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________________ मूर्ख जन्तु भी उन्हें मिले थे। सभी जनता के गुलाम थे। 'गुरुवयं ! मैं ऐसे गुरु की खोज में था। सौभाग्य से कोई पेटायूं थे तो कोई नाम के भूखे थे। सत्य को ग्रहण मुझे पाप सरीखे सत्गुरु की प्राप्ति हुई है। अब मैं मोक्ष करने की, या उसको प्रकाश में लाने की हिम्मत किसी में मार्ग में चलना चाहता है। यदि आप मुझे साधु-दीक्षा दें नहीं थी। परन्तु कुंवर को माज एक ऐसा गुरु मिला था तो बड़ी कृपा हो । क्या मैं इस दीक्षा के योग्य हूँ। जो सत्य का पुजारी था। संसार की भलाई करने वाला गुरुवर्य कुछ चिन्ता में पड़े। फिर बोले-'तुम योग्य या उसकी भलाई चाहने वाला था। वह संसार का गुलाम हो, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु यह खयाल रखो कि अपने नहीं था। उसे सत्य की परवाह थी। लोगों के बकवाद जीवन को दूसरों के सिर का बोझ बना देने से कोई साथ की परवाह न थी। नहीं बनता । साघु प्रात्मोसार और परोपकार की प्रतिम कंवर ने पूछा-गुरुवर्य ! मैंने ऐसा क्या किया था मूर्ति होता है?' जिससे इस जन्म में मुझे पापी होना पड़ा ?' 'गुरुवर्य ! आप जो प्राज्ञा करेंगे उसका पालन मैं तन 'वत्स ! मैं समझता हूँ इस जन्म में तुम पापी नहीं और वचन से ही नहीं, मन से भी करूंगा। माप बताइये बनें । पाप करने वाला पापी कहलाता है-पाप का फल कि मुझे साधु बनने के लिये क्या करना चाहिये और किस भोगने वाला पापी नहीं कहलाता। कष्ट और आपत्तियाँ वेष में रहना चाहिये ?' पाप का ही फल है और सच्चे से सच्चे महात्मा के ऊपर 'साधु होने के लिये सबसे बड़ी प्रावश्यकता इस बात भी पाती हैं। क्या इसलिये वे पापी कहलाते हैं ? अगर की है कि वह किसी से द्वेष और मोह न रक्खे और उसके तुम्हारा जन्म तुम्हारे लिये कष्टप्रद हुआ तो वह पाप का हृदय में किसी भी कषाय की वासना एक मुहूर्त से अधिक फल कहा जायगा, न कि पाप ।' न ठहरे। कपाय का प्रावेग कभी तीव्र न हो। रही वेष हर्ष के मारे कुंवर के शरीर पर कांटे मा गये। उनने की बात, सो वेष कोई भी हो, चिन्ता नहीं। हां! वह जिज्ञासा के भाव से पूछा-'गुरुवर्य ! मैंने ऐसा क्या पाप अल्पारम्भी होना चाहिए । वास्तव में वेष का धर्म से कोई किया था कि मुझे ऐसा जन्म मिला?' सम्बन्ध नहीं है । वेष तो इसलिये रक्खा जाता है कि लोग 'वत्स ! प्रकृति का नियम है कि जो जैसा करता है साधारण पहिचान कर सकें। साधुता तो निःकषाय, उदार, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। इसलिये यह बात परोपकारमय, अप्रमत्त जीवन में है।' नश्चित है कि तुमने अवश्य ही पूर्व जन्म में, जन्म का कुंवर ने भक्ति से गद्गद् होकर साधु जी के चरणों बहाना निकाल कर किसी मनुष्य के धार्मिक अधिकारों पर में नमस्कार किया, ऐसा नमस्कार करने का कुंवर के जीवन डाका डाला होगा । इसलिये तुम्हें इस जन्म में उसका फल में यह पहिला ही अवसर था। भोगना पड़ा। जो लोग जन्म के बहाने ऊंच-नीच छूत (१२) अछुत, पात्र-अपात्र की कल्पना करते हैं उन्हें अनेक तरह दो-तीन दिन में ही रोहेड नगर की कायापलट हो के बुरे जन्म मिलते हैं। तुम पूर्वजन्म में बहुत धर्मात्मा गई । लोगों में धर्म के नाम पर जो अन्ध श्रद्धा थी, समाजव्यक्ति थे किन्तु आवेश में आकर तुम्हारे मुंह से एकाध हित के नाम पर जो रूढ़ि-प्रेम था, उच्चता के नाम पर बार ऐसे शब्द निकल गये होंगे इसलिये तुम्हें ऐसा जन्म जो जाति मद था, वह सब नष्ट हो गया। लोगों ने मनमिला। जो लोग बगुला-भक्त और छिपे हुए दुराचारी हैं ष्यत्व का सन्मान करना सीखा। हर एक कार्य में बखि फिर भी जन्म का महंकार रखते हैं या जो दूसरों को और विवेक को स्थान मिला। अमावस्या के स्थान पर जन्म से नीचा गिनते रहते हैं और ऐसी ही बातों का प्रचार शरत्-पूर्णिमा हो गई। यह सब कार्तिकेय मुनि का प्रभाव करते हैं, उनके पाप का क्या ठिकाना?' था। मुनिराज के आने के पहले यहाँ स्त्रियों की और शूद्रों कंबर की प्रांखों में मांसू भागये। यह कौन कह सकता की बड़ी दुर्दशा थी। शूद्रों का सम्पर्क करना, उन्हें धर्माहै कि हर्ष के थे कि शोक के ? उनने प्रार्थना की- यतनों में पाने-जाने देना, स्त्रियों से सलाह लेना, पाप
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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