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________________ राजा हरसुखराय लेखक - श्री परमानन्द शास्त्री दिल्ली के धर्मपुरा का विशाल जैन मन्दिर राजा हरसुखराय के उदात्त परिणामों का फल है। यह मन्दिर कलात्मक सुन्दर और ऐतिहासिक दृष्टि से दिल्ली के उपलब्ध सव मन्दिरों से महत्वपूर्ण है । वेदी की नक्कासी का कार्य अनुपम है । एक समय था जब दिल्ली के बादशाह ने हिसार से लाला हुकूमतराय को (जो उस समय वहाँ प्रतिष्ठित नागरिक और शाही श्रेष्ठी कहे जाते थे) दिल्ली बुलवाया, और उन्हें स-सम्मान रहने के लिए शाही मकान प्रदान किया । लाला जी के पांच पुत्र थे, हरसुखराय, मोहनलाल संगमलाल, सेवाराम और तनसुखराय । इनमें हरसुखराय सब में ज्येष्ठ, गंभीर और बात बनाने की कला में अत्यन्त निपुण, मिठबोला एवं कम बोलते थे । दिल्ली में आबाद होने के थोड़े ही दिन बाद उनकी केवल श्री वृद्धि ही नहीं हुई; किन्तु लोक में उनकी प्रतिष्ठा और गौरव भी बढ़ा। उनका गौर वर्ण, लम्बा कद और पतला दुबला बदन, पाय १६ पद -- शरद की रयनि सुन्दर सोहात १७.,, - - सुंदरी सकल सिंगार करे गोरी १८. - कहा थे मंडन करूं कजरा नेन भरूं १६. सुनो मेरी सपनी धन्य या रयनी रे 37 २०.,, - थडो नीहालती रे पूछति सहे सावननी बाट २१. रात्री ? को मिलावे नेमि नरिंदा २२,, - सखीरी ? नेमि न जानी पीर " २३.,, -. वदेहं जनता दारण - २४. " श्रीराग गावत सुर किन्नरी २५, श्रीराग गावत सारंग धरी २७.,, २६.,, - आजू याली आये नेमि तो साउरी --बली बंधोका न वरज्यो अपनो 1- आजो रे सखि सामलियो, बहानो रथ परि रूडो भावेरे । २८.,, जामा, कुर्ती और पगड़ी शाही लिबास में जिन्हें पहिचानना कठिन हो जाता था। उनकी दरबारी पोशाक उन्हें जैन बताने के लिये सर्वथा असमर्थ थी । वे अधिक बोलना भी पसन्द नहीं करते थे, पर जो कुछ भी बोलते थे उसमें इतनी सावधानी जरूर रखते थे कि उससे किसी का महित न हो जाय । उत्कर्ष के दिन इन्होंने सन् १७६१ वि० सं० १८४८ में साहूकारे की एक कोठी लाला सन्तलाल जी के साझे में खोली । लाला सन्तलाल जी अग्रवाल पानीपत के निवासी थे, वहां से प्राकर किसी समय दिल्ली में बसे थे। बादशाह की ओर से उन्हें भी शाही मकान दिया गया था, जो आज भी उनके कुटुम्बियों के पास सुरक्षित है । कोठी खुलने के कुछ ही समय बाद ला० हरसुखराय श्री सन् १७६५ ( वि० सं० १८५२ मे ) शाही खजांची बना दिये गए। खजाची का कार्य इन्होंने बड़ी दूरदर्शिता और २९. पद - गोखिचडी जू ए राजुल राणी नेमिकुमर वर श्रावेरे । ३०.,, - आवो सोहामणी सुदरी वृन्द रे, पूजिये प्रथम जिणंदरे । ३१.,, -- ललना समुद्र विजय सुत साम रे, यदुपति नेमि कुमार हो । ३२.,, -- -सुणि सखि राजुल कहे हई हरप न माप लालरे ३३.,, - सशधर वदन सोहाणी रे, गजगामिनी गुणमालरे ३४., वाणारसी नगरी नो राजा अश्वसेन गुण धार रे श्री जिन सनमति अवतरचा ना रंगी रं ३६.,, - नेमि जी दयालु रे तू तो यादव कुल सिणगाररे ३५. ३७.,, कमल वदन करुणा निलयं सुदर्शन नाम के मैं बारि जैन साहित्य शोध संस्थान की ओर से प्रकाशित । 25. "
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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