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________________ 'सप्तक्षेत्र-रास' का वर्ण्य विषय श्री अगरचन्द नाहटा अपभ्रंश भाषा और प्राचीन राजस्थानी में हिन्दी की १२वीं शताब्दी से लेकर अब तक छोटे-बड़े सैकड़ों रास जैन रचनाएं प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। हिन्दी साहित्य जैन कवियों के रचे हुये उपलब्ध हैं। यही नही श्वेताम्बर के आदिकाल में रची हुई जैनेतर रचनाएँ बहुत ही कम जैन समाज में रासों के रचे जाने और गाये जाने की परउपलब्ध हैं। जो थोड़ी सी उपलब्ध है वे भी अपने मूल म्परा आज भी विद्यमान है । फलतः 'रास और रासान्वयी रूप में नहीं रहीं। इसलिए इस समय की जैन रचनाओं काव्य' में सबसे अधिक जैन रास ही संगृहीत किये गये हैं। का उपयोग हिन्दी, राजस्थानी व गुजराती तीनों भाषाओं इस ग्रन्थ की भूमिका में डा० अोझा ने 'जैन रास का के साहित्यिक इतिहास-ग्रंथों में समान रूप से किया जा विकास' शीर्षक स्वतन्त्र अध्याय लिखा है, उसमें १२वीं रहा है। एक ही रचना को राजस्थानवालों ने प्राचीन शताब्दी से १५वी शताब्दी तक के जैन रासों का संक्षिप्त राजस्थानी, गुजरात वालों ने पुरानी गुजराती और हिन्दी परिचय और उल्लेख पाया जाता है। यही अध्याय अभी वालों ने पुरानी हिन्दी के रूप में उल्लिखित किया है। एक स्वतन्त्र निबन्ध के रूप में 'आचार्य श्री तुलसी अभिवस्तुतः प्रान्तीय भाषाओं के प्रारम्भिक विकास काल में नन्दन ग्रंथ' के चतुर्थ अध्याय के पृष्ठ १०८ से ११५ में उतना अन्तर नहीं होता। फिर भी प्रादेशिक विशेषताएँ भी प्रकाशित हुआ है। सम्भव है डा. ओझा को नये तो रहती ही हैं। जैन विद्वान राजस्थान व गुजरात में निबन्ध लिखने का अवकाश मिला न हो और अभिनन्दन समान रूप से घूमते रहे हैं, इसलिए दोनों प्रान्तों में रचित ग्रंथ के सम्पादकों का विशेष अनुरोध व तकाजा रहा हो प्रारम्भिक काल की रचनाओं में भापा की समानता होना इसलिए 'रास और रासान्वयी काव्य की भूमिका वाले स्वाभाविक ही है। हिन्दी प्रदेश में रचे हुये जैन ग्रन्थ भी अध्याय को ही उन्होंने इस ग्रंथ में पुनः प्रकाशनार्थ दे थोड़े ही मिलते हैं और बहुत से ग्रन्थों का विषय जैनधर्म दिया हो । से सम्बन्धित होने के कारण हिन्दी के विद्वान उन रचनाओं दो वर्ष पहले रास और रासान्वयी काव्य की एक को ठीक से समझ नहीं पाते । यही नहीं, उनको समझने के प्रति मुझे डा० अोझा ने भेजी थी। उसी समय मैने उन्हे लिए जितनी गहराई से उनका अध्ययन करना चाहिये, सूचित कर दिया था कि आपके इस ग्रन्थ में कई महत्त्व उतना श्रम वे प्रायः नही कर पाते। इसलिए कई बार की भूल-भ्रान्तियाँ रह गई है और उनका संशोधन किया उन रचनाओं के सम्बन्ध में वे असंभव भी भूल-भ्रान्तियाँ जाना अत्यावश्यक है । इतना ही नहीं, मैंने बहुत सी अशुकर बैठते हैं । बहुत से शब्दों का तो अर्थ ही उनकी समझ द्धियों की ओर उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए एक में नहीं आता, अतः मनमाना तोड़-मरोड कर अर्थ कर संशोधनात्मक लेख भी उन्हें लिख भेजा था। पर प्रा० डालते हैं। ग्रन्थ के विषय को भी ठीक से न समझने के तुलसी अभिनन्दन ग्रंथ में 'जैन रास का विकास' नामक कारण कुछ का कुछ लिख डालते हैं । यहाँ ऐसा ही एक उनका जो लेख छपा है उसमें मेरी दी हुई सूचनामो का उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है : कुछ भी उपयोग न कर, अपने ग्रंथ के उक्त अध्ययन को दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्राध्यापक डा. कुछ उद्धरणादि को छोड़कर प्रायः ज्यो का त्यों प्रकाशित दशरथ मोझा ने नागरीप्रचारिणी सभा से "रास और करा दिया है। इसीलिये उन भूलों की पुनरावृत्ति हो गई रासान्वयी काव्य" नामक एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यहां उसी का एक उदाहरण दिया जा रहा है। सम्पादित करके प्रकाशित करवाया है। रास की परम्परा संवत् १३२७ माघ वदी १० गुरुवार को रचित 'सप्तको जैन विद्वानों ने ही सबसे अधिक अपनाया है और क्षेत्र रास' का प्रकाशन सन् १९२० में प्रकाशित 'प्राचीन
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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