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लिखा कि जो परमात्मा है, वह ध्यान का विषय होगा ही।" योगीवृन्द भी उस ज्ञानमय परमात्मा का ध्यान लगाते हैं । * ध्यान के बिना तो हरि-हर भी अपने ही अन्दर रहने वाले ब्रह्म को नहीं देख पाते । कबीर की भाँति ही योगीन्दु ने लिखा था कि अन्य सब परभावों को छोड़कर हे जीव ! अपनी आत्मा की ही भावना करो। वह आत्मा जो आठ कर्म और सब दोषों से रहित है तथा दर्शन-ज्ञान और चारित्र से युक्त है। उसका ध्यान करने से एक क्षण में स्वतः ही परमपद मिल जाता है। पाहुड़ दोहा में जिला है कि योगियों को उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिए जो त्रैलोक्य का सार है। उन्होंने उनको मूढ़ कहा जो जगतिलक प्रात्मा को छोड़कर अन्य किसी का ध्यान करते हैं । मरकत मणि को पहचानने के उपरान्त कांच की क्या गणना रहती है ।" श्रात्मदेव की भावना से पाप एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं। सूर्य एक निमेष में अन्धकार के समूह का विनाश कर देता है। उनके अनुसार जो परम निरंजनदेव को नमस्कार करता है, वह परमात्मा हो जाता है। जो १. एर्याह जुत्तउ लक्खणहिँ, जो पर णिक्कलु देउ । सो तहिं णिवस परम-पर, जो तइलोयहँ भेउ ॥
परमात्मप्रकाश, ११२५, पृ० ३२ २. जोदय - विदहि णागमउ, जो भाइज्जद भेठ । मोक्खहँ कारणि प्रणवरउ, सो परमप्पउ देउ ॥ वही, १०३९, ०४३. ३. अप्पा मेल्लिवि णाणमउ, भ्रष्णु परायउ भाउ । सो खंडेविणु जीव तुहुँ भावहि श्रप्प सहाउ ॥ भट्ठ कम्म बाहिरउ, सयलहं दोसहं चतु दंसण- गाण-चरितमङ, भप्पा भावि मिस्तु ॥ वही, १ ७४, ७५, पृ० ८०, ८१. ४. धप्पा भायहि णिम्मलउ, कि बहुएँ प्रष्येण । जो कार्य परम-पर, सम्भइ एक्क-खणेण ॥ वही, ११६७, पृ० १०१. ५. अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ, मूढ म झायहि भण्णु । जि मरगज परियाणिय, तहू कि कब गण्णु ॥७१॥ ६. अप्पाएव विभावयह, णासद पाठ खणेण ।
सूरु विषणासह तिमिरहर, एक्कल्लड, णिमिसेण ॥७५॥ ७. परमणिरंजणु जो णवइ, सो परमप्पउ होइ ॥ ७७॥
वर्ष १५
अशरीरी का संधान करता है, वही सच्चा धनुर्धारी है।" महात्मा ग्रानन्दतिलक ने लिखा है, "परमप्पउ जो भावई सो साच्च विवहा"" अर्थात् जो परमात्मा का ध्यान करता है, वह ही सच्चा व्यवहार है ।
जहाँ तक महेतुक प्रेम का सम्बन्ध है, वह भी जैनपरम्परा में ही अधिक खपता है । जो वीतरागी है वह राग को पसन्द न करेगा। किन्तु जैन भक्त उसकी वीतरागता पर रीझ कर ही भक्ति करता है। वीतरागी से राग करने वाले के हृदय में प्रतीकार स्वरूप प्रेम पाने को आकांक्षा न रही होगी, यह सत्य है । किन्तु जैन हो या अजैन एक प्रेमी अपने दिल का क्या करे? भगवान चाहे निर्मोही हो या निर्गुण या शून्य -सनेही, जब उससे प्रेम किया है तो प्रेमी का हृदय उसके साथ रभस प्रालिंगन को मचलेगा ही । कबीर बाद में मचला, मुनि रामसिंह का मन पहले ही मचल चुका था । जैन आचार्यों ने सिद्धान्त की दृष्टि से लिखा है कि यह मचलन बुरी नहीं; अच्छी होती है। भगवान के प्रति किया गया राग पाप के बन्ध का कारण नहीं बनता । इसी कारण तो जिस भांति कबीरदास की आत्मा पियमिलन के लिए बेचैन हुई, प्रिय श्रागमन के लिए सचिन्त बनी, उसी भाँति मुनि रामसिह की आत्मा ने अपनी सखी से कहा था—प्रियतम को पांच (इन्द्रियों) के बाहर स्नेह लग गया है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उसका आगमन नहीं होगा । * प्रिय ग्रागमन के लिए दोनों की बेचैनीसमान है। दोनों का सन्देह समान है। दोनों की चिन्ता समान है। कबीर का प्रेम अहेतुक न बनता यदि उन पर केवल रामानन्दी भक्ति का प्रभाव होता - उन्हें वह योगधारा भी जन्म से मिली थी, जिसमें फक्कड़ता थी और मस्ती भी । उस योगधारा में जो महेतुक वाला पुट था वह अवश्य ही
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१. सरीरहं संधाणु किउ सो घाणुक्कु णिरुत्तु ॥ १२१ ॥ २. देखिए 'गंदा' की हस्तलिखित प्रति २४ वां पद्म । ३. देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरत्तो । सम्मतमुज्वहंतो भाणरम्रो होद जोई सो ।
भाचार्य कुन्दकुन्द, मोक्षपाहूद, ५२वीं गाया। ४. पंचहि बाहिरु मेहडउ हलि सहि लग्गु पियस्थ । तासु न दीसह भागमणु जो खलु मिलिउ परस्स ॥ पाहुड-दोहा, ४५ दोहा ।