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क्या व्याख्या प्रज्ञप्ति षदखराक्षागम का टीका ग्रंथ था?
लेखक-श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में सिद्धान्त-प्रन्थ-पट् खण्डागम ४८ हजार श्लोक प्रमाण संस्कृतटीका रची । उसके पश्चात् और कषायप्राभूत तथा उनकी टीकामों के निर्माण का बप्पदेव गुरु हुए। उनके सम्बन्ध में श्रुतावतार में इस प्रामाणिक इतिवृत्त दिया गया है। तदनुसार ये दोनों ही प्रकार लिखा हैसिद्धान्त ग्रंथ कुण्डकुन्दपुर में श्री पद्मनन्दि मुनिको (कुन्द- अपनीय महाबन्धं षट् खण्डाच्छेष पञ्च खण्डे तु । कुन्दाचार्य को) ज्ञात हुए और उन्होंने षट्खण्डागम के व्याख्याप्रज्ञप्तिं च षष्ठं खण्डं ततः च संक्षिप्य ॥१७४॥ पाच तीन खण्डों पर परिकम नामक ग्रन्थ रचा। उसके षण्णां खण्डाना मिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य । पश्चात् कितना ही काल बीतने पर शामकुण्डाचार्य ने दोनों प्राभूतकस्य च षष्ठि सहस्रग्रंथ प्रमाण युताम् ॥१७५।। सिद्धान्त ग्रन्थों को जानकर महाबन्ध नामक छठे खन्ड को व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक् पुरातनव्याख्याम् । छोड़कर शेष षट्खण्डागम तथा कषायप्राभूत पर प्राकृत
अष्टसहस्रग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ।।१७।। संस्कृत और कर्णाटक भाषा में पद्धति रूप टीका रची। इन श्लोकों का अर्थ इस प्रकार किया जाता है
फिर तुम्बलूराचार्य ने छठे महाखण्ड को छोड़ कर बप्पदेव ने महाबन्ध को छोड़कर शेष पांच खण्डों पर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर कर्णाटक भाषा में चौरासी हजार व्याख्याप्रज्ञप्ति' नाम की टीका लिखी। तत्पश्चात् श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक व्याख्या रची और छठे उन्होंने छठे खण्ड की संक्षेप में व्याख्या लिखी। इस प्रकार खण्ड पर सात हजार श्लोक प्रमाण पञ्चिका रची। फिर छहों खण्डों के निष्पन्न हो जाने के पश्चात् उन्होंने कषायसमन्तभद्राचार्य ने षट् खण्डागम के पाद्य पांच खण्डों पर प्राभत की भी टीका रची। उन पांचों खण्डों और कषायत्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मी
प्राभूत की टीका का परिमाण साठ हजार और महाबन्ध प्रभुत्व • शक्तेरपवादहेतुः ॥
की टीका का पांच अधिक आठ हजार था और इस सब अर्थात् हे भगवन् तुम्हारे शासन का दुनिया में एक रचना की भाषा प्राकृत थी'। (षट् खण्डागम १ पु. की छत्र प्राधिपत्य क्यों नहीं होता। उसके तीन कारण हैं। प्रस्तावना पृ० ५२) एक कारण कलिकाल, दूसरा थोताओं का कलुष आशय साधारणतया उन श्लोकों का भाव ठीक प्रतीत होता और तीसरा वक्ताओं का अच्छी तरह तुम्हारे शासन का है किन्तु प्रारम्भ के श्लोकों से उक्त अर्थ व्यक्त नहीं होता प्रतिपादन न कर सकना।
पहले और दूसरे श्लोकों का अर्थ इस प्रकार होता हैहमें आज प्राचार्य समन्तभद्र के अंतिम हेतु पर ध्यान (षट् खण्डात्) षट् खण्ड रूप भागम से (महाबन्धं अपदेना है; क्योंकि जैन शासन के प्रसार के लिए यही हमारे नीय) महाबन्ध को अलग करके (शेष पंच खण्डेतु) शेष वश की चीज है । स्वयं आचार्य महाराज का जोर भी इसी पाँच खण्डों में (ततः व्याख्या प्रज्ञप्तिं च षष्ठं खण्डं संक्षिप्य) पर है। हमें पाज ऐसे वक्ता एवं लेखक तैयार करने की उसके बाद व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक या व्याख्याप्रज्ञप्ति रूप जरूरत है जो जैनत्व का मौलिक रूप जन-मानस के सामने छठे खण्डों को उसमें मिलाकर (इति निष्पन्नानां षण्णां रख सकें; जिनकी वाणी में उनका पात्मा भी बोल रहा खण्डानाम्) इस प्रकार से तैयार हुए छहों खण्डों की हो और जो तप दृष्टि की यथार्थता को स्वयं समझते हए (तथा कषायाख्य प्राभृतकस्य च) और कषाय प्राभूत की निर्भयतापूर्वक तत्व-प्रतिपादन कर सकें। इस महान कार्य (षष्ठि सहस्र ग्रन्थ प्रमाणयुताम्) साठ हजार श्लोक प्रमाण की ओर जितना जल्दी हमारा ध्यान जाय उतना ही सहित (प्राकृत भाषा रूपा पुरातन व्याख्यां सम्यक् व्यालिअच्छा है।
खत्) प्राकृत भाषा रूप प्राचीन व्याख्या को सम्यक् रूप