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भगवान महावीर का शासन
लेखक - पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ
अभी तक आधुनिक मानव जगत् में भगवान महावीर की देशना का मूल्यांकन ठीक रूप से नहीं हो सका है इसका कारण है मौलिक जैन साहित्य के प्रचार की कमी। श्राज भी बहुत से लोग जैनधर्म की मौलिक शिक्षात्रों से परिचित नही हैं और इसका कारण है जैनों की अकर्मयता । मनुष्य के प्राचार और विचार को परिष्कृत एवं संतुलित रखने के लिए भगवती अहिंसा और निराग्रहवाद का जो उन्होंने लोकोतर विवेचन किया उससे तो अब लोग कुछ परिचित होने लगे हैं। पर उनका कर्म - सिद्धान्त भी एक अनोखा विवेचन है। इस विवेचन का सार है कि मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है । उसे स्वावलम्बी, कर्मठ
वस्तुनों का बँटवारा करने के लिए किसी न किसी को त्याग अवश्य करना पड़ेगा। इस प्रकारकी मूल भावना के सिद्धांत को ही अहिंसा कहा है।
अहिंसावृत्ति का पालन करने के लिए अपनी इन्द्रियों पर अंकुश रखते हुए भोग-उपभोग की सामग्री का त्याग करना अत्यंत कठिन है जो मानसिक संतुलन के बिना संभव नहीं ।
३. श्रमण भगवान् महावीर को हुए अढ़ाई हजार वर्ष गुजर चुके, फिर भी हम जहाँ के तहाँ हैं । हमारी आजकल की दुनियाँ में पहले की अपेक्षा कुछ अधिक मात्रा में ही आर्थिक शोषण, वर्गभेद, वर्गीकरण और ऊँच-नीच वी भावना विद्यमान है; आणविक शक्ति और सैन्यबल के द्वारा एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को पददलित कर उसे अपना गुलाम बनाकर रखना चाहता है—त्याग के बजाय संचय करने और दूसरे के हक को हड़प जाने की प्रवृत्ति विद्य मान है।
ऐसी स्थिति में यदि हमें विश्व में शांति और व्यवस्था स्थापित रखना है तो अहिंसा के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं और अहिसा का उपदेश महावीर के वाक्यों में मौजूद है । ( माल इण्डिया रेडियो बम्बई के सौजन्य से )
और कर्मवीर एवं निर्वन्ध बनने के लिए न केवल इस कर्मसिद्धान्त को समझ लेने की जरूरत है; अपितु उसे जीवन में उतारने की भी आवश्यकता है। कर्म सिद्धान्त मनुष्य को उसकी प्रत्येक स्थिति के लिए उत्तरदायी ठहराता है । वह कर्मकर्ता और फलभोक्ता में सामंजस्य स्थापित करता है । जब तक हम कर्म सिद्धान्त को न समझें तब तक धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं समझ सकते । अतीत से शिक्षा लेना और उसके आधार पर भविष्य का निर्माण करना यह कर्म सिद्धान्त के यथार्थ परिज्ञान से ही हो सकता है । जो अपने प्रति और दूसरों के प्रति उत्तरदायी होना चाहता है वह सबसे पहले अपने कर्तव्य को समझे । 'स्व' को समझे बिना कोई अपने कर्तव्य को नहीं समझ सकता । भगवान् महावीर ने श्रात्मा को ही परमात्मा बनने की दिशा बतलाई है । परमात्मा ही ईश्वर है । यहाँ ईश्वर नाम का कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । कोई भी पुरुषार्थी अपने मानव एवं लोकोत्तर कर्तव्यो के ग्राधार पर परमात्मत्व को प्राप्त कर सकता है ।
यहाँ पण्डे, पुजारी, पुरोहित एवं महन्त आदि धर्मगुरुत्रों द्वारा स्वर्ग या मुक्ति का प्रमाण-पत्र नहीं दिया जाता | स्वर्ग या मुक्ति अथवा किसी भी शुभ स्थिति को पाने के लिए मनुष्य को स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ेगा । यही महावीर-शासन का अन्तस्तल है । 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' अर्थात् काशी में मरने से मनुष्य को मुक्ति मिलती है । पिण्डदान से ही मनुष्य का उद्धार हो जाता है । पत्नी मृतपति के साथ चिता में जल जाये तो वह स्वर्ग चली जायगी — जैसे अनेकों तर्क- हीन मान्यताओं का महावीर के शासन में कोई स्थान नहीं है । इस प्रकार की परम्पराओं को भगवान ने लोक मूढ़ता बतलाया है। ऐसे अन्ध-विश्वास जीवन में धर्मतत्व को कभी नहीं उभरने देते । लोकमूढ़, देवमूढ़ और गुरुमूढ़ मनुष्य स्वयं पथभ्रष्ट हैं और दुनिया को भी पथभ्रष्ट करता है । कोई चीज केवल पुरानी होने से अच्छी नहीं होती और नई होने से बुरी नहीं होती।