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________________ किरण कातिब त्पन्न सदाचारी को भी नीच कहते हो तब क्या तुम सदा- की बात कही थी? क्या वह राजविद्रोह की तैयारी करा चार का अपमान और दुराचार का सम्मान नहीं करते रहा है ?' हो ? सदाचार को सरलता से प्राप्त करने के लिए कुल एक पंडित ने कहा-महाराज ! वह जोर देकर एक साधन है। परन्तु अगर किसी ने किसी तरह सदाचार कहता है कि अगर कोई शूद्र पाज क्षत्रिय बनना चाहता प्राप्त कर लिया है तब किसी एक साधन के न रहने पर है या कोई मनुष्य राजा बनना चाहता है तो बनने दो। भी क्या हानि है ? राजा बनने के लिये राजकुल में जन्म लेने की कोई जरूपंडित लोग पसीने से भीग गये, अनेक लोगों के हृदय रत नहीं है । फल इसका यह हमा है कि लोगों के हृदय में में तूफान-सा मच गया, बहुत से लोगों का बुखारसा उतर अापके ऊपर भक्ति ही नहीं रही है। यह बहुत भयंकर गया । बड़ी मुश्किल से एक पंडित जी बोले-पाप बिल- प्रचारक है, महाराज! कुल शास्त्र-विरुद्ध बोलते हैं। __ महाराज ने मोंठ चबाकर कहा-हुँ। बीजाक्षरी ___मुनिराज मुस्कराये, फिर कुछ गम्भीरता से बोले- संहारक मंत्र के समान इस 'हूं' में अपरिमित क्रूरता भरी जो बात तर्क से सिद्ध होती है, जिससे समाज का कल्याण थी। है, जिससे गिरे हुये लोगों का उद्धार होता है, जिससे मद (१४) रूपी ज्वर शांत होता है, जो हर तरह सत्य है, क्या वह मुनि कार्तिकेय का लोकोपकार भी पात्मोद्धार के लिए शास्त्र या धर्म से विरुद्ध हो सकती है ? सत्यता ही शास्त्र था, आत्मोद्धार लोकोपकार के लिए। परोपकार के लिए की और धर्म की कसौटी है। शास्त्र के विरुद्ध जाने से वे जितना बाहरी कार्यों पर जोर देते थे उससे ज्यादा सत्य, असत्य नहीं होता, किन्तु सत्य के विरुद्ध जाने से प्रात्मशुद्धि पर जोर देते थे। प्रावश्यक कार्यों के सिवाय शास्त्र कुशास्त्र, धर्म कुधर्म हो जाता है । अगर कोई सच्ची वे सदा मौन रखते थे, और रात्रि में तो मौन निश्चित बात धर्मशास्त्रों में नहीं लिखी है तो यह उस बात का था। जिस समय राजा के सिपाही मुनिराज के पास पहुंचे दुर्भाग्य नहीं है किन्तु यह धर्मशास्त्र का दुर्भाग्य है। उस समय वे ध्यान में बैठे थे। पास-पास दो-चार नागरिक इस वार्तालाप से जनता की प्रांखें खुल गई बह थे जो कि भक्तिवश अभी तक घर नही गये थे। राज प्रसन्नता से नाचने लगी। परन्तु पंडितों को तो ऐसा पुरुष ने पूछा-वह नया साधु कहां है । नागरिकों को यह मुक्का लगा कि उनके पांडित्य का और अभिमान का कचू- एकवचन खटका। वे ताज्जुब से राजपुरुष की तरफ देखने मर निकल पाया। लगे। राजपुरुष ने एक क्रूर-दृष्टि नागरिकों पर डाली। दूसरे दिन सुधार का पवन ऐसा प्रबल हो गया कि फिर इधर-उधर नजर डाल कर और पास ही बैठे हुए उसने पुराने से पुराने घूरे भी उड़ाकर साफ दिए । पंडितों कार्तिकेय को देखकर बड़े मिजाज से उनके पास पहुंचा। की तो मानों थाली छिन गई। उन्हें मालूम हया कि मुक्के 'तुम को महाराज ने गिरफ्तार करने का हुक्म दिया है। की चोट, पेट पर भी जमकर बैठी है। वे मन ही मन ये शब्द उसने अधिकारपूर्ण स्वर में कहे परन्तु उत्तर कुछ कराहने लगे। न मिला । 'क्या सुन नहीं पड़ता ? 'तुम को अभी चलना (१३) पड़ेगा' प्रादि का भी कुछ उत्तर न मिला। तब एक रात्रि के पाठ बजे थे। सजा हुमा कमरा था। महा- सिपाही ने हाथ पकड़ कर उठाना चाहा परन्तु उठा न राज ने सब सुन करके धीरे-धीरे दांत पीसे मौर कहा- सका। नागरिकों ने कहा-'आप इस तरह अन्याय क्यों 'ठीक ! मैं अभी देखता हूँ।' इसके बाद वे फिर चिन्ता में करते हो? पाप सबेरे तक शान्त रहिए'। राजकर्मचारी पड़ गये। पागंतुकों के दिल इस समय धुक-धुक हो रहे ने तमक कहा-'चुप रहो। एक सिपाही ने एक नागरिक थे। थोड़ी देर बाद महाराज ने कहा-क्या सचमुच उस को धक्का देकर गिरा दिया। साधु ने ऊंच नीच, राजा प्रजा के भेद-भाव को नष्ट करने जब कुछ बस न चला, तो एक ने सिर, एक ने कमर,
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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