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________________ २९ भगवान सहावीर का जीवन चरित जीवनचरित का लेखनकार्य और निज के जीवन का असं थी कि चार-पांच श्रद्धालु व्यक्तियों के साथ उन तीर्थयम, ये दोनों चीजें साथ-साथ कदापि नही चल सकतीं। स्थानों की पैदल-यात्रा करूंगा, जहां भगवान ने विहार मैं उक्त जीवनचरित को किसी परोपकार की भावना मे किया था। आज वायुधान और मोटर के युग मे ऐसी नहीं लिखना चाहता था। महाकवि अकबर की वे पंक्तियां यात्रा का मजाक भी उठाया जा सकता है, पर यह तो मुझे बहुत पसन्द है जिनमें उन्होंने लिखा था-मैं अपनी-अपनी भावना का प्रश्न है। ऐसी यात्रा में पाठअपने और दूसरे शायरों में कुछ अन्तर पाता हूँ, वे कविता पाठ मील पर पड़ाव डाला जा सकता है और वायु-सेवन का साज-शृंगार करते है और मैं कविता द्वारा अपने को के साथ-साथ अहिसा, अपरिग्रह इत्यादि विषयों पर बातसंवारता है। चीत हो सकती है। उन संवादों को फिर सीधी-साधी "सकुन उनसे संवरता है, सकुन से मैं संवरता हूँ" जबान में लिखा जा सकता है। मझे भगवान के जीवनचरित में जो बातें अत्यन्त भाषा की सादगी के मामले में महावीर सबसे प्रथम पाकर्पक जंचती हैं वे है उनकी हद दर्जे की अहिंसा, क्रान्तिकारी थे । बहत बरस पहले श्री महेन्द्रकुमारजी का नितान्त अपरिग्रह और स्वावलम्बन की असीम भावना। लेख इस बारे में मैंने पढ़ा था। पर दिल्लगी की बात यह एक बार मैंने अपने एक बौद्ध बन्धु से कहा था-"भग- है कि जैन पंडितों की भाषा सबसे ज्यादा मुश्किल होती वान गौतम बुद्ध ने यह आदेश देकर कि जो मांस खासतौर है। पांडित्य का प्रदर्शन तो हमें करना नही-पांडित्य अपने पर तुम्हारे लिए न पकाया गया हो, उसे तुम ग्रहण कर पास है ही नही, इसलिए उसका प्रदर्शन भी एक प्रकार सकते हो, एक ऐसा समझौता किया कि जिसके परिणाम- काग जा माण स्वरूप हिसा बढ़ी ही, घटी हगिज नहीं।" मैंने यह बात ज्यों-की-त्यों लिख देनी है पालोचना की दृष्टिी से नहीं कही थी। भगवान गौतम आप जानते ही है कि मेरा यह स्वप्न नया नही । न बुद्ध के प्रति मेरी अत्यन्त श्रद्धा रही है। पर अपनी क्षुद्र जाने कितने बरसो से यह मेरे मन में चक्कर काटता रहा बुद्धि के अनुसार अपनी स्पष्ट सम्मति न कहना भी कायरता है, पर मैं जैनियों के "काललब्धि" के सिद्धान्त का कायल है, एक प्रकार का अधर्म है। हूं। बरसों का यह स्वप्न अभी तक पूरा नहीं हो सका, परिग्रह तो आज के युग का सबसे बड़ा पाप है और इसमें मैं अपनी साधना की कमी ही मानता हूँ। मेरा यह दुर्भाग्य की बात यही है कि हम लोग विशेषतः जैन दृढ विश्वास है कि कोई-न-कोई साधक कभी-न-कभी इसे समाज-इरा पाप की भयंकरता को नहीं समझते। अवश्य पूरा करेगा। आध्यात्मिक स्वावलम्बन ही भगवान की सबसे बड़ी देन है । अपनी साधना मे उन्होने देवतामों की मदद को धर्म संस्थापकों की स्मृति की रक्षा वही लोग करते है, जो उनके सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारते है और बिल्कुल अस्वीकार कर दिया था। सहिष्णुता की तो उनमें । पराकाष्ठा थी ही और आज का पंचशील पाखिर है इस दृष्टि से उन महानुभावों के भी रेखाचित्र तैयार करने चाहिए, जिन्होंने अपना समय और शक्ति महावीर के क्या ? अनेकान्त या स्याद्वाद की आधुनिक राजनैतिक सिद्धान्तों को कार्यरूप में परिणित करने में खपा दिया, भाषा में विस्तृत व्याख्या ही तो है। फिर वे चाहे जिम मुल्क के हो, चाहे जिस मजहब के महावीर के जीवन की मूल शिक्षायों को अपने जीवन __ मानने वाले हों, चाहे प्राचार्य हरिभद्र सूरि हों या खान में यथाशक्ति उतारने की उत्कट अभिलाषा यदि किसी अब्दुल गफ्फारखां। लेखक के मन में हो तो उसे इस यज्ञ के प्रारम्भ करने की प्रथम परीक्षा में पास होने लायक नम्बर तो मिल ही विस्तृत जीवनचरित की बात छोड़कर फिलहाल एक सकते है । संस्कृत तथा अर्द्धमागधी के विद्वानों का सहयोग ट्रेक्ट-सौ सवा सौ पन्नों का-अहिसा की परम्पराऐसे महान कार्य में लेना ही पड़ेगा। मैने कभी कल्पना की पर क्यों न निकाला जाय ।
SR No.538015
Book TitleAnekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1962
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size18 MB
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