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________________ साहित्य-समीक्षा पात्मानुशासनम् श्री आदिनाथ दि.जैन शेतवाल मन्दिर शोलापुर की है । जहाँ रचयिता-प्राचार्य गुणमड, संस्कृतटीकाकार तक सम्पादन का सम्बन्ध है, उत्तम है । प्राचीन ग्रन्थों का प्राचार्य प्रभाचा, सम्पादक--प्रो० प्रा० ने० उपाध्ये, प्रो. एसा स ऐसा सम्पादन सभी प्रकार स्वागत योग्य है। हीरालाल जैन तथा पं० बालचन्द्र शास्त्री, प्रस्तावना लेखक ग्रन्थ के मूल के साथ प्राचार्य प्रभाचन्द्र (वि० सं० -सम्पादक मण्डल, प्रकाशक-गुलाबचन्द हीराचन्द दोशी १३ वीं शती का अन्तिम भाग) की संस्कृत टीका भी है। जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६१, पृष्ठ- साथ में विस्तृत हिन्दी अनुवाद है। इस ग्रन्थ पर सर्वप्रथम २४६, मूल्य-५ रुपया। हिन्दी-टीका पं० टोडरमल की लिखी हुई पाई जाती है, प्रात्मानुशासन के कर्ता आचार्य गुणभद्र एक ख्याति किन्तु यह अपने समय की ढुंढारी भाषा में थी। दूसरा अनुप्राप्त विद्वान् थे। उन्होंने अपने गुरु प्राचार्य जिनसेन के वाद पं० बंशीधर जी का है। किन्तु प्रस्तुत अनुवाद जंसी अधूरे आदिपुराण को पूरा किया था। उसमें जिस सरसता विश्लेषणात्मकता उस में नहीं है। अनुवाद की विशेषता और लालित्य का निर्वाह हो सका, वह उनकी अपनी देन सरलता और विशदता में सन्निहित है वह यहाँ मौजूद थी। प्राचार्य ने उनकी सरस काव्यशैली देखकर ही आदि- है। अच्छा होता यदि 'विशेपार्थ में अन्य प्राचार्यो के तत्संपुराण उन्हें पूराकरने के लिए सौंपा था। गुणभद्र एक बन्धी कथनों के साथ तुलना भी कर दी जाती। जन्मजात कवि थे और उनका कवित्व उनकी सैद्धान्तिक सबसे अधिक महत्वपूर्ण है प्रस्तावना । वह लगभग कृतियों में भी मुखर बना रहा । यह ही कारण है कि १०० पृष्ठों में पूर्ण हुई है। उसे एक छोटा सा शोध प्रबध आत्मानुशासन में वह शुष्कता न पा पाई जो आध्यात्मिक ही समझना चाहिए । वह दो भागों में विभक्त है--पहले अन्यों में पाई जाती है । आत्मा का विवेचन सिद्धान्त का में ग्रन्थ और ग्रन्थकार तथा टीका और टीकाकार का परिविषय हो सकता है किन्तु उसकी अनुभूति का भावोन्मेप चय एवं कालक्रम ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत भी सम्भव है यदि रचयिता कोरा चिद्वान् ही नहीं साधक किया गया है । दूसरे भाग में-मूल ग्रन्थ के विषय का भी है। प्रात्मानुशासन में विद्वत्ता और साधना का समन्वय तुलनात्मक अध्ययन दिया है। उसमें प्रात्मानुशासन पर है । प्राचार्य गुणभद्र शक सवत् ८ वीं शती के अन्त में हुए पूर्ववर्ती ग्रन्थों का प्रभाव और आत्मानुशासन का जैन वाङ्थे। मय में स्थान दिखाया गया है ऐतिहासिक शोध और तुलप्रस्तुत ग्रन्थ जीवराज जैन ग्रन्थमाला का प्रकाशन है। नात्मक विवेचन दोनों ही सम्पादकों के परिथम और यह ग्रन्थमाला प्राचीन जैन ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन विद्वत्ता के परिचायक हैं। ग्रंथ विद्वानों के मध्य समादर के लिए प्रसिद्ध हो चुकी है। प्रात्मानुशासन इसका ११ वां पा सकेगा, ऐसा हमें विश्वास है। इसका सम्पादन दो मुद्रित पोर तीन हस्तलिखित परम ज्योति महावीर प्रतियों के माधार पर किया गया है । मुद्रित प्रतियों में रचयिता कवि-पन्यकुमार जैन 'सूघेश', प्रकाशकपहली का प्रकाशन सनातन जैन ग्रन्थमाला, निर्णय सागर प्रेस बम्बई से सन् १९०५ में और दूसरी का जैनग्रन्थ रत्ना श्री फूल बन्द जवरचन्द गोधा जन प्रन्थमाला, हुकुमचन्द कर कार्यालय बम्बई से सन् १९१६ में हुआ था। पहली मार्ग, इन्दौर, सन् १९६१, पृ०-६६६, मूल्य-७१०। केवल मूलमात्र थी और दूसरी पं०बंशीधर जी शास्त्री की 'परम ज्योति महावीर' एक महाकाव्य है। उसमें २३ हिन्दी टीका के साथ थी। हस्तलिखित में दो प्रतियाँ भंडार सर्ग और २४८६ पद्य हैं, जिनमें भगवान महावीर के समूचे कर मोरियण्टल रिसर्च इंस्टिटयूट पूना की और एक प्रति जीवन-गर्भावस्था से निर्वाण पर्यन्त का वर्णन है। कवि
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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