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________________ किरण ६ • कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन ग्रंथ की अंतिम गाथाओं (४८९-९१) में उन्होंने पंच कुमारों ( वासूपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व और महावीर इन पांच बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकरों) की स्तुति की है और अपना नाम स्वामी कुमार लिखा है जिससे अनुमान होता है कि बे स्वयं सदा कुमार (बाल ब्रह्मचारी) ही रहे हों। स्वामी विशेषण तो सम्मानार्थ जोड़ा गया होगा। भंडार कर इंस्टीट्यूट पूना वाली सबसे प्राचीन प्रति के अन्त में स्वामी कुमार और आदि में कार्तिक का नामोल्लेख है। कुमार के लिए कार्तिकेय का प्रयोग सर्व प्रथम इसके टीकाकार शुभ चन्द ने ही किया है, जो कुमार और कार्तिकेय को समानार्थक समझते होंगे. इसीलिए इसके कर्ता का नाम कार्तिकेय प्रसिद्ध हो गया । पर शुभचन्द्र ने ऐसा कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उन्होंने कुमार को कार्तिकेय कैसे लिखा है । कार्तिकेय के संबंध में शुभचंद ने ३६४ वीं गाथा में लिखा है कि वे क्रौंचराज का उपसर्ग सह कर साम्यभाव से स्वर्ग सिधारे । कथा कोश में भी ऐसा उल्लेख है । भगवती प्राराधना की १५४६ वीं गाथा भी इसी श्राशय की द्योतक है। इसी प्रसंग में संथारंग (Samtharaga) की ६७ – ६६ गाथाएं विशेष महत्व की हैं । "जल्लमल पंकधारी आहारो सीलसंजमगुणाणं, अज्जीरणो य गीम्रो कत्तिय श्रज्जो सुरवरम्मि । रोहीडगम्मि नयरे आहारं फासूयं गवेसंतो कोवेण खत्तियेण य भिन्नो सत्तिप्पहारेणं । एगन्तमणावाए विस्थिपणे थंडिले चहय देहं सो वि तह भिन्नदेहो पडिवन्नो उत्तमं प्रट्ठ ।।” स्वामि कार्तिकेय का जीवन-परिचय हरिषेण, श्रीचन्द प्रभाचन्द्र नेमिदत्त आदि आचार्यों ने लिखा है पर किसी ने भी यह उल्लेख नहीं किया कि "वारस अनुवेक्खा" के कर्ता स्वामी कार्तिक या कार्तिकेय ही हैं और ना ही उनका कुमार से कोई सम्बंध स्थापित किया है। अतः यह सुनिश्चित है कि प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता स्वामी कुमार ही हैं भले ही टीकाकार शुभचन्द्र ने सामानार्थक समझ इसे कार्तिकेय का रूप दिया हो पर इस संबंध में कोई तथ्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं है ? स्वामि कुमार का समय - स्वामिकुमार ने अपनी २४६ "वारसद्मनुप्रेक्षा" में अपने किसी समकालीन या उत्तराधिकारी का नामोल्लेख नहीं किया है जिससे हम उनका समय निश्चित कर सकें, फिर भी अन्तरंग या बाह्य साक्ष्यों के के आधार पर कुछ थोड़ा सा प्रयत्न उनके काल - निर्णय के बारे में करेंगे । I शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका सं० १६१३ में पूर्ण की। II कार्तिकेयानुप्रेक्षा की सबसे प्राचीन प्रति सं० १६०३ की उपलब्ध होती है। III श्रुतसागर जो १६वीं ई० सदी के प्रारम्भ में हुए थे, ने अपनी दंसणपाहुड 8 की टीका में कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ४७८वीं गाथा का उल्लेख किया है । IV ब्रह्मदेव, जो १३वीं ई० सदी में हुए थे, वे भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ४७ = वीं गाथा का प्रथमचरण "परमात्मप्रकाश" II ६८ की टीका में उद्धृत किया है। अतः निश्चित होता है कि स्वामिकुमार १३वीं ई० सदी से पूर्व तो हुए ही होंगे । I स्वामिकुमार के बारह अनुप्रेक्षाओं के वर्णन पर कुन्दकुन्द, शिवार्य, और बट्टकेर का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है । अतः स्वामिकुमार का समय उनके बाद ही ठहरता है । II पर अनुप्रेक्षाओं का नाम क्रम कुन्दकुन्द आदि प्राचार्यो के अनुरूप न रखकर तत्त्वार्थं सूत्र के अनुसार रखा है अतः तत्वार्थ सूत्र के कर्त्ता से भी विशेषतया प्रभावित प्रतीत होते हैं । III पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि के कुछ भाव स्वामी कुमार की गाथाओं में मिलते हैं। IV कार्ति केयानुप्रेक्षा की २७वीं गाथा योगसार के ६५वें दोहे से बिल्कुल ही मिलती-जुलती है। जिसे योगिन्दु ने छटी ई० सदी के लगभग लिखा था । कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ३०७वीं गाथा गोम्मटसार जीवकांड की ६५१वीं गाथा से मिलतीजुलती है । शुभचन्द ने अपनी टीका में भी गोम्मटसार की कई गाथाओं का उल्लेख किया है । अतः मेरी कल्पना है कि स्वामिकुमार गोम्मटसार के कर्त्ता नेमिचन्द्राचार्य के पश्चात् हुए हों, जो ईसा की १०वीं सदी के पश्चात् तथा ई० १३वीं सदी के पूर्व के आस-पास कहीं निश्चित होता है । सम्भव है भावी अनुसंधित्सु इस ३०० वर्ष लम्बी कालावधि को कुछ छोटा कर सकें। इसके अतिरिक्त कुछ और भी तथ्य प्राप्त होते हैं पर सुनिश्चित प्रमाणों के प्रभाव में वे उपादेय नहीं गिने जा सकते । शुभचन्द और उनकी टीका – कार्तिकेयानुप्रेक्षा के
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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