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बन परिवारों के
बनने का वृत्ता
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बैठो । गीता में भी कहा है-सधर्म
धर्मी ज्ञाति को मिल्यो। तब वासों अपनी बेटी को विवाह "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः।" करि दीनो । सो वह वैष्णव की बेटी अपने घर को गई। जिस प्रकार जैनाचार्यों ने अपने ज्ञान और चरित्र तब वह लरिकिनी वाके घर मे जैनधर्म अनाचार भ्रष्ट उपदेश एवं प्रभाव के बल से समय-समय पर लाखों प्रजनों देखि के मन में बोहोत दुख करन लागी। घर में तो सब को जैन बनाया इसी तरह अन्य धर्म सम्प्रदाय वालों ने भ्रष्टाचार । और खाय बिना तो रह्यो न जाय । तातें उन भी कतिपय जैन-धर्मानुयायियों को अपने धर्म का अनुयागी लरिकिनी ने अपनी सास तें कहो, जो-तुम्हें मोकों बना लिया । पर ऐसे धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्तियों परोसनो होइ तो एक बेर ही परोस देहु । मैं तो कछ फेरि की जानकारी उन सम्प्रदायों के ग्रन्थों को देखे बिना नहीं मांगोंगी नाहीं । तब वाकी सास एक ही बेर वाकी पातरि मिल सकती । और जैन विद्वानों का अध्ययन बहुत ही में परोसे । तितनो ही वह लरिकिनी चरनामृत मिलाय के सीमित होने से जैनेतर सम्प्रदायों के ग्रन्थों का अवलोकन कम खाँहि । परन्तु दूसरी बेर न कछू खाय न कछू लेय । या ही हो पाता । 'अनेकान्त' के गत अंक में भगवत मुदित कृत भांति सों निर्वाह करे। सो ऐसे करत बहोत दिन भए । रसिक अनन्य माल के नरवाहन जी की परिचयी में वर्णित सो वह लरिकिनी मन में बहोत ही दुःख करे। और कहे, सरावगी (जैनी) का विवरण प्रकाशित किया गया है। जो-या आपदा तें श्री ठाकुर जी कब छुटावेंगे। या भांति प्रस्तुत लेख में वल्लभ सम्प्रदाय के" दो सौ बावन वैष्ण- सों वोहोत ही खेद करे। सो श्री ठाकुर जी तो परम वन की वार्ता" नामक ग्रन्थ में वर्णित २ वार्ता प्रसंगों को दयाल हैं, भक्तवत्सल हैं। सो वह लरिकिनी को दुःख प्रकाशित किया जा रहा है। इनमें से पहले प्रसंग में यह देखि कै श्री नाथ जी ने श्री गुसांई जी सोक ह्यो, जो-वह बतलाया गया है कि एक वैष्णव कन्या का विवाह जैन बनिया वैष्णव की बेटी मह गाम में है। सो वाको दुःख धर्मी व्यक्ति से हो गया । उस घर में वैष्णव सम्प्रदायोक्त मोते सह्यो जात नाहीं। तब श्री गुसाई जी उह लरिकिनी सुचिता न देख कर कन्या को दुःख हुआ। इस बाहरी को दुःख जानि के थौरे से दिन में महगाम में पधारे । सुचिता को महत्व देते हुए वार्ता में जैनधर्म को अनाचार सो वा गाम के बाहिर तलाब हतो। सो वा तलाब के व भ्रष्टाचार तक बतला दिया गया है। अन्त में वल्लभ ऊपर श्री गुसांई जी ने डेरा किए। तब ता दिना वह सम्प्रदाय के श्री गुसाई जी उस गांव में आते हैं और उनके बनिया वैष्णव की बेटी वा तलाब पर पानी भरन को गई दर्शन कर वह वैष्णव सम्प्रदायानुयायिनी स्त्री अपना दुख हती । तब उहां वा लरिकिनी ने गुसांई जी के व्रजवासी गुसांई जी से निवेदन करती है और सासु से गुसांई जी देखे। तब उह लरिकिनी वा वाजवासी के लिंग ठाड़ी को भेंट करने के लिए एक नारियल मांगती है। सासु ने विचार किये । जो-ये व्रजवासी तो मेरे बाप के घर नित्य बहू के साथ गुसाँई जी के दर्शन की इच्छा प्रकट की। आवत हते । तब वह लरिकिनी वा व्रजवासी के लिंग प्राय और वहाँ जाने पर सासु भी गुसांई जी की भक्त हो गई। के पूछयो, जो तूम कौन हो? और कहाँ ते पाए हो? अन्ततः सारा परिवार वैष्णव हो गया। दूसरी वार्ता में तब उस व्रजवासीन ने कही, जो श्री गुसांई जी श्री गोकुल एक सरावगी की बेटी और उसके पति के वैष्णव होने का ते पधारे हैं । सो हम सब व्रजवासी उनके साथ हैं। सो वृतान्त है । व्रज भाषा की वे दोनों वार्ताएँ नीचे दी जा श्री गुसांई जी माज इहां उतरे हैं। सो प्राज तो इहां रही है। दो सौ वैष्णवन् की वार्ता तीन खण्डों में शुद्धाद्वैत रहेंगे । और सवेरे श्री द्वारिका जी कों पधारेंगे । तब वा एकेडमी, कांकरोली से प्रकाशित है।
लरिकिनी ने वा व्रजवासी सों कही, जो-मैं तो फलाने (१) वार्ता
वैष्णव की बेटी हों। और मेरे इहाँ तो मेरा पिता श्री सो वह बनिया परम भगवदीय हतो। सो वाके एक ग्रसांई जी को सेवक है। सो मोकों श्री गुसांई जी के बेटी कुगरी हती। सो कन्या के निमित वह वर पंढन को दरसन करावोगे ? मैं तो वैष्णव की बेटी हों। और इहां गयो । परन्तु कोऊ वैष्णव मिल्यो नाहीं। तब एक जैन- ससरारि में तो जैन धर्मी हैं। तातें मोकों वो इहाँ परम