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________________ किरण ४ गुर्जर-काव्य-संग्रह में हुआ था। स्व० चिमनलाल दलाल के द्वारा सम्पादित यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ गायकवाड़ घोरिय न्टल सिरीज, बड़ौदा से ( ग्रंथांक १३ में) निकला था । १४वीं शताब्दी के प्रमुख जैन रासों का विवरण देते हुये डा० श्रोझा ने इस सप्तक्षेत्र रास का विवरण इस प्रकार दिया है सप्तक्षेत्र रास का व विषय "इस युग की एक निराली कृति 'सप्तक्षेत्र रास है। जैनधर्म में विश्व ( ह्याण्ड) की रचना, सप्तक्षेत्रों की सृष्टि एवं भरतखण्ड के निर्माण की विशेष प्रणाली गाई जाती है। 'सप्तशेष राम' में ऐसे नीरस विषय का वर्णन सरस-संगीतमय भाषा में पाया जाना कवि के चातुर्य एवं रास माहात्म्य के परिचायक हैं। इस गस में सप्तक्षेत्रों के वर्णन के पश्चात् श्रात्रक के बारह मुख्य व्रतों का उल्लेख भी किया है।" "११६ श्लोकों वाले इस राम में व्रत, उपवास, चारित्र आदि का स्थान-स्थान पर विवेचन होने से यह रास पाठ्य सा प्रतीत होने लगता है किन्तु सम्भव है, जैनधर्म की प्रमुख शिक्षाओं की ओर ध्यान प्राकर्षित करने के लिए नृत्यों द्वारा इस गम के सरम एवं चित्ताकर्षक बनाने का प्रयास किया गया हो। यह तो निस्संदेह मानना पड़ेगा कि का इतना विस्तृत विवेचन एकत्रित किया हुआ एक राख में मिलना कठिन है कवि इसके लिए भूरि-भूरि प्रशंसा प्राप्त करने का भाजन है। कवि ने विविध गेय छंदों का प्रयोग किया है; अत. यह रास काव्य अभिनेय माहित्य की कोटि मे भी आ सकता है ।" "गणितानुयोग के आधार पर निरचित रामों में भूगोल और सोल के वर्णन को महत्व दिया जाता है। इस पद्धति पर विरचित रास सृष्टि की रचना, तारा- ग्रहों के निर्माण, सप्त क्षेत्रों, महाद्वीपों, देश-देशान्तरों की स्थिति आदि का परिचय देते है। ऐसे रासों में विश्व के प्रमुख पर्वतों, नदी-सरोवरो, वन-उपवनों, उपत्यकाओं और म स्थलों का वर्णन एव प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा का वर्णन ही प्रिय विषय रहा है । किन्तु गणितानुयोग पर निर्मित रामों में प्राकृतिक छटा की अपेक्षा प्रकृति में पाये जाने वाले पदार्थों को नामावली पर अधिक बल दिया जाता है। ऐसे रासों में 'सप्तक्षेत्री रास' बहुत अधिक प्रसिद्ध है।" १६१ - वास्तव में डा० श्रोझा, सप्तक्षेत्र क्या है ? जिसका कि इस रास में विवेचन है, बिल्कुल समझ ही नहीं पाये । केवल पचांक ६-७ में भरतक्षेत्र -६, वैताय ३ खण्ड, मध्य खण्ड यह सब देखकर ही यह मान लिया कि इसमें गणितानुयोग व सप्तक्षेत्रों की सृष्टि आदि का वर्णन है । डा० प्रोझा ने इस रास में सप्तक्षेत्रों के वर्णन के पश्चात् श्रावक के १२ मुख्य व्रतों का उल्लेख किया जाना लिखा है इससे तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने प्रारम्भिक भरत क्षेत्र में आदि के नामों को देखकर उन्हें ही ७ क्षेत्र समझ लिया है, जबकि ७ क्षेत्रों का वर्णन मूल रचना में १२ व्रतों के नाम बतलाने के बाद ही प्रारम्भ होता है । उन ७ क्षेत्रों में अपना धन खर्च करने के लिए वहाँ प्रेरणा दी गई है यथा रामति मूल तु बारद, गहिव-धरम पालेवउ । सप्तमेत्रि जिन भणिया, तिह वित्तु वावेव ॥१७॥ सप्तक्षेत्र जिन कहिया महामुनि, वितु वावेजिउ विवपरे । जिन वचन भागधी अवकमु साधिउ लहद्दपारू संसारूसरे ॥ १८ ॥ सप्तक्षेत जिन सासणिहि, सघली कहीजई । अथिरू रिथि धनु द्रव्यु, बीजउ तहि जि वावीजइ । तेहि क्षेत्रि वावेषणा धानकि, लाभइ देवनोको कणनी थाहरू मुक्तिफ्लो, पामउ निसंदेहो ॥१२॥ इसके बाद पद्मांक २० से पहले क्षेत्र, पद्याँक २८ से दूसरे क्षेत्र, पद्याक ५५ से तीसरे क्षेत्र, फिर पद्यांक ७० से माधु-साध्वी, धावक, धाविका इन चारों क्षेत्रों का वर्णन किया गया है या १. पहिलउ क्षेत्र सु 'जिगह भुवण' करावउ चंगू । २. बीजउ 'मु जिनह विबु' ते यहा विचारो । ३. श्रीजउ क्षेत्र सु संभलउ ए वर लोणे, जं भणिउ वीयराइ | गुण गंभीर सो 'जिणइ वयणु' मृगलोयणे, ज तमु नवि उपम काइ ॥ ५६ ॥ 6 से ७- पद्यांक ७१ से श्रमण क्षेत्र, पद्यांक ७६ से श्रमणी, पद्याक ९६ से श्रावक क्षेत्र और पद्मांक १०० से श्राविका । पद्यांक १०८ से श्रावक श्राविका कारित पौषधशाला का वर्णन प्रारम्भ होता है और पद्यांक ११३ में उपसंहार करते हुए कवि कहता है
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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