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________________ २९४ अनेकात बर्ष १५ दुःख है । सो श्री गुसांई जी के दरसन करतें मेरो दुःख अपने-अपने पति के प्रागे भाई के सब सामाचार कहे, निवृत होइगो । तब वह लरिकिनी ने उन व्रजवासिन सों जो-अब तो हम वैष्णव भई हैं। श्री गुसांईजी पास कहि के वह जल की घड़ा तो वा तलाब पर धरि दीनो नाम पायो है । तातें अब हमारो और तुम्हारोसब व्यवहार और माप वा बजवासी के साथ जा के श्री गुसांई छूट्यो । जी के दूरि तें दरसन किये । दंडवत कीनी । तब पाछे वा लरकिनी के सुसर ने अपनी स्त्री सों कहो, वा ब्रजवासी सों पूछे, जो-यह कौन है ? तब श्री जो गुसाई जी मोहू कों नाम देइंगे । सो तू मोकों उहां गुसांईजी वा ब्रजवासी ने विनती कीनो, जो- ले चलि । सो वह अपने बेटान सहित अपनी स्त्री तथा महाराज! यह तो अमुके वैष्णव की बेटी है। तब वह बहु को साथ लेकै श्री गुसांई जी के पास जांह के नाम लरिकिनी श्री गुसांई जी को दंडवत् करि के पाछे वह पाइवे की विनती कियो। तब श्री गुसाई जी कृपा करिके तलाब पर माई के जल को घड़ा भरि के घर पाई। सो उन सजन को नाम दिये । पाछे बहुने निवेदन की विनती घर में प्राई के सोच करन लागी, जो-मेरे पिता के गुरु कीनी। तब श्री गुसांई जी वाकों निवेदन कराए । ता गुसांईजी इहाँ पधारे हैं। सो तुम मोकों एक नारियल पाछे और सबन ने निवेदन की विनती कीनी । तब उनको देऊ तब वाकी सास ने कह्यो, जो-परी बहू ! तू कहे एक व्रत कराई निवेदन कराये। तब बहुने फेर बिनती तो तेरे साथ माऊँ, श्री गुसाई जी के दरसन कों। तब बहू करिके कहो, जो महाराज! अब कुछ सेवा पधराइ । ने कह्यो, जो-भलो, तुम हू चलो। तुम्हारी इच्छा है तो दीजिये, तब श्री गुसांई जी वाकों नवनीतप्रिय जी के वस्तु तुम हू चलो । सो घर तें वे दोऊ जनीं एक-एक नारियल की सेवा पधराये। तब वह बहू सेवा पधराइ, अपने लै कै सास-बह चली। सो उहाँ श्री गुसाई जी के पास घर भाई सो बहु के पाछे सब कुटुम्ब ने नाम निवेदन गई। तब ब्रजबासिन ने श्री गुसांई जी सों कही, जो पायो । ता पाछे गाम के और हू लोग वैष्णव भए, या भांति महाराज! अमुके वैष्णव की बेटी पाई है। तब श्री पाछे दूसरे दिन श्री गुसांई जी को सबन विनती कर उहाँ गुसांई जी ने कह्यो, जो-कहो भीतर पावें। तब ये दोऊ राखे । सो मापने घर श्री गुसांई जी को पधराप के विनती डेरा के भीतर जाँई कै श्री गुसाई जी को दंडवत किये। करि के भेट धरी । या प्रकार श्री गुसांई जी ने वा वैष्णब थ जोरि उहाई ठाडी होई दी। तब बहन की बेटी की कानि तें उन सबन को अंगीकार कीने। (६२) अपनी विनती श्री गुसांई जी सो कही, जो माको नाम (२) दीजिए। मैं पाप की सरनि प्रांउगी। तब श्री गुसांई जी अब श्री गुसांई जी की सेवकिनी एक सरावगी की पाशा किये, जो-नाम देईगे। तव सास ने बहु के हाथ बेटी, आगरे में रहती, तिनकी वार्ता को भाव कहत हैंविनती करवाई, जो-मोह को नाम दें तो भलो है। तब सो ये आगरे में एक सरावगी के जन्मी । सो ये वर्ष नब की भई। तब मां बाप ने याको व्याह जाति लरिका वा बहु ने श्री गुसांई जी सो फेरि बिनती करी, जो महाराज ! मेरी सासह नाम पायवे की बिनती करति सों कियो। सो याउ दैवी जीव हते । सो परम स्नेह सों है। तब श्री गुसांई जी ने कही, लो-भले! पाछे दोऊ रहते । पाछे बरस बीस को पुरुष भयो तब इनके मां-बाप जनी श्री गुसांई जी के मागे माय बैठीं । तब उन पर कृपा मरे । तब ये दोऊ सुतंत्र घर में रहने लागे। करि कै दोऊन कों नाम दीनो। तब वे दोऊ नाम पाइ के वार्ता प्रसंग--१ वैष्णव भई । पाछे श्री गुसाई जी को नारियल भेंट धरि सो एक समय धी गुसाई जी घागरे पधारे हते । सो दंडवत करि के प्रसन्न मन सों घर को गई । और उनके रूप चंदलया के घर बिराजे हते, अटारी पर। तब पृथ्वीसाप वा गाम की लुगाई पांच-सात जनी और ह गई हतीं, पति के यहां सों काहु चोर को सूरी की हुकम भयो हतो! श्री गुसांईजी के दरसन को। सो वेऊ सब ताही समै तब तहाँ दस-पांच लुगाई जल भरिवे को जात हती। सो तामें एक सरावगी की बेटी हती । सो ताने उह सूरी श्री गुसाई जी पास नाम पायो। सो वे नाम पाइके पंधरयो देख्यो। तब देखिकै वाकों मूर्ण पाई। सो
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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