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किरण ६
मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में प्रेनभाव
ब्रह्म की अनुभूति से ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकाल से तो उसे लगातार एकतान में पिय रस का मानन्द उपलब्ध चली पाने वाली प्रज्ञान की नींद समाप्त हो गई। हृदय हो रहा है। के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज. ज्योति को ठीक उसी भांति बनारसीदास की नारी के पास भी प्रकाशित किया है, जिससे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और निरंजनदेव स्वयं प्रकट हुए हैं। वह इधर-उधर भटकी अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई। प्रेम एक ऐसा अचूक तीर है नहीं। उसने अपने हृदय में ध्यान लगाया और निरंजनदेव कि जिसके लगता है वह ढेर हो जाता है। वह एक ऐसा मा गये । अब वह अपने खंजन जैसे नेत्रों से उसे पुलकायवीणा का नाद है, जिसको सुनकर प्रात्मारूपी मृग तिनके मान होकर देख रही है और प्रसन्नता से भरे गीत गा तक चरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेम से मिलता है, रही है। उसके पाप और भय दूर भाग गये हैं। परमात्मा उसकी कहानी कही नहीं जा सकती।
जैसे साजन के रहते हुए पाप और भय कैसे रह सकते हैं। भक्त के पास भगवान स्वयं पाते हैं, भक्त नहीं जाता।
उसका साजन साधारण नहीं है, वह कामदेव जैसा सुन्दर जब भगवान पाता है, तो भक्त के आनन्द का पारावार
और सुधारस सा मधुर है। वह कर्मों का क्षय कर देने नहीं रहता। आनन्दघन की सुहागिन नारी के नाथ भी ।
___ से तुरन्न मिल जाता है। स्वयं पाये हैं और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार २. माज सुहागन नारी ॥प्रवधू पाज। किया है। लम्बी प्रतीक्षा के बाद आये नाथ की प्रसन्नता मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंगचारी॥ में, पत्नी ने भी विविध भांति के श्रृंगार किये हैं। उसने प्रेम,
अबघू०॥१॥ प्रतीति, राग और रुचि के रंग में रंगी साड़ी धारण की है,
प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जिनी सारी।
महिंदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी॥ भक्ति की महंदी रांची है और भाव का सुखकारी अंजन
अवधू•॥२॥ लगाया है। सहज स्वभाव की चूड़ियां पहनी हैं और शिखा सहज सुभाव चूरियां पेनी, थिरता कंगन भारी । का भारी कंगन धारण किया है । ध्यान रूपी उरवसी ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुन माल अधारी। गहना बक्षस्थल पर पड़ा है और पिय के गुण की माला को
अवधू० ॥३॥ गले में पहना है। सुरत के सिंदूर से मांग को सजाया है
सुख सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी संभारी।
उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन, पारसी केवल कारी और निरति की वेणी को आकर्षक ढंग से गूंथा है। उसके
अबघू० ॥४॥ घर त्रिभुवन की सबसे अधिक प्रकाशमान ज्योति का जन्म
उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी। हुआ है। वहाँ से अनहद का नाद भी उठने लगा है । अव ।
झड़ी सदा प्रानन्दघन बरावत, बिन भोरे इक तारी॥ १. सुहागण जागी अनुभव प्रीत, सुहा०॥
देखिये वही, २०वां पद । निन्द प्रसान अनादि की मिट गई निज नीति ।
१. म्हारे प्रगटे देव निरंजन । सुहा० ॥१॥
अटको कहा कहा सर मटकत कहा कहूँ जन रंजन ।। घट मन्दिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप ॥
म्हारे ॥२॥ पाप पराइ पाप ही, ठानत वस्तु अनूप। सुहा ॥२॥
खंजन दृग दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रंजन । कहा दिखावु और कू. कहा समझाडं मोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ठोर ।।
सजन घट अंतर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ।। सुहा० ॥३॥
म्हारे ॥२॥ नाद विलुह्वो प्राण फू, गिने न तृण मग लोय ।
वो ही कामदेव होय काम घट वो ही सुधारस मंजन । मानन्दघन प्रभु प्रेम का, अकथ कहानी वोय ।।
और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन । सुहा० ॥४॥
म्हारे ॥३॥ महात्मा मानन्दघन, प्रानन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म बनारसीदास, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, चौथा पद, पृष्ठ ७
'दो नये पर' पृ० २४० क ।