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________________ किरा माचार्य नेमियन सिद्वान्त- भर्ती की बिम्ब योजना गुणों का सद्भाव दिखलाया गया है सन्ध्या समय कमल अभिव्यक्ति है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने इस कोटि के थोड़े के संकुचित हो जाने से भ्रमर कमल में ही बंध जाते हैं; ही बिम्न उपस्थित किये हैं। पर प्रातःकाल सूर्योदय के होते ही निकल पड़ते हैं। तीर्थ- महुरंतु रसं जहा जरिदो'-मिथ्यात्व प्रकृति के उदय कर महावीर के मुख से भी दिव्यध्वनि निकली है और से व्यक्ति को धर्म स्वरूप, पित्तज्वर से प्राकान्त व्यक्ति द्वादशांगवाणी का संकलन उन्हीं की दिव्यध्वनि से हुआ को मधुररस के समान अरुचिकर प्रतीत होता है। यहां है। कमल की "केन मस्तकेन मल्यते धार्यत कमलम्"' 'महुरं खु रसं जहा जरिदो' बिम्ब द्वारा निम्न अनुभूतियों व्युत्पत्ति के अनुसार कमल मस्तक पर धारण किया जाता पर प्रकाश पड़नाहै; तीर्थकर का लावण्य पूर्व तेजस्वी मुख भी वन्दनीय १. बाह्म रूप में स्वस्थ और भीतर से अस्वस्थ दिखहोता है। प्रतएव प्राचार्य नेमिचन्द्र ने स्पर्शन इन्द्रियजन्य लायी पड़ना। अनुभूति के आधार पर कमल का सादृश्य लेकर तीर्थकर २. अन्तरंग अस्वस्थता के कारण यथार्थानुभव की महावीर के मुख में कमल-बिम्ब का आयोजन किया है। कमी। सुबसायर'द्वादशाजवाणी की विशालता और ३. अस्वस्थता के कारण रसनेन्द्रिय सम्बन्धी अनुभूति गम्भीरता प्रकट करने के लिए सागर की बिम्ब योजना को विपरीतता। की गयी है। इस बिम्ब द्वारा निम्न तथ्य स्पष्ट होने हैं- ४, ज्वर के कारण अन्तरंग ज्ञानानुभूति की प्रक्रिया १. समुद्र विशाल होता है, द्वादशाङ्गवाणी भी विशाल है। में विशृङ्खलता। जितने पदार्थों का निरूपण केवलज्ञान करता है, श्रुतज्ञान ५. ज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक मनोवृत्तियों भी उतने ही विषयों का निरूपण करता है। का प्रभावहीन होना; परिणामस्वरूप सहजक्रियाओं में भी २. सागर में अमृत निकलता है, द्वादशाङ्गवाणी अजर- उपाधियुक्त परिवर्तन का पा जाना। अमर बनाती है। जिस प्रकार समुद्र से उत्पन्न अमृत को ६. मूल प्रवृत्तियों के धिकृत होने से स्थायी भावों के प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है, उसी प्रकार श्रुत- संस्कारों में विपरीतता और संवेगजन्य अनुभूतियों में ज्ञान के अध्ययन के अनन्तर भी जब तक प्रात्मानुभूति की क्षीणता । फलस्वरूप संवेदन शक्ति की अपूर्णता के कारण प्राप्ति नहीं होती, तब तक अजर-अमरपद-निर्वाण प्राप्त अपूर्ण या अधूरे व्यक्तित्व का निर्माण होना। नहीं किया जा सकता है। बिम्बगत उक्त अनुभूतियों के प्रकाश में कहा जा ३. सागर रत्नाकर कहलाता है, श्रुतज्ञान-द्वादशांग- सकता है कि मिथ्यात्व-प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाणी भी रत्नत्रय रूपी मणि-माणक्यों का भण्डार है। वाले मिथ्यापरिणामों का अनुभव करने वाले व्यक्ति को ४. सागर विशाल होने के साथ गम्भीर भी होता है। अन्तरंग अस्वस्थता के कारण धर्म अच्छा नहीं लगता। द्वादशांगवाणी भी ग्रंथ परिमाण की दृष्टि से जितनी मिथ्यात्व-प्रकृति मानसिक ग्रन्थि है, इसके कारण ऊपर से विशाल है, उतनी ही गम्भीर भी है। एक-एक ग्रन्थ के स्वस्थ रहने पर भी अन्तरंग में धर्मवृत्ति रुचिकर प्रतीत अध्ययन में जीवन की समाप्ति की जा सकती है। नहीं होती। बिम्ब सम्यग्दृष्टि के समान पाचरण करने रासनिक बिम्ब-इस श्रेणी के बिम्बों में रसना वाले व्यक्ति की अन्तरंग परिणति की यथार्थता प्रकट कर इन्द्रियजन्य अनुभूति के आधार पर भावों की अभिव्यंजना रहा है। यहाँ अभिधेय अर्थ को मास्वादनानुभूति द्वारा की जाती है। इस कोटि के बिम्ब भी उपमा, उत्प्रेक्षा स्पष्ट किया गया है। और रूपक मूलक होते हैं। बिम्बों का उपादान तत्त्व दहिगुडमिव वामिस्स-दही गुड़ के मिश्रित खट-मिट्ठ या वसादृश्य द्वारा भावा का साकार मार सघन स्वाद की अनुभूति द्वारा तृतीय गुणस्थान में जात्यातर १. नाममाला का प्रमरकीर्ति का भाष्य पृष्ठ १० ३. जीवकाण्ड गाथा १७ २. कर्मकाण्ड गाथा ७८५ ४. जीवकाण्ड गाथा २२
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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