विश्राम के लिये बाहुबली कर द्वार की भोर देखा । किन्तु वहाँ कोई नहीं था । केवल को साथ लेकर महाराज पग्रसेन उनके लिये नियत कक्ष एक लोप होते हुए आँचल का एक भाग दिखाई दिया था। में गए। कक्ष सुगन्धि से महक रहा था। झाड़फानूसों का हो सकता है यह उनका भ्रम हो, आज भ्रम ने उन्हें बहुत प्रकाश एक कोमल शय्या पर विखर रहा था। साफ और सताया था। वह अपनी मनोदशा पर स्वयं मुसकराये और स्वच्छ वातावरण नीरवता को साक्षी करके विश्राम का प्रांखें मींच कर सो जाने का उपक्रम करने लगे। पाह्वान कर रहा था। चारों पोर की दीवारों पर लगे थोड़ी देर में निद्रा की सुखद छाया ने उनकी दुविधा भित्ति चित्रों में अंकित वन पशु मानों इसी कारण जड़ हो का अन्त कर दिया। गए थे। एक चित्र में कुलांच भरता हुआ हिरण और पास ही स्थित पक्ष में राजनन्दिनी मुखरा के साथ उसके पीछे भगती हुई हिरणी की मृदु भाकृतियां अंकित थीं। एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण वार्तालाप में व्यस्त की । राजकुमारी __ महाराज पद्मसेन ने कुछ समय के लिए बिदा लेने का ने अपने मुंह को हाथों में छिपाते हुए कहा, उपक्रम करते हुए कहा, "कुमार विश्राम करे। परिचारि- "मैं अपने को नहीं रोक सकी, क्या कहेंगे वह अपने काएं सेवा में हर समय उपस्थित रहेंगी।"
मन में, उन्होंने दर्पण में मुझे देख लिया था।" वैजयंती नरेश चले गए। बाहुबली निढाल से होकर "कहेंगे क्या? सोचेंगे दर्पण भी सजी हो गए हैं, शय्या के एक कोने पर बैठ गए। बार-बार उनका ध्यान "मुखरा ने मुखरित किया। उस हिरणों के चित्र की मोर जाता था। इन हिरणों से "वह मुझे निर्लज्ज समझेगे, "राजनंदिनी ने आशंका उनकी दशा कितनी मिलती-जुलती थी। वह भी तो राज- प्रकट की। नंदिनी से दूर-दूर भागे जा रहे थे। और "और क्या "पुरुष क्या कम निर्लज्ज्ज होते हैं ?" मुखरा ने प्रश्न राजनंदिनी उस हिरणी की भांति ही उनका पीछा कर किया । "कैसे वो घूर-धूर कर देख रहे थे भारती के रही थी। नहीं, नहीं, यह स्वयं उनके मन का धोखा है, समय ।" उनके स्वयं के विचारों का प्रतिबिंब है । राजनंदिनी हृदय "किसे, तुझे?' हंसी होंठों पर लाकर राजकुमारी से वज्रबाहु के प्राधीन हो चुकी है।
ने कहा। उन्होंने सिर को एक साधारण सा झटका दिया और "मैंने उनका क्या छीन लिया है, जो मुझे देखेंगे । वह वास्तविक संसार में उतर पाए। परिधान उतार कर तो अपने चोर की ओर देख रहे थे। अयोध्या वालों से जा माधारों पर टांग दिए और शय्या पर अपने पैर फैला कर कर कहेंगे वैजयंती में मन चुरा लेने वाले चोर बसते है। प्रांखें मूंद ली, लेकिन पलकों में तो एक ही तसवीर मानो फिर किसी दिन फ़ौजसपाटा लेकर अपने चोर को पकड़ने बहुत गहरी होकर खुदी हुई थी, जो पलकें प्रांखों के ऊपर पाएंगे और ले जाएंगे पकड़ कर, बस इतनी सी तो बात माते ही सामने आ गई। यह निश्चयतः वैजयंती की है", मुखरा ने अपनी दंतपंक्ति दिखाते हुए कहा। राजकुमारी का पीछा करता हुआ चित्र था।
“धत्, पगली", "राजकुमारी सहसा गंभीर होकर उन्होंने माँखें खोल दीं। उनके ठीक सामने की भित्ति बोली, "उनके मुख के भाव तो पढ़े ही नहीं जाते न जाने पर लगा हुमा दर्पण उन्हें प्रतिबिंबित कर उठा, और उन्हें जराजरा सी देर में क्या सोचने लगते हैं।" अनुभव हुमा कि उनके चेहरे पर आवश्यकता से अधिक "यही सोचने लगते होंगे कि जिसकी भोर देखा जा थकावट के चिह्न थे। एक बार अांखें बन्द करके उन्होंने रहा है वह भी अपने को चोर समझता है या नहीं, प्रेम में फिर दर्पण को देखने के लिए खोलीं। लेकिन इस बार अभियुक्त अपराध स्वीकार न करे, तो अभियोग नहीं चल वह चौंक गये । दर्पण में उनके चित्र के पीछे एक और सकता, राजकुमारी।" चित्र था। वह स्पष्टतः राजनन्दिनी का चित्र था, जो द्वार "और यदि उन्हें ही अपने नुकसान का भान न हो, की मोट से उनकी मोर देख रही थी। उन्होंने अचकचा तो?"
(क्रमशः)
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नवागढ़ : एक महत्वपूर्ण मध्यकालीन जैनतीर्थ
- श्री नीरज जैन -
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में टीकमगढ़ से पंद्रह पात एवं ग्रीवा तथा मस्तक की रचना सुन्दर बन पड़ी है। मील दूर नावई नाम का एक छोटा सा ग्राम है । इस स्थान गुच्छकों के माध्यम से चित्रित केशावलि में दोनों पोर पड़ी का नाम नवागढ़ भी है। ग्राम के दक्षिण-पूर्वी कोने पर एक हुई गुलकें और भौहों के कमान इस मूर्ति की अपनी विशेबड़ा टीला पड़ा है जिस पर किसी समय विशाल जैन मंदिर षता है । वक्ष भाग पर श्रीवत्स भी दर्शनीय है। रहा होगा। वर्तमान में तो वहाँ केवल एक मोहरा (जमीन सिंहासन के पार्श्व में शासन देवियां तथा इन्द्र अंकित के नीचे मंदिर है और ऊपर एक नवीन मंदिर तथा संग्र- किए गए हैं। पर भामण्डल अति सादा तथा ऊपर से हालय है जिसमें अनेक महत्त्वपूर्ण और कतिपय दुर्लभ खंडित है। यह प्रतिमा किसी प्रापत्तिकाल में केवल सुरक्षा कलावशेष संगृहीत हैं।
की दृष्टि से इस भोहरे में रख दी गई शात होती है। यह टीला चबूतरानुमा है और उसके चारों पोर
संग्रहालय विशेषकर उत्तर की पोर-लगे हुए विशाल चौरस शिलाखण्ड किसी मन्दिर के खंडहर होने का प्रमाण देते हैं।
वैसे तो यह पूरा चबूतरा ही एक विशाल भू-गर्भित
संग्रहालय कहा जाना चाहिए, क्योंकि यहां महत्त्व-पूर्ण चबूतरे के बीचों बीच केवल एक मनुष्य के उतरने
सामग्री दबी हुई पड़ी होने के अनेक प्रमाण और महती योग्य (लगभग डेढ़ फुट) द्वार से नीचे उतरने की सीढ़ियाँ
संभावनाएं दिखाई देती हैं, परन्तु उनका उद्घाटन-श्रम हैं, जहां आठ फुट लम्बा चौड़ा और ६ फुट ऊंचा भोहरा
और धन द्वारा ही साध्प होगा। यहां पास पास से उठाकर है। इसकी छन का पटाव दो पत्थरों से किया गया है
जो शिल्प खण्ड एकत्र किए गए हैं उनमें कई विशेष महत्त्व जिनमें एक विशाल कमल की आकृति बनाई गई है । द्वार
पूर्ण हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैके ऊपरी तोरण में तीर्थकर प्रतिमा तथा दोनों पार्श्व में कलश वाहिनी यक्षी प्रतिमाएं हैं परन्तु ये तीनों पत्थर उल्टे तोरण लगे हैं।
कला-शिल्प की अपेक्षा से संभवतः इस तोरण का स्थान भोहरे में उत्तर मुख,कायोत्सर्ग मासन,मत्स्य चिह्नांकित न केवल यहां के संग्रहालय में प्रथम होगा वरन् दो-चार भगवान अरहनाथ की मनोज्ञ, नासाग्रदृष्टि साढ़े पांच फुट अच्छे संग्रहालयों में भी सुन्दरता, वीतरागता और लालित्य ऊंची प्रतिमा अवस्थित है।
का एक साथ इतना सुन्दर प्रतिनिधित्व करने वाले पाषाण नीले पाषाण की सुन्दर प्रोपदार पालिश की हुई यह दुर्लभ ही होंगे, यह किसी विशाल वेदी पर-मूल नायक प्रतिमा सं० १२०२ विक्रमाब्द में स्थापित की गई थी। की मूर्ति के ऊपर लगे हुए तोरण का भाग है जिसपर शांतिनाथ और कुंथनाथ की दो अन्य प्रतिमाएं, जो यहां भगवान को कमल मर्पित करते हुए दो मस्त और सुसज्जित रही होंगी, उनमें से शांतिनाथ की प्रतिमा का सिंहासन गजराज अंकित किए गए हैं, गजारूढ़ देव और देवांगनाएँ वाला हिस्सा प्राप्त हुमा है तथा संग्रहालय में सुरक्षित है। अपने दोनों हाथों में कलश और पुष्पमाल लेकर पूजार्थ इस खण्ड पर संवत् सहित शिलालेख भी हैं।
जाते हुए चित्रित किए गए हैं। हाथियों के पीछे भति प्रतिमा के हाथ की हथेलियों कमलाकार बनाई गई सुन्दर भलंकारों के बीच दोनों ओर पांच-पांच तीर्थंकरों हैं, और मंगुलियों में वही वैचित्र्य है जो सं० १२०१ की का अंकन है। तोरण का अन्त ऊपर की ओर शिखर की मदनपुर की मूर्तियों में पाया गया है । शरीर शौष्ठव, अनु- तरह शिला खण्डों का अंकन करके चक्र, प्रामलक और कलश
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अनेकांत
यह लगभग सात प्राचीनतम भूति का ढंग, उन
के द्वारा बड़े लुभावने ढंग से किया गया है। नागर शैली विनास का ताण्डव के मंदिर-शिखर के सभी अवयव उसमें दर्शाए गए हैं। इसी क्षेत्र में ७ फुट ऊंची पारसनाथ की एक फणायुगादि देव
वलि सहित पद्मासन प्रतिमा है जो समीप ही ऊमरी ग्राम यह लगभग सात फुट ऊंची कायोत्सर्ग प्रतिमा मेरे अनु- से लाई गई थी। उक्त ग्राम में जाने पर मुझे भन्य बहुत मान से इस स्थान की प्राचीनतम मूर्ति है। इस मूर्ति का सा उल्लखनाय सामग्रा प्राप्त हुइ ह जिसका चचा या शारीर विन्यास, इन्द्रादिक के खड़े होने का ढंग, उनका करूंगा। यहां एक ही घटना का उल्लेख करके उसका चित्र पहिनावा और तीर्थकर के कांधे पर अंकित की गई जटायें दे रहा हूँ जिससे इस बात का अन्दाजा लगा लिया जा सके इसे पूर्व मध्यकाल की कृति घोषित करती हैं।
कि माज भी पुरातत्त्व के महत्त्व की सामग्री का विघटन और लगभग इसीकाल की एक और सुन्दर मूर्ति तीर्थकर
विनाश किस निर्दयता, उपेक्षा और बेदर्दी से हो रहा है। पारसनाथ की ३३ फुट ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। पीठिका
ऊमरी ग्राम की गलियों का सर्वेक्षण करते समय एक के ऊपर बांई ओर नाग की पूंछ का अंकन करके नाग की
चर्मकार के प्रांगन में एक चौरस पत्थर गड़ा हुआ दिखाई कुण्डली प्रारम्भ की गई है जिससे प्रासन की रचना
दिया जिसमें नीचे की ओर एक फूल की पंखुरी, मेरे साथी हुई है, और इन्हीं कुण्डलियों द्वारा सुन्दर पृष्ठ भाग बनाता श्री पन्नालाल की दृष्टि में आई। चर्मकार इस पत्थर पर हुवा यह नाग अपनी दर्शनीय फणावलि से मूर्ति को प्रावे- अपनी रांपी सुतारी पर धार लगाने का काम किया करता ष्ठित कर रहा था जो खंडित है।
था। इसे उखाड़ कर देखने पर तो हम लोग धन्य हो गए। यद्यपि शिलालेखांकित प्रतिमा यहां सं० १२०२ विक्र
यह पाषाण खण्ड और कुछ नहीं, एक विशाल तीर्थकर माब्द से पूर्व की नही है परन्तु-उपरोक्त तोरण, वेदिका
प्रतिमा के शीर्ष भाग पर का छत्र था जिसमें कुम्भ अभिषेक
करते हुए उद्घोषक अंकित है । उद्घोषक के ऊपर सुन्दर युगादि देव, पारसनाथ तथा एकाधिक अन्य कलावशेषों से
तोरण के बीच एक अन्य तीर्थकर प्रतिमा दिखाई दे रही सिद्ध होता है कि यहां नवमी शताब्दी से बारहवीं शती तक
है। यह पाकर्षक शिल्प खण्ड चर्मकार बन्धु के प्रांगन से की निर्माण की हुई और भी सामग्री प्राप्त होनी चाहिए।
उठाकर ऊमरी के जैन मन्दिर में मैंने रख दिया था, पर मानस्तम्भ
यह अकेला तो नहीं था न ? इधर के दो ग्रामों का शायद नवागढ़ के पास ही सोजना ग्राम की वापिका में इस ही कोई ऐसा अभागा घर हो । चबूतरे पर, दीवार में, क्षेत्र के चार मानस्तम्भ लगे हुए हैं जिनमें तीर्थकर प्रतिमा स्नान गृह में या नाली में कहां क्या मिल जाय इसका कोई हैं तथा "सं० १२०२ गोला पूर्वान्वये" शब्द स्पष्ट अंकित हैं। ठिकाना यहां नहीं है।
राग सोरठ अन्तर उज्जवल करना रे भाई ॥टेक॥ कपट कृपान तज नहिं तबलौं, करनी काज न सरनारे ॥१॥ जप तप तीरथ जश व्रताविक, मागम अर्थ उचरना रे । विषय कषाय कोच नहिं धोयो, यों ही पचिपचि मरना रे ॥२॥ बाहिर भेष किया उर शुचिसों, कोयें पार उतरना है। नाहीं है सब लोक रंजना, ऐसे वेवन वरना रे॥३॥ कामाषिक मन सौ मन मैला, भजन किए ज्या तिरमारे। भूधर नील वसन पर कैसे केसर रंग उधरना रे ॥४॥
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अनेकान्त
नवागढ़ को जैन मूर्तियाँ
चर्मकार के प्रांगन से प्राप्त तीर्थकर प्रतिमा का छत्र जिस पर सकलश गज
और एक अन्य जिन बिम्ब स्पष्ट है । ऊमरी (टीकमगढ़)
।
.
युगादिदेव प्रादिनाय, संग्रहालय नवागढ़
मोयरे में विराजमान श्री अरहनाथ (नवागढ़ क्षेत्र)
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झालरापाटन का प्राचीन वैभव डा.कैलाशचन्द जैन, एम. ए. पी.एच. डी.
राजस्थान में झालरापाटन एक प्राचीन ऐतिहासिक दुर्गण और शिवगण थे। ग्यारहवीं सदी के लेख में राजा स्थान है। यह मन्दिरों का नगर कहा जाता है। प्राचीन श्री कुसुमदेव और उसके पिता श्रीराजा श्री बाल्हणदेव समय में यहाँ पर मन्दिरों के झालर बजने से यह नगर के नामों का उल्लेख है ।" एक स्तम्भ पर बारहवीं सदी के झालरापाटन के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुमा'। इस लेख में दहिया राउल भीवसीह और उसके पुत्र राउल नगर की उत्पत्ति प्रसिद्ध झाला जालिमसिंह से नहीं हुई ऊदा का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्यारहवीं तथा जैसा कि गलती से समझा जाता है । इसके पहले यह नगर बारहवीं सदी में इस स्थान पर दहिया राजा राज्य करते थे। चन्द्रावती के नाम से प्रसिद्ध था। इस नगर की स्थापना चन्द्रावती अपनी कला कृतियों के लिए विशेष प्रसिद्ध के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं। यहां पर बहुत से पंच है। कहा जाता है कि एक समय यहां पर १०८ मन्दिर मार्क (माहत) तथा अन्य प्राचीन सिक्के मिले हैं। जिनके थे। यहां के बिखरे हुए खण्डहरों से अब भी प्राचीन समय प्राधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा से पूर्व भी इस में मन्दिरों की अधिक संख्या जान पड़ती है। इन खंडहरों स्थान पर संभवतया लोग रहते होंगे।
में अब भी चार-पाँच मन्दिर विद्यमान है, जो प्राचीन इस नगर का बहुत प्राचीन इतिहास तो अन्धकार में है कलात्मक वैभव को याद दिलाते हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध किन्तु सातवीं सदी से बहुत संभव है मौर्य राजा यहाँ राज्य मंदिर शीतलेश्वर महादेव का है। इस मन्दिर को बुरी करते थे। ६८९ ईस्वी में इस स्थान का राजा दुर्गगण था, तरह नष्ट किया गया; कि तु फिर से इसकी मरम्मत हुई। जो राजाओं का महाराजा कहलाता था, उसके राज्य में इतना होने पर अब भी इसमें प्राचीन मंदिर के मौलिक जनता सुखी थी, तथा विपदाओं से मुक्त थी । यहाँ के हिस्से जैसे तोरण के स्तम्भ, दीवाल, तथा कुछ नीचे का सातवीं-आठवीं सदी के एक शिलालेख में शंकरगण के नाम अंग सुरक्षित हैं। जो दरवाजों पर पुरुषों और स्त्रियों के का उल्लेख है। शंकरगण उसी वंश का प्रतीत होता है __ रूप में द्वारपालों की प्राकृतियाँ हैं, उनसे जीवन झलकता है। जिस के कि कणसवा के ७३६ ई. के शिलालेख के इस मन्दिर की स्थापत्य कला कुछ रूप में एलोरा की १. एनल्स एंड एंटीक्विटीज अाफ़ राजस्थान,द्वितीय जिल्द
गुफामों से मिलती-जुलती है। कलात्मक नमूने के माधार
पर यह कोटा के पास मुकंदरा द्वार की चौरी तथा एरण पृष्ठ ७८६
के स्तम्भों जैसा होने से सातवीं सदी का प्रतीत होता है २. वही, पृ० ७८६, किसी हूण राजा ने इस नगर को
जिसकी पुष्टि भी शिलालेखों से होती है। बसाया बताया जाता है। ऐसा भी लोगों को विश्वास
फर्गुसन शीतलेश्वर महादेव के मंदिर को सबसे है कि किसी लकड़ी के काटने वाले ने इसको स्थापित
प्राचीन और कलापूर्ण मंदिर समझता है। उसके अनुसार किया । कुछ लोग ऐसा भी सोचते हैं कि राजा चन्द्रसेन ने निर्माण करवाया। यह नगर चन्द्रभागा नदी
भारत के प्रसिद्ध कलात्मक उदाहरणों में यह एक उत्तम के दोनों किनारों पर वसा हुआ है।
६. इंडियन एन्टीक्वेरी जिल्द १६ पृ० ५५ ।। ३. माकिलाजिकल सर्वे रिपोर्ट द्वितीय जिल्द ।
७. एनुमल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम अजमेर सन्
१९१२, १३ पृ०२ ४. इंडियन एन्टीक्वेरी जिल्द ५ पृ० १८० ।
८. वहीं ५. एनमल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम, अजमेर सन् १.हिस्ट्री प्राफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न प्राकिटेक्चर पु. १९१२-१३, पृ०२
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भनेकान्त
वर्ष १५
नमूना है। इसकी छत बहुत ही सुन्दर सजी हुई है। यह मौर्य राजा दुर्गगण के समय इस स्थान पर एक मंदिर बौद्ध विहारों के नमूनों पर बना हुआ है, किन्तु कुछ बातों बनवाया। बोप्पक एक बड़ा राज्य अधिकारी व सेनापति में उनसे भिन्न भी है । बौद्ध विहारों की दीवालों पर चित्र था, जिसने अपने स्वामी दुर्गगण तथा उसके सामंतों के चित्रित हैं परन्तु यहां पर प्रत्येक वस्तु पत्थरों पर अङ्कित बीच सम्बन्ध स्थापित करने में कूटनीति का परिचय दिया है। इस मंदिर में एक पुरुष की मूर्ति है जिस के हाथों में था । शीतलेश्वर महादेव के स्तम्भ पर का आठवीं शताब्दी तलवार या त्रिशूल है। कनिंघम' इसको विष्णु की गदा- का शिलालेख शंकरगण का इस मंदिर पर दर्शन के लिए घर के रूप में मूर्ति मानता है। उसके अनुसार यह मंदिर प्राने का उल्लेख करता है। बहुत सम्भव है कि शंकरगण प्रारम्भ में वैष्णव मंदिर था । वास्तव में पुरुष के हाथ दुर्गगण का उत्तराधिकारी होवे और उसने इस मंदिर को गदा न होकर त्रिशुल है। यह मंदिर प्रारम्भ में वैष्णव न कुछ दान भी दिया होगा । मोसुक का पुत्र मंचुक भी नौवीं होकर शैव मंदिर जान पड़ता है। इस मंदिर के भीतर सदी में इस स्थान की पूजा के लिए माया'। लिंग भी है तथा बाहर के हिस्सों पर महिषासुर मदिनी तथा अर्धनारी की मूर्तियां भी मिलती हैं। शिलालेखों से
ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में यात्री लोग चंद्रायह मंदिर शैव मंदिर जान पड़ता है।
वती में तीर्थयात्रा के लिए बराबर पाते रहते थे। १०६६
ई० में बनिया जाति के यात्री विक्रम श्री हर्षदेव और इसके अतिरिक्त यहाँ पर अन्य मन्दिरों के भी प्राचीन
मधुसूदन ने शैव मंदिर को दान दिया। एक स्तम्भ पर अवशेष हैं । एक मंदिर काजिका देवी का है जिसमें सभामंडप
___ ग्यारहवीं सदी के लेख में राजा श्री कुसुमदेव और उसके तथा अन्य मंडप भी पाये जाते हैं। मंडप के चित्रों से इस मंदिर पिता श्री बाल्हणदेव के नामों का उल्लेख है । बहुत संभव की प्राचीनता सिद्ध होती है। यह मंदिर पहले विष्णु का है कि इन्होंने इस मंदिर को कुछ दान दिया हो । बारहवीं था; क्योंकि इसकी प्रतिमा इसमें पाई जाती है ऐसा मालूम शताब्दी में दहिया राजा रावल, भीवसीह और ऊदा का होता है कि यह मंदिर भी शीतलेश्वर महादेव के समय का भी इस स्थान से संबंध रहा और उन्होंने इस मंदिर को है क्योंकि दोनों मंदिरों की बनावट में साम्यता है। अन्य कुछ भेंट दी होगी। कालिका माता के मंदिर के स्तम्भ छोटा मंदिर वराह अवतार का है जिसमें अब भी वराह की
पर भी ऐसे यात्रियों के नाम खुदे हैं जो यात्रा के लिए मूर्ति पाई जाती है और उस पर नौवीं व दसवीं सदी का
यहाँ आये थे। इन शिलालेखों से यह पता चलता है कि लेख है। सात सहेली के प्राचीन विष्णु के मंदिर का भी
सातवीं सदी से बारहवीं सदी तक यह तीर्थ स्थान यात्रियों बाद में पुनरोद्वार हुमा, किन्तु उसके शिखर तथा मंडप प्राचीन दीख पड़ते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट प्रकट होता
चन्द्रावती प्राचीन समय में जैनियों का भी एक बड़ा है कि चन्द्रावती में विष्णु तथा शिव की एक साथ पूजा होती थी । शांतिनाथ का जैन मंदिर भी प्राचीन मंदिर पर
धार्मिक स्थान रहा है। यहाँ पर एक प्रसिद्ध शांतिनाथ का बना हुमा है। इस मंदिर की चंवरी तथा शिखर पुराने हैं
प्राचीन मंदिर था जिसको १०४६ ई. में शाह पापा हूमड़
ने बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा भावदेवसूरि ने की किन्तु मंडप नया है। ___ इन पुरातत्व स्मारकों से स्पष्ट प्रकट होता है कि
थी। सात सलाकी पहाड़ी के स्तम्भ का ११०६ ई० का चन्द्रावती शैवधर्म, वैष्णवधर्म तथा जैनधर्म का एक
१. प्रोग्रेस रिपोर्ट भाकियालाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न बड़ा केन्द्र था। राजा और अनेक अधिकारी तथा साथ में
इंडिया, १९०५-०६ झालरा पाटन के शिलालेख सं.७ व्यापारी बाहर से इस स्थान के देवी देवताओं की पूजा
२. पाकियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट, दूसरी जिल्द । के लिए पाते थे। ६८६ ई० में देव का भाई वोप्पक ने
३. प्रोग्रेस रिपोर्ट भाकियालाजिकल सर्वे माफ वेस्टर्न १. प्राकिलाजिकल सर्वे रिपोर्ट द्वितीय जिल्द
इंडिया१९०५-०६, झालरापाटन का शिलालेख सं०६.
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फिरल ६
शिलालेख श्रेष्ठी पापा की मृत्यु का उल्लेख करता है' । पापा वही व्यक्ति हो सकता है जिसने शांतिनाथ का जैन मंदिर बनाया था। १११३ ६० का शिलालेख सेठी साहिल की मृत्यु का उल्लेख करता है । साहिल पापा का भ्राता हो सकता है। इस मंदिर के दर्शन के लिए अनेक श्रावक तथा जैन श्राचार्य आया करते थे । १०४७ ई० का एक शिलालेख एक यात्री के नाम का उल्लेख करता है। इस स्थान पर जैन आचार्य भी रहा करते थे । यहाँ पर अनेक जैन माचायों को भी निषद्या या निषेधिकायें है। एक वि० सं० २०६६ को है जिस दिन प्राचार्य श्री भानदेव के शिष्य श्रीमंतदेव स्वर्गलोक पधारे थे। भाषायं का मुख अध्ययन स्थिति में है । पुस्तक खुली अवस्था में ठूणी पर रखी हुई है जो कि पढ़ने के लिए डेस्क का काम देती थी। पास के चबूतरे पर देवेन्द्र प्राचार्य का नाम खुदा हुआ है और उनका समय संवत् ११८० दिया हुआ है। अन्य पर कुमुदचन्द्र ग्राम्नाय के भट्टारक कुमारसेन का नाम दिया हुआ है जिनका स्वर्गवास सं० १२८६ में यहाँ हुआ था । सात सलाकी पहाड़ी के स्तम्भ का २००६ ई० का शिला लेख नेमिदेवाचार्य और बलदेवाचार्य का उल्लेख करता है । इमी स्तम्भ पर १२४२ ई० के शिलालेख में मूलसंघ और देवसंघ का उल्लेख है ।
झालरापाटन का प्राचीन बंधव
शान्तिनाथ का यह मंदिर किसी समय बहुत ही सुंदर रहा होगा। वर्तमान मन्दिर का जीर्णोद्वार हुआ प्रतीत होता है। इस मंदिर में एक बड़ा शास्त्र भंडार भी है जिसमें एक हजार के लगभग हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ भी हैं ।
यहाँ शान्तिनाथ मन्दिर की कुछ मूर्ति-लेख दिये जाते हैं जो मूलसंघ ।
प्रतिमाओं के सरस्वतीगच्छ,
१. अनेकांत १२, पृ० १२५ ।
२. एनुअल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम अजमेर, १९१२१३, पृ० ७ ३. वही ।
४. एनल्स एण्ड एन्टिक्वीटीज आफ राजस्थान, जिल्द २, पृ० ७६२ ।
५. एनुअल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम, अजमेर, १९१२१३, पृ० ७ ।
२०१
बलात्कारगण के भट्टारक सकलकीर्ति और उनके शिष्यों द्वारा प्रतिष्ठित है।
नगर में और भी अनेक मंदिर विद्यमान हैं। और ऐलक पन्नालाल जी द्वारा स्थापित सरस्वती भवन भी है, जिसमें ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। सेठ लालचन्द सेठी जी, उज्जैन जो विनोदीराम बालचन्द फर्म के मालिक है. उन्हीं की संरक्षकता में उक्त भवन चल रहा है।
१. संवत् १४६० वर्षे माघवदि १२ गुरौ भ० श्री सकलकीर्ति, (व) हूमड दोशी मेघा श्रेष्ठी अर्चति ।
२. सं० १४९२ वर्ष वैशालवदी १ सोमे श्री मूलचे भ० श्री पद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री सकलकीति हमद ज्ञातीय.........
३. सं १५०४ वर्षे फागुन सुदी ११ श्री मूलसंघे भट्टारक श्री सकलकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ श्री भुवनकीर्ति देवा हूमड़ ज्ञातीय श्रेष्ठि खेता भार्या लाखू तयोः पुत्राः ... ।
४. सं०] १.३५ पौषवदी १३ बुधे श्री मूलचे भ० श्री सकलकीर्ति भ० श्री भुवनकीर्ति भ० श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हू० श्रेष्ठि पदमा भार्या भाऊ सुत आसा भा० कडू सुत कान्हा भा० कुंदेरी भ्रातृ धना भा० वहनूं एते चतुर्विंशतिकां नित्यं प्रणमंति ।
देशात्
५. पार्श्वनाथ प्रतिमा - सं० १६२० वैशाखसुदी ६ बुधे श्री मूलसंधे बलात्कारगणे हरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दा चार्यान्वये म० श्री पद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे सकलकी तिदेवास्तत्पट्टे श्रीभुवनकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्री ज्ञानभूषणदेवास्तत्पट्टे श्रीविजयकीतिदेवास्तत्पट्टे सुमतिकीर्तिगुरुप जातीय वेदिरगोत्रे, संघवी देवा भा० देवाभदे तत्सुत संभवी परवत भार्या परमलदे तत्भ्रातृ सं० हीरा भा० कोडमदे तत्भ्रातु सं० हरषा भा० कश्मादे सुत लहुआ भा० मिन्ना, भ्रातृ लाडण भा० ललितादे सुतं थापर सं० जेमल भा० जेताही भ्रा० डूंगर भा० धनादे भ्रा० जगमा सं० हीमा भा० बलादे एतैः सह संघवी जीवादी सागवाडा वासूव नित्यं प्रणमति । (यह मूर्ति सागवाडा में प्रतिष्ठित हुई थी और झालरापाटन के शान्तिनाथ मंदिर में विराजमान है।)
इस मंदिर की मूलनामक प्रतिमा का लेख अभी तक प्रकाश में नहीं आया है, वह एक प्राचीन मूर्ति है। धीर
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जैन परिवारों के वैष्णव बनने सम्बन्धी वृत्तान्त
श्री नगरचन्द्र नाहटा
भारत में अनेक धर्म-सम्प्रदाय हैं और उनमें परस्पर प्रेम की अपेक्षा विरोध की भावना ही अधिक रही है, इसलिए एक-दूसरे दोनों सम्प्रदाय के गुणों एवं विशेषताओं का वर्णन भिन्न सम्प्रदाय के ग्रन्थों में नहीं मिलता। उन की बुराइयाँ बतलाते हुये खण्डनात्मक प्रणाली को ही अधिक अपनाया गया, क्योंकि अन्य धर्म वालों को अपने धर्म की घोर प्राकृष्ट करने का यही सरल और ठीक उपाय समझा गया । प्राश्चर्य जब होता है कि जिन संतसम्प्रदायों ने हिन्दू और मुसलमानों को एक बतलाया और उनके पारस्परिक भेद-भाव और विरोध की कड़े शब्दों में भर्त्सना की उन्हीं संत-सम्प्रदायों में जैनधर्म का मसीन उड़ाया गया है । वास्तव में एक-दूसरे की मान्यतानों को तटस्थ और सही दृष्टि से नहीं देखने का ही यह परिणाम है और जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि दिखाई देने
बहुत सुंदर है, कहा जाता है कि वह सं० १९०३ में प्रतिष्ठित हुई थी।
झालरापाटन के चन्द्रप्रभ मंदिर में दशवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, उसका मूर्तिलेख निम्न प्रकार है
सं० १५५२ वर्षे जेठवदी ८ शनिवासरे श्री काष्ठासंवे बागड़ गच्छे (नंदीतटगच्छे ) विद्यागणे भ० विमलसेनस्वरपट्टे म श्री विजयसेनदेवास्तपट्टे धाचार्य भी विशालकीति सहित बड़े शाति परमेश्वर गोत्रे सा० गोगा भा० वावनदे, पुत्र पंच, सा० कान्ह, सा० करमसी, भा० गारी कनकदे, साह कानू भा० जीरी, सा० बेवर मा० आदे, सा० गोगा, भा० गोगावे, तेनेदं शीतलनाथस्य विम्बं निर्माप्य प्रतिष्ठा कारापिता पुत्री २, बाई- माहो, बाई पुतली ।
इस तरह झालरापाटन भारतीय संस्कृति के साथ जैन संस्कृति का भी केन्द्र रहा है, आज भी वहां अनेक प्रतिष्ठित जैन व्यक्ति रहते हैं।
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लग जाती है। किसी भी महान् व्यक्ति या धर्म को हम जब दोष निकालने की दृष्टि से देखते हैं तो हमारा उनके गुण या विशेषताओं की ओर ध्यान न जाकर दोष ही उभर आते हैं, यावत् गुणों को भी दोष समझने व कहने लगते हैं । महाभारत का एक दृष्टान्त बहुत प्रसिद्ध है कि युधिष्ठिर को कहा गया कि इस नगर में पापी या अवगुणी व्यक्ति कितने और कौन-कौन हैं ? इसका पता लगा लाभो और इसी तरह दुर्योधन से कहा गया कि नगर के धर्मी और गुणी व्यक्तियों की जानकारी प्राप्त कर घाघो तो दुर्योधन को सभी व्यक्तियों में दोष नजर आये और युधिष्ठिर को गुण । इस तरह दृष्टि भेद मनुष्य को वास्तविकता तक पहुँचने नहीं देता । राग और द्वेष जहाँ तक मनुष्य में हैं वहां तक उसका ज्ञान निर्मल और पूर्ण नहीं हो पाता यह एक माना हुआ तथ्य है और इसीलिए तीर्थंकर जब तक पूर्ण वीतरागी नहीं हो जाते थे तब तक धर्मोपदेश नहीं देते ।
1
दूसरे सम्प्रदाय वालों को प्रपने सम्प्रदाय में दीक्षित करने का यही प्रधान उपाय माना गया कि उस सम्प्रदाय की किसी-न-किसी बात को गलत बतलाया जाय और अपने सम्प्रदाय की अच्छाइयों का प्रचार किया जाय । इससे भिन्न सम्प्रदाय वाला व्यक्ति अपनी ओर आकर्षित होगा और परिवार के एक व्यक्ति को यदि अपनी ओर ठीक मे पाकषित किया जा सका तो थोड़ा-सा मौका मिलते ही सारे परिवार को अपने सम्प्रदाय का धनुवायी बनाया जा सकेगा । साधारण व्यक्ति सम्प्रदाय प्रचारकों की बातों के चक्कर में सहज ही भ्रमित हो जाता है इसी लिए प्रत्येक सम्प्रदाय वालों को अपने सम्प्रदाय के अनुयावियों को बनाये रखने के लिये बाड़ावन्दी करनी पड़ी कि दूसरे सम्प्रदाय वाले के पास मत जाना; उनकी बातें नहीं सुनना; सम्प्रदाय के गुरुधों और प्रचारकों से दूर ही रहना; क्योंकि उनकी संगति से तुम्हारे विचार सहज ही में बदल सकते हैं, जिससे तुम अपने सम्प्रदाय को छोड़ न
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बन परिवारों के
बनने का वृत्ता
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बैठो । गीता में भी कहा है-सधर्म
धर्मी ज्ञाति को मिल्यो। तब वासों अपनी बेटी को विवाह "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः।" करि दीनो । सो वह वैष्णव की बेटी अपने घर को गई। जिस प्रकार जैनाचार्यों ने अपने ज्ञान और चरित्र तब वह लरिकिनी वाके घर मे जैनधर्म अनाचार भ्रष्ट उपदेश एवं प्रभाव के बल से समय-समय पर लाखों प्रजनों देखि के मन में बोहोत दुख करन लागी। घर में तो सब को जैन बनाया इसी तरह अन्य धर्म सम्प्रदाय वालों ने भ्रष्टाचार । और खाय बिना तो रह्यो न जाय । तातें उन भी कतिपय जैन-धर्मानुयायियों को अपने धर्म का अनुयागी लरिकिनी ने अपनी सास तें कहो, जो-तुम्हें मोकों बना लिया । पर ऐसे धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्तियों परोसनो होइ तो एक बेर ही परोस देहु । मैं तो कछ फेरि की जानकारी उन सम्प्रदायों के ग्रन्थों को देखे बिना नहीं मांगोंगी नाहीं । तब वाकी सास एक ही बेर वाकी पातरि मिल सकती । और जैन विद्वानों का अध्ययन बहुत ही में परोसे । तितनो ही वह लरिकिनी चरनामृत मिलाय के सीमित होने से जैनेतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों का अवलोकन कम खाँहि । परन्तु दूसरी बेर न कछू खाय न कछू लेय । या ही हो पाता । 'अनेकान्त' के गत अंक में भगवत मुदित कृत भांति सों निर्वाह करे। सो ऐसे करत बहोत दिन भए । रसिक अनन्य माल के नरवाहन जी की परिचयी में वर्णित सो वह लरिकिनी मन में बहोत ही दुःख करे। और कहे, सरावगी (जैनी) का विवरण प्रकाशित किया गया है। जो-या आपदा तें श्री ठाकुर जी कब छुटावेंगे। या भांति प्रस्तुत लेख में वल्लभ सम्प्रदाय के" दो सौ बावन वैष्ण- सों वोहोत ही खेद करे। सो श्री ठाकुर जी तो परम वन की वार्ता" नामक ग्रन्थ में वर्णित २ वार्ता प्रसंगों को दयाल हैं, भक्तवत्सल हैं। सो वह लरिकिनी को दुःख प्रकाशित किया जा रहा है। इनमें से पहले प्रसंग में यह देखि कै श्री नाथ जी ने श्री गुसांई जी सोक ह्यो, जो-वह बतलाया गया है कि एक वैष्णव कन्या का विवाह जैन बनिया वैष्णव की बेटी मह गाम में है। सो वाको दुःख धर्मी व्यक्ति से हो गया । उस घर में वैष्णव सम्प्रदायोक्त मोते सह्यो जात नाहीं। तब श्री गुसाई जी उह लरिकिनी सुचिता न देख कर कन्या को दुःख हुआ। इस बाहरी को दुःख जानि के थौरे से दिन में महगाम में पधारे । सुचिता को महत्व देते हुए वार्ता में जैनधर्म को अनाचार सो वा गाम के बाहिर तलाब हतो। सो वा तलाब के व भ्रष्टाचार तक बतला दिया गया है। अन्त में वल्लभ ऊपर श्री गुसांई जी ने डेरा किए। तब ता दिना वह सम्प्रदाय के श्री गुसाई जी उस गांव में आते हैं और उनके बनिया वैष्णव की बेटी वा तलाब पर पानी भरन को गई दर्शन कर वह वैष्णव सम्प्रदायानुयायिनी स्त्री अपना दुख हती । तब उहां वा लरिकिनी ने गुसांई जी के व्रजवासी गुसांई जी से निवेदन करती है और सासु से गुसांई जी देखे। तब उह लरिकिनी वा वाजवासी के लिंग ठाड़ी को भेंट करने के लिए एक नारियल मांगती है। सासु ने विचार किये । जो-ये व्रजवासी तो मेरे बाप के घर नित्य बहू के साथ गुसाँई जी के दर्शन की इच्छा प्रकट की। आवत हते । तब वह लरिकिनी वा व्रजवासी के लिंग प्राय और वहाँ जाने पर सासु भी गुसांई जी की भक्त हो गई। के पूछयो, जो तूम कौन हो? और कहाँ ते पाए हो? अन्ततः सारा परिवार वैष्णव हो गया। दूसरी वार्ता में तब उस व्रजवासीन ने कही, जो श्री गुसांई जी श्री गोकुल एक सरावगी की बेटी और उसके पति के वैष्णव होने का ते पधारे हैं । सो हम सब व्रजवासी उनके साथ हैं। सो वृतान्त है । व्रज भाषा की वे दोनों वार्ताएँ नीचे दी जा श्री गुसांई जी माज इहां उतरे हैं। सो प्राज तो इहां रही है। दो सौ वैष्णवन् की वार्ता तीन खण्डों में शुद्धाद्वैत रहेंगे । और सवेरे श्री द्वारिका जी कों पधारेंगे । तब वा एकेडमी, कांकरोली से प्रकाशित है।
लरिकिनी ने वा व्रजवासी सों कही, जो-मैं तो फलाने (१) वार्ता
वैष्णव की बेटी हों। और मेरे इहाँ तो मेरा पिता श्री सो वह बनिया परम भगवदीय हतो। सो वाके एक ग्रसांई जी को सेवक है। सो मोकों श्री गुसांई जी के बेटी कुगरी हती। सो कन्या के निमित वह वर पंढन को दरसन करावोगे ? मैं तो वैष्णव की बेटी हों। और इहां गयो । परन्तु कोऊ वैष्णव मिल्यो नाहीं। तब एक जैन- ससरारि में तो जैन धर्मी हैं। तातें मोकों वो इहाँ परम
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अनेकात
बर्ष १५
दुःख है । सो श्री गुसांई जी के दरसन करतें मेरो दुःख अपने-अपने पति के प्रागे भाई के सब सामाचार कहे, निवृत होइगो । तब वह लरिकिनी ने उन व्रजवासिन सों जो-अब तो हम वैष्णव भई हैं। श्री गुसांईजी पास कहि के वह जल की घड़ा तो वा तलाब पर धरि दीनो नाम पायो है । तातें अब हमारो और तुम्हारोसब व्यवहार और माप वा बजवासी के साथ जा के श्री गुसांई छूट्यो । जी के दूरि तें दरसन किये । दंडवत कीनी । तब
पाछे वा लरकिनी के सुसर ने अपनी स्त्री सों कहो, वा ब्रजवासी सों पूछे, जो-यह कौन है ? तब श्री जो गुसाई जी मोहू कों नाम देइंगे । सो तू मोकों उहां गुसांईजी वा ब्रजवासी ने विनती कीनो, जो- ले चलि । सो वह अपने बेटान सहित अपनी स्त्री तथा महाराज! यह तो अमुके वैष्णव की बेटी है। तब वह बहु को साथ लेकै श्री गुसांई जी के पास जांह के नाम लरिकिनी श्री गुसांई जी को दंडवत् करि के पाछे वह पाइवे की विनती कियो। तब श्री गुसाई जी कृपा करिके तलाब पर माई के जल को घड़ा भरि के घर पाई। सो
उन सजन को नाम दिये । पाछे बहुने निवेदन की विनती घर में प्राई के सोच करन लागी, जो-मेरे पिता के गुरु
कीनी। तब श्री गुसांई जी वाकों निवेदन कराए । ता गुसांईजी इहाँ पधारे हैं। सो तुम मोकों एक नारियल
पाछे और सबन ने निवेदन की विनती कीनी । तब उनको देऊ तब वाकी सास ने कह्यो, जो-परी बहू ! तू कहे
एक व्रत कराई निवेदन कराये। तब बहुने फेर बिनती तो तेरे साथ माऊँ, श्री गुसाई जी के दरसन कों। तब बहू
करिके कहो, जो महाराज! अब कुछ सेवा पधराइ । ने कह्यो, जो-भलो, तुम हू चलो। तुम्हारी इच्छा है तो
दीजिये, तब श्री गुसांई जी वाकों नवनीतप्रिय जी के वस्तु तुम हू चलो । सो घर तें वे दोऊ जनीं एक-एक नारियल की सेवा पधराये। तब वह बहू सेवा पधराइ, अपने लै कै सास-बह चली। सो उहाँ श्री गुसाई जी के पास घर भाई सो बहु के पाछे सब कुटुम्ब ने नाम निवेदन गई। तब ब्रजबासिन ने श्री गुसांई जी सों कही, जो पायो । ता पाछे गाम के और हू लोग वैष्णव भए, या भांति महाराज! अमुके वैष्णव की बेटी पाई है। तब श्री पाछे दूसरे दिन श्री गुसांई जी को सबन विनती कर उहाँ गुसांई जी ने कह्यो, जो-कहो भीतर पावें। तब ये दोऊ राखे । सो मापने घर श्री गुसांई जी को पधराप के विनती डेरा के भीतर जाँई कै श्री गुसाई जी को दंडवत किये। करि के भेट धरी । या प्रकार श्री गुसांई जी ने वा वैष्णब
थ जोरि उहाई ठाडी होई दी। तब बहन की बेटी की कानि तें उन सबन को अंगीकार कीने। (६२) अपनी विनती श्री गुसांई जी सो कही, जो माको नाम
(२) दीजिए। मैं पाप की सरनि प्रांउगी। तब श्री गुसांई जी
अब श्री गुसांई जी की सेवकिनी एक सरावगी की पाशा किये, जो-नाम देईगे। तव सास ने बहु के हाथ
बेटी, आगरे में रहती, तिनकी वार्ता को भाव कहत हैंविनती करवाई, जो-मोह को नाम दें तो भलो है। तब
सो ये आगरे में एक सरावगी के जन्मी । सो ये वर्ष
नब की भई। तब मां बाप ने याको व्याह जाति लरिका वा बहु ने श्री गुसांई जी सो फेरि बिनती करी, जो महाराज ! मेरी सासह नाम पायवे की बिनती करति
सों कियो। सो याउ दैवी जीव हते । सो परम स्नेह सों है। तब श्री गुसांई जी ने कही, लो-भले! पाछे दोऊ
रहते । पाछे बरस बीस को पुरुष भयो तब इनके मां-बाप जनी श्री गुसांई जी के मागे माय बैठीं । तब उन पर कृपा
मरे । तब ये दोऊ सुतंत्र घर में रहने लागे। करि कै दोऊन कों नाम दीनो। तब वे दोऊ नाम पाइ के
वार्ता प्रसंग--१ वैष्णव भई । पाछे श्री गुसाई जी को नारियल भेंट धरि
सो एक समय धी गुसाई जी घागरे पधारे हते । सो दंडवत करि के प्रसन्न मन सों घर को गई । और उनके
रूप चंदलया के घर बिराजे हते, अटारी पर। तब पृथ्वीसाप वा गाम की लुगाई पांच-सात जनी और ह गई हतीं,
पति के यहां सों काहु चोर को सूरी की हुकम भयो हतो! श्री गुसांईजी के दरसन को। सो वेऊ सब ताही समै
तब तहाँ दस-पांच लुगाई जल भरिवे को जात हती।
सो तामें एक सरावगी की बेटी हती । सो ताने उह सूरी श्री गुसाई जी पास नाम पायो। सो वे नाम पाइके पंधरयो देख्यो। तब देखिकै वाकों मूर्ण पाई। सो
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चन परिवारों के बैष्णव बनने सम्बन्धी वृत्तान्त
२८५ श्री गुसाई जी ने एक ब्रजवासी को माज्ञा दीनी, जो या और बोले नाहीं। तब वाकी धनी उहाँ माया । तब वाने लरिकिनी को उठाय ल्यायो । तब मापुने वा 4 जल कही, जो कहा-है ? तब याने कही, जो मेरे पास मति छिरक्यो। तब वाकों चेत भयो। तब मापु माजा किए, माउ । मैं तो श्री गुसाई जी की सेवक होइ पाऊ । तब जो साकों जितनों रंग चढ़ावो तितनों रंग चढ़े। तव वा काहू के मन में पाई। तब वाने हजाई के श्री गुसाई जी लरिकिनी ने कही, जो-कृपानाथ । पापके बिना ऐसो और के मागे बिनती करी। तब श्री गुसाई जी वाहू को नाम कौन है, जो रंग चढ़ावे? तातें अब तो आप ही रंग सुनाए। तब घर माई के कही, जी-मो कों हू कृपा करि चढ़ावो तो भलो है। तब श्री गुसांई जी वाको वचन के श्री गुसाई जी ने नाम सुनायो । सेवक किया है। तातें सुनि बोहोत प्रसन्न भए । पाछे मापु कृपा करि वाकों अब तुम कहो सो मैं करूं। तब वा स्त्री ने कही जो यह नाम निवेदन करवाये। तब वा लरिकिनी ने कही, श्री घर खासा करो। तब वाने कही वैसे ही घर खासा कियो। कृपानाथ ! अब मोकों कहा प्राज्ञा है ? तब श्री गुसांई जी तब श्री ठाकुर उहां पधराए । सो मन्दिर की सेवा और कहे, जो-तू सेवा करेगी? तब वाने कही, जो-राज ! रसोई की सेवा सब स्त्री करे। पौर ऊपर की टहल जैसे प्राज्ञा होइगी तसे करूंगी। तब श्री गुसांई जी ने वाकी धनी करे। सो ऐसे ही सदा करें। कृपा करिक वाके माथे श्री ठाकुरजी पधराई दिए। और सेवा की रीति भांति सब बताइ दिए। तब उह ठाकुर
सो उह सरावगी की बेटी श्री गुसांई जी को ऐसी जी को पधराई के अपने घर को गई। सो अपने घर परम कृपा-पात्र भगवदीय हती । तातें इनकी वार्ता कहाँ पर कोठा में जाइ बैठी। बाहर बुलावे तो आवे नाहीं। तांई कहिए। (२२६)
राग विलावल
सुमर सवा मन मातम राम, ॥टेक॥ स्वजन कुटुम्बी बन तूं पोषं तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथ के साथी, मन्तकाल नहिं प्रावत काम ॥१॥ जिमि मरीचिका में मृग मटक, परत सो जब ग्रीषम प्रति घाम । तसे तू भवमाही भटक, परत न इक छिनह विसराम ॥२॥ करत न गलानि अब मोगन में, परत न वीतराग परिनाम । फिरि किमि नरकमाहि दुख सहसी, जहां सुसलेशन पाठों जाम ॥३॥ तात माकुलता प्रब तजि के पिर हंबंठो अपने पाम । भागचंद वसि शान मगर में, तजि रागाविक ठग सब ग्राम ॥४॥
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ज्ञात वंश
श्री पं० बेघरदास दोशी प्रभी अनेकान्त (दिसम्बर १९६२) पत्र में ('शोधकण' के, कोस्य वंश के तथा क्षत्रिय वर्ण के प्रवजित थे तथा के शीर्षक नीचे .२२४) पर पढ़ने में पाया कि "जैन कितनेक भट वंश वगैरह के भी प्रवजित थे?" इस भारती (ता. १७ नवम्बर १९६२ वर्ष १० अंक ४६) में प्रसंग में भगवंत के वंश व कुल की कोई चर्चा नहीं है वा तेरापंथी श्वेतांबर सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री तुलसी के उस चर्चा का प्रसंग भी नहीं है मात्र यह बताना है कि जो शिष्य मुनि नथमल जी का एक नोट प्रकाशित हुअा है कोई भगवंत के शिष्य थे उनमें किस किस वंश के वा जाति के जिसका सारांश यह है कि भगवान महावीर इक्ष्वाकुवंशी लोग शामिल थे इस प्रसंग में भी वृत्तिकार ने 'नाय' का काश्यप गोत्री क्षत्रिय थे और नागवंशी थे। नागवंश की अर्थ सर्वप्रथम 'ज्ञात' बताया है और बाद में 'अथवा' करके उत्पत्ति इक्ष्वाकु वंश से हुई है इत्यादि।"
'नाग' भी बताया है अतः इस उल्लेख से यह निश्चय कभी इस नोट से मालूम होता है कि मुनि नथमलजी नात भी नहीं हो सकता है कि 'नाय' शब्द केवल 'नाग' वंश या नाय शब्द का संस्कृत रूप 'नाग' मानकर भगवान के को ही सूचित करता है और इस उल्लेख मात्र से यह भी नागवंश होने को प्रमाणित कर रहे हैं और प्रौपपातिक सत्र निर्णय नहीं दिया जा सकता है कि भगवान का नागवंश है। की श्री अभयदेवीय वृत्ति की साक्षी देकर 'नाय' का बौद्ध पिटकग्रंथों में सर्वत्र 'निग्गंठो नातपुत्तो' शब्द 'नाग' प्रर्य समझने में उक्त वृत्ति को संवादरूप मानते हैं। महावीर भगवंत के लिए आता है। वह उल्लेख किस
जैनमागम में नातपुत्त, नायपुत्त शब्द अनेक स्थल पर प्रकार अप्रामाणिक हो सकता है? इसका खुलासा भी पाते हैं और प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने स्तुति रूप श्लोक नथमल जी को सबसे प्रथम करना चाहिए, और जैन भागमों में "वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम' ऐसा विशेष रूप से भगवान में जहां जहां भगवान के कुल वा वंश के रूप में नात व महावीर का निर्देश करके नात अथवा णाय का संस्कृत नाय वा णाय वा णात शब्द आया है। वहां कहीं भी उस रूपांतर 'ज्ञात' स्पष्ट रूप से दिया है और जिस वत्ति की शब्द का केवल 'नाग' अर्थ किसी वृत्ति कारने बताया हो साक्षी उक्त मुनि जी ने दी है वहां भी नात वा नाय शब्द यह भी मुनि जी को संवाद के लिए साधार बनाना चाहिए। का प्रथम रूपांतर 'ज्ञात' दिया है और द्वितीय रूपांतर प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि जी ने अपने परिशिष्ट पर्व में भगवंत "अथवा" करके 'नाग' दिया है इस वृत्ति के जिस स्थल में
की स्तुति रूप में जो यह पद्य दिया है'नात' वा 'नाय' शब्द का 'नाग' भी एक रूपांतर दिया
"कल्याणपादपारामे श्रुतगडाहिमाचलम् । है वहां भगवान के वंश की किसी प्रकार की चर्चा नहीं है
विश्वाम्भोजरविं देवं वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम्" । परन्तु वहां जो प्रसंग है वह इस प्रकार है-"तेणं कालेणं इसमें जो 'शातनन्दनम्' विशेषण नाम के रूप में कहकर तेणं समएणं समणस्स भगवसो महावीररस्स मन्तेवासी बहवे भगवंत महावीर का निर्देश किया है उसको अप्रामाणिक समणा भगवन्तो अप्पगेइया उग्गपब्बइया भोगपव्वइया करने के लिए पुष्ट प्रमाण देना चाहिए। राइण्ण. णाय. कारेव्व० खत्तियपव्वइया भडा" और दूसरी बात-प्राकृत शब्दों के अर्थ निर्णय के लिए इत्यादि । इसका तात्पर्य यह है कि "उस काल में उस कल्पित संस्कृत रूपांतरका प्राधार लेना कभी-कभी भ्रांतिसमय में श्रमण भगवंत महावीर के अन्तेवासी-शिष्य रूप जो जनक हो जाता है । जैसे हमारे प्रागमों में कई जगह प्रमण भगवंत थे उसमें से कितनेक उग्रबंश के प्रवजित थे, "लेच्छइलेच्छहपुत्ता" ऐसे शब्द आये हैं । यह शब्द प्रसिद्ध मोगवंश के प्रवजित थे, इसी प्रकार राजन्यवंश के, णायवंश लिच्छवी वंश का सूचक है इसमें लेश भी शंका नहीं है।
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बात
परंतु जो लोग इस बात से अपरिचित हैं वे लोग जैन ग्रंथ दिया। परंतु अन्यत्र भी, वृत्तिकार पूर्वापर का मनुसंधान के वृत्तिकार होकर भी अपनी कल्पित पद्धति से इस ख्याल में रखते तो कभी ऐसी मनः कल्पित परिस्थिति न शब्द का अर्थ 'लिप्सुक' करते हैं और लिप्सुक माने "बनिया पाती। अस्तु, प्रस्तुत में प्राचार्य शीलांक सूरि तथा प्राचार्य वगैरह" अर्थ बताते हैं यपि 'लिप्सुक' शब्द का ठीक अभयदेवसूरि को ही लक्ष्य में रखकर वृत्तिकार शब्द का प्राकृत 'लिच्छम' होगा, 'लेच्छह'नहीं-कभी नहीं होगा प्रयोग हुमा है अन्य वृत्तिकारों को नहीं, यह ध्यान में रहे। फिर भी बराबर अर्थ का अवगमन न होने से किसी भी चौथी बात-नथमलजी मुनि ने लिखा है कि इतिहास तरह तोड़ मरोड़ कर 'लिच्छुम' और 'लेच्छई' को एक में 'ज्ञात' वंश की प्रसिद्धि नहीं है किन्तु 'नाग' वंश की मान कर अपना प्राशय व्यक्त करते हैं। ये वृत्तिकार जहां प्रसिद्धि है अतः नाय वा णाय का 'नाग' अर्थ करना चाहिए 'लेच्छह लेख्छइपुत्ता' उल्लेख माया है, उस प्रसंग का मुनिजी ऐसा मानते हों कि इतिहास प्रसिद्ध विचार वा वस्तु बराबर सावधानी से विचार करने वा वाक्य के संदर्भ से प्रामाणिक है और अन्यथा प्रकार के विचार वा वस्तु तथा "उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता" वगैरह शब्दों के प्रामाणिक नहीं तो जैन परम्परा की अनेक हकीक़तों को साहचर्य को देखकर विचार करते तो उनको मालूम होगा अप्रामाणिक मानने की स्थिति आ जायगी। कि जैसे उग्र, भोग शब्द वंश सूचक है वैसे ही यह 'लेच्छइ' जैन परम्परा में जितनी-जितनी हकीकतें बताई गई हैं शब्द भी वंश सूचक है परन्तु वृत्तिकार को इस जगह यह वे सभी क्या इतिहास प्रसिद्ध हैं ? देखिए अरिष्टनेमि ख्याल नहीं पाया और कल्पना से संस्कृत 'लिप्सुक' शब्द तीर्थकर, पावं तीर्थकर, पार्श्व के पिता अश्वसेन, महावीर स्मृति में आ गया, बस तब उनके मनका समाधान हो गया के पिता सिद्धार्थ वगैरह क्या ये सब इतिहास प्रसिद्ध है ? कि 'लेच्छई' माने लिप्सुक परन्तु संदर्भ से यह अर्थ प्रस्तुत यदि हैं तो मुनिजी को नम्रतापूर्वक सूचन है कि ये सब जिस में सर्वथा प्रसंगत है यह बात वृत्तिकारों के ख्याल में नहीं इतिहास में प्रसिद्ध हों उसका साधार खुलासा देकर सारा पाई। आगमों की वृत्तियों में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां हाल मुनिजी को बताना जरूरी होगा। जैन इतिहास में वत्तिकारों ने केवल अपने कल्पित संस्कृत रूप के आधार प्रसिद्ध है ऐसा कहकर मुनिजी संतोष नहीं दे सकेंगे; क्योंकि पर अर्थ करने में अनेक गोते खाये हैं और अपनी भ्रांत जैनइतिहास में तो ज्ञात वंश प्रसिद्ध ही है नाग वंश की स्थिति का केवल प्रदर्शन किया है 'वुसीमों' ! 'भड़े इतनी प्रसिद्धि नहीं, जितनी ज्ञात वंश की । अतः इतिहास 'जोहे! वज्जी ! 'दंतवक्के! बीससेणे' वगैरह ऐसे अनेक प्रसिद्धता का हेतु नहीं है किन्तु हेत्वाभासमात्र हैं। शब्दों को उदाहरण के रूप में दिया जा सकता है परन्तु पांचवी बात-प्राकृत भाषा अरबी, फारसी वगैरह प्रस्तुत में ऐसा लिखना उचित नहीं।
मन्मान्य भाषाओं की तरह स्वतन्त्र भाषा है जैसे अरबी तीसरी बात-लेच्छद का अर्थ टीकाकार कहीं कहीं फारसी अवेस्ता वगैरह भाषाओं के शब्दों का अर्थ संस्कृत वंश विशेषरूप भी नहीं करते हैं ऐसा नहीं है । देखिए विया- भाषाके कल्पित शब्द के अधीन नहीं है वैसे ही प्राकृत भाषा हपण्णत्ति सूत्र में जहाँ महाशिला कंटक संग्राम की चर्चा के पाब्दों का मर्थ संस्कृत भाषा के स्वेच्छा कल्पित शब्दों के पाती है वहाँ मूल में लिखा है कि "गोयमा" वज्जी विदेह अधीन कभी भी नहीं है परन्तु एक समय ऐसा पाया जब पुत्ते जइत्था, नव. मल्लई नव लेच्छई कासी कोस- जैन संघ निस्तेज सा हुमा और केवल तप प्रधान होकर लग्ग अट्टारस वि गणरायाणो पराजइत्था" इस पाठ में व्यक्तिगत मोक्ष की बात में ही डूबा रहा, तब महाभाष्य'लेच्छई' शब्द का अर्थ बताते हुए वृत्तिकार ने लिखा हैं कार पतंजलि ने अपने पुरुषार्थ से जिस प्रकार अश्वमेधादि कि "लेच्छकिनश्च राजविशेषाः" मूल में ही 'गणरायाणों' यज्ञों का पुनः प्रवर्तन शुरू किया उसी प्रकार संस्कृत भाषा विशेषण दिया है, अतः इधर वृत्तिकार को सावधान का महाप्रभावशाली युग शुरू किया। तब से प्राकृत भाषा होकर विवेचन लिखना पड़ा, अन्यत्र ऐसा कोई विशेषण संस्कृत के अधीन सी हो गई और हमारे संघ ने इस अधीन होने से अपना कल्पित संस्कृत रूप देकर अर्थ बता
(पृष्ठ २९० पर)
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साहित्य-समीक्षा
महंत प्रवचन
जिस भांति तुलसी ने विनय पत्रिका में लिखा कि ज्ञान सम्पादक-०नसुखदास न्यायतीर्थ, प्रकाशक
उत्तम है, किन्तु वह भगवान् की भक्ति से प्राप्त हो सकता प्रारमोदय प्रन्थमाला, जयपुर, सितम्बर १९६२, पृष्ठ
है, वैसे ही उनसे लगभग ८ शताब्दी पूर्व शिवकोटि ने संख्या-१६८, मूल्य ३.५० न०पैं।
भगवती पाराधना में लिखा था, "विधिपूर्वक बोये हुए अहत् प्रवचन एक 'संकलन' है। इसमें प्राचार्य कुन्द
बीज की जैसे वर्षा से उत्पत्ति होती है, वैसे ही महंन्त कुन्द, स्वामी वट्टकेरि, स्वामी कात्तिकेय आदि के प्राचीन
इत्यादिकों की भक्ति से ज्ञान, चारित्र, दर्शन और तप का ग्रन्थों से महत्वपूर्ण गाथाभों को चुनकर रखा गया है। उन
प्रादुर्भाव होता है।" उन्होंने अपने इस मत को अनेक गाथानों को १८ विषयों में विभक्त कर दिया है, एक-एक
गाथाओं में पुष्ट किया है। उनका कथन है कि 'निर्वाण के विषय का एक-एक अध्याय है । १६ वा अध्याय 'विविध'
बीज रत्नत्रय' की सिद्धि भक्ति-रहित मनुष्य को नहीं हो/ है, अर्थात् उसमें अनेक विषयों का सम्मिश्रण है। प्रत्येक
सकती। जिन-भक्ति से मुक्ति मिलती है। गाथा के नीचे हिन्दी अनुवाद दिया गया है । उसकी विशे- इन गाथाओं को चुनते समय एक-दूसरा दृष्टिकोण और षता है कि वह मूलगाया को प्रासान हिन्दी में स्पष्ट कर था, जिसका स्वागत होना ही चाहिए, वह था व्यापकता का देता है। साधारण पाठक सहज ही समझ सकते हैं.. निर्वाह । व्यापकता का अर्थ है सांप्रदायिक संकीर्णता से निकल प्राकृत भाषा में लिखे गये ग्रंथों को पढ़ना-समझना,
कर बाहर आ जाना । अर्हत् प्रवचन की उपयोगिता मानव इनमें से उत्तम मंशों को छांटना, क्रम में बाँटना, फिर
:क्रम में बांटना. फिर मात्र के लिये है, केवल जन कहलाने वाले के लिए ही नहीं। उनका अनुवाद करके रखना अत्यधिक परिश्रम-साध्य है।
स्वयं सम्पादक के शब्दों में यह एक ऐसी तत्त्व मीमांसा है, पं० चैनसुखदास जी ने यह सब कुछ किया। समाज इन्हें
जो सभी सम्प्रदायों को स्वीकार हैं। जैनधर्म में सबसे भली भांति जानती है। मैं उनके इस प्रयास का प्रादर
अधिक विश्वजनीन सत्य है। सम्पादक ने उसे ठीक-से करता हूँ।
समझा, प्रस्तुत किया। हम उसकी सफलता की कामना
करते हैं। गाथाओं का चुनाव करते समय सम्पादक का मुख्ष दृष्टिकोण यह ही रहा कि वे मानव के नित्य जीवन में लोक विभागः उपयोगी हों। नित्य जीवन का तात्पर्य है-प्रतिदिन माने रचयिता-श्री सिंहसरपि, सम्पावक-पं. बालचन्द बाली समस्यायें, उनका चरित्रपरक समाधान, अन्य जीवों सिमान्त शास्त्री, प्रग्यमाला सम्पावक-डा. मा. ने. से उदारतापूर्ण सम्बन्ध, दूसरों की निन्दा से विरक्ति, उपाध्ये। और ग.हीरालाल जैन, प्रकाशक-जैन संस्कृति कर्तव्य पालन, भगवान की भक्ति मादि । 'मंगल' के बाद संरक्षक संघ, सोलापुर, सन् १९६२६०, पृष्ठ-संल्याही 'जीव अथवा भात्मा' शीर्षक से दूसरा अध्याय है । इसमें ५२, २५६, मूल्य-१० रुपये : मात्मा की विशेषतायें बताने वाली गाथायें रखी गई है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस ग्रंथ में लोक के सभी 'मात्मा' पर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी इनकी विशेषता विभागों का वर्णन है। वे विभाग ११ हैं-जम्बूद्वीप भांक सकते हैं। ११ वा अध्याय भक्ति से सम्बन्धित हैं। विभाग, लवण समुद्र विभाग, मानुष क्षेत्र विभाग, समुद्र जैन पाचार्यों ने मानव जीवन की शान्ति के लिये भक्ति विभाग, काल विभाग, ज्योतिलोंक विभाग, भवनवासिलोक की उपयोगिता स्वीकार की है। उन्होंने ज्ञान को तो महत्ता विभाग, अपोलोक विभाग, व्यन्तरलोक विभाग, स्वर्ग दी ही है, भक्ति को भी कम नहीं माना। दोनों का ऐसा विभाग और मोक्ष विभाग। यह क्रम भगवान् महावीर ने समन्वय जनश्रत में देखने को मिलता है, अन्यत्र नहीं। अपने समवशरण में लोक का निरूपण करते हुए निर्धारित
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साहित्य-समीक्षा
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किया था। गणपर और प्राचार्यों ने उसका पालन किया। सिद्धांत भवन मारा की है और तीसरी पन्नालाल सरस्वती इस ग्रंथ के रचयिता श्री सिंहसूरषि ने भी इसमें परिवर्तन भवन, बम्बई की है । जहाँ तक सम्पादन का सम्बन्ध है, वह नहीं किया, केवल भाषा बदली है । अर्थात् प्राकृत के स्थान तो एक मंजा हुमा हाथ है। यह सत्य है कि ग्रंथ जीवराज पर संस्कृत की है। उनके समय तक एतद्विषयक जितने ग्रंथमाला की गौरवशालिनी परम्परा के अनुरूप ही है। ग्रंथ उपलब्ध थे, वे सभी प्राकृत भाषा में थे। किंतु प्राकृत सम्पादन में और भी चमक मा जाती यदि दो-चार प्रतियां का प्रचलन समाप्त हो चुका था। अतः ग्रन्थ का संस्कृत भौर उपलब्ध हो जाती। भाषा में निबद्ध होना अनिवार्य था। समय की गति को हिंदी अनुवाद का अपना स्थान है । ऐसे ग्रंथ बिना देखते हुए श्री सिंहसूरर्षि ने ऐसा किया।
प्रचलित भाषा में अनूदित हुए समझ में नहीं पाते 'ऐसे' का ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से यह विदित नहीं होता कि तात्पर्य है, एक तो संस्कृत भाषा और दूसरे गणितानुयोग । सिंहसूरर्षि कौन थे, उनका समय क्या था? नाम से इतना अब संस्कृत का प्रचलन नहीं है। जो पढ़ते भी हैं, उन्हें उसकी भर अनुमान लगाया जा सकता है कि वे कोई साधु थे-मुनि पूर्ण जानकारी नहीं हो पाती। ऐसी दशा में उस ग्रन्थ की हो सकते हैं, भट्टारक भी। सम्पादक ने उन्हें भट्टारक माना ख्याति राष्ट्र भाषा के अनुवाद के बिना सम्भव नहीं है। है, किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं है। यह ग्रंथ गणित से ग्रंथ के साथ के साथ संलग्न प्रस्तावना एक छोटा-सा सम्बन्धित है गणित के जानकार भट्टारक होते थे और निबन्ध है । इसमें गन्थ के मूल विषय पर सभी दृष्टियों से अन्य साधु भी। इस आधार पर उन्हें केवल भट्टारक विचार किया गया है। उसका तुलनात्मक अंश प्रत्यधिक सिद्ध नहीं किया जा सकता । कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है महत्वपूर्ण है । लोकविभाग की तिलोयण्णत्ती, हरिवंश पुराण कि वे संस्कृत के उद्भट विद्वान और गणित के प्रकाण्ड आदिपुराण व त्रिलोकसार से तुलना की गई है । तुलना के पण्डित थे । यह ग्रन्थ उनके ज्ञान का प्रतीक है। उनके अतिरिक्त हस्तलिखित प्रतियां, ग्रंथ परिचय, विषय का समय की भी रेखा नहीं खीची जा सकती। अनेक अनुमान सारांश, ग्रंथकार, ग्रंथ का वैशिष्टय, ग्रंथ का वृत्त और
ना फिर उनको स्वयं गलत बता देना, किसी प्राचार्य भाषा, ग्रंथ रचना का काल आदि उपशीर्षकों पर भी के काल क्रम के निर्धारण का श्रेष्ठ ढंग नहीं है। विचार किया गया है, ग्रंथ अनुसंधान की दृष्टि उपयोगी है। श्री सिंहसूरर्षि ने जिस प्राकृत ग्रन्थ को आधार बनाया
वीरवाणी (कवि बनारसीदास विशेषांक)
वी वह श्री सर्वनन्दिकृत 'लोयविभाग' था। उन्होंने इस ग्रंथ का निर्माण कांची नरेश श्री सिंहवर्मा के राज्य काल शक
___ संपावक-मंडल-पं० चैनसुवदास न्यायतीर्थ, पं. संवत् ३८० में किया था। यह ग्रंथ निश्चित रूप से सिंह
भंचरलाल न्यायतीर्थ, डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, प्रकासूरपि के सामने था । इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं है। उनके
शक-वीरवाणी, मणिहारों का रास्ता, जयपुर, पृष्ठसंख्या प्रस्तुत ग्रंथ की प्रशस्ति से ऐसा स्पष्ट ही है। सर्वनन्दि के
१०८, मूल्य-दो रुपये। ग्रंथ का नाम क्या था, यह शंका भी शंका के लिए ही है। बनारसीदास-समारोह समिति के संयोजक डा. कस्तूर जब ग्रंथकार ने केवल भाषा परिवर्तन की प्रतिज्ञा की है, चन्द कासलीवाल ने इस वर्ष, ४ फरवरी १९६३ को, तो यह कैसे हो सकता है कि उसने अपने ग्रन्थ का नाम
___ जयपुर में, बनारसीदास के ३७७ वें जन्म-दिवस पर जयन्तीदूसरा रख दिया हो। अनुवाद कर्ता नाम परिवर्तन नहीं समारोह मनाया। इसी अवसर पर उन्होंने बनारसीदासकरते । अतः निश्चित है कि प्राकृत के 'लोयविभाग' का ही
विशेषांक निकालने का भी प्रायोजन किया । यह सब कुछ संस्कृत में 'लोक विभाग' हुआ।
वे एक माह से कम समय में ही कर सके । यह उनकी इस ग्रंथ का सम्पादन तीन हस्तलिखित प्रतियों के लगनशीलता और अध्यवसाय का परिचायक है। प्राधार पर किया गया है। पहली प्रति भण्डारकर प्रोरि- विशेषांक में ३८ निबन्ध हैं । उनसे बनारसीदाम के यण्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट, पूना की है, दूसरी प्रति जैन जीवन, उनके कृतित्त्व और काल विशेष की पूर्ण जानकारी
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उपलब्ध हो जाती है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, मुनि है, जबकि 'कलश' दर्शन से भरे हैं । उनकी अन्य कृतियों श्री कान्ति सागर, श्री बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री अगर चन्द में भी भगवद्विषयक दाम्पत्य रति के उत्कृष्ट रूपकों का नाहटा, डॉ. नेमि चन्द्र शास्त्री, डॉ. कामता प्रसाद जैन निर्माण हुआ है । पूज्यपाद ने भक्ति को, भगवान में अनुआदि के लेखों से विद्वान और साधारण पाठक दोनों ही को राग को कहा था। बनारसीदास ने उसे अपनी कृतियों में मनस्तृप्ति होती है। लेखों के सम्पादन में परिश्रम किया गया प्रस्तुत किया। एक ओर वे 'अध्यातमियां सम्प्रदाय' के है। लेख के साथ ही दिये गये सारांश से पाठक को लेख सम सामर्थ्यवान् सदस्य थे तो दूसरी मोर जागरूक भक्त । झने में सुविधा होती है।
उन्होंने ज्ञान और भक्ति का जैसा समन्वय किया, दूसरा बनारसीदास का मध्यकालीन हिन्दी साहित्य को एक न कर सका । उनमें कबीर-जैसी मस्ती थी तो तुलसी-जसी महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी मुक्तक रचनायें रस की मर्यादा भी। न वे मस्ती छोड़ सके और न मर्यादा । उन्होंने पिचकारियां हैं। माध्यात्मिकता का जैसा भावोन्मेष वे कर विरोधाभासों के विरोध को निकाल दिया था। वे एक सके, हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं । यद्यपि उन्होंने नाटक असाधारण प्रतिभा और व्यक्तित्व के व्यक्ति थे। उनकी समयसार, अमृतचन्द्राचार्य के समयसारकलशों को आधार जन्म तिथि पर प्रकाशित इस 'विशेषांक' का मैं स्वागत बनाकर लिखा, किन्तु यह सत्य है कि वह साहित्य का ग्रन्थ करता हूँ।
-डॉ.प्रेमसागर जन.
(पृष्ठ २७ का शेष)
नता को स्वीकार कर लिया। इसके पहिले जैसे बौद्ध पिट- भतः कल्पित संस्कृत रूप के आधार पर मूल प्राकृत का कों की पाली भाषा स्वतंत्र थी (और यह भाषा तो अब अर्थ शोधन में भ्रांति और विवाद बढ़ने का संभव है अतः तक स्वतंत्र ही है) वैसे ही हमारी ग्रंथस्थ प्राकृत भाषा संदर्भ, परम्परा, अनुसंधान वगैरह को लक्ष्य में रखकर स्वतन्त्र थी, और इसी कारण सूत्रों की नियुक्ति, भाष्य संस्कृत द्वारा भी प्राकृत शब्दों का अर्थ करने में जोखिम पौर चूणि ग्रंथ प्राकृत में ही लिखे जाते थे और बिना नहीं हैं तात्पर्य इतना है कि वंश वाचक नाय वा णाय वा संस्कृत की सहायता वे सब ग्रंथ बराबर समझे जाते थे नात वा णात का संस्कृत रूप 'नाग' कल्पने की जरूरत प्रतः प्राकृत शब्दों का अर्थ समझने के लिए संस्कृत का नहीं है। जैन परम्परा में ज्ञातवंश ही प्रसिद्ध है और यह कल्पित प्राधार मावश्यक नहीं है; परन्तु हमारी ज्ञान की ही 'नाय' वगैरह का अर्थ द्योतक है। जिन्होंने 'ज्ञातृ' शब्द. कमजोरी हो जाने से यह परिस्थिति पाई है और इसी की कल्पना की है वे भी अप्रामाणिक नहीं हैं। 'नायाधम्मकारण कई दफे निर्णय करने में भ्रांति ही बढ़ती है। कहा' नाम में 'नाया' शब्द का सम्बन्ध 'ज्ञातृ' मानने वालों वियाहपण्णत्ति शब्द है और इसी प्रकार विवाहपण्णत्ति ने ज्ञात के 'ज्ञाता' रूप के साथ लगाया है और यह शब्द भी एक पाठांतर शब्द है सच्चा नाम वियाहपण्णत्ति है। भी 'ज्ञात' वंश का भी सूचक है हमारे श्वेताम्बरी वृत्तिकार विवाहपण्णत्ति तो . पाठांतर जैमा है फिर भी वृत्तिकार ने ने 'नाया' को 'नाय' माना और समास में दीर्घाकरण किया विवाघ प्रज्ञप्ति, विवाह प्रज्ञप्ति और 'पण्णत्ति' का भी है। मैं समझता हूँ कि दीर्घाकरण की अपेक्षा 'ज्ञाता' प्रज्ञाप्ति, प्रज्ञप्ति ऐसे कई संस्कृत रूपांतर देकर व्याख्याएं मानना विशेष संगत है क्योंकि 'नाया' यह विशेष नाम की हैं। अब कहिए कौन सा नाम स्वीकरणीय होगा? है। प्रस्तु
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वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक
१०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कनकता ५००) श्री रामजीवनदाम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकता २५१) ग० बा० हरखचन्द जी जैन, राँची २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड़या), कलकत्ता २५१) श्री म० मि धन्यकुमार जी जैन, कटनी २५१) ने सोहनलाल जी जैन
मसमं मुन्नालाल द्वारकादाम, कलकत्ता (२५१) क्षी मेठ मोतीलाल हीराचन्द गाँधी, उमानावाद २५०) श्री बंशीधर जी जुगलकिशोर जी कनकता २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता २५० ) श्री सिंघई कुदनलाल जी, कटनी, २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी० आर० मी० जैन, कलकत्ता
डाक्टर दशरथ श्रोमा का पत्र
अनेकान्त समय समय पर देखता रहा हूँ। यह पत्रिका आज हिन्दी की पत्रिकायों में उत्तरोत्तर अपना प्रमुख स्थान बनाती जा रही है। जैन दर्शन और साहित्य के गूढ़ रहस्यों के उद्घाटन का आप स्तुत्य कार्य कर रहे है । ग्रापकी पत्रिका किसी दिन सर्वोच्च स्थान प्राप्त करे, यही कामना है |
नाहटा जी ने बड़ी कृपा की। उन्होने मात क्षेत्री राम का रहस्य इतनी सुन्दरता से समझाया है कि मुझे बोधगम्य हो गया। मेरी उनको और आपको हार्दिक बधाई है। आपकी बड़ी कृपा होती यदि उनसे आप हमारे ग्रन्थ रास एवं रामान्वयी काव्य की समीक्षा में इसी प्रकार समयसमय पर लेख लिखाने रहते ।
शेष मिलने पर । दशरथ प्रभा
२५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल, कलकत्ता १५०) श्री कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) श्री पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री प्रतापमल जी मदनलाल जी पांड्या, कलकत्ता १५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता
१५०) श्री शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता
१५० ) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी, कलकत्ता १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता १००) श्री बद्रीप्रसाद जी आत्माराम, पटना
१०१) थी मारवाड़ी दि० जैन समाज, ब्यावर १०१) श्री दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी १०१) श्री मे चन्द्रनान कररचन्दजी बम्बई नं० २ १०१) भी जाना शान्तिलाल कागजी दरियागंज, दिल्ली
कड़कड़ड़क
नेहान्त पर लोकमत
मिश्रीलाल जी पाटनी बेकर्स डीडवानाघोली लश्कर
'अनेकान्त पत्र मैंने पढा, इसमें पुरातत्व प्राचीन जैन साहित्य, जैन गुरु, जैन मन्दिर, मूर्तिलेख, और गुफालेख बहुत प्रकाशित होते है। जिनसे ऐतिहासिक खोज की जानकारी प्राप्त होती रहती है। जैन समाज से मेरा निवेदन है कि अनेकान्त को प्रत्येक जैन मन्दिर में अवश्य पढने के हेतु व भंडारों में रखने को मंगाना चाहिए और धार्थिक महायता प्रदान कर संस्था को बलवान बनाना चाहिए ।' श्री नीरज जी सतना
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दिसम्बर का अंक मिला, प्रकाशन की साज-सज्जा के लिए बधाई स्वीकारें । मेरे लेख की सज्जा के लिए मैं आपको क्या लिखु, श्री डा० प्रेम भागर जी को मेरी श्रोर से धन्यवाद दें ।
'शोधकण' की टिप्पणियों ने मुझे मार्गदर्शन और उत्माह दिया है।'
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वीर सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
सभी अन्य पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची--प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल्य-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ८ टीकादिग्रन्थ में
उदत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डाक्टर कालोदाम नाग, एम ए डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और 1 ए एन. उपाध्ये एम ए. डी. लिट की भूमिका
( Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज सजिल्द १५) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज मटीक अपूर्व कृति, भाप्नों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के
सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युक्त, मजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय,
ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, जानयोग मथा कर्मयोग का विश्लेषण करती हुई महत्व की गवेषणापूर्ण
१०६ पृष्ट की प्रस्तावना मे मुशोभित । (6) स्तुतिविद्या-प्वामी ममनभद्रकी अनोखी कृति, पागों के जीननेकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजगलकिशोर
मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि में अलकृम सुन्दर जिल्द-महिन । (५) अध्यात्मकमलमार---पचाध्यायीकार कवि गजमल्लकी सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद-महित ।
पौर मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की १८ पृष्ट की विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित। (६) युक्त्यनुशामन-तत्वज्ञान में परिपूर्ण ममन्तभद्र की प्रमाचारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि में प्रलकृत, मजिल्द । (७) श्रीपुरपाध्वनाथम्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द चिन, महन्व की स्तुनि, हिन्दी अनुवादादि महित । ... ) (८) शामनचस्त्रिशिका---(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीनिकी १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद-महित ) (६) ममीचीन धर्मशास्त्र--म्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युनम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवपणामक प्रस्तावना मे युक्त, मजिल्द । (१०) जैनपथ-प्रगस्ति मग्रह- मर कृत और प्राकृत १७१ अप्रकाशित प्रों को प्रशस्तियो का मगलाचरण महित
अपूर्व मग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टी और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहाम-विषयक माहित्य परिचयात्मक
प्रस्तावना में अलकृत, मजिल्द । (११) अनित्यभावना -- ग्रा. पदमनन्दी की महत्व की रचना, मुन्नारधी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ महित ।)
(१२) नन्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-- मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद नथा व्याख्या मे युक्त । . (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र ।
(26) महावीर का मर्वोदय तीर्थ = ), (१५) ममन्तभद्र विचार-दीपिका = ) । (१६) महावीर पूजा। ।) (१७) जैनग्रथ-प्रणम्ति मग्रह भा० २ अपभ्रशके ११६ अप्रकाशित अर्थोकी प्रशस्नियोंका महत्वपूर्ण गग्रह ५४ प्रन्यकाके
ऐतिहामिक ग्रन्थ परिचय और उनके परिशिष्टो महित । मम्पादक प० परमानन्द शास्त्री मूल्य मजिन्द ) (१८) जैन माहित्य और इतिहाम पर विशद प्रकाश, पष्ठ मण्या ७१० मजिल्द (वीर-शासन-मघ प्रकाशन ... ५) (१६) कपायपाहुड मृत --- नमत्थ की रचना माज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्रीगणधराचार्य ने की, जिम पर श्री
यनिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार लोक प्रमाण चणिसूत्र लिखे । सम्पादक ५० हीगलाल जी सिद्धान्त शास्त्री उपयोगी परिमिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी साईज के १००० मे भी अधिक पृष्ठो
मे । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्द । (२०) Reality प्रा. पूज्यपाद की मर्वार्थनिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बड़े आकार के ३०० पष्ठ पक्की जिल्द मू. ६)
प्रकाशक-प्रेमचन्द, वीर संवा मन्दिर के लिए नया हिन्दुस्तान प्रेस, दिल्ली में मुद्रित
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