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________________ राजा हरसुलराय और प्रतिष्ठा का कार्य उत्साह के साथ सम्पन्न किया गया रोहण कीजिए। तब राजा साहब पगड़ी उतार कर बोले और सन् १८०७ वि० सं० १८६४ में वैशाख शुक्ला तीज। -भाइयों, मन्दिर मेरा नहीं, पंचायत का है सभी ने चंदा (अक्षयतृतीया) के दिन शुभ मुहूर्त में अभिषेक के साथ दिया है। अतः पंचायत ही कलशारोहण करे और वही जय-जय शब्दों के नादपूर्वक श्री आदिनाथ की प्रशांत मूर्ति आज से मन्दिर का प्रबन्ध करे । जब लोगों ने राजा साहब विराजमान की गई। की बात सुनी, तो अवाक रह गए और तब उन्हें उस थोड़े प्राकस्मिक दुर्घटना से चन्दा देने का रहस्य समझ में आया और ला० हरसुखप्रतिष्ठा महोत्सव का कार्य सम्पन्न हो ही रहा था राय जी के अन्तः विवेक का पता चला। उस समय राज को चार पाना और मजदूर को दो आना मजदूरी के मिलते कि महोत्सव के कार्य में सहसा एक विघ्न मा गया, जिसने थे। तब इस मन्दिर में ७-5 लाख रुपया लगा है। दशहजार रंग में भंग कर दिया, उस दिन उत्सव का अन्तिम दिन में तो केवल वेदी के ऊपर का कमल बना था और सवा था, पंडाल जनता से खचाखच भरा हुआ था और नृत्य लाख में संगमर्मर की वेदी, राजा साहब का विवेक अत्यन्त गान, भजन हो रहा था। इतने में बदमाशों की कुछ टोली मूल्यवान था, यद्यपि वे विशेष शास्त्र-ज्ञानी नहीं थे; परन्तु में मंडप के चारों ओर आग लगा दी, तथा चाँदी-सोने का ममता को बुरी समझते थे। इसीसे उन्होंने पर वस्तु से सामान लूटना शुरू कर दिया, सभी लोग घबड़ाए हुए अपने अहंभाव को दूर कर अपनी विवेक जागृति का मडप से पर की ओर भागे । स्त्री बच्चों को सुरक्षित स्थान परिचय दिया था, इतना ही नहीं किन्तु मन्दिर की सुरक्षा पर पहुँचाया । प्राग बुझाने का भी प्रयत्न किया गया। और उपासना आदि के लिये काफी जमीन जायदाद दे गए राजा साहब सचिन्त्य दशा में खड़े हुए उसकी रक्षा का थे, जो आज भी मन्दिर के पास मौजूद है। इस जीव को प्रबन्ध कर रहे थे। फिर भी गुन्डे लोग चांदी-सोने का अहंकार-ममकार ही तंग करते हैं और वही मानव को बहुतसा कीमती सामान लेकर भाग गए। आग बुझा दी पतन की और ले जाते है । पर विवेकी मनुष्य उनके फंदे में गई, अगले दिन प्रातः काल राजा साहब दरबार में पहुंचे नहीं पाते। राजा हरसुखराय का ममकार-अहंकार का त्याग राजा साहब का चेहरा कुछ उदास और गम-गीन-सा उन के आदर्श जीवन की महत्ता का द्योतक है, और जैन दिखाई देता था । यद्यपि उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करने का समाज के लिये अनुकरणीय आदर्श, जो धार्मिक कार्यों में काफी प्रयत्न किया; किन्तु सब बेकार, कारण अन्तर्मानस अल्प द्रव्य लगाकर अपनी महत्ता प्रकट करते हैं उन्हें राजा में वेदना जो थी। बादशाह को जब हाल मालूम हुमा, साहब के अपूर्व त्याग और अन्तः विवेक पर ध्यान देना तब गुन्डों को बुलवाया और आज्ञा दी, कि राजा साहब । चाहिये । जीवन अल्प, लक्ष्मी चंचल और विनाशीक है, का जो कुछ भी सामान लाये हो, वह सभी वापिस करो। नहि मालूम ये कब विघट जाये। अतः विवेक को सबल इस प्रकार की हरकत तुम्हें नही करनी चाहिये थी और करने प्रयत्न का करना चाहिये । यदि तुमने पाइन्दा ऐसी हरकतें की तो तुम्हें उसकी सख्त सजा दी जावेगी। अस्तु, गुण्डों ने तत्काल चोरी किया शाही समय में दिल्ली में प्रथम जैन रथोत्सव हुआ सब सामान लाकर खजांची साहब को दे दिया। और संवत् १८६७ में राजा साहब के हृदय में रथोत्सव प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न हुआ और श्री नये मन्दिर जी में निकालने का विचार हुआ, साथ ही, आपके मित्रों ने भी श्री आदिनाथ की प्रशान्त मूर्ति विराजमान की गई और रथोत्सव के निकलने की प्रेरणा की। प्रतः अपनी चतुराई मंदिर आदिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुअा। से सुनहरी मस्जिद का जो सुवर्ण-लेप खराब हो गया था राजा साहब का अन्तः विवेक उसे पुनः करवा दिया। जब चाँदनी चौक से शाही सवारी जब कलशारोहण का समय आया और पंचायतने गुजरी, तब बादशाह ने देखा कि मस्जिद का गुम्बज ऐसा राजा. माहब से निवेदन किया कि राजा साहब कलशा- चमक रहा है जैसे उस पर अभी ही सुवर्ण-लेप कराया
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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