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________________ वर्ष १५ था; परन्तु मैंने किसी से कुछ कहा नहीं था, अब देखो ना, की थी, फिर न मालूम यह क्यों आपत्ति पाई। तामीर बन्द करनी ही पड़ी है । इस राज्य ने सहस्त्रों मंदिर राजा साहब ने बहुत कुछ टाल-मटूल की, पर अन्त में धराशायी करा दिये हैं, मूर्तियां तुड़वा डाली हैं। ऐसी है वे सकुचाते हुए बोले, भाइयों के आगे अब पर्दा रखना भी स्थिति में भला इसकी तामीर कैसे चल सकती थी ? ठीक मालूल नहीं होता-जो कुछ थोड़ी सी पूंजी थी वह इसीसे बन्द करनी पड़ी जान पड़ती है। इतने में दूसरे सब समाप्त हो गई। मैं कर्ज लेने का आदी नहीं हूँ, सोचता सज्जन, जो राजा साहब के व्यक्तित्व से प्रभावित थे, एवं हूँ विरादरी से चन्दा कर लूं, पर कहने की हिम्मत ही नहीं उनके प्रेमी थे, बोले आपलोग जो तरह-तरह के अनुमान लगा. होती। अतः मजबूर होकर तामीर बन्द करनी पड़ी। कर व्यर्थ की बातें कर रहे हैं । राजा साहब के पास जाकर इतना कहना था कि मित्रों का हृदय-कमल खिल उठा, ठीक हाल क्यों नहीं मालूम कर लेते। यदि बादशाह की आज्ञा वस, इतनी सी बात पर आपको चिन्ता करने की जरूरत तामीर बन्द करने की हुई है तो राजा साहब से उसका नहीं थी पापको किसी से कर्ज लेने की आवश्यकता ठीक पता चल सकेगा। बिना किसी निर्णय के वे शिर-पैर नहीं और न चन्दा मांगने की ही जरूरत है और न हम की बातें कर दिल के फफोले क्यों निकाल रहे हो। चलो, लोगों के होते हुए इतनी परेशानी उठाने की। अन्यथा तुम्हें डर लगता है तो मैं राजा साहब से मालूम कर दूंगा। धिक्कार हैं हमारे इस मानव जीवन को। आपको जितने इतने में वृद्ध महाशय पुनः कह ही बैठे, इसमें राजा साहब धन की आवश्यकता हो सेवा में हाजिर है। का क्या बिगड़ा, पर हमारी नाक तो नीची हो ही गई। उन्हें चिन्ता भी क्या, शाही खजांची जो ठहरे। घर में राजा साहव किंचित् मुस्कुराहट के साथ कुछ लज्जा चन से बैठे होंगे, उन्हें उसका पता जरूर चल गया होगा; __ का अनुभव करते हुए बोले-मुझे अपने साधर्मी भाइयों अन्यथा तुम्हीं बतामो, एकदम तामीर बन्द होने का क्या से इसी उदारता की आशा थी, किन्तु मुझे इतनी रकम कारण है ? इतने में तीसरे साथी ने कहा बाबु साहब ने की आवश्यकता नहीं है। दो-तीन दिन की तामीर खर्च ठीक ही कहा, राजा साहब से मालूम कर अपना संशय के लिए जितनी रकम की आवश्यकता है उसे यदि मैं लगा क्यों नहीं दूर कर लेते, व्यर्थ की अटकल वाजियों से कोई तो सारी विरादरी से, अन्यथा किसी से भी नहीं लूगा । काम नहीं होता और न दोषारोपण से कोई भला हो सकता राजा साहब के समक्ष किसी किस्म का आग्रह करना है । यहाँ व्यर्थ का विसंवाद करने से क्या प्रयोजन है ? वहाँ उचित नहीं था, अतः प्रत्येक घर से नाममात्र का चन्दा जाने में पाप लोगों को भय और संकोच क्यों हो रहा है, किया गया और मन्दिर के शिखर का काम पूरा हो गया। यह उचित मालूम नही होता। केवल छिद्रान्वेषी होने से उस समय मन्दिर की शोभा अद्वितीय थी और वह देखते काम नहीं चल सकता। राजा साहब चतुर व्यक्ति हैं, ही बनती थी। पक्की रंगीन सुवर्णाकित चित्रकारी, साथ ही धर्मनिष्ठ हैं वे धर्म पर पाए हए संकटों को कैसे वारीक बेल-बूटा, प्रांगण का (प्रांगनका) सुन्दर डिजायन, सहन कर सकते हैं। खुला हुआ सहन और चारों ओर अलंक्रत कमनीय दृश्य, जब अन्य मित्रों और साधर्मीजनों को मन्दिर की कलात्मक वेदी का निर्माण और उसकी पच्चीकारी की तामीर बन्द होने के समाचार ज्ञात हए, तो खेदखिन्न हो अनूठी कला । जो मन्दिर को देखता, गद्गद् हो जाता । (मोर माहार-पानी का परित्याग कर) राजा साहब के हृदय प्रसन्नता से भर जाता और यह कहे बिना नहीं पास दौड़े हुए भाए और मांखों से अश्रुधारा डालते हए, एवं रहता कि धन्य है राजा साहब को, जो इतना सुन्दर और अपनी प्रान्तरिक वेदना व्यक्त करते हुए बोले, राजा साहब, विशाल मान्दर बनवाकर तय्या 'मापके होते हुए मन्दिर अधूरा रह जाय, तब तो हमारा जब मन्दिर की प्रतिष्ठा का समय आया, तब आपने दुर्भाग्य ही है। मापने तो कहा था कि बादशाह सलामत उसे बड़ी भारी तय्यारी और महोत्सव के साथ सम्पन्न ने शिखरबन्द मन्दिर बनवाने के लिए खुद ही इच्छा व्यक्त कराया । (उसके लिए एक विशाल पण्डाल बनवाया गया)
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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