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________________ जैन अपभ्रंश का मध्यकालीन हिन्दी के भक्ति-काव्य पर प्रभाव १२६ बह प्रकाश चन्द्र से पाये, चाहे सूर्य से, चाहे दीपक से पौर और पुष्ट रूप में अपभ्रंश-युग से चली आ रही थी। जैनचाहे किसी देव से।' अपभ्रंश-काव्य में सतगुरु की जी खोलकर प्रशंसा की गई है कबीर के गुरु के प्रसाद से गोविन्द मिलते है । सुन्दर उनसे गुरु के प्रसाद की परम सामर्थ्य भी प्रकट हो जाती है दास के गुरु भी दयालु होकर आत्मा को परमात्मा से मुनि रामसिंह ने लिखा है-तू तभी तक लोभ से मोहित मिला देते हैं।' दादू के मस्तक पर तो गुरुदेव ज्यों ही हुआ विषयों में सुख मानता है, जब तक कि गुरु के प्रसाद पाशीर्वाद का हाथ रखते हैं कि उसे 'प्रगम-अगाध के दर्शन से अविचल बोध नहीं पा लेता।' उन्होंने यह भी कहा कि हो जाते हैं। जैन कवियों ने भी गुरु के प्रसाद को महत्ता लोग तभी तक धूर्तता करते हैं, जब तक गुरु के प्रसाद से दी है। कवि कुशललाभ को भी गुरू की कृपा से ही शिव- देह के देव को नहीं जान लेते।' मुनि महचन्द का कथन सुख उपलब्ध हुआ है। सोलहवीं शताब्दी के कवि है, " यह जीव गुरु के प्रसाद से परम पद (ब्रह्म) को चतरुमल ने पंचगुरुषों के प्रणाम करने से मुक्ति का मिलना अवश्य ही उपलब्ध कर लेता है।" महात्मा मानन्दतिलक स्वीकार किया है। इसी शती के ब्रह्म जिनदास ने प्रादि- ने असीम श्रद्धा के साथ लिखा कि यदि शिष्य निर्मल भाव पुराण में गुरु के 'प्रसाद' से 'मुकतिरमणी' के मिलने की से सुनता है तो गुरु के उपदेश से उसमें असीम ज्योति उल्लबात लिखी है। पाण्डे रूपचन्द ने गुरु की कृपा से ही 'अवि- सित हुए विना नहीं रहती। यह सच है कि शिष्य का चलथान' प्राप्त होना लिखा है। यह परम्परा विकसित भाव निर्मल होना ही चाहिए, अन्यथा गुरु का उपदेश १. देखिए पाहुड-दोहा, प्रथम दोहा, पृ० १ निरर्थक ही होगा। कबीर के अनुसार बपुरा सतगुरु क्या २. परमातम सो पातमा जुरे रहे बहु काल । कर सकता है यदि शिष्य ही में चूक हो । उसे चाहे जैसे सुन्दर मेला करि दिया सद्गुरु मिले दयाल ।। समझाओ, सब व्यर्थ जायगा, ठीक वैसे ही जैसे फूक वंशी में ठहरती नहीं, बाहर निकल जाती है। पाण्डे रूपचन्द ने सुन्दर दर्शन, इलाहाबाद, पृ. १७७ ३. दादू गैव माहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद । लिखा है कि गुरु का अमृतमय उपदेश भी शिष्य को रुच मस्तक मेरे कर धरिया देख्या अगम अगाध ॥ १. लोहि मोहिउ ताम तु( विसयह सुक्ख मुणेहि । दादू, गुरुदेव को अंग, पहली साखी, संतसुधासार, पृ०४४६. गुरुहुँ पसाएं जाम ण वि अविचल बोहि लहेहि ।। ४. दिन दिन महोत्सव प्रतिघणा, श्री संघ भगति सुहाइ । मन शुद्धि थी गुरु सेवीयइ, जिणि सेव्यइ शिव सुख पाइ॥ पाहुड़-दोहा ८१ वां दोहा, पृष्ठ २४ । जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह, पूज्यवाहण गीतम्, ५३ २. ताम कुतित्थई परिभम धुत्तिम ताम करति । वां पद, पृ० ११५। गुरुहुँ पसाएं जाम ण वि देहहं देउ मुणंति ॥ ५. लहहि मुकति दुति-दुति तिर, वही, व० वां दोहा, पृ० २४ । पंच परम गुरु त्रिभुवन सारु ॥ चतरुमल, नेमीश्वरगीत, आमेरशास्त्रभण्डार की हस्त ३. छुडु अन्तरु परियाणियइ, बाहिरि तुट्टइ नेहु । लिखित प्रति, मंगलाचरण । गुरुहं पसाइं परम पउ, लन्भइ निस्संदेह ।। ६. तेह गुण में जाणीया ए, सद्गुरु तणो पसावतो, महीचन्द, पाहुड दोहा, हस्तलिखित प्रति, ७१वां दोहा भवि-भवि स्वामी सेवसुंए, लागुं सद्गुरु पाय तो। ४. सिक्ख सुणइ सद्गुरु भणइ परमाणंद सहाउ । ब्रह्म जिनदास, आदिपुराण, पामेरशास्त्र भण्डार परम जोति तसु उल्हसई पाणंदा कीजइ णिम्मलुभाउ । जयपुर की हस्त लिखित प्रति, प्रशस्ति । ७. सोते सोते जागिया, ते नर चतुर सुजानि । देखिए 'पाणंदा' की हस्तलिखित प्रति, २६ वां दोहा । गुरु चरणायुध बोलियो, समकित भयउ विहान । ५. सतगुरु बपुरा क्या करे, जे सिषही माहै चूक । कालरयन तब बीतई, ऊगा ज्ञान सुभानु । भाव त्यूँ प्रमोधि ले, ज्यूं बंसि बजाई फूक ।। भ्राति तिमिर जब नाशियो, प्रगटत अविचल थान ।। पाण्डे रूपचन्द, खटोलनागीत,अनेकांत, वर्ष १०, किरण गुरुदेव को अंग, २१ वां दोहा, कबीर-साखी-सुधा, २०७६।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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