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________________ १२८ और उसके नेत्र चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं।" यह सच है कि अभी उसे धानन्द हो रहा है, किन्तु जब पति से मिलने जायगी तो मानन्द के साथ-साथ भय भी उत्पन्न होगा। पति अनजाना है, धनजाने से मिलने में भय तो है। ही कवीर की नाविका काँप रही है-परहर कम्पे वाला जीव, ना जाने क्या करसी पीव जायसी की नायिका घबड़ा रही है-धनचिन्ह पिउ कांपे मन माही का मैं कहन- गहब जी बाँहों । इसी प्रकार बनारसीदास की नव-यौवना भी भड़भड़ा गई है-बालम तु तन चितवन गागर फूटि । चरा गौ फहराय सरम गँ छूटि । इस विवेचन से सिद्ध है कि निर्गुनिए सन्तों के अहेतुक प्रेम पर सूफियों का नहीं अपितु उस समय धारा का प्रभाव था जो कबीर से शताब्दियों पूर्व चली भा रही थी। जैनसाहित्य में सतगुरु पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित है । उसकी महिमा यहाँ तक बढ़ी कि 'पंचपरमेडी' (अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु) को 'पंचगुरु' की संज्ञा से अभिहित किया गया। जहाँ कबीर ने गोविन्द और गुरु को दो बताया वहां जैन धाचायों ने दोनों को एक कहा। उनकी दृष्टि में गोविन्द ही गुरु है । एक शिष्या ने कहा कि मैं उस गुरु की शिष्यानी हूँ जिसने दो को मिटा कर एक कर दिया है ।" आत्म और अनात्म के भेद को १. सहि ए री दिन भाज सुहाना मुझे मन भाया, श्राया नाहि घरे । सहि ए री ! मनधि धनन्दा सुखकन्दा चन्दा देह परे ।। चन्द जिवां मेरा वल्लभ सोहे, नैन चकोरहि सुक्ख करें । १ शान्तिजिनस्तुति, बनारसी विलास । २. कबीरदास, सबद ६१ पद, सन्त सुधासार, दिल्ली, पु० ८५ । ३. जायसी, पद्मावती, रत्नसेन भेंट खण्ड, पद्मावत, काशी, पृ० १३२ । ४. अध्यात्म पद पंक्ति, १० वां राग बरवा, पहला पद्य, बनारसी - विलास, जयपुर, पृ० १५४ । ५. वे मंजेविंगु एक्कु किउ महं न चारिय विल्लि । तहि गुरुवहि हजं सिस्सिणी अण्णहि करमि ण लल्लि ।। पाहुड-दोहा, १७४वाँ दोहा, पू० ५२ । १५ मिटाने वाला ही गुरु है। केवल ग्रंथों का पारायण करने वाला गुरु नहीं है। कबीर ने भी केवल ग्रन्थ पढ़कर गुरु बनने वाले की निरर्थकता घोषित की है। गुरु वह है जो ब्रह्म तक पहुँचने का रास्ता दिखाये अथवा जिसके प्रसाद से ब्रह्म प्राप्त किया जा सके। रास्ता वह ही दिखा सकता है, जिसके पास ज्ञान का दीपक हो । यह दीपक कबीर के गुरु के पास था और जैन गुरु तो दीपक रूप ही था। एक जीव लोक और वेद के अन्धकार से ग्रस्त पथ पर चला जा रहा था, आगे उसे सतगुरु मिल गया तो उसने ज्ञान का दीपक दे दिया, मार्ग प्रकाशित हो उठा और वह अभीष्ट स्थान तक पहुँचने का रास्ता पा गया । श्राचार्य देवसेन का भी कथन है कि अंधकार में क्या कोई कुछ पहचान सकता है । गुरु के वचनरूपी दीपक के बिना प्रकाश ही न होगा, तो फिर देखना कैसे हो सकेगा, पहचानना तो दूर रहा। अनदेखा, अनबीहा लक्ष्य उपलब्ध भी न हो सकेगा। किन्तु गुरु के दीपक के साथ भी है कि वह ज्ञान का होना चाहिए । साधारण दीपक तो ६४ जला दिए जाये तो भी अंधकार दूर नहीं होगा। अंधकार तो चौदह चन्द्रों के एक साथ होने पर भी हटेगा नहीं, जब तक उसमें ज्ञान का प्रकाश न होगा। ज्ञान का प्रकाश ही मुख्य है-- वह प्रकाश जो श्रात्म-ब्रह्म तक पहुँचने का मार्ग दिखाता है । इस प्रकाश का प्रदाता ही गुरु है, फिर चाहे ८. गुरु दिणय अप्पापरहं गुरु हिमकिरण गुरु दीवड गुरु देउ । परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥ १ ॥ पाहुड - दोहा । १. पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि | मार्ग में सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥११॥ गुरुदेव की अंग, कबीर यासी-सुधा, पु०६ २. तं पायडु जिणवरवयणु, गुरुउबएसई होइ । अंधार विणु दीवट, महव कि पिछइ कोइ ।।६।। सावयधम्म दोहा, २. चाँदीवा जो करि, चौदह चंदा माँहि तिहि परि किसको बानियाँ, विहि परि गोविन्द नाहि गुरुदेव को श्रंग, १७ वाँ दोहा, कबीर-साखी-सुधा, पृ० ८
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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