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________________ जयसेन प्रतिष्ठापाठ की प्रतिष्ठाविधि का अशुद्ध प्रचार फिरल १ मुद्रित जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में प्रशुद्धियां आगे हम छपा हुआ जयसेन प्रतिष्ठापाठ जो इस वक्त प्रचार में श्रा रहा है उसके बाबत लिखते हैं आज से ३६ वर्ष पहले इस पाठ को सेठ हीराचंदजी नेमीचंदजी दोशी सोलापुर वालों ने उपाया था। इसके यागमंडल पूजविधान में अन्य प्रतिष्ठा ग्रथों की तरह रागी द्वेषी देवों को कतई आराधना नहीं है। उसमें पंच परमेष्ठी सम्बन्धी पूजविधान लिखा है । अन्यत्र भी जहां तहां इसमें देव शास्त्र गुरु की ही आराधना लिखी है तथा इसमें अन्य प्रतिष्ठा पंचों की तरह किसी भी विधान में गोमय गोमूत्र का उपयोग नहीं किया है इत्यादि कारणों से यह प्रतिष्ठा पाठ अपनी खास विशेषता रखता है और अधिकतथा श्रद्धा का पात्र बना हुआ है। किन्तु इस प्रतिष्ठा पाठ में कही । कही हमें अशुद्धियाँ नजर आती हैं। खासकर वेधुि जो मुख्यतया प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्ध रखती है उन पर अवश्य ही ध्यान दिया जाना चाहिये इसलिये यहाँ हम दूसरी अशुद्धियों को छोड़कर प्रतिष्ठा विधि सम्बन्धी अशुद्धियों का ही उल्लेख करते हैं (१) पृष्ठ ११७ के श्लोक ३३८ में कहा है--- आचार्येण सदा कार्य क्रियां पश्चात् समाचरेत् । श्री मुखोद्घाटने नेत्रोन्मीलने कंकणोज्झने । पद्याचार्यको श्रीमुखोद्बाट नेत्रोन्मीलन प्रौर कंकणमोचन में सदा मातृकान्यास करना चाहिये। फिर अन्य प्रिया करनी चाहिये। तथा पृष्ठ १३६ में मंत्र नं० २५ वां इस प्रकार है"नमोर्हते भगवतेऽईते सद्य सामायिकप्रपन्नाय कंकणमपनयामि स्वाहा।” दीक्षास्थापनमंत्रः । यही मंत्र प्रशाधर प्रतिष्ठा पाठ में भी भगवान् के दीक्षाग्रहण में लिखा है। इस प्रकार जयसेनप्रतिष्ठापाठ में उक्त दो स्थानों में कंकण दूर करने का उल्लेख किया है । परन्तु ग्रंथ भर मे कहीं भी किसी भी विधान में जिनबिंव के कंकण बांधना नहीं बताया है तथा पृष्ठ १३६ में " अठ्ठबिहकम्ममुक्का " श्रादि ३८ व मंत्र मुखोद्घाटन का दिया है जिसे अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों में कंकणबंधन का मंत्र लिखा है। मगर जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के पृष्ठ २०३ में जहां कि मुखोद्घाटन किया का वर्णन किया है वहां यह मंत्र न देकर अन्य ही वह मंत्र १८ लिखा है जो अन्य प्रतिष्ठा ग्रंथों में पाया जाता है। इस प्रकार इस विषय में जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में खास गडबड नजर भाती है। (२) पृष्ठ १३५ पर नं० ३०, ३१, ३२ के तीन मंत्र दिये हैं दरसल ये तीन मंत्र नहीं है। तीनों का मिलकर एक ही मंत्र है और उसका नाम जियमंत्र है। यही जिनमंत्र प्रशाधर प्रतिष्ठा पाठ के पत्र ६६ पर लिखा है । इस मंत्र का उपयोग जन्म कल्याणक में किया जाता है। जयसेन प्रतिष्ठा पाठ पृ० २५६ में इसे जन्म कल्याणक की विधि । में लिखा भी है वहां इसके दो मंत्र बना दिये हैं। इस तरह एक ही मंत्र जिनमंत्र को कहीं मंत्रों में विभाजित कर लिखना, कहीं दो मंत्रों में लिखना साफ ग्रंथ प्रांत की प्रशुद्धता को प्रकाः करता है। । (३) १० १३६ ० ३६ और १७ के दो तिलक मंत्र लिखे है । किन्तु पृ० २७८ में जहां कि तिलक विधि का वर्णन किया है वहाँ जो तिलक मंत्र लिखा है वह उक्त दोनों ही तिलक मंत्रों से भिन्न है यह भी इस ग्रंथ की प्रशुद्धि को सूचित करता है । (४) दीक्षा कल्याणक में एक संस्कार मालारोपण की विधि की जाती है। इस विधि का मतलब ऐसा हैं। कि भगवान् की मुनि अवस्था में पंचाचारों के पालन करने से उत्पन्न होने वाली मात्मा की विशुद्ध-अवस्था विशेष के ४८ भेद करके उन भेदों को ही यहां अलग-२ प्रड़तालीस संस्कार बना दिये हैं । उन संस्कारों को प्रतिमा में प्रारोपण करना यही पंचसंस्कारारोपण विधि कहलाती है । इन संस्कारों में से ११व संस्कार जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में पृ० २७२ पर 'शीलसप्तक' नामका लिखा है । यह नाम बिल्कुल गलत मालूम देता है। क्योंकि तीन गुण व्रतों और चार शिक्षाव्रतों को 'शीलसप्तक' कहते हैं जो श्रावक व्रतों के अन्तर्गत है । यहाँ मुनि अवस्था में यह संस्कार कैसा ? प्राशावर प्रतिष्ठा-पाठ में इस नामका कोई अलग संस्कार नहीं है । वहाँ हवें संस्कार का नाम " त्रियोगासंयमच्युतेः शीलन" है जिसका अर्थ होता है त्रियोग के द्वारा असंयम से अलग रहने का स्वभाव । जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में इसी को दो नामों से लिख दिया है- त्रियोगेनसंयमाच्युत्ति और शीलसप्तक ऐसा लिखने
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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