SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रात्रि भोजन त्याग त किर व्रत समझ लिया है किन्तु भणु शब्द वहाँ कालकृत अल्पता से लघु- छोटे के धर्य में प्रयुक्त है वह एक देशत्याग से धावकों और सर्व देशत्याग से मुनियों दोनों के होता है दोनों के लिए उसका उल्लेख 'अणुव्रत' इस सामान्य नाम से ही किया गया है इसी सामान्य दृष्टि से पूज्यपाद अकलंक देवादि ने उसे आलोकितपानभोजन भावना में अन्तर्भूत बताया है लेकिन आलोकितपान भोजन का कथन अन्यव्रत भावनाओं की ही तरह मुनियों की प्रधानता से किया है किन्तु इससे धावक विवक्षा का निषेध नहीं किया है और इसीलिए प्रलोकित पान भोजन भावना को अहिंसा व्रत को ही भावना बताई है यहिसा महावत की नहीं 1 इस तरह आलोकित पान भोजन भावना श्रावकों के हिंसाणु व्रत की भी भावना है और उसे श्रावकों के रात्रि भोजन विरति रूप में मानने में कोई बाधा नहीं है। आशाधर ने सागार धर्मामृत ० ४ श्लोक २८ तथा सोमदेव ने यशास्तिलक उत्तरखन्ड पृ० ३३८ में रात्रिभोजन त्याग को अहिंसा का रक्षक और मूलगुणों का विशुद्धक बताया है ऐसा ही यशः कीर्ति कृत प्रबोधसार प्र० २ श्लोक ५१ में लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि रात्रि भोजन का त्याग किये बिना न तो हिमाद्रत बन सकता है और न मूलगुण ही, इसीलिए रात्रिभोजन को २२ भक्ष्यो मे माना है और ग्राचार्य कुन्दकुन्द ने रयणसार ग्रंथ में था की ५३ किपाओं में धनस्तमित दिवाभोजन 'रात्रिभोजनत्याग, बताया है । इसके सिवा उत्तरगुणपूलगुणों के रक्षक होते है और आशाधर ने उत्तरगुणों में अहिंसादि १२ व्रतों को और मूलगुणों में रात्रिभोजनत्याग बताया है इस दृष्टि से हिंसाणुव्रत उल्टा रात्रिभोजनत्याग का रक्षक हो जाता है यह सब कन दोनों की एकात्मकता को सिद्ध करता है ऐसी हालत में हिमाणत और उसकी भावना में रात्रिभोजनस्याग के अन्तर्भाव का निषेव करना कोई अर्थ नही रखता । अहिंसा से रात्रिभोजनत्याग ही स्पा सभी व्रतनियम अन्तर्भत हो जाते है भाचायों ने जो अलग अलग १२ व्रत, रात्रिभोजनत्याग, जलगालन, मद्य-मांस-मबुत्याग यादि भेदों का उल्लेख किया है वह सब मंदबुद्धियों के लिए की दृष्टी ने किया है। ऐसी हालत में मुख्तार सा० का यह लिखना कि'मुनियों की दृष्टि से ही रात्रिभोजन विक्रमण का घालोकित पानभोजन में अन्तर्भाव होता है धावकों के वास्ते वह पृथक व्रत बताया गया है, बिल्कुल बेजा है। रात्रिभोजनत्याग को पृथक व्रत श्रावकों के लिए ही नही बताया है। बल्कि मुनियों के लिए भी बताया है देखो 'क्रिया कलाप' प्०८०, १०२ "प्रहावरे छट्ठे अणुब्वदे राइ भोयणांदो वेरमणम्,, । इसके सिवा यह कहना कि अहिसात में सिर्फ संकल्पी हिंसा का ही त्याग होता है और रात्रिभोजन में कोई संकल्पी हिंसा नही होती अतः रात्रिभोजनत्याग श्रहिंसाणुव्रत में नहीं श्राता, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है बल्कि प्रान्त और सदोष है । संकल्पी हिंसा के त्यागी अहिंसावती के जीव मारने का परिणाम नहीं होता वह आरभादि हिंसा बिना प्रयोजन नहीं करता, श्रयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति नही करता, जानबूझ कर हिंसा कर्म में प्रवृत्त नहीं होता परन्तु रात्रिभोजी के यह सब होता है धतः उसके स्पष्टतः संस्पी हिंसा का दोष बाता है। रात्रिभोजन में स्थावर और जसजीवों का प्रचुर घात और रागभाव की अधिकता होने से द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की तीव्र हिमा होती है इससे रात्रिभोजन महा हिंसा यज्ञ है इसका त्याग करना अहिंसाणुव्रत में गर्भित नहीं होगा तो फिर सत्यतादि में होगा ? यह यह सोचने की बात है । रात्रिभोजन और हिंसा का परस्पर सम्बन्ध है। रात्रिभोजन में महाहिंसा ही नहीं स्पष्टतया मास भक्षण का दोप भी याता है और उससे मूलगुणों का ही विधान हो जाता है श्रतः श्रहिंसाणुव्रती के वह किसी तरह नहीं बन सकता 'महिसाणुव्रती' संतोपी, मम्यग्दृष्टि, जाग्रतबुद्धि " होता है न उसके रात्रिभोजन जैसी महा प्रयत्नाचार प्रवृति और प्रचुर जीवों का होमकर्म कभी नही बन सकता। मीलिए लिखा है : कोकेन बिना भुजानः परिहरेत्कथं हिसा । अपि बोधितप्रदीपो भोज्यजुषा सूक्ष्मजीवानाम् ॥ अर्थ :- भोजन करने वाले के, विना सूर्य के प्रकाश २५ १. मागार धर्मामृत ग्रध्याय ८ ग्लोक १८ । अमित गति श्रावका चार अध्याय ६० श्लोक १७
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy