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________________ दौलतरामकृत जीवंधर चरित्र : एक परिचय लेखक-श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, जयपुर १८२४ " , १८२४ दौलतराम जी १८ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध साहित्य उक्त १३ रचनाओं के अतिरिक्त प्रभी हम लोगों ने सेवी हो गए है। ये राजस्थानी विद्वान् थे। स्व० पं० जब अक्तूबर मास के प्रथम सप्ताह में साहित्य एवं पुरातत्व श्रीप्रकाश शास्त्री ने अपने लेख में इनकी १० रचनाओं के की खोज में एक १६ दिवसीय भ्रमण किया था तब जयपुर नाम गिनाये थे। जिनमें श्रीपाल चरित्र एवं परमात्मा- के अग्रवाल दि. जैन मन्दिर में इनकी एक रचना "जीवंधर प्रकाश को उन्होंने अतिरिक्त लिखा था। इधर जब राज- चरित्र" और उपलब्ध हुई है जिसका परिचय यहां लिखा स्थान शास्त्र भण्डारों की विस्तृत खोज हुई है तभी से जा रहा है। हिन्दी की सैकड़ों नवीन रचनाएं उपलब्ध हुई है। पंडित जीवंधर चरित्र की प्राप्ति की घटना प्रवर दौलतरामजी की राजस्थान के इन शास्त्र भण्डारों डा० कासलीवाल, मैं तथा सुगनचन्द जी जब रात्रि में अब तक हमें निम्न रचनाएं प्राप्त हो चुकी हैं को ८॥ बजे अग्रवाल मन्दिर के शास्त्र भण्डार को देख १ पुण्याथव कथा कोश हि० गद्य र० काल सं० १७७७ रहे थे तब एक गट्ठर में कुछ बिखरे हुए पत्र दिखाई दिये। २ क्रिया कोश भाषा हि० पद्य , , १७९५ सभी विखरे हुए. पत्रों को इकठ्ठ कर उन्हें क्रम से लगाया ३ अध्यात्म वारहखडी , ,, १७६८ गया तब ज्ञात हुआ कि यह पं० दौलतरामजी कृत जीवं४ पद्मपुराण भाषा हिं० गद्य १८२३ धर चरित्र की मूल पाण्डु लिपि है । यह प्रति स्वयं ग्रंथकार ५ आदिपुराण भाषा के द्वारा स्थान स्थान पर संशोधित को हुई है। इस ग्रंथ ६ हरिवंश पुराण की रचना उदयपुर में इसी मन्दिर में बैठकर की गई थी। ७ पुरुषार्थ सिध्युपाय " , १८२७ रचना क्योंकर हुई ८ वसुनन्दिश्रावकाचार १८१८ पं. दौलतराम जी बसवा (जयपुर) के निवासी थे। परमात्म प्रकाश इनके पिता का नाम अानन्दराम था एवं इनका गोत्र १० श्रीपाल चरित्र कासलीवाल था । ये प्रारम्भ में वकील (मुस्तार) थे तथा ११ श्रेणिक चरित्र जयपुर महाराज के सेवक थे। इनकी रुचि धर्म की मोर १२ तत्वार्थ सूत्र (टव्वा टीका), अच्छी थी अतः महाराजा जयपुर ने इन्हें महाराणा उदय१३ सारसमुच्चय पुर की सेवा में कुछ दिनों के लिए भिजवा दिया। ये महा राणा के पास रहने लगे तथा वहाँ इनका धान मन्डी के में की जा सके। जयसेन प्रतिष्ठापाठ के अशुद्ध छपने के अग्रवाल मन्दिर में शास्त्र प्रवचन होने लगा। इन्होंने वहां कारण उसमें प्रतिष्ठा विधि का कोई स्थल संदेहजनक प्रतीत हो और वह स्थल अन्य प्रतिष्ठा ग्रन्थों में योग्य महापुराण (संस्कृत) की स्वाध्याय भी की । उसमें जीवं. दीखे तो उसका उपयोग अन्य प्रतिष्टाग्रन्थों से कर लेने में धर स्वामी का वर्णन पाया। उसे सुनकर कालाडेहरा के भी कोई हर्ज नही है ऐसी हमारी समझ है। श्री चतुरभुजदास अग्रवाल, पृथ्वीराज एवं सागवाड़ा निवासी मने यह लेख विचारशील विद्वान प्रतिष्ठाचार्यों के सेठ बेलजी हैबड ने इनसे हिन्दी में जीवंधर कथा लिखने परामर्श के अर्थ प्रस्तुत किया है। ग्राशा है, वे गंभीरता का अनरोध किया। उन्हीं की प्रेरणा से प्रापाढ़ सुदी २ से इस पर विचार करेंगे । मैंने यहाँ जो कुछ लिखा है वह - सुझाव की दृष्टि से लिखा है। यदि इसमे मैंने कहीं भूल १ जैन साहित्य संस्थान जयपुर की ओर से प्रकाशित की हो तो वे मुझे बताने की कृपा करेंगे । २ देखिये बीर वाणी वर्ष २ अंक २-३
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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