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________________ २१८ धनेशान्त समय जाता था। जिस दिन शाम को मुनिराज पधारे, उस दिन बाग में सैकड़ों प्रादमी थे। बाग के किनारे एक पक्का मण्डप सा बना था, जहाँ पर कि लोग बैठा करते थे। वहीं पर कार्तिकेय मुनि पहुँचे। इससे बाग में घूमने बालों का ध्यान आकर्षित हो गया। एक मुनि को देखकर जनता ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के लिये मुनिराज तमाशा बन गये । । बाग में कुछ पण्डित मी विहार कर रहे थे। उनने जब मंडप को भीड़ से भरा हुआ देखा तो वे भी पहुंचे। वहाँ बिलकुल शांति थी। पण्डितों के पहुँचते ही जनता ने रास्ता दे दिया । पण्डित लोग मुनिराज के समीप पहुँचे । और पूछा पण्डित - आपका परिचय ? मुनि मैं एक मुनि है, यह तो आप देख ही रहे हैं। मेरा नाम कार्तिकेय है। १५ इस उत्तर से पहेली और जटिल हो गई। एक पवित ने कुछ रूक्षता के साथ कहा- एक ही जन्म में क्या जाति भी बदल सकती है ? पण्डित - आपकी जाति ? मुनि मुनियों के तो कोई व्यवहारिक जाति नहीं होती है। वे तो मनुष्य जाति के होते हैं। मेरी जाति भी मनुष्य है। पण्डित - फिर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य में से कोई तो होंगे ? मुनि - कोई नहीं । पण्डित - तो क्या शूद्र ? मुनि- शूद्र भी नहीं। पण्डित लोग एक-दूसरे के मुंह की ओर ताकने लगे । उनकी घांसें एक-दूसरे से पूछ रही थीं कि यह कैसी विचित्र बात है ! मुनिराज ने उनके प्राश्चर्य को समझकर कहाजो लोग अध्यापन आदि कार्यों से अपनी आजीविका चलाते हैं वे ब्राह्मण हैं । जो लोग संनिकवृत्ति से या प्रजा रक्षण से भाजीविका चलाते हैं वे क्षत्रिय हैं। जो लोग कृषि वाणिज्य भादि से धाजीविका करते हैं वे वैश्य हैं, धौर जो लोग सेवा चाकरी करके ब्राजीविका करते हैं वे सूद्र है। मैं अब जीविका के क्षेत्र से बाहर निकल गया हूँ, इस लिये अब मनुष्य सिवाय ग्रन्थ किसी भी जाति का नहीं रहा हूँ हाँ मुनि होने के पहले मैं कृषक वैश्य बना था परन्तु मेरे मां-बाप क्षत्रिय थे । मुनि महाराज ने कहा- जब आजीविका का उपाय बदल सकता है तब जाति क्यों नहीं बदल सकती ? घरीराधित, मनुष्यत्व घश्वस्व मादि जातियां एक ही जन्म में नहीं बदल सकतीं, परन्तु प्राचाराचित भावाधित भाजीविकाश्रित जातियों का जीवन के साथ क्या संबंध ! ब्राह्मणादि प्राजीविकाश्रित जातियाँ हैं। भाजीविका के बदल जाने पर इनका बदल जाना अनिवार्य है । पण्डित लोग कुछ खिसयाकर बोले- तब तो आपकी दृष्टि में शूद्र भी ब्राह्मण बन सकता है ? इस तरह तो सब एकाकार हो जायगा ? मुनिराज ने गम्भीरता से कहा—मान लो, एकाकार हो गया तो आप दूसरे की उन्नति में दुःखी क्यों होते हैं ? पण्डित परन्तु इसमें उन्नति क्या है? ब्राह्मण में और शूद्र में फिर भेद ही क्या रह जायगा ? मुनि - हाथ, पैर, कान, नाक आदि सभी बातें ब्राह्मण और शूद्र के समान पाई जाती हैं। फिर दोनों में अभी क्या भेद है ? - पण्डित - सदाचार दुराचार का । मुनि-सो तो तब भी होगा। दुनिया से दुराचार का नाश न होगा। अगर हो भी जाय तो क्या बुरा है ? पण्डित - परन्तु दुराचारी सदाचारी को एक-सा कर देना तो अच्छा नहीं कहा जा सकता । मुनि-यह ठीक है परन्तु मगर दुराचारी सदाचारी बन जाय तो क्या हानि है ? शूद्र भी हिंसा के त्यागी होते हैं, सत्य भी बोलते हैं, अचौर्य पालन करते हैं, ब्रह्मचर्य से रहते हैं, त्याग करते हैं। क्या तब भी वे उच्च नहीं हैं ? उच्चता का सम्बन्ध अगर आप शरीर की पवित्रता से मानते हो तो पृथ्वी जल सन्नि वायु वनस्पति भादि भी उच्च कहलायेंगे । हाड, मांस से बना हुधा मनुष्य शरीर उच्च न कहलायगा । अगर ग्रात्मा की पवित्रता से उच्चता का सम्बन्ध है तब तो सूत्र भी उच्च हो सकता है। जब तुम ब्राह्मण कुलोत्पन्न दुराचारी को भी उच्च कहते हो मोर शूद्रकुलो
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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