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________________ फिरल २ कार नहीं है। अभी तक जो हुआ सो हुप्रा, लेकिन अब महाराज का ध्यान इस ओर गया है। इसलिये आपकी भलाई इसी में है कि रमणीरत्न मृगावती को समर्पित कर के महाराज के प्रीतिभाजन वनें ।" "यदि दुर्भाग्य से आप अपना भला न सोच सकेंगे और आज्ञा पालन में थानाकानी करेंगे तो खेद के साथ लिखना पड़ता है कि तलवार के द्वारा उस श्राज्ञा का पालन कराना पड़ेगा । इसीलिये हमें आशा है कि आप समय पर ही सचेत हो जायेंगे, और तलवारों को म्यान से बाहर न निकलने देगे । महाराज की श्राज्ञा से रानी मृगावती गृह-सचिव।" पत्र सुनते ही महाराजा शतानिक के मुह से चीख निकली। बीमारी के कारण उनकी मानसिक दुर्बलता यों ही बढ़ रही थी; लेकिन इस आघात ने तो मानों उन्हें मृत्यु के मूह में ढकेल दिया। रानी के ऊपर तो मानों पहाड़ ही टूट पड़ा । न वह महाराज को सान्त्वना दे सकती थी और न महाराज ही उसे सान्त्वना दे सकते थे। विकट परिस्थिति थी । बड़ी देर तक चुपचाप अपंग के बाद मृगावती ने राजा से कहा- 1 " महाराज ! चिन्ता छोड़िये जैसा होगा देखा जायगा । इस मे सन्देह नहीं कि चण्डप्रद्योत पापी क्रूर और बलशाली है । इसलिए राज्य की रक्षा करना कठिन है । परन्तु राज्य से भी बढ़कर वस्तु है धर्म और अभिमान । हम जीकर नहीं तो मर कर उसकी रक्षा कर सकते हैं । आज्ञा दीजिये कि दूत को जवाब दे दिया जाय । महाराज की दशा विलकुल बिगड़ गई थी। उनके मुँह से कुछ भी उत्तर न मिला तब महाराज की तरफ से रानी ने पत्र लिखा । पत्र "उज्जयिनी नरेश थी चण्डप्रद्योत को कौशाम्बी नरेश शतानिक का जयजिनेन्द्र ! अपरंच आपका पत्र श्राया । बांचकर बड़ा खेद हुआ। कोई भी मनुष्य अगर उसमें मनुष्यता का शतांश भी मौजूद है, ऐसी पापमयी बातें मुंह से नहीं निकाल सकता। फिर भगवान महावीर के अनुवायी के मन में ऐसे पाप विचारों का माना बड़े दुख की बात है।" " मालूम होता है कि इस समय प्राप ऐश्वयं और शक्ति के मद से उन्मत्त हो रहे हैं, इसलिए जैनत्व के साथ मनुयत्व भी खो चुके हैं। "एक साथ भाई के नाते हम आप को सूचित करते हैं कि आप इन पाप विचारों को छोड़ कर प्रायश्चित्त लेकर पवित्र बनें। यदि श्राप मनुष्यत्व को बिलकुल तिलाअजलि ही दे चुके हों तो भाप बड़ी खुशी से युद्धक्षेत्र में प्राइये। वहाँ पर हमारी तलवार आपका स्वागत करेगी। ऐसे पापियों को दंड देने की ताकत उसमें अभी मौजूद है। आपका हितैषी शतानिक पत्र तो भेज दिया गया लेकिन मृगावती की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। उसे अपनी चिन्ता नहीं थी; क्यों कि वह मरना जानती थी। उसे चिन्ता थी अपनी मानरक्षा की, महाराज की, और बालक राजकुमार की । शाम के समय महाराज की अवस्था कुछ सुधरी । उन्होंने खोली मोर क्षीणस्वर से मृगावती से कहा प्रिये ! क्या उपाय किया ? मृगावती उस समय फिकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी। वह समझ ही नही सकती थी कि क्या उत्तर दें ? किन्तु महाराज की ऐसी अवस्था में वह उनके हृदय को धक्का नहीं देना चाहती थी। उसने हृदय की सारी वेदनाओं को दबाया, उस पर पत्थर रख दिया। अपने संघते हुए गले को किसी तरह साफ कर उसने कहा"महाराज ! डर क्या है ? किसकी ताकत है जो मेरी तरफ नजर उठा कर देख सके ? मैं अपने गौरव की रक्षा करूँगी। मैं इज्जत के लिये मरना जानती हूँ ।" महाराज का चेहरा खिल गया । किन्तु थोड़ी ही देर में उस पर फिर विपाद के चिन्ह नजर आने लगे। मृगा बती ने कहा- 'महाराज ! आप चिन्ता क्यों करते हैं ?" मृगावती तुम सच् क्षत्राणी हो, मानुपी नहीं देवी हो । परन्तु मैं प्रभागा है। मुझे वेद यही है कि ऐसे विकट अवसर पर मैं घर में विस्तरों पर पड़ा-पड़ा मर रहा है। रणक्षेत्र की गौरव दामिनी भूशय्या मेरे भाग्य में नहीं है ।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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