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________________ रानी मृगावती ( ४ ) मामला ऐसा हो गया था कि मंत्रि-मण्डल कुछ भी सलाह नहीं दे सकता था। रानी को अपने शील की चिन्ता नहीं थी । वह प्राण देकर शील बचा सकती थी, श्रीर प्राण देना वह जानती थी। लेकिन उसे अपने अनाथ बच्चे की चिन्ता थी। मरने से निर्दोष पत्नीत्व बच सकता या परन्तु मातृत्व की बलि होती थी। दूसरे दिन फिर चण्डप्रद्योत का दूत आया और उत्तर मांगा। मंत्री लोग क्या उत्तर दें। उनकी तो अक्ल ही कुछ काम नहीं देती थी लेकिन उस दिन रानी के मुह पर कुछ दूसरा ही रंग था। रानी ने दूत को पत्र देकर विदा किया। 1 ( ५ ) पत्र लेकर चण्डप्रद्योत ने बड़ी उत्सुकता से पढ़ा"महाराज ! माज में विश्व है। इसके पहले मैं स्वतन्त्र नही थी, किन्तु देव ने यह बन्धन तोड़ दिया है । और मैं अब स्वतन्त्र हूँ । इसीलिए आपके पत्र पर मैं स्वतन्त्रता पूर्वक विचार कर सकी हूँ। बहुत विचार करने के बाद मैं इस निश्चय पर पहुँची हूँ कि आपकी माता मानने में ही मेरा भला है। हां, एक प्रश्न ऐसा है जो आपकी आज्ञा-पालन में बाधक हो रहा है । आपको मालूम होगा कि मे राजपत्नी होने के साथ एक बालक की मां भी हूँ । यद्यपि पत्नीत्व का बन्धन टूट गया है परन्तु मातृत्व अभी जीवित है। उसके कारण बालक को असहाय अवस्था में कैसे छोड़ सकती हूँ। मेरा पुत्र अभी बिलकुल प्रबोध है। इधर कोशाम्बी राज्य चारों तरफ शत्रुओं से घिरा हुआ है । मेरी अनुपस्थिति में प्रबोध बालक की क्या दशा होगी, इसके कहने की जरूरत नहीं । यद्यपि श्राप में कौशाम्बी राज्य की रक्षा करने की शक्ति है, परन्तु आप तो उज्जयिनी में रहेंगे और शत्रु सिर पर ऊधम मचायेंगे, तब आपके द्वारा भी राज्य की रक्षा न हो सकेगी। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप कुछ वर्षों तक धैर्य रखिये पुत्र के नम होने पर में आपकी चा का पालन अवश्य करूंगी, ग्राशा है आप मेरी परिस्थिति पर विचार करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे । विनीत मृगावती ㄨˋ पत्र पढ़कर चण्डघोत प्रसमंजस में पड़ गया। आज उसे मालूम हुआ कि बड़े-बड़े वीरों को जीतने की अपेक्षा एक महिला को जीतना बड़ा कठिन है । परन्तु दूसरा उपाय तो था नहीं। जिस रास्ते पर वह चला था उसी रास्ते से उसे विजय की आशा थी । लेखनी का काम तलवार नहीं कर सकती थी । चण्डप्रद्योत ने फिर पत्र लिखा प्रिये ! तुम्हारा पत्र मिला । मेरी प्रार्थना तुमने मन्जूर की इसका मुझे बड़ा हर्ष है । लेकिन तुम्हारे पत्र के उत्तरार्ध ने मुझे और भी अधिक असमंजस में डाल दिया । अगर कोई भीख माँगने आवे और उसे आश्वासन देकर कह दिया जाय कि 'अभी मौका नहीं फिर माइना तो उस भिखारी व्यक्ति को जितना कष्ट होगा—उसी तरह का, किन्तु उससे हजार गुना मुझे हो रहा है । प्रिये ! तुम्हें अब कौशाम्बी की चिन्ता न करनी चाहिये, धीर न बालक के लिए अपने जीवन को बर्बाद करना चाहिये । यथाशक्ति मैं कौशाम्बी की रक्षा करूगा | कौशाम्बी की रक्षा के लिए जंमा जो कुछ प्रबन्ध चाहोगी बंसा ही हो जायेगा। मुझे एक-एक घड़ी एक एक वर्ष के समान बीत रही है। इसलिए दया कर ग्रब मुझे ज्यादा तुम्हारा प्रेमी चण्डप्रयोत चण्यांत ने पत्र भेज दिया। दो घड़ी के भीतर ही उसका उत्तर आया । महाराज ! पत्र मिला । श्राप पुरुष है अगर आप स्त्री होते श्रीर माता बनने का सौभाग्य प्राप्त करते तो आपको मालूम होता कि माता का स्नेह क्या है। माता के छोटे से हृदय में अपने पुत्र के लिए कितना स्थान है। माता अपने पुत्र के लिए सर्वस्व छोड़ सकती है। जब गाय अपने बछड़े के लिए शेर का सामना कर सकती है, तब मैं तो मानुषी हूँ गाय से भी गई बीती हो जाऊं ? महाराज मैं जानती हूँ कि आपको मेरे वक्त से परितोष न होगा। यह चिन्ता मुझे बड़ी देर से सता रही
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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