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________________ जैन अपन' का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव जैन परम्परा से-जाने या अनजाने कैसे ही माया होगा। 'भैया' का पति कहीं भटक गया है तो वह दुलराते हुए कहते मैं नाथ-सम्प्रदाय को अनेक सम्प्रदायों का संकलन कह चुका हैं, "हे लाल ! तुम किसके साथ लगे फिरते हो तुम अपने हूँ। जैनों में योग वाली बात अधिक थी। इसीलिए अहे- महल में क्यों नहीं पाते, वहाँ दया, क्षमा, समता पौर तुकता भी अधिक थी। शान्ति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा में खड़ी हुई हैं। अहेतुक प्रेम का निर्वाह हिन्दी के जैन कवियों ने खूब एक से एक अनुपम रूप वाली हैं।"' दुलराना सफल हुमा किया। पत्नी पिय के वियोग में इस भांति तड़फ रही है जैसे पिय घर वापिस मा गया, तो सुमति की प्रसन्नता का जल के बिना मछली। उसके हृदय में पति से मिलने का ठिकाना न रहा । वह पिय के साथ परमानन्द की अनुभूति चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नाम सखी में डूब गई । महात्मा मानन्दघन की सुहागिन नारी के पति से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह मग्न भी लम्बी प्रतीक्षा के बाद स्वयं मा गए हैं। उसकी प्रसहो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है। मैं अपनपा न्नता अगाध है। उसने इस उपलक्ष में श्रृंगार किया खोकर पिय से मिलूंगी, जैसे पोला गल कर पानी हो जाता है। सहज स्वभाव की चूड़ियां और स्थिरता का कंगन है। और जब पति उसे मिला, तो रभस प्रालिंगन कौन पहना है, ध्यानरूपी उर्वशी को उर में धारण किया है, सूरत कहे, एकमेक हुए बिना चैन न पड़ा। उन दोनों के 'एक- के सिंदूर से मांग सजायी है, निरति की वेणी को आकर्षक मेक' को लेकर बनारसीदास ने लिखा-वह करतूति है ढंग से गूंथा है और भक्ति की महंदी रचाई है।' और पिय कर्ता, वह सुख-सीव है और पिय सुख-सागर, वह शिवरमणी कुमारी है। कुंपारियों के विवाह होते ही शिव-नीव है और पिय शिवमन्दिर, वह सरस्वती है और हैं। शिव रमणी का विवाह तीर्थकर शान्तिनाथ (१६वें पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है तीर्थंकर) के साथ होने वाला है। अभी विवाह मण्डप में और पिय शंकर, वह जिनवारणी है और पति जिनेन्द्र । दुलहा नहीं आ पाया है, किन्तु वधू की उत्सुकता दबती नहीं और वह अपने मन-भाये के अभी तक न आने से १. मैं विरहिन पिय के आधीन । उत्पन्न हुई बेचैनी सखी पर प्रकट कर देती है। उसका यों तड़फो ज्यों जल बिन मीन ॥३॥ कथन है कि उसका पति मुख-कन्द चन्द्र के समान है तभी अध्यात्म गीत, बनारसीविलास । तो उसका मन-उदधि आनन्द से आन्दोलित हो उठा है २. होहुँ मगन मैं दरसन पाय, ज्यों दरिया में बूद समाय। १. कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल, पिय कों मिलौ अपनपो खोय, आवो क्यों न पाज तुम ज्ञान के महल में। ओला गल पाणी ज्यों होय ॥ नक हू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेती, देखिए वही, ६ वा पद्य, पृ० १६० । कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी है टहल में । ३. पिय मो करता मैं करतूति, एक ते एक बनी सुन्दर सुरूप घनी, पिय ज्ञानी मैं ज्ञानविभूति । उपमा न जाय गनी वाम की चहल में ॥२७॥ पिय सुखसागर मैं सुखसीव, भैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ब्रह्मविलास, पिय शिव मन्दिर में शिव नीव । २. सहज सुभाव चूरियाँ पेनी, थिरता कंगन भारी, पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम, ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुन माल प्रधारी। पिय माधव मैं कमला नाम । सुरत सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी, पिय शंकर मैं देवि भवानि, उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, पारसी केवल कारी। पिय जिनवर मैं केवल वानि ॥ महिंदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी। देखिए वहीं, पृ० १६१। आनन्दघन पद संग्रह, २०वां पद
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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