SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रनेकान्त १५ कहते-कहते महाराज का गला रुंध गया। उनकी तैरता रह जाय और आता हुआ कोई मच्छ दिखाई पड़े प्रांखों से प्रांसुत्रों की धारा बह निकली । तो उसकी जैसी हालत होती है वही हालत रानी की थी। उसके चारों ओर विपत्तियां थी । वह असहाय और निराश हो गयी थी । मृगावती भी रो रही थी, उसने रुंधे गले से कहा"महाराज ! धैर्य रखिये। आपकी तबियत शीघ्र ही अच्छी हो जायगी और प्राप शत्रु को उसके पाप का फल अवश्य चखा सकेंगे ।" ७४ और सिर हिलाया । असीम निराशा थी। रोई चिल्लाई अपने वश में से दो मोती महाराज एक हल्की हँसी हँसे इस हंसी में और सिर हिलाने में रानी ने उसका अनुभव किया, परन्तु नहीं । उसने बड़ी हिम्मत के साथ गले खातुन मानो उसने धीरे टपका ही दिये । को रात्रि भर महाराज की तबियत बहुत खराब रही। रानी मुगावती ने तो पलक भी न मीचे। रात्रि भर जागती रही, सेवा करती रही, प्रार्थना की, परन्तु सब वर्थ गया । सवेरे के समय जब कि ससार का सूर्य उग रहा था तब रानी मृगावती का सूर्य डूब रहा था । (=) वह रानी मृगावती वीराङ्गना थी । उसके हृदय में बल था, साहम था, था। लेकिन महाराज के स्वर्गवा से उसका बल साहस और धैर्य छूट गया। वह वारवार महाराज के शव के ऊपर गिर पड़ती थी। जब लोग दाह के लिए महाराज का शव ले जाने लगे तो रानी शव से चिपट गयी। यह देखकर दर्शकों का भी साहस छूट गया । असंख्य मुखों से आर्त्तध्वनि निकली । उस समय समस्त प्रजा रो रही थी, मन्त्री रो रहे थे । राज महल की एक-एक ईंट रो रही श्री । किसी तरह दाह किया हो गई। कुछ दिन शान्ति रही, पर एक दिन दूत के द्वारा वह भयंकर समाचार मिला ही । मन्त्रियों की चिन्ता बढ़ गई। वे समझ नहीं पाते थे कि रानी को यह समाचार किस तरह दिया जाय । आखिर डरते-डरते एक वृद्ध मंत्री ने यह समाचार सुनाया किन्तु उसे यह देखकर अत्यन्त श्राश्वर्य हुआ कि रानी ने यह समाचार सुनकर कोई घबराहट प्रकट नही की। बल्कि थोड़ी देर तक एक टक देखकर वह उठ बड़ी हुई। जहाज के डूब जाने पर जब कोई श्रादमी समुद्र पर जब तक थोड़ी बहुत आशा रहती है, तब तक मनुष्य चिन्ता करता है, लेकिन निराशा की सीमा पर पहुँच जाने पर वह चिन्ता छोड़ देता है। रानी मृगावती ने चिन्ता छोड़ दी थी । उसने निश्चय कर लिया था कि युद्ध क्षेत्र की शस्त्र शय्या पर ही मैं जीवन छोडूंगी। मेरे जीते जी कोई मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता । प्रद्योत की विशाल सेना ने कौशाम्बी नगरी को घेर लिया। उसे यहां पर राजा शतानिक की मृत्यु का समाचार मिल गया था। इसलिए वह समझता था कि असहाय चिड़िया को पकड़ने में अब बहुत दर न लगेगी । सुन खरावी का मौका न ग्रायगा । यही समभार उसने किसी तरह की रुद्रता न दिखलाई। वह जानता था कि नारी हृदय तलवार के स्थानपर फूल से पराजित होता है । रानी मृगावती ने देखा कि कौशाम्बी नगरी तो असंगनिकों से घिर गई है, लेकिन अभी तक किसी तरह का आक्रमण नहीं हुआ है । वह इसी उधेड़ बुन में लगी हुई थी कि इतने में प्रयोत का दूत धाया और उसने एक पत्र दिया। रानी ने एकान्त में उस पत्र को पदा ...... "श्रीमती मृगादेवी की सेवा में ! प्रिये ! मैं यहाँ तुमसे युद्ध करने नहीं श्राया था, किन्तु मैं उस कन्टक को हटाने प्राया था जो कि हमारे और तुम्हारे बीच में पड़ा था । अब देव ने ही उसको दूर कर दिया है इसलिए युद्ध की कोई श्रावश्यकता ही नही रह गयी है। श्राशा है, अत्र तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करोगी मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूँ किन्तु सेवक हूँ। तुम्हारे सौन्दर्य का प्यासा है। प्रेमपिपासु. चण्डप्रद्योत " I पत्र पढ़ने पर रानी ने नीचे का मोंठ चबाया और पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । इतने पर भी जब संतोष न हुआ तो उसे पैरों के नीचे डालकर रौंद डाला । दूत के द्वारा सन्देश भेज दिया कि पत्र का उत्तर कल दिया जायगा ।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy