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________________ किरण ५ चिकित्सक लोग कह रहे थे — थोड़ी देर में इन्हें होश मा जायगा । उनकी बात सच हुई । कार्तिकेय को होश आया । उनने श्राखें खोली और पैरों की तरफ थोड़ी दूर पर हथकड़ियों से जकड़े हुए राजा की तरफ उनकी दृष्टि पड़ी । राजा ने शरम से सिर झुका लिया। एक नागरिक ने कहा - आपके ऊपर अत्याचार करने के कारण प्रजा ने इसे क़ैद किया है । इसे मृत्युदंड दिया जायगा । आपकी प्राज्ञा भर की देर है । कार्तिकेय १२१ उसे अपने कृत्य का तीव्र पश्चाताप हुआ उसने कहामहाराज ! मैं क्षमा नहीं चाहता हूँ। प्रायश्चित्त चाहता हूँ । असह्य वेदना के रहने पर भी कार्तिकेय के मुँह पर हलकी हँसी दिखाई देने लगी। वे बोले - इनने जो कुछ किया, अज्ञान से या किसी के सिखाने से किया । मैं इन्हें क्षमा करता हूँ । इन्हें छोड़ दो । सब ने बड़े प्राश्चर्य से यह प्रज्ञा सुनी। राजा के आश्चर्य का कुछ ठिकाना न रहा। उसका हृदय जो अभी तक विवशता से सब सह रहा था, गलकर पानी हो गया । कार्तिकेय ने कहा - प्रायश्चित्त तप है। वह कराया नहीं जा सकता, किया जा सकता है। इसके बाद उनकी अवस्था बिगड़ने लगी । अन्त में लड़खड़ाते हुए शब्दों में कहा - इन्हें छोड़... दो... इसके बाद महात्मा ने महायात्रा की । सबको प्रसह्य दुःख हुआ । परन्तु जो दुःख राजा को हुआ वह अप्रतिम था । मध्याह्न के बाद महात्मा की स्मशान यात्रा का बड़ा भारी जुलूस निकला । सारा नगर उमड़ आया। महात्मा के शरीर के लिए जो विमान बनाया गया था उसके अगले भाग में जो एक आदमी था उसके धांसू सबसे ज्यादा बह रहे थे। वह राजा था । इस समय नगर में कोई न बचा था । प्रकाश के भय से उल्लू की तरह सिर्फ वही पंडित घर के किसी अँधेरे भाग में छिपे पड़े थे । 'अनेकान्त' के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है । अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिfood व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ना अनिवार्य है । हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-प्रेमियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनश्रुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे शीघ्र ही अनेकान्त के ग्राहक बनें। इससे समूचे जैन समाज में एक शोध-पत्र प्रतिष्ठा और गौरव के साथ चल सकेगा। भारत के अन्य शोध-पत्रों की तुलना में उसका समुन्नत होना आवश्यक है । व्यवस्थापक प्रनेकान्त
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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