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________________ मोम् अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिडजात्यन्धसिन्धरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ wwwAARAAAAAAAAAAAAAAImmmmmmmmmmmmmmmmons वर्ष १५ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६ अक्टूबर किरण,४ प्राश्विन शुक्ला १२, वीर निर्वाण सं० २४८८, विक्रम सं० २०१६ ( सन् १९६२ HARIRImmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmAAAAAAAIIIIImmummmIIIIRamew ___चतुर्विंशति तीर्थकर-जयमाला [इस तीर्थंकर-जयमाला स्तवन के कर्ता ब्रह्म जीवंधर हैं, जो माथुरसंघ विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक यशःकीति के शिष्य थे। आप संस्कृत और हिन्दी भाषा के योग्य विद्वान् थे । आपकी अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिन्हें अवलोकन करने से उन पर गुजराती भाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है। उनकी रचनाओं में गुणस्थानवेलि, खटोलारास, अॅबुक गीत श्रुतजयमाला, नेमिचरित, सतीगीत, तीन चौबीसी स्तुति, दर्शन स्त्रोत्र, ज्ञान-विराग-विनती, पालोचना, बीस तीर्थकर जयमाला और चौबीम तीर्थकर जयमाला प्रसिद्ध हैं । इनमें अन्तिम रचना संस्कृत पद्यबद्ध रचना है, जो चौबीस तीर्थकरों की स्तुति को लिये हुए है। पद्य सुन्दर और सरल हैं। यह मूल रचना पं० दीपचन्द जी पांड्या केकड़ी को टोंक राजस्थान शास्त्र भंडार से प्राप्त हुए एक जीर्ण गुच्छक पर से संगृहीत की गई है । ब्रह्म जीवंधर विक्रम की १६वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान् है। इन्होंने सं० १५६० में वैशाख वदी १३ सोमवार के दिन भट्टारक, विनयचन्द की स्वोपज्ञ चूनड़ी टीका की प्रति लिपि अपने ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। इससे वे १६वी शताब्दी के विद्वान् निश्चित होते हैं। -परमानन्द जैन] त्रिशद्धिश्चतुरुत्तररतिशयः सत्प्रातिहार्याष्टभिइंष्टि-ज्ञानसुवीर्यसौख्यविशदरेतैरनन्तः परैः। ये रम्याष्टसहस्रलक्षणयुतैरेभिःसमस्तैर्गुणः पूर्णा मय॑सुराऽसुरेन्द्रविनुतास्ताम्तीर्थनाथान् स्तुवे १ वृषभं वृषचक्राङ्कितदेहं नाशितवस्तुविषयसन्देहम् । अजितं जितमन्मथरिपुमानं कृतशाश्वतसौख्यामृतपानम् ॥
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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