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________________ अनेकान्त के भावरण के भीतर छिपा लिया । साथ ही बाहुबली भी पुत्री की मोर देख लेते, कभी महागंगा की हहराती, उछलती उसी लपेट के साथ अदृश्य हो गया और फिर तीनों कुछ चंचल और क्रूर लहरों को, जिन्होंने उनकी जीवन संगिनी समय बाद बहुत दूरी पर निकले। वह लड़का भौर वह को सदा के लिए उनसे छीन लिया था। लड़की मचेतन हो चुके थे। बाहुबली अतल पानी के तल से प्राज कितने दिनों के बाद उस टूटे हुए अध्याय का अपने बाहनों का बल लगाकर उन्हें खींच रहा था । वह पुनः भारंभ हुमा है। किस प्रकार अयोध्याधिपति की महागंगा के वेग से लड़ रहा था। कौन विजयी होगा यह महती राजसभा के पत्थर के स्तम्भों के ऊपर हथौड़े मौर भनिश्चित था । किनारा दूर था, रक्षक दूर थे, जीवन दूर छेनी से उभारे गये मनोरम चित्रों की पृष्ठभूमि पर बाहुथा। केवल काल का मुंह उन तीनों को निगल लेने के लिए बली के अतीत के वे छोटे से सजीव चित्र चलती-फिरती खुला हुमा अत्यंत निकट था। लेकिन बाहुबली जूझता ही छायामों की तरह उभर माये थे । उन कुछ क्षेत्रों में बहुत रहा, जूझता ही रहा । फिर भी वह महागंगा के वेग को सारा बीता हुमा इतिहास सप्राण हो उठा था और बाहुनहीं पछाड़ सका । किन्तु महागंगा भी उसके सामने हार बली की दृष्टि किसी पोर न जाकर भित्ति-चित्रों के ऊपर मान गई । बाहुबली अपने साथ उस लड़के और उस लड़की चित्रलिखित की नाई पटक गई थी। को लिए जहां था वहीं अचल बनकर तैरता रहा । थोड़ी आश्चर्य से बाहुबली की मोर देखकर महाराज ऋषभदेर में रक्षक मा गए और वे तीनों हाथों हाथों में उठा देव ने पछा. "किस चिन्ता में हैं अयोध्या के छोटे राजलिए गए। इस मानव और जड़ की लड़ाई में मानव विजयी कमार?" हुमा था, अचेतन हार गया था। बाहुबली फिर चौक उठे "देव, क्षमा करें, मेरी विनय बाहर आकर उस लड़के को एक घंटे बाद होश आया है कि महाराज वजबाह मेरे बचपन के मित्र हैं, मैं सोच सैकड़ों दास दासियों के मुंह पर स्याही सी फिर रही थी। रहा है कि मित्र मित्र से किस प्रकार लड़ सकेगा।" बाहुबली को लोग कंधों पर उठाए हुए थे। जब उस लड़के महाराज ऋषभदेव मुसकरा उठे, "जब दूसरों से लड़ा को चेतना पाई और वह बात चीत करने के लायक हुमा जाता है, तब वीरता की परीक्षा होती है। जब अपनों से तो बाहुबली की पोर कृतज्ञता की दृष्टि से देखा था? लड़ने का प्रश्न आता है, तब धीरता की परीक्षा होती है। उसने पूछा था 'तुम...?' बाहुबली ने उतर दिया हमें विश्वास है कि बाहबली में, हमारे बेटे में, वीरता था, मैं अयोध्या का राजकुमार बाहुबली, तुम ?, और धीरता दोनों ही गुण हैं। अपने मित्र को प्रनीति से उसने उत्तर दिया था, 'मैं रतनपुर का राजकुमार रोको । पुत्र, इस समय तुम्हारा यही कर्तव्य है।" वजबाह । तुमने मेरी जान बचाई है । मैं तुम्हें नमस्कार बाहबली ने मस्तक नवाया, किन्तु उसकी आँखों ने करता है। बाहुबली हंस पड़ा था। तुमने वीरता का अपनी जिस लम्बी-चौड़ी छाती को निहारा उसमें अपूर्व मान रखा है। मैं तुम्हें बधाई देता हूँ। और दोनों सदा और अकथनीय संघर्ष की मांधी उठ रही थी। महाराज के लिए मानवीय, मानवोचित, मित्रत्व के अटूट बंधन में को यथाविधि प्रणाम करके बाहुबली ने राजसभा से बिदा बंध गए थे। ले ली। मौर वह लड़की कौन थी ? अब याद पाया। वह वैजयंती के राजदूत की और तेजपूर्ण दृष्टि से देखकर थी वैजयन्ती की राजकुमारी। वह दुःख में भयंकर विलाप महाराज ऋषभदेव ने प्रोजमिश्रित स्वर में कहा, "जानो, कर रही थी । मपनी पुत्री के प्राण जाते देख उसकी मोह राजदूत, वैजयंती नरेश से कहना कि वैजयंती के मान को विह्वल माता भी उसके पीछे महागंगा में कूद पड़ी थी। हम अपना मान समझते हैं । उस मान के लिए हम अपने बेटी बच गई थी और मां ने अपने प्राण दे दिए थे। जैसे प्राण, अपना जोश, और अपनी वीरता वैयजंती के वीरों उसने अपने जीवन से काल देव का फाड़ा हुमा मुंह भर के साथ कांटे पर रख देंगे। और हमें यकीन है कि वह दिया हो। वैजयन्ती के महाराज एक टक कभी अपनी बजन काफी भारी होगा।"
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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