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________________ अनेकान्त १४ वह सहज ही उमा महेश्वर की भ्रान्ति का कारण बन जाता है, देव मूर्ति चतुर्भुज है जिसके एक दाहिने हाथ में त्रिशूल है तथा दूसरा हाथ नीचे घुटने पर रखा है। वाय ओर एक हाथ में सम्भवत: नाग अंकित है तथा दूसरे हाथ में देवी प्रतिमा के उन्नत यक्ष भाग को आवेष्ठित कर रखा है। नामाङ्गी देवी मूर्ति दो भुजा धारिणी है जिसका दाहिना हाथ देवता के कंधे पर अवलम्बन भाव से पड़ा है तथा बायें हाथ में सम्भवत: पारिजात रहा होगा, जो खंडित है। १२२ मूर्ति की ही विशेषताएँ बरबस दर्शक का ध्यान अपनी मोर प्राकषित कर लेती हैं। प्रथम तो इसका पृष्ठभाग का फलक पृथक् सा दिखाई देता है और समूची मूर्ति लासे उभार के साथ चतुर्दिक दर्शनीय (फोर डायमेन्शन) बन गई है। दूसरे इस भव्य प्रतिमा के उन्नत ललाट पर बीचों बीच तीसरा नेत्र बड़ी दचि एवं सुन्दरता के साथ अंकित है। ऊपर उल्लिखित भुमरा का निर्माण भार शिव या वाकाटक काल में ( गुप्तकाल के पूर्व ) हुआ था। नचना के चतुर्मुख शिव गुप्तकाल की धरोहर है तथा सीरा पहाड़ का जैन स्थापत्य इनका समकालीन है। इन आधारों पर तथा उपरोक्त दोनों मूर्तियों की सविशेष अंकन पद्धति के अवलोकन से भी इन प्रतिमाओं का निर्माण-काल निर्विवाद रूपेण गुप्तकाल ठहरता है। जैन स्थापत्य के ये दोनों बिलक्षण प्रस्तर खण्ड महत्वपूर्ण है । अनमोल हैं । तोर्थंकर के सान्निध्य में उमा महेश्वर ब्रह्मा और कार्तिकेय rai जिले के गुढ़ नामक स्थान में मुझे कुछ महत्त्वपूर्ण कलावशेषों का पता मिला था। वहाँ जाने पर दो दो विशाल जैन प्रतिमाएँ एक कयोत्सर्ग घासन साढ़े छ फुट ऊँची तथा दूसरी पद्मासन साढ़े तीन फुट ऊँची मुझे प्राप्त भी हुईं, जो लाकर सतना के समीप रामवन के तुलसी संग्राहलय में स्थापित कर दी गई है, उनका वर्णन पृथक् किसी लेख में करूंगा, यहाँ तो चर्चा का विषय वह पूर्वश्रुत अद्भुत प्रतिमा है जिसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया है, इस मूर्ति के विशाल परिकर का का संदर्भ समभ में मैं अभी भी असमर्थ हूँ भौर उस विषय के विद्वानों का सहारा इस दिशा में चाहता हूँ । गुढ़ में शंकर जी के मंदिर के प्रांगन में पूर्वी दीवाल पर लगी हुई यह अद्भुत प्रतिमा केवल एक फुट चौड़ी और डेड़ फूट ऊँची है, सबसे नीचे वृषभ ( जोशंकर और दोनों की प्रतिमाओं का लक्षण है), उठता हुधा दिखाई दे रहा है, इसी के ही सामानान्तर मूर्ति के दाहिनी मोर सुन्दर मयूर पर घासीन एक मानवाकृति 'कित है, इन दोनों ने सिहासन का रूप निर्मित कर दिया है जिसके पाव भाग में चामरधारी पक्ष यक्षणी दृष्टव्य हैं। सिहासन के ऊपर मनोहारी देव युगल का अंकन है का अनुरोध करता हूँ । इसके पश्चात् ही इस मूर्ति की विलक्षणता प्रारम्भ होती है। देव युगल में शीर्ष भाग पर पृथक् पृथक् नाग फणा वलि दर्शायी गई हैं, जिसमें देवता के ऊपर एक दाढ़ी धारी चतुर्मुख मूर्ति अंकित है तथा देवी प्रतिमा के ऊपर वाले फण पर चस्पष्ट सी मानवाकृति दिखाई देती है उन दोनों के बीच में फणावलि के समास पर, साढ़े तीन इंब ऊँची सुन्दर, स्पष्ट और बड़ी प्यारी तीर्थङ्कर प्रतिमा उत्कीर्ण है । इस प्रकार यह फलक यद्यपि निश्चित ही जैन कलावशेष है तथापि हिन्दू मूर्ति विधान की दृष्टि से इसमें वृषभासीन त्रिसूलधारी शंकर और उनकी अर्द्धाङ्गिनी पार्वती, मयूर प्रातीन कुमार कार्तिकेय तथा चतुर्मुख ब्रह्मा का स्पष्ट अंकन दृष्टिगोचर होता है । कला की दृष्टि से मूर्ति का निर्माण भाठवीं सदी से पूर्व एवं ग्यारहवीं सदी के बाद का नहीं है । ग्यारहवें तीर्थकर यनाथ के परिकर से इस मूर्ति का कुछ साम्य बैठता है । यथा गरुड़ या मयूर उनका लक्षण है। उनके शासन देव की संज्ञा ईश्वर है जो चतुर्भुज है तथा वृषभासीन है। उसके हाथों मे अभय मुद्रा, त्रिशूल वेतस और कटक होते हैं। गौरी उनकी शासन देवी का नाम है और वह भी चतुर्भुजी एवं वृषभासीन होती है । उसके हाथों में कलश और दण्ड तथा अभय और वरद मुद्राएं होती है। इस प्रकार इस मूर्ति को भगवान श्रेयांश नाथ की प्रतिमा मानना युक्ति संगत हो सकता है परन्तु यह तभी संभव है जब मयूर पर भासीन मानवाकृति तथा देव युगल पर अंकित फणावलि और चतुर्मुख देनाकृति की उपस्थिति का कुछ समाधान हो सके । मैं जिज्ञासु भाव से पुरातत्त्वज्ञ विद्वानों एवं जैन तथा हिन्दू मूर्तिशास्त्र के जानकारों से यह समाधान प्रस्तुत करने
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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