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________________ अनेकान्त वर्ष १५ की गलती से हमा जान पड़ता है। इसी तरह इसमें जो इस कथन का मागे के विवेचन के साथ कुछ मेल भी नहीं ४४वा ४५वां संस्कार लिखा है वे भी पाशाघर-प्रतिष्ठा बैठता है क्योंकि प्राचार्य के नग्न हए बाद आगे यहाँ मूखोपाठ में नहीं हैं इन दोनों का अन्तर्भाव ४३वें संस्कार में द्घाटन, नयनोन्मीलन इन दो विधियों का करना बताकर हो जाता है अतः ये निरर्थक हैं कुछ संस्कार लिखने से रह फिर आगे सूरिमंत्र देने का विधान किया है। मुखोद्घाटन गये हैं। इस तरह जयसेन प्रतिष्ठापाठ का यह प्रकरण में परदा हटाए बाद प्रतिष्ठाचार्य का नग्न रहना कैसे हो कछ प्रशादियों को लिए हए ज्ञात होता है। अफसोस है सकेगा? वैसे भी उसके लिए नग्नता का विधान अटपटा कि इस छपी हुई अशुद्ध प्रति से जितनी प्रतिष्ठाएँ अब तक सा ही नजर आता है और यहाँ यह भी स्पष्ट नहीं हुई उन सब में संस्कारों का प्रारोपण अशुद्ध रूप से ही किया है कि मुखोद्घाटन, नयनोन्मीलन और सूरिभंत्र इन हुमा। तीन क्रियानों से कौनसी क्रिया नग्न होकर की जावे। (५) जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पृ० २७८ पर तिलकदान बल्कि प्राचार्य के नग्नता का कथन किये बाद, आगे वह विधि लिखी है। उसके श्लोक ८४६ के चौथे चरण के कब वस्त्र धारण करे? ऐसा कुछ कथन ही नहीं "निजाभिषिक्त्यै" वाक्य से यहां दही, दूब, सरसों, कपूर किया है। इससे साफ प्रगट है कि यह कथन मूल मैं अगर आदि से मिश्रित जल से यजमान की स्त्री को स्नान प्रक्षिप्त है। यह तो पहिले ही विचारणीय था ही फिर करने को कहा गया है। किन्तु वचनिकाकार ने "निजा- तुर्रा यह है कि ब्रह्मचारीजी ने अपनी तरफ से इसके साथ भिषिक्त्यै" की जगह "जिनाभिषक्त्यै" पाठ मानकर अर्थ और नमक मिर्च लगा दिया है। वे अपने प्रतिष्ठा पाठ में किया है "जिनका अभिषेक के अथि ।" किन्तु यह अर्थ भी लिखते हैं कि-"फिर आचार्य नग्न हो जावे व ऐलकादि यहां ऐसा कुछ बैटता नहीं है। तथा यहाँ की मूल गद्य में भी नग्न हो जावे (पृ० १४१) फिर प्राचार्य और मुनि यजमान की पत्नी के द्वारा प्राचार्य के तिलक करने का प्रादि जो हो वह मिलकर सूरिमंत्र पढ़े। दोनों कानों में विधान किया है किन्तु वचनिका में इस गद्य का और पढ़कर सर्वज्ञपना प्रगट करे (पृ० १०२) जयसेनप्रतिष्ठा यहां के श्लोक ८५०-५१ का कतई अर्थ नहीं है। सम्भव पाठ में तो कही मुनि ऐलक का नाम नही है, फिर न जाने है जिस प्रति से वचनिका बनाई गई है उसमें ऐसा मूल ब्रह्मचारीजी इस काम में मुनि ऐलक को क्यों ले आये ? पाठ नही हो। यहाँ के श्लोक ८५.१ में यह तिलक विघ्न- साथ ही प्रतिमा के कानों में पढ़े जाने की बात भी बड़ी समूह के नाश करने के लिए बताया है । आचार्य के तिलक विचित्र है । प्रथमानुयोग आदि किसी भी प्राचीन शास्त्र में करने से विघ्नसमूह का नाश मानना भी अटपटा सा ही है। ऐसा उल्लेख देखने में नहीं पाया कि जहाँ किसी मुनि ने मौर इस श्लोक में 'विदधातु' क्रिया के स्थान में 'विधातु' प्रतिमा को मूरिमंत्र दिया हो। वस्त्रधारी भट्टारकों ने प्रयोग भी अशुद्ध किया है। ऐसा कहीं किया हो तो बात दूसरी है। आजकल जो सूरिइस तरह यह प्रकरण इसमें अजीबसा हो गया है और मंत्र दिया जाता है जिस किसी को बताते नहीं हैं उसका ग्रंथ की अशुद्धता को जाहिर करता है। शायद इसी से भी हाल सुनिए -"ओं भूर्भुवः स्वः ओं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो ब्रह्मचारी जी ने भी अपने प्रतिष्ठा पाठ में इस प्रकरण के देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" यह ब्राह्मण मत का इस प्रकार के कथन को नहीं अपनाया है। गायत्री मंत्र है । इसी मन्त्र के साथ असिमाउसा आदि जैन (६) पृ. २८२ में अधिवासना विधि के बाद "सर्वान् मंत्र जोड़कर किसी ने मनघडंत सूरिमंत्र बना डाला है। जनानपसृत्य दिगंबरत्वावगत प्राचार्यः..." आदि गद्य पाठ इस तरह जयसेन प्रतिष्ठापाठ की मुद्रित प्रति में यत्र दिया है जिसमें सब लोगों को हटाकर प्रतिष्ठाचार्य के तत्र अशुद्धियाँ नजर आती हैं। अतः इसकी पुरानी हस्तनग्न हो जाने को कहा है। किन्तु वचनिका में ऐसा कुछ लिखित प्रति की किन्हीं शास्त्र भण्डारों से खोज होना भी नहीं लिखा है। इससे यही अनुमान होता है कि वच- बहुत ही जरूरी है। इस दिशा में प्रतिष्ठाचार्यों को प्रयत्न निकाकार के सामने मूल प्रति में यह पाठ नहीं था और करना चाहिए ताकि जिन बिंब प्रतिष्ठा की विधि सही रूप
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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