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________________ १२४ अनेकान्त बर्ष १५ प्राचार्य योगीन्दु ने इस परम्परा का यथावत् पालन है। अपभ्रंश साहित्य में परमात्मा के जिस पर्यायवाची किया। उन्होंने लिखा कि-परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, शब्द का सबसे अधिक प्रयोग किया गया, वह है 'निरंजन' बुद्ध जो चाहे सो कहो, किन्तु परमात्मा तभी है जब वह शब्द । योगीन्दु ने निरंजन की परिभाषा लिखी है, जिसका परम पात्मा हो ।' परम प्रात्मा वह है जो न गौर हो न विवेचन पिछले पृष्ठों पर हो चुका हैं । योगीन्दु ने योगसार कृष्ण हो, न सूक्ष्म हो न स्थूल हो, न पण्डित हो न मूर्ख हो, में भी परमात्मा के निष्कल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव न ईश्वर हो न निःस्व हो, न तरुण हो न वृद्ध हो। इन आदि अनेक नाम दिये हैं। तात्पर्य वहां भी यह ही है कि सबसे परे हो ऊपर हो, मूत्तिविहीन हो, अमन हो, प्रनिन्द्रिय परमात्मा को किसी नाम से पुकारो किन्तु वह है निरंजन हो, परमानन्द स्वभाव हो, नित्य हो, निरंजन हो, जो कर्मों रूप ही। महात्मा ग्रानन्दतिलक ने उसे हरि, हर ब्रह्मा से छुटकारा पाकर ज्ञानमय बन गया हो, जो चिन्मात्र हो, कहा। किन्तु साथ ही यह भी लिखा कि वह मन और त्रिभुवन जिसकी वन्दना करता हो।' उसे सिद्ध भी कहते बुद्धि से अलक्ष्य है। स्पर्श, रस, गन्ध से बाह्य है और हैं, सिद्ध वह है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो । सिद्धि का शरीर से रहित है। योगीन्दु-जैसी ही बात है। अर्थ है निर्वाण । निर्वाण कर्मों से छूटी विशुद्ध आत्मा कह- जो परमात्मा निराकार है, अमूर्त है, अलक्ष्य है, उसकी लाती है। ऐसी आत्मा में सम्पूर्ण लोकालोक को देखता भक्ति किस प्रकार सम्भव है ? मन को चारों ओर से हटा हुमा सिद्ध ठहरता है। सिद्ध और ब्रह्म के स्वरूप में कोई कर, उसे देह-देवालय में बसने वाले ब्रह्म में तल्लीन करना, अन्तर नहीं है। परमात्मा को शिव भी कहते हैं। शिव ब्रह्म से प्रेम करना और ब्रह्म का नाम लेना यदि भक्ति है, वह है जो न जीर्ण होता है, न मरता है और न उत्पन्न तो वह भक्ति कबीर ने की और उनसे भी पूर्व जन भक्तों होता है, जो सबके परे है, अनन्त ज्ञानमय है, त्रिभुवन का ने। उन्होंने किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपने मन को स्वामी है, निर्धान्त है। तीन लोक तथा तीन काल की ब्रह्म में समपित नहीं किया-उनका समर्पण बिला शर्त वस्तुओं को नित्य जानता है। वह सदैव शान्त स्वरूप रहता था। उनका प्रेम भी अहेतुक था। उममें लौकिक अथवा पारलौकिक किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं था कबीर जैसा १. जो परमप्पउ परम-पउ हरि हरु बंभु वि बुद्ध। बिला शर्त प्रात्म समर्पण-मगुण परम्परा में तो दूर निर्गुणपरम-पयासु भणंति मुणि सो जिण-देउ विसुद्ध ॥ - परमात्मप्रकाश, २।२००, पृष्ठ ३३७ ।। । ५. जरइ ण मरइ ण संभवइ जो परि को वि अणंतु । तिहुवणसामिउ णाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ।। २. अप्पा गोरउ किण्ठ ण वि अप्पा रत्तु ण होइ । पाहुड-दोहा, ५४वा दोहा, पृ० १६ । अप्पा सुहमु वि थूलु ण वि णाणिउ जाणे जोइ॥ ६. जो णिय-भाउ ण परिहरइ, जो पर भाउ ण लेइ । अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु । जाणइ सयलु वि णिच्चु पर, सो सिउ संतु हवेइ॥ तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेसु ॥ परमात्म प्रकाश, १२१८, पृ० २७ । परमात्मप्रकाश, १८६, ६१, ५०६०, ६४। ७. णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु । ३. प्रमणु प्रणिदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु । सो परमप्पा जिण-भणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥ मप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एड्ड णिरुत्तु ।। योगसार, हवाँ दोहा, पृ० ३७३ । मुत्ति-विहूणउ णाणमउ परमाणंद-सहाउ । ८. हरिहर बंभु वि सिव णही मणु बुद्धि लक्खिउं ण जाई। णियमि जोइय पप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ ।। मध्य शरीर हं सो बसइ अणंदा लीजइ गुरुहिं पसाई ।। परमात्मप्रकाश, १३३१, २।१८, पृ० ३७, १४७ । फरसरसगंधबाहिरउ स्वविहूणउ सोई। ४. जेहउ णिम्मलु णाणमउ, सिद्धिहि णिवसइ देउ । जीव सरीरहं भिण्णु करि अणंदा सद्गुरु जाणइ सोई ।। तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ । आमेर शास्त्र भण्डार की 'पाणंदा' की हस्तलिखित परमात्मप्रकाश, ११२६, पृ० ३३ । प्रति, १८, १६ पद्य ।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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