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________________ जैन अपम्रश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव लेखक- प्रेमसागर बन (गतांक से आगे) प्रात्मा को अनेक नामों से पुकार कर उसे अमूर्त, जिसने नरसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकश्यप को मारा अलक्ष्य, अजर अमर घोषित करने वाली जैन-परम्परा और अर्जुन का रथ हाँक कर कौरवों का विनाश किया, अति प्राचीन है। प्राचार्य-मानतुंग ने 'भक्तामर स्तोत्र' में अपितु वह जो समूचे संसार में फैला है और सब पदार्थों जिनेन्द्र को बुद्ध कहा, किन्तु वह बुद्ध नहीं जिसने कपिल- को हस्तामलकवत् देखता है। उनका ब्रह्मा 'क्षुत्तष्णाराग वस्तु में राजा शुद्धोदन के घर जन्म लिया था, अपितु वह रहित' था, उर्वशी के मोह-जाल में फंसने वाला नहीं।' जो 'विबुधाचितबुद्धिबोधात् बुद्ध हैं। उन्होंने शंकर भी अन्त में जिनेन्द्र का रूप बताते हुए प्रकलंकदेव ने लिखाकहा किन्तु शंकर से उनका तात्पर्य 'शं' करने वाले से था, जिसके माया नहीं, जटा नहीं, कपाल नहीं, मुकुट प्रलयङ्कारी शंकर से नहीं। उनका जिनेन्द्र धाता भी या नहीं, माथे पर चन्द्र नहीं, गले में मुण्डमाल नहीं, किन्तु 'शिवमार्गविधेविधानात्' होने से धाता था। सब हाथ में खट्वाङ्ग नहीं, भयंकर मुख नहीं, काम-विकार पुरुषों में उत्तम होने से ही उनका भगवान पुरुषोत्तम था।' नहीं, बैल नहीं, गीत-नृत्यादि नहीं, जो कर्मरूप अंजन से प्राचार्य भट्टाकलंक ने अकलंक-स्तोत्र में ऐसे ही विचार रहित निरंजन है, जिसका सूक्ष्म ज्ञान सर्वत्र व्याप्त है।' व्यक्त किये हैं। अर्थात् उन्होंने भी जिनेन्द्र को शंकर, जो सबका हितकारी है, उस देव के वचन विरोध रहित, विष्णु और ब्रह्मा कहा, किन्तु उनका शंकर 'शं' करने वाला अनुपम और निर्दोष हैं। वह राग-द्वेष आदि सब दोषों से था, प्रलय करने वाला नहीं । उनका विष्णु वह नहीं था रहित हैं। ऐसा देव पूजा करने योग्य है, फिर भले ही वह १. कबीर ग्रन्थावली, ३२७वां पद। बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, विष्णु या शिव हो । २. निज पद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहेमान री। ५. यत्नाद्येन विदारितं कररुहेर्दैत्येन्द्रवक्षःस्थलम् । करशे कर्म कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री॥ सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽमारयत्कौरवान् ।। परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। नासौ विष्णुरनेककालविषयं यज्ज्ञानमव्याहतम् । इह विधि साधो पाप मानन्दघन, चेतनमय निःकर्म री। विश्वं व्याप्य विजृम्भते स तु महाविष्णुः सदेष्टो मम।३। आनंदघन पदसंग्रह, अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल, ६. उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः । बम्बई, पद ६७वाँ। पात्रीदण्डकमण्डलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ।। ३. बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधा-, प्राविर्भावयितुं भवन्ति स कथं ब्रह्मा भवेन्मादृशाम् । त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ।।४।। धातासि धीर ! शिवमार्गविधेविधानाद्-, ७. माया नास्ति जटाकपालमुकुटं चन्द्रो न मूर्बावली, व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥ खट्वांगं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोप्रमुखं । भक्तामरस्तोत्र, २५वा पद्य । कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं न नृत्यं पुनः, ४. सोऽयं किं मम शंकरो भयतृषारोषातिमोहक्षयं । सोऽस्मान्यातु निरंजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः कृत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमकरः शंकरः ॥२॥ शिवः ॥१०॥
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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