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किरण १
राजा बरसुखराय
कुछ केवल उनके प्रभाव को ही मूचित करती हैं। यहाँ साकार हो उठा और स्वप्न में ही प्रसन्नता के साथ एक ऐसी जीवन-घटना दी जा रही है, जिससे उनके साहस मन्दिर निर्माण कराने का विचार भी पक्का हो गया। उस और परद्रव्य से निस्पृहता का भाव अंकित हुए बिना नहीं समय दिल्ली में इतने जैन मन्दिर न थे और जो थे वे रहता।
इतने सुन्दर विशाल एवं चित्ताकर्षक भी न थे, जिनमें उन पर लक्ष्मी की अतिशय कृपा थी, पुण्योदय से जनता सुविधा के अनुसार वात्सल्य के साथ धर्म-साधन कर वैभव में पर्याप्त वृद्धि हो रही थी, फिर भी भावों में सके। साथ ही उसमें उनकी इच्छा एक विशाल शास्त्र प्रत्याशक्ति और इंद्रिय-विपयों में लोलुपता नहीं थी। उस भडार का संग्रहीत करने की थी; क्योंकि सर्वसाधारण को समय रुपया बाहर से गाड़ियों में आता-जाता था। आने स्वाध्याय करने के लिए शास्त्र सुलभ नही होते थे। इन्हीं
माना लगा दिया सद्विचारों से प्रेरित हो आपने मन्दिर बनवाने का निश्चय जाता था (कहा जाता है कि रुपया मकान में समाता नहीं
माना नहीं किया और प्रातःकाल ही अपनी उस योजना को कार्यरूप था)। शाही खजांची होने के कारण बड़े-बड़े नवाबों, में परिणत करने के लिये अपने मकान के पास हो राजाओं आदि को रुपये की आवश्यकता होने पर निश्चित धमपुरा म विशाल जमान खराद का और बादशाह से व्याज पर दे दिया जाता था और सरकारी खजांची होने
'मन्दिर-निर्माण' करने की प्राज्ञा भी ले ली। आज्ञा मिलते के कारण उसकी वमूली में देर नहीं लगती थी।
ही आपने शुभ मुहूर्त में विशाल मन्दिर की नींव डाल दी सन् १८५७ में जब राज विप्लव (गदर) हुआ, दिल्ली
और उसकी चिनाई का काम तत्परता के साथ होने लगा और उसके आस-पास भय और अातंक का साम्राज्य छाया,
और सात वर्ष के कठोर परिश्रम के द्वारा मन्दिर बनकर तब आपने अपने कुटुम्बीजनों को सुरक्षा की दृष्टि से
प्रायः तैयार हो गया। जब शिखर में दो-तीन दिन का हिसार भेज दिया और आप एकाकी निर्भय हो अपने
काम अवशिष्ट रह गया, तब राजा साहब ने तामीर बन्द नौकरों के साथ दिल्ली में ही रहे। उस समय लूट-खसोट
कर दी, जो राजा साहब सर्दी-गर्मी और बरसात में हर
समय मिस्त्री मजदूरों में खड़े होकर काम कराते थे, वे अब और डांकेजनी यादि की भीषण घटनाएं हो रही थी। कुछ डाकू लोग अपने सरदार के साथ आपके मकान पर
वहाँ नहीं है। भी पाये, राजा जी ने डाकुयों को देखते ही अपने मकान ।
विरोधी जनों को अटकल (अनुमान) लगाते देर न को खोल दिया और स्वयं तिजोडियाँ खोल दी और डाकयों लगी और एक महाशय बोले-'हमने पहले ही कहा था के सरदार से कहा कि आपको जितने धन की जरूरत हो कि इस मुसलमानी राज्य में जब पुराने मन्दिरों का संरले जाइये । डाकुमो का मरदार समझदार था, उसने सोच क्षण दूभर है, तब नये मन्दिरों का निर्माण बादशाह कैसे विचार कर अपने साथियों से कहा कि यह बडा भला सहन कर सकता है ? अादमी है, इसका यह माल अपने को हजम नही हो इतने में दूसरे मज्जन अपनी बुद्धि का कौशल दिखसकता । आप अपना माल सम्हाल कर रक्खें-हमें उसकी लाते हुए बोल उठे, खैर भाई, राजा साहब बादशाह के जरूरत नहीं और हम आपकी रक्षा के लिये अपने पाँच खजांची हैं, मन्दिर बनवाने की अनुमति ले ली होगी।
आदमी छोड़े जाते है जिससे आपको अन्य डाक लोग तग मगर शिखरबन्द मन्दिर कैसे बनवा सकते हैं ? शिखर बन न करें। राजा साहब डाकुनों के सरदार की बात सुनकर जाने पर मंदिर और मस्जिद में अन्तर ही क्या रह जायगा । अवाक रह गए और आश्चर्य से उनकी ओर देग्यने लगे। ये बातें परस्पर हो ही रही थी कि इतने में एक वृद्ध
सज्जन अपने अन्य दो साथियों के साथ उधर पा निकले, जिनमन्दिर निर्माण
उनमे एक ने मंदिर की ओर देखते हुए कहा। राजा सन् १८०१ (वि० सं० १८५८) में राजा साहब के माहब ने मन्दिर बनवाया तो है, बहुत सुन्दर पर मुसलमान मन में रात्रि में सोते समय मन्दिर निर्माण का विकल्प इसे कब सहन कर सकते थे। मैं तो यह पहले ही जानता